गुरुवार

शत-शत नमन

शत-शत नमन

कितने ही घरों में अँधेरा हो गया
सूख गया फिर दीयों का तेल
उजड़ गई दुनिया उनकी
जो हँसते मुसकाते रहे थे खेल

देख कर आँसुओं का समंदर
क्या आसमाँ भी न रोया होगा
दूध से जो आँचल होता था गीला
खून से कैसे उसे भिगोया होगा

आँखों में लिए सुनहरे सपने जिसने
चौथ का चाँद निहारा होगा
मेंहदी भी न उतरी थी जिन हाथों की
उनसे मंगलसूत्र उतारा होगा

सूनी आँखों से तकती थीं जो राहें
उन माओं ने मृत देह निहारा होगा
बेटे के काँधे पर जाने की चाह लिए पिता ने
बेटे की अर्थी को काँधे से उतारा होगा

हर रक्षाबंधन सूना हो गया
बहनों का वीर सदा के लिए सो गया
अनचाहे निष्ठुर हो गये वो लाल
माँ की आँखों का नूर खो गया

खुशियों का भार उठाती है जो मही
निर्जीव पूतों को कैसे उठाया होगा
लहराता है जो तिरंगा अासमां में शान से
बन कफन वीरों का वो भी थर्राया होगा।

मालती मिश्रा

मंगलवार

अच्छाई और सच्चाई के मुकाबले बुराई और झूठ की संख्या बहुत अधिक होती है। इसका साक्षात्कार तो बार-बार होता रहता है। हम देश में सुरक्षित रहकर स्वतंत्रता पूर्वक अपना जीवन जीते हैं तो हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी, सहिष्णुता-असहिष्णुता, दलित-अधिकार, अल्पसंख्यक आदि सबकुछ दिखाई देता है, हम सभी विषयों पर खुलकर चर्चा करते हैं या यूँ कहूँ कि बिना समझे अपना मुँह खोलते हैं। हमारे बोल देश-विरोधी हैं या समाज विरोधी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु ऐसे ही लोगों को पकड़ कर सरहद पर खड़ा कर देना चाहिए जो सेना के मुकाबले विद्रोहियों, देशद्रोहियों के अधिकारों की पैरवी करते हुए मानवधिकार का हवाला देते हैं।
जब तपती धूप और शरीर को जलाती लू में खुले आसमान के नीचे खड़े होंगे, जब सर्द बर्फीली हवाएँ शरीर को छेदेंगी, जब वर्षा की धार पैर नहीं टिकने देगी.... तब इन्हें समझ आएगा कि एक सैनिक की ड्यूटी कैसी होती है, तब इन्हें सहिष्णुता-असहिष्णुता, दलित-अधिकार, अल्पसंख्यक और मानवाधिकार आदि के नाम भी याद नहीं आएँगे। गर्मी में ए०सी० की ठंडक, सर्दी में रूम हीटर की गर्मी और बरसात में अपने बंगले की मजबूत छत इन सब राजसी ठाट-बाट में रहकर देश-दुनिया की चर्चा करना हर किसी के लिए आसान होता है परंतु हम मानव प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ होकर भी एक पशु जितनी समझ भी नहीं रख पाए। एक पशु भी जिसकी रोटी खाता है, जिसकी शरण में रहता है उस पर न भौंकता है और न ही उसे किसी प्रकार का नुकसान पहुँचाने का प्रयास करता है। परंतु मानव विशेषकर भारत के नागरिक जिन सैनिकों, जिन सुरक्षा बलों की सुरक्षा के साए में आजा़दी की सांस लेते हैं, जिनकी सुरक्षा में रहकर बेफिक्री की नींद सोते हैं, उन्हीं पर पत्थर बरसाते हैं,उन्हीं का अपमान करते हैं और वो भी किस लिए? चंद रूपयों के लालच में। इससे तो यही सिद्ध होता है कि इन्हें आजाद रखने की बजाय यदि बंधक बनाकर रखा जाता और रोज इनके मुँह पर कागज के चंद टुकड़े फेंके जाते तो शायद ये ज्यादा वफादारी दिखाते।
सोने पर सुहागा तो यह हुआ कि जो लोग एक अखलाक के मरने पर पूरे विश्व में असहिष्णुता का विधवा विलाप कर रहे थे, देश को बदनाम कर रहे थे, अवॉर्ड वापसी की नौटंकी कर रहे थे उन्हें इन आततायियों के पत्थर और इनका जवान (सुरक्षा कर्मी)को लात मारना दिखाई नहीं पड़ा, जिन लोगों ने देशद्रोह का नारा लगाने वाले उमर खालिद और कन्हैया को गोद लेकर कोर्ट में उनको बेगुनाह साबित करने के लिए बड़े-बड़े वकील खड़े कर दिए उन लोगों को सैनिकों का अपमान दिखाई नहीं देता, बस यदि कभी कुछ दिखाई देता है तो सिर्फ ये कि मौजूदा सरकार को किस प्रकार अपराधी के कटघरे में खड़ा करें...
यदि कश्मीरी आतताई पत्थर मारते हैं तो ये कहेंगे कि सरकार क्या कर रही है? और यदि ये आतताई पकड़ लिए जायँ तो यही राजनीति के प्यादे कहते हैं कि सरकार मानवाधिकार का हनन कर रही है, बेचारे बच्चों पर जुर्म कर रही है। मैं ही नही देश की जनता भी यही जानना चाहती है कि जब यही बेचारे बच्चे पत्थर मार रहे थे तब आप लोग किस बिल में मुँह छिपाकर बैठे थे या आप लोगों की नजर में क्या सैनिकों और सुरक्षा बलों का मानवाधिकार नहीं होता, क्यों उनका दर्द नहीं दिखता चंद जयचंदों को क्यों सिर्फ उन लोगों का मानवाधिकार दिखाई देता है जिनमें मानवता नाम की चीज नही होती।
मैं भी सरकार से कुछ अपेक्षाएँ रखती हूँ और चाहती हूँ कि ऐसे पत्रकारों, नेताओं, समाज के ठेकेदारों, बुद्धिजीवियों पर शिकंजा कसे जो इस प्रकार के आततायियों को बेचारा बताकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते हैं। निःसंदेह ऐसे-ऐसे तथ्य सामने आएँगे जिससे ये स्पष्ट हो जाएगा कि ये लोग हमेशा खुलकर देशद्रोहियों का ही साथ क्यों देते हैं। सेना पर पत्थर फेंकना हो, उन पर आक्रमण हो उस समय बहुत से बुद्धिजीवी और अधिकतर पत्रकारों की ऐसी चुप्पी देखने को मिलती है मानों कहीं कुछ हुआ ही न हो और जैसे ही उन पत्थर बाजों में से कोई पकड़ा जाता है ये सभी अपने-अपने खोल उतारकर मैदान में आ डटते हैं ये सिद्ध करने के लिए कि पत्थर बाज और आततायी मासूम हैं और सेना उनपर जुर्म कर रही है। पत्थर बाजों का मनोबल बढ़ाने वाले सिर्फ पाकिस्तान में नहीं उनमें से बहुत से तो यहीं दिल्ली में बैठकर ही सारी नौटंकी का क्रियान्वयन करते हैं, हाथ बेशक किसी के भी हों पत्थर पकड़ाने का कार्य तो वही करते हैं जो सरकार को असक्षम साबित करना चाहते हैं। पत्थर बाजों के सूत्रधारों की गर्दन पकड़ी जाए और कोई नरमी न बरतते हुए पत्थर के बदले गोलियाँ दागी जाएँ तो अपने आप सेना का मान बढ़ेगा और आततायियों के हौसले पस्त होंगे। हाथों में पत्थर पकड़ने और जवान पर लात मारने या अपमान करने वालों को पहले से पता हो कि वो किसी भी क्षण सैनिक की गोली का शिकार हो सकता है तो वो कभी पत्थर नहीं उठाएगा।
मालती मिश्रा


रविवार

एक सफर ऐसा भी

एक सफर ऐसा भी
एक सफर ऐसा भी
आजकल हर दिन अखबारों में, समाचार में लड़कियों के प्रति अमानवीयता की कोई न कोई ऐसी खबर अवश्य देखने-सुनने को मिल जाती है जो पुरुष वर्ग पर से हमारे विश्वास की नींव हिला देती है। ऐसी घटनाओं के कारण हर नजर में शक ऐसे घर कर चुकी है कि अब किसी भी अजनबी पर विश्वास करना आसान नहीं होता। यह जानते हुए कि हर व्यक्ति बुरा नहीं होता हमारी नजरें हर शराफ़त के पीछे हैवानियत को खोजने का प्रयास करती हैं। 
आज की ऐसी परिस्थितियों को देखकर मुझे जब-तब आज से कोई दस-बारह साल पहले की अपनी एक यात्रा का स्मरण हो आता है, जब मैं रक्षाबंधन से एक दिन पहले की शाम दिल्ली से कानपुर के लिए निकली.........
स्टेशन पर काफी भीड़ थी, टिकट-विंडो पर  इतनी लंबी-लंबी लाइन देखकर मुझे घबराहट होने लगी कि मुझे समय पर टिकट मिल भी पाएगी या नहीं! मैने महिलाओं के लिए अलग से लगी लाइनों में सबसे छोटी लाइन देखी और जाकर उसी लाइन में खड़ी हो गई। मेरी किस्मत थी कि लगभग बीस-पच्चीस मिनट में मेरा नम्बर आ गया और मैं एक टिकट लेकर बाहर आ गई। और प्लेट फॉर्म नम्बर चार की ओर बढ़ गई। आठ बजने में महज दस मिनट बाकी थे, वैशाली एक्सप्रेस का समय आठ बजे का था और वह समय पर आने वाली है, यह अनाउंस हो चुका था। मैं प्रयत्न पूर्वक ऊपर से शांत दिखाई दे रही थी किंतु मेरे भीतर कोलाहल मचा हुआ था, भीतर ही भीतर मैं  स्वयं से लड़ रही थी। अकेली जो जा रही थी, जो लोग पूछेंगे उनको क्या जवाब दूँगी कि अकेली क्यों आई हूँ! फिर अगले ही पल स्वयं को आश्वस्त कर लेती..अरे रक्षाबंधन है, भाई को राखी बाँधने ही तो जा रही हूँ फिर जरूरी क्या है कि किसी के साथ ही जाऊँ! क्या एक लड़की अकेली सफर नहीं कर सकती! जब मेरी माँ पुराने जनरेशन की होकर अकेली सफर कर सकती हैं तो मैं तो आजकल की जनरेशन की पढ़ी-लिखी लड़की हूँ फिर मैं क्यों डरूँ? मैंने स्वयं को इस प्रकार समझाया जैसे किसी अन्य को अपने निर्दोष होने की सफाई दे रही हूँ। फिर अगले ही पल मुझे दूसरा डर सताने लगा...रिजर्वेशन नहीं है, सीट नहीं मिली तो क्या रात भर खड़ी होकर सफर करूँगी? जहाँ सब अपनी-अपनी सीटों पर पैर फैलाकर सो रहे होंगे वहाँ मैं अकेली खड़ी हुई या नीचे फर्श पर बैठी हुई कैसी लगूँगी? जनरल डब्बे में भी भीड़ की वजह से नहीं चढ़ सकती। चढ़ूँगी तो सेकेंड क्लास के डब्बे में ही फिर आगे जो भी हो, देखा जाएगा। मैंने मानो खुद को साहस बँधाया, तभी गाड़ी का हॉर्न सुनाई पड़ा और अनाउंस हुआ कि वैशाली एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नं०चार पर पहुँच चुकी है।
मैं अपना बैग संभाल कर अन्य यात्रियों के साथ प्लेटफॉर्म पर खड़ी हो गई। ट्रेन धीरे-धीरे सरकती हुई रुक गई। मैं भी अन्य यात्रियों के साथ थोड़ा खाली सा दिखाई दे रहे कम्पार्टमेंट में चढ़ गई। कम्पार्टमेंट भले ही बाहर से खाली प्रतीत हो रहा था किंतु भीतर पहुँच कर मैंने देखा कि पूरा कम्पार्टमेंट भरा हुआ था, लोग सीटों पर बैठे थे, रिजर्व सीट होने के कारण किसी-किसी सीट पर तो लोग पैर फैलाकर बैठे हुए थे, कुछ लोग टॉयलेट के पास नीचे अखबार बिछा कर बैठे थे तो कुछ लोग सीटों के आसपास खड़े थे और सीट पर बैठे लोगों से ऐसे घुल-मिल कर बातें कर रहे थे जैसे उनकी आपस में पुरानी जान-पहचान हो और बात करते-करते वे अपने बैठने का इंतजाम कर ही लेते। मैं कुछ देर तक खड़ी रही फिर पास ही सीट पर बैठे एक युवक से पूछ कर सीट के कोने पर थोड़ी सी जगह में बैठ गई। 
चलो कुछ देर का सफर तो कटेगा, ये सोचकर मैंने गहरी सांस ली। गाड़ी शहरों, नदी, नालों, गाँव- बगीचों आदि को पीछे छोड़ते हुई तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही। 
रात के दस बजने वाले थे अब तक का सफर तो आपस में बातचीत करते कट गया परंतु अब तक बैठे हुए कुछ लोग थक गए थे, और वैसे भी रात भर जागने का प्लान तो किसी का नहीं था इसलिए सब अपने-अपने सोने का इंतजाम करने लगे। बीच की बर्थ खोली गई और सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। मैं फिर वहीं सीट के कोने पर आधी लटकी हुई सी बैठी रही। बीच की बर्थ के कारण सीधी नहीं बैठ पा रही थी, मन में बार-बार यही आशंका उठती कि इस सीट पर सोई महिला ने मुझे यहाँ बैठने को मना कर दिया तो! वैसे वो अधेड़ उम्र की महिला थोड़ी लगती भी खड़ूस सी थी, पर मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए जैसी भी थी अभी तक तो कुछ नहीं कहा था। अभी भी कुछ लोग इधर-उधर टहल रहे थे, कोई वॉश रूम जा रहा था तो कोई अपने साथ आए अन्य लोगों से मिलने दूसरे कम्पार्टमेंट में जा-आ रहे थे। थोड़ी देर पहले एक युवक जो मेरी वाली बर्थ पर ही बैठा हुआ था अब वो मेरे सामने वाली वर्थ पर बैठा था, शायद उसकी टिकट भी कन्फर्म नहीं थी। बीच-बीच में कई बार मुझे महसूस हुआ कि उसकी नजरें मुझे ही घूर रही हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगा, जब मेरी नजर उसपर पड़ती तो वो नजरें झुका लेता या दूसरी ओर ऐसे देखने लगता जैसे पहले से ही वो उधर ही देख रहा हो।
आपकी सीट कन्फर्म नहीं हुई क्या मैडम? सामने वाली बर्थ पर लेटे व्यक्ति ने पूछा।
नहीं, वो दरअसल अचानक ही मेरा प्लान बना, इसलिए कन्फर्म रिज़र्वेशन नहीं मिल पाया। मैंने कहा।
कोई बात नहीं, अभी टी. टी. आएगा उससे कहना, कोई सीट होगी खाली तो मिल जाएगी। ऐसे कब तक बैठी रहोगी, हमें भी पैर फैलाने में दिक्कत हो रही है। बर्थ पर लेटी महिला ने कहा। पता नहीं उनके बोलने का यही तरीका था या वो मेरे बैठने से कोफ़्त में थी। मुझे उनकी आवाज में चिड़चिड़ेपन का आभास हुआ।
"जी हाँ कोशिश तो मैं भी यही करूँगी।" मैंने कहा। अब मेरा वहाँ बैठने का मन नहीं हो रहा था पर मजबूरी थी। दो महानुभावों ने दोनों बर्थ की बीच की खाली जगह पर भी कब्जा कर लिया था, वो वहाँ अखबार के ऊपर चादर बिछाकर ऐसे पैर फैलाकर लेट गए थे जैसे बाकी सीटों की तरह इस जगह की रिज़र्वेशन उनके ही पास थी। अब तो मैं चाहते हुए भी नीचे भी नहीं बैठ सकती थी। इस मानसिक समस्या से जूझते हुए भी मैने महसूस किया कि सामने की बर्थ पर बैठा युवक अभी भी जब-तब मुझे घूर रहा था। अचानक वह बोल पड़ा- "आपको कहाँ तक जाना है?"
मैंने अचकचा कर उसकी ओर देखा, और अनायास ही मेरे मुँह से निकला-"कानपुर" 
उफ मैंने क्यों बताया, बोलते ही मेरे जहन में ये बात कौंध गई पर अब तो बता दिया, अब क्या कर सकते हैं। 
"आप मेरी बर्थ पर बैठ जाइए", उसने कहा।
"आपकी बर्थ! कहाँ है?" मैंने आश्चर्य पूर्वक कहा। अभी तक मैं यही समझ रही थी कि वो भी मेरी ही तरह है, वेटिंग में। पर अब जहाँ मुझे एक ओर रात काटने का आश्वासन मिला वहीं यह बात भी खलने लगी कि सिर्फ मैं ही ऐसी हूँ जो बिना कन्फर्म सीट के जा रही हूँ। "मैं बैठ जाऊँगी तो आप को सोने में दिक्कत होगा।" मैंने कहा।
मैं मैनेज कर लूँगा, साथ वाले कम्पार्टमेंट में मेरे कुछ दोस्त हैं मैं उनके पास ही चला जाऊँगा। आप बैठ जाइए। उसने ऊपर की खाली बर्थ की ओर संकेत करते हुए कहा।
मैं बर्थ पर बैठ गई पर मुझे अच्छा नहीं लगा कि जिसकी बर्थ रिज़र्व है उसके ही बैठने की जगह नहीं। वह दूसरे कम्पार्टमेंट में चला गया था।
रात के कोई ग्यारह बजे का समय होगा वह युवक वापस आया और बोला-"आप अभी तक जाग रही हैं?" 
"जी हाँ, मुझे लगा आप अपने दोस्तों के साथ ही सोएँगे पर कोई बात नहीं आप आइए।" मैंने एक ओर बैठते हुए कहा।
टिकट चेक करने के लिए टी.टी. आ रहा है इसलिए मैं आ गया। उसने बर्थ के दूसरे छोर पर बैठते हुए कहा। इतने में टी.टी. आ गया और मेरे मन में एक उम्मीद की किरण जागी कि शायद कहीं कोई सीट मिल जाए और मैं भी बेफिक्र होकर आराम से सोती हुई जाऊँ। परंतु बस पाँच मिनट में ही मेरी उम्मीद के परखच्चे उड़ गए। 
खैर उस युवक ने अपनी टिकट की जाँच करवाई और साथ ही मुझसे कहा-"आप सो जाओ मैं यहीं एक किनारे बैठा हूँ, आपको दिक्कत नहीं होगी।" 
नहीं आपकी रिज़र्व सीट है और आप ही सो न सकें ये अच्छा नहीं लगता, आप सो जाइए मैं बैठी हूँ।" मैंने कृतज्ञतापूर्वक कहा।
"अरे नहीं आप इतना मत सोचिए, ऐसा कीजिए अभी आप सो जाइए एक-दो घंटे बाद मैं सो जाऊँगा आप बैठ जाना।" उसने कहा। कुछ देर तक इसीप्रकार पहले आप-पहले आप में समय कट गया फिर निर्णय हुआ कि अभी किसी को नींद नही आ रही है तो जब तक नींद नहीं आती तब तक बातें करते हैं। 
अच्छा आप बताइए आप कानपुर क्यों जा रही हैं? उस युवक ने पूछा।
क्यों जा रही हूँ! मैं अपने-आप में ही बुदबुदाई और प्रत्यक्ष में बोली-"वहाँ मेरे मम्मी-पापा, भाई सभी रहते हैं, फिर कल रक्षाबंधन हैं तो जाहिर है राखी बाँधने जा रही हूँ।" 
"ह्हम् बात को गोल-गोल घुमाकर बोलती हैं आप!" उसने कहा।
मतलब! मैने कहा।
"मतलब आप सीधा जवाब दे सकती थीं पर घुमा-फिरा कर बोलीं। उसने कहा। फिर पूछा-आपका नाम क्या है?" अब हम दोनों बातें करने में मशगूल हो गए, क्या करते... एक ही बर्थ थी वो शायद इंसानियत के कारण नहीं सो सकता था और मैं संकोचवश सो नहीं सकती थी। बातों-बातों में उसने बताया कि दिल्ली में वो पढ़ाई करता है और रक्षाबंधन के अवसर पर वो भी अपनी बहन से राखी बँधवाने गोरखपुर जा रहा था। मुझे अच्छा लगा कि हमारे देश में भाई-बहन का रिश्ता अभी भी पश्चिमी सभ्यता से अछूता है। बातें करते हुए हमें काफी रात हो चुकी थी कभी-कभी हमें हँसी आ जाती तो सो रहे यात्रियों की नींद खराब हो जाती इसीलिए हम यत्नपूर्वक धीरे बोल रहे थे। बात करते-करते वह बोला-"भूख लग रही है, कुछ खाने के लिए होगा?" 
"नहीं और कुछ तो नहीं पर मिठाई है अगर उससे आपका काम चल सके तो!" मैं बोली। 
"नहीं-नहीं वो तो आप अपने भाइयों के लिए ले जा रही हैं न?" युवक नें कहा।
"हाँ,पर कोई बात नहीं, अब भूख लगी है तो खा लीजिए मैं वहाँ जाकर और खरीद लूँगी।" मैंने कहा।
"न बाबा! आपके भाइयों का श्राप लगेगा अगर मैंने उनके हिस्से की मिठाई खाई!" उसने मजाकिया अंदाज में कहा। इसीप्रकार बात करते हुए रात के तीन प्रहर बीत चुके थे। तीन-चार बजे के करीब मुझे उबासी लेते देख वो सज्जन युवक फिर दोस्तों के पास सोने के लिए कहकर मेरे मना करने के बावजूद चला गया और मैं किसी अन्य के अधिकार पर कब्ज़ा करके पैर फैलाकर बेफिक्री की नींद सो गई। एक-दो बार मन में आया कि जाकर देखूँ उसके दोस्त कहाँ हैं परंतु फिर ये सोचकर कि वो मुझ अजनबी के लिए झूठ क्यों बोलेगा मैंने अपने मस्तिष्क से ये ख़याल निकाल दिया। और गहरी नींद की आगोश में सो गई।
हल्का उजाला ट्रेन की खिड़की के बाहर दिखाई दे रहा था, ट्रेन अपनी रफ्तार से पेड़-पौधों के झुरमुटों, तालाब-पोखरों नदी-नालों, गाँव-कस्बों  को पीछे छोड़ती आगे को बढ़ रही थी तभी किसी ने मेरे पैर को हल्के से हिलाया, मैंने चौंक कर पैर खींच लिए, डर गईं क्या? मुझे लगा आप जाग गई होंगी तो मैं थोड़ी देर सो जाऊँ। अब तक मैं बैठ चुकी थी और वह युवक कहता हुआ ऊपर बर्थ पर आकर बैठ गया। "हाँ आप सो जाइए, आपको तो पहले ही आ जाना चाहिए था मैं बैठ जाती, मेरी वजह से आपको बहुत परेशानी हुई।" मैंने कहा।
अरे नहीं, आप अपने भाई को राखी बाँधने जा रही हैं और मैं अपनी बहन से राखी बँधवाने जा रहा हूँ तो यहाँ एक भाई ने एक बहन की मदद कर दी बस...ये तो हर भाई का फर्ज़ होता है।" उसने कहा। वैसे आपकी मंजिल आने वाली है मेरी थोड़ी दूर है तब तक मैं दो-तीन घंटे आराम से सोऊँगा।" उसने लेटते हुए कहा। उसकी आँखों में और अलसाए चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वह पूरी रात जागा है। वह अब बिना डिस्टर्ब हुए सो जाए इसलिए मैं चुपचाप एक ओर को बैठ गई। मुझे अब भी बीच-बीच में झपकी आती इसलिए मैं पीठ टिका कर बैठ गई। सूरज की चमकीली तीक्ष्ण किरणों ने अपना साम्राज्य इस प्रकार फैला लिया था कि अंधकार के अस्तित्व की कोई छाप न रह गई थी। गाड़ी भी अब किसी भी समय मुझे मेरी मंजिल पर पहुँचाने वाली थी, इसीलिए मैं ऊपर की बर्थ से उतर कर नीचे की बर्थ पर बैठ गई थी। बाकी सभी यात्री जाग कर चाय नाश्ता आदि में व्यस्त हो गए थे। स्टेशन पर पहुँचकर गाड़ी की गति धीमी होने लगी थी, मैंने अपना बैग उठाया, कंधे पर पर्स टाँगा और गेट की ओर जाने से पहले सोचा कि उस भले युवक से विदा ले लूँ। जगाकर बताने के लिए उसकी ओर बढ़ते हुए हाथ को मैंने रोक लिया जब यह देखा कि वह गहरी नींद में सो रहा था। उसको देखकर ऐसा प्रतीत हुआ मानों पूरी रात अपना कर्तव्य निर्वहन करके अब बेफिक्री की नींद सो रहा है, उसकी नींद खराब करना मुझे उचित न लगा अतः मैं ट्रेन के गेट की ओर बढ़ी, मन में एक कसक लिए कुछ अधूरे अहसास के साथ। मैं अपने भाइयों के नाम के धागों को बाँटना नहीं चाहती थी परंतु अब सोचती हूँ कि यदि बाँट देती तो अधूरापन न रहता।
मालती मिश्रा

शुक्रवार

अब न सहेंगे

अब न सहेंगे
सेना का अपमान हमसे
अब सहन नहीं होगा,
देश से गद्दारी का भार
अब वहन नहीं होगा।

नमक खाकर इसी देश का
नमकहरामी करते हैं,
सेंध लगाने वालों की
दिन-रात गुलामी करते हैं।

बचाने को इनको हर आपदा से
अपनी जान पर जो खेल जाते हैं,
चंद रूपयों में बेच के खुद को
ये उन पर पत्थर बरसाते हैं।

इनके आकाओं की कमी
नहीं है अपने ही भारत देश में
नींव खोखला करने को
बैठे हैं शुभचिंतक के भेष में।

ऐसे बगुला भक्तों की
शह पाकर ही ये जीते हैं
इंसानों की शक्लों में ये
इंसानियत से रीते हैं।

सेना पर पत्थर फेंकें या
थप्पड़ मारें गाल पर
जानते हैं पैरवी करेंगे आका
इनकी हर इक घटिया चाल पर।

पर चेत जा अब बदल तरीका
विनती है सरकार से
बातें बहुत कर लीं तुमने
अब ये समझेंगे बस मार से।

सेना के हाथ नहीं बाँधो
अब कानूनों की डोर से
निपटने की छूट उन्हें दे दो
अब इन कश्मीरी ढोर से।

संसद में चिल्लाने वालों को
अब नया आइना दिखाना होगा,
देशद्रोह और देशप्रेम का
अंतर इनको समझाना होगा।

जो पैर उठे हमारे जवान पर
उसे धड़ से जुदा करना होगा,
भारत माँ के आँचल को इनके
लहू से अब रंगना होगा।

हाथ खोल के सेना के
चुप बैठ के बस जलवा देखो,
लोकतंत्र मुर्दाबाद कहने वाली
जिह्वा को हलक से लटकता देखो

लाल देश के परम वीर हैं
क्यों बेबस इनको करते हो
दिखाने दो औकात शत्रु की
क्यों व्यर्थ समय तुम करते हो।

एक-एक थप्पड़ के बदले देखो
ये दस-दस हाथ गिराएँगे
पत्थर मारने वाले हाथों में
फिर तिरंगे लहराएँगे।
मालती मिश्रा

गुरुवार

सेना के सम्मान में आ जाओ मैदान में 'एक आह्वाहन'

सेना के सम्मान में आ जाओ मैदान में 'एक आह्वाहन'
"सेना के सम्मान में आ जाओ मैदान में"
(इंडिया गेट से लाला किले तक शान्ति मार्च )
15 अप्रेल 2017, इंडिया गेट अमर जवान ज्योति के पास शाम 4 बजे एकत्रित होंगे और 5 बजे शान्ति पूर्वक पैदल यात्रा करेंगे लाला किले तक. जिस मार्ग पर सेना 26 जनवरी को परेड करती हैं देशभक्तों को आना है .. इसी सन्दर्भ को सम्बोधित करती मेरी ये रचना ..
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लिखने से ना काम चलेगा, अब सडको आना होगा
मात भारती के गीतों को, घर घर जा कर गान होगा
सेना का अपमान देख कर, भी जो खून नहीं खौला
पानी है वो खूंन नहीं है, बर्फीला ठंडा गोला
घाटी में सेना पर उठ कर हाथ सलामत है कैसे?
गददारों की खेप कौम और जात सलामत है कैसे?
दिल्ली की गद्दी भी इस पर अब तक बोल नहीं पाई
और फ़ौज के बंधे हाथ भी अब तक खौल नहीं पाई
सैनिक चुप थप्पड़ खाता था इसका कारण कौन रहा
सत्ता के कारण ही सैनिक चांटा खा कर मौन रहा
सैनिक को आदेश जो होते कुर्सी ओहदेदारों के
पल में होश ठिकाने होते, घाटी में गद्दारों के
तोप तमंचे सब सेना के बना खिलोने छोड़ दिए
समझौतों के घातक निर्णय सेनाओं से जोड़ दिए
पत्थर जो सेना पर फेंके क्या बोलो गद्दार नहीं
लातों के भूतों का बातों से होता उद्धार नहीं
जरा बात पर कैंडल ले कर जो सड़को पर आते हैं
सेना की तौहीन पे देखो वो भी चुप रह जाते हैं
लेकिन असली खून रगों में हिन्दुस्तानी खोलेगा
घर में चुप न बैठेगा अब आ सड़कों पर बोलेगा
सैनिक घर में थप्पड़ खाये हम घूमे उद्द्यानों में
सेना के सम्मान में सबको आना है मैदानों में
शनिवार की शाम मिलेंगे हम सब इण्डिया गेट पर
लाल किले तक साथ चलेंगे हो न जाना लेट पर
सेना के अपमान पे चुप्पी ठीक नहीं है घातक है
जो सीमा पे खून बहाते वो भारत के जातक है
जात पात व धर्म से ऊपर सैनिक का बलिदान रहा
जब सेना ने करी हिफाजत तब ही हिन्दुस्तान रहा
जितने लेखक मित्र कवि जो आग उगलते रहते हैं
वो सब तो पक्का आना जो देश प्रेम ही कहते हैं
मुझे यकीन है देश प्रेम से भरे हुए सब आएँगे
और देश की बहरी कुर्सी को ताकत दिखलाएंगे
सेना का अपमान देश में सहा नहीं अब जाएगा
ऐसी तख्ती लिख कर बच्चा बच्चा उस दिन आएगा
जय जवान और जय किसान का नारा फिर दोहराना है
फिर कहता हूँ देश प्रेम से भर कर दिल्ली आना है
- योगेश समदर्शी
( हास्य एवं ओज कवि)
-9717044408

मंगलवार

लेखनी वही जो स्वतंत्र हो बोले


लेखनी वही जो स्वतंत्र हो बोले....

कलम और तलवार की शक्ति पर चर्चा तो हमेशा से होती आई है और इस बात पर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ कि कलम की मार तलवार की मार से अधिक असरदार होती है यह बात आधुनिक समाज के लिए नयी नहीं है, सभी यह जानते हैं कि शब्दों के जख्म खंजर के घाव से अधिक गहरे होते हैं तलवार, खंजर आदि के जख्म तो भर जाते हैं और समय के साथ-साथ उनके निशान भी समाप्त हो जाते हैं किंतु शब्दों के जख्म कभी किसी भी औषधि से नहीं भरते। समय-समय पर इसके उदाहरण भी देखने को मिले हैं। भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए भी कलम का सहारा लिया गया, इसी कलम ने लोगों में अलख जगाया, लोगों की आत्माओं को झंझोड़ा और उन्हें आज़ादी के महत्व से रूबरू करवाया। 
निःसंदेह कलम सदा से ही शक्तिशाली रही है परंतु कलम सदा सकारात्मकता की प्रतीक हो यह आवश्यक नहीं, जिस प्रकार तलवार की शक्ति को रक्षा और विनाश दोनों के लिए प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार कलम की शक्ति का प्रयोग भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में होता है। यह निर्भर करता है कि तलवार या कलम किसके हाथ में हैं। एक डाकू के हाथ में आकर तलवार संहारक बन जाती है तो एक सदाचारी  वीर के हाथ में यही तलवार रक्षक बन जाती है। 
आजकल कलम का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है और कलम की प्रतिभा से अर्जित पुण्य प्रसाद को देश के हित के विपरीत भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यक नहीं कि हर कलम सत्य और न्याय की पक्षधर हो, आजकल तो कलम भी राजनीति से अछूती नहीं रही, जिस प्रकार राजा-महाराजाओं के समय में राजकवि अपने आश्रय दाताओं का महिमामंडन करते थे आधुनिक समय में भी ऐसा ही होता है, परंतु मानवता की चाशनी में लपेटकर। कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आजकल के कलम के सिपाही अपने आकाओं के प्रति वफादारी सिद्ध करने के लिए कलम व कलम की शक्ति की गरिमा को भी मलिन करने में जरा भी संकोच नही करते और इससे अर्जित पुरस्कार स्वरूप प्रतीक चिह्न को भी त्यागने का ढोंग करने में नही हिचकते, अखलाक की हत्या के उपरांत अवॉर्ड वापसी का पूरा ड्रामा इस का एक जागृत उदाहरण है। ऐसी मानसिकता वाले कलम के सिपाही अपने साथ-साथ कलम की गरिमा को भी कलंकित करते हैं। ये कलम की शक्ति के उपासक नहीं, ये सत्य के उपासक नहीं होते बल्कि किसी व्यक्ति विशेष के उपासक होते हैं और उस सैनिक की भाँति होते हैं जो बिना तर्क-वितर्क, बिना उचित-अनुचित जाने अपने सेनापति की आज्ञा का पालन करते हैं। 
अंत में सिर्फ इतना ही कि आवश्यक नहीं कि हर कलम सिर्फ सत्य बयाँ करे, आवश्यक नहीं कि हर कलम अलख जगाये, ऐसा भी हो सकता है कि कुछ कलमें घृणा बरपाए, कुछ कलमें शांति में आग लगाएँ। कुछ कलमें लोगों के हौसले बुलंद करती हैं तो दूसरी ओर कुछ कलमें लोगों के हौसले पस्त करती हैं। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक उसी प्रकार हर शब्द के आशय भी भिन्न-भिन्न होते हैं और किस शब्द का रुख किस ओर किस प्रकार मोड़ा जा सकता है ये कलमधारी बखूबी जानते हैं। 
अच्छा है कि कलम सजीव वस्तु नहीं, उसके हृदय नही, नहीं तो वर्तमान में कलम धारियों की अपनी स्वार्थ साधना हेतु देश के प्रति उदासीनता और किन्हीं व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता में अपनी कलम बेच देने की घटनाएँ देख-देख कलम का भी हृदय व्यथित होता रहता।  
अतः लेखनी वही जो स्वतंत्र हो बोले, 
अपने शब्द-रस में वह बस अपने ही भाव घोले।
मालती मिश्रा