मंगलवार

दिल्ली सरकार की नई नौटंकी

दिल्ली सरकार की नई नौटंकी
कहा जाता है कि 'दिल्ली है दिल वालों की' परंतु क्या आज के संदर्भ में इस तथ्य मे कोई सत्यता दिखाई देती है? आज खुले आम सड़कों पर अपराध होते हैं और जनता मूकदर्शक बन कर तमाशा देखती है, सड़क पर एक व्यक्ति का एक्सीडेंट हो जाता है, वो दर्द से तड़प रहा होता और लोग देखते हुए चुपचाप निकल जाते हैं, अगर किसी ने थोड़ी हमदर्दी दिखाई तो ज्यादा से ज्यादा पुलिस को फोन कर दिया बस! और अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लिया जबकि हो सकता है कि समय पर मदद मिल जाने से उस व्यक्ति की जान बचाई जा सकती थी..ऐसा यहाँ हर रोज होता है..पूरी भीड़ के सामने दो-तीन बदमाश आते हैं और खुलेआम वारदात को अंजाम देकर चले जाते हैं परंतु जनता इसलिए नहीं बोलती क्योंकि उसे लगता है कि कहीं उन बदमाशों मे से किसी ने उन्हें एकाध चाकू मार दिया तो? सोचने की बात है एक चाकू ...और किसी की जान! यहाँ इसी दिल्ली में यदि पड़ोसी गाली दे दे तो लोग मरने-मारने पर उतर आते हैं परंतु किसी की जान बचाने के लिए कोई जरा सी हिम्मत नहीं दिखा सकता, किसी का समय घायल की जान से अधिक कीमती होता है तो कोई दूसरों के झगड़े में पड़कर अपने-आप को मुसीबत में नहीं डालना चाहता, कहाँ गई इंसानियत? कहाँ हैं वो दिलवाले जिनकी वजह से दिल्ली को दिलवालों की कहा जाता है...अब तो जनता का समाज के प्रति कोई कर्तव्य रह ही नही गया कर्त्तव्य पालन के लिए तो पुलिस और सेना है, 'मीनाक्षी' नाम की लड़की को सरेआम दो लड़के चाकुओं से मार-मार कर बेरहमी से हत्या कर देते हैं, ये घटना बाहर सबके सामने होती है 100-200 लोगों के सामने लड़की रोती-चिल्लाती मदद की गुहार लगाती है, अपने-आपको छुड़ाकर किसी के घर में भी बचने के लिए घुस जाती है परंतु उन अपराधियों की हिम्मत तो देखिए वो घर में से खींच कर भी उसे मारते हैं...आखिर इतनी हिम्मत एक अपराधिक मानसिकता वाले व्यक्ति के मन में कैसे आ जाती है ? हमारे ही कारण क्योंकि उन्हें पता है कि कोई नहीं बोलेगा अगर वहीं किसी ने साहस दिखाया होता तो उस लड़की की जान तो बचती ही साथ ही इस तरह की अपराधिक सोच वाले व्यक्तियों के लिए एक बार सोचने का कारण जरूर बनता...200 लोगों पर 2 व्यक्ति तभी भारी पड़ सकते हैं जब 200 व्यक्ति सिर्फ एक निश्चेष्ट निश्प्राण व्यक्ति बनकर रह जाएँ...आज हमारी आदत बन चुकी है कि कुछ भी हो दोष पुलिस या सरकार पर मढ़ देते हैं और अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लेते हैं, सोचने की बात है कि पुलिस हर व्यक्ति के साथ नहीं चलती, पहल तो हमें ही करना होगा...पुलिस ने अपना काम किया जल्दी से जल्दी मुजरिमों को गिरफ्तार कर लिया..परंतु फिरभी उनके खिलाफ नारे बाजियाँ और प्रदर्शन हो रहे हैं कि ....मृतका के परिवार को न्याय दो...आखिर न्याय कौन करेगा पुलिस या अदालत ? और सोने पे सुहागा ये कि वही जनता जो मूकदर्शक बनकर जुर्म होते हुए देखती है वही न्याय मांगने के लिए इस तरह के राजनीतिक ढकोसलों में शामिल हो जाती है...लोग राजनीति करने से पहले ये भी नही सोचते कि उनके दिखावे से वही आम जनता परेशान होती है जिसके फिक्रमंद वो स्वयं को दिखाते हैं...राजनीतिक पार्टियाँ इस प्रकार की दुखद घटनाओं पर भी राजनीति करने से नहीं चूकतीं, मेरा तो बस एक ही सवाल है कि उस लड़की की मृत्यु के लिए पुलिस को जिम्मेदार किस आधार पर ठहराया जा सकता है और यदि ऐसा है भी तो क्या तमाशबीन बनी जनता इसके लिए जिम्मेदार नहीं ? बल्कि ज्यादा है, फिर कटघरे में सिर्फ पुलिस क्यों? मूकदर्शक जनता को भी होना चाहिए... जनता ने वो नहीं किया जो करना चाहिए था, लड़की की मौत के जिम्मेदार वो लोग भी हैं जिन्होंने देखते हुए भी उसे बचाने का प्रयास नही किया...आज पुलिस को कटघरे में खड़ा करना तो महज राजनीति है क्योंकि वहाँ कोई पुलिस वाला तमाशबीन नहीं था..हमारी सरकार को संवेदन शील होने की आवश्यकता है, यदि सरकार ही राजनीति चमकाने हेतु संवेदनहीनता दिखाएगी तो आम जनता से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि ये तो सत्य है जैसा राजा वैसी प्रजा.....
पुलिस को सहयोग करने की बजाय बात-बात पर प्रदर्शन, नारेबाजी, धरने देकर पुलिस के काम मे रुकावट डालने का प्रयास है न कि पीड़ित परिवार के प्रति संवेदना....आज हमारी दिल्ली सरकार प्रदर्शन करके सिर्फ राजनीति कर रही है क्योंकि हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का दिमाग सिर्फ इन्ही चीजों मे काम करता है वो न्याय या विकास के विषय में बातें तो कर सकते हैं पर काम सिर्फ प्रदर्शन के रूप में ही कर सकते हैं, इसे जनता को ही समझना होगा और संवेदनशील बनना होगा.....

शनिवार

ईद मुबारक या पब्लिसिटी (EID Mubarak ya publicity)

ईद मुबारक या पब्लिसिटी (EID Mubarak ya publicity)
  आज हमारे क्रिश्चियन स्कूल मे ईद मनाया गया, क्यों न हो..स्कूल तो सिखाते ही हैं 'सर्व धर्म समभाव' आखिर शिक्षा का मंदिर जो ठहरे! और फिर हमारा स्कूल! वो तो सभी स्कूलों मे सर्वश्रेष्ठ है यहाँ किसी भी धर्म को सम्मान देने मे पीछे नही रहते, मानवता के धर्म के विषय में मैं कुछ नही कह सकती इसे इन सबसे अलग ही रखें तो अच्छा है..खैर प्रोग्राम की तैयारियाँ शुरु हुईं, मैं कक्षा में ही थी तभी इंचार्जों में से एक आईं और मुझसे जल्दी-जल्दी बोलीं गर्ल्स को डायरी लेकर कॉरीडोर में लाइन बनवा दो..वो इतनी जल्दी में थीं कि मैं हैरान कि क्या होने वाला है? मेरे चेहरे की ओर अगर कोई ध्यान से देखता तो उसे एक बड़ा सा प्रश्नवाचक चिह्न नजर आता, परंतु वहाँ किसी को इतनी फ्रुर्सत कहाँ कि कोई किसी के प्रश्न सुने..आखिर महान क्रिश्चयन स्कूल जो है सब कुछ जल्दी-२ ही होता है... कुछ कहकर कुछ बिना कहे करवाने का हुनर आता है इन्हें, खैर मैं भी काफी कुछ सीख चुकी हूँ सो मैंने भी फटाफट अनुमान लगा लिया कि ईद सेलिब्रेशन के लिए ऑडिटोरियम में जाना है इतने में ही वो इंचार्ज दूसरी कक्षाओं को निर्देश देकर दुबारा आ गईं और फिर उसी जल्दबाजी में बोलीं कि एक ओर ब्वायज(लड़कों) की दूसरी ओर गर्ल्स(लड़कियों) की लाइन बनवा दूँ, साथ ही कक्षा के विदियार्थयों को भी स्वयं ही निर्देश दे डाला "Take out your diaries and come out fast" खैर मैंने लाइन बनवाई AC स्मार्ट बोर्ड वगैरा off करने का निर्देश दिया और अपनी कक्षा के विद्यार्थियों के साथ कॉरिडोर में खड़ी हो गई. धीरे-धीरे लाइन बढ़ने लगी जैसे हम मंदिर में भगवान जी के दर्शन के लिए जा रहे हों, पर एक अंतर है वहाँ हम स्वतंत्र होते हैं और यहाँ हम नौकरी करते हैं.और डाँट का गोला कब किस पर किस ओर से गिर पड़ेगा कोई नहीं कह सकता, उस मंदिर में दर्शन की जिज्ञासा की तीव्रता होती है, इस मंदिर में विद्यार्थयों द्वारा अनुशासन भंग किये जाने का भय...खैर धीरे-धीरे सभी पहली मंजिल से नीचे आकर ऑडिटोरियम की ओर बढ़े, लड़के लड़कियों का प्रवेश अलग-अलग द्वार से करवाया गया, सभी अध्यापक अध्यापिकाएँ. बता दूँ कि अध्यापक एक को छोड़कर सिर्फ 3-4 ही हैं जो स्पोर्ट के हैं बाकी सभी अध्यापिकाएँ ही हैं...अपनी-अपनी कक्षा के साथ खड़े थे जहाँ लगभग हजार की संख्या में बच्चे होंगे वहाँ उनके बैठने में शोर तो होगा ही परंतु नही ऐसा हमारे क्रिश्चियन विद्यालय में नहीं होना चाहिए नहीं तो आम विद्यालयों और हमारे विद्यालय में क्या अंतर रह जाएगा? चाहे हमारे सीनियर्स के तरीके गलत ही क्यों न हो, चाहे उन्हे बोलने के अलावा कुछ न आता हो परंतु किसी की मजाल जो अनुशासन में ढील दे यदि आपसे बच्चा २०-३० मीटर की दूरी पर भी है तो भी वो अगर अनुशासनहीनता करता है तो कक्षा- अध्यापिका होने के नाते  जिम्मेदार तो आप ही हैं क्यों नहीं देखा? आखिर आप इतने महान स्कूल के शिक्षक हैं तो अपने आप को दो-चार बनाना पड़े तो बनाइए खैर!..मैं और एक दूसरी अध्यापिका अपनी-अपनी कक्षा के छात्रों को उनके बैठने के स्थान का निर्देश दे रहे थे और इस प्रक्रिया के दौरान हम ये भूल गए कि हम थोड़े पास-पास थे, अचानक स्टेज से तड़ातड़ गोले बरसने लगे...डाँट के गोले, निर्देशों के गोले...सभी अध्यापिकाएँ एकदम शांत..जैसे सभी को सांप सूँघ गया, दरअसल स्टेज से इंचार्ज (जो सभी इंचार्जों की हेड हैं) की तीखी प्रक्रिया तो आ रही थी परंतु वो किसको क्या कह रही हैं कुछ समझ नहीं आ रह था, एक तो मेरी अंग्रेजी कमजोर..मैं हिंदी की अध्यापिका जो ठहरी, ऊपर से उनकी धाराप्रवाह अंग्रेजी, फिर ऑडिटोरियम में पीछे स्पीकर नहीं और हम लगभग सबसे पीछे...न मुझे और न ही उस दूसरी अध्यापिका को कुछ समझ आ रहा था कि वो किसे कहने की कोशिश कर रही हैं, हम आखों मे प्रश्न चिह्न लिए उनकी ओर देखते हुए बच्चों को बैठाने लगे अचानक मेरा नाम..अब मैंने क्या कर दिया ये सोचते हुए मैं उस ओर पलटी...उन्होंने हम दोनों अध्यापिकाओं को ग्रुप न बनाने का निर्देश दिया, ग्रुप और इस जगह! धन्य हैं मैडम आप भी...मन में आया चिल्ला कर बोलूँ ग्रुप बनाने के लिए छोड़ेंगी तभी तो बनाएँगे ग्रुप..पर हमारी इतनी हिम्मत कहाँ? चुपचाप उन बच्चों को वहीं छोड़ मैं और पीछे चली गई और दूसरे बच्चों को बैठाने व चुप कराने लगी ... अचानक मैंने देखा वही इंचार्ज जो अभी स्टेज पर थी नीचे आकर मुझसे थोड़ी ही दूरी पर एक बच्चे को पीट रही हैं, उसे बाहर जाने का आदेश देकर दूसरे बच्चे को खड़ा किया उसे भी दो लगाकर बाहर भेज दिया..अब तक तो पूरे ऑडिटोरियम में सन्नाटा पसर चुका था, अब क्या मजाल जो कोई बच्चा हिल भी जाए, बोलना तो दूर की बात है....मुझे पता है अब यही उदाहरण वो बाद में हमे डिवोशन का भाषण देते हुए देंगीं...खैर बच्चे भी बैठ गए, अध्यापक-अध्यापिकाओं नें भी अपनी-अपनी जगह संभाल ली..न..न..न..जगह संभाल ली मतलब बैठ गए नहीं...वो अगर बैठ गए तो उनकी गरिमा कलंकित नहीं हो जाएगी? शिक्षक को बैठने का अधिकार नही हुआ करता, जो बैठ गया वो शिक्षक नही, आप को विषय का गूढ़ ज्ञान हो न हो पर आप को खड़े रहना आना चाहिए, आप को जी मैडम करना आना चाहिए और सबसे बड़ी बात आपको अपने परिवार को पीछे धकेल कर विद्यालय नहीं मैडम जी को सर्वोपरि रखना आना चाहिए, और हाँ अगर आपकी अंग्रेजी अच्छी है आप धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल सकते हैं फिर तो सोने पे सुहागा......खैर शुरू हुआ इंतजार...इस बीच स्टेज पर तैयारियाँ साफ देखी जा सकती थीं, कभी कोई आकर माइक रख जाता तो दूसरा आकर उसकी जगह बदल कर चला जाता कभी कोई इंचार्ज आकर किसी को कुछ निर्देश देती तो दूसरी आकर उसे साथ ले जाती, बच्चे शांत, मूकदर्शक बनकर वो  सब कुछ देख रहे थे और कुछ होने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे कोई बच्चा पास बैठे बच्चे की तरफ मुड़कर जरा भी बोलने का प्रयास करता कि उसके बोलने से पहले ही किसी न किसी अध्यापक द्वारा उसकी जगह परिवर्तित कर दी जाती......गर्मी से सभी का हाल बेहाल हो रहा था, ऑडिटोरियम अभी नया-नया बना था तो कहीं कोई पंखे नहीं थे AC के खाँचे थे पर अभी AC नही थे....बारिश के मौसम मे अगर हवा बंद हो जाए और हल्की धूप हो तो मौसम इतनी उमस और चिपचिपाहट वाला हो जाता है कि व्यक्ति वैसे ही बिना AC कूलर के फिर आधा पागल हो जाए फिर जहाँ इतनी भीड़ हो वहाँ की तो हालत वैसे ही असहनीय होती है.....खैर इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं स्कूल के डायरेक्टर जो इस समय प्रिंसिपल के छुट्टी पर होने के कारण उनका भी कार्यभार संभाल रहे हैं,चेयर पर्सन जो कि डायरेक्टर की पत्नी हैं, हेड मिस्ट्रेस जो कि उनकी छोटी पुत्री हैं और दामाद का प्रवेश हुआ..(जानकारी के लिए बता दूँ कि प्रिंसिपल भी इनकी बड़ी बेटी ही हैं और उनके पतिदेव भी यहीं किसी सम्माननीय ओहदे पर हैं) अगल-बगल(थोड़ा सा पीछे) दो अध्यापिकाएँ उनके साथ ही दो विद्यार्थी(एक लड़का और एक लड़की, दोनों ही नवीं कक्षा के होनहार छात्र) उनको सम्मान प्रदर्शन हेतु(चाहे दिलों में सम्मान न हो) चल रहे थे...क्यों न हो यहाँ दिखावे को जितना महत्त्व दिया जाता है शायद ही कहीं और दिया जाता हो, आखिर सच ही तो है जो दिखता है वही बिकता है, और इसी लिए तो हमारा स्कूल आज नामी स्कूलों में से एक है...उन्हें देखते ही सभी विद्यार्थी अपने स्थान पर ही खड़े हो गए..उन्होंने अपने-अपने स्थान ग्रहण किए, फिर प्रार्थना शुरू हुई, इसके पश्चात् सभी विद्यार्थयों को पुनः यथास्थान दरियों पर ही बैठा दिया गया..पूरे ऑडिटोरियम मे सन्नाटा पसरा था सिर्फ स्टेज से आवाज आ रही थी, प्रोग्राम शुरू हुआ...पहले सरस्वती वंदना से शुरुआत हुई, वंदना का नृत्य निःसंदेह प्रशंसनीय था..फिर नज़्म प्रस्तुत किया गया जिसमें मानवता के धर्म को सर्वोपरि दिखाया गया, देखकर ऐसा सोचने पर मजबूर हो गई कि यदि इस्लाम को मानने वाले सचमुच अपने धर्म के द्वारा बताई गई मान्यताओं पर चलते तो आज समाज की शक्लोसूरत कुछ और ही होती..खैर! ऐसी ही एक-दो और शिक्षाप्रद गीतों के बाद डायरेक्टर सर का भाषण प्रारंभ हुआ..उन्होंने बच्चों के उस अनुशासन की प्रशंसा की जो भयवश थी, वो तो खुशी से फूल कर गुब्बारा हो रहे थे कि उनके स्कूल के विद्यार्थी कितने अनुशासन प्रिय हैं..यदि कोई उन्हें सच की सुई चुभा दे तो खुशी की सारी हवा यहीं निकल जाती पर ऐसा क्यों हो इतना बड़ा स्कूल चला रहे हैं खुश होने का अधिकार तो है ही..अपने भाषण में उन्होंने ईद के महत्त्व का वर्णन तो ऐसे किया कि जैसे ईद पर पूरा रिसर्च करके आए हैं, सॉरी मुझे कहना चाहिए कि पी एच डी करके आए हैं...उन्होंने 'फितर' का मतलब समझाया..फिक्र करना, और मानव जाति की फिक्र करना प्रत्येक व्यक्ति का फर्ज़ बताया...इस वक्त उन्हें सुनकर कौन कह सकता है कि ये वही हैं जो गुरुवार को किसी जरूरी कार्यवश छुट्टी लेने वाली अध्यापिकाओं को जबरन शुक्रवार और शनिवार की छुट्टी दे देते हैं ताकि वीरवार से रविवार तक की तनख्वाह काट सकें...सचमुच महान कैसे बना जाता है मैं भी सीख रही हूँ, उनके भाषण से मानवता के लिए फिक्र, उनके कल्याण हेतु क्या करना चाहिए इसकी शिक्षा की अनवरत रसधार बह रही थी..इतना लंबा भाषण देते हुए एक बार भी ये ख्याल उस मानवता के पुजारी के मन में नहीं आया कि सभी बच्चे और अध्यापिकाएँ गर्मी से व्याकुल हो रहे थे और कभी-कभी बच्चे अपनी डायरी से या हाथ में पकड़े रूमाल से हवा करने लगते किन्तु कोई देखकर उन्हे बाहर न निकाल दे इस भयवश वो हवा करना बंद कर देते..खै भाषण समाप्त हुआ और ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से ऑडिटोरियम गूंज उठा...अनुमान लगाना कठिन था कि भाषण समाप्त हुआ इस बात की खुशी थी या भाषण के शिक्षाप्रद होने के कारण प्रशंसा और सम्मान में बजाई गई तालियाँ थीं...फिर कार्यक्रम की समाप्ति हुई सभी छात्र निर्देशानुसार राष्ट्रगान के लिए खड़े हो गए, राष्ट्रगान बजाया गया...फिर आदरणीय महानुभावों को ससम्मान विदा करके सभी छात्रों को लाइन से उनकी कक्षाओं में भेज दिया गया...फिर वही मशीन की तरह कक्षा में पढ़ाना और भागते हुए एक घंटे में तीन घंटों का काम पूरा करने का प्रयास करना और एक आदर्श शिक्षक/शिक्षिका बनने का प्रयास शुरू....

रविवार

मंदिर वहीं बनाएँगे

मंदिर वहीं बनाएँगे
केंद्र में बीजेपी की सरकार के आते ही सभी राम भक्तों की सोई हुई उम्मीदें फिर से जागृत हो उठीं कि अब उन्हें उनके प्रिय श्रीराम लला के भव्य मंदिर से वंचित नही रहना पड़ेगा, उनके राम लला को अब तंबू में नहीं रहना पड़ेगा....कितने दुर्भाग्य की बात है कि हिंदू राष्ट्र हिंदुस्तान में ही हिंदुओं के आराध्य को भी अपने जन्म-स्थान की भूमि के लिए लड़ना पड़ रहा है....हिंदू भाई-बहनों! फिर अगर तुम्हें संघर्ष करना पड़े तो इसमें आश्चर्य की क्या बात ?
बहुत से हिंदू वर्ग ने तो बीजेपी को वोट भी इसी आधार पर दिया होगा ताकि उनके राम लला का मंदिर जल्द निर्मित हो....अाशा करना गलत नही परंतु जल्दबाजी अवश्य गलत होती है, जो बीजेपी सपोर्टर मोदी जी की तारीफ करते नहीं थकते वही जब मंदिर की बात आती है तो उनके खिलाफ हो जाते हैं...मैं समझती हूँ कि सोच-समझ कर सही समय पर लिया गया निर्णय ही सही हो सकता है, हमारा लक्ष्य चिड़िया की आँख है तो हम सिर्फ उस आँख को देख रहे हैं, परंतु जिसका लक्ष्य पूरी चिड़िया को पकड़ने की हो वो भी जीवित उसे तो हर संभव प्रयास करना होगा कि चिड़िया न ही उड़े न ही जख्मी हो और लक्ष्य भी पूरा हो...हम राम भक्तों को धैर्य से काम लेना चाहिए कम से कम सरकार को मजबूती से पैर तो जमा लेने दो, यदि आज जबरन मंदिर निर्माण कराया जाता है तो कुछ नही बल्कि बहुत सी राजनीतिक पार्टियाँ ही ऐसी हैं जो मुस्लिम वोटों के लिए इसका विरोध करेंगी और दंगा जरूर भड़काएँगी, हम सभी जानते हैं कि दंगे-फसाद से कभी किसी का हित नही होता अतः हमें ऐसे समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब उत्तर प्रदेश के साथ-साथ अन्य अधिकतर राज्यों मे ऐसी सरकार हो जो सत्य का साथ दे सके तथा विरोधी ताकतें कमजोर हों....कुल मिलाकर हमें हमारी इस सरकार को आगे भी पाँच सालों के लिए लाना होगा, हिंदू विरोधी ताकतों ने हमारे देश में ६०-६५ सालों में अपने पैर मजबूती से जमा लिये हैं पहले उनके पैर उखाड़ने जरूरी हैं अन्यथा क्या होगा नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना होगा और फिर सदियों के लिए भ्रष्ट और हिंदू विरोधी सरकार को सहते रहना होगा....इसलिए मैं अपने राम भक्त बंधुओं से यही कहना चाहूँगी कि भक्ति और हौसला बढ़ाने हेतु #टैग अवश्य करें पर ये ध्यान रखें कि सेक्युलरों को उसमें से कहीं भी तनिक भी मोदी विरोधी गंध न मिले....

युग निर्माता कौन (Yug nirmata kaun)

युग निर्माता कौन (Yug nirmata kaun)
शिक्षक तो है युग निर्माता
पर कहीं न वो पूजा जाता ा
कोटि-कोटि प्राणियों में,
शिक्षा की ज्योति जगाता है,
अंध मार्ग में इस जग के
ज्ञान का दीप जलाता है ा
एक युग रचना का रचनाकार,
नही चाहता युग पर अधिकार,
पर कहीं नही है जय-जयकार ा
जय है तो बस उस श्रेणी की,
जो युगदृष्टा बन भरमाते हैं,
देकर झांसा भोले समाज को,
अपनी झोली भर ले जाते हैंा
बन बैठे हैं वो कर्ता-धर्ता,
लोगों के भाग्य विधाता ये,
विश्वास प्राप्त कर लोगों का,
विश्वासघात कर जाते हैं ा
फिरभी ये मौका परस्त दानव ही,
देव बन पूजे जाते हैं ा
शिक्षक तो है युग निर्माता
पर कहीं न पूजे जाते हैं ा