शनिवार

जब से तुम आए....

जब से तुम आए....
जब से तुम आए सत्ता में
एक भला न काम किया
क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
हर दिशा में हलचल मचा दिया
आराम पसंद तबके को भी
काम में तुमने लगा दिया
चैन की बंसी जहाँ थी बजती
मचा वहाँ कोहराम दिया

क्या कहने सरकारी दफ्तर के
आजादी से सब जीते थे
बिना काम ही चाय समोसे
ऐश में जीवन बीते थे
उनकी खुशियों में खलल डालकर
चाय समोसे बंद किया
वो क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
जिन्हें समय का पाबंद किया
चैन की बंसी जहाँ थी बजती..
मचा वहाँ कोहराम दिया..

बहला-फुसलाकर लोगों को
अपनी जागीर बनाई थी
पर सेवा के नाम पर
विदेशों से करी कमाई थी
उनकी सब जागीरों पर
ताला तुमने लगा दिया
वो क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
जिनकी जागीरें मिटा दिया
चैन की बंसी........
मचा........

बड़े-बड़े घोटाले करके
भरी तिजोरी घरों में थी
स्विस बैंक में भरा खजाना
जिन पर किसी की नजर न थी
बदल रुपैया सारे नोटों को
रद्दी तुमने बना दिया
क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
ख़जानों में सेंध लगा दिया
चैन की......
मचा .........

ऊपर से नीचे तक सबके
निडर दुकानें चलती थीं
बिना टैक्स के सजी दुकानें
नोटें छापा करती थीं
ऐसी सजी दुकानों का
शटर तुमने गिरा दिया
क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
टैक्स सभी से भरा दिया
चैन की बंसी........
मचा वहाँ........

बिन मेहनत रेवड़ियों की जगह
नए आइडिया तुमने बांटी है
बड़े रसूख वालों की भी
जेबें तुमने काटी हैं
राजा हो या रंक देश का
सबको लाइन में खड़ा किया
वो क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
धूल सड़कों की जिन्हें चटा दिया
चैन की बंसी.......
मचा वहाँ.........

क्यों न तुम्हारी करें खिलाफत
ऐसा क्या तुमने काम किया
चैन की बंसी जहाँ थी बजती..
मचा वहाँ कोहराम दिया..

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

बुधवार

सावन आया

सावन आया
घिरी चारों दिशाओं में
घटाएँ आज सावन की
सखियाँ गाती हैं कजरी
राग पिया के आवन की

कृषक का बस यही सपना
बदरी झूम-झूम बरसे
प्यास धरती कि बुझ जाए
खेत-खलिहान सब सरसे।।

तपन धरती कि मिट जाए
सखी मधुमास है आया
कजरी और झूले संग
विपदा केरल की लाया।।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार


स्तब्ध हूँ.....
निःशब्द हूँ.....
कंपकंपाती उँगलियाँ
मैं लेखनी कैसे गहूँ
श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ
बार-बार छलके नयन
कर जोड़कर करती नमन
सादर नमन भारत रतन

मानवता के तुम द्योतक
राष्ट्र चेतना के वाहक
नव युग का तुमसे आरंभ
भारत के तुम अटल स्तंभ
कर जोड़कर करती नमन
सादर नमन भारत रतन

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

मंगलवार

लहरा के तिरंगा भारत का

लहरा के तिरंगा भारत का
हम आज यही जयगान करें,
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें।

सिर मुकुट हिमालय है इसके
सागर है चरण पखार रहा
गंगा की पावन धारा में
हर मानव मोक्ष निहार रहा,
यह आन-बान और शान हमारी
इससे ही पहचान मिली
फिर ले हाथों में राष्ट्रध्वजा
हम क्यों न राष्ट्रनिर्माण करें।।
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें

इसकी उज्ज्वला धवला छवि
जन-जन के हृदय समायी है
स्वर्ण मुकुट सम शोभित हिमगिरि
केसरिया गौरव बरसायी है।
श्वेत धवल गंगा सम नदियों से
गौरव गान देता सुनाई है
सदा सम्मान हमारा बढ़ा रही
तो क्यों न हम अभिमान करें
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें

लहरा के तिरंगा भारत का
हम आज यही जयगान करें,
यह मातृभूमि गौरव अपना
फिर क्यों न इसका मान करें।।

मालती मिश्रा "मयंती"✍️

शनिवार

सभी साहित्यकार सादर आमंत्रित हैं

सभी साहित्यकार सादर आमंत्रित हैं
सभी साहित्यकार सादर आमंत्रित हैं

आर्य लेखक परिषद् और साहित्य परिवार के संयुक्त तत्वावधान में
अखिलभारतीय साहित्यकार सम्मलेन
1-2 सितंबर,  2018 (शनिवार एवं रविवार)
विषय : वर्तमान लेखन और वैदिक वांग्मय
स्थान: आर्यसमाज एवं गुरुकुल, आर्यनगर, पहाड़गंज रोड, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दिल्ली.

दो दिवसीय अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन। 

*** परिचर्चा एवं कार्यशाला ***

* सम्मेलन में हिंदी साहित्य एवं लोक साहित्य के सभी साहित्यकार आमंत्रित हैं।
* हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ कलमकारों के साथ मूल्य परक चर्चा.
* हिंदी साहित्य एवं वैदिक वांग्मय की विभिन्न विधाओं के मूल्य एवं विचार जानने का सुअवसर.
* देशभर के वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकारों के साथ खुले संवाद का सुअवसर. 
* देश भर में जीवंत, संग्रहणीय एवं लक्ष्य परक लेखन की मुहिम का हिस्सा बनने का सुअवसर।
* पुस्तक लेखन से प्रकाशन तक की प्रक्रिया को समझने का अवसर।
विभिन्न पुस्तकों के विमोचन का साक्षी बनने का अवसर

* यह एक आवासीय सम्मेलन है।  अतः प्रतिभागी को 31 अगस्त 2018 की शाम 5 बजे तक सम्मेलन स्थल पर पहुंचना होगा।  और 2 सितम्बर 2018 को शाम 5 बजे सम्मेलन का समापन होगा।  इतने समय तक सम्मेलन स्थल पर सभी सहभागी रचनाकारों।  के रहने खाने की व्यवस्था रहेगी।  रहने के लिए पुरुष एवं महिला साहित्यकारों की व्यवस्था अलग अलग होगी। 
*सभी सम्मिलित साहित्यकारों का प्रतीक चिह्न दे कर सम्मान किया जाएगा।  एवं प्रतिभागिता प्रमाणपत्र भी दिये जाएंगे। 
*सभी लेखकों को रचना पाठ का अवसर दिया जाएगा।
*यह आयोजन देश भर में साहित्यकारों के आपसी सरोकार को विकसित करने के उद्देश्य से किया जा रहा है जो पूरी तरह रचनाकारों के आपसी सहयोग के आधार पर ही आयोजित किया जा रहा है अतः प्रत्येक प्रतिभागी के लिए  रुपये 500 मात्र सहयोग राशि तय की गयी है।  आयोजन के सभी खर्च सभी प्रतिभागियों से साझा किये जाते हैं। 
*कृपया अपना पंजीकरण 20 अगस्त तक अवश्य करा लें. क्योंकि सम्मलेन में व्यवस्था के आधार पर निश्चित संख्या में ही प्रतिभागियों को सम्मलित किया जाना है. जो पहले आओ पहले पाओ के आधार पर तय किया जाएगा.
आज ही अपना नाम, आयु, स्थान और किस विधा में लिखते हैं आदि की जानकारी अपने मोबाइल नंबर और ईमेल के साथ या तो ईमेल करें या व्हाट्सएप्प पर सन्देश छोड़ें.
*आपका आवेदन मिलते ही आपको सहयोग जमा करने का निवेदन भेजा जाएगा।  सहयोग आते ही आपकी प्रतिभागिता आरक्षित समझी जाएगी। क्योंकि सम्मेलन स्थल और सुविधाएं सीमित है अतः अधिकतम 150 साहित्यकारों को ही सम्मेलन में सम्मिलित किया जा सकेगा। अतः यथा शीघ्र आवेदन करें। 

व्हाट्स एप नम्बर
9599323508
ईमेल: sahitypariwar@gmail.कॉम
************************************************
कार्यक्रम संयोजक :
श्री अखिलेश आर्येन्दु जी  (81787 10334)
श्रीमती मालती मिश्रा जी ( 9891616087)
योगेश समदर्शी ( 9599323508)

Paytm no. 9891616087
A/C no. 919891616087
IFSC  PYTM0123456
Registration link https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSeykdK_saoVgCJbvsZRkPkN5xytOKs_bp0DI04K6zllQ49SdA/viewform

मंगलवार


यह दुनिया एक रंगमंच है
हर मानव अभिनेता है
जीते हैं सब वही पात्र
जो ऊपर वाला देता है।

चढ़ा मुखौटा जोकर का हम 
दोहरा जीवन जी लेते हैं
छिपा अश्क पलकों के पीछे
बस अधरों से हँस देते हैं।

अपने गम की कीमत पर
लोगों में खुशियाँ बिखराना
नहीं है आसां दुनिया में
यारों जोकर बन जाना।

मालती मिश्रा "मयंती"✍️

रविवार

अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन हेतु सभी नवांकुर/प्रतिष्ठित साहित्यकार आमंत्रित

अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन हेतु सभी नवांकुर/प्रतिष्ठित साहित्यकार आमंत्रित
सभी साहित्यकार सादर आमंत्रित हैं
*********************************************************************
आर्य लेखक परिषद् और साहित्य परिवार के संयक्त तत्वावधान में
अखिलभारतीय साहित्यकार सम्मलेन
1-2 सितंबर,  2018 (शनिवार एवं रविवार)
विषय : वर्तमान लेखन और वैदिक वांग्मय
स्थान: आर्यसमाज एवं गुरुकुल, आर्यनगर, पहाड़गंज रोड, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दिल्ली.
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दो दिवसीय अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन। 
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*** परिचर्चा एवं कार्यशाला ***
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* सम्मेलन में हिंदी साहित्य एवं लोक साहित्य के सभी साहित्यकार आमंत्रित हैं।
* हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ कलमकारों के साथ मूल्य परक चर्चा.
* हिंदी साहित्य एवं वैदिक वांग्मय की विभिन्न विधाओं की मूल्य एवं विचार जानने का सुअवसर.
* देशभर के वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकारों के साथ खुले संवाद का सुअवसर. 
* देश भर में जीवंत, संग्रहणीय एवं लक्ष्य परक लेखन की मुहिम का हिस्सा बनने का सुअवसर।
* पुस्तक लेखन से प्रकाशन तक की प्रक्रिया को समझने का अवसर।
विभिन्न पुस्तकों के विमोचन का साक्षी बनने का अवसर
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* यह एक आवासीय सम्मेलन है।  अतः प्रतिभागी को 31 अगस्त 2018 की शाम 5 बजे तक सम्मेलन स्थल पर पहुंचना होगा।  और 2 सितम्बर 2018 को शाम 5 बजे सम्मेलन का समापन होगा।  इतने समय तक सम्मेलन स्थल पर सभी सहभागी रचनाकारों।  के रहने खाने की व्यवस्था रहेगी।  रहने के लिए पुरुष एवं महिला साहित्यकारों की व्यवस्था अलग अलग होगी। 
*सभी सम्मिलित साहित्यकारों का प्रतीक चिह्न दे कर सम्मान किया जाएगा।  एवं प्रतिभागिता प्रमाणपत्र भी दिये जाएंगे। 
*सभी लेखकों को रचना पाठ का अवसर दिया जाएगा।
*यह आयोजन देश भर में साहित्यकारों के आपसी सरोकार को विकसित करने के उद्देश्य से किया जा रहा है जो पूरी तरह रचनाकारों के आपसी सहयोग के आधार पर ही आयोजित किया जा रहा है अतः प्रत्येक प्रतिभागी के लिए  रुपये 500 मात्र सहयोग राशि तय की गयी है।  आयोजन के सभी खर्च सभी प्रतिभागियों से साझा किये जाते हैं। 
*कृपया अपना पंजीकरण १५ अगस्त तक अवश्य करा लें. क्योंकि सम्मलेन में व्यवस्था के आधार पर निश्चित संख्या में ही प्रतिभागियों को सम्मलित किया जाना है. जो पहले आओ पहले पाओ के आधार पर तय किया जाएगा.
आज ही अपना नाम, आयु, स्थान और किस विधा में लिखते हैं आदि की जानकारी अपने मोबाइल नंबर और ईमेल के साथ या तो ईमेल करें या व्हाट्सएप्प पर सन्देश छोड़ें.
*आपका आवेदन मिलते ही आपको सहयोग जमा करने का निवेदन भेजा जाएगा।  सहयोग आते ही आपकी प्रतिभागिता आरक्षित समझी जाएगी। क्योंकि सम्मेलन स्थल और सुविधाएं सीमित है अतः अधिकतम 150 साहित्यकारों को ही सम्मेलन में सम्मिलित किया जा सकेगा। अतः यथा शीघ्र आवेदन करें। 
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व्हाट्स एप नम्बर
9599323508
ईमेल: sahitypariwar@gmail.कॉम
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कार्यक्रम संयोजक :
श्री अखिलेश आर्येन्दु जी  (81787 10334)
श्रीमती मालती मिश्रा जी ( 9891616087)
योगेश समदर्शी ( 9599323508)

शुक्रवार

मेरे बचपन का वो सावन

मेरे बचपन का वो सावन
संस्मरण

सावन का पावन माह शुरू हो गया है, कई धार्मिक, पौराणिक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं इस माह से। इस  पावस ऋतु की रिमझिम फुहार से पेड़-पौधे नहा-धोकर ऐसे खिले-खिले से प्रतीत होते हैं मानो बहुत लंबे समय के इंतजार से मुरझा कर बेजान हो चुकी प्रकृति में नव प्राण का संचार हो गया हो। चारों ओर नई-नई प्रस्फुटित होती कोपलें मानों प्रफुल्लित होकर किलोल कर रही हों। इस पावस ऋतु में ही धरा संपूर्ण श्रृंगार कर निखर उठती है और सोने पर सुहागा तब होता है जब दूर क्षितिज में अंबर अपनी ग्रीवा में इंद्रधनुषी हँँसली पहने हुए दिखता है। प्रकृति का यह मनभावन रूप जन-मन में ऐसे समा जाता है कि फिर यह छवि मानस पटल से मिटाए नहीं मिटती और इसीलिए चाहे हर पावस मनुष्य के चक्षु भले इस अनुपम सौंदर्य का रसास्वादन करने से विमुख रह जाएँ पर सावन का नाम ज्यों ही हमारे श्रवण द्वार से गुंजित होता हुआ हमारे हृदय पर दस्तक देता है त्यों ही मस्तिष्क के पटल पर वही भीगी-भीगी तरो-ताजी हरियाली की चूनर ओढ़े सजी-धजी सी धरती की छवि मुखरित हो उठती है।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है, दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए सावन में वर्षा से लबालब भरी सड़कें तो देखी जा सकती हैं, नालियों की गंदगी बारिश के पानी के साथ तैरती देखी जा सकती है पर पानी से भरे खेतों में लहलहाते झूमते धान की जरई नहीं दिखाई दे सकते। यहाँ सड़कों के किनारे वर्षा से धुले बड़े-बड़े पेड़ तो देखे जा सकते हैं, उन्हें देखकर मन को अच्छा भी लगता है पर नजरें उनके आसपास पल्लवित होते नाजुक कोपलों और हरी-भरी तरह-तरह की पुष्पित घासों को ढूँढ़ती हैं। सावन में मंदिरों के बाहर फूल-मालाएँ, बेलपत्र, धतूरा आदि बेचने वालों की बहुतायत रहती है, जगह-जगह काँवड़ियों के शिविर और मनभावन झाँकियाँ सजी हुई सावन को पावन बनाती हैं लेकिन मेरे जैसा व्यक्ति जिसने गाँव में सावन के झूले देखे हों, सावन की नाग पंचमी और हरियाली तीज देखी हो उसके मानस पटल पर शहरों के सावन की छवि अंकित होने की जगह ही नहीं बचती। फिर भी सावन तो सावन है....अपने-अपने स्तर पर सावन हर जगह मनभावन होता है, शहर हो या गाँव हर जगह के परिवेश के अनुसार यह अन्य दिनों से हटकर अपनी अनूठी छवि बिखेरता है।

सावन का महीना हो और सावन के झूले की बात न हो तो अधूरा ही लगता है और जब-जब सावन के झूले का जिक्र होता है तब-तब मुझे अपनी किशोरावस्था का वह सावन याद आता है जब मैं गाँव में अपनी माँ के साथ थी। यह समय विद्यालयों में नए सत्र का होता है तो  हमारा पूरा परिवार अर्थात् मेरे भाई और मैं बाबूजी के साथ कानपुर में ही होते थे किन्तु धान की फसल का भी सीजन होता था इसलिए माँ बेचारी हम लोगों से अलग अकेली गाँव में होती थीं ताकि मज़दूरों की सहायता से खेतों से खर-पतवार समय पर साफ करवाती रहें। वैसे गाँव से आने से पहले बाबूजी अधिकतर खेतों में धान की रोपाई करवा कर ही आते थे लेकिन बाकी की सारी जिम्मेदारी माँ अकेली उठाती थीं, फिर फसल की कटाई दँवाई के लिए बाबूजी गाँव जाते थे। इस बीच खेतों की निराई खत्म होने के बाद से फसल पकने के पहले का जो समय होता था वो एक-दो महीने माँ हमारे साथ रहती थीं, उस खुशी के अहसास का तो मैं वर्णन ही नहीं कर सकती।
वैसे जब मैं छोटी थी तब मैंने गाँव में सावन के रिमझिम फुहारों के बीच झूला झूलने का लुत्फ़ उठाया पर वो यादें बेहद धुंधली हैं। पर एक मौका ऐसा भी रहा कि किसी कारणवश मैं इस पावन माह में माँ के साथ गाँव में ही थी। वह सावन आज भी मेरी स्मृतियों में सजीव है। माँ के साथ हरे-भरे खेतों की सैर, जी हाँ वह मेरे लिए सैर ही था। जब खेतों में स्त्रियाँ कतार बनाकर निराई करती हुई सावन के गीत गातीं तो बिना किसी वाद्य यंत्र के भी संगीत का ऐसा समां बंध जाता कि पूरा वातावरण संगीतमय हो उठता और समय कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। ऐसे में इंद्रदेव की मेहरबानी से रिमझिम- रिमझिम की हल्की फुहार पावस ऋतु को और मनभावन बना देती। मुझे धान के नाज़ुक पौधों के बीच कुछ खास किस्म के धान जेसे ही नजर आने वाले पौधों की पहचान नहीं थी पर बड़ा मन करता कि मैं भी उनके साथ घास निकालूँ, लेकिन कोशिश करती तो धान काट देती और फिर सभी महिलाएँ मुझे चिढ़ातीं कि "रहे देव बिटिया तोहरे हाथ में बस कितबिय नीक लागत है, ई सब तोहरे बस के नाही बा" और मैं चुपचाप खेत की मेड़ पर आ जाती या कभी कभी उन महिलाओं में से ही किसी के पास जा बैठती और कहती कि मुझे भी बताओ घास की पहचान कैसे होती है। वो मुझे बड़ी तन्मयता से एक अध्यापक की ही भाँति घास की पहचान बतातीं कि इसकी जड़ लालिमा लिए होती है जबकि धान पूरा हरा, उनके पत्तियों में क्या अंतर होता है तथा किस घास का क्या नाम होता है..सबकुछ बतातीं और मैं उतनी ही तन्मयता से सुनती फिर एक दो दिनों में कुछ एक घास याद रहतीं कुछ फिर भूल जाती।
जब सोमवार आता तो बहुत सी लड़कियाँ, बहुएँ और अधेड़ उम्र महिलाएँ व्रत रखतीं। उस समय हमारे गाँव में कोई मंदिर न होने के कारण         
डेढ़-दो किलोमीटर दूर दूसरे गाँव के मंदिर में जाना पड़ता था। जब तैयार होकर एक साथ कई लड़कियाँ और बहुएँ और बुजुर्ग महिलाएँ निकलती थीं तो वह दृश्य किसी त्योहार के जैसा ही प्रतीत होता था जिसमें पवित्रता का अहसास घुला होता था। हम बच्चों को तो  पोखर से लोटे में जल भर-भरकर शिवलिंग पर चढ़ाने में बहुत आनंद आता था और इसीलिए हम होड़ लगाते फिर दादी हमें बतातीं कि पाँच या सात लोटे जल चढ़ा लो पर सीढ़ियों पर संभलकर चढ़ना क्योंकि पानी के कारण फिसलन हमेशा बनी रहती। मंदिर के बाहर बँधी पीतल की असंख्य छोटी-बड़ी घंटियाँ मुझे अपनी ओर आकर्षित करतीं घंटियों और बड़े-बड़े घंटों का झुंड इतना विशाल और घना कि उन्हें गिनना या उनकी डोर कहाँ बंधी है, इसको ढूँढ़ना असंभव था। मैंने दादी से पूछ ही लिया कि ये इतनी सारी क्यों हैं? जबकि बजाने वाला मुख्य घंटा तो अंदर है, वैसे उन्हें भी लोग बजाते थे। तब दादी ने बताया कि लोग मन्नत माँगते हैं और पूरी होने पर यहाँ उतनी ही बड़ी घंटी या घंटा बाँधते हैं जितने की मन्नत माँगी होती है। जल चढ़ाकर मंदिर के बाहरी बरामदे और पेड़ों के नीचे हम तब तक खेलते जब तक साथ आई सभी स्त्रियाँ जल चढ़ाकर वापस ना आ जातीं, फिर हम उसी उत्साह से घर आ जाते और अगले सोमवार की प्रतीक्षा करते। हरियाली तीज और पंचमी का त्योहार मैंने उस वर्ष जितनी धूमधाम से मनाते देखा उतना फिर दुबारा देखने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। मुझे आज भी याद है पंचमी से एक दिन पहले ही सभी नव युवतियाँ अगले दिन पहनने के लिए नए वस्त्र, उनकी साज-सज्जा का सामान आदि एकत्र करने लगीं, रात को काले चने भिगो दिए। किशोर और युवक सरकंडे के बड़े-बड़े डंडे काटकर लाए और उन्हें छीलकर धोकर कपड़े से साफ करके सुखाया। दूसरे दिन सुबह से ही युवतियाँ नए कपडों के कतरन से रंग-बिरंगी गुड़ियाँ बनाने लगीं। मुझे उस समय धुंधला-धुंधला सा याद आ रहा था कि जब मैं बहुत छोटी थी और बुआ ससुराल नहीं गई थीं, तब वह भी ऐसे ही तैयारी करती थीं। लड़के सरकंडे के डंडों को चूने और काजल से सजा रहे थे और दिन के तीसरे प्रहर यह धूमधाम इतनी बढ़ गई कि घर-घर में चहल-पहल सी दिखाई देने लगी। युवतियाँ एक-दूसरे के घर जाकर उनकी सहायता करतीं तथा कब निकलना है पूछतीं और गाँव की अन्य सखियों तक संदेश भिजवातीं। माँ ने मुझे भी तैयार होने को कहा पर यह सब मेरे लिए नया था और मेरे घर में मेरे अलावा कोई और लड़की भी न थी, गाँव में न रहने के कारण जान पहचान तो थी पर सखी सहेलियाँ नहीं थीं, इसीलिए मेरा उत्साह सिर्फ देखने तक ही सीमित था। फिर शाम हुई सभी युवतियाँ रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी सी, नई-नई टोकरी में भीगे हुए चने रखकर एक ओर कपड़ों की रंग-बिरंगी गुड़िया सजाकर कुरोशिया की बुनाई वाली या सुंदरता से बनाए गए रंगीन कसीदाकारी से सजे थालपोश नुमा कपड़े से ढककर अपने-अपने घरों से निकलकर गाँव के बाहर एकत्र हुईं और फिर सावन की सुर-लहरी वातावरण में गूंजने लगी। गाँव के दूसरे सिरे से लड़के अपने-अपने सजे हुए सरकंडे के डंडों को कांधे पर धरे नदी के तट की ओर बढ़े। सावन के इस त्योहार का यह दृश्य हृदय में सहेज लेने वाला था।  युवतियों के साथ-साथ और औरतें भी सावन गाती हुई नदी तट की ओर बढ़ रही थीं मैं मी माँ के साथ-साथ थी। ऐसे दृश्य को देखने का अवसर इंद्रदेव कैसे छोड़ते? वह भी अपने घन बन के साथ रिमझिम की हल्की-फुल्की सी फुहार लेकर मौसम को और सुहावना बनाने आ गए। तट पर पहुँचकर युवतियों के अलावा अन्य महिलाएँ पीछे पेड़ों के नीचे खड़ी हो गईं तथा युवतियों ने अपनी-अपनी गुड़ियाँ एक-एक कर जमीन पर फेंकना प्रारंभ किया और वहाँ मौजूद युवकों और किशोरों ने अपनी सजी हुई छड़ी से उन गुड़ियों को पीटना शुरू कर दिया। इसप्रकार जब आखिरी गुड़िया पीट ली तब सभी ने अपनी-अपनी छड़ियाँ वहीं गुड़ियों पर फेंक नदी में छलांग लगा दी। कुछ ही देर में सभी नहाकर निकल तब उन सभी युवतियों ने अपनी-अपनी टोकरी से चने उन्हें प्रसाद के रूप में दिए और उन चनों को खाकर सभी युवक वहाँ से जिस मार्ग से आए थे उसी मार्ग से वापस चले गए। सभी स्त्रियाँ फिर सावन के गीत गाती हुई वापस लौटीं पर बीच में ही बगीचे में पहले से डाले गए बड़े से झूले पर झूलना तय हुआ और एक बार में आठ-दस लड़कियाँ बैठ गईं, दोनों सिरों पर दो लड़कियाँ खड़ी होकर पेंग मारने लगीं और साथ में सावन के गीत जोर-शोर से पूरे वातावरण को संगीतमय बनाने लगे। सभी बारी-बारी से झूल रहे थे। यह सिलसिला शायद रात तक भी न थमता अगर वर्षा की धार तीव्र न हो गई होती। सभी हँसते खिलखिलाते अपने-अपने घरों को चले गए। मैं भी आ गई पर मेरे अंदर यह जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो चुकी थी कि जिन गुड़ियों को इतने प्यार से बनाते हैं उन्हें यूँ पीट-पीटकर मिट्टी में क्यों मिला देते हैं? घर आकर मैंने माँ से पूछा तब उन्होंने मुझे जो कहानी सुनाई वह मुझे पूरी तरह याद नहीं पर उसका भाव यह था कि यह त्योहार भी भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है.. जब भाई कहीं दूर किसी अन्य देश/राज्य में था तब शत्रुओं ने उसके बहन के राज्य पर हमला किया बहन द्वारा पुकारे जाने पर भाई ने आकर शत्रुओं का संहार किया और बहन को सुरक्षित किया। ये गुड़ियाँ शत्रुओं की प्रतीक और सरकंडे तलवार के प्रतीक होते हैं। शत्रुओं के मरणोपरांत स्नान करके आए भाई के समक्ष चने को आवभगत में परोसे गए स्वास्थ्यवर्धक चबैना का प्रतीक माना गया है।
मेरी जिज्ञासा शांत हो गई तथा हर शाम झूला झूलते हुए गाए जाने वाले सावन के गीत सावन को मनभावन बनाते। मेरा वह सावन मेरे जीवन का यादगार सावन बन गया। वह त्योहार अब भी वैसे ही मनाया जाता है या नहीं... नहीं जानती क्योंकि आधुनिकता गाँवों से भी बहुत कुछ छीनती जा रही है। अच्छा है कि यादों पर अभी हमारा खुद का नियंत्रण है तो उन यादगार पलों को महसूस करके कुछ पलों को यूँ ही मन को आह्लादित कर लेती हूँ।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️