रविवार

सत्य का आलोक


सत्य सूर्य की प्रखर किरण है
अपना आलोक दिखाएगा
परत-दर-परत एकत्र तिमिर को
मोम सदृश पिघलाएगा।

तिमिर की कालिमा में छिपकर
निशिचर नित शक्ति बढ़ाएगा
छँटने लगी गहनता जो इसकी
वह हाहाकार मचाएगा।

उलूक और चमगादड़ सम प्राणी
अंधकार में ही पंख फैलाएगा
करे प्रहार कोई क्षेत्र में उसके
कैसे वह सहन कर पाएगा।

सत्य की किरण से लड़ने को
असत्य अपनी भीड़ बढ़ाएगा
अपना आधिपत्य जमाने को
चहुँओर वह भ्रम फैलाएगा।

जाना-परखा कमजोर नब्ज़ को
फिर पकड़ उसे ही दबाएगा,
लोगों में छिपी दुर्बलताओं को
अपनी शक्ति बनाएगा।

सत्य सूर्य की प्रखर किरण है
अपना आलोक दिखाएगा
परत-दर-परत एकत्र तिमिर को
मोम सदृश पिघलाएगा।

मालती मिश्रा

बुधवार

नारी का रूप (महिला दिवस के अवसर पर)


मन को भाती हृदय समाती 
अति सुंदर गुनगुनाती सी
बुझे दिलों में दीप जलाती
कण-कण सौरभ बिखराती सी

आशा की नई किरण बन आती
चहुँओर खुशियाँ बिखराती सी
हर मन के संताप मिटाती
बन बदली प्रेम बरसाती सी

माँ ममता के आँचल में छिपाती
बहन बन लाड़ लड़ाती सी
बन भार्या हमकदम बन जाती
मित्र सम राह दिखाती सी

नारी का है रूप अपरिमित
अनुपम छवि दर्शाती सी
प्रेम-त्याग सौहार्द समर्पण
हर रूप सौरभ बिखराती सी

संपूर्ण वर्ष में एक दिवस ही पाती
फिर भी नही खुशी समाती सी
हर पल हर दिन हर माह की सेवा
बस एक दिन फलीभूत हो पाती सी

महिला दिवस के पाकर बधाइयाँ
मन ही मन फिरे मुसकाती सी
जान-समझ कर मूरख बनती
फिर भी नही कुछ भी जताती सी।
मालती मिश्रा

रविवार

मेरी प्रकाशित पुस्तक "अन्तर्ध्वनि" से..


शक्तिस्वरूपा नारी

सागर सी गहराई है और
अंबर सम नीरवता मन में,
धैर्य धरा अवनि से उसने
प्रकृति सम ममता हृदय में।
तरंगिनी की निरंतरता जीवन में
पर्वत सम जड़ता निर्णय में,
पवन देव की प्राणवायु और
अग्नि देव का शौर्य है उसमें।
माटी से विविध रूप धारण कर
हरियाली सम सौंदर्य है तन में,
निर्मल नीर की पावनता और
सुरभित समीर की शीतलता उसमें।
कोयल की कूक सी मधुर आह्वाहन
वाग्मती का ज्ञान समाया,
बेटी-बहन पत्नी और माँ के
हर रूप में ढल गई उसकी काया।
सर्वगुण सम्पन्न हो गई
उसने रति का रूप लजाया,
अपनी रचना की इस अद्भुत छवि को
देख विधाता भी मुस्काया।।

अपनी श्रेष्ठ कलाकृति से पूरित कर
विधना ने क्या खेल रचाया
जननी होकर भी जगती की
अस्तित्व उसका अधिकृत कहलाया।
मानव को जन करके भी
उसकी अपनी पहचान नही
पिता,पति और पुत्र बिना
उसका अपना कोई मान नही।
अगणित सीमाएँ बाँध रहा
समाज नारी के समक्ष
शक्तिस्वरूपा जगजननी की
शक्तियाँ न हों प्रत्यक्ष।
अहंकार के मद में उन्मुक्त
घूम रहे सब बन दुर्योधन,
भूले इक द्रौपदी की शक्ति ही
समर्थ है कुरुवंश का करने को हनन।
अग्निकुण्ड में तप कर ज्यों
कनक परिष्कृत होता है
वैसे ही नारी की कोमलता
दुष्करता में भी निखरता है।
नारी ज्वाला नारी दामिनी
नारी ही महामाया है
सृजनहारा और संहारक सब
नारी में ही समाया है।।
मालती मिश्रा