सोमवार

मैं...मैं हूँ

 मैं..मैं हूँ...


मैं आज की नारी हूँ

सक्षम और सशक्त हूँ

शिक्षित और जागृत हूँ

संकल्पशील आवृत्ति हूँ

नारी की सीमाओं से

मान और मर्यादाओं से

पूर्ण रूर्पेण परिचित हूँ

परंपरा की वाहक हूँ

संस्कृति की साधक हूँ

घर-बाहर की दायित्वों की

अघोषित संचालक हूँ

पढ़ी-लिखी परिपूर्ण हूँ

स्वयं में संपूर्ण हूँ

गलतियों का अधिकार नहीं

कर्तव्यों में पिसकर भी

कभी कोई प्रतिकार नहीं

कवि की कविता का भाव मैं हूँ

लेखक की लेखनी का चाव मैं हूँ

मैं बेटी हूँ बहन हूँ

पत्नी हूँ और माँ हूँ

पुरुष की पूरक हूँ

सहगामी हूँ 

संपूर्ण गृहस्थ चक्र की धुरी हूँ

किंतु पति की महज़ अंकशयिनी हूँ!

बेटी, बहन, माँ या पत्नी 

सिर्फ मुखौटा हैं मेरे

वास्तव में तो मैं 

केवल भोग्या हूँ

स्वर की देवी हूँ किंतु मूक हूँ

शक्तिस्वरूपा अबला हूँ

अन्नपूर्णा हूँ किंतु दीन हूँ

लक्ष्मीरूपा हूँ किंतु आश्रिता हूँ

शत पुत्रवती होकर भी

गांधारी हूँ

नारायणी होकर भी अपहृता हूँ

यज्ञसैनी होकर भी दाँव पर लग जाती हूँ

यूँ तो पुस्तकों में

वाणी में

चहुँदिशि बन जाती हूँ

शक्तियों की स्वामिनी

किंतु प्रतिकार करने का नहीं अधिकार

प्रतिकार किया तो 

बन जाती हूँ कुलटा

नहीं समझता कोई कि

इन सबसे पहले मैं

मैं हूँ

नहीं चाहिए मुझे देवियों की पदवी

नहीं चाहिए कुल की मर्यादा का भार

चाहती नहीं कि बनूँ 

कवि की कविता

नहीं उठाना लेखक की 

लेखनी का भार

घर की धुरी भी मैं क्यों बनूँ

बहुत है उठाने को अपने

अस्तित्व का भार

मैं नारी हूँ....सिर्फ नारी

मैं.. मैं हूँ।।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार

जयचंदों को आज बता दो



व्यथित हृदय मेरा होता था

देख के बार-बार,

राष्ट्रवाद को जब जहाँ मैं 

पाती थी लाचार।


संविधान ने हमें दिया है

चयन हेतु अधिकार,

राष्ट्रहित के लिए बता दो

किसकी हो सरकार।


लालच की विष बेल बो रहे

करके खस्ता हाल,

जयचंदों को आज बता दो

नहीं गलेगी दाल।


चयन हमारा ऐसा जिससे

बढ़े देश का मान,

विश्वगुरु फिर कहलाएँ और

भारत बने महान ।।


©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


सोमवार

भारत की मौजूदा स्थिति

भारत की मौजूदा स्थिति

 भारत की मौजूदा स्थिति


यह विषय अत्यंत वृहद् और विचारणीय है। यदि अतीत में भारत की स्थिति देखें तो यह बेहद संपन्न, प्रतिभाशाली और प्रभावशाली रहा है। शैक्षिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया, किन्तु सदियों से धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक और वैचारिक चौतरफा प्रहार ने इसकी प्रचीन गरिमा को भारी क्षति पहुँचाई। देश के लिए यह अधिक दुखद रहा कि इसके अपनों ने ही स्वार्थान्ध होकर देश के विकास को पीछे छोड़कर अपने निजी विकास में लीन हो गए और इस प्रक्रिया में देश की जड़ें खोदने लगे। कुछ जियाले इस संपूर्ण स्वार्थजनित प्रक्रिया को भाँपकर देश की गरिमा को बचाए रखने के प्रयास में निरंतर क्रियाशील रहे परंतु इनकी संख्या बहुत ही कम रही। साथ ही 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहावत भी चरितार्थ होती रही, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रेप शक्तिशाली के समक्ष चंद मुट्ठी भर राष्ट्रवादी जियालों का प्रयास सफलीभूत होने में सदियाँ लग गईं। वर्तमान में सोशल मीडिया के कारण लोगों में जागरूकता की लहर तेज हो गई हो और अपने देश व संस्कृति के प्रति सम्मान की भावना पुन: जागृत हो गई है। साथ ही यह सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि लोग खुलकर अपने विचार रखते हैं जिससे सकारात्मक और नकारात्मक विचारधाराएँ सामने आ रही हैं और देश को दीमक बनकर खोखला करने वालों के चेहरे सबके समक्ष अनावृत हो रहे हैं। आज भारत पर चौतरफा प्रहार करने का प्रयास किया जा रहा है आंतरिक और बाह्य गतिविधियाँ सभी अब साफ-साफ दृष्टिगत हैं। श्रषि मुनियों का यह देश अब धर्म गुरुओं का देश बन गया है, कुछ चीजें आज भी ज्यों की त्यों है हमारे देश में जयचंद पहले भी थे और आज भी हैं जिनके कारण देश को सदैव क्षति उठानी पड़ी है। 


वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ विश्व कोरोना से जूझ रहा है हमारे देश में निराशाजनक घटनाओं की भी कमी नहीं है, धर्म और जाति के नाम पर देश को खोखला करने का प्रयास भी अपने चरम पर है जो विकास के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है। यह जनता का कर्तव्य है कि धर्म और जातिगत भेदभाव को दूसरे पायदान पर रखकर सर्वप्रथम देशहित सोचें तो आधी समस्या तो यूँ ही हल हो जाएगी। 


किन्तु संतोषजनक बात ये है कि जागरूकता बढ़ चुकी है। असंख्य प्रहार के बाद भी देश विकास के मार्ग पर सतत प्रयत्नशील है। वैश्विक स्तर पर संबंधों में सुधार और कुछ हद तक नेतृत्व की ओर अग्रसर हुआ है। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने जहाँ सभी देशों की कमर तोड़ दी है जिससे हमारा देश भी अछूता नहीं है, वहीं ऐसे समय में भी देश ने आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाया है जो अंधेरे में आशा की ज्योतिपुंज की भाँति है। हम देशवासियों का कर्तव्य है की हम भी सकारात्मक अवसर खोजें और विकास में योगदान दें। यह समय आपस में मिलजुलकर एक-दूसरे का सहयोग करते हुए आगे बढ़ने का है, इसलिए भाईचारे की भावना को प्रबल बनाएँ, विवादों को भूलकर सहयोग के लिए हाथ बढ़ाएँ।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


बुधवार

पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया

 पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया


भगवान के नाम पर कुछ दे दो भाई, हम बहुत मजबूर हैं, जवान बिटिया है उसकी शादी के लिए कुछ नहीं है, कुछ मदद कर दो बाबा, ओ बहन कुछ दे दो पुण्य मिलेगा, तुम्हें भगवान बहुत देगा, ओ माता दस-बीस रुपया, कपड़ा या अनाज दे दो थोड़ी मदद हो जाएगी.... गली में दूर से ही किसी भिखारी की यही कर्कश सी आवाज लगातार आ रही थी। धीरे-धीरे आवाज पास आती जा रही थी और पाँच दस मिनट के बाद बिल्डिंग के नीचे यही आवाज सुनकर सुनंदा से रहा नहीं गया उसे गुस्सा आ रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं बेटी की शादी के नाम पर भीख माँग रहे हैं, हद हो गई! मन ही मन बड़बड़ाती हुई वह कमरे का दरवाजा खोलकर बालकनी में आ गई यह सोचकर कि देखूँ तो कैसा मजबूर है जिसने बेटी को भी भीख माँगने का जरिया बना लिया। यही सोचकर उसने बालकनी से नीचे झाँककर देखा, वह कर्कश आवाज किसी पुरुष की नहीं बल्कि महिला की थी जिसको बाजू से पकड़े धीरे-धीरे कोई लड़की जो शायद उसकी वही बेटी होगी जिसकी शादी के लिए वह भीख माँग रही थी, आगे को बढ़ती जा रही थी। सुनंदा चौथे माले पर खड़ी थी और वो दोनों बिल्डिंग को पार करके आगे जा चुकी थीं, इसलिए वह उनका चेहरा नहीं देख सकी लेकिन उसे ऐसा लगा कि शायद वह महिला देख नहीं सकती। उसका मन हुआ कि वह उसे बुलाकर कुछ दे दे पर अब तक वे आगे जा चुकी थीं। सुनंदा को अपनी सोच पर क्रोध आ रहा था, अभी थोड़ी देर पहले वो क्या-क्या सोच रही थी कि इन भिखारियों को बिना मेहनत ही खाने की आदत हो चुकी है ये मेहनत नहीं करना चाहते इसलिए भीख माँगते हैं परंतु अब उस अंधी भिखारिन को देखकर उसे अपनी सोच निम्न स्तर की लग रही थी अगर वो उसे अपनी ढेरों साड़ियों में से एक-दो उसकी बेटी के लिए दे देती तो उसे कौन सी कमी हो जाती। थोड़ा बहुत परोपकार का काम तो हर व्यक्ति को करना चाहिए। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कार रही थी। 


वैसे भी लॉकडाउन में तो पढ़े-लिखे भी बेरोजगार हो गए हैं तो ये बेचारे अनपढ़ गरीब कैसे अपना गुजारा करते होंगे! सोच-सोचकर सुनंदा की खीझ बढ़ती जा रही थी तभी डोरबेल बजी और वह दरवाजे की ओर बढ़ गई। दरवाजे पर काम वाली बाई राधिका थी जो आज लॉकडाउन के बाद पहली बार काम करने आई थी। सुनंदा उसे कभी-कभी बुलाकर कुछ पैसे और जरूरत के कुछ सामान दे दिया करती थी लेकिन कोरोना के कारण अभी उसे काम पर आने के लिए मना कर रखा था। 

उसे देखते ही सुनंदा खुश हो गई, इतने महीने से अकेले घर का काम करते-करते वह तो आराम करना भूल ही चुकी थी, दिन भर मशीन की तरह लगी रहती। अब राधिका के आने से उसने राहत की सांस ली। उसके आते ही सुनंदा रसोई में अपने लिए चाय बनाने चली गई, दोनों बच्चे और पति अभी सो रहे थे। उसने अपने और राधिका के लिए चाय बनाई, दोनों चाय की चुस्कियों के साथ अब तक की अपनी-अपनी आपबीती बताने लगीं तभी सुनंदा को फिर उस भिखारिन की याद आ गई और उसने राधिका को भी बताते हुए कहा- "अच्छा राधिका तेरी बस्ती में भी ऐसे लोग रहते हैं क्या? मेरा मतलब भिखारी वगैरा?"

"पता नहीं भाभी जी पर बस्ती के पीछे की तरफ बहुत से ऐसे लोग झुग्गियों में रहते हैं जो बहुत ही फटेहाल हालत में रहते हैं।"

"उनके बच्चे तो स्कूल भी नहीं जाते होंगे?" सुनंदा ने पूछा।

"कहाँ भाभी जी, जिनके खाने के लाले पड़े हों वो स्कूल कैसे जाएँगे?"

सुनंदा चुप हो गई, उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था, क्या वह उन गरीबों की कुछ मदद कर सकती है? उसको चुप देखकर राधिका भी अपने काम में लग गई। 

सुनंदा नहा-धोकर प्रात:कालीन पूजा पाठ की तैयारी में लग गई लेकिन उस भिखारिन की याचना भरी कर्कश आवाज अब भी उसके कानों में गूँज रही थी। वह उसकी मदद तो नहीं कर सकी लेकिन उसके जैसे अन्य लोगों की मदद करना चाहती थी पर कैसे यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। घर की साफ-सफाई बर्तन आदि करके राधिका जा चुकी थी। पूजा करके सुनंदा भी नाश्ते की तैयारी करने लगी संजीव और बच्चे आरती की घंटी सुनकर उठ चुके थे और नित्यक्रिया स्नान आदि की होड़ में पूरे जोर-शोर से रम चुके थे। दो-दो बाथरूम होने के बाद भी सबको एक में ही जाने की जिद थी। कोई कहता मैं पहले नहाऊँगा तो कोई पहले शौच और स्नान की अपनी पात्रता समझाने का प्रयास करता। संजीव भी बच्चों की होड़ में शामिल था। सुनंदा उनकी तू-तू-मैं-मैं पर ध्यान दिए बगैर नाश्ता तैयार करने की अपनी ड्यूटी को पूरा करने में पूर्ण मनोयोग से व्यस्त थी। 


नाश्ते की टेबल पर सुनंदा को चुपचाप नाश्ता करते देखकर संजीव से रहा नहीं गया और उसने पूछ ही लिया, "क्या बात है, आज जब से देख रहा हूँ तुम चुपचाप हो कुछ बोलीं ही नहीं! तबियत तो ठीक है न?" 

"हाँ, मैं ठीक हूँ। सुबह से तुम लोगों ने इतना शोर मचा रखा है उसमें मैं भी बोलती तो चिड़ियाघर वाले भी शरमा जाते, इसलिए मैं चुप थी।" सुनंदा ने मुस्कराते हुए कहा।

"हूँ तो मैडम अपने आपको चिड़ियाघर की सदस्या समझती हैं।" संजीव ने हँसते हुए कहा तो दोनों बच्चे भी हँस पड़े।

"हि हि हि हि नॉट सो फनी।" कहकर वह फिर चुपचाप नाश्ता करने लगी। 

"आखिर बात क्या है, कुछ बताओ तो सही।" संजीव गंभीर होते हुए बोला।

तब सुनंदा ने सुबह की घटना बताते हुए कहा कि "राधिका की बस्ती में ऐसे बहुत से परिवार झुग्गियों में रहते हैं, जिनके बच्चे पढ़ तक नहीं पाते। मैं सोच रही थी अगर उनके लिए कुछ कर पाती तो कम से कम इन बच्चों को भीख माँगने की नौबत नहीं आती।"

"हम्म वो तो ठीक है पर तुम अकेली कर भी क्या सकती हो? ज्यादा से ज्यादा दो-चार बच्चों को बुलाकर पढ़ा दोगी पर इससे न तो उन्हें स्कूल जाने का अवसर मिलेगा और न ही तुम्हारा लक्ष्य पूरा होगा। साथ ही उन बच्चों के माँ-बाप उन्हें पढ़ने के लिए भेजने को तैयार होंगे इसमें भी संदेह है।" संजीव ने कहा।

"मैं भी तो इसीलिए परेशान हूँ क्योंकि कोई राह ही नहीं सूझ रहा है।" सुनंदा बोली।

"अगर तुमने ये कार्य करने की ठान ही ली है तो सोचो, कोई न कोई राह निकल ही आएगी पर इस तरह से चिंतित होकर नहीं।"

संजीव के इस प्रकार के उत्साहजनित बातों से सुनंदा का हौसला दुगना हो गया अब वह दुगने उत्साह से उपाय तलाशने के लिए लैपटॉप लेकर बैठ गई। 


दो-तीन घंटे लैपटॉप में कुछ ढूँढ़ती और नोटपैड में कुछ लिखती रही। शाम को सुनंदा ने कुछ  फोन भी किए। अब वह संतुष्ट नजर आ रही थी। डिनर करते समय संजीव ने ही पूछ लिया "क्या कोई रास्ता सूझा, वैसे तुम्हें देखकर लग रहा है कि तुम्हें मंजिल तक पहुँचने की राह मिल गई।"

"हाँ, तुम सही कह रहे हो, मुझे रास्ता मिल गया। मेरी आज दो एनजीओ से बात हुई है, मैं कल ही दोनों ज्वाइन कर रही हूँ।"

"पर दो क्यों, एक क्यों नहीं? और माना कि एनजीओ इसप्रकार के काम करती हैं पर वे तुम्हारे इसी विशेष काम में किस प्रकार सहयोग करेंगी?" संजीव ने पूछा।

"इनमें से एक गरीब बच्चों को शिक्षा की व्यवस्था करवाती है पर इस अनलॉक के समय में मेरे विशेष अनुरोध पर अपनी पब्लिसिटी का फायदा देखते हुए उन्होंने बस्ती में जाकर न सिर्फ बच्चों बल्कि महिलाओं को भी पढ़ाना स्वीकार कर लिया है। बस मुझे भी उनके साथ जाना होगा, कई महिलाएँ साथ होंगीं तो समझाना आसान होगा।"

"तो जब एक से ही काम हो रहा है तो दूसरा क्यों?" संजीव ने कहा।

"शिक्षा के साथ-साथ अगर उन गरीब और बेरोजगार परिवारों को कमाई का कोई जरिया मिल जाए तो उनका जीवन आसान हो जाएगा और शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ेगी, इसीलिए दूसरा एनजीओ भी ज्वाइन करूँगी इसकी सहायता से उस गरीब बस्ती के महिला और पुरुषों को छोटे-छोटे कामों की ट्रेनिंग देकर सरकार के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं से उन्हें जोड़कर रोजगार मुहैया करवाया जाएगा। अब इस अनलॉक के समय भी मास्क, पी.पी.ई. किट और अन्य तमाम तरह की वस्तुएँ बनाना सिखाकर उन्हें मार्केट प्रोवाइड करवाने का काम ये दूसरी एनजीओ करेगी।"

"वाह तुमने तो एक ही दिन में न सिर्फ रास्ता ढूँढ़ लिया बल्कि इतने मजबूत प्लान से आधी जंग जीत ली। पर एक बात का ध्यान रखना हमारे बच्चों की पढ़ाई पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, मेरा मतलब है कि दो-दो एनजीओ ज्वाइन करके कहीं इतनी व्यस्त मत हो जाना कि घर के लिए समय ही न निकाल सको।"

"ऐसा नहीं है मैं सब मैनेज कर लूँगी, फिर तुम भी तो हो न साथ देने के लिए। आखिर देश के प्रति हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है और अशिक्षा के अंधकार में देश का विकास संभव नहीं। आत्मनिर्भर भारत बनाने के इस महान यज्ञ में हमारी तरफ से भी तो आहुति पड़नी चाहिए न! आखिर 'पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया'।"

"वाह तुमने तो अभी से भाषण देना भी सीख लिया।" कहते हुए संजीव ने ताली बजाना शुरू कर दिया बच्चे भी तालियाँ बजाते हुए सुनंदा से लिपट गए और एक स्वर में बोले- "पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया।"

©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

१९/८/२०


सोमवार

बचपन की राखी

बचपन की राखी
रंग बिरंगे धागों से सजी राखी मन को अब भी लुभाती है
सच में! वो बचपन की राखी बहुत याद आती है
वो भाई संग लड़ना-झगड़ना, राखी नहीं बाधूँगी ऐसी धमकी देना
और रंग-बिरंगी राखियों से सजे बाजार देखकर मन ही मन खुश हो जाना
भाइयों के लिए सबसे अच्छी राखी चुनना और उसे खरीदने के लिए गुल्लक फोड़ देना
भाई बिन सूनी ये राखी मन ही मन वही सारे दृश्य दुहराती है
सच में! वो बचपन की राखी बहुत याद आती है

चौकी पूरना, और थाली में रोली कुमकुम चंदन अक्षत मिठाई संग राखी सजाना
और मनुहार भरी नजरों से फिर भाई को तकना,
सारे लड़ाई-झगड़े का एक ही पल में फुर्र हो जाना
बस हमारी सारी दुनिया हमारे बंधन तक ही सिमट आना
पलकों तक आकर ठहरी बूँदें, मन ही मन सजी उसी थाल में आकर लुप्त हो जाती हैं।
सच में! वो बचपन की राखी बहुत याद आती है।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️