शनिवार

लहरा के तिरंगा भारत का

लहरा के तिरंगा भारत का
हम आज यही जयगान करें,
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें।

सिर मुकुट हिमालय है इसके
सागर है चरण पखार रहा
गंगा की पावन धारा में
हर मानव मोक्ष निहार रहा,
यह आन-बान और शान हमारी
इससे ही पहचान मिली
फिर ले हाथों में राष्ट्रध्वजा
हम क्यों न राष्ट्रनिर्माण करें।।
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें

इसकी उज्ज्वल धवला छवि
जन-जन के हृदय समायी है
स्वर्ण मुकुट सम शोभित हिमगिरि
की छवि सबको भाई है।
श्वेत धवल गंगा सम नदियाँ
पावन और सुखदायी हैं
सम्मान सदा ये बढ़ा रहीं
तो क्यों न हम अभिमान करें
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें

लहरा के तिरंगा भारत का
हम आज यही जयगान करें,
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें।।

मालती मिश्रा "मयंती"✍️

गुरुवार

नाम नहीं अभिव्यक्ति का

नाम नहीं अभिव्यक्ति का
सीमा में रह व्यवहार करे
काम यही है व्यक्ति का
अपनी माँ का अपमान करना
नाम नहीं अभिव्यक्ति का

जिस धरती पर जन्म लिया
प्राणवायु पा युवा हुए
उसपर ही हथियार उठाना
काम नहीं यह शक्ति का

जिस माँ ने जन्म दिया तुमको
उसकी कोख विदीर्ण किया
कहाँ छिपोगे जाकर तुम
कोई मार्ग बचा न मुक्ति का

जिस पात्र में खाया उसको तोड़ा
क्या जायज कोई कारण है
है साहस तो आज बता दे
कारण इस आसक्ति का।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार

मोती

मोती
कुछ बड़ों को चाहे न हो पर बच्चों को पालतू जानवरों से बड़ा प्यार होता है, वो इंसान के बच्चे खिलाना उतना पसंद नहीं करते जितना कि कुत्ते-बिल्ली के बच्चों को खिलाना पसंद करते हैं। शायद यही वजह है कि आजकल बाजार में जानवरों के रूप-रंग के असली जैसे दिखाई देने वाले खिलौनों की भरमार है और न सिर्फ बच्चों के खेलने के लिए बल्कि कारों में सजाने के लिए भी इन खिलौनों का खूब प्रयोग किया जाता है। फिर भी खिलौना तो खिलौना होता है, सजीव की बराबरी तो नहीं कर सकता इसीलिए कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, तोता और तो और चूहा भी, जिसको जो पसंद होता है, अपनी सुविधानुसार  पालते हैं। मुझे आज भी याद है जब मैं और मेरे तीनों छोटे भाई किसी के घर कुत्ते का एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा देखकर आए थे और फिर हमारा भी बालमन मचल उठा था कुत्ता पालने के लिए, लेकिन विकट समस्या थी कि हम समझते थे कि हमारे बाबूजी को जानवर पालना पसंद नहीं है और हम में से किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनसे इस विषय में कुछ कह पाते। मुझे याद है एक बार मेरे पाँच-छ: वर्षीय बड़े भाई (जो मुझसे छोटा और भाइयों में बड़ा था) के जिद करने पर दादी जी ने मुर्गी के बच्चे खरीद दिए थे, तब शाम को जब बाबूजी घर आए तो कितना गुस्सा किया था और उन चूजों को उसी समय किसी को दिलवा दिया। उनका वो गुस्से वाला रूप याद करके किसकी हिम्मत होती उनसे कुत्ता पालने के लिए कहने की! फिरभी बच्चे तो बच्चे ठहरे मन की बात कब तक जुबाँ पर न आती, हमने भी खेल-खेल में बाबूजी से कह दिया कि 'हम लोग भी एक कुत्ता पाल लेते तो कितना अच्छा होता।' सोचा था कि बाबूजी डाँटेंगे तो कह देंगे कि हम तो बस कह रहे थे, सचमुच थोड़ी न पालेंगे। पर ऐसा कुछ नही हुआ, बाबूजी ने न तो डाँटा और न ही कुछ बोले, हम बच्चों को कहाँ पता था कि बड़े हो जाने के बाद व्यक्ति भावुकता से नहीं बल्कि व्यावहारिकता से सोचता है, इसीलिए वह बच्चों की तरह खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त न करके सोच-समझ कर प्रतिक्रिया देता है और यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि  शायद कई बार इसी गंभीर और व्यावहारिक सोच के कारण बड़े खुद भी नहीं समझ पाते कि उनके अन्तर्मन को क्या पसंद है।
इस बात को एक-दो दिन ही बीते होंगे कि एक दिन शाम को बाबूजी काम से आते समय अपने साथ एक पिल्ला ले आए। उसे देखते ही हमारी तो खुशियों का ठिकाना ही न रहा। मिठाई, नए कपड़े पाकर भी हम उतने खुश न होते जितना खुश उस छोटे से पिल्ले को पाकर हुए थे। काला चमकदार रंग और माथे पर बीचो-बीच सफेद रंग का तिलक ऐसा लग रहा रहा था जैसे पूजा के उपरांत किसी ने बिल्कुल सही आकार में तिलक लगा दिया हो। डरा सहमा सा वह कभी मेरी ओर देखता तो कभी मेरे भाइयों की ओर, कभी अम्मा को देखता तो कभी बाबूजी को। अब तक उसकी पहचान बाबूजी से ही हो पाई थी तो वह हमारे पास आने को तैयार नहीं था, बस उन्हीं के पैरों के पास दुबका हुआ अपनी मोती सी चमकदार आँखों से हमें टुकुर-टुकुर निहार रहा था। हमनें बड़े सोच-विचार और आपसी परामर्श के बाद उसका नाम रखा "मोती" अब मोती को लुभाने के लिए और उसे अपनी माँ की याद न आए इसके लिए हम बच्चे कभी बिस्किट कभी दूध रूपी रिश्वत से उसे बहलाने का प्रयास कर रहे थे और वह बहुत जल्द ही हमारे परिवार का नामधारी सदस्य 'मोती' बन गया। मैं आज भी नहीं जानती कि कि इस बात में कितनी सच्चाई है कि जिस कुत्ते के बीस नाखून होते हैं वह विषैला होता है, पर हमारे गाँव में ऐसा मानते थे, इसीलिए अम्मा ने सावधानी बरतते हुए उसके नाखून गिनने की सलाह दी। फिर क्या था हम तो शुरू हो गए और पाया गया कि उसके पूरे बीस नाखून थे, हम डर गए कि अम्मा इसे वापस भेज देंगीं, उन्होंने कहा भी "ये बच्चों काट लेगा तो लेने के देने पड़ जाएँगे जहाँ से लाए हो वहीं छोड़ आओ।" हमने सोचा अगर ये चला गया तो पता नहीं दूसरा अट्ठारह नाखूनों वाला मिलेगा या नहीं! और मिला भी तो वो क्या पता इतना प्यारा होगा भी या नहीं! मेरे भाई ने मुझे कोहनी मारी कि मैं कुछ बोलूँ। मैं बड़ी थी इसलिए उन्होंने मुझे ही आगे कर दिया, मैंने भी सोच-समझकर अपना हथियार चलाया और बोली- "तो क्या बाबूजी कोई दूसरा पिल्ला लाने के लिए पहले उसके नाखून गिनेंगे फिर उसे उठाएँगे? और ऐसा करते हुए उस पिल्ले की माँ चुपचाप देखेगी, कुछ नहीं होता अम्मा ये नहीं काटेगा आप टेंशन मत लो।" अब तक तो बाबूजी को भी मोती से लगाव हो चुका था तो उन्होंने भी हमारा समर्थन किया और मोती हमारे घर का सातवाँ सदस्य बन गया।
जिस प्रकार घर में छोटे बच्चे के आने से पूरे परिवार का केन्द्रबिंदु वह बच्चा बन जाता है, उसी प्रकार मोती हमारे परिवार का केन्द्रबिन्दु बन चुका था। जैसे बच्चे पूरे दिन अपने खिलौनों को नहीं छोड़ते वैसे हम सुबह से शाम तक मोती के साथ ही खेलते। सुबह स्कूल जाने से पहले उसे दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के लिए बाहर लेकर जाना, उसको दूध देना आदि काम हम बच्चे ही कर लिया करते फिर स्कूल जाते। बहुत जल्द ही उसकी आदत बन गई कि हम गेट खोलते और वह अपने आप बाहर काफी बड़ा मैदान था उसके पार नाला, वहाँ दैनिक क्रिया निवृत्ति के लिए चला जाता और खुद ही वापस आ जाता।
समयकाल के परिवर्तन के साथ-साथ आजकल  जानवर की भी नस्लें देखकर पालना हमारी हैसियत, समाज में हमारा रुतबा दर्शाता है, पर उस समय तो हम उस देशी नस्ल से ही न सिर्फ संतुष्ट अपितु असीम प्रसन्न थे। आजकल की भाँति उसके लिए अलग से कोई खाद्य नहीं, हम जो भी खाते वह भी वही खाता। शाम को जब बाबूजी आते तो वह कूद-कूद कर जब तक उनके सीने तक नहीं छू लेता चैन से नहीं बैठता, उसके बाद चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर प्यार जतलाता रहता । हमें देख-देखकर आश्चर्य होता कि वह हर वो चीज खाता था जो हम खाते, चाहे वह अंगूर हो, सेब हो या कोई भी फल और अपने दोनों पैरों से पकड़कर गन्ने तो ऐसे चूसता जैसे कि सालों उसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।
उसकी बाल सुलभ आदतें हमारे मनोरंजन का साधन बन चुके थे, कभी-कभी हम गरम-गरम भाप उठता हुआ खाना उसके समक्ष रख देते और सब बैठ जाते उसका खेल देखने, वो कटोरे के चारों ओर उछल-कूद मचाता कटोरे तक मुँह ले जाता और हल्का सा छू जाते ही कूद-कूदकर भौंकता जैसे उसे डराने की कोशिश कर रहा हो, हम लोग यह देखकर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। एक और खेल हमारा प्रिय बन चुका था, हम उसके सामने आइना रख देते, उसे लगता कोई और कुत्ता है फिर उसका तांडव देखने लायक होता..शीशे में खुद को देखकर उसे पंजे मार-मारकर लड़ता फिर थककर हमारे पास बैठ जाता और थोड़ी ही देर में फिर भौंकता।
बच्चों की तरह जिद करना भी सीख गया था और लाड़ लड़ाना तो उसके स्वभाव में शामिल था, जब सुनने का मन नहीं होता तो अनदेखा भी करता, ऐसे ही एकदिन बाहर घूर रहा था मेरा भाई गुड्डू कहीं से आया तो उसने मोती को आवाज लगाई पर उसने गर्दन घुमा कर देखा और फिर जमीन में कुछ खोजने में व्यस्त हो गया। कई बार अनदेखा करने के बाद जब उसने देखा कि अब गुड्डू को गुस्सा आ गया है, तो आ गया लेकिन तब तक तो इसका पारा चढ़ चुका था, उसके आते ही इसने लात मारा और बेचारा आँगन में जा गिरा। हम सब सहम गए कि उसे चोट लग गई होगी और वो बेचारा उठकर अपनी मोती जैसी आँखों में विस्मय लिए उसे टुकुर-टुकुर देखने लगा। उस घटना के बाद मोती ने कभी अनदेखा करना तो दूर गुड्डू को दूर से ही देख लेता तो पहले ही घर के अंदर भाग आता।
जानवर प्रेम और नफ़रत की भावना को बहुत अच्छे से समझते हैं वह भी समझता था। हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था, वे लोग कुत्ते को छूना तो दूर अपने आस-पास भी पसंद नहीं करते थे। एक दिन मोती उनके बरामदे के बाहर चला गया तो उनके पाँच-छः वर्षीय बेटे ने उसे मार कर भगा दिया। साथ ही उसकी मम्मी ने हमें शिकायत की कि हम उसे उधर न जाने दें। फिर क्या था अगले ही दिन वह बच्चा नंगा बाहर खेल रहा था, मोती भी हमारे साथ बाहर ही था। हमारी नजरें बचाकर उसने उस बच्चे के सूसू को मुँह में दबा लिया, बह बच्चा चिल्लाया तब हमारा ध्यान गया, मेरे भाई और साथ में खेल रहे दो-तीन और बच्चे तो हँस-हँसकर लोटपोट हो गए पर अपनी हँसी रोककर मैंने मोती को डाँटा तो उसने छोड़ दिया, पर पकड़ा ऐसे था कि एक भी दाँत का निशान तक नहीं आया, हम समझ गए कि वह बदला ले रहा था लेकिन नुकसान नहीं पहुँचाया। पर उसका बदला यहीं खत्म नहीं हुआ, अगली भी सुबह रोज की तरह हमने उसे बाहर भेजा कि वह दैनिक क्रिया से निवृत्त हो आए, वह थोड़ी ही देर में वापस आ गया और दो मिनट के बाद ही उस बच्चे की माँ शिकायत लेकर आई कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे दरवाजे पर टॉयलेट कर दिया। हमने कहा ठीक है कल से हम ध्यान रखेंगे पर वह सबकी नजर बचाकर जाकर उसी के दरवाजे पर कभी पोट्टी कभी सू सू करके आता। अब शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया पर हमने एक भी शिकायत अम्मा तक नहीं पहुँचने दी। अपने दरवाजे की रखवाली खुद करो, किसने कहा था इसे मारने के लिए, ये और किसी के दरवाजे पर तो नहीं करता तुम्हारे ही क्यों? आदि आदि बोलकर हम बच्चे भी अपने मोती की ओर से लड़ने को तैयार हो गए थे, अब उनकी शिकायत भी हम सुनने को तैयार नहीं थे। यही क्रम लगभग एक हफ्ते तक चला फिर उसने स्वतः ही बंद कर दिया।
एकबार मेरा मँझला भाई उसके साथ खेल रहा था, मोती कभी उसकी कमीज को दाँतों से पकड़कर झंझोड़ता कभी उसके हाथ को मुँह में भर लेता, देखकर ऐसा लग रहा था कि वह सचमुच लड़ रहे थे। अम्मा को तो डर था ही कि वह विषैला है, उन्हें लड़ते देख वह डर गईं कि कहीं दाँत लग गए तो? उन्होंने छुड़ाने की कोशिश की पर दोनों नहीं रुके तो अम्मा ने पास में रखी चप्पल उठाई और उसे एक मारकर बाहर निकाल दिया, हम भी अम्मा का गुस्सा देख डर गए थे, उस दिन उन्हें कोई नहीं समझा सका। वह बेचारा ठंड में पूरी रात आँगन में रहा। गुस्से में अम्मा उस समय कुछ न देख सकीं कि वह नन्हीं सी जान इतनी ठंड में कैसे बाहर रहेगा उल्टा वह तो उसे कहीं दूर छोड़कर आने के लिए कहने लगीं। हम सबने उस समय चुप रहना ठीक समझा, हमें लगा कि कुछ कहेंगे तो कहीं ऐसा न हो कि वो उसे इसी समय घर से बाहर ही निकाल दें। सुबह जब दरवाजा खोला तो उसे वहीं चौखट के पास ठिठुरते हुए अपने पैरों में मुँह दिए बैठा पाया। अम्मा को बहुत दया आई, उसे अंदर लाईं दूध गरम करके पिलाने की कोशिश की पर उसने नहीं पिया। अब तो हम सभी चिंतित हो गए, बाबूजी का क्रोध सातवें आसमान पर था। अम्मा के डर का तो हम अंदाजा ही नहीं लगा सकते, एक तो अपराध बोध फिर उससे लगाव भी कम न था और बाबूजी के गुस्से का सामना कैसे करेंगी यह भी डर। वह अपने आपको कोसे जा रही थीं। मैं और भाई तो रोने ही लगे थे। बाबूजी ने हमें समझा-बुझा कर स्कूल भेजा। अम्मा ने न जाने क्या सोचा उन्होंने अंडे मंगवा कर उबाले और उसे खिलाया। जब हम दोपहर को घर आए तब-तक वह कई बार घर गंदा कर चुका था लेकिन लगभग स्वस्थ हो चुका था। शाम तक वह फिर हमसे लड़ने के लिए तैयार था। अब उसे लड़ते देख अम्मा डरती नहीं थीं और वह भी डाँटते ही रुक जाता था।
धीरे-धीरे हमारे साथ वह भी बड़ा हो गया और हमारी तरह समझदार भी। एक समय ऐसा भी आया जब हमारा और मोती का साथ नहीं रहा, हम गर्मियों की छुट्टी बिताने कानपुर से गाँव गए हर साल की तरह उस साल भी मोती को पड़ोस में चाचा जी के पास छोड़ गए। हमें नहीं पता था  कि वापस आकर हम मोती को देख नहीं पाएँगे। अब जब कभी कुत्ता पालने का जिक्र होता है तो मोती याद आता है और दुबारा किसी मोती की जुदाई से डर लगता है।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार

'इंतजार' की समीक्षा



इंतजार अतीत के पन्नों से
कहानीकार मालती मिश्रा
समीक्षक डॉ ज्योत्सना सिंह
समदर्शी प्रकाशन
संस्करण (प्रथम) जून 2018

कहानी गद्य की अति महत्वपूर्ण विधा है,कहानी को सुनने और सुनाने की परंपरा बहुत प्राचीन है। हमारे देश में कहानियों की बहुत समृद्ध परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों  पुराणों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में वर्णित कहानियां प्राप्त होती है जिनमें यम-यमी 'पुरुरवा-उर्वशी, नल-दमयन्ती, दुष्यंत-शकुन्तला,आदि । इसके बाद वीर राजाओं के साहस शौर्य, न्याय, वैराग्य त्याग आदि की कहानियां प्रायः सुनने को मिलने लगी। संस्कृत साहित्य के बाद हिंदी साहित्य में भी कहानी लेखन की परंपरा का निर्वहन बखूबी किया गया है इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए युवा लेखिका मालती मिश्रा ने 13 कहानियों के संग्रह को अपने अनुभवों की स्याही से भावनाओं की लेखनी के साथ समसामयिक विषयों के चिंतन को बखूबी उकेरा है
परम सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार रामलखन शर्मा जी ने बहुत सुन्दर भूमिका लिखी है उनके द्वारा यह पुस्तक प्राप्त हुई,बहुत आभारी हूँ ।
इस कहानीं संग्रह में ऐसा प्रतीत होता है कि लेखिका समाज के आसपास के वातावरण में घटित होने वाली घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित है,प्रथम कहानीं इंतजार का सिलसिला, बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है बेटे की वाट जोहते बूढ़े माँ बाप ,फर्ज निभाने वाला मित्र, अंतरात्मा को झकझोर देने वाली कहानीं है।
दूसरी कहानीं शिक़वे- गिले, मात्र संदेह के आधार पर दो सहेलियों के मध्य उत्पन्न हुए गिले शिक़वे और सुखान्त प्रणय की कल्पना को प्रस्तुत करती कहानीं। तीसरी कहानीं परिवर्तन जिसमें कानून व्यवस्था के साथ खिलबाड़ करने वाले युवक और अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित पुलिस कर्मियों के परिवार जनों और उनकी समस्याओं का बहुत सटीक चित्रण किया है आठ साल की बच्ची की मनोदशा ,उसका डर , एवं विचार मन्थन को लेखिका ने खूब सराहनीय वर्णन किया है। चौथी कहानीं वापसी की ओर कहानीं में  काका-काकी का निश्छल प्रेम समर्पण ,विजय का त्याग, ग्रामीण समाज की अशिक्षित दकियानूसी सोच और संकीर्ण मानसिकता,का समन्वित चित्रण किया गया है। पाँचवी कहानीं दासता के भाव ,यह मुंशी प्रेमचंद की कहानियों से प्रभावित कल्पना प्रतीत हो रही है। आज समाज में बहुत परिवर्तन हो चुका है आज पूरा सवर्ण समाज ही शोषित है। एक स्त्री पात्र दीदी और मास्टर जी की लड़की के आत्मविश्वास और साहस की कहानीं है, जिसके माध्यम से कहानीं एक  मोड़ पर समाप्त करना लेखिका के लेखन की कार्यकुशलता का परिचायक है। छठवीं कहानीं फैंसला विवशताओं से घिरी, सच्चे प्रेम की चाहत में दोहराये पर खड़ी ,संघर्षों से जूझती हुई स्त्री के मन की पीड़ा का बहुत स्वाभाविक चित्रण है इस प्रकार यह कहानी वर्तमान युग मे बिखरते मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी तथा मूल्यों के विघटन की समस्या पर प्रकाश डालती है।
सातवीं कहानीं मीरा, मीरा और मुन्नी के माध्यम से लेखिका ने हमारे संस्कारों का स्मरण कराया है आज आधुनिक दिखने की चाहत में माता-पिता भी बच्चों के प्रति लापरवाही बरतने लगते हैं जिनके दूरगामी परिणाम बहुत घातक साबित होते हैं जिसके कारण परिवार टूटकर बिखर जाते हैं, जैसा कि मीरा के साथ हुआ है,अच्छे संस्कार सदैव समाज में सम्मान दिलाते हैं।आठवीं कहानीं अपराध शिक्षाप्रद कहानीं है कहानीं के प्रारंभ में एक बुजुर्ग का एक अजनबी  लड़की से  पूछना ...कौन हो बिटिया यहां अकेली काहे बैठी हो , एवं फूँक मारकर अलाव जलाना, धरा की माँ एवं रिक्शे वाले की आंचलिक भाषा ,इन सबका बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण है। समाज की रूढ़िवादी नियमों से एक स्त्री जूझती है जो बहुत छोटी उम्र की है लेखिका ने बहुत अच्छी कल्पना की है  प्रेरणादायी कहानी है ।नवीं कहानीं कसम... लेखिका ने कसम कहानी के अंदर अच्छा विषय चयन किया छोटी-छोटी बात में लोग झूठ बोलते हैं कसम देते हैं खा मेरी कसम ,या मेरे सर पर हाथ रखो, झूठ बोल रही हो तो मेरा मरा मुँह देखो, इस तरह के प्रकरण प्रायः  ,घर परिवार में पड़ोस में, समाज के हर वर्ग में स्वाभाविक रूप से देखने को सहज ही देखने को मिल जाते हैं। इस कहानीं में दिव्या के मन में कसम को लेकर पीड़ा आज भी बैठी हुई है। निर्दोष व्यक्ति अपने को साबित करने के लिए कसम खाता है, और झूठा व्यक्ति अपनी बात का प्रभाव जमाने के लिए झूठी कसम खा जाता है इसका दुष्प्रभाव बड़ा ही घातक होता है, ऐसी स्थिति में सच्चाई कैसे साबित हो कहानीं यथार्थ प्रतीत हो रही है लेखिका अपने आसपास के वातावरण से ज्यादा प्रभावित है।दशवीं कहानीं संदूक में बंद रिश्ते भावनात्मक रिश्तो में बंधी भाई बहन के रिश्ते की बहुत हृदयस्पर्शी कहानी है । यदि स्त्री अपने जीवन से संबंधित कोई भी निर्णय लेती है तो उसका परिणाम उसे अकेले भुगतना पड़ता है, पूर्व कहानीं में भी यही बिषय था ,धरा ने बाल विवाह का ,और शराबी पति से शादी करने का, विरोध किया था, और अपना कैरियर बनाने के लिए,घर से बाहर चली गयी थी, इन सामाजिक बुराइयों का विरोध करने पर उसे क्या मिला ? बल्कि घर वालों ने धरा का त्याग कर दिया।इस कहानीं में प्रथा ने अपनी मर्जी के लड़के से ब्याह किया घर वालों ने ,प्रथा को छोड़ दिया अलग-अलग धरातल पर लिखी गई दोनों कहानियां स्त्री जीवन के संघर्षों की गाथा है।ग्यारहवीं कहानीं "शराफत के ऩकाब" का प्रारंभ एक स्त्री के सौन्दर्य और उसके आवरण की खूबसूरत प्रस्तुति के साथ प्रारम्भ होता है यह एक ऐसी स्त्री जिसका जितना बाहरी सौन्दर्य है उससे कहीं अधिक आन्तरिक सौन्दर्य है, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाली स्त्री अपने पराऐ के भेद भाव को छोड़कर एक छोटी सी बच्ची को न्याय दिलाने के लिए अपने पति को कटघरे में पहुँचा देना निश्चय ही एक स्त्री के लिए बहुत बड़ा कदम है ,यदि समाज की प्रत्येक स्त्री अपराध के खिलाफ आवाज उठाने का संकल्प ईमानदारी से लेती है तो निश्चय ही समाज का बहुत बड़ा हिस्सा निरपराध हो जायेगा अर्थात अपराध मुक्त हो जायेगा। जहाँ समाज में एक ओर कीर्ति जैसी महिलाएं हैं वहीं दूसरी ओर विकृत मानसिकता वाली कीर्ति की चाची जैसी महिलाएं भी इसी समाज का हिसाब है इस कहानीं से एक बात बड़ी स्पष्ट है अपराध के लिए पुरुष ही नहीं,स्त्रियां भी उतनी ही दोषी है। बारहवीं कहानीं का नाम है अधूरी कहानी प्राकृतिक दृश्यों का बहुत का सुन्दर चित्रण ... कोहरे के वातावरण ने पृथ्वी को ढक लिया था मानो पूरा आसमान पिघलकर धरती पर आ गया हो, कहीं-कहीं वृक्षों के झुंड मानो कोहरे के पर्दे को थोड़ा सरका कर नई नवेली दुल्हन की भांति बाहर पगडंडी के किनारे खेलते शिशुबृन्द रूपी झाड़ियों की दूर तक फैली कतार को इसीलिए देखते कि कहीं यह पिघलता आसमान इन शिशुओं को अपने साथ बहाकर ना ले जाए। गलतफहमियों की शिकार,शैला पन्द्रह वर्ष बाद वापस लौटी अपने गाँव, जहाँ तलाशती अपना बचपन ,अपनी माँ ,अपने लोग,सूने घर में... मिलता पड़ोसन काकी का अपनापन निश्चल प्रेम। लेखिका गाँव की संस्कृति से ,गाँव की बस्तियों से, वहाँ की भाषा से ,इस्तेमाल की जाने वाली गाँव की वस्तुओं से भलीभांति वाकिफ है इसीलिए जरूरत के मुताबिक खूब अच्छा इस्तेमाल किया है जिनमें मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाना, घरों की देहरी पर दीपक रखना, मिट्टी के मटके ,चारपाई ,एलुमिनियम के बर्तन,अनाज रखे जाने वाली मिट्टी की डेहरी,बांस के दरवाजे,इत्यादि।अन्तिम कहानीं मेरी दादी इस कहानीं के नाम से ही दादी माँ के प्यार का सुखद स्मरण हो जाता है कहते हैं कि दादी तो अपने ब्याज को मूल रकम से अधिक प्यार करती है दादी- दादा का अनमोल स्नेह उम्र के हर पड़ाव पर याद आता है, सटीक चित्रण किया है। वृद्धावस्था की विवशताओं एवं वृद्धों की मनोदशा का प्रभाव बच्चों पर बहुत गहरी छाप छोड़ता है।प्रवाहमय भाषा के इस्तेमाल से कहानियों को रोचक बना दिया है. वैसे तो संग्रह की ज़्यादातर कहानियां अच्छी हैं. पाठक को सोचने के लिए ज़मीन देती हैं पर कहीं-कहीं विषयों का दोहराव दिखाई देता है,पर प्रत्येक कहानीं कहीं न कहीं सामाजिक जीवन की विसंगतियों पर तीव्र प्रहार करती है। गांवों में निम्न जातियों के उपेक्षित लोगों की दशा का ,स्त्री शोषण एवं मुक्ति की कामना,ग्राम्य जीवन, लेखिका के अनुभवों की श्रृंखला में बेहिसाब अनुभव का लेखा जोखा है "इंतजार अतीत के पन्नों से"
लेखिका का यह कहानीं संग्रह निश्चय ही हिंदी साहित्य जगत के लिए अनुपम कृति साबित होगा सभी कहानियां लेखिका के अनुभवों के निचोड़ से सुसज्जित हैं कहीं पर भी ना लेखन में त्रुटि है और ना ही बनावटीपन है निश्चय ही लेखिका न ेसमृद्ध लेखन की परम्परा को बखूबी निभाया है यहाँ चिन्तन है ,संदेश है ,समाज को आइना दिखाने की क्षमता है। कहानीं के पात्र विश्वसनीय लगते हैं ग्रामीण परिवेश का बहुत सुन्दर वर्णन है अद्भुत कल्पना शक्ति सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है ...लेखिका के उज्जवल भविष्य की मंगलमयी कामनाओं सहित... ।।

डॉ ज्योत्सना सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
जीवाजी विश्वविद्यालय
ग्वालियर मध्यप्रदेश
474011
 9425339116

मंगलवार

वो खाली बेंच

आज फिर वैसा ही मौसम वैसी ही बर्फबारी हो रही है वही बेंच है.... जहाँ आखिरी बार तुम मेरे साथ बैठी थीं और फिर मुझे अकेला ऐसी ही बर्फबारी में बैठा छोड़ कर गई थीं, देखो आज फिर वैसा ही मौसम है.... और... और वही मैं हूँ, हाँ थोड़ा सा बदल गया हूँ...चेहरे पर झुर्रियों ने अपनी बादशाहत जमा ली है...तुम्हारी तरह कुछ दाँत भी वापस कभी न आने के लिए छोड़कर चले गए, हाँ अब मैं तुम्हें बहुत दूर से आते हुए देखकर पहचान नहीं पाऊँगा तो क्या हुआ! यहाँ से दूर-दूर तक तुम्हारी मौजूदगी को भाँप सकता हूँ। ये दिल है न! ये पहले से ज्यादा जवान हो गया है...सपने में भी तुम्हारी मौज़ूदगी का अहसास करा देता है, पैर थोड़े कमजोर हो गए हैं, पर फिर भी.. तुमसे मिलने को रोज डेढ़ किलोमीटर चलकर आते हैं! काश वक्त ने साथ दिया होता, तो तुम्हारा साथ पाने के लिए मुझे रोज-रोज यहाँ नहीं आना पड़ता, हम साथ होते...होते न? देखो न! मुझे आज भी तुम्हारी पसंद याद है...यही फूल पसंद हैं न तुम्हें! इन्हीं के लिए तुम मुझसे रूठी थीं और फिर.......आज तक वापस नहीं आईं।
"अरे भाई साहब इतने सर्द मौसम में आप यहाँ बैठे हो, बर्फ पड़ रही है घर पर सब चिंतित हो रहे हैं, चलिए घर चलें।" दूर से ही बोलते हुए मदनलाल आए।
"क्या भाई साहब कुछ मौसम का भी खयाल कर लिया कीजिए, बूढ़ी हड्डियाँ इतनी ठंड झेल नहीं पाएँगी, बीमार पड़ जाओगे, फिर कैसे आओगे रोज-रोज यहाँ।" कोई जवाब न पाकर मदनलाल फिर बोला।
"चलो मदन घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जाएगा।" मदनलाल की बात का जवाब दिए बिना ही वह बेंच पर फूल रखकर उठते हुए बोले।
मदनलाल ने उनका हाथ पकड़ा और पगडंडी की ओर चल दिया। चलते हुए उसने पूछा- "एक बात बताओ समरकान्त भाई साहब.. चाहे ओले पड़ रहे हों, चाहे गर्म लू चल रही हो, चाहे बाढ़ आ रही हो... पर आप बिना नियम तोड़े यहाँ जरूर आते हो, और हमेशा आप यही फूल लेकर आते हो...भगवान झूठ न बुलाए आज आपकी कहानी जानने की इच्छा बड़ा जोर मार रही है, आज बता ही दो।"
"मदनलाल! कुछ कहानियाँ जब तक दिल की गहराइयों में ज़ब्त रहती हैं, तब तक अनमोल होती हैं, जिस दिन जुबां पर आ गईं अपनी अहमियत खो देती हैं। मेरी भी कहानी कुछ ऐसी ही है...जब तक यहाँ है, (उँगली अपने दिल पर रखते हुए) तुम और दूसरे भी न जाने कितने ही लोग जानने की जिज्ञासा रखते हैं, पर जिस दिन जुबां पर बात आई उस दिन बात आई-गई हो जाएगी।" समरकान्त ने बड़ी गंभीर मुद्रा में कहा। मदनलाल अब आगे पूछने में झिझका कि कहीं समरकान्त नाराज न हो जाए, फिर भी हिम्मत करके पूछ ही लिया-
"पर समर भाई साहब! क्या आपकी पूरी लाइफ हमारे लिए पहेली ही बनी रह जाएगी? भगवान झूठ न बुलाए सबको एक दिन उसके पास जाना ही है, भगवान आपको लंबी उम्र दे पर कभी न कभी तो आपको भी जाना ही है, उसके बाद आप सबके लिए एक अनसुलझी कहानी बन जाओगे।"
"नहीं मदन, ऐसा नहीं होगा, वैसे मैंने अपने भाई को भी बता रखा है तुम्हें भी बताए देता हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरी अंतिम क्रिया से पहले मेरे संदूक में रखी नीली डायरी जरूर पढ़ लेना, सबकुछ पता चल जाएगा।" समरकान्त ने कंपकंपाती आवाज में कहा। वह खुद नहीं समझ पा रहा था कि उसकी आवाज बर्फीली ठंड से काँप रही थी या बुढ़ापे के कारण।
बर्फ के कारण रास्ते में फिसलन हो गई थी, समर अपनी उम्र के सत्तरवें पायदान पर था, कहीं फिसल कर गिर गया तो कमजोर हो चुकी हड्डियाँ जवाब दे जाएँगीं यही सोचकर पैंतालीस-पचास वर्षीय मदन समर के साथ-साथ धीरे-धीरे चल रहा था जहाँ कहीं जरा सा भी पैर रपटता वह झट से  पकड़ लेता।
"तुम इस समय यहाँ मुझे लेने आए थे मदन? मेरे लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं थी।" समर ने कहा।
"तुम्हारा भतीजा रजत शहर गया है, घर पर कोई मर्द नहीं है बर्फ गिरते देख बहू तुम्हारे लिए परेशान हो गई, उसी ने भेजा कि अंधेरा होने से पहले तुम्हें ढूँढ़ लाऊँ नहीं तो रास्ते बंद हो गए तो बुढ़ऊ आएँगे कैसे?" मदन मसखरे अंदाज़ में बोला।
"हाँ..हाँ..हँस लो मेरी उम्र तक आते-आते तुम ऐसे भी नहीं रह जाओगे कि यहाँ तक पैदल चलकर आ सको देख लेना।" समरकान्त ने मुस्कुराते हुए कहा।
"कैसे आ पाऊँगा..आज तक कोई जगह मेरी इतनी पसंदीदा बनी ही नहीं कि वहाँ बैठकर मेरी बूढ़ी हड्डियाँ जवान हो उठें।" कहते हुए मदन हँस पड़ा।
हँसी-मजाक करते धीरे-धीरे चलते दोनों गाँव में पहुँच गए, समरकान्त के घर पहुँचकर मदन ने उसके कपड़े बदलवाए और तसले में लकड़ियाँ जला कर ठंड से जम चुके हाथ पैरों को सेंकने लगा। सामने की खिड़की का शीशा अभी-अभी किसी ने साफ किया था, वहाँ से बाहर का नजारा इतना आकर्षक लग रहा था कि एक बार नजर गई तो हटाना मुश्किल हो जाए, दूर-दूर तक बर्फ की सफेद चादर चाँद की रोशनी में जगह-जगह से झिलमिलाती हुई अलग ही मनोहारी छटा बिखेर रही थी, जगह जगह जुगनू जैसी चमक ऐसे उठती जैसे किसी ने हीरे बिखेर दिए हों। समरकान्त इस मनोहारी छटा को देखते हुए न जाने किन खयालों में खो से गए.....
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"ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते यात्रा को और अधिक लंबा बना देते हैं अगर सीधी समतल राह होती तो यही दूरी कितनी जल्दी तय हो जाती, एक तो राह ऐसी फिर ये बारिश क्या कम थी जो बर्फ भी पड़ने लगी......" होंठों ही होंठों में बुदबुदाता हुआ, अपने-आप से ही बातें करता वह बीस-पच्चीस साल का सुंदर, हृष्ट-पुष्ट युवक दोनों हथेलियों को बाँहों के नीचे  दबाए जल्दी-जल्दी लम्बे -लम्बे डग भरता चला जा रहा था, धरती पर बर्फ की मोटी सी चादर बिछ चुकी थी। दूर-दूर तक पेड़-पौधे, पत्ते-फूल सबका एक ही रंग (दूधिया सफेद) हो चुका था। जहाँ एक ओर रास्ते पर चलने वालों को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था, बर्फ जमें रास्ते पर संभल कर न चलें तो पैर फिसलते ही खाई में गिरने की संभावना थी, वहीं मौसम की सुंदरता अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। एक ओर नीचे खाई में देखने पर ऐसा लग रहा था मानो झाड़ियों, पेड़ों के पत्तों और टहनियों पर दूध का फेन जमा हुआ था, तो दूसरी ओर ऊँचाई पर पेड़-पौधे और झाड़ियों ने मानों सर्दी से ठिठुर कर सफेद रंग की रजाई ओढ़ ली थी। संध्या का समय था अंधेरा होने में भी अधिक समय नहीं था। एक ओर प्रकृति की दर्शनीय छवि मन को आह्लादित कर रही थी तो दूसरी ओर मौसम की भयावहता मन को आशंकित कर रही थी...ऐसे में कोई रुककर प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करे या शीघ्रातिशीघ्र सुरक्षित घर पहुँचे....युवक इन पहाड़ी क्षेत्रों की प्राकृतिक परिवर्तनों से भली-भाँति परिचित है, इसीलिए बिना रुके सावधानीपूर्वक आगे बढ़ता जा रहा था ताकि अंधेरा होने से पहले-पहले घर पहुँच जाए। पर शायद ईश्वर ने कुछ और ही सोच रखा था और ईश्वर के लिखे के विपरीत कभी कुछ भी हुआ है? जो आज होता!
अचानक कहीं से आवाज आई....बचाओ....
कहीं से किसी लड़की की चीख से युवक के कदम ठिठक गए, वह रुक कर गर्दन घुमा कर इधर-उधर देखने लगा पर जहाँ तक उसकी नजरें देख सकती थीं, कहीं कोई दिखाई नहीं दिया, उसने अपना भ्रम समझ जैसे ही आगे बढ़ा फिर वही आवाज आई....
ब...बचाओ....
अब उसे विश्वास हो गया कि जरूर कोई मुसीबत में है,  उसने जोर से पुकारा-
"कौन है, कोई दिखाई नहीं दे रहा कैसे बचाऊँ?"
"नीचे देखो" युवक के बाँयी ओर से आवाज आई।
उसने पगडंडी से नीचे की ओर झाँककर देखा तो अवाक् रह गया... एक पतली सी टहनी के सहारे एक युवती अपने आपको नीचे खाई में गिरने से बचाने की कोशिश कर रही थी, न जाने कब से लटकी होगी उसका सिर  और कंधे बर्फ से ढके हुए थे, वो आवाज न देती तो किसी को दिखाई भी नहीं देती। वह युवक  सोचने लगा कि कैसे बचाऊँ. ...बर्फ के कारण नीचे उतरने की कोशिश बेवकूफी होगी, आसपास कोई रस्सी भी नहीं मिलेगी, वह सोच ही रहा था कि उस युवती की आवाज फिर आई- "ज् ज..जल्दी कीजिए प् प्लीज मेरा हाथ  छूट रहा है..."
"नहीं...नहीं तुम जोर से पकड़े रहो मैं...मैं कुछ करता हूँ।" युवक जल्दी-जल्दी अपना ओवर कोट उतारने लगा...उसके दोनों बाजुओं में अपनी पैंट और फिर मफलर को बड़ी फुर्ती से बाँध कर नीचे  लटकाते हुए बोला- "तुम पहले एक हाथ  से इसे पकड़ने की कोशिश करो, फिर जब मजबूती से पकड़ लेना तभी दूसरे हाथ से टहनी छोड़ना, ध्यान रखना तुम्हारे हाथ जम चुके हैं, उँगलियाँ अकड़ चुकी हैं, छुवन पता भी नहीं चलेगा, इसीलिए  ध्यान से पकड़ना।"
वह युवक जैसे-जैसे बताता गया युवती करती गई और वह उसे सावधानीपूर्वक ऊपर खींचने लगा, थोड़ी ही देर में जब वह युवक के हाथों के दायरे में आ गई तो युवक ने उसका हाथ पकड़ कर ऊपर खींच लिया। दोनों वहीं पगडंडी पर बैठ कर अपनी साँस  दुरुस्त करते रहे, फिर युवक ने अपनी वही पतलून पहनी जो गीली हो चुकी थी। उसने देखा कि कंपकंपी के कारण युवती के दाँत बजे रहे थे, उसने अपना ओवर कोट उसे पहना दिया और कुछ कदमों की दूरी पर पेड़ के नीचे बेंच देखकर उसे सहारा देकर बेंच तक लाया, बेंच से बर्फ साफ करके उस पर उस युवती को बैठाया और  खुद बगल में बैठकर उसकी हथेलियों को रगड़ करके गर्म करने की कोशिश कर रहा था। बर्फ गिरना बंद हो चुका था, अंधेरा भी धीरे-धीरे अपना दामन पसारने लगा, युवक का गाँव यहाँ से कोई डेढ़-दो किलोमीटर था पर वह उस युवती को अकेली छोड़कर नहीं जा सकता था और ठंड जैसे युवती के शरीर में समा चुकी थी वह जोर-जोर से काँप रही थी। युवक उसकी हथेलियों को रगड़ कर गर्म करने की कोशिश कर रहा था पर उसका यह प्रयास असफल हो रहा था।
"तुम गिरीं कैसे?" अचानक अनचाहे ही वह पूछ बैठा।
प् प्पता नहीं श्शायद पैर क् कुछ घास के ऊपर पड़ गया अ..और मैं फिसल गई, व्..वो तो अच्छा ही हुआ क् कि हाथ में टहनी आ गई और मैं लटकी रह गई। आ...आप...म् मेरी वजह से बहुत परेशान ह् हुए।" युवती बहुत कुछ बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई, उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहे।  ठंड की अधिकता से या जिस मौत का सामना करके अभी-अभी वह आई है उस दहशत के प्रभाव से उसका शरीर उसके नियंत्रण में नहीं था लाख कोशिशों के बाद भी वह अपनी कंपकंपी को रोक नहीं पा रही थी।
"तुम कहाँ रहती हो..मेरा मतलब तुम्हारा गाँव?" युवक ने पूछा।
"र् रायपुरा।"
"वो तो ज्यादा दूर नहीं है, तुम चलो मैं छोड़ दूँगा, अब तो अंधेरा भी हो गया रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं पड़ेगा।" युवक ने कहा।
"ह् हाँ, चलिए।" कहती हुई वह उठने लगी तो युवक ने उसे सहारा देकर उठाया।
आसमान साफ था पर पेड़-पौधों के कारण अंधेरे की गहनता बढ़ गई थी कदम भर की दूरी पर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसे में वह युवक युवती को कंधों से पकड़े हुए अंदाजे से ही धीरे-धीरे पगडंडी पर आगे बढ़ रहा था तभी युवती का पैर किसी पत्थर से टकराया और वह चीख पड़ी, युवक घुटनों पर बैठकर उसका पैर अपने एक घुटने पर रखकर अपनी हथेली से उसे गरम करने की कोशिश करने लगा तभी उस युवती ने अपना पैर खींच लिया और बोली- "आ..आप पहले ही इतना कुछ क् क..कर चुके हैं, मेरे लिए तो आप भ..भगवान बन कर आए हैं, अब ऐसा न कीजिए क् कि मैं आत्मग्लानि से उबर ही न पाऊँ।"
"आप को नंगे पैर चलने में दिक्कत हो रही है, ऐसा कीजिए, मेरे जूते पहन लीजिए।" कहकर वह अपने जूते खोलने लगा तभी कुछ दूरी पर रोशनी दिखाई दी।
"नहीं-नहीं मैं ऐसे ही ठीक हूँ, शायद कोई इधर ही आ रहा है।" युवती बोली।
"हाँ, पर शायद एक से ज्यादा लोग हैं।"
"मुझे डर लग रहा है।"
"डरो नहीं हो सकता है हमें कोई सहायता मिल जाए।" युवक ने कहा।
वह रोशनी अब और पास आ चुकी थी, धीरे-धीरे कुछ परछाइयाँ नजदीक और नजदीक आती जा रही थीं...ये दोनों भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, युवती ने डर के कारण युवक का हाथ जोर से पकड़ लिया था, भय तो युवक को भी लग रहा था, पर वह अपना डर प्रकट नहीं कर सकता था।
"अगर लुटेरे हुए तो?" युवती ने कहा।
"हमारे पास है ही क्या लूटने को..उल्टा देकर जाएँगे।" युवक ने उसका डर कम करने के उद्देश्य से कहा।
वो साये पास आ चुके थे चार लोग थे हाथों में लाठी और टॉर्च थे जैसे ही पास आए उनमें से एक युवक बोल पड़ा- "अरे भाई कहाँ रह गए थे, हम तो डर ही गए थे कि पता नहीं ऐसे मौसम में कहाँ होंगे, और ये आपके साथ कौन हैं?"
"ये....इनको पहले इनके घर पहुँचाना है, चलो चलते-चलते रास्ते में मैं बताता हूँ कि क्या हुआ? कहते हुए युवक युवती को सहारा देकर चलने लगा और सारी बातें उन सबको बताने लगा।
उनकी बातों से युवती को पता चला कि युवक का नाम समरकान्त है और आने वालों में एक उसका भाई है।
युवती के बूढ़े पिता उसे सही सलामत देख बहुत खुश हुए और समर को बार-बार हाथ जोड़कर धन्यवाद कहते रहे।
युवती को उसके घर तक सुरक्षित पहुँचाकर समर को अपार संतोष का अहसास हो रहा था। उसे नहीं पता था कि निःस्वार्थ भाव से किसी की सहायता करके इतनी प्रसन्नता होती है। वह युवती अपने बूढ़े पिता की इकलौती लाठी थी, उसके समय से न पहुँचने से वह बहुत परेशान थे पर लाचार थे कि अपनी बेटी को खोजने भी नहीं जा सकते थे, उन्होंने पड़ोस में किसी से सहायता माँगी तो जवाब मिला कि "नाहक परेशान हो रहे हो चचा, खराब मौसम के कारण कहीं रुक गई होगी मौसम साफ होते ही आ जाएगी।।"
उन्होंने आग्रह किया कि आज रात समर अपने भाई और मित्रों के साथ वहीं रुक जाएँ परंतु उन लोगों ने घर पहुँचने की विवशता जताते हुए अनुमति माँगी और अपने गाँव के लिए चल पड़े।
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आज शनिवार है और शाम का वही समय जब समर की मुलाकात उस लड़की से हुई थी....वही लड़की...जो खाई में गिरने वाली थी, तब भी समर अपनी नौकरी से साप्ताहिक छुट्टी पर घर आ रहा था। शहर की दूरी यहाँ से अधिक होने के कारण वह रोज का आना-जाना न करके हर शनिवार को आ जाया करता और रविवार पूरा दिन घरवालों के साथ बिताता और सोमवार की सुबह फिर एक सप्ताह के लिए वापस अपनी नौकरी पर शहर चला जाता। 
आज मौसम साफ है किन्तु ठंडी हवाएँ मानो हड्डियों को छूती हुई गुजर रही हों, सूर्य देव संध्या का आँचल ओढ़ने को आतुर अस्तांचलगामी हो रहे। जाते-जाते अपनी सुनहरी किरणों से वृक्षों और पर्वत की चोटियों को सुनहरी आभा से आलोकित कर रहे हैं। सर्द हवाओं से हाथ की उँगलियों को बचाने के लिए समर अपनी दोनों हथेलियों को अपनी बाँहों के नीचे दबाए जैसे ही उस खाई के पास से गुजरा उस दिन की घटना चलचित्र की भाँति उसकी आँखों के सामने उभरने लगी, अगर वह लड़की गिर जाती तो....यह सोचते शरीर में अजीब सी झुरझुरी महसूस की उसने। वह एक पल को ठिठका और नीचे खाई में झाँक कर देखा तो वह टहनी अब भी मस्ती में हवा के हल्के झोंकों संग झूम रही थी, उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कह रही हो कि "देखो मैं ही हूँ जिसने उस लड़की को तुम्हारे आने से पहले भी और आने के बाद भी न जाने कितनी देर तक थामे रखा, नीचे गहराई देखो..अगर मैं न होती तो सोचो उसका क्या होता, बर्फ में ढक गई होती किसी को पता भी न चलता।"
नहीं...भय की एक लहर दौड़ गई समर के शरीर में और वह झटके से पीछे हट गया। अब कुछ तो मौसम और कुछ डर का असर, उसे कुछ ज्यादा ही सर्दी महसूस होने लगी। वह जल्दी-जल्दी अपने गाँव की ओर बढ़ने लगा, पेड़ों के झुरमुटों को पार करके जैसे ही पगडंडी पर पहुँचा उसकी गर्दन अनायास ही उधर मुड़ गई जहाँ पेड़ के नीचे बेंच थी; पर आज वह बेंच खाली नहीं थी, कोई लड़की बैठी थी उसपर। उसका कंधा और पीठ ही इस ओर थी, घने लंबे बालों ने चेहरे को लगभग ढक रखा था, जैसे घने काले बादलों के पीछे छिपते हुए चाँद की बस आभा ही बादलों की परतों के बीच से चमकती है, वैसी ही उसके गोरे दूधिया रंग की आभा घने बालों की लटों के बीच से झलक रही थी। उसके पैरों पर कुछ रखा हुआ था कोई जैकेट जैसा कुछ था परंतु तह लगे होने की वजह से समझ नहीं आ रहा था। समर खुद को रोक न सका, कौन है वह लड़की, यह जानने की जिज्ञासा में उसके कदम बरबस उधर मुड़ गए। उसके अंतस में शायद कहीं यह आस थी कि यह वही लड़की है। वह लड़की मानो गहरी सोच में डूबी हुई थी उसे समर के आने का अहसास भी नहीं हुआ।
"आप कौन हैं, और इस समय यहाँ इस सुनसान सी जगह पर क्या कर रही हैं?" समर ने पास पहुँचकर कहा।
वह चौंक कर खड़ी हो गई, गोद में रखी वस्तु नीचे गिर पड़ी। दोनों एक-दूसरे को देखकर चौंक गए....अआआप...
दोनों के मुँह से एक साथ निकला।
रंग ऐसा गोरा मानो दूध में एक चुटकी सिंदूर मिला दिया हो,  तीखी पतली नाक का कोना ठंड से कुछ ज्यादा ही गुलाबी हो रहा था, नीली चमकती हुई आँखों में देखते ही उसकी गहराई में खो गया समर और कुछ भी पूछना याद न रहा।
गुलाबी होंठ पता नहीं भय से या शर्म से थरथरा रहे थे, न जाने क्या था समर की आँखों में कि उसे इस तरह एकटक अपनी ओर देखते पाकर उसकी घनी पलकों ने शर्म का घूँघट डाल दिया आँखों पर। उसे इस प्रकार शर्माती देख समर को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह झेंपते हुए बोला- "आप इस समय यहाँ क्या कर रही हैं।"
"व् वो मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी।" उस लड़की ने कहा।
"मेरा इंतजार! क्यों?" समर को आश्चर्य हुआ।
"मैं आपका ओवरकोट देने आई थी, आपका घर नहीं पता इसलिए यहीं इंतजार कर रही थी।" लड़की ने नीचे गिरा हुआ ओवरकोट उठाते हुए कहा।
"पर आपको ये कैसे पता चला कि मैं यहाँ से आने वाला हूँ?" उसने पूछा।
"मुझे पता नहीं था लेकिन आप उस दिन इधर से इसी समय जा रहे थे, इसीलिए मैंने सोचा कि आप किसी दिन तो यहाँ से निकलेंगे ही और जब निकलेंगे मैं आपकी अमानत आपको लौटा दूँगी। आपने मेरी जान बचाकर मेरे बाबा और मुझ पर जो अहसान किया है, उसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है, पर मेरे पास इसके अलावा और कुछ है भी नहीं देने के लिए।" उसने गरदन झुकाए हुए ही जवाब दिया।
"तो क्या तुम रोज यहाँ आती थीं?" समर आश्चर्य के भावावेग में कब आप से तुम पर आ गया उसे पता ही नहीं चला ।
"जी, मुझे पता नहीं था न, इसीलिए रोज आती थी।"
समर को समझ नहीं आया कि उसे क्या कहे उसे तो यह भी अहसास नहीं रहा कि सर्दी बढ़ती जा रही है, उसने चुपचाप ओवरकोट ले लिया और एक पल चुप रह कर फिर बोला- "चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ।"
"नहीं, मैं चली जाऊँगी, आप भी जाइए अंधेरा होने वाला है।" कहती हुई वह उसके गाँव को जाने वाली पगडंडी पर चल दी।
"सुनो!" समर ने पुकारा।
"ज्जी!" वह अपनी जगह पर ही ठिठकी।
"अपना नाम तो बताती जाओ।"
"रत्ना" कहती हुई वह तेजी से बढ़ गई।
"कल आओगी यहाँ? मैं इंतज़ार करूँगा।" समर के मुँह से बेसाख्ता निकला। उसे खुद ही अजीब लगा कि उसने यह कैसे और क्यों बोला, उसने उधर देखा तो वह बिना जवाब दिए मुड़कर ऊँची झाड़ियों के पीछे लुप्त हो चुकी थी। समर चुपचाप अपने घर की ओर चल दिया, उसे लगा पीछे कुछ छूट रहा है, उसने मुड़कर देखा वहाँ बस खाली बेंच थी...मूक..कुछ कहती हुई।
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 वह बेचैनी से करवटें बदल रही थी नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, सोने के लिए आँखें बंद करते ही बार-बार उसकी आँखों के सामने समर का वही चेहरा आ जाता...उसकी आँखें....उफ्फ्...न जाने क्या था उन आँखों में...सोचते ही रत्ना अकेले में भी शरमा जाती। क्या वह उससे मिलने कल जाएगी? क्या उसे जाना चाहिए? लेकिन अगर नहीं गई तो यह तो धृष्टता होगी...आखिर उसने अपनी जान पर खेलकर मेरी जान बचाई है, तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती? आखिर इसमें बुराई भी क्या है...और...और फिर मैं भी तो मिलना चाहती हूँ। सोचते ही वह फिर शरमा गई। अगले दिन की मुलाकात के सपने बुनते-बुनते इंद्रधनुषी सपनों के रंगों को पलकों में सजाए वह सो गई अपने सपनों को हकीकत में परिणित करने के लिए।
बाबा की खाँसी की आवाज सुनकर रत्ना की आँख खुली, खिड़की की ओर गर्दन घुमाई तो अभी बाहर कोहरे ने अपना परचम लहराया हुआ था, मौसम की शीतलता देख सूर्य देव भी मानों जागने को तैयार न थे। जहाँ तक नजर जाती ऐसा लग रहा था कि पेड़-पौधे, घरों की छतें सभी कोहरेनुमा रजाई से सिर बाहर निकालकर सूरज के आने की बाट जोह रहे थे। रत्ना का भी मन हुआ कि फिर से रजाई में मुँह ढककर सो जाए लेकिन ज्योंही उसने रजाई सिर तक खींची, उसे फिर बाबा के खाँसने की आवाज आई।
वह उठ गई; जल्दी-जल्दी शॉल ओढ़कर बाबा के कमरे में आई, बाबा रजाई ओढ़कर बैठे थे। वह भीतर रसोई में गई और अंगीठी में आग जलाकर अंगीठी लाकर बाबा के कमरे में रख दिया और उन्हें पानी गरम करके पीने को देकर उनके लिए काढ़ा बनाने लगी। रत्ना के हाथ का बना काढ़ा ही बाबा की खाँसी के लिए रामबाण का काम करता है। पूरी सर्दियाँ जब-तब बाबा को इस काढ़े की जरूरत पड़ती ही रहती है।
"तुम इतनी जल्दी क्यों उठ गई बिटिया, अभी तो बाहर बहुत ठंड है, अभी क्या करोगी उठकर?" बाबा ने कहा।
"आपको खाँसते देख मुझे नींद कैसे आती बाबा, सर्दी ज्यादा है तो आपकी खाँसी भी उभर आई है।" काढ़ा उनके हाथ में पकड़ाते हुए रत्ना बोली।
"आग से गरम हो जाएगा कमरा, अब खाँसी भी रुक गई है तुम चाहों तो जाकर सो जाओ।" बाबा बोले।
पर रत्ना को नींद कहाँ आने वाली थी उसे तो बड़ी बेसब्री से  शाम का इंतज़ार था। अब वह सारा काम जल्दी-जल्दी निपटा लेना चाहती थी, इसलिए वह रोज-मर्रा की साफ-सफाई के काम में लग गई ताकि किसी काम के कारण उसका जाना स्थगित न करना पड़े।
पूरा दिन रत्ना का बड़ी व्यस्तता में निकला अब उसे समर से मिलने जाना था पर न जाने क्यों वह अब भी निश्चय-अनिश्चय के दोराहे पर खड़ी तय नहीं कर पा रही थी कि उसे जाना चाहिए या नहीं! आखिर क्यों जाए वह? उसका रिश्ता क्या है उससे? क्या सिर्फ अहसानों के बोझ तले दबकर उसका वहाँ जाना उचित होगा? वह अपने भीतर चल रहे झंझावातों में उलझी कुछ तय नहीं कर पा रही थी।
दूसरी ओर समर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता कभी कलाई पर बंधी घड़ी में नजर डालता कभी सामने रास्ते को देखते हुए अंदाज़ा लगाता कि अभी कितना समय और लगेगा वहाँ पहुँचने में....। उसके मन में एक तूफान सा चल रहा था कि क्या रत्ना आएगी? क्यों आएगी? उसके लिए कोई जरूरी थोड़ी न है....न ही मैं उसका कोई नजदीकी रिश्तेदार हूँ, आखिर क्यों आएगी वह? फिर उसके अंदर से ही आवाज आई...वो जरूर आएगी...उसकी आँखों ने स्वीकृति दी थी, देखना! वो जरूर आएगी। अपने ही सवालों-जवाबों में उलझा वह उस बाग में उस बेंच के पास पहुँच गया जिस पर उसने कल रत्ना को बैठी देखा था। वह जानता था कि वो नहीं आएगी फिर भी न जाने क्यों खाली बेंच देखकर उसे निराशा हुई। वह पूरे रास्ते अपने-आपको समझाता आया था कि रत्ना नहीं आएगी परंतु शायद उसके दिल के किसी कोने में यह विश्वास दृढ़ था कि वह जरूर आएगी, इसीलिए उसे वहाँ न पाकर वह उदास हो गया। उदासी से कहीं अधिक मन ही मन खिन्न हो रहा था, अपने ऊपर ही क्रोध आ रहा था कि उसने उसे क्यों कहा आने के लिए.... क्या सोच रही होगी वह इस विषय में कि कितना स्वार्थी है! जान क्या बचाई अहसान समझ बैठा और उस अहसान की कीमत भी माँगने लगा...छिः..कितना बुरा लगा होगा उसे; अब वह शायद कभी मेरी शक्ल देखना भी पसंद न करे। ऐसे खयाल बार-बार समर को व्यथित करने लगे। 'अब मेरा यहाँ क्या काम, मुझे भी चलना चाहिए।' यह सोच कर समर उठना ही चाहता था कि उसके दिल ने कहा थोड़ी देर यहीं बैठते हैं इतनी जल्दी वापस जाकर करना भी क्या है...शायद अभी भी उसे कहीं न कहीं ये विश्वास था कि वो जरूर आएगी। समर बेंच पर चुपचाप बैठ गया, न चाहते हुए भी बार-बार उसकी नजर उस पगडंडी का मुआयना कर आती, जो पगडंडी रत्ना के गाँव की ओर जाती है।
उसे बैठे हुए आधा घंटा होने को आया तभी ख्याल आया क्यों न खाई की ओर ही घूम आया जाय और यही सोचकर वह उठ कर उस ओर चल दिया जहाँ उसने रत्ना को खाई में लटकी अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करते देखा था। उसे न जाने क्यों उस जगह से अजीब सा लगाव हो गया था। वह वहीं पैर लटका कर बैठ गया और आँखों ही आँखों में खाई की गहराई नापने लगा, कभी पेड़-पौधों की प्रजातियों को जानने की कोशिश करता कभी अस्तांचलगामी दिवापति की ओर देखता। कुछ देर बाद वह उठा और घर की ओर चल दिया।
बगीचे के दूसरी ओर पहुँच अनायास ही उसने गर्दन घुमाकर बेंच की ओर देखा और....उसके कदम ठिठक गए, बेसाख्ता ही मुँह से निकला- "तुम आ गईं!"
"जी, मैं बहुत देर से यहाँ बैठी हूँ।" रत्ना खड़ी होते हुए बोली।
"आप तो कह रहे थे कि रविवार को आप अपने घर पर ही होते हैं, पर आप तो शहर की ओर से आ रहे हैं।" उसने उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही कहा।
"नहीं-नहीं मैं शहर नहीं गया था वो दरअसल तुम्हें यहाँ न पाकर मैं उस खाई की ओर घूमने चला गया था, जहाँ पहली बार तुम्हें देखा था।" समर अपनी ही रौ में बोलता चला गया।
"तुम खड़ी क्यों हो गईं, बैठो न!" वह बेंच पर बैठता हुआ बोला।
रत्ना चुपचाप बेंच के दूसरे किनारे पर बैठ गई। दोनों खामोशी से सिर झुकाए बैठे थे कभी-कभी सागर गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखता तो वह या तो पैर के अँगूठे से जमीन कुरेद रही होती या नाखून से बेंच का हत्था खुरचती मिलती, जैसे ही उसे अहसास होता कि सागर उसकी ओर देख रहा है वह कुरेदना बंद कर देती।
"क्या हम ऐसे चुपचाप बैठे रहेंगे? कुछ बात करो, सुना है लड़कियाँ बहुत बोलती हैं पर तुम तो बिल्कुल चुप हो।" सागर ने कहा।
"जी, आपने बुलाया आप ही बताइए क्यों बुलाया?" उसने पहली बार सागर के चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए कहा।
"तुम्हें बुरा लगा?" सागर ने पूछा।
"क्या?"
"मेरा बुलाना।"
"मैंने ऐसा कब कहा!" बिना सोचे ही उसके मुँह से निकला।
"मुझे डर लग रहा था कि तुम कहीं मुझे गलत न समझ बैठो।"
"पर ये सवाल तो अब भी है कि आपने मुझे यहाँ क्यों बुलाया।"
"सच कहूँ तो उस समय मैं भी नहीं जानता था, और अब भी यही कह सकता हूँ कि जितना भी समय तुम्हारे साथ होता हूँ, वह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पल महसूस होते हैं, शायद उन्हीं खूबसूरत पलों में बढ़ोत्तरी के लिए अनायास ही तुम्हें बुला लिया था।"
समर ने रत्ना के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए ही कहा। उसको अपनी ओर एकटक देखता देख रत्ना ने शर्म से नजरें झुका लीं।
"कुछ मैं भी पूछूँ सही-सही जवाब दोगी?" समर ने कहा।
उसने बिना कुछ बोले हाँ में सिर हिला दिया।
"तुम्हें भी आज शाम का इंतज़ार बेसब्री से था?"
वह बिना जवाब दिए चुपचाप नाखून से बेंच को कुरेदने लगी।
"समझ गया, तुम नहीं बोलोगी लेकिन मुझे जवाब मिल गया।
रत्ना उठ खड़ी हुई।
"क्या हुआ?" समर भी खड़ा होता हुआ बोला।
"शाम हो गई, बाबा इंतजार कर रहे होंगे।"
"ठीक है जाओ, मैं कल सुबह ही शहर चला जाऊँगा और फिर शनिवार को आऊँगा, चाहता हूँ तुम्हें यहीं देखूँ।" बोलते हुए समर की आवाज़ न जाने क्यों बेहद संजीदा हो गई, जैसे उसकी कोई बहुत ही प्रिय वस्तु उससे दूर हो रही हो।
रत्ना का मन नहीं हो रहा था जाने का, पर न चाहते हुए भी वह बिना कुछ बोले पगडंडी की ओर चल दी, उसके पैर बड़े भारी महसूस हो रहे थे। उसे सागर की आँखे अपनी पीठ पर गड़ी हुई महसूस हो रही थीं, इससे पहले कि पगडंडी पर मुड़कर झाड़ियों के पीछे लुप्त होती ..वह रुकी, पीछे मुड़ी तो सागर को वहीं खड़े होकर अपनी ओर देखता पाया। वह भी उसकी सूरत अपनी आँखों में बसा लेना चाहती थी ताकि एक हफ्ता आराम से कट सके। कुछ पल दोनों एक-दूसरे को देखते रहे फिर वह मुड़ी और आगे बढ़ झाड़ियों के पीछे गायब हो गई।
सागर भी धीरे-धीरे भारी कदमों से चलता हुआ अपने गाँव की ओर चल दिया।
***  ***  ***  ***  ***  ***  ***  ***  ***

बगीचे के किनारे पर पहले ही पेड़ के नीचे रखी वह लोहे की बेंच इंतजार करती सप्ताह के उस आखिरी दिन की संध्या का जब दो प्यार करने वाले उस पर बैठकर अपने हफ्ते भर की बातों का पिटारा वहाँ खोलते, उस समय आस-पास के पेड़-पौधे मानों उनकी खुशी में खुश होकर झूम-झूमकर अपनी खुशी व्यक्त करते, वातावरण में खुशनुमा वासंती निखार आ जाता। वह बेंच उनके प्यार की साक्षी और रत्ना के उस समय के विरह की साक्षी बनती जब समर गाँव से दूर शहर में होता। रत्ना जब कभी अधिक व्याकुलता महसूस करती तो आकर घंटों अकेली उसी बेंच पर बैठ अपने सुनहरे पलों को याद किया करती।
एक-दूसरे का साथ पाकर दोनों अपने-आप को भाग्यशाली समझ रहे थे, खुशियों का ये एक वर्ष पंख लगा कर कैसे उड़ गया पता ही न चला। समर और रत्ना के इस रिश्ते की खबर उड़ती-उड़ती रत्ना के बाबा तक भी पहुँची। पहले तो उन्हें बहुत क्रोध आया परंतु रत्ना के बार-बार मिन्नतें करने से वह समर से एक बार मिलने को राजी हुए और फिर समर से बात करके उन्हें भी ऐसा लगने लगा कि वह हाथ में दीपक लेकर ढूँढ़ते तो भी अपने लिए ऐसा दामाद न ढूँढ़ पाते। उन्होंने समर से वचन ले लिया कि अगले दो-तीन माह में ही वह रत्ना से विवाह कर ले, उसने अपने घर में बात करने का आश्वासन दिया।
रत्ना अपने बिस्तर पर लेटी सामने दीवार पर कीलों को ठोंककर टिकाए गए लकड़ी के एक फट्टे पर कई रंगों से सजे मिट्टी के फूलदान में सजे रजनीगंधा के सफेद फूलों को देख-देखकर भविष्य के सुनहरे सपनों को आँखों में सजाए हुए सोचती है कि कैसे समर से उसने एक बार ही कहा था कि उसे रजनीगंधा के फूल बहुत पसंद हैं, वह चाहती है कि उसके आसपास से हमेशा उसकी भीनी-भीनी सी खुशबू आती रहे। उसने तो बस अपनी पसंद बताई थी परंतु तब से अब तक समर हर बार जब भी उससे मिलने आता रजनीगंधा के फूल लेकर आता। उन फूलों की महक में वह पूरे सप्ताह अपने प्रति समर के प्यार की महक को महसूस करती। अब तो मानो आदत सी बन गई थी कि कमरे में प्रवेश करते ही सबसे पहले फूलदान में सजे रजनीगंधा के फूलों पर ही उसकी नजर जाती, उनमें समर की मुस्कुराती छवि नजर आती। अब समर के बिना एक-एक पल उसे भारी महसूस होते। उसके बिना जीवन की कल्पना तो वह स्वप्न में भी नहीं कर सकती थी। और यही हाल समर का भी था।
समर ने निश्चय कर लिया था कि अगले सप्ताह जब वह घर आएगा तो अपने पिता जी से रत्ना के विषय में बात करेगा। हालांकि सीधे-सीधे उनसे कहने का साहस तो नहीं है फिर भी चाचा की मदद लेकर जैसे भी हो बात तो करना ही है। इस सप्ताह के एक-एक दिन समर को एक-एक वर्ष के बराबर लग रहे थे। भयमिश्रित  उत्साह उसके हृदय में हलचल मचा रहा था, कभी-कभी किंकर्तव्यविमूढ़ता का भाव उसे बेचैन कर देता, उसके पिता जी मानेंगे या नहीं, वह कैसे उन्हें मनाएगा आदि सवाल कभी-कभी उसे परेशान करते, पर फिर वह खुद को समझा लेता कि सकारात्मक सोच के साथ ही हर कार्य करना चाहिए।
आखिर वह दिन भी आया जब समर अपने मन में एक दृढ़ निश्चय और आँखों में सुनहरे सपने लिए गाँव की ओर चला जा रहा था, थोड़ी देर पहले ही बर्फ गिरी थी अभी भी चारों ओर बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी। हवा में वही शरीर में चुभने वाली बर्फीली ठंडक थी। रास्ते में बर्फ की इतनी मोटी परत बिछ गई थी कि पिंडलियों तक पैर धँस रहे थे। फिसलन के डर से समर धीरे-धीरे गाँव की ओर बढ़ रहा था। आज उसे फिर वही दिन याद आया जब उसने रत्ना को पहली बार देखा था...ऐसा ही मौसम और यही समय था और यही जगह थी, ये सोचकर समर ने खाई में झाँने की कोशिश की वो टहनी बर्फ से ढकी झूम रही थी। उसे उस टहनी से लटकी बर्फ से ढकी हुई रत्ना का ख्याल आया और उसके शरीर में सनसनी सी दौड़ गई। वह फिर आगे बढ़ गया। आज मौसम इतना खराब है कि वह रत्ना से मिल भी नहीं पाएगा, वो कैसे आएगी ऐसे मौसम में? यही सोचते हुए वह बगीचे के दूसरे छोर तक आ पहुँचा और आदतानुसार अनायास ही उसके पैर बेंच की ओर मुड़ गए...पर ये क्या ऐसे मौसम में भी रत्ना वहीं बेंच पर बैठी मिली, बर्फ हटाकर बेंच पर बैठने लायक जगह को साफ किया हुआ लग रहा था।
"तुम!...आज भी!" समर के मुँह से अनायास ही निकला।
"अगर नहीं आती तो तुम्हें देखती कैसे? और तुम्हें देखे बिना मुझे नींद कैसे आती?" रत्ना उसके करीब आकर बोली।
"पर रत्ना मौसम बहुत खराब है, रास्तों का भी ठीक से पता नहीं चल रहा है।"
"अपने रोज के आने-जाने की पगडंडी तो पता है न, फिर काहे की चिन्ता।"
"सच तो ये है कि तुम्हें नहीं देखता तो मुझे भी कहाँ नींद आने वाली थी।" समर ने रत्ना का हाथ पकड़ते हुए कहा।
"हाँ, हफ्ते भर चैन की नींद सो सकें इसके लिए हमारी आँखों को जो एक-दूसरे के दर्शन की खुराक चाहिए होती है, वो तो कल ही खत्म हो गई थी।" रत्ना हँसती हुई बोली।
"सच कह रही हो। अच्छा, मौसम ठीक नहीं है, चलो तुम्हें घर छोड़ दूँ।"
"तुम कुछ भूल नहीं रहे?"
"क्या?"
"वो भी मैं ही बताऊँगी?" रत्ना तुनक कर बोली।
"रजनीगंधा के फूल! पर आज वो मिले ही नहीं।" समर ने उदास होकर ऐसे कहा मानों उससे कोई बड़ी गलती हो गई हो।
"नहीं मिले...पूरा हफ्ता मैं उन्हीं फूलों के सहारे निकालती हूँ, तुम कह रहे मिले ही नहीं, अब तुम्हीं बता दो कि ये पूरा हफ्ता मैं कैसे काटूँगी?"
उसे गुस्से में देख समर को बहुत पछतावा हो रहा था, उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था कि थोड़ा और कोशिश करता तो मिल जाते।
"रत्ना तुम समझने की कोशिश करो.."
क्या समझूँ..अब मैं जा रही हूँ तुम मेरे पीछे मत आना।" कहती हुई वह गाँव की ओर चल दी।
"पर मैं छोड़ देता..." समर ने कहना चाहा पर रत्ना ने पीछे देखे बिना उसे हाथ दिखा कर रोक दिया। वह मन ही मन मुस्कुरा रही थी, समर कितना प्यार करता है उसे, उसके झूठे गुस्से को भी सच मान बैठा, बेचारा कितना उदास हो गया, अब कल तक ऐसे ही रहेगा; फिर कल मैं उसको बता दूँगी कि ये सब तो मजाक था, फूल उससे बढ़कर थोड़ी न हो गए हैं। सोचती और मन ही मन हँसती वह गाँव की ओर चली जा रही थी।
इधर समर बेहद उदास हो गया, उसे लगा कि रत्ना ने इतने दिनों में एक ही तो तुच्छ सी चीज माँगी, उसकी यह छोटी सी ख्वाहिश भी पूरी न कर सका। यही सोचता हुआ बुझे मन से वह अपने गाँव की ओर चल दिया।
अगले दिन समर रत्ना से मिलने से पहले अपने पिता जी से बात करना चाहता था, इसलिए उसने अपने चाचा जी को सारी बात बता कर उन्हें पिताजी से बात करने के लिए मना लिया।

समर आज बहुत खुश था, खुशी के मारे वह बिना पंख ही हवा में उड़ रहा था, ख्यालों में ही गोते लगा रहा था, उसका वश चलता तो अभी जाकर यह खुशखबरी रत्ना को सुना देता, ऐसी खुशखबरी पाकर उसका गुस्सा भी शांत हो जाता, पर क्या करे.......आज मौसम ही साथ नहीं दे रहा, सुबह से बारिश होती रही और अब दिन के तीसरे पहर से ही बर्फ पड़नी शुरू हो गई। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था वैसे-वैसे समर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, रास्ते में धीरे-धीरे बर्फ जमने लगी।
वह सोच में पड़ गया कि कैसे रत्ना से मिलने जाए? वो भी कैसे आएगी ऐसे मौसम में? पर कल भी तो आई थी, अगर आज भी आई और मैं वहाँ नहीं मिला तो? नहीं, जाना तो पड़ेगा। यह सोचकर समर ने छाता लिया और सबकी नजरें बचाकर चुपचाप बगीचे की ओर चल दिया।
बर्फबारी बन्द हो चुकी थी, पूरा बगीचा सफेद चादर में ढँक चुका था। समर को वहाँ इंतजार करते हुए एक घंटा हो गया पर रत्ना नहीं आई। क्या वह गुस्से की वजह से नहीं आई, या मौसम खराब होने की वजह से? पर कल भी तो आई थी...शायद इसलिए क्योंकि कल उसे पता था कि मैं शहर से तो जरूर आऊँगा और आज शायद उसे ये विश्वास होगा कि ऐसे मौसम में मैं नहीं आऊँगा। इसी उधेड़ बुन में शाम हो गई, तिमिर का झुटपुटा फैलने लगा। आसमान का एक भाग सिंदूरी होने लगा। समर समझ चुका था कि रत्ना को आना होता तो अब तक आ चुकी होती। यह सोचकर वह मायूस सा होकर वापस गाँव की ओर चल पड़ा....मायूसी से पैर इतने भारी हो रहे थे कि उसको एक-एक कदम चलना मुश्किल हो रहा था, वह जैसे -तैसे घर पहुँचते-पहुँचते थककर चूर हो चुका था, इसलिए चुपचाप जाकर बिना किसी से कुछ कहे सो गया।
***  ***  ***  ***  ***  ***  ***  ***  ***

इस बार समर गाँव से बहुत बुझा-बुझ सा आया, आते-आते भी मन में यही ख्याल आ रहा था कि काश एक बार रत्ना को देख लेता तो खुशी-खुशी दिन गुजर जाते पर शायद रत्ना इतनी नाराज हो गई थी कि अब उसे रजनीगंधा देकर ही मनाना पड़ेगा। खैर अभी उसे खुशखबरी भी तो नहीं मिली है, अगर पता होता तो वह नाराज ही न होती, जब पता चलेगा तो सारी नाराज़गी दूर हो जाएगी। पर इतनी बड़ी खुशखबरी उसे खाली हाथ नहीं सुनाऊँगा, यही सोचकर समर ने बाजार से रत्ना के लिए एक सुंदर-सी गुलाबी रंग की साड़ी खरीदी और उसके साथ ही एक सुंदर सी शॉल। जाने से पहले उसने फूल वाले को खोजकर उससे रजनीगंधा के फूल लिए और गाँव के लिए चल पड़ा।
स्टेशन से गाँव तक पैदल ही जाना होता है, आज मौसम भी साथ दे रहा है, इसलिए समर जल्द से जल्द बगीचे की बेंच पर पहुँच जाना चाहता था। हमेशा रत्ना उसे वहाँ इंतजार करती मिलती है, आज वह पहले पहुँच कर इंतजार करना चाहता था लेकिन उसे पता है उसका यह सपना पूरा नहीं होने वाला, वह पहले भी कई बार कोशिश कर चुका है पर हमेशा रत्ना वहाँ पहले से ही मौजूद होती। आखिर वह अपनी मंजिल तक आ ही गया। बगीचे का वह पेड़ जिसके नीचे वह बेंच है और वह बेंच अब तक समर के लिए मंदिर के समान हो चुके थे, जहाँ पहुँच कर उसे अपार खुशी और शांति का अहसास होता।
आज दूर से ही वह बेंच दिखाई दे रही थी, पर, खाली....
समर अनजाने ही किसी अनहोनी के भय से काँप उठा। आज रत्ना आई क्यों नहीं? अब तक तो आ जाती थी। सोचते हुए समर वहीं बेंच पर बैठ गया। उसका मन तरह-तरह की आशंकाओं से घिरने लगा। क्या सिर्फ फूल के लिए रत्ना इतनी नाराज़ हो सकती है? नहीं...जरूर कोई और ही बात है...शायद उसके बाबा ने रोक दिया हो....ऐसे तरह-तरह के विचारों में घिरा समर खुद को रोक न सका और रत्ना के गाँव की ओर चल दिया।
गाँव में प्रवेश करते ही आसपास के लोग उसकी ओर सवालिया नजरों से देखते, कुछ लोग आपस में ही एक-दूसरे को ऐसे देखते जैसे पूछ रहे हों क्या तुम इसे जानते हो?  उन सभी सवालिया निगाहों के तीर सहता कुछ को अनदेखा करता वह रत्ना के घर तक पहुँचा और घर के बाहर पहुँचते ही जैसे उसपर वज्रपात हो गया....
रत्ना के घर के स्थान पर मलबा पड़ा हुआ था। हाथ से अटैची छूट गई, उसके पैरों में उसका वजन उठा पाने की ताकत नहीं रही वह लड़खड़ाकर वहीं धम्म से बैठ गया।
उसे ऐसे गिरते देख दो लोग उसके पास दौड़े आए...."क्या हुआ बाबू ठीक तो हो?" उनमें से एक ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
"य् य्ये ल् लोग कहाँ..." समर आगे बोल न सका उसकी आवाज गले में ही अटक गई।
"बहुत बुरा हुआ बाबू, पिछले हफ्ते जो तूफान आया था, इस परिवार को ही अपने साथ ले गया, मकान पहले से ही जर्जर हो रहा था, तूफान झेल न सका सोते हुए बाप बेटी इसी में दब गए।" दूसरे व्यक्ति ने बताया। समर को मानो कुछ सुनाई नहीं दे रहा था उसकी आँखों के सामने रत्ना का मासूम चेहरा आकर टिक गया उसे अपनी सुध-बुध ही न रही वह वहीं बैठा निर्विकार उस मलबे को देख रहा था जिसमें रत्ना और उसके बाबा दबे हुए थे।
"बाबू...अरे ओ बाबू...क्या हुआ आपको।" उनमें से एक ने समर को झंझोड़ते हुए कहा।
"ये वही बाबू हैं क्या जिनसे रत्ना का विवाह होने वाला था?" एक ने पूछा।
"शायद हाँ।" दूसरे ने कहा।
समर ने हाथ में पकड़े हुए रजनीगंधा के फूलों को देखा और वह फूलों को सीने से लगाकर बिलख पड़ा।
अचानक किसी के द्वारा पकड़कर झिंझोड़े जाने से उसकी सुध लौटी
"चाचा.....चाचा....क्या हुआ?" रजत के झिंझोड़ने से समरकान्त की तंद्रा भंग हुई, उनके गाल आँसुओं से भीग चुके थे, उन्होंने जल्दी से अपना चेहरा साफ किया और अपनी बगल में रखे हुए रजनीगंधा के फूलों को देखकर बोल पड़े- "ये यहाँ कैसे...कौन लाया इन्हें?"
"मैं लाया, आप आते समय वहीं बेंच पर भूल कर चल पड़े थे, तो मेरी नजर पड़ गई और मैंने उठा लिया।" मदन ने बताया।
"आज फिर मैं ये फूल तुम्हें नहीं दे पाया।" समरकान्त मन ही मन बुदबुदाए।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार

विश्व पुस्तक मेला २०१९


*विश्व पुस्तक मेला २०१९*

प्रगति मैदान नई दिल्ली में प्रत्येक वर्ष विश्व पुस्तक मेला का वृहद् आयोजन किया जाता है, यह मेला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एन.बी.टी.) अर्थात् नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। पिछले 41 वर्षों से इस मेले का आयोजन होता आ रहा है। इस वर्ष (2019) भी नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा भारतीय व्यापार संव‌र्द्धन परिषद (आइटीपीओ) के सहयोग से इसका आयोजन किया गया।
इस वर्ष मेले की थीम है- 'दिव्यांग जनों की पठन आवश्यकताएं।'
हॉल नं० 7 ई में थीम मंडप का निर्माण किया गया है। थीम को ध्यान में रखते हुए मेले के इस संस्करण का ध्यान ऑडियो, स्पर्शनीय, मूक और ब्रेल किताबों की प्रदर्शनियों के जरिए समावेशी ज्ञान के विचार को बढ़ावा देने के लिए ‘रीडर्स विद स्पेशल नीड्स’ पर है।
जो कि बेहद आकर्षक है तथा चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की तरफ से लगाए गए स्टॉल छोटे बच्चों व अभिभावकों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं।
अतिथि क्षेत्र का दर्जा देने के लिए शारजाह क्षेत्र को चुना गया है।
मेले में करीब 700 देशी व 20 के लगभग विदेशी प्रकाशकों की संख्या है। प्रतिदिन प्रकाशक अपने प्रकाशन की पुस्तकों का लोकार्पण करके लेखकों और कवियों का ध्यान आकृष्ट करने के साथ-साथ पाठकों की रुचियों का भी संवर्धन करने में रत हैं। यह मेला कवियों/लेखकों, छोटे बच्चों व अभिभावकों से लेकर स्कूल-कॉलेज के युवा तथा उम्रदराज पाठकों तक हर आयु-वर्ग के आकर्षण का केन्द्र है क्योंकि सभी को अपनी आवश्यकता और पसंद की सामग्री यहाँ सहजता से प्राप्त हो जाती है। हर वर्ष मेले में आने वालों के लिए कुछ न कुछ नया अवश्य होता है, इस बार भी कई ऐसे ही आकर्षण के केन्द्रों में से एक है 21 घंटे की बोलती रामायण तथा दूसरा प्रतिदिन दोपहर दो से शाम चार बजे के दौरान होने वाला फिल्मोत्सव भी है।
जैसे-जैसे मेले का समापन दिवस नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे मेले में आने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। मेले में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रुचि रखने वालों के लिए अलग-अलग स्टॉल पर उनकी रुचि की सामग्री प्राप्य है। प्रतियोगी पुस्तकें तथा साहित्य संबंधी पुस्तकें हॉल नं०12 में उपलब्ध हैं तो धार्मिक आस्था वाले लोगों से गीताप्रेस स्टॉल भरा दिखता है। हॉल सं. 8 से 11 तथा 12 में सामान्य तथा व्यापार, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक विज्ञान और मानविकी से जुड़े पुस्तकों एवं सामग्रियों को देखने के लिए भीड़ उमड़ती दिखती है। पुस्तक मेले में लेखक एवं साहित्य मंच (ऑथर्स कॉर्नर) हमेशा ही व्यस्त दिखाई देता है, रोज ही भिन्न-भिन्न पुस्तकों का लोकार्पण तथा विभिन्न विषयों पर परिचर्चाओं के आयोजन होते हैं जो साहित्य में रुचि रखने वालों के आकर्षण के केन्द्र होते हैं।
शुक्रवार दिनांक 10 जनवरी 2019 भी पुस्तक लोकार्पण और परिचर्चा की दृष्टि से बहुत ही आकर्षक रहा। इस दिन एक ओर गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा की दो पुस्तकों 'राजधर्म और लोकधर्म' तथा 'लोकरंग में सराबोर' का लोकार्पण हुआ तथा दूसरी ओर
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की ओर से आयोजित परिचर्चा में अर्जुन पुरस्कार विजेता पैरा ओलंपियन 'राजिंदर सिंह', पैरा एथलीट 'मनप्रीत कौर' तथा 'परविंदर सिंह' ने अपनी-अपनी संघर्ष यात्रा से लोगों को अवगत कराया। इसी दिन वाणी प्रकाशन द्वारा आयोजित पुस्तक लोकार्पण में कुमार विश्वास ने अपनी प्रकाशित और आगामी पुस्तकों के विषय में जानकारी दी तथा हॉल नं० 8 के प्रथम तल स्थित ऑडिटोरियम में समदर्शी प्रकाशन नें भी मालती मिश्रा 'मयंती' की पुस्तक 'इंतजार' अतीत के पन्नों से' (कहानी-संग्रह) के साथ अपनी सात पुस्तकों का लोकार्पण किया।
साहित्य तक अधिकाधिक लोगों की पहुँच को सस्ता व सुगम बनाने के लिए इस बार टिकटों की दरें घटाई गई हैं तथा सुगमता को ध्यान में रखते हुए प्रगति मैदान के सभी एंट्री गेट के साथ-साथ दिल्ली के 50 चयनित मेट्रो स्टेशन पर टिकट उपलब्ध कराए गए हैं। अब लोगों को एंट्री की टिकट के लिए लंबी लाइन लगाने की आवश्यकता नहीं होती, यही कारण है कि गेट पर अधिकाधिक भीड़-भाड़ और शोरगुल नजर नहीं आता।
2019 का यह विश्व पुस्तक मेला बेहद आकर्षक और साहित्य प्रेमियों के लिए संतोषजनक और उल्लासपूर्ण होने के बाद भी यदि विगत वर्षों से तुलना करें तो आंशिक रूप फीकापन अवश्य है जिसका मुख्य कारण जगह की कमी है। प्रगति मैदान में काफी स्थान इस समय निर्माणाधीन होने के कारण पुस्तक मेले को इस वर्ष कम स्थान मिल पाया जिसके कारण हर वर्ष लगने वाले नक्षत्र के स्टॉल कहीं नजर नहीं आए इसलिए इससे जुड़ी सामग्रियों में रुचि रखने वालों को थोड़ी निराशा अवश्य हुई फिरभी साहित्य प्रेमियों की संतुष्टि के लिए यहाँ प्रचुर मात्रा में हर प्रकार की सामग्री उपलब्ध है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

गुरुवार

प्रश्न

प्रश्न
हम अंग्रेजी त्योहार मनाते भी हैं उनका महिमामंडन भी करते हैं तब कभी कोई यह प्रश्न नहीं करता कि क्या हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति का भी ध्यान रखते हुए उन्हें नहीं मनाना चाहिए, हमारी संस्कृति की विशेषता यही है कि हम बाह्य मान्यताओं को भी खुले दिल से स्वीकार करते हैं और हर वह अवसर उत्सव की तरह ही मनाते हैं जो हमें खुशियाँ देते हैं। ऐसा करते वक्त हमारे मस्तिष्क में यह खयाल नहीं आता कि हमारे त्योहारों का क्या? क्योंकि हमें पता है जो हमारे हैं वो तो हमारे हैं ही, परंतु आजकल अंग्रेजी कैलेंडर ही चलन में होने के कारण हमारी भावी पीढ़ी तो क्या हम ही अपने बहुत से धार्मिक त्योहारों के विषय में नहीं जानते, अपनी प्रथाओं, मान्यताओं के विषय में नहीं जानते। तो साहित्यकारों का या जो भी अपनी मान्यताओं परंपराओं से अवगत हैं उनका दायित्व बनता है कि अपने त्योहार और मान्यताओं के विषय में जानकारी दें, परंतु बहुधा देखने में आता है कि अपने किसी परंपरा, त्योहार आदि की जानकारी देने के उद्देश्य से भी लिखा गया लेख पढ़कर ही कुछ  साहित्यकारों को संरक्षणात्मक मुद्रा में ला देता है और वह प्रश्न करने लगते हैं तो क्या हम अंग्रेजी त्योहारों पर बधाई देना भी छोड़ दें? ऐसे में मैं भी ऐसे साहित्यकारों से यही प्रश्न उठाती हूँ कि *हम अंग्रेजी त्योहार तो मनाते ही हैं पर क्या इसका यह तात्पर्य होता है कि हम हिन्दू त्योहारों की चर्चा करना ही छोड़ दें?* क्यों हम साहित्यकारों को हिन्दू संस्कृति का उल्लेख करने से परहेज करना चाहिए? क्यों हिन्दू मान्यताओं का जिक्र करना अंग्रेजी मान्यताओं की मुख़ालफ़त ही समझा जाता है? हम अन्य धर्मों का गुणगान करें तो धर्म निरपेक्ष और अपने धर्म की विशेषता बताएँ तो सांप्रदायिक क्यों हो जाते हैं? मैं मानती हूँ कि *हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए* परंतु क्या अपने धर्म के विषय में बात करने से परहेज करना चाहिए?
मेरा मानना है कि हमें किसी की धार्मिक या किसी भी प्रकार की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहिए, पर क्या अपनी धार्मिक विशेषताओं या भावनाओं को बताते हुए डरना चाहिए कि पता नहीं कौन सा बुद्धिजीवी क्या प्रश्न खड़ा कर दे, पता नहीं मेरे लेख का क्या मतलब निकाला जाए?
*साहित्यकारों का हृदय विशाल होना चाहिए और दूसरों का सम्मान करने के साथ-साथ अपनो का भी मान-सम्मान करना चाहिए, यही मेरा मानना है और जानकारी देने या लेने से परहेज न करते हुए अनर्गल प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।*
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

बुधवार

हिन्दू नववर्ष का महत्व

हिन्दू नववर्ष का महत्व
हिन्दू नववर्ष का महत्व

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में फुरसत के ऐसे पलों की तलाश रहती है कि हम अपनों के संग मिलकर हर्षोल्लास से चिंतामुक्त होकर खुशियाँ मना सकें और इसीलिए जो भी मौका दिखता है लपक लेते हैं। यह आंग्ल नववर्ष भी ऐसा ही एक अवसर है इसे मनाते हुए हम भूल जाते हैं कि हमारी संस्कृति में नववर्ष के रूप में इसका कोई औचित्य ही नहीं है, यह महज अंग्रेजी सभ्यता की देन है जिसका हम आँख बंद करके अनुसरण करते जा रहे हैं।
नववर्ष का तात्पर्य है आने वाले वर्ष में नवीनता आना और हमारा हिन्दी नववर्ष तभी शुरू होता है जब प्रकृति नवीनता धारण करती है। चैत्र माह के शुक्लपक्ष की प्रथम तिथि को जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, ग्रह-नक्षत्रों के परिवर्तन के साथ नव वर्ष का आगमन होता है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया और भगवान विष्णु ने प्रथम अवतार भी इसी दिन लिया था। इसी दिन आर्य समाज की स्थापना हुई थी तथा इसके ठीक नवें दिन भगवान श्री राम  का जन्म हुआ था।
चैत्र मास को मधुमास भी कहा जाता है मधुमास में प्रकृति अपने सौंदर्य के चरमोत्कर्ष पर होती है, पेड़-पौधों में नवीन कोपलों का आगमन तथा मंजरी, कलियाँ और सुरभित पुष्पों का सौंदर्य चारों ओर अपनी छटा बिखेर कर वातावरण के साथ-साथ प्राणी मन में शुद्धता का भाव भर देता है। नवरात्रि का प्रारंभ जन-जन के मन में पावन भावों का संचार करता है। खेतों में पकी फसलें दूर-दूर तक अपनी स्वर्णिम आभा बिखेरती हैं, फसलों की कटाई के समय वातावरण में जो हँसी-मजाक, चहल-पहल देखने को मिलता है उसका अपना ही आनंद होता है। नई फसल के घर आने की खुशी प्रत्येक कृषक को हर्षित करती है।
हिन्दू नववर्ष में मदिरा का नशा नहीं बल्कि नवीनता की खुशी का नशा होता होता है। इस समय प्रकृति के सौंदर्य की मादकता वातावरण में व्याप्त होती है और नववर्ष मनाने का उपक्रम न होते हुए भी चारों ओर रौनक और नवीनता व्याप्त होती है।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

मंगलवार

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ

2018 की विदाई..
करो विदाई की तैयारी जाने वाले साल का,
कुछ पूरे कुछ अधूरे ख्वाबों की सौगात का।
अब तो बीता साल बस यादों में रह जाएगा,
क्योंकि गया पुराना साल अब ना आएगा।।

2019 का स्वागत..
जी भरके सत्कार करो सब आने वाले साल का,
आओ मिलकर कसमें खाएँ देश के सुंदर हाल का
नई उम्मीदें ख्वाब नए मन में जो तू सजाएगा,
आने वाला साल नया वही सौगातें लाएगा।।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️