बुधवार

पहली गुरु

 पहली गुरु



जेल की छोटी सी कोठरी में फर्श पर घुटनों में मुँह छिपाए बैठा था ऋषि। उसके साथ ही दो और कैदी थे जो आपस में ही कुछ बतिया रहे थे और बीच-बीच में हिकारत भरी नजर से उसकी ओर देख लेते। उसके कानों में उन दोनों की बातें पिघले शीशे की मानिंद उतर रही थीं, उनमें से एक कह रहा था "अरे यार हम साले चोरी-डकैती या कत्ल करके दुनिया की नजर में अपराधी बन जाते हैं पर इसके जैसे सफेदपोश अपराधी से तो लाख गुना भले हैं, साले ने अपनी बहन को ही..थू है ऐसे इंसान पर।" 

"तभी उसे बाहर से कुछ शोर सुनाई दिया, उसने गर्दन उठाकर आवाज की दिशा में देखा, उसकी नजरें गैलरी से होती हुई दूर उस ऑफिस में टिक गईं, जहाँ उसकी मम्मी हाथ जोड़े हुए थाना इंचार्ज के सामने गिड़गिड़ा रही थीं और उसका बड़ा भाई उन्हें संभालता हुआ कुछ कह रहा था। 

अरे देख वो शायद इसी के परिवार के लोग हैं, उसके पास बैठा एक कैदी बोला।

"हाँ वही होंगे, माँ लग रही है इसकी, देख जग्गा मैं पक्का बता रहा हूँ कि इसकी माँ और वो साथ में जो भी है बाप या भाई, इन लोगों ने ही इसे शह दे-देकर ऐसा बनाया होगा, नहीं तो कोई इंसान पैदाइशी जानवर नहीं होता।" 

उन दोनों की बातें उसके मनो-मस्तिष्क को झंझोड़ने लगे और वह अतीत के पन्ने पलटने लगा...

उसका बड़ा भाई दीपांकर घर में अपनी गर्लफ्रेंड के साथ आता था और तब उसकी मम्मी किसी को उस कमरे में नहीं जाने देती थीं, जिसमें वे दोनों होते थे। जब पापा जी गुस्सा होते और कुछ कहते तब दीपांकर और मम्मी उनसे लड़ने लगते और उन पर हावी हो जाते थे। वह शुरू से यही तो देखता आया था, हर तीसरे चौथे महीने उसके भाई की गर्लफ्रेंड बदल जाती और उस नई फ्रेंड का घर में आना शुरू हो जाता। जब लड़की शादी के लिए कहती तभी दीपांकर उससे पीछा छुड़ाकर नई लड़की पकड़ लेता। उसके लिए लड़कियाँ पटाना और उनकी अस्मिता से खेलना तो उसके बाएँ हाथ का खेल बन गया था और उसकी मम्मी ने कभी भी उसे समझाने की कोशिश नहीं की, उल्टा लड़कियों में ही कमी निकालती रहीं। उन्हें कभी अपना बेटा गलत लगा ही नहीं। दीपांकर से धोखा खाकर जब एक लड़की ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की तब उसकी मम्मी उसके ही चरित्र पर लांछन लगाने लगीं कि वह जबरदस्ती उनके बेटे के गले पड़ रही है। बड़े भाई के चरित्र का कुछ असर तो छोटे भाई पर भी पड़ना ही था तो ऋषि भी कहाँ पीछे रहा लेकिन वह हमेशा उसी राह जाता जिसमें कठिनाई न हो। वह अपनी बहन की ननद को ही चाहने लगा था, लेकिन उसके जीजा ने अपनी बहन से ऋषि को राखी बाँधने के लिए कहा। अब ऋषि को समझ नहीं आया कि कैसे मना करे तब उसने दीपांकर को बताया। दीपांकर को उसे समझाना चाहिए था लेकिन उसने तो ऋषि से कहा कि "कोई बात नहीं तू डर मत, अगर सच में तुझे राखी बँधवाना पड़े तो तू बँधवा लेना और जब उसके पैर छुएगा तो पैर में चुटकी काट लेना बस राखी का रिश्ता रह ही नहीं जाएगा। हालांकि उसने तो मजाक में कहा था लेकिन दीपांकर के इस मजाक ने ऋषि के मन से राखी के धागे का महत्व खत्म कर दिया। उसकी मम्मी ने भी कभी अपने बेटों को गलत माना ही नहीं इसलिए वे जो भी करते उनकी नजर में सब सही होता।

चौदह साल की रिया दीपांकर और ऋषि को बचपन से राखी बाँधती थी इसीलिए उसके घर वाले दोनों भाइयों पर आँख मूँद कर भरोसा करते थे। ऋषि घर पर अकेला था जब रिया उसके घर आई थी। वह दीपांकर से गणित के कुछ सवाल समझना चाहती थी। ऋषि ने कहा कि वह उसे समझा देगा और वह उससे सवाल समझने के लिए रुक गई। ऋषि की नजर तो काफी दिनों से उसपर थी उस समय घर पर अकेली पाकर उसने पहले तो उसे बहलाने-फुसलाने की कोशिश की लेकिन जब वह नहीं मानी और जाने लगी तो ऋषि के अंदर का शैतान बेकाबू हो गया। उस बेचारी ने राखी की दुहाई देकर उससे मिन्नतें कीं लेकिन ऋषि अपनी हवस में अंधा हो चुका था इसलिए उसने इतने सालों से बँधवाई राखी को फ्रेंडशिप बैंड बताकर अपनी हवस की आग बुझाई और उसे धमकी दिया कि अगर किसी से कहा तो उसे बदनाम कर देगा कि वह पिछले कई सालों से उसके साथ ऐसे ही संबंध में रह रही है। रोती बिलखती रिया जब अपने घर पहुँची तो पूछने पर भी अपनी माँ को नहीं बताया और दूसरे दिन पंखे से झूलती उसकी लाश के हाथ में पकड़े कागज ने सारी सच्चाई उजागर कर दी।


"ए लड़के! तेरी माँ तुझसे मिलने आई है।" हवलदार की आवाज सुनकर ऋषि अतीत से बाहर आया। 

"मैं जानती हूँ बेटा, तेरी कोई गलती नहीं है, वो कुलटा अपना कलंक तेरे माथे मढ़ गई। तू चिंता मत कर, दीपांकर कुछ नहीं होने देगा तुझे।" 

मम्मी रोती हुई उसे हिम्मत बँधा रही थीं लेकिन आज उसे अपनी मम्मी की ये बातें फाँस सी चुभ रही थी। वह बोला- "सचमुच मम्मी! मेरी कोई गलती नहीं? सबसे बड़ी दुश्मन तो आप ही हैं मेरी। माँ तो बच्चों की पहली गुरु होती है और उसकी दी हुई सीख बच्चों को जीवन में हर पग पर मार्गदर्शन करते हैं। पर आपने तो अपनी औलादों को ग़लत सही का पाठ पढ़ाया नहीं, हमेशा उनकी बड़ी से बड़ी गलती को भी दूसरों पर मढ़ती रही हो। आपकी नजर में पूरी दुनिया ही आपके बेटों के भोग का सामान है....है न? आपकी और भाई की दी हुई सीख के कारण ही मैं आज यहाँ हूँ। अब जाओ आप यहाँ से और कभी मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना।" कहकर ऋषि जाकर एक कोने में बैठ गया। 


मालती मिश्रा 'मयंती'