आज फिर वैसा ही मौसम वैसी ही बर्फबारी हो रही है वही बेंच है.... जहाँ आखिरी बार तुम मेरे साथ बैठी थीं और फिर मुझे अकेला ऐसी ही बर्फबारी में बैठा छोड़ कर गई थीं, देखो आज फिर वैसा ही मौसम है.... और... और वही मैं हूँ, हाँ थोड़ा सा बदल गया हूँ...चेहरे पर झुर्रियों ने अपनी बादशाहत जमा ली है...तुम्हारी तरह कुछ दाँत भी वापस कभी न आने के लिए छोड़कर चले गए, हाँ अब मैं तुम्हें बहुत दूर से आते हुए देखकर पहचान नहीं पाऊँगा तो क्या हुआ! यहाँ से दूर-दूर तक तुम्हारी मौजूदगी को भाँप सकता हूँ। ये दिल है न! ये पहले से ज्यादा जवान हो गया है...सपने में भी तुम्हारी मौज़ूदगी का अहसास करा देता है, पैर थोड़े कमजोर हो गए हैं, पर फिर भी.. तुमसे मिलने को रोज डेढ़ किलोमीटर चलकर आते हैं! काश वक्त ने साथ दिया होता, तो तुम्हारा साथ पाने के लिए मुझे रोज-रोज यहाँ नहीं आना पड़ता, हम साथ होते...होते न? देखो न! मुझे आज भी तुम्हारी पसंद याद है...यही फूल पसंद हैं न तुम्हें! इन्हीं के लिए तुम मुझसे रूठी थीं और फिर.......आज तक वापस नहीं आईं।
"अरे भाई साहब इतने सर्द मौसम में आप यहाँ बैठे हो, बर्फ पड़ रही है घर पर सब चिंतित हो रहे हैं, चलिए घर चलें।" दूर से ही बोलते हुए मदनलाल आए।
"क्या भाई साहब कुछ मौसम का भी खयाल कर लिया कीजिए, बूढ़ी हड्डियाँ इतनी ठंड झेल नहीं पाएँगी, बीमार पड़ जाओगे, फिर कैसे आओगे रोज-रोज यहाँ।" कोई जवाब न पाकर मदनलाल फिर बोला।
"चलो मदन घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जाएगा।" मदनलाल की बात का जवाब दिए बिना ही वह बेंच पर फूल रखकर उठते हुए बोले।
मदनलाल ने उनका हाथ पकड़ा और पगडंडी की ओर चल दिया। चलते हुए उसने पूछा- "एक बात बताओ समरकान्त भाई साहब.. चाहे ओले पड़ रहे हों, चाहे गर्म लू चल रही हो, चाहे बाढ़ आ रही हो... पर आप बिना नियम तोड़े यहाँ जरूर आते हो, और हमेशा आप यही फूल लेकर आते हो...भगवान झूठ न बुलाए आज आपकी कहानी जानने की इच्छा बड़ा जोर मार रही है, आज बता ही दो।"
"मदनलाल! कुछ कहानियाँ जब तक दिल की गहराइयों में ज़ब्त रहती हैं, तब तक अनमोल होती हैं, जिस दिन जुबां पर आ गईं अपनी अहमियत खो देती हैं। मेरी भी कहानी कुछ ऐसी ही है...जब तक यहाँ है, (उँगली अपने दिल पर रखते हुए) तुम और दूसरे भी न जाने कितने ही लोग जानने की जिज्ञासा रखते हैं, पर जिस दिन जुबां पर बात आई उस दिन बात आई-गई हो जाएगी।" समरकान्त ने बड़ी गंभीर मुद्रा में कहा। मदनलाल अब आगे पूछने में झिझका कि कहीं समरकान्त नाराज न हो जाए, फिर भी हिम्मत करके पूछ ही लिया-
"पर समर भाई साहब! क्या आपकी पूरी लाइफ हमारे लिए पहेली ही बनी रह जाएगी? भगवान झूठ न बुलाए सबको एक दिन उसके पास जाना ही है, भगवान आपको लंबी उम्र दे पर कभी न कभी तो आपको भी जाना ही है, उसके बाद आप सबके लिए एक अनसुलझी कहानी बन जाओगे।"
"नहीं मदन, ऐसा नहीं होगा, वैसे मैंने अपने भाई को भी बता रखा है तुम्हें भी बताए देता हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरी अंतिम क्रिया से पहले मेरे संदूक में रखी नीली डायरी जरूर पढ़ लेना, सबकुछ पता चल जाएगा।" समरकान्त ने कंपकंपाती आवाज में कहा। वह खुद नहीं समझ पा रहा था कि उसकी आवाज बर्फीली ठंड से काँप रही थी या बुढ़ापे के कारण।
बर्फ के कारण रास्ते में फिसलन हो गई थी, समर अपनी उम्र के सत्तरवें पायदान पर था, कहीं फिसल कर गिर गया तो कमजोर हो चुकी हड्डियाँ जवाब दे जाएँगीं यही सोचकर पैंतालीस-पचास वर्षीय मदन समर के साथ-साथ धीरे-धीरे चल रहा था जहाँ कहीं जरा सा भी पैर रपटता वह झट से पकड़ लेता।
"तुम इस समय यहाँ मुझे लेने आए थे मदन? मेरे लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं थी।" समर ने कहा।
"तुम्हारा भतीजा रजत शहर गया है, घर पर कोई मर्द नहीं है बर्फ गिरते देख बहू तुम्हारे लिए परेशान हो गई, उसी ने भेजा कि अंधेरा होने से पहले तुम्हें ढूँढ़ लाऊँ नहीं तो रास्ते बंद हो गए तो बुढ़ऊ आएँगे कैसे?" मदन मसखरे अंदाज़ में बोला।
"हाँ..हाँ..हँस लो मेरी उम्र तक आते-आते तुम ऐसे भी नहीं रह जाओगे कि यहाँ तक पैदल चलकर आ सको देख लेना।" समरकान्त ने मुस्कुराते हुए कहा।
"कैसे आ पाऊँगा..आज तक कोई जगह मेरी इतनी पसंदीदा बनी ही नहीं कि वहाँ बैठकर मेरी बूढ़ी हड्डियाँ जवान हो उठें।" कहते हुए मदन हँस पड़ा।
हँसी-मजाक करते धीरे-धीरे चलते दोनों गाँव में पहुँच गए, समरकान्त के घर पहुँचकर मदन ने उसके कपड़े बदलवाए और तसले में लकड़ियाँ जला कर ठंड से जम चुके हाथ पैरों को सेंकने लगा। सामने की खिड़की का शीशा अभी-अभी किसी ने साफ किया था, वहाँ से बाहर का नजारा इतना आकर्षक लग रहा था कि एक बार नजर गई तो हटाना मुश्किल हो जाए, दूर-दूर तक बर्फ की सफेद चादर चाँद की रोशनी में जगह-जगह से झिलमिलाती हुई अलग ही मनोहारी छटा बिखेर रही थी, जगह जगह जुगनू जैसी चमक ऐसे उठती जैसे किसी ने हीरे बिखेर दिए हों। समरकान्त इस मनोहारी छटा को देखते हुए न जाने किन खयालों में खो से गए.....
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"ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते यात्रा को और अधिक लंबा बना देते हैं अगर सीधी समतल राह होती तो यही दूरी कितनी जल्दी तय हो जाती, एक तो राह ऐसी फिर ये बारिश क्या कम थी जो बर्फ भी पड़ने लगी......" होंठों ही होंठों में बुदबुदाता हुआ, अपने-आप से ही बातें करता वह बीस-पच्चीस साल का सुंदर, हृष्ट-पुष्ट युवक दोनों हथेलियों को बाँहों के नीचे दबाए जल्दी-जल्दी लम्बे -लम्बे डग भरता चला जा रहा था, धरती पर बर्फ की मोटी सी चादर बिछ चुकी थी। दूर-दूर तक पेड़-पौधे, पत्ते-फूल सबका एक ही रंग (दूधिया सफेद) हो चुका था। जहाँ एक ओर रास्ते पर चलने वालों को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था, बर्फ जमें रास्ते पर संभल कर न चलें तो पैर फिसलते ही खाई में गिरने की संभावना थी, वहीं मौसम की सुंदरता अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। एक ओर नीचे खाई में देखने पर ऐसा लग रहा था मानो झाड़ियों, पेड़ों के पत्तों और टहनियों पर दूध का फेन जमा हुआ था, तो दूसरी ओर ऊँचाई पर पेड़-पौधे और झाड़ियों ने मानों सर्दी से ठिठुर कर सफेद रंग की रजाई ओढ़ ली थी। संध्या का समय था अंधेरा होने में भी अधिक समय नहीं था। एक ओर प्रकृति की दर्शनीय छवि मन को आह्लादित कर रही थी तो दूसरी ओर मौसम की भयावहता मन को आशंकित कर रही थी...ऐसे में कोई रुककर प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करे या शीघ्रातिशीघ्र सुरक्षित घर पहुँचे....युवक इन पहाड़ी क्षेत्रों की प्राकृतिक परिवर्तनों से भली-भाँति परिचित है, इसीलिए बिना रुके सावधानीपूर्वक आगे बढ़ता जा रहा था ताकि अंधेरा होने से पहले-पहले घर पहुँच जाए। पर शायद ईश्वर ने कुछ और ही सोच रखा था और ईश्वर के लिखे के विपरीत कभी कुछ भी हुआ है? जो आज होता!
अचानक कहीं से आवाज आई....बचाओ....
कहीं से किसी लड़की की चीख से युवक के कदम ठिठक गए, वह रुक कर गर्दन घुमा कर इधर-उधर देखने लगा पर जहाँ तक उसकी नजरें देख सकती थीं, कहीं कोई दिखाई नहीं दिया, उसने अपना भ्रम समझ जैसे ही आगे बढ़ा फिर वही आवाज आई....
ब...बचाओ....
अब उसे विश्वास हो गया कि जरूर कोई मुसीबत में है, उसने जोर से पुकारा-
"कौन है, कोई दिखाई नहीं दे रहा कैसे बचाऊँ?"
"नीचे देखो" युवक के बाँयी ओर से आवाज आई।
उसने पगडंडी से नीचे की ओर झाँककर देखा तो अवाक् रह गया... एक पतली सी टहनी के सहारे एक युवती अपने आपको नीचे खाई में गिरने से बचाने की कोशिश कर रही थी, न जाने कब से लटकी होगी उसका सिर और कंधे बर्फ से ढके हुए थे, वो आवाज न देती तो किसी को दिखाई भी नहीं देती। वह युवक सोचने लगा कि कैसे बचाऊँ. ...बर्फ के कारण नीचे उतरने की कोशिश बेवकूफी होगी, आसपास कोई रस्सी भी नहीं मिलेगी, वह सोच ही रहा था कि उस युवती की आवाज फिर आई- "ज् ज..जल्दी कीजिए प् प्लीज मेरा हाथ छूट रहा है..."
"नहीं...नहीं तुम जोर से पकड़े रहो मैं...मैं कुछ करता हूँ।" युवक जल्दी-जल्दी अपना ओवर कोट उतारने लगा...उसके दोनों बाजुओं में अपनी पैंट और फिर मफलर को बड़ी फुर्ती से बाँध कर नीचे लटकाते हुए बोला- "तुम पहले एक हाथ से इसे पकड़ने की कोशिश करो, फिर जब मजबूती से पकड़ लेना तभी दूसरे हाथ से टहनी छोड़ना, ध्यान रखना तुम्हारे हाथ जम चुके हैं, उँगलियाँ अकड़ चुकी हैं, छुवन पता भी नहीं चलेगा, इसीलिए ध्यान से पकड़ना।"
वह युवक जैसे-जैसे बताता गया युवती करती गई और वह उसे सावधानीपूर्वक ऊपर खींचने लगा, थोड़ी ही देर में जब वह युवक के हाथों के दायरे में आ गई तो युवक ने उसका हाथ पकड़ कर ऊपर खींच लिया। दोनों वहीं पगडंडी पर बैठ कर अपनी साँस दुरुस्त करते रहे, फिर युवक ने अपनी वही पतलून पहनी जो गीली हो चुकी थी। उसने देखा कि कंपकंपी के कारण युवती के दाँत बजे रहे थे, उसने अपना ओवर कोट उसे पहना दिया और कुछ कदमों की दूरी पर पेड़ के नीचे बेंच देखकर उसे सहारा देकर बेंच तक लाया, बेंच से बर्फ साफ करके उस पर उस युवती को बैठाया और खुद बगल में बैठकर उसकी हथेलियों को रगड़ करके गर्म करने की कोशिश कर रहा था। बर्फ गिरना बंद हो चुका था, अंधेरा भी धीरे-धीरे अपना दामन पसारने लगा, युवक का गाँव यहाँ से कोई डेढ़-दो किलोमीटर था पर वह उस युवती को अकेली छोड़कर नहीं जा सकता था और ठंड जैसे युवती के शरीर में समा चुकी थी वह जोर-जोर से काँप रही थी। युवक उसकी हथेलियों को रगड़ कर गर्म करने की कोशिश कर रहा था पर उसका यह प्रयास असफल हो रहा था।
"तुम गिरीं कैसे?" अचानक अनचाहे ही वह पूछ बैठा।
प् प्पता नहीं श्शायद पैर क् कुछ घास के ऊपर पड़ गया अ..और मैं फिसल गई, व्..वो तो अच्छा ही हुआ क् कि हाथ में टहनी आ गई और मैं लटकी रह गई। आ...आप...म् मेरी वजह से बहुत परेशान ह् हुए।" युवती बहुत कुछ बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई, उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहे। ठंड की अधिकता से या जिस मौत का सामना करके अभी-अभी वह आई है उस दहशत के प्रभाव से उसका शरीर उसके नियंत्रण में नहीं था लाख कोशिशों के बाद भी वह अपनी कंपकंपी को रोक नहीं पा रही थी।
"तुम कहाँ रहती हो..मेरा मतलब तुम्हारा गाँव?" युवक ने पूछा।
"र् रायपुरा।"
"वो तो ज्यादा दूर नहीं है, तुम चलो मैं छोड़ दूँगा, अब तो अंधेरा भी हो गया रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं पड़ेगा।" युवक ने कहा।
"ह् हाँ, चलिए।" कहती हुई वह उठने लगी तो युवक ने उसे सहारा देकर उठाया।
आसमान साफ था पर पेड़-पौधों के कारण अंधेरे की गहनता बढ़ गई थी कदम भर की दूरी पर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसे में वह युवक युवती को कंधों से पकड़े हुए अंदाजे से ही धीरे-धीरे पगडंडी पर आगे बढ़ रहा था तभी युवती का पैर किसी पत्थर से टकराया और वह चीख पड़ी, युवक घुटनों पर बैठकर उसका पैर अपने एक घुटने पर रखकर अपनी हथेली से उसे गरम करने की कोशिश करने लगा तभी उस युवती ने अपना पैर खींच लिया और बोली- "आ..आप पहले ही इतना कुछ क् क..कर चुके हैं, मेरे लिए तो आप भ..भगवान बन कर आए हैं, अब ऐसा न कीजिए क् कि मैं आत्मग्लानि से उबर ही न पाऊँ।"
"आप को नंगे पैर चलने में दिक्कत हो रही है, ऐसा कीजिए, मेरे जूते पहन लीजिए।" कहकर वह अपने जूते खोलने लगा तभी कुछ दूरी पर रोशनी दिखाई दी।
"नहीं-नहीं मैं ऐसे ही ठीक हूँ, शायद कोई इधर ही आ रहा है।" युवती बोली।
"हाँ, पर शायद एक से ज्यादा लोग हैं।"
"मुझे डर लग रहा है।"
"डरो नहीं हो सकता है हमें कोई सहायता मिल जाए।" युवक ने कहा।
वह रोशनी अब और पास आ चुकी थी, धीरे-धीरे कुछ परछाइयाँ नजदीक और नजदीक आती जा रही थीं...ये दोनों भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, युवती ने डर के कारण युवक का हाथ जोर से पकड़ लिया था, भय तो युवक को भी लग रहा था, पर वह अपना डर प्रकट नहीं कर सकता था।
"अगर लुटेरे हुए तो?" युवती ने कहा।
"हमारे पास है ही क्या लूटने को..उल्टा देकर जाएँगे।" युवक ने उसका डर कम करने के उद्देश्य से कहा।
वो साये पास आ चुके थे चार लोग थे हाथों में लाठी और टॉर्च थे जैसे ही पास आए उनमें से एक युवक बोल पड़ा- "अरे भाई कहाँ रह गए थे, हम तो डर ही गए थे कि पता नहीं ऐसे मौसम में कहाँ होंगे, और ये आपके साथ कौन हैं?"
"ये....इनको पहले इनके घर पहुँचाना है, चलो चलते-चलते रास्ते में मैं बताता हूँ कि क्या हुआ? कहते हुए युवक युवती को सहारा देकर चलने लगा और सारी बातें उन सबको बताने लगा।
उनकी बातों से युवती को पता चला कि युवक का नाम समरकान्त है और आने वालों में एक उसका भाई है।
युवती के बूढ़े पिता उसे सही सलामत देख बहुत खुश हुए और समर को बार-बार हाथ जोड़कर धन्यवाद कहते रहे।
युवती को उसके घर तक सुरक्षित पहुँचाकर समर को अपार संतोष का अहसास हो रहा था। उसे नहीं पता था कि निःस्वार्थ भाव से किसी की सहायता करके इतनी प्रसन्नता होती है। वह युवती अपने बूढ़े पिता की इकलौती लाठी थी, उसके समय से न पहुँचने से वह बहुत परेशान थे पर लाचार थे कि अपनी बेटी को खोजने भी नहीं जा सकते थे, उन्होंने पड़ोस में किसी से सहायता माँगी तो जवाब मिला कि "नाहक परेशान हो रहे हो चचा, खराब मौसम के कारण कहीं रुक गई होगी मौसम साफ होते ही आ जाएगी।।"
उन्होंने आग्रह किया कि आज रात समर अपने भाई और मित्रों के साथ वहीं रुक जाएँ परंतु उन लोगों ने घर पहुँचने की विवशता जताते हुए अनुमति माँगी और अपने गाँव के लिए चल पड़े।
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आज शनिवार है और शाम का वही समय जब समर की मुलाकात उस लड़की से हुई थी....वही लड़की...जो खाई में गिरने वाली थी, तब भी समर अपनी नौकरी से साप्ताहिक छुट्टी पर घर आ रहा था। शहर की दूरी यहाँ से अधिक होने के कारण वह रोज का आना-जाना न करके हर शनिवार को आ जाया करता और रविवार पूरा दिन घरवालों के साथ बिताता और सोमवार की सुबह फिर एक सप्ताह के लिए वापस अपनी नौकरी पर शहर चला जाता।
आज मौसम साफ है किन्तु ठंडी हवाएँ मानो हड्डियों को छूती हुई गुजर रही हों, सूर्य देव संध्या का आँचल ओढ़ने को आतुर अस्तांचलगामी हो रहे। जाते-जाते अपनी सुनहरी किरणों से वृक्षों और पर्वत की चोटियों को सुनहरी आभा से आलोकित कर रहे हैं। सर्द हवाओं से हाथ की उँगलियों को बचाने के लिए समर अपनी दोनों हथेलियों को अपनी बाँहों के नीचे दबाए जैसे ही उस खाई के पास से गुजरा उस दिन की घटना चलचित्र की भाँति उसकी आँखों के सामने उभरने लगी, अगर वह लड़की गिर जाती तो....यह सोचते शरीर में अजीब सी झुरझुरी महसूस की उसने। वह एक पल को ठिठका और नीचे खाई में झाँक कर देखा तो वह टहनी अब भी मस्ती में हवा के हल्के झोंकों संग झूम रही थी, उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कह रही हो कि "देखो मैं ही हूँ जिसने उस लड़की को तुम्हारे आने से पहले भी और आने के बाद भी न जाने कितनी देर तक थामे रखा, नीचे गहराई देखो..अगर मैं न होती तो सोचो उसका क्या होता, बर्फ में ढक गई होती किसी को पता भी न चलता।"
नहीं...भय की एक लहर दौड़ गई समर के शरीर में और वह झटके से पीछे हट गया। अब कुछ तो मौसम और कुछ डर का असर, उसे कुछ ज्यादा ही सर्दी महसूस होने लगी। वह जल्दी-जल्दी अपने गाँव की ओर बढ़ने लगा, पेड़ों के झुरमुटों को पार करके जैसे ही पगडंडी पर पहुँचा उसकी गर्दन अनायास ही उधर मुड़ गई जहाँ पेड़ के नीचे बेंच थी; पर आज वह बेंच खाली नहीं थी, कोई लड़की बैठी थी उसपर। उसका कंधा और पीठ ही इस ओर थी, घने लंबे बालों ने चेहरे को लगभग ढक रखा था, जैसे घने काले बादलों के पीछे छिपते हुए चाँद की बस आभा ही बादलों की परतों के बीच से चमकती है, वैसी ही उसके गोरे दूधिया रंग की आभा घने बालों की लटों के बीच से झलक रही थी। उसके पैरों पर कुछ रखा हुआ था कोई जैकेट जैसा कुछ था परंतु तह लगे होने की वजह से समझ नहीं आ रहा था। समर खुद को रोक न सका, कौन है वह लड़की, यह जानने की जिज्ञासा में उसके कदम बरबस उधर मुड़ गए। उसके अंतस में शायद कहीं यह आस थी कि यह वही लड़की है। वह लड़की मानो गहरी सोच में डूबी हुई थी उसे समर के आने का अहसास भी नहीं हुआ।
"आप कौन हैं, और इस समय यहाँ इस सुनसान सी जगह पर क्या कर रही हैं?" समर ने पास पहुँचकर कहा।
वह चौंक कर खड़ी हो गई, गोद में रखी वस्तु नीचे गिर पड़ी। दोनों एक-दूसरे को देखकर चौंक गए....अआआप...
दोनों के मुँह से एक साथ निकला।
रंग ऐसा गोरा मानो दूध में एक चुटकी सिंदूर मिला दिया हो, तीखी पतली नाक का कोना ठंड से कुछ ज्यादा ही गुलाबी हो रहा था, नीली चमकती हुई आँखों में देखते ही उसकी गहराई में खो गया समर और कुछ भी पूछना याद न रहा।
गुलाबी होंठ पता नहीं भय से या शर्म से थरथरा रहे थे, न जाने क्या था समर की आँखों में कि उसे इस तरह एकटक अपनी ओर देखते पाकर उसकी घनी पलकों ने शर्म का घूँघट डाल दिया आँखों पर। उसे इस प्रकार शर्माती देख समर को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह झेंपते हुए बोला- "आप इस समय यहाँ क्या कर रही हैं।"
"व् वो मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी।" उस लड़की ने कहा।
"मेरा इंतजार! क्यों?" समर को आश्चर्य हुआ।
"मैं आपका ओवरकोट देने आई थी, आपका घर नहीं पता इसलिए यहीं इंतजार कर रही थी।" लड़की ने नीचे गिरा हुआ ओवरकोट उठाते हुए कहा।
"पर आपको ये कैसे पता चला कि मैं यहाँ से आने वाला हूँ?" उसने पूछा।
"मुझे पता नहीं था लेकिन आप उस दिन इधर से इसी समय जा रहे थे, इसीलिए मैंने सोचा कि आप किसी दिन तो यहाँ से निकलेंगे ही और जब निकलेंगे मैं आपकी अमानत आपको लौटा दूँगी। आपने मेरी जान बचाकर मेरे बाबा और मुझ पर जो अहसान किया है, उसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है, पर मेरे पास इसके अलावा और कुछ है भी नहीं देने के लिए।" उसने गरदन झुकाए हुए ही जवाब दिया।
"तो क्या तुम रोज यहाँ आती थीं?" समर आश्चर्य के भावावेग में कब आप से तुम पर आ गया उसे पता ही नहीं चला ।
"जी, मुझे पता नहीं था न, इसीलिए रोज आती थी।"
समर को समझ नहीं आया कि उसे क्या कहे उसे तो यह भी अहसास नहीं रहा कि सर्दी बढ़ती जा रही है, उसने चुपचाप ओवरकोट ले लिया और एक पल चुप रह कर फिर बोला- "चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ।"
"नहीं, मैं चली जाऊँगी, आप भी जाइए अंधेरा होने वाला है।" कहती हुई वह उसके गाँव को जाने वाली पगडंडी पर चल दी।
"सुनो!" समर ने पुकारा।
"ज्जी!" वह अपनी जगह पर ही ठिठकी।
"अपना नाम तो बताती जाओ।"
"रत्ना" कहती हुई वह तेजी से बढ़ गई।
"कल आओगी यहाँ? मैं इंतज़ार करूँगा।" समर के मुँह से बेसाख्ता निकला। उसे खुद ही अजीब लगा कि उसने यह कैसे और क्यों बोला, उसने उधर देखा तो वह बिना जवाब दिए मुड़कर ऊँची झाड़ियों के पीछे लुप्त हो चुकी थी। समर चुपचाप अपने घर की ओर चल दिया, उसे लगा पीछे कुछ छूट रहा है, उसने मुड़कर देखा वहाँ बस खाली बेंच थी...मूक..कुछ कहती हुई।
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वह बेचैनी से करवटें बदल रही थी नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, सोने के लिए आँखें बंद करते ही बार-बार उसकी आँखों के सामने समर का वही चेहरा आ जाता...उसकी आँखें....उफ्फ्...न जाने क्या था उन आँखों में...सोचते ही रत्ना अकेले में भी शरमा जाती। क्या वह उससे मिलने कल जाएगी? क्या उसे जाना चाहिए? लेकिन अगर नहीं गई तो यह तो धृष्टता होगी...आखिर उसने अपनी जान पर खेलकर मेरी जान बचाई है, तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती? आखिर इसमें बुराई भी क्या है...और...और फिर मैं भी तो मिलना चाहती हूँ। सोचते ही वह फिर शरमा गई। अगले दिन की मुलाकात के सपने बुनते-बुनते इंद्रधनुषी सपनों के रंगों को पलकों में सजाए वह सो गई अपने सपनों को हकीकत में परिणित करने के लिए।
बाबा की खाँसी की आवाज सुनकर रत्ना की आँख खुली, खिड़की की ओर गर्दन घुमाई तो अभी बाहर कोहरे ने अपना परचम लहराया हुआ था, मौसम की शीतलता देख सूर्य देव भी मानों जागने को तैयार न थे। जहाँ तक नजर जाती ऐसा लग रहा था कि पेड़-पौधे, घरों की छतें सभी कोहरेनुमा रजाई से सिर बाहर निकालकर सूरज के आने की बाट जोह रहे थे। रत्ना का भी मन हुआ कि फिर से रजाई में मुँह ढककर सो जाए लेकिन ज्योंही उसने रजाई सिर तक खींची, उसे फिर बाबा के खाँसने की आवाज आई।
वह उठ गई; जल्दी-जल्दी शॉल ओढ़कर बाबा के कमरे में आई, बाबा रजाई ओढ़कर बैठे थे। वह भीतर रसोई में गई और अंगीठी में आग जलाकर अंगीठी लाकर बाबा के कमरे में रख दिया और उन्हें पानी गरम करके पीने को देकर उनके लिए काढ़ा बनाने लगी। रत्ना के हाथ का बना काढ़ा ही बाबा की खाँसी के लिए रामबाण का काम करता है। पूरी सर्दियाँ जब-तब बाबा को इस काढ़े की जरूरत पड़ती ही रहती है।
"तुम इतनी जल्दी क्यों उठ गई बिटिया, अभी तो बाहर बहुत ठंड है, अभी क्या करोगी उठकर?" बाबा ने कहा।
"आपको खाँसते देख मुझे नींद कैसे आती बाबा, सर्दी ज्यादा है तो आपकी खाँसी भी उभर आई है।" काढ़ा उनके हाथ में पकड़ाते हुए रत्ना बोली।
"आग से गरम हो जाएगा कमरा, अब खाँसी भी रुक गई है तुम चाहों तो जाकर सो जाओ।" बाबा बोले।
पर रत्ना को नींद कहाँ आने वाली थी उसे तो बड़ी बेसब्री से शाम का इंतज़ार था। अब वह सारा काम जल्दी-जल्दी निपटा लेना चाहती थी, इसलिए वह रोज-मर्रा की साफ-सफाई के काम में लग गई ताकि किसी काम के कारण उसका जाना स्थगित न करना पड़े।
पूरा दिन रत्ना का बड़ी व्यस्तता में निकला अब उसे समर से मिलने जाना था पर न जाने क्यों वह अब भी निश्चय-अनिश्चय के दोराहे पर खड़ी तय नहीं कर पा रही थी कि उसे जाना चाहिए या नहीं! आखिर क्यों जाए वह? उसका रिश्ता क्या है उससे? क्या सिर्फ अहसानों के बोझ तले दबकर उसका वहाँ जाना उचित होगा? वह अपने भीतर चल रहे झंझावातों में उलझी कुछ तय नहीं कर पा रही थी।
दूसरी ओर समर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता कभी कलाई पर बंधी घड़ी में नजर डालता कभी सामने रास्ते को देखते हुए अंदाज़ा लगाता कि अभी कितना समय और लगेगा वहाँ पहुँचने में....। उसके मन में एक तूफान सा चल रहा था कि क्या रत्ना आएगी? क्यों आएगी? उसके लिए कोई जरूरी थोड़ी न है....न ही मैं उसका कोई नजदीकी रिश्तेदार हूँ, आखिर क्यों आएगी वह? फिर उसके अंदर से ही आवाज आई...वो जरूर आएगी...उसकी आँखों ने स्वीकृति दी थी, देखना! वो जरूर आएगी। अपने ही सवालों-जवाबों में उलझा वह उस बाग में उस बेंच के पास पहुँच गया जिस पर उसने कल रत्ना को बैठी देखा था। वह जानता था कि वो नहीं आएगी फिर भी न जाने क्यों खाली बेंच देखकर उसे निराशा हुई। वह पूरे रास्ते अपने-आपको समझाता आया था कि रत्ना नहीं आएगी परंतु शायद उसके दिल के किसी कोने में यह विश्वास दृढ़ था कि वह जरूर आएगी, इसीलिए उसे वहाँ न पाकर वह उदास हो गया। उदासी से कहीं अधिक मन ही मन खिन्न हो रहा था, अपने ऊपर ही क्रोध आ रहा था कि उसने उसे क्यों कहा आने के लिए.... क्या सोच रही होगी वह इस विषय में कि कितना स्वार्थी है! जान क्या बचाई अहसान समझ बैठा और उस अहसान की कीमत भी माँगने लगा...छिः..कितना बुरा लगा होगा उसे; अब वह शायद कभी मेरी शक्ल देखना भी पसंद न करे। ऐसे खयाल बार-बार समर को व्यथित करने लगे। 'अब मेरा यहाँ क्या काम, मुझे भी चलना चाहिए।' यह सोच कर समर उठना ही चाहता था कि उसके दिल ने कहा थोड़ी देर यहीं बैठते हैं इतनी जल्दी वापस जाकर करना भी क्या है...शायद अभी भी उसे कहीं न कहीं ये विश्वास था कि वो जरूर आएगी। समर बेंच पर चुपचाप बैठ गया, न चाहते हुए भी बार-बार उसकी नजर उस पगडंडी का मुआयना कर आती, जो पगडंडी रत्ना के गाँव की ओर जाती है।
उसे बैठे हुए आधा घंटा होने को आया तभी ख्याल आया क्यों न खाई की ओर ही घूम आया जाय और यही सोचकर वह उठ कर उस ओर चल दिया जहाँ उसने रत्ना को खाई में लटकी अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करते देखा था। उसे न जाने क्यों उस जगह से अजीब सा लगाव हो गया था। वह वहीं पैर लटका कर बैठ गया और आँखों ही आँखों में खाई की गहराई नापने लगा, कभी पेड़-पौधों की प्रजातियों को जानने की कोशिश करता कभी अस्तांचलगामी दिवापति की ओर देखता। कुछ देर बाद वह उठा और घर की ओर चल दिया।
बगीचे के दूसरी ओर पहुँच अनायास ही उसने गर्दन घुमाकर बेंच की ओर देखा और....उसके कदम ठिठक गए, बेसाख्ता ही मुँह से निकला- "तुम आ गईं!"
"जी, मैं बहुत देर से यहाँ बैठी हूँ।" रत्ना खड़ी होते हुए बोली।
"आप तो कह रहे थे कि रविवार को आप अपने घर पर ही होते हैं, पर आप तो शहर की ओर से आ रहे हैं।" उसने उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही कहा।
"नहीं-नहीं मैं शहर नहीं गया था वो दरअसल तुम्हें यहाँ न पाकर मैं उस खाई की ओर घूमने चला गया था, जहाँ पहली बार तुम्हें देखा था।" समर अपनी ही रौ में बोलता चला गया।
"तुम खड़ी क्यों हो गईं, बैठो न!" वह बेंच पर बैठता हुआ बोला।
रत्ना चुपचाप बेंच के दूसरे किनारे पर बैठ गई। दोनों खामोशी से सिर झुकाए बैठे थे कभी-कभी सागर गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखता तो वह या तो पैर के अँगूठे से जमीन कुरेद रही होती या नाखून से बेंच का हत्था खुरचती मिलती, जैसे ही उसे अहसास होता कि सागर उसकी ओर देख रहा है वह कुरेदना बंद कर देती।
"क्या हम ऐसे चुपचाप बैठे रहेंगे? कुछ बात करो, सुना है लड़कियाँ बहुत बोलती हैं पर तुम तो बिल्कुल चुप हो।" सागर ने कहा।
"जी, आपने बुलाया आप ही बताइए क्यों बुलाया?" उसने पहली बार सागर के चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए कहा।
"तुम्हें बुरा लगा?" सागर ने पूछा।
"क्या?"
"मेरा बुलाना।"
"मैंने ऐसा कब कहा!" बिना सोचे ही उसके मुँह से निकला।
"मुझे डर लग रहा था कि तुम कहीं मुझे गलत न समझ बैठो।"
"पर ये सवाल तो अब भी है कि आपने मुझे यहाँ क्यों बुलाया।"
"सच कहूँ तो उस समय मैं भी नहीं जानता था, और अब भी यही कह सकता हूँ कि जितना भी समय तुम्हारे साथ होता हूँ, वह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पल महसूस होते हैं, शायद उन्हीं खूबसूरत पलों में बढ़ोत्तरी के लिए अनायास ही तुम्हें बुला लिया था।"
समर ने रत्ना के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए ही कहा। उसको अपनी ओर एकटक देखता देख रत्ना ने शर्म से नजरें झुका लीं।
"कुछ मैं भी पूछूँ सही-सही जवाब दोगी?" समर ने कहा।
उसने बिना कुछ बोले हाँ में सिर हिला दिया।
"तुम्हें भी आज शाम का इंतज़ार बेसब्री से था?"
वह बिना जवाब दिए चुपचाप नाखून से बेंच को कुरेदने लगी।
"समझ गया, तुम नहीं बोलोगी लेकिन मुझे जवाब मिल गया।
रत्ना उठ खड़ी हुई।
"क्या हुआ?" समर भी खड़ा होता हुआ बोला।
"शाम हो गई, बाबा इंतजार कर रहे होंगे।"
"ठीक है जाओ, मैं कल सुबह ही शहर चला जाऊँगा और फिर शनिवार को आऊँगा, चाहता हूँ तुम्हें यहीं देखूँ।" बोलते हुए समर की आवाज़ न जाने क्यों बेहद संजीदा हो गई, जैसे उसकी कोई बहुत ही प्रिय वस्तु उससे दूर हो रही हो।
रत्ना का मन नहीं हो रहा था जाने का, पर न चाहते हुए भी वह बिना कुछ बोले पगडंडी की ओर चल दी, उसके पैर बड़े भारी महसूस हो रहे थे। उसे सागर की आँखे अपनी पीठ पर गड़ी हुई महसूस हो रही थीं, इससे पहले कि पगडंडी पर मुड़कर झाड़ियों के पीछे लुप्त होती ..वह रुकी, पीछे मुड़ी तो सागर को वहीं खड़े होकर अपनी ओर देखता पाया। वह भी उसकी सूरत अपनी आँखों में बसा लेना चाहती थी ताकि एक हफ्ता आराम से कट सके। कुछ पल दोनों एक-दूसरे को देखते रहे फिर वह मुड़ी और आगे बढ़ झाड़ियों के पीछे गायब हो गई।
सागर भी धीरे-धीरे भारी कदमों से चलता हुआ अपने गाँव की ओर चल दिया।
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बगीचे के किनारे पर पहले ही पेड़ के नीचे रखी वह लोहे की बेंच इंतजार करती सप्ताह के उस आखिरी दिन की संध्या का जब दो प्यार करने वाले उस पर बैठकर अपने हफ्ते भर की बातों का पिटारा वहाँ खोलते, उस समय आस-पास के पेड़-पौधे मानों उनकी खुशी में खुश होकर झूम-झूमकर अपनी खुशी व्यक्त करते, वातावरण में खुशनुमा वासंती निखार आ जाता। वह बेंच उनके प्यार की साक्षी और रत्ना के उस समय के विरह की साक्षी बनती जब समर गाँव से दूर शहर में होता। रत्ना जब कभी अधिक व्याकुलता महसूस करती तो आकर घंटों अकेली उसी बेंच पर बैठ अपने सुनहरे पलों को याद किया करती।
एक-दूसरे का साथ पाकर दोनों अपने-आप को भाग्यशाली समझ रहे थे, खुशियों का ये एक वर्ष पंख लगा कर कैसे उड़ गया पता ही न चला। समर और रत्ना के इस रिश्ते की खबर उड़ती-उड़ती रत्ना के बाबा तक भी पहुँची। पहले तो उन्हें बहुत क्रोध आया परंतु रत्ना के बार-बार मिन्नतें करने से वह समर से एक बार मिलने को राजी हुए और फिर समर से बात करके उन्हें भी ऐसा लगने लगा कि वह हाथ में दीपक लेकर ढूँढ़ते तो भी अपने लिए ऐसा दामाद न ढूँढ़ पाते। उन्होंने समर से वचन ले लिया कि अगले दो-तीन माह में ही वह रत्ना से विवाह कर ले, उसने अपने घर में बात करने का आश्वासन दिया।
रत्ना अपने बिस्तर पर लेटी सामने दीवार पर कीलों को ठोंककर टिकाए गए लकड़ी के एक फट्टे पर कई रंगों से सजे मिट्टी के फूलदान में सजे रजनीगंधा के सफेद फूलों को देख-देखकर भविष्य के सुनहरे सपनों को आँखों में सजाए हुए सोचती है कि कैसे समर से उसने एक बार ही कहा था कि उसे रजनीगंधा के फूल बहुत पसंद हैं, वह चाहती है कि उसके आसपास से हमेशा उसकी भीनी-भीनी सी खुशबू आती रहे। उसने तो बस अपनी पसंद बताई थी परंतु तब से अब तक समर हर बार जब भी उससे मिलने आता रजनीगंधा के फूल लेकर आता। उन फूलों की महक में वह पूरे सप्ताह अपने प्रति समर के प्यार की महक को महसूस करती। अब तो मानो आदत सी बन गई थी कि कमरे में प्रवेश करते ही सबसे पहले फूलदान में सजे रजनीगंधा के फूलों पर ही उसकी नजर जाती, उनमें समर की मुस्कुराती छवि नजर आती। अब समर के बिना एक-एक पल उसे भारी महसूस होते। उसके बिना जीवन की कल्पना तो वह स्वप्न में भी नहीं कर सकती थी। और यही हाल समर का भी था।
समर ने निश्चय कर लिया था कि अगले सप्ताह जब वह घर आएगा तो अपने पिता जी से रत्ना के विषय में बात करेगा। हालांकि सीधे-सीधे उनसे कहने का साहस तो नहीं है फिर भी चाचा की मदद लेकर जैसे भी हो बात तो करना ही है। इस सप्ताह के एक-एक दिन समर को एक-एक वर्ष के बराबर लग रहे थे। भयमिश्रित उत्साह उसके हृदय में हलचल मचा रहा था, कभी-कभी किंकर्तव्यविमूढ़ता का भाव उसे बेचैन कर देता, उसके पिता जी मानेंगे या नहीं, वह कैसे उन्हें मनाएगा आदि सवाल कभी-कभी उसे परेशान करते, पर फिर वह खुद को समझा लेता कि सकारात्मक सोच के साथ ही हर कार्य करना चाहिए।
आखिर वह दिन भी आया जब समर अपने मन में एक दृढ़ निश्चय और आँखों में सुनहरे सपने लिए गाँव की ओर चला जा रहा था, थोड़ी देर पहले ही बर्फ गिरी थी अभी भी चारों ओर बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी। हवा में वही शरीर में चुभने वाली बर्फीली ठंडक थी। रास्ते में बर्फ की इतनी मोटी परत बिछ गई थी कि पिंडलियों तक पैर धँस रहे थे। फिसलन के डर से समर धीरे-धीरे गाँव की ओर बढ़ रहा था। आज उसे फिर वही दिन याद आया जब उसने रत्ना को पहली बार देखा था...ऐसा ही मौसम और यही समय था और यही जगह थी, ये सोचकर समर ने खाई में झाँने की कोशिश की वो टहनी बर्फ से ढकी झूम रही थी। उसे उस टहनी से लटकी बर्फ से ढकी हुई रत्ना का ख्याल आया और उसके शरीर में सनसनी सी दौड़ गई। वह फिर आगे बढ़ गया। आज मौसम इतना खराब है कि वह रत्ना से मिल भी नहीं पाएगा, वो कैसे आएगी ऐसे मौसम में? यही सोचते हुए वह बगीचे के दूसरे छोर तक आ पहुँचा और आदतानुसार अनायास ही उसके पैर बेंच की ओर मुड़ गए...पर ये क्या ऐसे मौसम में भी रत्ना वहीं बेंच पर बैठी मिली, बर्फ हटाकर बेंच पर बैठने लायक जगह को साफ किया हुआ लग रहा था।
"तुम!...आज भी!" समर के मुँह से अनायास ही निकला।
"अगर नहीं आती तो तुम्हें देखती कैसे? और तुम्हें देखे बिना मुझे नींद कैसे आती?" रत्ना उसके करीब आकर बोली।
"पर रत्ना मौसम बहुत खराब है, रास्तों का भी ठीक से पता नहीं चल रहा है।"
"अपने रोज के आने-जाने की पगडंडी तो पता है न, फिर काहे की चिन्ता।"
"सच तो ये है कि तुम्हें नहीं देखता तो मुझे भी कहाँ नींद आने वाली थी।" समर ने रत्ना का हाथ पकड़ते हुए कहा।
"हाँ, हफ्ते भर चैन की नींद सो सकें इसके लिए हमारी आँखों को जो एक-दूसरे के दर्शन की खुराक चाहिए होती है, वो तो कल ही खत्म हो गई थी।" रत्ना हँसती हुई बोली।
"सच कह रही हो। अच्छा, मौसम ठीक नहीं है, चलो तुम्हें घर छोड़ दूँ।"
"तुम कुछ भूल नहीं रहे?"
"क्या?"
"वो भी मैं ही बताऊँगी?" रत्ना तुनक कर बोली।
"रजनीगंधा के फूल! पर आज वो मिले ही नहीं।" समर ने उदास होकर ऐसे कहा मानों उससे कोई बड़ी गलती हो गई हो।
"नहीं मिले...पूरा हफ्ता मैं उन्हीं फूलों के सहारे निकालती हूँ, तुम कह रहे मिले ही नहीं, अब तुम्हीं बता दो कि ये पूरा हफ्ता मैं कैसे काटूँगी?"
उसे गुस्से में देख समर को बहुत पछतावा हो रहा था, उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था कि थोड़ा और कोशिश करता तो मिल जाते।
"रत्ना तुम समझने की कोशिश करो.."
क्या समझूँ..अब मैं जा रही हूँ तुम मेरे पीछे मत आना।" कहती हुई वह गाँव की ओर चल दी।
"पर मैं छोड़ देता..." समर ने कहना चाहा पर रत्ना ने पीछे देखे बिना उसे हाथ दिखा कर रोक दिया। वह मन ही मन मुस्कुरा रही थी, समर कितना प्यार करता है उसे, उसके झूठे गुस्से को भी सच मान बैठा, बेचारा कितना उदास हो गया, अब कल तक ऐसे ही रहेगा; फिर कल मैं उसको बता दूँगी कि ये सब तो मजाक था, फूल उससे बढ़कर थोड़ी न हो गए हैं। सोचती और मन ही मन हँसती वह गाँव की ओर चली जा रही थी।
इधर समर बेहद उदास हो गया, उसे लगा कि रत्ना ने इतने दिनों में एक ही तो तुच्छ सी चीज माँगी, उसकी यह छोटी सी ख्वाहिश भी पूरी न कर सका। यही सोचता हुआ बुझे मन से वह अपने गाँव की ओर चल दिया।
अगले दिन समर रत्ना से मिलने से पहले अपने पिता जी से बात करना चाहता था, इसलिए उसने अपने चाचा जी को सारी बात बता कर उन्हें पिताजी से बात करने के लिए मना लिया।
समर आज बहुत खुश था, खुशी के मारे वह बिना पंख ही हवा में उड़ रहा था, ख्यालों में ही गोते लगा रहा था, उसका वश चलता तो अभी जाकर यह खुशखबरी रत्ना को सुना देता, ऐसी खुशखबरी पाकर उसका गुस्सा भी शांत हो जाता, पर क्या करे.......आज मौसम ही साथ नहीं दे रहा, सुबह से बारिश होती रही और अब दिन के तीसरे पहर से ही बर्फ पड़नी शुरू हो गई। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था वैसे-वैसे समर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, रास्ते में धीरे-धीरे बर्फ जमने लगी।
वह सोच में पड़ गया कि कैसे रत्ना से मिलने जाए? वो भी कैसे आएगी ऐसे मौसम में? पर कल भी तो आई थी, अगर आज भी आई और मैं वहाँ नहीं मिला तो? नहीं, जाना तो पड़ेगा। यह सोचकर समर ने छाता लिया और सबकी नजरें बचाकर चुपचाप बगीचे की ओर चल दिया।
बर्फबारी बन्द हो चुकी थी, पूरा बगीचा सफेद चादर में ढँक चुका था। समर को वहाँ इंतजार करते हुए एक घंटा हो गया पर रत्ना नहीं आई। क्या वह गुस्से की वजह से नहीं आई, या मौसम खराब होने की वजह से? पर कल भी तो आई थी...शायद इसलिए क्योंकि कल उसे पता था कि मैं शहर से तो जरूर आऊँगा और आज शायद उसे ये विश्वास होगा कि ऐसे मौसम में मैं नहीं आऊँगा। इसी उधेड़ बुन में शाम हो गई, तिमिर का झुटपुटा फैलने लगा। आसमान का एक भाग सिंदूरी होने लगा। समर समझ चुका था कि रत्ना को आना होता तो अब तक आ चुकी होती। यह सोचकर वह मायूस सा होकर वापस गाँव की ओर चल पड़ा....मायूसी से पैर इतने भारी हो रहे थे कि उसको एक-एक कदम चलना मुश्किल हो रहा था, वह जैसे -तैसे घर पहुँचते-पहुँचते थककर चूर हो चुका था, इसलिए चुपचाप जाकर बिना किसी से कुछ कहे सो गया।
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इस बार समर गाँव से बहुत बुझा-बुझ सा आया, आते-आते भी मन में यही ख्याल आ रहा था कि काश एक बार रत्ना को देख लेता तो खुशी-खुशी दिन गुजर जाते पर शायद रत्ना इतनी नाराज हो गई थी कि अब उसे रजनीगंधा देकर ही मनाना पड़ेगा। खैर अभी उसे खुशखबरी भी तो नहीं मिली है, अगर पता होता तो वह नाराज ही न होती, जब पता चलेगा तो सारी नाराज़गी दूर हो जाएगी। पर इतनी बड़ी खुशखबरी उसे खाली हाथ नहीं सुनाऊँगा, यही सोचकर समर ने बाजार से रत्ना के लिए एक सुंदर-सी गुलाबी रंग की साड़ी खरीदी और उसके साथ ही एक सुंदर सी शॉल। जाने से पहले उसने फूल वाले को खोजकर उससे रजनीगंधा के फूल लिए और गाँव के लिए चल पड़ा।
स्टेशन से गाँव तक पैदल ही जाना होता है, आज मौसम भी साथ दे रहा है, इसलिए समर जल्द से जल्द बगीचे की बेंच पर पहुँच जाना चाहता था। हमेशा रत्ना उसे वहाँ इंतजार करती मिलती है, आज वह पहले पहुँच कर इंतजार करना चाहता था लेकिन उसे पता है उसका यह सपना पूरा नहीं होने वाला, वह पहले भी कई बार कोशिश कर चुका है पर हमेशा रत्ना वहाँ पहले से ही मौजूद होती। आखिर वह अपनी मंजिल तक आ ही गया। बगीचे का वह पेड़ जिसके नीचे वह बेंच है और वह बेंच अब तक समर के लिए मंदिर के समान हो चुके थे, जहाँ पहुँच कर उसे अपार खुशी और शांति का अहसास होता।
आज दूर से ही वह बेंच दिखाई दे रही थी, पर, खाली....
समर अनजाने ही किसी अनहोनी के भय से काँप उठा। आज रत्ना आई क्यों नहीं? अब तक तो आ जाती थी। सोचते हुए समर वहीं बेंच पर बैठ गया। उसका मन तरह-तरह की आशंकाओं से घिरने लगा। क्या सिर्फ फूल के लिए रत्ना इतनी नाराज़ हो सकती है? नहीं...जरूर कोई और ही बात है...शायद उसके बाबा ने रोक दिया हो....ऐसे तरह-तरह के विचारों में घिरा समर खुद को रोक न सका और रत्ना के गाँव की ओर चल दिया।
गाँव में प्रवेश करते ही आसपास के लोग उसकी ओर सवालिया नजरों से देखते, कुछ लोग आपस में ही एक-दूसरे को ऐसे देखते जैसे पूछ रहे हों क्या तुम इसे जानते हो? उन सभी सवालिया निगाहों के तीर सहता कुछ को अनदेखा करता वह रत्ना के घर तक पहुँचा और घर के बाहर पहुँचते ही जैसे उसपर वज्रपात हो गया....
रत्ना के घर के स्थान पर मलबा पड़ा हुआ था। हाथ से अटैची छूट गई, उसके पैरों में उसका वजन उठा पाने की ताकत नहीं रही वह लड़खड़ाकर वहीं धम्म से बैठ गया।
उसे ऐसे गिरते देख दो लोग उसके पास दौड़े आए...."क्या हुआ बाबू ठीक तो हो?" उनमें से एक ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
"य् य्ये ल् लोग कहाँ..." समर आगे बोल न सका उसकी आवाज गले में ही अटक गई।
"बहुत बुरा हुआ बाबू, पिछले हफ्ते जो तूफान आया था, इस परिवार को ही अपने साथ ले गया, मकान पहले से ही जर्जर हो रहा था, तूफान झेल न सका सोते हुए बाप बेटी इसी में दब गए।" दूसरे व्यक्ति ने बताया। समर को मानो कुछ सुनाई नहीं दे रहा था उसकी आँखों के सामने रत्ना का मासूम चेहरा आकर टिक गया उसे अपनी सुध-बुध ही न रही वह वहीं बैठा निर्विकार उस मलबे को देख रहा था जिसमें रत्ना और उसके बाबा दबे हुए थे।
"बाबू...अरे ओ बाबू...क्या हुआ आपको।" उनमें से एक ने समर को झंझोड़ते हुए कहा।
"ये वही बाबू हैं क्या जिनसे रत्ना का विवाह होने वाला था?" एक ने पूछा।
"शायद हाँ।" दूसरे ने कहा।
समर ने हाथ में पकड़े हुए रजनीगंधा के फूलों को देखा और वह फूलों को सीने से लगाकर बिलख पड़ा।
अचानक किसी के द्वारा पकड़कर झिंझोड़े जाने से उसकी सुध लौटी
"चाचा.....चाचा....क्या हुआ?" रजत के झिंझोड़ने से समरकान्त की तंद्रा भंग हुई, उनके गाल आँसुओं से भीग चुके थे, उन्होंने जल्दी से अपना चेहरा साफ किया और अपनी बगल में रखे हुए रजनीगंधा के फूलों को देखकर बोल पड़े- "ये यहाँ कैसे...कौन लाया इन्हें?"
"मैं लाया, आप आते समय वहीं बेंच पर भूल कर चल पड़े थे, तो मेरी नजर पड़ गई और मैंने उठा लिया।" मदन ने बताया।
"आज फिर मैं ये फूल तुम्हें नहीं दे पाया।" समरकान्त मन ही मन बुदबुदाए।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️