बुधवार

आज के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक

आज के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय 
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।

आज भी इस दोहे को पढ़ते हुए गुरु की महत्ता का अहसास होता है, ऐसा महसूस होता है कि सचमुच गुरु का स्थान कितना श्रेष्ठ है! इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती की गुरु समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है। बच्चा सर्वप्रथम अपनी माता से सीखता है तत्पश्चात् गुरु से। शिक्षा ही बच्चे का जीवन आधार होता है, उसे जैसी शिक्षा, जैसी दिशा दी जाती है वह उसी के अनुरूप ढल जाता है और अपना भविष्य साकार करता है। इसीलिए गुरु को इतना सम्माननीय माना गया है। शिष्य के लिए गुरु न सिर्फ शिक्षण काल में बल्कि सदैव पूजनीय रहा है।
परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में यह मान्यता धूमिल होती जा रही है, बल्कि ये कहूँ कि लगभग समाप्त हो चुकी है तो गलत नहीं होगा। इसका जिम्मेदार कोई एक व्यक्ति या संस्था नहीं बल्कि पाश्चात्य सभ्यता का बढ़ता प्रभाव है। अब न गुरु हैं न शिष्य। आजकल सिर्फ शिक्षक और शिक्षार्थी रह गए हैं, अब शिक्षा खरीद-फरोख़्त की सामग्री मात्र बनकर रह गई है। पाश्चात्य सभ्यता से होड़ ने हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं को भी आहत किया है, आज के शिष्य अर्थात् छात्र के मन में गुरु के प्रति सम्मान नहीं बल्कि क्रेता की भावना होती है, शिक्षक तो स्वयं को संस्था का वैतनिक कर्मी मानकर शिक्षा देना अपना धर्म समझ छात्रों को अधिक से अधिक ज्ञान देने का प्रयास करता है परंतु आज के छात्र इस बात को भूल जाते हैं वो शिक्षा ग्रहण करने अर्थात् लेने आए हैं और लेने वाले का हाथ सदैव देने वाले के हाथ के नीचे ही होता है। अधिकतर छात्र इस अहंकार से ग्रस्त होते हैं कि वो फीस देते हैं इसीलिए वो अपनी पसंद से पढ़ेंगे यानि वो शिक्षक को शिक्षक न समझ अपना व्यक्तिगत कर्मचारी समझ लेते हैं। परंतु मेरे विचार से इन सबमें छात्र निर्दोष ही होते हैं, क्योंकि उन्हें सही-गलत अच्छे-बुरे का ज्ञान देना सर्वप्रथम माता-पिता तत्पश्चात् शिक्षक का कार्य है। 
पाश्चात्य देशों से होड़ ने हमारी शिक्षण शैली को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया है, सी०बी०एस०ई० ने अपनी शिक्षण पद्धति परिवर्तित कर दिया तथा संस्थाओं और शिक्षकों पर अनेकानेक प्रतिबंध लगा दिया। उसने भी सिर्फ एक ही पक्ष यानि छात्र का पक्ष देखा शिक्षक का नहीं, परंतु इससे अंततः हानि तो छात्र की ही होती है। अब छात्रों को डाँटना भी वर्जित है तो किसी भी संस्था को क्या पड़ी है कि वो किसी छात्र को दबाव देकर सिखाने का प्रयास करे और फिर छात्र न जाने किस बात का क्या बतंगड़ बना कर शिक्षक पर आरोप लगा दे, इससे न सिर्फ शिक्षक की बल्कि संस्था की भी छवि खराब होती है। यही कारण है कि शिक्षक और शैक्षणिक संस्थाएँ दोनों ही अपना दामन बचाते हुए अपने कार्य करते हैं किंतु चाहते हुए भी शिक्षक छात्रों को उतना कुछ नहीं दे पाता जितना कि वह देने योग्य होता है।

'गुरु-गोविंद...' के ही समान एक यह दोहा भी बहुत प्रचलित है...
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट
भीतर ते आलंभ देत, बाहिर मारे चोट।'

किंतु बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज के परिप्रेक्ष्य में ये दोनों ही दोहे अपना अस्तित्व खो चुके हैं। भीतर से सहारा देकर बाहर से सख्ती का प्रदर्शन करना आज के शिक्षक के लिए बहुत भारी पड़ सकता है। यदि शिक्षक थोड़ी सख्ती से छात्र को डाँट भी दे तो आज का आधुनिक छात्र स्वयं को अपमानित महसूस करता है और बदले की भावना से ग्रस्त हो जाता है। परिणामस्वरूप वह अपने माता-पिता के समक्ष बात को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करता है। प्राचीन काल में तो चक्रवर्ती सम्राट भी अपने पुत्रों को गुरु को सौंप देते थे और फिर पूरे शिक्षण-काल के दौरान हस्तक्षेप नहीं करते थे, गुरु भी पूर्ण समर्पण से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते थे और राजपुत्रों में गुरु के प्रति अहंकार नही पनपता था। किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में माता-पिता अपने पुत्र के द्वारा शिकायत सुनते ही यह भूल जाते हैं कि उनका पुत्र एक छात्र है और शिक्षक उसका गुरु। वह सिर्फ इस भावना के वशीभूत होते हैं कि वो फीस देते हैं, सत्य जानने का प्रयास भी नहीं करते और पुत्र को समझाने की बजाय वह कहते हैं कि शिक्षक का साहस कैसे हुआ कि उसने उनके पुत्र के प्रति सख्ती दिखाई। परिणामस्वरूप शिक्षक को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसी परिस्थिति में चूँकि शिक्षक के पास अपने निर्दोष होने का कोई प्रमाण नहीं होता, संस्था भी अपना दामन साफ रखने के प्रयास में या यूँ कहूँ कि सिर्फ एक छात्र से होने वाली आय को खोने के भय से शिक्षक का साथ नहीं देती। 

जहाँ शिक्षण संस्थाएँ प्रसिद्धि में एक-दूसरे से आगे निकलने और अधिकाधिक कमाने की होड़ में अधिकाधिक क्रियात्मकता दिखाने, सोशल मीडिया पर स्वयं को आग्रणी दिखाने और अधिक से अधिक प्रदर्शन करने के लिए शिक्षकों पर दिन-प्रतिदिन कार्यभार बढ़ाती जा रही हैं, वहीं शिक्षक का सम्मान और उसका अपना व्यक्तिगत जीवन पूर्णतया समाप्त होता जा रहा है। आज का शिक्षक (मुख्यतः पब्लिक स्कूलों का) यदि सुबह सात बजे से दोपहर तीन-साढ़े तीन बजे तक स्कूल में कमरतोड़ मेहनत करता है तो विद्यालय से घर आते वक्त कम से कम दो-तीन घंटे और कभी-कभी तो इससे भी ज्यादा का कार्य घर पर करने के लिए लेकर आता है। रविवार या अन्य अवकाश तो अब महज नाम के लिए रह गए हैं, यदि एक अच्छा शिक्षक बनना है तो 24×7 काम करना होगा, यही आज के शिक्षण-पद्धति की माँग है। 
वर्तमान छात्र शिक्षक की इन सभी परिस्थितियों से पूर्णतया भिज्ञ होते हैं अतः इसी कारण मुझसे अभी हाल ही में किसी छात्र ने पूछा- "मैडम आज के समय में शिक्षक की दशा को देखते हुए कोई एकाध ऐसा पहलू या कारण है जिससे आज का छात्र भविष्य में शिक्षक बनना चाहे?" मेरे पास कोई जवाब नहीं था।
क्या आप के पास है?
मालती मिश्रा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही बात......
    ऐसी भावना के चलते अब छात्र सामाजिकता नहीं सीख पाते हैं...
    आज शिक्षक का सम्मान न करते देख माता पिता संतानो को सही सीख नही दे रहे है...कल वही बच्चे जब बडे होते है तो माता पिता को भी सम्मान नहीं दे पाते....
    बहुत बढिया आलेख...

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    1. बहुत-बहुत आभार सुधा जी प्रतिक्रिया और समर्थन दोनो के लिए।

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  2. बहुत-बहुत धन्यवाद दिलबाग विर्क जी।

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