मंगलवार

उपन्यास कैसे लिखें

 उपन्यास लिखने के चरण


एक उपन्यास लिखना एक कठिन काम हो सकता है, लेकिन इसे प्रबंधनीय चरणों में विभाजित करने से प्रक्रिया को और अधिक प्रबंधनीय बनाने में मदद मिल सकती है। उपन्यास लिखते समय विचार करने के लिए यहां कुछ बुनियादी कदम दिए गए हैं:


विचार-मंथन और रूपरेखा: 

अपनी कहानी के लिए विचार-मंथन करके शुरुआत करें। प्लॉट, पात्रों, सेटिंग और थीम के बारे में सोचें जिन्हें आप एक्सप्लोर करना चाहते हैं। एक बार जब आप अपनी कहानी के बारे में सामान्य विचार प्राप्त कर लेते हैं, तो अपनी लेखन प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने के लिए एक रूपरेखा तैयार करें।


चरित्रों का विकास करना: 

बैकस्टोरी, व्यक्तित्व लक्षण और प्रेरणाएँ बनाकर अपने मुख्य पात्रों को बाहर निकालें। यह आपको यथार्थवादी और भरोसेमंद चरित्र बनाने में मदद करेगा जिसकी पाठक परवाह करेंगे।

पहला मसौदा लिखना: 

एक बार जब आपके पास एक रूपरेखा और विकसित चरित्र तैयार हों, तो पहला मसौदा लिखना शुरू करने का समय आ गया है। इस स्तर पर अपने लेखन को बेहतर बनाने के बारे में ज्यादा चिंता न करें, बस अपने विचारों को कागज पर उतारने पर ध्यान दें।


संशोधन और संपादन: 

एक बार जब आप अपना पहला मसौदा पूरा कर लेते हैं, तो नए परिप्रेक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने काम से कुछ समय निकाल लें। फिर, वापस आकर अपने काम की समीक्षा करें, प्लॉट की खामियों, विसंगतियों और अन्य मुद्दों पर ध्यान दें जिन्हें ठीक करने की आवश्यकता है।


प्रतिक्रिया माँगना: 

उद्योग में बीटा पाठकों, लेखन समूहों या पेशेवरों से प्रतिक्रिया प्राप्त करें। अतिरिक्त संशोधन करने और अपनी कहानी को बेहतर बनाने के लिए इस फ़ीडबैक का उपयोग करें।


पॉलिश करना और प्रकाशित करना: 

एक बार जब आप अपनी कहानी से खुश हो जाते हैं, तो अपने लेखन को चमकाने और उसे प्रकाशन के लिए तैयार करने पर काम करें। इसमें एक पेशेवर संपादक को काम पर रखना, अपनी पांडुलिपि को प्रारूपित करना और अपने बुक कवर और मार्केटिंग योजना पर काम करना शामिल हो सकता है।


याद रखें, एक उपन्यास लिखने की प्रक्रिया लंबी और चुनौतीपूर्ण होती है, लेकिन इसे प्रबंधनीय चरणों में तोड़कर और लगातार बने रहने से, आप एक महान पुस्तक लिखने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। 


मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

अरु.. (भाग-१)

उपन्यास...


इस उपन्यास के माध्यम से आइए चलते हैं अरुंधती के साथ उसके सफर पर.. 

दिसंबर की कड़ाके की सर्द शाम थी अभी सिर्फ छ: बजे थे लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बहुत रात हो गई है। सड़क के मध्य डिवाइडर पर लगे बिजली के खंभों में लगे मरकरी की दूधिया रोशनी और गाड़ियों की हेड लाइट्स न सिर्फ आसमान में इक्का-दुक्का चमकते तारों को धुंधला कर रही थी बल्कि चंद्रमा के अस्तित्व को भी नकार रही थी। कुछ तो सर्दी का असर और कुछ शनिवार होने के कारण अन्य दिनों की तुलना में सड़क पर ट्रैफिक कुछ कम था इसलिए अनिरुद्ध अस्सी की गति से कार ड्राइव कर रहा था। 
"अभी और कितनी दूर है अनिरुद्ध?" बगल में बैठी सौम्या ने कहा।
"हाँ डैड, हम तो बैठे-बैठे थक गए।" पीछे की सीट पर बैठी अट्ठारह वर्षीया अलंकृता बोली।
"अरे तो कोई भी अच्छी चीज पाने के लिए थोड़ा कष्ट तो उठाना पड़ता है ना! है ना डैड?" अलंकृता के साथ बैठी उसकी छोटी बहन अस्मिता बोली। अस्मिता की उम्र बारह वर्ष थी लेकिन घर में सबसे छोटी होने के कारण उसमें बचपना कुछ ज्यादा ही था। सभी उसे अस्मि कहकर बुलाते थे।
"बिल्कुल बेटे, इन दोनों माँ-बेटी को कहाँ पता है ये बात।" अनिरुद्ध ने अपनी बेटी का हौसला बढ़ाते हुए कहा तो अस्मि ने अपने दाएँ हाथ से अपनी कॉलर उठाकर बड़े रौब से अलंकृता की ओर देखा। 
थोड़ी ही देर में उनकी कार दिल्ली के वसंत कुंज जैसे पॉश एरिया में एक बंगले के सामने खड़ी थी। कॉलोनी के गेट से बंगले तक स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी में नहाए हुए सड़क के दोनों ओर की हरियाली और तेज हवा की साँय-साँय के साथ पत्तों की खड़खड़ाहट उस पर सर्दी के कारण चारों ओर फैला सन्नाटा माहौल में अजीब सी भयावहता का अहसास करा रहा था। सर्द अंधेरे में सिमटा छोटा सा बंगला, एक ओर पार्किंग, सामने और बायीं ओर से लॉन की आगोश में शांति से अपने नए मालिक का स्वागत करने को तत्पर था। लॉन के पेड़ों की परछाई बंगले के अस्तित्व को रहस्यमयी बना रही थीं। 
"डैड! अगर हम यहाँ दिन में आते तो ज्यादा अच्छा होता ना?" अलंकृता ने धीमी आवाज में कहा। 

"डर लग रहा है आपको?" अनिरुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा।

"नहीं.. लेकिन इस अंधेरे में तो हम ठीक से कुछ देख भी नहीं पाएँगे और अगर लाइट ठीक नहीं हुई तो..." अपने डर को छिपाने का असफल प्रयास करती हुई वह बोली। 

"डोंट वरी लाइट वगैरा सब चेक करवा लिया है, तुम लोग चलो मैं गाड़ी पार्क करके आता हूँ।" अनिरुद्ध ने बंगले का गेट खोलते हुए कहा।  
सौम्या ने गर्दन घुमाकर कर आसपास का जायजा लिया। उसके बंगले के लॉन की दीवार के बाहर एक फुटपाथ और उसके बाद पार्क था पार्क का गेट फुटपाथ पर ही खुलता था। पार्क के दूसरी ओर भी बिल्कुल ऐसा ही बंगला था, उसकी खिड़कियों से छनकर प्रकाश बाहर आ रहा था। ऐसा ही बंगला दूसरी ओर भी था। सौम्या ने पहली बार ध्यान दिया वहाँ आसपास ऐसे ही कई बंगले थे और खिड़कियों से छनकर आती रोशनी बता रही थी कि सिर्फ इस बंगले के अलावा बाकी सभी बंगलों में परिवार रहते हैं। अब वह आश्वस्त होकर अस्मि का हाथ पकड़े बंगले के अंदर आई। अब तक अनिरुद्ध भी गाड़ी पार्क करके अंदर आ चुका था। बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर जब तक तीनों दरवाजे तक पहुँचे अनिरुद्ध ने मुख्य दरवाजे का ताला खोलकर बड़े से दरवाजे को जोर से अंदर ढकेला। चर्र की आवाज के साथ दरवाजा खुल गया। सामने घुप्प अंधेरा था, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। मोबाइल का टॉर्च जलाकर उसने बिजली का स्विच ऑन कर दिया। एकाएक तेज रोशनी पूरे हॉल में फैल गई। बड़े से हॉल के बीचों-बीच बड़े-बड़े कार्टन में पैक उनका सामान रखा हुआ था। सोफे कुर्सियाँ सब चादरों से ढके हुए थे, दायीं ओर थोड़ी ऊँचाई पर बरामदे नुमा जगह पर डाइनिंग टेबल था और वहाँ ही रसोईघर था। हॉल से बायीं ओर दो कमरे थे जिनका दरवाजा बंद था। 
हॉल से सीढ़ियाँ ऊपर को जा रही थीं। अनिरुद्ध सौम्या को नीचे के कमरे दिखा रहा था, अलंकृता और अस्मि ने ऊपर सभी कमरे खोलकर उनकी बत्तियाँ जला दीं और घूम-घूमकर कहाँ क्या होगा, कौन सा कमरा किसका होगा इस पर चर्चा कर रहे थे। 

"कैसा लगा घर बच्चों?" अनिरुद्ध ने ऊपर आते हुए कहा।

"बहुत अच्छा है डैड, हम दोनों को बहुत पसंद आया।" अस्मि खुशी से चहकते हुए बोली। 

"तो अब चलो कुछ खा-पीकर काम में लग जाओ, सामान लगाने हैं न, हमारे पास तो बस आज की रात और कल का दिन ही है, परसों मुझे ऑफिस ज्वाइन करना है और आपकी मम्मी को आप लोगों के लिए स्कूल ढूँढ़कर एडमिशन करवाना है।" अनिरुद्ध ने कहा।

"लेकिन डैड स्कूल तो आपने पहले से ही ढूँढ़ रखा है न?" अलंकृता ने कहा। 

"हाँ..हाँ ढूँढ़ रखा है पर मैं देखकर ही निर्णय लूँगी, और तुम्हारे लिए कॉलेज भी तो देखना है। अब चलो सब खाना खाते हैं।" कहकर सौम्या सीढ़ियों की ओर चल दी। 

रसोई को प्रयोग के लायक थोड़ा साफ करके सौम्या ने अपने साथ लाया हुआ खाना गर्म किया और डाइनिंग टेबल साफ करके उस पर खाना लगा दिया। सबने हँसते-बातें करते हुए खाना खाया और फिर सामान लगाने में व्यस्त हो गए।
निर्धारित समय के अंदर सभी काम पूरे कर लिए थे अनिरुद्ध और सौम्या ने। तीन दिन हो गए थे उन्हें आए हुए और तभी से बिना रुके लगातार काम करते-करते सौम्या थक चुकी थी। थकान के कारण आज उसे नौ बजे ही नींद आ गई और बच्चों को खाना खिलाकर रसोई साफ किए बिना ही वह सो गई।

सौम्या सोते-सोते कसमसाई जैसे कोई सपना देख रही हो, उसे प्यास से गला सूखता हुआ महसूस हुआ और उसकी आँख खुल गई। उसने पलट कर देखा अनिरुद्ध गहरी नींद में सो रहा था। वह उठी और साइड टेबल पर से पानी का जग उठाकर गिलास में पानी डालने लगी पर जग में पानी नहीं था। पानी लेने के लिए वह नीचे रसोई में गई तभी उसे किसी के सिसकने की आवाज आई। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में वह नजरें गड़ाकर इधर-उधर देखने लगी पर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। सिसकियों की आवाज तेज होती जा रही थी, उसने ध्यान से सुना यह किसी महिला के रोने की आवाज थी। वह बिना पानी लिए हॉल में आ गई और जब उसे कोई दिखाई नहीं दिया तो वह तेज-तेज चलते हुए ऊपर अलंकृता के कमरे के बाहर पहुँच गई। कहीं अलंकृता ही तो नहीं रो रही! सोचते हुए उसने दरवाजे को हल्के से धकेला। दरवाजा खुल गया। अलंकृता तो गहरी नींद में सो रही थी। अपने मन की तसल्ली के लिए वह बेड के पास गई और धीरे से उसके चेहरे से रजाई सरकाकर देखा। उसे गहरी नींद में सोते देखकर उसने संतुष्ट होकर लंबी साँस ली और कमरे का दरवाजा पहले की तरह लगाकर बाहर आ गई। किसी महिला की सिसकियाँ उसे अब भी सुनाई दे रही थीं लेकिन यह आवाज कहाँ से आ रही थी यह उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने अपनी संतुष्टि के लिए अस्मि को भी देखा पर वह भी गहरी नींद में सो रही थी। अब उसे थोड़ा डर लगने लगा था, प्यास से गला भी सूख रहा था पर अब रसोई में जाने का साहस नहीं हो रहा था। वह जल्दी से अपने कमरे में गई और अनिरुद्ध को जगाने लगी। 
"अनिरुद्ध उठो.. अनिरुद्ध...!" 

"क्या है यार क्यों नींद खराब कर रही हो!" अनिरुद्ध नींद में ही बड़बड़ाते हुए बैठ गया।

"कोई रो रहा है?" उसने धीमी आवाज में कहा।

"क्या! कौन रो रहा है?" एक पल में ही अनिरुद्ध की नींद ऐसे खुल गई जैसे कभी सोया ही न हो।

"सुनो उसकी सिसकियों की आवाज, कोई औरत है। बहुत देर से उसके रोने की आवाज आ रही है पर कोई दिखाई नहीं दे रहा।" वह इतने धीरे बोल रही थी जैसे उसे डर हो कि उसकी आवाज अनिरुद्ध के अलावा कोई और न सुन ले।

"क्या कह रही हो, मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही।" अनिरुद्ध ने कहा।

"ध्यान से सुनो न! मैं झूठ नहीं बोल रही, सच में किसी के रोने की आवाज आ रही है।" सौम्या परेशान होकर बोली। 

"सौम्या सुनो..सुनो कभी-कभी ऐसा होता है कि हम कोई सपना देख लेते हैं और फिर जागने के बाद भी हमें सपने में देखे या सुनी गई आवाजों के सुनाई देने का भ्रम होता है। तुम सो जाओ सचमुच कोई आवाज नहीं आ रही है।" अनिरुद्ध उसको दोनों कंधों से पकड़कर समझाते हुए बोला।
शायद अनिरुद्ध सही कह रहा है, हो सकता है कि मैंने कोई सपना ही देखा होगा। उसने सोचा और लेट गई लेकिन प्यास से उसका गला अब भी सूख रहा था।
"अनिरुद्ध प्लीज रसोई से पानी ला दो, म..मुझे डर लग रहा है।" उसने कहा। 
"ठीक है तुम बैठो मैं लाता हूँ पानी।" कहकर वह नीचे चला गया। सौम्या की नजर दीवार घड़ी पर गई, रात के दो बज रहे थे। अनिरुद्ध पानी लेकर आया और गिलास में डालकर उसे दिया। पानी पीकर वह लेट गई, रोने की आवाज धीरे-धीरे धीमी होते-होते बंद हो गई। बहुत देर तक करवटें बदलते रहने और अपने-आप से सवाल-जवाब करते रहने के बाद आखिर सौम्या भी सो गई। 
क्रमशः
नोट- यदि पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके प्रतिलिपि पर पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ें..

https://pratilipi.page.link/rUwjM2zKmFScd8zy8

चित्र साभार- गूगल 
मालती मिश्रा 'मयंती'




पुस्तक कैसे लिखें..

 पुस्तक कैसे लिखें..


पुस्तक लेखन एक लिखित कार्य बनाने की प्रक्रिया है जिसे पाठकों के आनंद लेने के लिए प्रकाशित और वितरित किया जा सकता है। किताब लिखना एक चुनौतीपूर्ण और समय लेने वाला काम हो सकता है, लेकिन यह उन लोगों के लिए एक पुरस्कृत अनुभव भी हो सकता है जिनके पास बताने के लिए कहानी या साझा करने के लिए जानकारी है।


विषय निर्धारित करें-

किताब लिखना शुरू करने के लिए, सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि आप किस तरह की किताब लिखना चाहते हैं और आपके लक्षित दर्शक/पाठक कौन हैं। इससे आपको अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी और यह सुनिश्चित होगा कि आपकी पुस्तक इस तरह से लिखी गई है जो आपके पाठकों को जोड़ेगी और उनके साथ प्रतिध्वनित होगी।


रूपरेखा तैयार करें-

एक बार आपके पास अपनी पुस्तक के लिए एक विचार होने के बाद, पुस्तक की संरचना के लिए एक रूपरेखा या योजना बनाना महत्वपूर्ण है। यह आपको व्यवस्थित रहने और अपने लेखन को ट्रैक पर रखने में मदद कर सकता है। कुछ लेखक अधिक विस्तृत रूपरेखा का उपयोग करना पसंद करते हैं, जबकि अन्य केवल एक सामान्य विचार रखना पसंद करते हैं कि वे प्रत्येक अध्याय में क्या शामिल करना चाहते हैं।


समय सारणी और लेखन लक्ष्य निर्धारित करें-

जैसा कि आप लिखना शुरू करते हैं, लेखन के लिए नियमित समय निर्धारित करना और प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्ध रहना महत्वपूर्ण है। इसमें दैनिक शब्द गणना लक्ष्य निर्धारित करना या लिखने के लिए नियमित समय और स्थान खोजना शामिल हो सकता है। प्रतिक्रिया के लिए खुला होना और यह सुनिश्चित करने के लिए अपने काम को संशोधित करना भी महत्वपूर्ण है कि यह सबसे अच्छा हो सकता है।


प्रकाशन प्रक्रिया तथा प्रकाशक की जानकारी हासिल करें- 

एक बार जब आपकी पुस्तक पूरी हो जाती है, तो आप किसी प्रकाशक की तलाश करना या अपना काम स्वयं प्रकाशित करना चुन सकते हैं। स्व-प्रकाशन हाल के वर्षों में एक तेजी से लोकप्रिय विकल्प बन गया है, लेखकों को उनके काम को प्रकाशित करने और वितरित करने में मदद करने के लिए कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं।


कुल मिलाकर, किताब लिखना उन लोगों के लिए एक चुनौतीपूर्ण लेकिन पुरस्कृत अनुभव हो सकता है जो इस प्रक्रिया के लिए प्रतिबद्ध हैं। समर्पण, कड़ी मेहनत और सीखने और सुधार करने की इच्छा से कोई भी एक सफल पुस्तक लेखक बन सकता है।

चित्र साभार- गूगल से 

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

शिव वंदना


हे शंभु अब करो कृपा

प्रभु आप हरो सबकी विपदा...


हे गंगाधर हे गिरिवासी

हे शशिशेखर हे अविनाशी

हे मृत्युंजय कैलाशपति

हरो विपद हमारे उमापति।


हे नीलकंठ हे महादेव

हे अविनाशी हे वामदेव

हम आए तिहारी शरण प्रभु

करो दूर कष्ट देवादिदेव...


रोता अंबर रोती धरती

त्राहि-त्राहि दुनिया करती

हे तारकेश हे सहस्राक्ष 

हे सूक्ष्मतनु बस तेरी आस..


हे मृत्युंजय हे जग व्यापी

चहुँ दिशि में घोर विपद व्यापी

प्राणों की नहि होय क्षति

अब दया करो हे उमापति...


हे अभयंकर हे प्रलयंकर 

कैलाशपति हे त्रिपुरारी

डमड् डमड् डम की ध्वनि से

प्रभु नाश करो विपदा सारी...


हे शशिशेखर हे खटवांगी

तुम आकर सब संताप हरो

हे महाकाल हे दक्षाध्वर

अब रक्षा करो तुम रक्षा करो...


हे शिव शंभु अब करो कृपा

प्रभु आप हरो सबकी विपदा...


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार

कहाँ जा रहे आज के बच्चे

 कहाँ जा रहे आज के बच्चे (4/5/22)  


प्रातःकालीन निर्मलता की चादर ओढ़े धरती पर नाजुक कोपलों पर झिलमिलाते पावन ओस की बूँदों की तरह निर्मल, निश्छल और कोमल होता है बचपन, जो उदीयमान बाल सूर्य की शांत नर्म और रुपहली किरणों के स्पर्श से मोती की मानिंद जगमगा उठता है और हवा के थपेड़े से बिखर कर अपना अस्तित्व मिटा बैठता है। बाल्यावस्था वह अवस्था है जब बच्चे का मन कोरे कागज सा होता है, जो चाहो जैसा चाहो उसे वैसा ही बनाया जा सकता है। इसके लिए बच्चे को विशेष देखभाल के साथ-साथ स्वस्थ वातावरण की भी आवश्यकता होती है किन्तु वर्तमान समय में विशेष देखभाल तो संभव है लेकिन स्वस्थ वातावरण का मिलना अपने-आप में एक चुनौती है। आधुनिक परिवेश में जहाँ भौतिकवाद का बोलबाला है ऐसी स्थिति में समाज में सम्मानजनक और सुविधाजनक जीवन जीने के लिए आर्थिक स्थिति का मजबूत होना अहम् हो गया है। रहन-सहन से लेकर आने वाली पीढ़ियों के भविष्य निर्माण तक में प्रतियोगिता सर्वव्यापी है। ऐसी परिस्थिति में अपनी गृहस्थी को सुचारू और सुनियोजित रूप से चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों ही आर्थिक उत्सर्जन में सहभागिता सुनिश्चित करते हैं, जिसके कारण उन्हें अक्सर परिवार से अलग एकल परिवार के रूप में रहना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर कुछ आधुनिकता के शिकार तथा कुछ घरों में स्थान के अभाव के कारण भी एकल परिवार में रहने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जो सबसे अधिक प्रभावित होता है वह है बच्चों का जीवन। 

पहले बच्चा परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहता था विभिन्न रिश्तों में घिरा होता था तो रिश्तों के महत्व को समझता और सामंजस्य बिठाना सीखता था। बड़ों का आदर छोटों से स्नेह करने का आदी होता था, वहीं दादी-नानी की कहानियों से स्वस्थ मनोरंजन और ज्ञान पाता था। पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों से अपनी संस्कृति से परिचित होता था। घरों से बाहर अन्य बच्चों के साथ खेलता था तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होता था और साथ ही उसमें आपसी मेलजोल, सहयोग और अनुशासन के गुणों का विकास होता था। सही मायने में संयुक्त परिवार में ही बच्चा सही देखभाल और परवरिश प्राप्त करता था, विभिन्न रिश्ते-नातों से परिचित होता था तथा सभी रिश्तों के साथ सामंजस्य बिठाना सीखता था, किन्तु जैसे-जैसे हम आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते गए वैसे-वैसे अपनों से दूर और एकाकी होते गए। आज सब कुछ मशीनी हो गया है यहाँ तक कि बच्चों का पालन-पोषण भी। एकल परिवार में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं वहाँ पत्नी को या कहूँ कि माँ को बच्चों की देखभाल करने का समय नहीं होता। समय के साथ समाज में तालमेल बिठाने के लिए तथा बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए यह आवश्यक भी हो चला है और इसीलिए माँ को बच्चे को आया के भरोसे या क्रच में छोड़ना पड़ता है। बच्चे से दिनभर की दूरी और समय तथा पूरा प्यार न दे पाने का अपराधबोध माता-पिता को बच्चों के प्रति अति  संरक्षात्मक बना देता है और इस अपराध बोध से निकलने के लिए वह बच्चे की हर उचित-अनुचित माँगों को पूरा करते हैं। फलस्वरूप बच्चा जिद्दी और लापरवाह बन जाता है, आवश्यक नहीं कि सभी बच्चे या सभी माता-पिता ऐसे ही हों परंतु यदि 10-20 प्रतिशत भी होते हैं तो भी यह चिंताजनक है। 

आज के समय में शिक्षण पद्धति भी बच्चों को तकनीक का आदी बना रहा है। शिक्षा के दौरान बच्चों से नेट से सामग्री की खोज करवाना, क्रिया-कलाप आदि में नेट का प्रयोग आजकल शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बन गया है और जो बच्चा यह नहीं कर पाता वह अन्य बच्चों के बीच हीन महसूस करता है, अतः आधुनिक शिक्षा में तकनीक का प्रयोग करना आना बेहद आवश्यक है। दूसरी ओर बच्चा माता-पिता के कार्यों को बाधित न करे इसलिए माता-पिता द्वारा इन्हें तब से ही मोबाइल पकड़ा दिया जाता है, जब इन्होंने बोलना भी ठीक से नहीं सीखा होता। थोड़ा और बड़ा होगा तो टैबलेट्स और फिर लैपटॉप दे देते हैं। 

घर में बड़े-बुजुर्गों का अभाव, सुरक्षा की दृष्टि से तथा समय के अभाव के कारण बाहर न खेलने की मजबूरी, ऐसी अवस्था में टेलीविजन, फोन, लैपटॉप आदि ही साथ देते हैं। माता पिता के पास बच्चों के साथ खेलने का समय नहीं होता तो बच्चा फोन में गेम खेलता है, पढ़ाने का समय नहीं तो बच्चा इंटरनेट से ढूँढ़ कर पढ़ने लगा, ऐसे में वह इंटरनेट से उचित-अनुचित के ज्ञान के अभाव में हानिकारक विज्ञापनों और भी ऐसी चीजें देखता है जो उसके अबोध मन को दिशाहीन कर सकती हैं। कदम-कदम पर प्रतियोगिता भरी जिंदगी में ट्यूशन, ट्रेनिंग आदि के जरिए बच्चे को प्रतियोगिताओं को पास करने लायक तो बना दिया जाता है पर एक सहृदय, संस्कारी, संवेदनशील, छोटे-बड़ों व स्त्रियों का सम्मान, तथा अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ, परंपराओं का निर्वहन करने वाला व्यक्ति नहीं बना पाते क्योंकि बच्चे के माता-पिता को बच्चे का भविष्य सिर्फ अधिकाधिक धन कमाने में दिखाई देता है, इसलिए उन्हें अपने बच्चे को आर्थिक दौड़ में आगे रहने वाला धावक बनाना होता है और इसके लिए स्वयं पैसा कमाने की भाग-दौड़ में उनके पास बच्चे के लिए समय ही नहीं होता। ऐसी स्थिति में हम उम्मीद करते हैं कि हर बच्चा संस्कृति से प्यार करने वाला हो, गुरुजनों तथा बड़ों का सम्मान करने वाला हो....वस्तुतः हमारी ऐसी अपेक्षाएँ निराधार हैं, हम उन बच्चों से ये अपेक्षा कैसे कर सकते हैं जिन्हें ऐसी शिक्षा ऐसी परवरिश दी ही नहीं गई। यानि जो बीज हमने बोये ही नहीं उसकी फसल काटना चाहते हैं। हम कहते तो हैं कि आजकल के बच्चे कहाँ जा रहे हैं? क्या भविष्य होगा इनका और देश का, परंतु हमें यह देखने की आवश्यकता है कि हम बच्चों को क्या दे रहे हैं।

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

धार्मिक कानून बड़ा या देश

 धार्मिक कानून बड़ा या देश


हम जिस घर में जन्म लेते हैं, जहाँ हमारा पालन-पोषण होता है, जिस चारदीवारी में हम घुटनों के बल चले, खड़े हुए, लड़खड़ाए, गिरे और फिर उठकर चले और धीरे-धीरे उस घर की मिट्टी की खुशबू हमारी साँसों में बसती गई, उस घर की छत ने हमें सर्दी, गरमी, धूप और बरसात से बचाया, उसकी धरती ने सुख हो या दुख हमारे हर समय में हमें अपने आँचल में सुलाया फिर वह घर चाहे बड़ा हो या छोटा, कच्चा हो या पक्का, नया हो या पुराना चाहे पुराना जर्जर ही क्यों न हो सहज ही वह हमारा हो जाता है, हमारे दिल में बसता है, हमें उससे प्यार होता है।

यदि किसी को अपने घर से प्यार नहीं होता तो सही मायने में न तो वह घर उसका होता

है और न ही वो उस घर का होता है अर्थात् वह उस घर में महज़ कुछ देर का मेहमान होता है जहाँ उसे कुछ समय का आसरा मिल जाता है, हम दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि वह परदेशी होता है। 

यही बात देश में रहने वाले उन लोगों पर भी चरितार्थ होती है जिन्हें अपने देश से ही प्यार नहीं, जो इसी देश में रहकर देश के सम्मान के साथ खेलते हैं, जिस प्रकार एक घर के लोग परिवार बन अपने घर के लिए सदैव एकजुट रहते हैं उसी प्रकार देश के सभी नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म के अनुयायी हों पर पहले इस देश की संतान हैं और उन सभी का कर्तव्य है कि देशहित को सर्वोपरि रखते हुए ही अपने सभी सामाजिक और धार्मिक कर्म करें।

हमारा देश तभी उन्नत और सशक्त होगा जब इसके नागरिक स्वयं को तनावमुक्त, सशक्त और सुरक्षित महसूस करेंगे। किन्तु यहाँ रहने वाले विभिन्न संप्रदायों के लोग अपना-अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए यदि एक-दूसरे के अधिकारों का हनन करने लगें तो कोई भी नागरिक सुरक्षित कैसे महसूस करेगा। आए दिन मज़हबी रस्म अदायगी के लिए सड़कें जाम करना, कोलाहलपूर्ण वातावरण निर्मित करना तथा दमनकारी नीतियाँ अपनाकर दूसरों को सताना, विकास की ओर बढ़ते पैरों में जंजीरें डालकर उन्हें नीचे खींचने का काम करते हैं। सोने पर सुहागा तब होता है जब ऐसे उपद्रवियों द्वारा देश के कानून को मानने से यह कहकर इंकार कर दिया जाता है कि हमारा धार्मिक कानून हमें इसकी अनुमति नहीं देता।

दरअसल हम अभी भी परदेशी ही हैं, सिर्फ किसी देश में पैदा हो जाने मात्र से हम उस देश के या वह देश हमारा नहीं हो जाता। जब तक हम देश को भली-भाँति जान नहीं लेते जब तक उसकी संस्कृति उसकी शक्ति या दुर्बलता हमारे भीतर रच बस नहीं जाती तब तक हम उसके नही हो सकते। देश में बहुत से ऐसे जड़ पदार्थ हैं और हम भी उन्हीं की भाँति मात्र एक जड़ पदार्थ बनकर रह रहे हैं, देश ने हमें नही अपनाया न हमने देश को। हम यहाँ पैदा जरूर हुए परंतु इसकी मिट्टी की सोंधी खुशबू हमारी आत्मा में न बस सकी, हम यहाँ के जड़त्व के मोहपाश में बँधे होकर इसे अपना कहने लगे हैं। जो हमें लुभाते हैं और हम उसी के वशीभूत हो उसे पाने की लालसा में देश को अपना कहने लगते हैं। जो मोह से अभिभूत है वही चिरकाल का परदेशी है। वह नहीं समझता कि वह कहाँ है, किसका है? 

जो हमें प्यारा होता है, जो हमारा होता है या हम जिसके होते हैं, उसकी हर अच्छाई-बुराई को हम दिल से अपनाते हैं। उसके सम्मान के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते हैं परंतु इसी देश में जन्म लिया इसकी माटी का तिलक किया, फिर भी आज भी इसके प्रति अपनी अखंड भावना दर्शाने से डर लगता है।

हर देश के नागरिक को अपने देश और राष्ट्रगान के प्रति श्रद्धा होती है परंतु हमारे देश में ही किसी खास संप्रदाय के लोगों को राष्ट्रगान गाने की इज़ाजत उनका ही धर्म नहीं देता। कहते हैं कि उनके धर्म का कानून उन्हें जन गण मन और वंदेमातरम् गाने की इज़ाजत नहीं देता है, फिर सवाल यह उठता है कि जन-गण-मन और वंदेमातरम् जिस देश की आत्मा हैं आपका कानून आपको उस देश में रहने की इज़ाजत कैसे देता है? भारत माता की धरती पर जन्म लेकर इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाने वाले को 'भारत माता की जय' बोलने से कौन-सा कानून रोकता है। कौन-सा कानून है जो माँ को माँ का सम्मान देने से रोकता हो? यदि कोई धर्म मनुष्य को मानव-धर्म निभाने से रोकता है तो वह धर्म नहीं। हर धर्म व्यक्ति को पहले इंसान बाद में हिंदू या मुसलमान बनाता है। 

किसी भी देश में रहने वाले हर नागरिक का प्रथम कर्तव्य अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पण और उसका सम्मान होना चाहिए, धर्म और मज़हब दूसरे स्थान पर होते हैं। यदि हमें अपने ईश्वर की आराधना के लिए अपनी अधिकृत भूमि और बेफिक्री और सुकून के दो पल ही न मिलें तो धर्म के प्रति कर्तव्य कहाँ निभाएँगे? 

हमारा घर हमारा देश तब ही हमारा होता है जब हम तन-मन-धन से उसके होते हैं, जब हमारे देश की मिट्टी की खुशबू हमारी आत्मा में बसती है और अनायास ही हमारे मुँह से ही नहीं दिल से निकलता है "वंदेमातरम्" तब हम इस देश के हो पाते हैं। तब हम इसके हो पाते हैं जब सिर्फ हम इसमें नहीं बल्कि यह हममें बसता है, अन्यथा तो हम पैदा होकर परदेशी बनकर रहते हुए पशुओं के समान अपना भरण-पोषण करते हुए एक दिन परदेशी ही बनकर चले जाएँगे और सवाल रह जाएगा धार्मिक कानून बड़ा या देश........

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

बढ़ती असहिष्णुता के कारण और निवारण

 

बढ़ती असहिष्णुता के कारण और निवारण

वसुधैव कुटुंबकम् की मान्यता का अनुसरण करने वाले हमारे देश में अनेक विविधताओं के बाद भी सांस्कृतिक सह अस्तित्व की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।
यहाँ के लोग नए परिवेश के साथ आसानी से सिर्फ घुल-मिल ही नहीं जाते, बल्कि उनकी विशिष्टताओं को अंगीकार कर अपनी जीवनशैली में अपना भी लेते हैं। यही कारण है कि सहनशीलता, भाईचारा, धैर्य जैसे गुण हमेशा से हम भारतीयों की खासियत रहे हैं।
किन्तु वर्तमान समय में यदि हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करें तो बेहद निराशा जनक परिस्थिति दिखाई देती है। पारिवारिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक हर स्तर पर धैर्य और सहनशीलता का ह्रास होता जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि असहिष्णुता हमारे व्यवहार की अचानक पैदा हो गई कोई नई उपज है।
बल्कि पारिवारिक या सामाजिक स्तर पर यह पहले भी यदा-कदा देखने को मिल जाती थी लेकिन इसके बावजूद यह आम जन की मानसिकता पर हावी नहीं थी।
किन्तु आज हर स्तर पर यह असहिष्णुता हमारी सोच और हमारे व्यवहार को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है।

लोगों के बर्दाश्त करने की क्षमता घटती जा रही है और छोटी-छोटी बातों में लोग अपना आपा खो दे रहे हैं। जो बातें या स्थितियाँ उनको पसंद नहीं आतीं या उनकी इच्छाओं और उम्मीदों के प्रतिकूल होती हैं ऐसी किसी भी बात या घटना के प्रति वे कई बार उचित-अनुचित सोचे बिना ही इतनी तीखी प्रतिक्रिया दे देते हैं, जो उस छोटी सी बात या घटना के लिए आवश्यक नहीं थी और ऐसी प्रतिक्रियाएँ सिर्फ दूसरों के ही नहीं बल्कि अपनों के प्रति भी देखने को मिलती हैं।
जिसके कारण न सिर्फ माहौल तनावपूर्ण हो जाता है बल्कि आपसी रिश्तों में कड़वाहट उत्पन्न होती है और आपसी सौहार्द्र खत्म हो जाता है।
अक्सर ऐसी खबरें देखने-पढ़ने को मिलती हैं
सड़क पर एक वाहन के दूसरे वाहन से हल्का सा छू जाने भर से हाथा-पाई हो जाती है, कभी-कभी तो जान से मार देने की घटनाएँ भी सामने आई हैं।
आजकल तो रोजमर्रा के जीवन में भी ऐसी घटनाएँ देखी जाती हैं कि पीछे से हॉर्न बजाने वाली गाड़ी को भीड़ की वजह से यदि रास्ता नहीं मिल पाया, तो वह अपशब्द बोलते और घूरते हुए ऐसे आगे निकलता है जैसे आगे वाले ने रास्ता न देकर कितना बड़ा अपराध कर दिया हो।
कक्षा में डाँट देने या सजा दे देने पर विद्यार्थी ने बाहर जाकर शिक्षक को गोली मार दिया।
पिता ने पुत्र को गेम खेलने से मना किया तो पुत्र उसकी हत्या कर देता है।
पैसों के लिए घर के बुजुर्गो की हत्या कर देना आम घटना हो चुकी है
कोई मेरी गाड़ी को बार-बार ओवरटेक कैसे कर सकता है। इस बात से क्रोधित होकर आगे जाने वाली गाड़ी पर गोलियों की बौछार कर देना..
ऐसी खबरों को पढ़ कर 'विजय दान देथा' की वर्षों पुरानी कहानी 'अनेकों हिटलर' की याद ताजा हो गई। उन्होंने इस कहानी में चित्रित किया है कि गाँव के एक सम्पन्न और दबंग परिवार के तीन भाई नया-नया ट्रैक्टर खरीद कर हँसी-ठिठोली करते हुए शान से घर लौट रहे थे। रास्ते में एक साइकिल वाला एक-दो बार उनके ट्रैक्टर से आगे निकल जाता है। यह ट्रैक्टर चलाने वालों की बर्दाश्त से बाहर था कि साइकिल वाले ने कैसे उनको पीछे करने की हिमाकत कर दी। इसी आक्रोश में उन लोगों ने उसे ट्रैक्टर से कुचल दिया।
दशकों पुरानी यह कहानी आज हमारे समक्ष जीवंत रूप में दिखाई देती है।
ऐसी घटनाओं को देखते हुए समझा जा सकता है कि किसी से अपनी उम्मीद के अनुसार व्यवहार न होते देखकर प्रतिक्रिया स्वरूप बगैर उचित-अनुचित की परवाह किये ही परिस्थिति की माँग से ज्यादा तीखी और आक्रामक प्रतिक्रिया कर देना ही असहिष्णुता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग समाज द्वारा स्वीकृत मानकों को भी लाँघ जाते हैं, जबकि समान परिस्थिति में अधिकांश लोग शांत और सहज बने रहते हैं।

ऐसे धैर्य खो चुके लोगों को थोड़ा विरोध भी उनके आत्मसम्मान और प्रभुत्व को आहत कर देता है और भविष्य को लेकर वे आशंकित हो जाते हैं। सही-गलत की सोच से परे वे आत्मकेंद्रित हो जाते हैं और उनकी संवेदनशीलता दूसरों के प्रति घट जाती है, फलस्वरूप वो दूसरे के द्वारा किए गए व्यवहार के आशय और भावों को समझ नहीं पाते और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए।

ऐसी अवस्था में व्यक्ति आंतरिक संवेगों से अधिक प्रभावित होता है, जिससे उसमें संवेगात्मक अस्थिरता और उत्तेजना देखी जाती है। कुछ समय के लिये उसका विवेक क्षीण पड़ जाता है और सही-गलत, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान समाप्त हो जाता है। दूसरों के प्रति घटी हुई संवेदनशीलता और उत्तेजना की अवस्था, दोनों मिल कर उसे असहिष्णु बना देते हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से असहिष्णुता के अनेक कारणों में प्रमुख हैं, पहचान और प्रभाव की चाहत, बढ़ती महत्वाकांक्षा, बढ़ता मानसिक तनाव, रिश्तों का सिकुड़ता दायरा, सामाजीकरण का सिमटना, रिश्तो में नफा-नुकसान का आंकलन, संवाद में कमी, बेरोक-टोक वाला व्यक्तिगत जीवन, घटती संवेदनशीलता, मीडिया का बढ़ता प्रभाव इत्यादि।
यह देखा जाता है कि मीडिया भी आपराधिक और नकारात्मक खबरों को ही ज्यादा दर्शाती है जबकि ऐसी परिस्थिति में बुद्धिजीवियों और मीडिया दोनों का उत्तरदायित्व है कि ऐसी स्थिति में वे समाज सुधार की सिर्फ चर्चा न करें, बल्कि जमीनी स्तर पर लोगों के सामने ऐसे सकारात्मक उदाहरण बार-बार पेश करें जो उनके इर्द-गिर्द ही घट रहे हैं लेकिन सनसनीखेज नहीं होने के कारण उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
साहित्यकारों को भी इस दिशा में सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है, प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" जैसी प्रेरणाप्रद कहानियों के समान अन्य सकारात्मक संदेश से लगातार प्रेरित करने का प्रयास करते रहना चाहिए।

यह भी आवश्यक है कि लोग मोबाइल, टी.वी., इन्टरनेट की दुनिया और एयरकंडिशनर के आरामदेह कमरे से निकल कर दूसरों से संवाद बनाएँ।
आपस की बढ़ती दूरियों, अविश्वास, प्रतिस्पर्धा और बदले की भावना से प्रेरित इस दौर से ऊबे और घबराए आम लोगों को आपसी संवाद की तथा एक दूसरे के भावों को समझने और महसूस करने की आवश्यकता है, जिसके लिए जरूरत है कि लोग चेतन स्तर पर अपनों की सीमा को बढ़ा कर आसपास, पड़ोस, मित्र, रिश्तेदार, कुछ परिचित और अपरिचित तक ले जाएँ, जिससे उनके आपसी संपर्क का दायरा बढ़ेगा।
दिल में दबी बातों को साझा कर बोझिल मन को सुकून मिलता है। सिर रख कर रोने वाले कंधे मिलते हैं। खुशी और उपलब्धियों को बाँटने वाले लोग मिलते हैं। बस जरूरत है अपने अहम को छोड़ दूसरों की तरफ हाथ बढ़ाने की।

इसके साथ ही अपने आधुनिक व्यस्तता भरे जीवन में भी बच्चों की परवरिश पर माता-पिता को व्यक्तिगत तौर पर ध्यान देना होगा। उनमें हार स्वीकार करने और "ना" सुनने की क्षमता विकसित करनी होगी। उनमें यह भाव जगाना होगा कि पढ़ाई सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धियाँ हासिल करने, ऊँचे पदों पर जाने और पैसा कमाने के लिए ही नहीं की जाती, बल्कि समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने के लिए भी की जाती है। ऊँचाई पर पहुँचने के लिए शॉर्टकट छोड़कर सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली छोटी-छोटी सफलताओं में खुश होने की आदत को विकसित करना होगा।

जीवन की आपाधापी में बढ़ती उम्र के साथ जो शौक अधूरे रह गए, उन्हें नए सिरे से जीवित करना चाहिए, इससे नई ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। आजकल हमारी आदत बन चुकी है कि हर कार्य को लाभ-हानि की तुला में रखकर सोचते हैं, जबकि हमें इस लाभ-हानि को छोड़कर सिर्फ अपने शौक पूरे करने के लिए भी अपने पसंदीदा कार्यों को कुछ समय देना चाहिए, इससे मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी और व्यक्ति के मन में दबी बहुत सारी ग्रंथियाँ खुल जाएँगी और कई चीजों के प्रति उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाएगी और आपसी सौहार्द्र विकसित होगा।

चित्र साभार - गूगल से

मालती मिश्रा

प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़ कर विकास संभव नहीं

 प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़कर विकास संभव नहीं

पर्यावरण प्रदूषण किसी एक देश नहीं बल्कि विश्व के सामने व्यापक समस्या बनकर खड़ा है। इसीलिए पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता लाने के उद्देश्य से 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1972 में आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई और 5 जून 1974 को पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। किन्तु पर्यावरण की सुरक्षा किसी एक दिन के संकल्प से नहीं हो सकती बल्कि इसके लिए चहुँमुखी जागृति और क्रियान्वयन की आवश्यकता है। वर्तमान समय में जिस प्रकार से लगातार जनसंख्या बढ़ती जा रही है, उतनी ही तेजी से लोहे और कंक्रीट के जंगल भी बढ़ते जा रहे हैं, जिसका नकारात्मक प्रभाव सीधे पर्यावरण पर पड़ रहा है। प्रकृति के अपने कुछ नियम हैं, जिनके विपरीत विकास कार्य किए जा रहे हैं और जंगलों व नदियों के स्वरूपों को भी बिगाड़ा जा रहा है। इससे पृथ्वी का संतुलन भी बिगड़ रहा है। विकास के नाम पर पृथ्वी विनाश की प्रयोगशाला बनती जा रही है।

देश का विकास आवश्यक है, तभी देश के नागरिकों का विकास होगा और उन्हें सभी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकेंगी किन्तु विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति की ओर से विमुख हो जाने से हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।  क्योंकि विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई और जंगलों का खात्मा करके हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे न सिर्फ नदी-तालाब सूखते जा रहे है, भूमिक्षरण बढ़ता जा रहा है, भूमि बंजर होती जा रही है और पशु-पक्षियों को बेघर करके उनसे उनके जीने का अधिकार छीन रहे हैं। विकास तो तभी संभव है जब देश का पर्यावरण स्वच्छ हो, चारों ओर हरियाली हो। जिस तरह से विकसित देश प्रकृति के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, विकासशील देश भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं।  

विकास के नाम पर पहाड़ों-जंगलों को काटकर सुरंगें बनाना, नदियों-तालाबों को पाटकर ऊँची-ऊँची इमारतें खड़ी करना प्राकृतिक आपदा को आमंत्रित करना ही है।

देश को गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियाँ देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने के कगार पर हैं। पानी और ऊर्जा के स्रोतों को विकृत और वायु को लगातार दूषित किया जा रहा है।

तूफान, भूकंप, बाढ़, सूखा, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का कारण विकास के नाम पर प्रकृति से किए जा रहे खिलवाड़ के कारण ही हैं। केदारनाथ आपदा, नेपाल की महाविनाशकारी भूकंप, और समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ हमें चुनौती दे रही हैं कि यदि अंधाधुंध हो रहे प्राकृतिक दोहन को रोका नहीं गया तो आगे और भी भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। 

प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़कर, पर्यावरण को जहरीला करके विकास संभव नहीं।  

आज हम घरों को, बालकनियों को प्लास्टिक की हरियाली से कितना भी सजा लें किंतु हरियाली के नैसर्गिक गुण कहाँ से लाएँगे, उनसे प्राप्त होने वाली प्राणवायु और शीतलता इन दिखावटी पौधों से तो प्राप्त नहीं किया जा सकता। विकास के नाम पर बाग-बगीचे-जंगल काट कर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाकर उसमें मानव का निवास तो बन गया परंतु उनमें रहने वाले पशु-पक्षियों का आवास और भोजन छीन लिया गया, जिसके कारण न जाने कितने वन्य जीव दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। वायु प्रदूषित होती जा रही है, नदियाँ सूखती जा रही हैं, जो हैं उनका जल विषैला होता जा रहा है, धरती की उर्वरा शक्ति समाप्त होती जा रही है, जिसके कारण फसलों की अच्छी पैदावार के लिए रसायनिक खादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। फलस्वरूप हमारा खानपान दूषित होता जा रहा है और बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। क्या इसे हम सार्थक विकास की श्रेणी में रख सकते हैं? सही मायने में स्वच्छ और प्रदूषण रहित वातावरण ही विकास को सार्थक कर सकता है। 

विकास आवश्यक है किन्तु प्रकृति को हानि पहुँचाए बिना। अत: मौजूदा प्राकृतिक अस्थिरता से उबरने के लिए और पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन से बचते हुए अधिकाधिक वृक्षारोपण ही एकमात्र उपाय हो सकता है, क्योंकि वृक्ष ही हमें इस लाइलाज बीमारी से उबार सकते हैं। वृक्षों के महत्व को बताते हुए एक श्लोक प्रचलित है...

दशकूपसमा वापी, दशवापीसमो ह्रदः। दशह्रदसमो पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।।

अर्थात् दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक सरोवर, दस सरोवरों के समान एक पुत्र और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्त्व होता है। अत: हमारा कर्तव्य है कि विकास के नाम पर यदि हम एक वृक्ष काटते हैं तो हमें उससे पहले, दस वृक्ष लगाने चाहिए। इतना ही नहीं समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रण करना चाहिए कि वह यथासंभव वृक्ष लगाएँगे और उनकी देखभाल करेंगे।


मालती मिश्रा 'मयंती'



मंगलवार

सुनो-गुनो फिर बुनो

 सुनो-गुनो-फिर बुनो



दीपक ने आते ही खुशी से उछलते हुए अपनी माँ को धन्यवाद कहा और अपना बस्ता जगह पर रखा। उसको खुश देखकर प्रज्ञा भी खुश हो गई। उसे ऐसे खुश देखे हुए कई दिन हो गए थे। उसका बेटा दसवीं कक्षा का होनहार विद्यार्थी है, वह पिछले कुछ वर्षों से लगातार अपनी कक्षा में प्रथम आता है। प्रत्येक विषय में उसके अच्छे प्रदर्शन और उसके विनम्र स्वभाव के कारण वह अपने सभी अध्यापकों का भी प्रिय छात्र है। किन्तु पिछले तीन दिनों से वह कुछ उखड़ा-उखड़ा और खोया-खोया सा दिखाई दे रहा है। मम्मी-पापा ने जानने की कोशिश की तब उसने जो कारण बताया उसे सुनकर प्रज्ञा मुस्कुराने लगी। उसको मुस्कुराते देख दीपक आँखों में प्रश्नचिह्न लिए उसे ही देखने लगा, तब उसने कहा- "बेटा सही-गलत का आंकलन किए बिना सिर्फ इतना ही कहूँगी कि पहले सुनो, फिर गुनो अर्थात् चिंतन करो तत्पश्चात् बुनो अर्थात् हर एक की बात ध्यान से सुनकर खुद की बुद्धि का प्रयोग करते हुए उसका मंथन करो तत्पश्चात् उसमें से अपशिष्ट अर्थात् अनुचित या त्रुटिपूर्ण को त्यागकर ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करके अपने शब्दजाल बुनो। फिर देखना तुम्हारी सारी निराशा खत्म हो जाएगी। 

प्रज्ञा की इस बात से उसे यह दोहा भी याद आ गया- 

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।

और उसने तुरंत ही अपनी कक्षा में आए अंग्रेजी के नए अध्यापक द्वारा कही गई बात को सोचना शुरू किया। उन्होंने दीपक को एक गलती पर नसीहत दी थी कि विषय को रटना छोड़कर समझना शुरू करो, रटकर परीक्षा में अच्छे अंक तो लाए जा सकते हैं परंतु वह जीवन की परीक्षा में निरर्थक है। तत्पश्चात् उन्होंने दूसरे ही दिन दीपक से लेफ्टिनेंट की स्पेलिंग पूछा, जिसे दीपक नहीं बता पाया। मास्टर जी ने सभी छात्रों को एक संकेत दिया- *झूठी-तू-दस-चीटी* और कहा कि अब बताओ। कोई नहीं बता पाया लेकिन दीपक कॉपी के पृष्ठ पर लिखकर कुछ देर तक समझता रहा और फिर बताया- Lieutenant. अध्यापक ने उसे शाबाशी दी और हमेशा सबकी बातों को ध्यान से सुनकर धैर्य खोए बिना चिंतन-मनन करने की नसीहत दी। आज दीपक जान गया कि बुजुर्गों ने यूँ ही नहीं कहा- *सुनो-गुनो-बुनो*


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️