रविवार

शिक्षक के अधिकार व कर्तव्य


माता-पिता बच्चे को न सिर्फ जन्म देते हैं बल्कि पहले गुरु भी वही होते हैं। बच्चा जब दुनिया में आता है तब आसपास के वातावरण से, परिवार से, रिश्तों से तथा समाज व समाज के लोगों से उसका परिचय माँ ही करवाती है, वह बच्चे को जैसा बताती है वह वही मानता है, माँ ही बच्चे की उँगली पकड़ धरती पर उसे पहला कदम रखना सिखाती है, गिरने के पश्चात् संभलना और पुनः उठकर खड़े होना सिखाती है। माँ हृदय की कोमलता के वशीभूत होकर यदि लड़खड़ाकर गिरते बच्चे को लगने वाली चोट के दर्द से पिघल कर उसे उस चोट से बचाने के लिए पुनः उठना ही न सिखाती तो बच्चा पूरी जिंदगी के लिए न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक विकलांगता का शिकार हो जाता किन्तु उस समय माँ का हृदय जानता है कि कब उसे नरमी से और कब सख्ती अख्तियार करते हुए बच्चे को गिरकर संभलना और पुनः उठकर चलना सिखाना है और परिणाम स्वरूप बच्चा गिरता है संभलता है और फिर उठकर चलता और दौड़ता है। इन सबके दौरान जो गौर करने वाली बात है, वह है कि बच्चे के जीवन की प्रथम गुरु माँ बच्चे के हितार्थ आवश्यकतानुसार सख्त भी होती है और नरम भी। धीरे-धीरे बच्चे के बड़े होने के साथ-साथ उसकी शिक्षा-दीक्षा हेतु उसे गुरु के सुपुर्द किया जाता है और माता-पिता अपने पुत्र को गुरु के सुपुर्द कर आश्वस्त हो जाते। फिर गुरु बच्चों में अपनी शिक्षा के द्वारा मानवीय व सामाजिक गुणों का विकास करते हैं। बच्चा स्वभावतः बेहद जिज्ञासु, नटखट व स्वछंद प्रवृत्ति का होता है। कभी-कभी तो किसी-किसी बच्चे को स्वछंद से अनुशासित बनाने में गुरु को लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। पर गुरु की मर्यादा उसे उस काम को चुनौती की भाँति स्वीकारने पर विवश करती है, इसलिए वह उस बच्चे को कभी नरमी तो कभी सख्ती से सिखाने का प्रयास करता है।

एक समय था जब 'गुरु' शब्द को ही सम्मान सूचक मानते थे किन्तु धीरे-धीरे समाज की मान्यताएँ बदलीं, लोगों की सोच में परिवर्तन हुआ, रहन-सहन में बदलाव के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव न सिर्फ लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाया है हमारी शिक्षा पद्धति भी इससे बेहद प्रभावित हुई है। फलस्वरूप गुरुकुल से पाठशाला बने शिक्षण केंद्र विद्यालय और फिर कॉन्वेंट स्कूल बन गए और इसी के साथ जो पहले गुरु हुआ करते थे वो अब शिक्षक हो गए तथा शिष्य अब विद्यार्धी/शिक्षार्थी बन गए हैं। जहाँ पहले गुरु प्रधान हुआ करता था अब विद्यार्थी प्रधान होता है, तो जिसकी प्रधानता होगी उसी का दबाव रहेगा। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और अधिकार भावना की प्रबलता के कारण वर्तमान समय में बच्चे अति संवेदनशील भावनाओं से ग्रस्त हैं। दूसरी ओर मानसिक व शारीरिक दबाव के फलस्वरूप कुछ शिक्षक भी अपनी गरिमा को भूल जाते हैं और अपनी सीमा को भूलकर बर्बरता पर उतर आते हैं किन्तु ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है और ऐसी घटनाओं को देखते हुए तथा विद्यार्थियों की अति संवेदनशीलता को देखते हुए कानून बना दिया गया जिसके तहत शिक्षक के कर्तव्यों को तथा विद्यार्थियों के अधिकारों को वरीयता दी गई। किन्तु जिस प्रकार हर एक कानून का दुरुपयोग भी होता है, उसी प्रकार विद्यार्थियों के अधिकारों का भी दुरुपयोग होने लगा है।

 आजकल माता-पिता दोनों ही कामकाजी होने के कारण स्वयं तो अपने बच्चों को समय दे नहीं पाते किन्तु बच्चों के प्रति अति सुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर शिक्षक की थोड़ी सख्ती भी बर्दाश्त नहीं कर पाते और बिना सत्य जाने शिक्षक के प्रति नकारात्मक सोच के वशीभूत होकर आक्रामक कदम उठा लेते हैं और कानून का दुरुपयोग करने से भी नहीं चूकते। 
सामाजिक और शैक्षणिक परिवर्तन के फलस्वरूप आज का गुरु गुरु नहीं शिक्षक बन गया है, वह शिक्षक जो सम्मानित तो है किन्तु केवल हवाओं में, किंवदंतियों में। सच्चाई के धरातल पर उतरकर देखें तो न उसका कोई अधिकार है न कोई मान, इतना ही नहीं उसकी अपनी कोई ज़िंदगी भी नहीं है। वह बस आज के सिस्टम का मारा वह बेचारा जीव है, जो बिना आवाज निकाले चुपचाप पिसता है, चीख भी नहीं सकता। अगर आवाज निकालने का प्रयास भी करता है तो उसकी आवाज को शिक्षक की गरिमा के नीचे दबा दिया जाता है, शिक्षक है वह, उसके कंधों पर समाज निर्माण का उत्तरदायित्व है, उसे अपना उत्तरदायित्व पूरी श्रद्धा से पूरी मेहनत से निभाना चाहिए। उसे कितनी भी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया जाय पर वह शिक्षक है इसलिए उसे पाँच घंटे में पंद्रह घंटे का कार्य करना भी आना चाहिए और साथ ही विद्यार्थियों की पढ़ाई भी प्रभावित नहीं होनी चाहिए। उसे विद्यार्थियों को सजा देना तो दूर उन्हें डाँटना, आँख दिखाना और छूना भी वर्जित है, मारना या पीटना तो अपराध की श्रेणी से बहुत ऊपर है किन्तु उनको शिष्ट बनाना है। वह शिक्षक जो छात्र के भविष्य को सुधारने के लिए पूर्ण समर्पण भाव से नित नए तरीके खोजता है, विद्यार्थियों को और सिस्टम को एक पल नहीं लगता उसे अपराधी के कटघरे में खड़ा करने में। वह समझ भी नहीं पाता कि उससे क्या गलती हुई है, उसे अपराधी बनाकर बच्चे व उसके माता-पिता के समक्ष खड़ा कर दिया जाता है। 
वर्तमान समय में अध्यापक का सम्मान व अधिकार महज़ एक मृगतृष्णा है जो दूर से एक सुखद भ्रम उत्पन्न करता है किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। शिक्षण संस्थाएँ मानों मानवीय भावनाओं से शून्य हो चुकी हैं जिसके फलस्वरूप उनके सोच के अनुसार शिक्षक/शिक्षिका कभी बीमार नहीं हो सकते, उन्हें  अपने परिवार के प्रति समर्पित होने से पहले विद्यालय के प्रति समर्पित होना चाहिए। विद्यालय समय में अपने परिवार से बिल्कुल कट चुके होते हैं चाहे वहाँ कोई इमरजेंसी भी क्यों न हो पर उन तक सूचना पहुँचना अत्यंत दुरुह होता है। शिक्षक आठ के आठ पीरियड खड़े होकर ही पढ़ाने को मज़बूर होते हैं। इस दौरान वह कितनी भी शारीरिक समस्या के शिकार हो जाएँ परंतु कभी इस ओर न तो शैक्षणिक विभागों की दृष्टि पड़ी न मानवाधिकार विभाग की और न ही सरकार की। किन्तु विद्यार्थी की उग्रता व अशिष्टता के लिए यदि यही शिक्षक उसे डाँट दे या पाँच मिनट खड़ा कर दे तो सभी तन्त्र जागरूक हो जाते हैं। 
वर्तमान समय में 90% विद्यार्थी भी शिक्षक को एक वेतनभोगी कर्मचारी ही समझते हैं इससे अधिक कुछ नहीं, और तो और वो उन्हें विद्यालय या सिस्टम का नहीं बल्कि अपना कर्मचारी समझते हैं क्योंकि उनके द्वारा दी गई फीस से शिक्षक वर्ग की मासिक तनख्वाह निकलती है। इस समय के बच्चों के विचार व उनका व्यवहार देखकर देश के भविष्य के विषय में सोचती हूँ तो एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वो बच्चे जिनमें अभी 10 वीं 12 वीं तक भी अनुशासन, शिष्टाचार व  विनम्रता के भाव नहीं पनप सके, वो देश के कर्णधार कैसे बन सकते हैं?
प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्यों यह बच्चे इतने अधिक उग्र, अनुशासनहीन और संवेदनहीन हो चुके हैं? क्यों वही माता-पिता जो अपने बच्चे को खड़ा करने के लिए उसे चोट सहन करने देते थे वही क्यों उसके भविष्य को बनाने के लिए उसके प्रति थोड़ी सख्ती भी बर्दाश्त नहीं कर पाते? क्यों उन्हें शिक्षक अपने बच्चे के समक्ष सदैव हाथ बाँधे खड़ा हुआ चाहिए? अक्सर देखा जाता है कि वही बच्चा शिक्षक का सम्मान नहीं करता जिसके माता-पिता शिक्षक का सम्मान नहीं करते। जो माता-पिता शिक्षक के प्रति सम्मान दर्शाते हैं वो बच्चे भी सम्मान करते हैं। 
अतः आज भी माता-पिता ही बच्चे के गुरु हैं वो बच्चे को जैसी शिक्षा देते हैं बच्चा वैसा ही बनता है, बच्चे को शिष्ट-अशिष्ट बनाना अब सिर्फ माता-पिता के हाथ में है शिक्षक से भी उसे क्या और कितना सीखना है यह भी माता-पिता ही निर्धारित करते हैं। विद्यालय और शिक्षक तो महज किताबी ज्ञान ही दे पाते हैं। गिने-चुने विद्यार्थी ही होते हैं जो शिक्षक को गुरु मानकर उनकी बातों का अनुसरण करते हैं और निःसन्देह ऐसे विद्यार्थी मानवीय मूल्यों के वाहक तथा आदर्श नागरिक होते हैं।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 5 सितंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सादर आभार अनुराधा जी। आपकी प्रतिक्रिया से लेखन को बल मिला।

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  3. वाह!!मालती जी ,बहुत खूब लिखा आपने ,एकदम सटीक ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद शुभा जी, आपकी प्रतिक्रिया लेखनी के लिए नवीन ऊर्जा है।

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