शनिवार

परिंदों का जहाँ शोर हुआ करता था.....

अशांत और भागदौड़ भरा जीवन है नगरों का,
पहले हँसता-मुस्कुराता शांत गाँव हुआ करता था।
मुर्गे की बाँग और कोकिल के मधुर गीत संग,
सूर्योदय के स्वागत में चहल-पहल हुआ करता था।
ऊँचे भवन अटारी ढक लेते हैं सूरज को,
पहले तो सुरमई भोर हुआ करता था।
सिर मटकी धर इठलाती बलखाती सी जातीं गोरी,
हास-परिहास से खनकता पनघट हुआ करता था।
सखियों की चुटकी और प्रेम रस की बतियाँ,
हर ओर चहकता सा यौवन हुआ करता था।
आजकल तो संध्या भी चुपके से आती है,
पहले परिंदों का शोर हुआ करता था।
हल-बैलों संग आता था कृषक जब खेतों से,
मनभावन गोधूलि वह बेला हुआ करता था।
गगन में परिंदे, अवनी पर शैशव की चहक,
ऐसा सिंदूरी सूर्य गमन हुआ करता था।
ढक लेती काले आँचल से रजनी जो धरा को,
ऊपर जगमग तारों भरा अंबर हुआ करता था.
महानगरों की चमक और व्याकुलता से परे,
शांत-सुखद गाँवों का जीवन हुआ करता था।
मालती मिश्रा

ईमानदारी से डर

ईमानदारी से डर
ईमानदार व्यक्ति से सभी डरा करते हैं,
इसीलिए उससे भरसक दूर ही रहा करते हैं।
पर मैंने सोचा जब इसे थोड़ी गहराई से,
तो पाया कि लोग व्यक्ति से नही...
ईमानदारी से डरा करते हैं।
या फिर स्व अंतस में रखा है जिसका गला घोंट,
उस आत्मा के ईमान से नजरें चुराया करते हैं।
सामने पाकर किसी ईमानदार को,
अपने भीतर के ईमान से डरा करते हैं।
पर विचलित है मन ये सोच-सोच कर,
कि इतनी शक्ति है जब ईमानदारी में..
तो लोग क्यों फिर बेईमान हुआ करते हैं?
मालती मिश्रा

मंगलवार

सोचती हूँ


मैं नहीं जानती अपने अकेलेपन का कारण
अगर मैं ऐसा कहूँ तो शायद खुद को धोखा देना ही होगा।
पर..आजतक धोखा देती ही तो चली आई हूँ खुद को
पर खुश हूँ कि किसी और को धोखा नहीं दिया
पर क्या ये सच है!!
क्या सचमुच किसी को धोखा नहीं दिया?
नहीं जानती...
पर अगर मैं खुश हूँ, तो अकेली क्यों हूँ?
क्यों मेरे जीवन के सफर में कोई नहीं मेरा हमसफर
न कोई दोस्त.... न कोई अपना
ये जानते हुए भी अपना फर्ज़ निभाती जा रही हूँ,
हर रोज उम्मीद की दीवार पर विश्वास की नई ईंट रखती हूँ।
दो-चार ईंटें जुड़ते ही अविश्वास की एक ठोकर से
दीवार धराशायी हो जाती है,
रह जाती हूँ विशाल काले आसमाँ के नीचे
फिर तन्हा....अकेली
न कोई सखी न सहेली
सोचती हूँ.....क्या मैं इतनी बुरी हूँ 
कि किसी की पसंद न बन पाई
यदि नहीं! तो क्यों हूँ तन्हा
यदि हाँ ! तो कब मैने किसी का बुरा चाहा
सवालोम के इन अँधेरी गलियों में भटकते-भटकते
सदियाँ गुजर गईं....
न गलियाँ खत्म हुईं, न अँधेरा छटा
सोचती हूँ... 
क्यों नहीं फर्क पड़ता किसी को मेरे हँसने रोने से?
क्यों नहीं फर्क पड़ता किसी को मेरे मरने जीने से?
कब तक जिऊँगी इस तरह बेचैन?
अकेली !!!   तन्हा !!!   जीने को मजबूर !!!  बेबस !!!
लाचार !!!   महत्वहीन !!!   घर के स्टोर-रूम में पड़े 
पुराने बेकार सामान की तरह ! 
कब तक?  कबतक ?
मालती मिश्रा

शनिवार

मिलन की प्यास

नाजुक पंखुड़ियों पर झिलमिलाते 
शबनम से मोती
मानो रोई है रजनी जी भर कर 
जाने से पहले
या अभिनंदन करने को 
प्रियतम दिनेश का
धोई है इक-इक पंखुड़ी और पत्तों को 
पथ में बिछाने से पहले
पाकर स्नेहिल स्पर्श 
रश्मि रथी की पहली रश्मि पुंजों का
खिल-खिल उठे है प्रसून 
मधुकर के गुनगुनाने से पहले
लेकर मिलन की प्यास दिल में 
छिपी झाड़ियों कंदराओं में
इक नजर देख लूँ प्रियतम दिवाकर को 
ताप बढ़ जाने से पहले
नाजुक मखमली पंखुड़ियाँ 
ज्यों खिल उठती हैं किरणों के छूते ही
छा जाती वही सुर्खी रजनी के गालों पे 
अरुण रथ का ध्वज लहराने से पहले
पकड़ दामन निशि नरेश शशांक का 
हो चली बेगानी सी अनमनी
विभावरी रानी थी सकल धरा की जो 
दिवा नरेश भानु के आने से पहले।
मालती मिश्रा

बुधवार

प्रधानमंत्री रामलीला देखने गए

प्रधानमंत्री रामलीला देखने गए
PM मोदी लखनऊ के ऐश बाग रामलीला में सम्मिलित होने गए, लखनऊ की जनता के लिए यह हर्ष का अवसर रहा किंतु राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों के सीने पर साँप लोट गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से अतिथि सत्कार तो हुआ नहीं चूहे की तरह अपने बिल में दुबक कर प्रेस कांफ्रेस करके कहते हैं कि प्रधानमंत्री राजनीति करने आए हैं। रावण दहन के समय पर रावण का वध करने वाले श्री राम का जयकारा ही लगाया जाता है ये बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने "जय श्री राम" का जयकारा लगा दिया तो विपक्ष में हड़कंप मच गया कि मोदी जी राम मंदिर का मुद्दा उठाने के लिए "जय श्री राम" बोले। विपक्ष के सभी नेता चिल्ला रहे मोदी जी लखनऊ क्यों गए? यह धार्मिक राजनीति है...आदि आदि..... जब ये सभी नेता हिंदू होते हुए भी ईद पर "इफ़्तार" की पार्टी का भव्य आयोजन करते हैं तब यह धर्म की राजनीति नहीं होती? लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री हिंदू होते हुए भी यदि "जय श्री राम" बोल दें तो यह धर्म की राजनीति हो गई, भई वाह!!!!!
विपक्ष जनता के लिए हँसने-रोने, चिल्लाने,  खुलेआम वोट के लिए लैपटॉप और स्मार्ट फोन की रिश्वत देने आदि की घटिया राजनीति कर सकता है तो बीजेपी की राजनीति से क्यों परेशानी होती है???  राहुल गाँधी गाँव-कस्बे में जाकर खाट पर बैठकर सभा करके आए हैं किसानों के लिए अचानक साठ सालों के बाद उनकी चिंता जाग पड़ी कम से कम यह घटिया राजनीति तो हमारे PM नही करते....
विपक्ष के कुछ नेता कहते हैं कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद आंतरिक कलह बढ़ा है.....ऐसे में मैं ऐसे नेता को मूर्ख ही कहूँगी....आप लोगों को क्या लगता है जनता अंधी है....क्या जनता नहीं जानती कि आंतरिक कलह करने वाला कौन है? रोहित वेमुला, अखलाक, कन्हैया का जन्मदाता कौन है? विकास को मुद्दा बनाने वाली एक पार्टी के खिलाफ सारी बुराइयाँ मिलकर एकजुट हो गई हैं और जीतने के लिए आप लोग माफिया तक को टिकट देने से बाज नहीं आते फिर सिर्फ बीजेपी की राजनीति से परेशानी क्यों है। आपकी बौखलाहट को साफ देखा जा सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी जी का लखनऊ रामलीला में जाना चाहे राजनीति न रहा हो, उसे राजनीतिक रूप तो विपक्ष ने दे दिया। हमारे प्रधानमंत्री बहुत दूरदर्शी हैं, उन्हें यह तो पहले से ही पता होगा कि उनके इस दौरे का प्रचार-प्रसार तो विपक्ष ही कर देगा उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

जैसा आहार वैसे विचार

जैसा आहार वैसे विचार
सात्विक भोजन मनुष्य के विचारों को भी शुद्ध बनाता है, इसीलिए दया, करुणा, परोपकार, मानवता, औरों के प्रति सम्मान की भावना उन व्यक्तियों में अधिक होती हैं जो सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। उदाहरण के लिए आतंकवाद, देशद्रोह, गद्दारी, धोखेबाजी, हिंसा, अमानवीय व्यवहार, स्वार्थ आदि बुराइयों से लिप्त लोगों के भोजन की जानकारी हासिल की जाय तो पता चलेगा कि बिना मांसाहार के उनका भोजन पूर्ण ही नहीं होता। इस प्रकार के तामसिक भोजन का सेवन मुस्लिम अधिकतर करते हैं तो हम देखते हैं कि अधिकतर आतंकवादी मुस्लिम ही होते हैं, स्वार्थ, गद्दारी,धोखेबाजी, हिंसा जैसी बुराइयाँ जिन हिंदुओं में होती है यदि उनके खाद्य पदार्थों की जानकारी प्राप्त करें तो  पाएँगे कि वे शुद्ध सात्विक भोजन से कोसों दूर रहते हैं, हिंदू होते हुए भी मांस-मदिरा के बिना उनका भोजन कभी पूर्ण नही होता और ऐसे ही लोग अमानुषता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाते हैं, अपने ही धर्म का, अपने ही देश का अपमान करने से नहीं चूकते। मानव होते हुए भी स्वार्थ में लिप्त होकर मानवता को लजाते हैं, मनुष्य होते हुए भी अमानुषता की सीमा पार कर जाते हैं, वहीं यदि दूसरे पहलू पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि जो व्यक्ति शुद्ध सात्विक भोजन करता है वह शांत-चित्त, उदार हृदय, दयालु, सहयोगी व परोपकारी स्वभाव का होता है चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो, जो व्यक्ति जितना अधिक तामसिक भोजन ग्रहण करता है उसका स्वभाव उतना ही अधिक उग्र और क्रोधी होता है। यदि प्रकृति ने हमें ग्रहण करने के लिए इतना कुछ दिया है तो हमें जीवहत्या से बचने का प्रयास करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को उसका धर्म या मज़हब बुरा नहीं बनाता बल्कि उसके स्वयं के कर्म उसे बुरा बनाते हैं और वह कर्म वैसे ही करता है जैसे उसके विचार होते हैं, और हमारे विचारों का अच्छा या बुरा होना हमारे भोजन पर निर्भर करता है। अतः सर्वप्रथम हमें अपने भोजन को शुद्ध और सात्विक बनाना चाहिए परिणामस्वरूप हमारे कर्म अपने-आप अच्छे होंगे।
मालती मिश्रा

मंगलवार

फैसला


करवटें बदलते हुए न जाने कितनी देर हो गई परंतु नियति की आँखों में नींद का नामोंनिशान न था, गली में जल रही स्ट्रीट लाइट का प्रकाश बंद खिड़की के शीशे से छनकर कमरे में एक जीरो वॉट के बल्ब जितनी रोशनी फैला रहा था इसलिए उसने बिना लैंप जलाए हाथ बढ़ाकर बेड के साइड में रखे टेबल पर से अपना मोबाइल उठाया और समय देखा तो दो बजकर दस मिनट हो रहे थे। वह फिर से सोने का प्रयास करने लगी.....
लेकिन जैसे ही वह सोने के लिए आँखें बंद करती उसकी आँखों के समक्ष विभोर का मुर्झाया हुआ चेहरा घूम जाता..... कितना कमजोर हो गया है वो, अपनी उम्र से दस-पंद्रह साल बड़ा लगता है। पाँच सालों के बाद आज अचानक हॉस्पिटल में उससे मुलाकात हो गई.....वह अपनी माँ को देखने अस्पताल में आया हुआ था और नियति अपने पड़ोस में रहने वाली शिखा के साथ उसके कुछ टेस्ट करवाने आई थी......
कैसी हो......
अचानक जानी- पहचानी सी आवाज सुनकर वह सन्न रह गई....उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा.....
यह....यह तो विभोर की आवाज है, अपने-आप को संयत करते हुए वह पीछे को मुड़ी...सचमुच यह विभोर ही था। बाल पहले से थोड़े हल्के हो गए थे,  सफेदी आ जाने से बाल और दाढ़ी खिचड़ी से हो गए थे।
मैं ठीक हूँ....पर तुम.....अपना ध्यान नही रखते क्या... ये क्या हाल बना लिया है....खुद को संभालते हुए नियति बोली।
किसके लिए ध्यान रखूँ.....लंबी सी साँस छोड़ के हुए विभोर बोला।
क्यों परिवार नहीं है...उनके लिए रखो। नियति ने व्यंग्य पूर्ण लहजे में कहा।
मेरा परिवार तो तुम और मेरे बच्चे हैं, जो मुझसे दूर रहते हैं....मुझे कोई खुशी ही नहीं होती....कोई ख्वाहिश भी नहीं बची तो अब किसको लिए..... कहते-कहते विभोर चुप हो गया।
तुम अपने घर मेरा मतलब भाई-बहन के साथ नहीं रहते? नियति ने कहा, उसे स्वयं की आवाज गहराई से आती हुई प्रतीत हो रही थी।
मैंने कभी कहा था क्या कि मैं कभी उनके साथ रहूँगा.. तुम मुझे समझ ही नहीं पाईं.....खैर...मम्मी बीमार हैं, यहाँ भर्ती हैं, उन्हें ही देखने आया था। जब से तुम मुझे छोड़कर गईं मैं घर वालों के किसी आयोजन में नहीं गया....आज भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ....चलता हूँ....कहते हुए विभोर सीढ़ियों की ओर चल दिया। नियति स्तब्ध सी मूक अवस्था में उसे जाते हुए तब तक देखती रही जब-तक उसकी परछाई भी ओझल नहीं हो गई।
जब से वह अस्पताल से वापस आई है उसके दिलो-दिमाग से विभोर की वह मुरझाई छवि हटती ही नहीं....पाँच साल हो गए परंतु उसकी यादें आज भी उसे उतनी ही टीस देती हैं, उसे ऐसा लगा जैसे अभी कल ही की तो बात है.............
उसने कहा कि "मुझे ऐसा लगा कि मेरे आने से तुम दोनों भाइयों को बाधा महसूस हुई हो" तो तुरंत विभोर ने कहा- "हाँ तुमने हमें डिस्टर्ब किया, हम भाइयों के बीच कोई पर्सनल बातें हो रही थीं और तुम वहाँ भी आ गईं।" यह सुनते ही नियति को ऐसा लगा मानो विभोर ने उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ जड़ दिया हो। बच्चों के सामने न जाने क्यों उसने स्वयं को बहुत अपमानित सा महसूस किया। उसकी आँखें भर आईं, बच्चे देख न लें इसलिए वह कमरे में चली गई और जब अपने आप को पूरी तरह सामान्य कर लिया तब कमरे से बाहर आकर सोफे पर बैठकर चुपचाप टी०वी० प्रोग्राम देखने लगी थी। किन्तु वह देख रही थी कि विभोर को जरा भी परवाह नहीं कि उसकी पत्नी को उसकी बातों से कितना दुख हुआ है.....
अक्सर लोग बातें करते हैं कि पति-पत्नी का रिश्ता बड़ा पवित्र होता, पत्नी अर्धांगिनी होती है, परंतु क्या यह संभव है कि शरीर का आधा अंग जो करे दूसरे आधे अंग को पता ही न चले?? पर ईश्वर ने नियति के साथ मजाक किया वह किसी भी रिश्ते से कभी जुड़ ही न सकी या यूँ कहे कि उसे जोड़ा ही नहीं गया। दस वर्ष हो चुके नियति और विभोर की शादी को किंतु आज भी वह इस घर का हिस्सा न बन सकी और दुख तो असहनीय तब हो जाता है जब वह यह महसूस करती है कि मायके में भी वह अब महज मेहमान होती है, यानि अब वह न ससुराल पर अधिकार जता सकती है और न ही मायके पर.....
उसका मन कर रहा था कि वह जोर-जोर से रोये ताकि उसका मन हल्का हो सके किंतु वह ऐसा भी नहीं कर सकती थी क्योंकि बच्चे परेशान हो जाते.....अब तो बस रह-रह कर यही सवाल उसे परेशान कर रहा था कि क्या बेटी होना गुनाह है? क्या बेटियों का स्वयं का कोई घर नहीं होता?? क्यों वह जिस परिवार को अपना पूरा जीवन समर्पित कर देती है, उसी परिवार की वह कभी अपनी नहीं हो पाती?? क्यों सदैव उसे यह अहसास कराया जाता है कि वह बाहर की है..... नियति तो संयुक्त परिवार में भी नहीं रहती। वह, विभोर और उनके दोनों बच्चे बस...... फिरभी जब कभी भी उसके ससुराल से कोई भी आता है तो विभोर उनसे कुछ देर अकेले में बातें जरूर करता है, कभी-कभी जब घर से किसी का फोन आता है तब भी वह उठकर अलग कमरे में चला जाता है ताकि नियति को पता न चल सके.....
जब तक विभोर के घरवाले नहीं होते तब तक नियति विभोर की अपनी पत्नी यानि अर्धांगिनी होती है, जब विभोर के परिवार से कोई आ जाता है तो वही नियति बाहरी इंसान बन कर रह जाती है।
उसे आज से दस साल पहले की वह शाम याद आने लगी जब वह और विभोर पार्क से टहलते हुए वापस घर की ओर जा रहे थे, वो काफी देर से पैदल चल रहे थे ताकि एक-दूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता सकें। बातें करते हुए अचानक विभोर ने विषय बदलते हुए कहा...तुम भाई के बारे में तो जानती ही हो कि उनकी कितनी गर्ल फ्रेन्ड्स रह चुकी हैं, कोई गिनती नहीं....पर दीदी के बारे में भी मैं आज तुम्हें बतलाऊँगा....
क्या? क्या उनका भी कोई ब्वाय फ्रेन्ड था?   नियति ने उत्सुकतावश पूछा
हाँ, वो हमारे घर में लीला भाभी आती हैं न.... उनका देवर था। और उससे मिलने के लिए दीदी मुझे यूज करती थी....
मतलब??? नियति के चेहरे पर सवालिया चिह्न साफ दिखाई दे रहे थे।
उसे जब भी मिलना होता सहेली के घर जाने के बहाने मुझे साथ लेकर जाती और मुझे कुछ खाने की चीज देकर बैठा देती और कहती मैं अभी थोड़ी देर में आऊँगी तब तक यहीं रहना कहीं जाना मत। .....एक दिन बैठे-बैठे मुझे काफी देर हो गई तो मैं भी उधर चला गया जिधर उसे जाते देखा था.....और मैंने उन दोनों को  पार्क में घनीझाड़ियों के पीछे अजीब से बैठे देखा.... मैं चुपचाप उसी जगह वापस आ गया और बैठ गया, मुझे बड़ा अजीब लग रहा था तभी दीदी मेरे पास उसके साथ आई मुझे बहलाया-फुसलाया कि मैं घर पर किसी को न बताऊँ और उसके फ्रेन्ड ने मुझे ढेर सारी खाने की चीज दिलवाई। उसके बाद वो कभी मुझसे छिपता नहीं था, दीदी मुझे ले जाती फिर वो मुझे ढेर सारी चीज दिलवाता और मुझे बैठाकर दोनों दूर निकल जाते, मैं एक ही जगह पर बैठा घंटों उन दोनों का इंतजार करता रहता था....बोलते हुए विभोर के चेहरे पर अजीब से घृणा के भाव उभर आए थे।
फिर ये सिलसिला बंद कैसे हुआ?  नियति ने पूछा
वो नीची जाति का था न इसलिए दोनो की शादी को कोई मानता नहीं, इसीलिए दीदी ने उसके साथ भागने का फैसला कर लिया.....
क्या......नियति चौंक पड़ी, वो ऐसा कुछ तो सोच भी नहीं सकती थी
हाँ, और लेटर भी दीदी ने मुझसे ही भिजवाया, पर खेल में लगकर मैं वो लेटर अपने पैंट की जेब में रखकर देना ही भूल गया और वो भाई के हाथ लग गया। भाई ने मुझे भी मारा, दीदी को भी मारा और समझाया कि सिर्फ जाति की बात नहीं है वो लड़का मरीज भी है, इसलिए जानबूझ कर वो अपनी बहन की जिंदगी बर्बाद नहीं करेंगे.... विभोर ने कहा
फिर दीदी मान गईं?   नियति ने उत्सुकतावश पूछा।
मानना पड़ा, वो लड़का छोड़कर भाग जो गया....
विभोर के चेहरे पर गंभीरता और अवसाद के मिले-जुले भाव थे।
लेकिन ये सब बातें तुम मुझे क्यों बता रहे हो?  नियति ने पूछा
क्योंकि मैं चाहता हूँ कि शादी के बाद घर में कोई तुम्हारा अपमान न कर सके, यदि कोई कोशिश भी करे तो तुम्हारे पास उनका जवाब मौजूद हो, मैं तुम्हारा अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह इसप्रकार बोल रहा था जैसे अपने आप को ही आने वाली मुश्किलों से सचेत कर रहा हो।
नियति को अपनी पसंद पर गर्व होने लगा....विभोर कितना चाहता है उसे, कितना सम्मान करता है उसका और सबसे बड़ी बात की वह अपने-आप से जुड़ी कोई भी अच्छी-बुरी, छोटी-बड़ी बात उससे नहीं छिपाता इसीलिए नियति ने मन ही मन यह फैसला कर लिया कि विभोर के परिवार का कोई भी सदस्य उसे कुछ भी कहे परंतु वह विभोर के द्वारा बताई किसी भी बात को अपना हथियार नहीं बनाएगी।
किंतु ज्यों-ज्यों उसकी शादी को कुछ समय बीतने लगा धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा कि विभोर उसका होकर भी उसका नहीं, वह उसका पूरा ख्याल रखता है किंतु उसमें इतना साहस नहीं कि वह अपने परिवार वालों के विरोध का या अपशब्दों का सामना उनके समक्ष रहकर कर सके। नियति विभोर के घर वालों की पसंद नहीं थी इसलिए शादी के बाद विभोर उसके साथ अलग किराए के मकान में रहने लगा। दोनों आराम से रह रहे थे कोई परेशानी न होते हुए भी नियति कभी बेफिक्र होकर न जी सकी क्योंकि उसके पति ने उसे समाज और कानून की दृष्टि में तो पत्नी का अधिकार दिया किंतु अपने परिवार और रिश्तेदारों की नजर में वह उसे वह सम्मान न दे सका जो पत्नी होने के कारण उसे मिलना चाहिए था। यह सब वह सहन कर भी लेती यदि उसके पति के कार्यों से उसके दिल को ठेस न पहुँचती.... जब भी उसकी ससुराल में कोई शादी-ब्याह होता, किसी की मृत्यु होती, किसी का जन्म-दिन होता या किसी भी प्रकार का कोई भी आयोजन होता विभोर अवश्य जाता और पूरे आयोजन के दौरान वहीं रहकर एक बेटे और भाई का कर्तव्य पूरा करता परंतु उसे कभी यह अहसास नहीं हुआ कि ऐसी स्थिति में उसकी पत्नी कितना अपमानित महसूस करती होगी और इससे परिवार और रिश्तेदारों के मध्य उसकी छवि धूमिल होती होगी। जब-जब विभोर नियति को इसप्रकार छोड़कर जाता तब-तब नियति अपमान से तिलमिला उठती, अकेले में वह घंटों रोती रहती और सोचती उसने क्यों विभोर से शादी की? अपनी इस दशा के बारे में वह अपने मम्मी-पापा को भी नहीं बता सकती थी क्यों कि विभोर उसकी अपनी पसंद है, न कि मम्मी-पापा की इसीलिए जब वह रो-धोकर शांत होती तो धीरे-धीरे स्वयं को सामान्य करने के लिए खुद को ही समझाने का प्रयास करती कि वह उसके पति के माता-पिता व भाई-बहन हैं, उसपर उनका अधिकार है......फिर सोचती मैं भी तो उसकी अर्धांगिनी हूँ फिर मेरे सम्मान की रक्षा करना क्या उसका कर्तव्य नहीं.......
हर बार विभोर उससे अगली बार न जाने का वादा करता और भाई का फोन आते ही पत्नी और बच्चों की परवाह किए बगैर चला जाता.....
ऐसी घटनाएँ तो अब नियति के लिए आम बात हो चुकी हैं, इतने सालों में वह समझ नहीं पाई कि विभोर का कौन सा चेहरा असली है.......वो जो वह अब देख रही है या फिर वो जो उसने शादी से पूर्व देखा......
क्या यह वही विभोर है जो अपने घर की निजी बातें भी उससे नहीं छिपाता था? और अब अपने घर से जुड़ी छोटी से छोटी बात भी उसे नहीं बताता.....
आज फिर उसी अध्याय का नया पन्ना खुला और उसमें उसे बात करने की मनाही का आदेश दे दिया गया।
अब और अपमान नहीं......नियति ने सोच लिया
क्यों सहूँ मैं अपमान.....बात नहीं करनी न, कोई बात नही.... अब जब बात तक नहीं करनी तो साथ में एक कमरे में रहना क्यों?....
एक कमरे में रहेंगे तो मेरे दिमाग में सवाल भी उठेंगे, फिर जवाब माँगने के लिए बात तो करना पड़ेगा, इसलिए अब से हम अलग-अलग कमरे में ही सोएँगे।
नियति ने विभोर को अपना फैसला सुना दिया.......ठीक है। विभोर ने जवाब दिया।
नियति को दुख तो हुआ परंतु उसे आश्चर्य बिल्कुल नहीं हुआ, वह जानती थी कि उसका वह पति जो कभी उसके लिए अपने परिवार को छोडने को तैयार था आज यदि उसे अपने परिवार के लिए अपनी पत्नी को छोड़ना पड़े तो वह एकबार भी नहीं सोचेगा। लेकिन ऐसी अपमान जनक स्थिति आए उससे पहले मुझे ही यह घर छोड़ देना चाहिए....और नियति अपने बच्चों को लेकर अपनी एक सहेली के घर चली गई तथा उसकी सहायता से नई जॉब ढूँढ़ कर फिर एक फ्लैट किराए पर लेकर रहने लगी।
वैभव ने उसे मनाने का प्रयास किया था परंतु इस बार तो उसने पक्का फैसला कर लिया था इसलिए वह वापस नहीं गई। आज पाँच साल बाद फिर उसका अतीत उसके समक्ष खड़ा था, किंतु उसकी आशाओं के विपरीत। आज इतने सालों में पहली बार उसके मस्तिष्क नें उसके फैसले पर प्रश्न चिह्न लगाया है, वह समझ नहीं पा रही कि उसने जो फैसला उस समय किया वह सही था या नहीं....
नियति के चेहरे पर दृढ़ संकल्प का भाव दिखाई देने लगा..... ऐसा लगा मानो उसने कोई दृढ़ निश्चय कर लिया हो।
सूरज की पहली किरण के साथ ही नियति ने बच्चों को यह बताए बिना कि कहाँ जा रही है, उन्हें साथ लिया और टैक्सी में बैठकर ड्राइवर से बोली- भैया सिविल लाइंस चलो....
वाव ममा पापा के पास जा रहे हैं........ आश्चर्य मिश्रित खुशी थी सनी की आवाज में।
हाँ.........
मालती मिश्रा




रविवार

प्रकृति की शोभा

प्रकृति की शोभा......
यह अरुण का दिया
ला रहा विहान है,
रक्त वर्ण से मानो
रंगा हुआ वितान है।
पवन मदमस्त हो चली
झूमकर लहराती गाती,
बिरह वेदना मधुकर की
अब मिटने को जाती।
अमराई पर झूल-झूल
कोकिल मधुर तान सुनाए,
महुआ रवि पथ में
कोमल पावन कालीन बिछाए
देख शोभा भास्कर की
लता खुशी से तन गई,
अति आनन्द सही न जाए
वृक्ष से लिपट गई।
कलियों ने खोले द्वार
निरखतीं शोभा अरुण की,
भरकर अँजलि में मकरंद
प्यास बुझाएँ मधुकर की।
पाकर मधुर स्पर्श अरुण की
तटिनी भी छलकी जाए,
कल-कल करती सुर-सरिता
स्वर्ण कलश भर-भर लाए।
कर स्नान प्रकृति तटिनी में
स्वर्ण वर्ण हुई जाती है,
अति मनभावन रूप सृष्टि की
शब्दों में न कही जाती है।।
मालती मिश्रा

अनकही

अनकही
बातें अनकही
जो सदा रहीं
उचित अवसर की तलाश में
अवसर न मिला
बातों का महत्व
समाप्त हुआ
मुखारबिंद तक
आने से पहले
दम तोड़ दिया
बोले जाने से पहले
ज्यों मुरझाई हो कली
विकसित होने से पहले
दिल की बात
दिल में रही
बनकर अनकही
शून्य में भटकती रही
टीस सी उठती रह
दर्द का गुबार उठा
सब्र बाँध टूट चला
चक्षु द्वार तोड़ कर
अश्रुधार बह चली
बातें
जो थीं अनकही
अश्कों में बह चलीं
मालती मिश्रा

शुक्रवार

चलो छेड़ें स्वच्छता अभियान

चलो छेड़ें स्वच्छता अभियान....

बहुत हो चुका तकनीकी ज्ञान
छोड़ें स्वार्थ और अभिमान
आज सजाएँ मृतप्राय धरा को
लगाकर वृक्ष और बागान
चलो छेड़ें स्वच्छता अभियान

जगे हम लगे जगाने विश्व
कल तक थे जो स्वयं सुप्तप्राय
होकर अपने बीते गौरवकाल से प्रेरित
फिर लगे चलाने नव नव अभियान
शुरू करें.....

जो बना था अग्रज पूर्ण विश्व का
उसकी छवि पर मलिनता है छाई
गौरव इसका फिर चमकाने को
स्थापित करें नव कीर्तिमान
शुरू करें......

कभी विश्वगुरु कहलाता था जो
शिष्य बन खड़ा झुकाकर शीश
वही प्रतिष्ठा पुनः पाने को
तोड़ो बंधन फिर फैलाओ ज्ञान
चलो छेड़ें.......

बनाकर मजाक हौसलों का जो
करते हैं देश का अपमान
उनकी भी दुर्बुद्धि मिटाकर 
करें परिष्कृत उनका ज्ञान
चलो छेड़ें........
मालती मिश्रा

बुधवार

हिंदुस्तान धन्य हुआ तुम सम प्रधान सेवक पाकर

पथ में आए पाषाण खण्ड को पुष्प बना सौरभ फैलाया
बाधा बनने वाले पर्वत ने भी तो तुमको शीश नवाया
अदम्य साहस और क्षमता का विश्व से लोहा मनवाया 
तुमको शत्रु पुकारा जिसने खुद आईना देख के शरमाया
जनता को भरमाते थे जो उनको तुमने अब भरमाया
मातृभूमि की सेवा को सर्वोपरि रखना सिखलाया
हिंदुस्तान धन्य हुआ तुम सम प्रधान सेवक पाकर
किसको कैसे साधा जाए दुनिया सीखेगी तुमसे आकर
दुनिया ही नहीं हमने भी जिसको नकलची, जुगाड़ू कहा चिढ़ाकर
पुनः उसका उत्थान करोगे तुम उसे विश्वगुरु बनाकर 
तुम्हारे मन की बातें अब बन गई हैं जन-जन की बातें
अज्ञान के तिमिर को मिटाकर तुमने दिया ज्ञान की सौगातें।
तुम सम लाल पाकर देश का मस्तक गौरव से तन गया
तुमको जन्म दिया जिसने उस जननी को शत-शत वंदन किया।
ऐसा लाल हो हर घर में तो भारत माँ कभी न रोएगी
मानवता के फूल खिलेंगे प्रेम सौहार्द्र के स्वप्न संजोएगी।
मालती मिश्रा

रविवार

अन्तर्मन की ध्वनि

अन्तर्मन की ध्वनि....
उजला, निर्मल दर्पन
है मेरा अन्तर्मन
छल प्रपंच और स्वार्थ के 
कीचड़ में खिलते कमल सम पावन
यह मेरा अन्तर्मन
दुनिया के रीत भले मन माने
अन्तर्मन सच्चाई पहचाने
मानवता का सदा थामे दामन
यह सच्चा अन्तर्मन
मस्तिष्क के निर्णय का आधार
है लाभ-हानि के पैमाने
अन्तर्मन ही निष्पक्ष रहकर
बस आत्मध्वनि को पहचाने
दुनिया के इस भीड़ मे रहकर
कर्णभेदी शोर के मध्य
मैंने सुनी स्पष्ट ध्वनि जो
वह है मेरे अन्तर्मन की अन्तर्ध्वनि
आत्म स्वार्थ और लाभ-हानि
के विषय में चिंतन छोड़कर
अपने अन्तर्मन की ध्वनि को
उतारा मैंने अन्तर्ध्वनि पर।
मालती मिश्रा