मंगलवार

जाग री तू विभावरी

 जाग री तू विभावरी..

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


मुख सूर्य का अब मलिन हुआ 

धरा पर किया विस्तार री

लहरा अपने केश श्यामल 

तारों से उन्हें सँवार री 

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


पहने वसन चाँदनी धवल 

जुगनू से कर सिंगार री 

खिल उठा नव यौवन तेरा

नैन कुसुम खोल निहार री 

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


चंचल चपला नवयौवना 

तू रूप श्यामल निखार री

मस्तक पर मयंक शोभता

धरती पर कर उजियार री

अंबर थाल तारक भर लाइ

कर आरती तू विभावरी


ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी


मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

रविवार

संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

 


संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

हमारा देश अपनी गौरवमयी संस्कृति के लिए ही विश्व भर में गौरवान्वित रहा है परंतु हम पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में अपनी संस्कृति भुला बैठे और सुसंस्कृत कहलाने की बजाय सभ्य कहलाना अधिक पसंद करने लगे। जिस देश में धन से पहले संस्कारों को सम्मान दिया जाता था, वहीं आजकल अधिकतर लोगों के लिए धन ही सर्वेसर्वा है। धन-संपत्ति से ही आजकल व्यक्ति की पहचान होती है न कि संस्कारों से। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा भी है...

वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।

धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥

अर्थात् "कलियुग में जिस व्यक्ति के पास जितना धन होगा, वो उतना ही गुणी माना जाएगा और कानून, न्याय केवल एक शक्ति के आधार पर ही लागू किया जाएगा।"


आजकल यही सब तो देखने को मिल रहा है, जो ज्ञानी हैं, संस्कारी हैं, गुणी हैं किन्तु धनवान नहीं हैं, उनके गुणों का समाज में कोई महत्व नहीं, लोगों की नजरों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है न ही उनके कथनों का कोई मोल परंतु यदि कोई ऐसा व्यक्ति कुछ कहे जो समाज में धनाढ्यों की श्रेणी में आता हो तो उसकी कही छोटी से छोटी बात न सिर्फ सुनी जाती है बल्कि अनर्गल होते हुए भी लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है और यही कारण है कि नीचता की सीमा पार करके कमाए गए पैसे से भी ये बॉलीवुड के कलाकार प्रतिष्ठित सितारे कहलाते हैं। आज भी हमारी संस्कृति में स्त्रियाँ अपने पिता, भाई और पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के गले भी नहीं लगतीं (ये गले लगने की परंपरा भी बॉलीवुड की ही देन है) न ही ऐसे वस्त्र धारण करती है जो अधिक छोटे हों या स्त्री के संस्कारों पर प्रश्नचिह्न लगाते हों, परंतु हमारे इसी समाज का एक ऐसा हिस्सा भी है जहाँ पुरुष व स्त्रियाँ खुलेआम वो सारे कृत्य करते हैं जिससे न सिर्फ स्त्रियों के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगता है बल्कि समाज में नैतिकता का स्तर भी गिरता है। 

आजादी के नाम पर निर्वस्त्रता की मशाल यहीं से जलती है और समाज में बची-खुची आँखों की शर्म को भी जलाकर राख कर देती है। और शर्मोहया की चिता की वही राख बॉलीवुड की आँखों का काजल बनती है। 

पैसे कमाने के लिए ये मनोरंजन और कला के नाम पर समाज में अश्लीलता और अनैतिकता परोसते हैं और आम जनता मुख्यत: युवा पीढ़ी  इनकी चकाचौंध में फँसकर धीरे-धीरे अंजाने ही वो सब करने लगती है जिससे समाज में नैतिकता का स्तर गिरता जा रहा है। एक समय था जब हमारे ही देश में पहली हिन्दी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में हिरोइन के लिए कोई महिला नहीं मिली तो पुरुष ने महिला का रोल निभाया था और आज का समय है कि थोड़े से पैसे और नाम के लिए अभिनेत्रियाँ निर्वस्त्र होकर फोटो खिंचवाती हैं। वही बॉलीवुड कलाकार युवा पीढ़ी के आदर्श बन जाते हैं जिनका स्वयं का कोई आदर्श, कोई उसूल नहीं या फिर ये कहें कि उनके आदर्श और उसूल बस पैसा ही है परंतु विडंबना यह है कि जनता और सरकार सभी इनकी सुनते हैं। 

ये मनोरंजन के नाम पर नग्नता और व्यभिचार दर्शा कर जहाँ एक ओर समाज के युवा पीढ़ी को बरगलाते हैं वहीं आजकल टीवी, सिनेमा, मोबाइल, लैपटॉप जैसे आधुनिक तकनीक छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में किताबों की जगह ले चुके हैं, फिर इंटरनेट और सोशल मीडिया से कोई कब तक अछूता रह सकता है। चाहकर भी बच्चों को इनसे दूर नहीं रखा जा सकता और इनमें संस्कार और नैतिकता के पाठ नहीं पढ़ाए जाते बल्कि स्त्रियों की आजादी के नाम पर अंग प्रदर्शन, युवाओं की आजादी के नाम पर खुलेआम अश्लीलता फैलाना। ये सब आम बात हो चुकी है। इतना ही नहीं वामपंथी विचारधारा के समर्थक और प्रचारक बॉलीवुड में भरे पड़े हैं और ये समाज में होने वाले सभी प्रकार के देश विरोधी गतिविधियों का समर्थन करके उन्हें मजबूती देते हैं।

मेहनत तो एक आम नागरिक भी करता है और अपनी मेहनत से कमाए गए उन थोड़े से पैसों से ही अपना परिवार पालता है परंतु अधिक पैसों के लालच में अपने संस्कार नहीं छोड़ता अपनी लज्जा को नहीं छोड़ता परंतु उस सम्मानित किंतु साधारण व्यक्ति की बातों का कोई महत्व नहीं वह कुछ भी कहे किसी को सुनाई नहीं देता लेकिन यही अनैतिक और संस्कार हीन सेलिब्रिटी यदि छींक भी दें तो अखबारों की सुर्खियाँ और न्यूज चैनल के ब्रेकिंग न्यूज बन जाते हैं, इसीलिए तो इनका साहस इतना बढ़ जाता है कि ये ग़लत चीजों या घटनाओं का समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि सरकार उनकी अनर्गल बातों का आदेशों की भाँति पालन करे। बॉलीवुड से राजनीति में आना तो आजकल चुटकी बजाने जितना आसान हो गया है क्योंकि सब पैसों और प्रसिद्धि का खेल है। जिसके पास बॉलीवुड और राजनीतिक कुर्सी दोनों का बल होता है, वो अपने आप को ही राज्य या देश मान बैठे हैं, इसीलिए तो बिना सोचे समझे ही निर्णय सुना देते हैं कि जिसने हमारे विरुद्ध कुछ कहा उसने अमुक राज्य का अपमान किया और उसे अमुक राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं। किसी को लगता है कि महाराष्ट्र से बाहर से आए  बॉलीवुड में काम करने वाले सभी सितारे उनकी दी हुई थाली (बॉलीवुड) में खाते हैं अर्थात् बॉलीवुड रूपी थाली उन्होंने ही दिया था, दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम का कोई महत्व नहीं, इसलिए यदि ये दिन को रात और रात को दिन या ड्रग्स को टॉनिक कहें तो उस बाहरी सितारे को भी ऐसा ही करना चाहिए, नहीं किया तो किसी का घर तोड़ दिया जाएगा या किसी की हत्या कर दी जाएगी। 

देश के किसी भी कोने में देश के हित में लिए गए किसी निर्णय  का विरोध करना हो या हिन्दुत्व विरोधी प्रदर्शन करना हो या सरकार को अस्थिर करने के लिए किसी असामाजिक कार्य का समर्थन करना हो तो ये जाने-माने सितारे हाथों में तख्तियाँ लेकर फोटो खिंचवा कर अपना विरोध प्रदर्शन करते हैं किंतु जब कहीं सचमुच अन्याय हो रहा हो या कोई अनैतिक कार्य हो रहा हो तब ये तथाकथित प्रतिष्ठित लोग कहीं नजर नहीं आते। 

समाज में नैतिकता के गिरते स्तर का जिम्मेदार सिर्फ बॉलीवुड ही है और अब सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की जाँच के दौरान नशालोक की सच्चाई सामने आ रही है जिसे बॉलीवुड के नशा गैंग की संख्या द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जा रही है। जहाँ बाप-बेटी के रिश्ते की मर्यादा नहीं होती, जहाँ दिन-रात गांजा ड्रग्स के धुएँ के बादल घिरे रहते हैं, जहाँ इन वाहियात कुकृत्यों का समर्थन न करने वालों के लिए मौत को गले लगाने के अलावा कोई स्थान नहीं...हम उसी बॉलीवुड की फिल्मों को देखने के लिए पैसे खर्च करते हैं और इनकी अनैतिकता को मजबूती प्रदान करते हैं। ये बॉलीवुड हमारी संस्कृति हमारे संस्कारों का कब्रिस्तान है। इसकी शुद्धि जनता के ही हाथ में है नहीं तो कहते हैं न कि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।' यदि जनता एक साथ इन्हें सबक नहीं सिखाती तो अकेले आवाज उठाने वाले का वही हश्र होगा जो कंगना रनौत का हुआ या उससे भी बुरा। इसका निर्णय जनता को ही लेना होगा आज की युवा पीढ़ी को इन्हें बताना होगा कि वे इन आदर्शविहीन अनैतिक फिल्मी सितारों को अपना आदर्श नहीं मान सकते। देश को अनैतिक संस्कारहीन सेलिब्रिटी की नहीं बल्कि ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो हमारे देश की संस्कृति के रक्षक बन सके न कि उसे विकृत करके इसकी छवि को धूमिल करें। 


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

भजनपुरा, दिल्ली- 110053

मोबाइल नं० 9891616087


गुरुवार

रजनी की विदाई



रजनी के बालों से बिखरे हुए

मोती बटोरने,

प्राची के प्रांगण में ऊषा 

स्वर्ण थाल लेकर आई।

देखकर दिनकर की स्वर्णिम सवारी

तन डाल सुनहरी चूनर 

रजनी शरमाई।

मुखड़ा छिपाया बादलों के 

मखमली ओट में,

संग छिपने को तारक 

सखियाँ बुलाई।

पूरी रात बाट जोहती जिसके आने की,

देख उसकी सवारी छिपने की 

जुगत लगाई।

मोती पिघल-पिघल लगे नहलाने 

नाज़ुक कोपलों को,

दिवाकर की स्वर्ण चादर 

वसुधा पर बिछाई।

खगकुल पशु चारण सब गाने लगे 

मंगल गान,

आनंद मग्न करने लगे 

रजनी की विदाई।।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


बुधवार

समीक्षा- वो खाली बेंच


 

कहानी संग्रह   *वो खाली बेंच*
लेखिका- मालती मिश्रा 
समीक्षा- रतनलाल मेनारिया 'नीर'

मालती मिश्रा जी की कहानी संग्रह की चर्चा करने से पहले इनके परिचय के बारे जानना आवश्यक है। वैसे मालती जी का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इनका परिचय खुद इनकी कहानियाँ देती हैं। आदरणीय मालती मिश्रा जी दिल्ली की युवा साहित्यकारा हैं। कई पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित हो चुके हैं व कई साहित्यिक सम्मानों से नवाजी गई हैं। इनका यह दूसरा कहानी संग्रह है तथा एक और  कहानी संग्रह प्रकाशित होने वाली है। 
मालती मिश्रा का बहुचर्चित कहानी संग्रह *वो खाली बेंच* पढ़ा तो मैं पढ़ता चला गया इस कहानी संग्रह  में कुल 12 कहानियाँ हैं। हर कहानी में एक सस्पेन्स दिया है व हर कहानी एक अनोखी छाप छोड़ती है। इनकी कहानियों की भाषा शैली पाठकों के दिल को छू जाती है। इस कहानी-संग्रह की पहली कहानी *वो खाली बेंच* पढ़ी इस कहानी की रूप रेखा से ऐसा लगता है कि प्रेमी व प्रेमिका  कश्मीर की वादियों की सैर कर रहे हैं। यह एक प्रेम कथा है। समरकांत व रत्ना एक दूसरे  से बहुत प्यार करते हैं,  उनकी पहली मुलाकात भी उस बेंच से ही हुई थी। लेकिन एक ऐसा तूफान आया कि रत्ना कभी नहीं मिली हमेशा के लिए यह दुनिया छोड़ दी। कई वर्ष बीत गये समरकान्त आज भी उस बेंच को देखते रहते हैं लेकिन रत्ना कभी लौट कर नही आई।
 कहानी की भाषा पाठकों के मन को छू जाती है।  दूसरी कहानी *जिम्मेदार कौन* कहानी में आज की परिस्थिति में आज की शिक्षा प्रणाली का दोष है या अभिभावकों का लेकिन आज की परिस्थिति में दोष तो दोनों का है,  न अभिभावक पहले जैसे रहे न स्कूल की शिक्षा प्रणाली पहले जैसी रही। बेवजह एक शिक्षक को 50000 हजार रुपये भरने पड़े जो अभिभावकों पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। बिना  जानकारी के शिक्षक को दोषी ठहराना  बहुत ग़लत है।  हमारे शास्त्रों में माता-पिता के बाद गुरु का दर्जा होता है। सबसे ऊँचा दर्जा दिया है। अगर शिक्षक के साथ ही अभिभावक शोषण करते हैं तो बहुत शर्मनाक बात है। इस कहानी का जिस तरह से अन्त हुआ बहुत चौंकाने वाला था। लेकिन एक तरह  से आज की शिक्षा बाजारवाद की गुलाम हो गई है यह इस कहानी में बखूबी दर्शाया गया है।
*माँ बिन मायका* कहानी दिल की गहराइयों को छू गई हर बेटी  के लिए मायका बहुत महत्वपूर्ण होता है अगर माता-पिता के नहीं होने के बाद बेटी का मायके में कोई सम्मान नहीं होता है तो हर बेटी  को बहुत दुख होता है वह चाह कर भी किसी के सामने मायके की बुराई नहीं करेगी बल्कि श्रेष्ठ ही बताएगी ।
*आत्मग्लानि* कहानी में मुख्य पात्र शिखर से अनजाने में पाप हो जाता है, बाद में वह प्रायश्चित  भी करता है तथा उस पाप की कीमत भी चुकाता है। उसे बहुत आत्मग्लानि होती है शिखर ने समय रहते उस पाप का पश्चाताप कर लिया जो अच्छा किया। *पुरुस्कार* कहानी में कई जगह बहुत लचीलापन है कहानी की रफ्तार बहुत धीमी है । फिर नंदनी के साथ अच्छा न्याय नहीं हो सका नंदनी एक ईमानदार शिक्षिका के साथ एक मेहनती शिक्षिका है, उसे स्कूल का डायरेक्टर बुरी तरह अपमानित करके स्कूल से निष्काषित कर करता है जो बहुत ही अन्याय पूर्ण बात है। उसको अच्छे पुरस्कार के बदले अपमान मिला।  *सौतेली माँ* एक ऐसा शब्द है जो हर औरत को बुरा बनाता है जो बहुत गलत है। तरु उसकी सगी बेटी नहीं फिर भी उसे बहुत प्यार देती है, बहुत स्नेह देती है लेकिन वह हमेशा अपने ससुराल वालों के सामने सोतेली माँ ही नजर आती है। एक बार उर्मिला को स्वयं को अपने परिवार के सामने सच्ची माँ साबित करने का समय आ गया और एक घटना से सौतेली माँ का तमगा हमेशा-हमेशा के लिए हट गया और वह सबकी नजरों में एक अच्छी व सच्ची माँ बन गई।
*पिता* कहानी में पिता को उसकी बेटियों के प्रति अथाह प्यार रहता है लेकिन परिवार के घरेलू झगड़े व पति-पत्नी के बीच तालमेल नही होने से व मन मुटाव के कारण दोनों के बीच तलाक हो जाता है और न चाहते हुए भी दोनों बच्चियों को पिता के प्यार से वंचित रहना पड़ा। पिता व बेटियों की एक भावनात्मक कहानी है। *डायन* कहानी  एक भावनात्मक कहानी है। कबीर की माँ एक अन्धविश्वासी औरत थी, एक  बाबा की वज़ह से  बेचारे कबीर का घर तबाह हो गया और उसकी माँ मरते मरते अपनी बहू पर ऐसा कलंक लगा कर चली गई कि बेचारी मंगला का जीवन नरक बन गया। गाँव वाले उसे डायन समझने लगे। जबकि हकीकत में मंगला बहुत ही समझदार औरत है। कहानी पढ़कर लगता है कि आज भी हम किस दुनिया में जी रहें हैं, बेचारी मंगला को कुछ लोग डायन  मानकर बुरी तरह पीटते हैं, एक निहत्थी औरत पर हमला करना इस दकियानूसी लोगों की सोच पर कई प्रकार के प्रश्न खड़ा करता है।
*चाय का ढाबा* कहानी में बाल मजदूरी पर प्रहार किया है साथ ही कहानी के मुख्य पात्र के बेटे को भी हकीकत का अहसास कराया है। 
*चाय पर चर्चा* पर दादा व पोते के बीच अनोखे प्यार को दर्शाया है। व *पुनर्जन्म* कहानी पूरी तरह काल्पनिक होकर एक सस्पेन्स टाइप कहानी है। कहानी को इस तरह खत्म करना ऐसा लगता है कहानी और बड़ी होती तो अच्छा रहता।
कुल मिलाकर मालती जी की सभी कहानियाँ पाठकों को पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं और सभी कहानियों में ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी लेखिका के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। इन कहानियों मे आदरणीय मालती जी ने कुछ हकीकत व कुछ कल्पनाओं का सहारा लेकर जिदंगी से रुबरू कराने की कोशिश की है। इस कहानी संग्रह में लेखिका ने औरत की करुणा, संवेदनाएँ, माँ का  वात्सल्य, पिता के प्रति निस्वार्थ भाव से प्रेम कई जगह कथाकार ने सामाजिक कुरीतियों पर भी कुठाराघात किया है।
मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि इनके कहानी संग्रह *वो खाली बेंच* को सभी पाठकों  को पढ़ना चाहिए। मुझे ऐसा विश्वास है यह कहानी संग्रह व्यापक रूप् में चर्चित होगा।
शुभकामनाओं सहित-----

समीक्षक- रतनलाल मेनारिया 'नीर'

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मंगलवार

पुरुष नहीं बनना मुझको

पुरुष नहीं बनना मुझको

स्त्री हूँ

स्त्री ही रहूँगी

पुरुष नहीं बनना मुझको

हे पुरुष!

नाहक ही तू डरता है

असुरक्षित महसूस करता है

मेरे पुरुष बन जाने से।

सोच भला...

एक सुकोमल

फूल सी नारी

क्या कंटक बनना चाहेगी

अपने मन की सुंदरता को

क्यों कर खोना चाहेगी?

ममता भरी हो जिस हृदय में

क्या द्वेष पालना चाहेगी

दुश्मन पर भी दया दिखाने वाली

कैसे निष्ठुर बन जाएगी

बाबुल का आँगन छोड़ के भी

दूजों को अपनाया जिसने

ऐसे वृहद् हृदय को क्यों

संकुचन में वो बाँधेगी

पुरुष मैं बनना चाहूँ

ये भ्रम है तेरे मन का

या फिर यह मान ले तू

डर है तेरे अंदर का

क्योंकि

मैं देहरी के भीतर ही

तुझको सदा सुहाती हूँ

देहरी से बाहर आते ही

रिपु दल में तुझको पाती हूँ

मैंने तो कदम मिला करके

बस साथ तेरा देना चाहा

कठिन डगर पर हाथ थाम के

मार्ग सरल करना चाहा

पर तेरे अंतस का भय

मेरा भाव समझ न सका

मेरे बढ़ते कदमों को

अपने साथ नहीं समक्ष समझा

सहयोग की भावना को

प्रतिद्वंद्व का नाम दिया

अहंकार में डूबा पौरुष

लेकर कलुषित भाव मन में

अपने मन की कालिमा

मेरे दामन पर पोत दिया

कभी वस्त्रों की लंबाई

कभी ताड़ता अंगों को

अपने व्यभिचारी भावों पर 

नहीं नियंत्रण खुद का है

दोष लगाता नारी पर

खुद को देख न पाता है

जो कालिमा मुझ पर पोत रहा

वो उपज तेरे हृदय की है

मैं नारी थी

नारी हूँ

नारी ही रहना मुझको

बाधाओं को तोड़ लहर सी

खुद अपना मार्ग बनाना मुझको

क्योंकि मैं स्त्री हूँ

पुरुष नहीं बनना मुझको।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

मैं कमजोर नहीं

मैं कमजोर नहीं


मैं एक नारी हूँ

तुम्हारी दृष्टि में कमजोर

क्योंकि मैं 

अव्यक्त हूँ

ममतामयी हूँ

करुणामयी हूँ

मैं नहीं हारती पुरुष से

हार जाती हूँ 

खुद से

हृदयहीन नहीं बन पाती

स्वहित में किसी का

अहित नहीं कर पाती

कुदृष्टि डालने वाले की

आँखें नहीं नोचती

क्योंकि उसके दृष्टिहीनता

की पीड़ा की 

कल्पना भी नहीं कर पाती

अपने ही पुत्र के समक्ष 

बेबस हो जाती हूँ

क्योंकि ममता को 

त्याग नहीं पाती हूँ

अपने पति की क्रूरता

सहन कर लेती हूँ

क्योंकि वह शक्तिशाली है

उसका यह भ्रम नहीं

तोड़ना चाहती

अपने ही पति द्वारा

अपमानित होकर भी

शांत रहती हूँ

क्योंकि उसका मान भंग 

नहीं करना चाहती

फिरभी कहते हो 

मैं कमजोर हूँ!

कैसे????

©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार

मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ

 ...मैं नारी हूँ...


हाँ मैं नारी हूँ

निरीह कमजोर

तुम्हारे दया की पात्र

तुमसे पहले जगने वाली

तुम्हारे बाद सोने वाली

तुम्हारी भूख मिटाकर

तृप्त करने वाली

तुम्हें संतान सुख देने वाली

तुम्हारे वंश को

आगे बढ़ाने वाली

अहर्निश अनवरत

तुम्हारी सेवा करने वाली

फिर भी तुमसे 

कुछ न चाहने वाली

सिर्फ और सिर्फ 

कर्म करने वाली

तुम्हारे अहं पिपासा को

शांत करने वाली

सिर्फ एक औरत

फिरभी तुम महान

और मेरे भगवान

कैसे???????

अब तक दिया तो सिर्फ

मैंने है

किया तो सिर्फ 

मैंने है

त्यागा तो सिर्फ 

मैंने है

और बदले में

कुछ नहीं माँगा

फिर तुम महान 

और मैं निरीह

कैसे????


©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

अक्षर के संयोग




 करना विद्यादान ही, हो जीवन का ध्येय।

नेक कर्म यह जो करे, जनम सफल कर लेय।।


अक्षर के संयोग से, बने शब्द भंडार।

शब्द से फिर वाक्य गढ़ें, बने ज्ञान आधार।।


हिन्दी के अक्षर सभी, वैज्ञानिक आधार।

उच्चारण लेखन कहीं, तनिक न विचलित भार।।


कसौटियों पर शुद्धि के, खरे रहें हर रूप।

अंग्रेजी सम हों नहीं, भिन्न-भिन्न प्रारूप।।


हिन्दी के अक्षर सभी, चढ़ें शिखर की ओर

अ अनपढ़ यात्रा पथ से, ज्ञ से ज्ञान की ओर।।


प्रथम भाषा बन हिन्दी, बने देश का मान।

सजे भाल पर देश के, पाय सदा सम्मान।।


रही तमन्ना ये सदा, हिन्दी की हो जीत।

हिन्दी में पढ़ते कथा, हिन्दी के सब मीत।।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


व्याधि तू पास क्यों आया


 जब व्याधि से हो घिरा शरीर, 

हृदय में चुभते सौ-सौ तीर।

रंग नहीं दुनिया के भाए,

अपनेपन की चाह सताए।


ऐ व्याधि तू पास क्या आया

सब अपनों नें रंग दिखाया।

जब से तूने मुझको घेरा,

मुख मेरे अपनों ने फेरा।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

गुरुवार

सामने वाली बालकनी

 सामने वाली बालकनी 


अलार्म की आवाज सुनकर निधि की आँख खुल गई और उसने हाथ बढ़ाकर सिरहाने के पास रखे टेबल से मोबाइल उठाकर अलार्म बंद किया। सुबह के पाँच बज रहे थे, वह रोज इसी समय उठ जाती थी पर आज सिर भारी सा हो रहा था। रात को सुजीत से फोन पर ही थोड़ी सी बहस जो हो गई तो उसे जल्दी नींद ही नहीं आई और अब सुबह उठने में इतनी दिक्कत हो रही है। सोचते हुए वह उठी और मुँह धोने के लिए वॉशरूम की ओर बढ़ गई। सुजीत काम की वजह से अक्सर कई-कई दिन शहर से बाहर रहता है और यही बात निधि को कभी-कभी परेशान करने लगती है, इसीलिए जब-तब उसकी बहस हो जाती है। पहले उसे अपने पति के बाहर रहने पर कोई समस्या नहीं थी परंतु जबसे सामने वाले फ्लैट में मिसेज सुधा की दशा देखी और जानी तब से निधि न जाने क्यों मन ही मन डरने लगी है, हालांकि इस बात को भी लगभग एक साल होने को आया फिर भी ऐसा लगता है जैसे अभी कल की ही बात हो। मुँह-हाथ पोंछते हुए आज कई दिनों के बाद उसका सामने की बालकनी में देखने का मन हुआ, इसलिए उसने कमरे और बालकनी के बीच का गेट खोल दिया। गेट खुलते ही सुबह की वही भीनी-भीनी सी खुशबू लिए, शरीर में सिहरन सी पैदा कर देने वाली ठंडी, सुहानी-सी, अपने अंक में समेटती शीतल हवा का झोंका निधि के पूरे शरीर को सहलाता गुदगुदी करता चला गया। वह अंगड़ाई लेती हुई बालकनी में आई और जैसे ही उसकी नजरें उस आकर्षक बालकनी के कुरूप सौंदर्य को खोजती हुई सामने की बालकनी में गईं वह चौंक कर सीधी खड़ी हो गई। उस बालकनी का दरवाजा खुला हुआ था...शायद वहाँ कोई आया है। वह तो मिसेज सुधा के जाने के बाद से ही बंद था, लगभग एक साल हो गए इस बात को। अब कौन हो सकता है? क्या मिस्टर किशोर फिर से आ गए हैं? तभी एक सुंदर सी युवती बालकनी में आकर खड़ी हो गई। निधि की नजर उसके चेहरे पर फिसलते हुए कुछ ढूँढ़ने का प्रयास कर रही थीं और दूर से ही उसकी माँग की लाली देखकर उसकी तलाश को मंजिल मिल गई। उसके दिमाग में कोई और प्रश्न उठता उससे पहले ही एक पुरुष कमरे से निकलकर उस युवती के पास खड़ा हो गया... और आश्चर्य से निधि की आँखें चौड़ी और मुँह खुला का खुला रह गया...

"य् य्ये तो किशोर जी हैं!" निधि जैसे खुद को ही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही थी। वह वहीं रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई...

निधि की नजरें उन दोनों पर टिकी थीं, जो अब तक वहीं बालकनी में कुर्सी रखकर बैठ चुके थे, पर उसका मस्तिष्क अतीत के गलियारों में भटकने लगा था...

अब से तकरीबन दो-ढाई वर्ष पहले की ही तो बात है जब इसी वीरान सी दिखने वाली बालकनी में सौंदर्य की कोपलें फूटने लगी थीं और धीरे-धीरे पौधों फूलों ने मानो खिलखिलाना शुरू कर दिया था और उसके सामने पौधों से सजी वहीं बालकनी सौंदर्य का ऐसा पर्याय बन गई थी जो अनायास ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेने में सक्षम थी। रेलिंग पर करीने से लटकते हरे और गहरे फालसे रंग के मनी प्लांट की बेलें मानो सुबह की ठंडी हवा के झोकों से अठखेलियाँ करती हुई नृत्य और संगीत का आनंद ले रही हों। वहीं कोने में रखे गमले में हथेलियों से भी चौड़े पत्तों वाला मनीप्लांट गमले में लगे मॉस्टिक की सहायता से ऊपर चढ़ता हुआ मानो दोनों पत्तेनुमा हथेलियों को जोड़े सूर्य को अर्ध्य देने को आकुल है। हवा के झोंको से झूमते चौड़े हथेली नुमा पत्ते रह-रहकर तालियाँ बजाते अपनी खुशियाँ जाहिर करते से लगते। वहीं बालकनी की छत से लटकती टोकरियाँ और उसमें से लटकती बेलें सिर पर टोकरी रखकर इठलाती जाती गाँव की गोरियों की छवि को बरबस आँखों के समझ जीवंत कर देतीं।  मनीप्लांट के गमलों के पास रखे छोटे-छोटे से गमलों में खिले छोटे-छोटे रंग-बिरंगे फूल हवा के झोकों के साथ झूमते हुए बच्चों की भाँति किलकारी भर-भर अपना उल्लास जता रहे थे। दूर से देखकर ही बालकनी के सौंदर्य को मन में भर लेने को जी चाहता। प्रात: की स्वच्छ निर्मल और भीगी-भीगी सी हवा के ठंडे झोंके से मौसम का माधुर्य और भी निखरा हुआ प्रतीत होता। रह-रहकर पौधों-पत्तों को आलिंगन करती हवा मानो अपनी सारी खुशियाँ उन पर उड़ेल देना चाहती थी। 

ऐसे में ही इस अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य को बेधती कुरूपता का पर्याय उस बालकनी में जब-तब काले टीके की भाँति प्रकट हो जाया करती थी, उसके रहते बालकनी का सौंदर्य पूर्णता को प्राप्त ही नहीं कर सकता था परंतु उसकी अनुपस्थिति भी उसे पूरा नहीं होने देती। उसी कुरूप काया ने ही तो सजाया था उस अनुपम सौंदर्य को। वह अपनी काया तो न सजा सकी पर उस जगह को सजा दिया था जो कभी उसका सपना हुआ करता था। वह अर्धविक्षिप्त सी अधूरी काया की स्वामिनी, एक स्तन विहीन, केश विहीन अधूरी स्त्री थी। उसे देखकर लगता ही नहीं था कि कभी इस चमकदार चमड़ी का बालों से कोई नाता रहा भी होगा। चेहरे पर भँवों के बाल भी मानों रूठकर एक-एक कर जा रहे थे, अधिकतर तो जा ही चुके थे। बस अगर कोई साथ निभा रहा था तो वो था पेट, जो बाहर को निकलता ही आ रहा था। कांतिहीन चेहरे पर रात का धुँधलका सा घिरा रहता। जब-तब वह अपनी लड़खड़ाती टाँगों को संभालती सुबह-शाम पौधों में पानी देती नजर आ जाती। जब उसे अपनी कुरूप काया का भान होता तो सिर और सीने को दुपट्टे से ढँक लेती और कभी-कभी शायद भूल ही जाती होगी जब लोगों को अपनी कलुषित काया दिखाकर उनका मन विद्रूपता से भर देती। लगभग रोज ही सुबह बालकनी में कुर्सी डालकर यही विकर्षण उस बालकनी के आकर्षण को अधोगति को पहुँचाती और उसकी सचेष्टा सदैव कुचेष्टा में परिवर्तित होती प्रतीत होती थी। 

परंतु वह शुरू से ऐसी ही नहीं थी बल्कि जब वह यहाँ अपने पति और बच्चों के साथ आई थी तब यह छोटा-सा खुशहाल परिवार था। पति-पत्नी को देखकर तो बच्चों की उम्र से माँ-बाप की उम्र का तालमेल ही नहीं बैठता था, काफी अच्छी तरह से अपने-आप को मेंटेन किया हुआ था खासकर पति ने। धीरे-धीरे निधि से भी थोड़ी-बहुत बातचीत होने लगी थी। दोनों कभी आते-जाते रास्ते में मिल जातीं तो हाय-हैलो जरूर हो जाती। बालकनी आमने-सामने जरूर थी लेकिन दोनों बिल्डिंगों के बीच में पार्क और पार्क के दोनों ओर सड़क  होने के कारण दूरी थोड़ी ज्यादा थी, जिससे दोनों में बात नहीं हो पाती थी पर हाथों के संकेत से हाय-हैलो जरूर हो जाता था। एक बार पार्क में मिलने पर बातों-बातों में ही बताया था मिसेज सुधा ने बताया था कि उन्हें पौधों से बहुत प्यार है और यही वजह थी कि अपना फ्लैट लेते ही उन्होंने उसे पौधों से ही सजाना शुरू कर दिया था। उन्होंने बताया कि उनका तो वर्षों से यही सपना था कि चाहे छोटी-सी ही सही पर ऐसी बालकनी हो जहाँ कम से कम दो कुर्सियाँ डालकर हम पति-पत्नी शाम को बैठकर चाय पीते हुए गप्पें मारें। आधा जीवन कमाने घर चलाने और इन्हीं सपनों में निकल गया पर जब इस घर को देखने आए और ये बालकनी देखी तब अपना सपना पूरा होता हुआ महसूस हुआ और इसीलिए झट से यहाँ आने का मन बना लिया। 

मिसेज सुधा जब-तब बालकनी में कभी सफाई करती कभी पौधों को करीने से सजाती, उनको पानी देती दिखाई देतीं, अक्सर बालकनी में खड़ी या कुर्सी डालकर बैठी भी दिखाई देतीं परंतु अपने पति के साथ कभी बालकनी में बैठी दिखाई नहीं दीं, जैसा कि उनका सपना था। धीरे-धीरे उनके पौधों पर तो निखार आता गया किन्तु उनके चेहरे की कान्ति खोने लगी और वह मुरझाई-सी दिखाई देने लगीं। बाहर भी उनका आना-जाना धीरे-धीरे कम होता गया, अब वह पार्क में दिखाई नहीं देती थीं पर उनके पति बराबर जॉगिंग पर जाते और सुबह-शाम जिम भी जाया करते। उन्हें देखकर कभी ऐसा नहीं लगा कि घर में कोई समस्या हो सकती है। 

धीरे-धीरे उस खूबसूरत सी बालकनी में मिसेज सुधा अपनी बदसूरती को कुर्सी पर डाले सुबह-शाम अकेली घंटों तक बैठी दिखाई देने लगीं, कभी-कभी बेटी वहीं उन्हें कुछ खाने-पीने को दे दिया करती तो वह वहीं खाने लगतीं और  अपनी सूनी आँखों से कभी आसमान में स्वच्छंद उड़ते पक्षियों को देखा करतीं तो कभी अस्त होते सूरज को। अब उन्हें देखकर उनके सुडौल और लावण्यमयी काया का कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था। 

उन्होंने अपना पूरा जीवन अपने बच्चों की परवरिश में खपा दिया था ताकि उनके बच्चों को कभी कोई कमी महसूस न हो और उनके पति पर अकेले बोझ न पड़े लेकिन उनके पति को देखकर तो ऐसा लगता कि वह अपने शरीर को निखारने, अपने आपको फिट रखने के अलावा कभी न देखते हों कि उनकी पत्नी को कोई तकलीफ़ तो नहीं! ऐसा नहीं कि वो कुछ नहीं करते थे, वह शायद अच्छा कमाते होंगे तभी तो अपने-आप को इस तरह से मेंटेन कर पाते थे और घर भी अच्छी तरह चला रहे थे परंतु न जाने क्यों उनके व्यवहार में पत्नी की ओर हमेशा उदासीनता ही दिखाई देती थी। वह कभी औपचारिकतावश भी कुछ नहीं पूछते थे और वह बेचारी धीरे-धीरे सभी के होते हुए भी अकेली होती गईं। उन्होंने कभी बताया था कि उन्हें कभी कोई बीमारी हुई तो भी डॉक्टर के पास वह अकेले ही जाती थीं। ये घर भी उन्होंने बड़े अरमानों से लिया था पर गृहप्रवेश पर भी पति के साथ गठबंधन करके प्रवेश करने का सपना और रिवाज दोनों को ही पति के क्रोध की आग में जलाकर आई थीं क्योंकि उनके पति किशोर तो गठबंधन का नाम सुनते ही भड़क गए थे। उसके बाद भी वह बेचारी अपना मन बहलाने के लिए पौधों आदि में रुचि लेने लगीं पर भगवान से तो उनकी यह झूठी खुशी भी नहीं देखी गई और कुछ ही महीनों में उनके ब्रेस्ट में गाँठ पड़ गई। वह अब तक इतना अकेलापन महसूस करने लगी थीं कि अपनी परेशानी के बारे में किसी से बात भी नहीं करती थीं। वह खुद ही सिंकाई करतीं और लेडी डॉक्टर को भी दिखातीं पर कोई फायदा नहीं हो रहा था। 

वैसे तो उनकी डॉक्टर ने जब पहली बार देखा था तभी उन्हें अस्पताल जाने के लिए बोल दिया था, उन्होंने घर पर आकर सभी के सामने यह बात बताई, उन्हें उम्मीद थी कि जब उधके पति सुनेंगे तब अस्पताल ले जाने के लिए कहेंगे पर हफ्ते-दस दिन तक इंतजार करने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी परेशानी गाँठ के साथ बढ़ती जा रही थी उन्होंने नर्सिंगहोम में लेडी डॉक्टर को दिखाया तो उसने कुछ टेस्ट लिखे, वह टेस्ट करवाने से नहीं घबराती थीं पर उनके लिए मुश्किल ये थी कि जहाँ भी डॉक्टर बताती वहाँ पुरुष स्पेशलिस्ट ही होते। मिसेज सुधा ने कभी पुरूष स्पेशलिस्ट को नहीं दिखाया था, ऐसे में वह दिन-रात बेचैन रहने लगीं कि कैसे जाँच कराएँ और कहाँ कराएँ।

वह समझ रही थीं कि शायद अब उनकी स्थिति किसी गंभीर बीमारी की ओर संकेत कर रही है फिर भी वह कमजोर नहीं पड़ना चाहती थीं, इसीलिए उन्होंने खुद ही सभी टेस्ट और इलाज करवाने के लिए कमर कस लिया। उनकी बढ़ती गाँठ की गंभीरता को देखते हुए डॉक्टर ने उन्हें तुरंत वहीं नर्सिंगहोम में ही  एफ.ए.एन.सी. के टेस्ट के लिए कहा और बाहर से मेमोग्राफी करवाने के लिए लिखा।

एफ.ए.एन.सी. के टेस्ट के लिए जब जेंट्स डॉक्टर ने कक्ष में प्रवेश किया तब वह डर और शर्म से मानो जमीन में गड़ गईं। नर्स उनकी स्थिति को बखूबी समझ रही थी और उन्हें सांत्वना दे रही थी कि "घबराइए मत मैं हूँ साथ में।" 

उस समय वह अजनबी नर्स ही उनकी  ताकत और उनका एकमात्र सहारा थी। वह आँखें बंद किए बैठी थीं, नर्स ने उनका एक हाथ पकड़ रखा था तथा दूसरे हाथ से कंधे को पकड़ रखा था। ब्लड सैंपल लेने के लिए डॉक्टर ने ज्यों ही उनके गाँठ वाले भाग को छुआ उनका शरीर सूखे पत्ते की भाँति काँप उठा और बंद आँखों से आँसू टपकने लगे। नर्स ने उनके कंधे को जोर से दबाया पर उनकी मानसिक स्थिति को समझते हुए कुछ बोल न सकी। डॉक्टर ने न हिलने के लिए कहा और सुई घुसा दिया, वह सिसक पड़ी थीं पर सुई की चुभन से अधिक उनके मन में कहीं कुछ चुभा था जिसका दर्द उनके लिए असहनीय हो रहा था। डॉक्टर तो ब्लड सैंपल लेकर चला गया और नर्स ने घायल जगह पर एंटीसेप्टिक से खून साफ करके पट्टी लगा दिया पर उनके आहत मन के घाव को शायद अब कोई मरहम न भर सके। नर्स ने उन्हें  अपनी बातों से बहुत ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया। इसके बाद उन्हें बाहर से मेमोग्राफी करवाने को कहा गया। उन्होंने घर पर आकर पति और बच्चों के सामने सारी बातें बता दीं और उम्मीद करती रहीं कि किशोर उनसे कहेगा कि तुम चिंता मत करो मैं हूँ न तुम्हारे साथ। पर इस बार भी कुछ दिन इंतजार किया और फिर खुद ही बेटी के साथ टेस्ट करवाने चली गईं इस उम्मीद में कि शायद ये आखिरी टेस्ट होगा। उन्हें कहाँ पता था कि जब उनका कोई अपना साथ निभाने वाला नहीं है तब एक ऐसा अनचाहा हमसफ़र उन्हें मिलने वाला था जो दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते उनसे उनका शरीर और आत्मा बनकर चिपका रहने वाला था, जो उन्हें जीते-जी कभी अकेला नहीं छोड़ने वाला था फिर भी वह कष्ट ही देगा आखिर था तो रोग ही न!

टेस्ट और रिपोर्ट का सिलसिला बढ़ता जा रहा था और इस सबसे वह अकेली जूझ रही थीं। नर्सिंगहोम के डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल जाने के लिए कह दिया। अब एक ही टेस्ट रह गया था जिससे साफ हो जाना था कि आखिर बीमारी है क्या!

मिसेज सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि किस अस्पताल में जाएँ? डॉक्टर ने जो अस्पताल बताए थे वो या तो काफी महँगे थे या फिर सरकारी अस्पताल में जाने की सलाह दी थी। वह जानती थीं कि सरकारी अस्पताल की भीड़ में उन्हें अकेली को अपना इलाज करवाने में बहुत परेशानी होगी लेकिन अगर इलाज लंबा खिंचा तो हो सकता है उनके पास इतने पैसे न हो पाएँ कि वह प्राइवेट अस्पताल में इलाज करवा सकें, इसलिए बहुत सोच-विचार के बाद वह सरकारी अस्पताल में ही जाने के लिए घर से निकलीं लेकिन क्या करें क्या न करें की स्थिति में सेमी प्राइवेट अस्पताल में चली गई‌ं।  उनकी रिपोर्ट्स देखकर डॉक्टर के चेहरे के बदलते भावों ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया था लेकिन उस समय भी उनके इस दुख पर उनके पति के साथ न होने का दुख अधिक भारी था। उशकी आँखों में रह-रहकर आँसू उनकी उपेक्षा के दर्द से आ रहे थे न कि बीमारी के डर से। डॉक्टर ने बायोप्सी किया और उस दिन डॉक्टर ने भी इस बात को नोट किया कि पेशेंट के साथ कोई बड़ा नहीं आता बस बेटी को ही दो बार देखा था। 

बायोप्सी की रिपोर्ट लेकर मिसेज सुधा खुद डॉक्टर के कक्ष में गईं। उन्होंने बेटी को बाहर ही रुकने को कहा। मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रही थीं कि रिपोर्ट में वो न हो जिसकी आशंका है, पर तभी उन्हें अपने कानों में डॉक्टर की वो सशंकित आवाज सरगोशी सी करती महसूस हुई... जब वह बायोप्सी टेस्ट के लिए बड़ी सी मशीन के नीचे लेटी थीं, उनकी आँखों को तेज रोशनी से बचाने के लिए किसी मोटे कपड़े की पट्टी से ढँक दिया गया था बल्कि पूरा चेहरा ही ढका हुआ था। नर्स ने उनकी एक बाँह को दबा रखा था तथा दूसरी हथेली को प्यार से पकड़े हुए थी। डॉक्टर उसके बीमार स्तन से जाँच के लिए टुकड़ा (सैंपल) ले रहे थे, तभी "सर कोई प्रॉब्लम है क्या?" 

लेडी असिस्टेंट डॉक्टर ने सशंकित सी आवाज में पूछा था। पर मिसेज सुधा को जवाब में डॉक्टर की आवाज नहीं सुनाई पड़ी, शायद वो उनकी जागृत अवस्था के कारण संकेतों में ही बात कर रहे थे। उन्हें कुछ महसूस हो रहा था तो गाँठ का दबना और कट की आवाज सुनाई पड़ रही थी जो शायद कुछ काटकर निकाल रहे होंगे। उनके दिमाग में बस यही विचार धुआँ बनकर कौंध रहा था कि बीमारी भी इंसान को कैसा लाचार बना देती है...स्वस्थ शरीर के जिस भाग को स्त्री का श्रृंगार समझा जाता है, जिसे ढँकना ही उसका संस्कार है वहीं अंग बीमार होने के बाद बेपर्दा और अस्तित्वहीन कैसे हो जाता है, जिस अंग की तरफ किसी परपुरुष का नजर उठाकर देखना भर उसके चरित्रहीनता का प्रमाण होता, बीमारी ने उसी अंग को सभी शर्म और सम्मान के दायरे से मुक्त कर दिया। 

"सुधा अवस्थी" डॉक्टर की आवाज सुनकर वह चौंक गईं।

"ज् जी, मैं हूँ।" कहती हुई वह सचेत होती हुई पास ही रखे स्टूल पर बैठ गईं।

"आपके साथ कोई नहीं आया?" डॉक्टर ने उनकी रिपोर्ट देखते हुए कहा था। उन्होंने बेटी को तो बाहर ही रोक दिया था इसलिए बोलीं- "सर मैं ही हूँ आप मुझे ही बताइए।"

वह अपने आप को सामान्य रखने का प्रयास कर रही थीं पर उनकी घबराहट शायद उनके चेहरे से साफ झलक रही थी, इसीलिए डॉक्टर ने कहा, "आपतो पहले से ही रोने को तैयार बैठी हैं आपसे कैसे कहूँ?"

"नहीं सर, मैं रोऊँगी नहीं, अब तक की सारी मेडिकल फॉर्मेलिटीज़ मैंने अकेले ही पूरी की है ये भी करूँगी, आप बताइए।" उन्होंने अपने-आप को संभालते हुए कहा था।

फिर डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उसे सेकेंड स्टेज से पहले का कैंसर है और सीनियर डॉक्टर से उनकी मीटिंग करवाई, उपचार की सभी प्रक्रिया डॉक्टर ने उन्हें समझाया और न घबराने की नसीहत देते हुए अगले दिन या उसी दिन एडमिट हो जाने के लिए कहा ताकि आगे के इलाज के लिए आवश्यक टेस्ट किए जा सकें और फिर कीमो थैरेपी शुरू कर सकें। पर अब उनके दिमाग में एक ही बात चल रही थी कि इलाज के लिए कितना खर्च होगा और वह कैसे इंतजाम करेंगी? इसी उहा-पोह में डॉक्टर से अगले दिन एडमिट होने के लिए कहकर माँ-बेटी घर आ गईं। 

ऑटो में बैठी मिसेज सुधा को बार-बार ऐसा लगता कि उनका पति उनके साथ बैठा है और उनके कंधे पर हाथ रखकर उन्हें हिम्मत बँधा रहा है पर उशके सपनों का काल बस क्षणिक ही होता और वह सत्य के कठोर धरातल पर टूटी बिखरी-सी पड़ी होतीं। 

घर आकर फिर सुधा को वही एक अपूरणीय चाहत और इंतजार रहता कि किशोर आकर उनसे पूछेंगे कि "रिपोर्ट में क्या आया?" उनके लिए फिक्रमंद होंगे। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ और यही वजह रही कि सुधा भी अब उनसे अपने इलाज के लिए पैसे नहीं माँगना चाहती थीं। जब रिश्ते में भावनात्मक सहानुभूति न बची हो तो आर्थिक सहायता लेना स्वार्थ का परिचायक होता है और उन्हें ऐसा लगने लगा था कि अब उनके पति को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस स्थिति में हैं। उनकी बीमारी के विषय में पता न हो ऐसा नहीं था, अब तक तो सबको पता चल चुका था पर मिसेज सुधा ने किशोर के चेहरे पर शिकन तक नहीं देखी। उन्हें नहीं पता कि उनके लिए अधिक कष्टदायक क्या था? उनकी शारीरिक व्याधि या पति की उपेक्षा?

वह जब एकांत में रोकर शांत हो जातीं तब फिर से अपने आपको मजबूत कर लेतीं कि अब यदि उन्हें अपने बच्चों की फ़िक्र करनी है तो अपने इलाज के विषय में सोचना होगा न कि मृतप्राय रिश्तों के विषय में। यही सोचकर उन्होंने निर्णय लिया कि सरकारी अस्पताल में इलाज करवाएँगी और अगले दिन बेटी के साथ कैंसर के सरकारी अस्पताल में गईं। 

बेटी ने नंबर लगाने से लेकर बाकी की सभी औपचारिकताएँ पूर्ण की और तीन-चार घंटे लाइन में लगे रहने के बाद उनका नंबर आया। डॉक्टर ने फिर से कुछ टेस्ट लिख दिए तथा बायोप्सी का सैंपल पिछले अस्पताल से लाने को कहा। दोनों माँ-बेटी को कुछ टेस्ट करवाते और अन्य टेस्ट की तारीख लेते शाम हो गई। डॉक्टर ने कहा था कि बीमारी तेजी से बढ़ रही है इसलिए इलाज जल्दी ही शुरू हो जाना चाहिए परंतु सरकारी अस्पताल की सुस्त प्रक्रिया देखकर लग रहा था कि इलाज शुरू होने में लगभग एक महीना लग जाएगा। इसलिए उन्होंने बेटी से उसी अस्पताल के प्राइवेट विभाग के बारे में पता करने के लिए कहा। दूसरे दिन मिसेज सुधा को बायोप्सी का सैंपल लेने पहले वाले अस्पताल जाना था, बेटी को अपने किसी अन्य काम से कहीं और जाना था, इसलिए वह साथ नहीं जा सकती थी। उसे अब माँ का अकेले जाना ठीक नहीं लग रहा था, शायद कोई अनजाना भय मन के किसी कोने में घर कर चुका था। वह भी तो लगभग डेढ़-दो महीने से माँ को अकेले संघर्ष करते देख रही थी, अब इस भयानक बीमारी के पता चलने के बाद भी वह माँ को अकेली ही देख रही थी, अत: आज उसने सोच लिया था कि वह उन्हें अकेले नहीं जाने देगी और उसने स्वयं जाकर अपने पापा से साथ जाने का आग्रह किया। 

उस दिन पहली बार अस्पताल जाते हुए सुधा को अपने पति किशोर का साथ मिला पर पूरे रास्ते मोटर साइकिल पर दोनों के बीच एक गहरी खामोशी ही रही। मिसेज सुधा को पता था कि किस काउंटर से पर्ची बनवानी है और कहाँ जाना है, इसलिए अस्पताल में उन्होंने ही आगे रहकर सब करवाया और किशोर चुपचाप एक ओर खड़े रहे। परंतु जहाँ से सैंपल मिलना था वहाँ पर किशोर ने स्वयं जाकर सभी औपचारिकताएँ पूरी कीं और सैंपल लेकर दोनों घर आ गए। 

अगले दिन फिर नई जाँच के लिए किसी और अस्पताल में जाना था वहाँ पर भी बेटी ही साथ गई और सभी जाँच आदि करवाकर अस्पताल में रिपोर्ट जमा करवाए। धीरे-धीरे वह कोशिश करती कि किशोर साथ जाए ताकि इलाज में आसानी हो सके क्योंकि उसने महसूस किया कि डॉक्टर भी मरीज के बारे में किसी बड़े से ही बात करना चाहते हैं, जहाँ अधिक खर्च आदि की बात आती तो वे किसी बड़े को बुलाने की बात करते। इसलिए उसने किशोर से आग्रह किया कि अगर उसके पास समय हो तो वही अस्पताल चले जाया करे। किशोर ने कोई आपत्ति नहीं जताई, मिसेज सुधा की तो मानो मन की मुराद पूरी हो गई। जब वह किशोर के साथ जातीं तो हालांकि वह तब भी उनसे दूर ही रहते थे, दोनों में कोई बात भी नहीं होती थी, फिरभी सुधा जी को मानों आत्मिक संतुष्टि मिलती थी वह अपने-आप को मजबूत महसूस करती थीं। हालांकि किशोर का दूर-दूर रहना और बात न करना उन्हें अखरता जरूर था, खासकर तब, जब वह किसी पुरुष को अपनी पत्नी का ख्याल रखते देखती थीं लेकिन फिर भी वह इतने से ही संतुष्ट हो जाती थीं कि वह उनके साथ आया है।

इलाज शुरू हो चुका था किशोर सुधा जी को लेकर कीमो चढ़वाने जाते और पूरे दिन अस्पताल में रहने के बाद भी दोनों अजनबी की तरह रहते। किशोर या तो वहीं लेटे अपने फोन में फिल्म देखते या बाहर घूमने चले जाते। हाँ किसी बाहर वाले के सामने जरूर वह एक आदर्श पति के रूप में रहते। पहले ही कीमो ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था और मिसेज सुधा जो बीमारी के कारण पहले से ही कमजोर हो चुकी थी दस-पंद्रह दिन के बाद ही उनके सारे बाल गिर गए, त्वचा शुष्क और कांतिहीन हो गई, आँखे पीली और होंठ सूखे पपड़ी पड़े हुए थे। अब वह एक ऐसी बदसूरत महिला बन चुकी थीं जिसने खुद को भी शीशे में देखना बंद कर दिया। वह गिरे हुए बालों के गुच्छे देखकर रो पड़ी थीं पर मि० किशोर ने उन्हें रोते देखकर भी गले लगाकर उन्हें सांत्वना देना तो दूर तसल्ली का एक शब्द भी नहीं बोला था। मिसेज सुधा महसूस कर सकती थीं कि किशोर अब उनकी ओर नजर भरकर देखना भी पसंद नहीं करते। 

उनकी दवाइयों और खाने पीने का खयाल रखना बच्चों की जिम्मेदारी बन गई थी, किशोर अस्पताल तक ही अपनी जिम्मेदारी समझते, घर आने के बाद वह कभी औपचारिकतावश भी सुधा की तबियत के विषय में नहीं पूछते। उन्होंने दवाई खाई या नहीं, खाने में क्या खा रही हैं क्या नहीं! डॉक्टर के निर्देशानुसार डाइट मिल रही है या नहीं, किशोर ने कभी जानने की कोशिश नहीं की, लेकिन जब बच्चे या सुधा कुछ भी लाने के लिए कहते तब वह लाकर दे देते परंतु खुद अपनी तरफ से कभी कुछ भी जानने की कोशिश नहीं करते। दवाई लेने के समय का ध्यान भी सुधा को ही रखना पड़ता, वही बेटियों से दवाई माँगकर खाती, बेटियाँ ही उसके खाने-पीने का ध्यान रखतीं। 

कैंसर, ऐसी बीमारी जिसे सुनकर ही व्यक्ति टूट जाए। सुधा की या फिर यूँ कहें कि बच्चों की किस्मत अच्छी थी कि बीमारी का पता जल्दी चल गया और डॉक्टर ने विश्वास दिलाया कि अगर पूरा इलाज हुआ तो वह ठीक हो जाएँगी। परंतु इतना आसान भी नहीं था इस बीमारी से बाहर आना, जहाँ अन्य बीमारियों का इलाज मरीज को आराम देता है वहीं इस बीमारी का इलाज मरीज को भीतर ही भीतर खोखला करता है। ऐसी स्थिति में उसे भावनात्मक सहारे की बहुत आवश्यकता होती है, अपनों के सहयोग और सहारे से ही वह बीमारी से लड़ने की शक्ति जुटा पाता है किन्तु मिसेज सुधा इस बीमारी के साथ-साथ अपने अकेलेपन की बीमारी से भी जूझ रही थीं। उन्हें जीने की इच्छा न होते हुए भी जीने की आवश्यकता का अहसास था, वह जानती थीं कि उन्हें बच्चों के लिए जीना होगा, इसीलिए वह खुद से चाहे अपनी दवाई न ले पाती हों पर समय पर लेना है यह याद जरूर रखती थीं। 

कुछ महीनों के कीमो थैरेपी के बाद उनका ऑपरेशन हुआ और नारी काया का वह अंग जिसके बिना उसका सौंदर्य अपूर्ण होता है, उसे उनके तन से अलग कर दिया गया। उसकी आवश्यकता भी नहीं थी उन्हें, व्याधिग्रस्त होने के कारण वह अंग अपना महत्व खो चुका था। जिसका आवरण में रहना ही उसका गौरव था, जो नारीत्व का भी द्योतक था, जो मातृत्व का गौरव था वही अंग व्याधिग्रस्त होते ही शर्म की सीमा से मुक्त हो गया। वह नारीत्व का प्रतीक नहीं बल्कि परीक्षण का तत्व बन गया जिसे कोई भी चिकित्सा का डिग्रीधारी अपनी चिकित्सा का एक अध्याय मात्र समझकर उसका परीक्षण करने के लिए स्वतंत्र होता है, इसीलिए परीक्षण के उस अवयव का उनके अंग से विलग होना ही उचित था। ऐसा नहीं है कि मिसेज सुधा को अपने शरीर से एक अंग के कम होने का दुख नहीं! कौन स्त्री अपनी कुरूपता को सहज ही स्वीकार कर पाती है? परंतु वह स्वीकार नहीं करतीं तो क्या करतीं? 

ऑपरेशन के बाद जितने भी दिन अस्पताल में रहना पड़ा उतने दिन किशोर ही उनके साथ रुके, उन्होंने उनकी पूरी देखभाल की लेकिन दोनों के बीच का मौन तभी टूटता जब कोई उनसे मिलने आता। 

घर आने के बाद फिर सब कुछ पहले की तरह हो गया। मिसेज सुधा पहले से अधिक कमजोर हो चुकी थी, परंतु इलाज के सभी सोपान पूरे करने थे, अत: ऑपरेशन के लगभग एक महीने बाद से फिर कीमो थैरेपी शुरू हो गई और इस बार पता नहीं कमजोरी अधिक होने के कारण या परिवर्तित दवाइयों के कारण मिसेज सुधा और अधिक कमजोर हो गईं और पीड़ा भी बहुत होने लगी। धीरे-धीरे उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया था। वह अब बालकनी में कम ही नजर आतीं। उनका अपने पौधों के बीच बैठने का बड़ा मन होता था, एक वही तो थे उनकी तन्हाई का सहारा..उनके मध्य बैठकर उनकी पत्तियों को प्यार से सहलाना, उन्हें निहारना उनके मन को सुकून देता था परंतु वह इतनी दुर्बल हो चुकी थीं कि ये भी नहीं कर पातीं इसलिए मन ही मन बेबसी से तिलमिला उठती। कई-कई दिनों के बाद यदा-कदा बालकनी में एक हाथ कमर पर रखे या दरवाजे के सहारे से वह झुकी हुई काया पौधों को पानी देती नजर आ जाती थी, पर कुछ ही मिनटों में फिर वापस चली जाती। उनका इलाज अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका था और अब वह इस गंभीर बीमारी से लगभग मुक्त ही हो चुकी थी, सभी बस इसी इंतजार में थे कि जैसे-तैसे यह अंत के डेढ़-दो महीने का समय और कट जाए फिर तो मिसेज सुधा पूरी तरह ठीक हो जाएँगी और फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा। 

स्कूल की छुट्टियाँ पड़ गई थीं तो निधि बच्चों को लेकर कुछ दिनों के लिए अपनी माँ के पास नैनीताल चली गई थी। दस दिन बाद टूर से लौटने के बाद सुजीत भी वहीं चला गया और चार-पाँच दिन वहांँ रुककर फिर वो वापस अपने घर आ गए।


बालकनी में बाल सुखाते हुए निधि की नजर बरबस उसी बालकनी में जा रही थी जहाँ मिसेज सुधा अपनी जर्जर काया समेटे बैठी होती थीं, निधि को तो जैसे उन्हें सुबह-शाम वहाँ देखने की आदत ही हो गई थी पर जब से वह वापस आई है, तब से वो अपनी बालकनी में दिखाई ही नहीं दीं। वह बीमार थीं यही सोचकर उसका मन आशंकित होने लगा था, कैसे भी हो आज मैं उनके बारे में जानकर ही रहूँगी, सोचते हुए वह अपने घर के कामों में लग गई। 


शाम को निधि बच्चों के साथ पार्क में टहलने गई तो उसकी मुलाकात मिसेज चोपड़ा से हो गई। वह मिसेज सुधा की बिल्डिंग में ही उसी फ्लोर पर रहती हैं।  बच्चे तो खेलने में व्यस्त हो चुके थे और माताओं ने अपनी गप-शप शुरू कर दी थी। कुछ देर तक वह उनकी इधर-उधर की बातें सुनती रहीं पर जब उससे अपनी उत्सुकता रोकी न गई तो वह मिसेज चोपड़ा से पूछ बैठी- "मिसेज चोपड़ा आजकल कुछ दिनों से आपकी पड़ोसन दिखाई नहीं दे रही हैं, ज्यादा बीमार हैं क्या?"

"किसकी बात कर रही हो आप?" मिसेज चोपड़ा ने पूछा।

"मिसेज सुधा की" वह बोली।

"अरे तुम्हें नहीं पता!" मिसेज चड्ढा ने ऐसी सरसराती सी आवाज में कहा कि एक बारगी को निधि के शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। 

"क्क्या नहीं पता?" उसने कहा।

"उन बेचारी के साथ बहुत बुरा हुआ, वैसे अच्छा ही हुआ उन्हें मुक्ति मिल गई। अब न कोई सपना रहा न इच्छा।" मिसेज चोपड़ा अफसोस जताती हुई बोलीं।

"मुक्ति मिल गई मतलब?" निधि को अपनी ही आवाज कहीं दूर से आती हुई प्रतीत हुई। 

"मतलब क्या! तुमने तो देखा ही होगा कि बेचारी की क्या हालत हो गई थी, ऐसे में बिल्कुल अकेली, बच्चे ही देखभाल करते थे पर आखिर थीं तो वो एक पत्नी ही न! उन्हें भी तो सहारे की जरूरत होती होगी। हम तुम औरतें है तो हम तो समझ सकते हैं न कि जब पति होकर भी न हो तब हमें कितना अकेलापन लग सकता है, पूरी दुनिया वीरान हो जाती है फिर वो तो एक निरीह मरीज थी कैसे और कब तक बर्दाश्त करतीं सब, इसीलिए चली गईं।"

"चली गईं!" निधि होंठों में ही बुदबुदाई।

"कहाँ खो गई निधि क्या हुआ तुम्हें?" मिसेज चोपड़ा ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा।

"क् क्कुछ नहीं... पर वो तो ठीक हो गई थीं न! फिर कैसे...?" निधि जैसे स्वयं से ही पूछ रही थी।

"इंसान की शारीरिक बीमारी भी तभी दूर होती है जब वह मानसिक रूप से मजबूत हो, इसीलिए कहते हैं कि इच्छाशक्ति का मजबूत होना जरूरी है और औरत की इच्छाशक्ति का आधार उसका पति होता है। तुम्हें पता है कि मिसेज सुधा के पति का व्यवहार उनके साथ बिल्कुल भी अच्छा नहीं था?" मिसेज चोपड़ा बोलीं।

"ह् हाँ।"

"फिरभी वो अपनी बीमारी से लड़ रही थीं क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि कभी न कभी तो उनके दिन फिरेंगे, लेकिन उनकी या फिर कहें कि बच्चों की किस्मत खराब थी कि उनकी ये उम्मीद ऐसे समय पर आकर टूट गई जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से इतनी कमजोर हो चुकी थीं कि विश्वास टूटने का सदमा न झेल सकीं और ऐसा अटैक आया कि किसी बहाने, किसी सफाई का मौका दिए बिना ही खुद की आजादी के साथ अपने पति को भी आजाद कर गईं।" मिसेज चोपड़ा बोलीं।

"लेकिन ऐसा क्या जान लिया उन्होंने?" निधि को अपनी ही आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हो रही थी।

"उस दिन उनके घर कोई मेहमान आई थी, मेहमान क्या थी बस सुधा की बीमारी को अपने हक में भुना रही थी, पहले भी वो आती-जाती रहती थी पर कहते हैं न सच्चाई कभी न कभी तो सामने आती ही है, उस दिन सच्चाई सामने आने का ही दिन था जो मिसेज सुधा ने अपनी आँखों से ही सब देख लिया और...."

"और क्या मिसेज चोपड़ा?"

"और सूर्योदय की पहली किरण के साथ ही उनके जीवन का सूर्यास्त हो गया निधि। बस तब से वो बालकनी सूनी हो गई, बच्चे अपने मामा के साथ ही चले गए अब महाशय आजाद हैं।"  कहते हुए मिसेज चोपड़ा ने गहरी साँस ली। उनके मध्य अब एक गहरी खामोशी थी जिसे शायद इस समय वे दोनों खुद भी नहीं तोड़ना चाहती थीं। 

अचानक पंख फड़फड़ाते हुए दो कबूतर निधि के सामने बालकनी की रेलिंग पर आ बैठे और चौंकते हुए वह अतीत के गलियारों से बाहर आ गई। उसकी नजर फिर सुधा की बालकनी की ओर गई किशोर और वह युवती अब भी वहीं बालकनी में कुर्सी पर बैठे बातें कर रहे थे परंतु बालकनी का सौंदर्य लुप्त हो चुका था। न वहाँ पौधे थे न ही पौधों की कोई चाह नजर आ रही थी, अगर अब उस बालकनी में कुछ था तो  किसी के अरमानों की जलती चिता। 


मालती मिश्रा 'मयंती' ✍️