रविवार

अस्तित्व

अस्तित्व
शय्या पर पड़ी शिथिल हुई काया
जो सबको है भूल चुकी,
अपनों के बीच अनजान बनी
अपनी पहचान भी भूल चुकी।
तैर रही कोई चाह थी फिरभी
बेबस वीरान सी आँखों में,
लगता जीवन डोर जुड़ी हो
खामोश पुकार थी टूटती सांसों में।
ढूँढ रहीं थीं कोई अपना
लगे कोई जाना-पहचाना,
हर एक चेहरे को किताब मान
पढ़ने को दिल में था ठाना।
अंजाने से चेहरों में थी 
तलाश किसी अपने की,
मानो अब भी बची हुई थी 
इक आस किसी सपने की।
तभी किन्हीं अनसुने कदमों की 
आहट से भाव बदलते देखा,
मुरझाए मृतप्राय हो चुके
चेहरे पर उमंग खिलते देखा।
देख नहीं पाई थीं जो
सचेत सजग जागती इंद्रियाँ,
सुप्तप्राय इंद्रियों को उस
आगंतुक की राह तकते देखा।
चमक उठीं वीरान सी आँखें
अधरों में कंपन थिरक उठा,
अंजाने हो चुके चेहरों में
बेटी का चेहरा जब मुखर हुआ।
टूट गया बाँध सब्र का
अश्रुधार बस बह निकली,
क्षीण हो चुकी काया की बेबसी
बिन बोले सब कह निकली।
माँ की अनकही अनसुनी बेबसी
बेटी के हृदय को चीर गए,
उसकी आँखों में तैर गई बेबसी
कैसे वह माँ का पीर हरे।
जो ईश हमारी सदा रही
जो सदा रही है सर्वश्रेष्ठा,
व्याधियों के वशीभूत हो
उसकी काया हुई परहस्तगता।
पुत्री उसे कैसे देखे अशक्त
जो उसमें भरती थी शक्ति सदा,
जिसने किया मार्ग प्रशस्त सदा
जिससे उसका अस्तित्व रहा।
बन ज्योति जीवन में दमकती जो रही
बन मुस्कान अधरों पर थिरकती जो रही,
वह निर्मम व्याधियों के शिकंजे में फँसी
निरीह निर्बल अशक्त हुई।
गर रही न कल ममता उसकी
अस्तित्व मेरा भी खत्म अहो,
डोर जुड़ी जिससे है मेरी
वह बाँधूँगी फिर किस ठौर कहो।।
मालती मिश्रा

गुरुवार

एकाधिकार

आज एक बेटी कर्तव्यों से मुख मोड़ आई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।
बेटी है बेटी की माँ भी है माँ का दर्द जानती है
माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को भी खूब मानती है
बेटों के अधिकारों के समक्ष खुद को लाचार पाई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।

अपनी हर संतान पर माँ का स्नेह बराबर होता है
पर फिर भी बेटों का मात-पिता पर एकाधिकार होता है
जिसको अपने हिस्से का निवाला खिलाया होता है
उसके ही अस्तित्व को जग में पराया बनाया होता है
कब बेटी ने स्वयं कहा कि वह पराई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।
मालती मिश्रा

एक लंबे अंतहीन सम इंतजार के बाद 
आखिर संध्या का हुआ पदार्पण
सकल दिवा के सफर से थककर
दूर क्षितिज के अंक समाने
मार्तण्ड शयन को उद्धत होता
अवनी की गोद में मस्तक रख कर
अपने सफर के प्रकाश को समेटे
तरंगिनी में घोल दिया
प्रात के अरुण की लाली से जैसे
संध्या की लाली का मेल किया
धीरे-धीरे पग धरती धरती पर
यामिनी का आगमन हुआ
जाती हुई प्रिय सखी संध्या से
चंद पलों का मिलन हुआ
तिमिर गहराने लगा
निशि आँचल लहराने लगा
अब तक अवनी का श्रृंगार 
दिनकर के प्रकाश से था
अब कलानिधि कला दिखलाने लगा
निशि के स्याम रंग आँचल में
जगमग तारक टाँक दिया
काले लहराते केशों में 
चंद्र स्वयं ही दमक उठा
अवनी का आँचल रहे न रिक्त
ये सोच जुगनू बिखेर दिया
टिमटिमाते जगमगाते तारक जुगनू से
धरती-अंबर सब सजा दिया
कर श्रृंगार निशि हुई पुलकित
पर अर्थहीन यह सौंदर्य हुआ
मिलन की चाह प्रातः दिनकर से
उसका यह स्वप्न व्यर्थ हुआ।
मालती मिश्रा