एक सफर ऐसा भी
आजकल हर दिन अखबारों में, समाचार में लड़कियों के प्रति अमानवीयता की कोई न कोई ऐसी खबर अवश्य देखने-सुनने को मिल जाती है जो पुरुष वर्ग पर से हमारे विश्वास की नींव हिला देती है। ऐसी घटनाओं के कारण हर नजर में शक ऐसे घर कर चुकी है कि अब किसी भी अजनबी पर विश्वास करना आसान नहीं होता। यह जानते हुए कि हर व्यक्ति बुरा नहीं होता हमारी नजरें हर शराफ़त के पीछे हैवानियत को खोजने का प्रयास करती हैं।
आज की ऐसी परिस्थितियों को देखकर मुझे जब-तब आज से कोई दस-बारह साल पहले की अपनी एक यात्रा का स्मरण हो आता है, जब मैं रक्षाबंधन से एक दिन पहले की शाम दिल्ली से कानपुर के लिए निकली.........
स्टेशन पर काफी भीड़ थी, टिकट-विंडो पर इतनी लंबी-लंबी लाइन देखकर मुझे घबराहट होने लगी कि मुझे समय पर टिकट मिल भी पाएगी या नहीं! मैने महिलाओं के लिए अलग से लगी लाइनों में सबसे छोटी लाइन देखी और जाकर उसी लाइन में खड़ी हो गई। मेरी किस्मत थी कि लगभग बीस-पच्चीस मिनट में मेरा नम्बर आ गया और मैं एक टिकट लेकर बाहर आ गई। और प्लेट फॉर्म नम्बर चार की ओर बढ़ गई। आठ बजने में महज दस मिनट बाकी थे, वैशाली एक्सप्रेस का समय आठ बजे का था और वह समय पर आने वाली है, यह अनाउंस हो चुका था। मैं प्रयत्न पूर्वक ऊपर से शांत दिखाई दे रही थी किंतु मेरे भीतर कोलाहल मचा हुआ था, भीतर ही भीतर मैं स्वयं से लड़ रही थी। अकेली जो जा रही थी, जो लोग पूछेंगे उनको क्या जवाब दूँगी कि अकेली क्यों आई हूँ! फिर अगले ही पल स्वयं को आश्वस्त कर लेती..अरे रक्षाबंधन है, भाई को राखी बाँधने ही तो जा रही हूँ फिर जरूरी क्या है कि किसी के साथ ही जाऊँ! क्या एक लड़की अकेली सफर नहीं कर सकती! जब मेरी माँ पुराने जनरेशन की होकर अकेली सफर कर सकती हैं तो मैं तो आजकल की जनरेशन की पढ़ी-लिखी लड़की हूँ फिर मैं क्यों डरूँ? मैंने स्वयं को इस प्रकार समझाया जैसे किसी अन्य को अपने निर्दोष होने की सफाई दे रही हूँ। फिर अगले ही पल मुझे दूसरा डर सताने लगा...रिजर्वेशन नहीं है, सीट नहीं मिली तो क्या रात भर खड़ी होकर सफर करूँगी? जहाँ सब अपनी-अपनी सीटों पर पैर फैलाकर सो रहे होंगे वहाँ मैं अकेली खड़ी हुई या नीचे फर्श पर बैठी हुई कैसी लगूँगी? जनरल डब्बे में भी भीड़ की वजह से नहीं चढ़ सकती। चढ़ूँगी तो सेकेंड क्लास के डब्बे में ही फिर आगे जो भी हो, देखा जाएगा। मैंने मानो खुद को साहस बँधाया, तभी गाड़ी का हॉर्न सुनाई पड़ा और अनाउंस हुआ कि वैशाली एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नं०चार पर पहुँच चुकी है।
मैं अपना बैग संभाल कर अन्य यात्रियों के साथ प्लेटफॉर्म पर खड़ी हो गई। ट्रेन धीरे-धीरे सरकती हुई रुक गई। मैं भी अन्य यात्रियों के साथ थोड़ा खाली सा दिखाई दे रहे कम्पार्टमेंट में चढ़ गई। कम्पार्टमेंट भले ही बाहर से खाली प्रतीत हो रहा था किंतु भीतर पहुँच कर मैंने देखा कि पूरा कम्पार्टमेंट भरा हुआ था, लोग सीटों पर बैठे थे, रिजर्व सीट होने के कारण किसी-किसी सीट पर तो लोग पैर फैलाकर बैठे हुए थे, कुछ लोग टॉयलेट के पास नीचे अखबार बिछा कर बैठे थे तो कुछ लोग सीटों के आसपास खड़े थे और सीट पर बैठे लोगों से ऐसे घुल-मिल कर बातें कर रहे थे जैसे उनकी आपस में पुरानी जान-पहचान हो और बात करते-करते वे अपने बैठने का इंतजाम कर ही लेते। मैं कुछ देर तक खड़ी रही फिर पास ही सीट पर बैठे एक युवक से पूछ कर सीट के कोने पर थोड़ी सी जगह में बैठ गई।
चलो कुछ देर का सफर तो कटेगा, ये सोचकर मैंने गहरी सांस ली। गाड़ी शहरों, नदी, नालों, गाँव- बगीचों आदि को पीछे छोड़ते हुई तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही।
रात के दस बजने वाले थे अब तक का सफर तो आपस में बातचीत करते कट गया परंतु अब तक बैठे हुए कुछ लोग थक गए थे, और वैसे भी रात भर जागने का प्लान तो किसी का नहीं था इसलिए सब अपने-अपने सोने का इंतजाम करने लगे। बीच की बर्थ खोली गई और सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। मैं फिर वहीं सीट के कोने पर आधी लटकी हुई सी बैठी रही। बीच की बर्थ के कारण सीधी नहीं बैठ पा रही थी, मन में बार-बार यही आशंका उठती कि इस सीट पर सोई महिला ने मुझे यहाँ बैठने को मना कर दिया तो! वैसे वो अधेड़ उम्र की महिला थोड़ी लगती भी खड़ूस सी थी, पर मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए जैसी भी थी अभी तक तो कुछ नहीं कहा था। अभी भी कुछ लोग इधर-उधर टहल रहे थे, कोई वॉश रूम जा रहा था तो कोई अपने साथ आए अन्य लोगों से मिलने दूसरे कम्पार्टमेंट में जा-आ रहे थे। थोड़ी देर पहले एक युवक जो मेरी वाली बर्थ पर ही बैठा हुआ था अब वो मेरे सामने वाली वर्थ पर बैठा था, शायद उसकी टिकट भी कन्फर्म नहीं थी। बीच-बीच में कई बार मुझे महसूस हुआ कि उसकी नजरें मुझे ही घूर रही हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगा, जब मेरी नजर उसपर पड़ती तो वो नजरें झुका लेता या दूसरी ओर ऐसे देखने लगता जैसे पहले से ही वो उधर ही देख रहा हो।
आपकी सीट कन्फर्म नहीं हुई क्या मैडम? सामने वाली बर्थ पर लेटे व्यक्ति ने पूछा।
नहीं, वो दरअसल अचानक ही मेरा प्लान बना, इसलिए कन्फर्म रिज़र्वेशन नहीं मिल पाया। मैंने कहा।
कोई बात नहीं, अभी टी. टी. आएगा उससे कहना, कोई सीट होगी खाली तो मिल जाएगी। ऐसे कब तक बैठी रहोगी, हमें भी पैर फैलाने में दिक्कत हो रही है। बर्थ पर लेटी महिला ने कहा। पता नहीं उनके बोलने का यही तरीका था या वो मेरे बैठने से कोफ़्त में थी। मुझे उनकी आवाज में चिड़चिड़ेपन का आभास हुआ।
"जी हाँ कोशिश तो मैं भी यही करूँगी।" मैंने कहा। अब मेरा वहाँ बैठने का मन नहीं हो रहा था पर मजबूरी थी। दो महानुभावों ने दोनों बर्थ की बीच की खाली जगह पर भी कब्जा कर लिया था, वो वहाँ अखबार के ऊपर चादर बिछाकर ऐसे पैर फैलाकर लेट गए थे जैसे बाकी सीटों की तरह इस जगह की रिज़र्वेशन उनके ही पास थी। अब तो मैं चाहते हुए भी नीचे भी नहीं बैठ सकती थी। इस मानसिक समस्या से जूझते हुए भी मैने महसूस किया कि सामने की बर्थ पर बैठा युवक अभी भी जब-तब मुझे घूर रहा था। अचानक वह बोल पड़ा- "आपको कहाँ तक जाना है?"
मैंने अचकचा कर उसकी ओर देखा, और अनायास ही मेरे मुँह से निकला-"कानपुर"
उफ मैंने क्यों बताया, बोलते ही मेरे जहन में ये बात कौंध गई पर अब तो बता दिया, अब क्या कर सकते हैं।
"आप मेरी बर्थ पर बैठ जाइए", उसने कहा।
"आपकी बर्थ! कहाँ है?" मैंने आश्चर्य पूर्वक कहा। अभी तक मैं यही समझ रही थी कि वो भी मेरी ही तरह है, वेटिंग में। पर अब जहाँ मुझे एक ओर रात काटने का आश्वासन मिला वहीं यह बात भी खलने लगी कि सिर्फ मैं ही ऐसी हूँ जो बिना कन्फर्म सीट के जा रही हूँ। "मैं बैठ जाऊँगी तो आप को सोने में दिक्कत होगा।" मैंने कहा।
मैं मैनेज कर लूँगा, साथ वाले कम्पार्टमेंट में मेरे कुछ दोस्त हैं मैं उनके पास ही चला जाऊँगा। आप बैठ जाइए। उसने ऊपर की खाली बर्थ की ओर संकेत करते हुए कहा।
मैं बर्थ पर बैठ गई पर मुझे अच्छा नहीं लगा कि जिसकी बर्थ रिज़र्व है उसके ही बैठने की जगह नहीं। वह दूसरे कम्पार्टमेंट में चला गया था।
रात के कोई ग्यारह बजे का समय होगा वह युवक वापस आया और बोला-"आप अभी तक जाग रही हैं?"
"जी हाँ, मुझे लगा आप अपने दोस्तों के साथ ही सोएँगे पर कोई बात नहीं आप आइए।" मैंने एक ओर बैठते हुए कहा।
टिकट चेक करने के लिए टी.टी. आ रहा है इसलिए मैं आ गया। उसने बर्थ के दूसरे छोर पर बैठते हुए कहा। इतने में टी.टी. आ गया और मेरे मन में एक उम्मीद की किरण जागी कि शायद कहीं कोई सीट मिल जाए और मैं भी बेफिक्र होकर आराम से सोती हुई जाऊँ। परंतु बस पाँच मिनट में ही मेरी उम्मीद के परखच्चे उड़ गए।
खैर उस युवक ने अपनी टिकट की जाँच करवाई और साथ ही मुझसे कहा-"आप सो जाओ मैं यहीं एक किनारे बैठा हूँ, आपको दिक्कत नहीं होगी।"
नहीं आपकी रिज़र्व सीट है और आप ही सो न सकें ये अच्छा नहीं लगता, आप सो जाइए मैं बैठी हूँ।" मैंने कृतज्ञतापूर्वक कहा।
"अरे नहीं आप इतना मत सोचिए, ऐसा कीजिए अभी आप सो जाइए एक-दो घंटे बाद मैं सो जाऊँगा आप बैठ जाना।" उसने कहा। कुछ देर तक इसीप्रकार पहले आप-पहले आप में समय कट गया फिर निर्णय हुआ कि अभी किसी को नींद नही आ रही है तो जब तक नींद नहीं आती तब तक बातें करते हैं।
अच्छा आप बताइए आप कानपुर क्यों जा रही हैं? उस युवक ने पूछा।
क्यों जा रही हूँ! मैं अपने-आप में ही बुदबुदाई और प्रत्यक्ष में बोली-"वहाँ मेरे मम्मी-पापा, भाई सभी रहते हैं, फिर कल रक्षाबंधन हैं तो जाहिर है राखी बाँधने जा रही हूँ।"
"ह्हम् बात को गोल-गोल घुमाकर बोलती हैं आप!" उसने कहा।
मतलब! मैने कहा।
"मतलब आप सीधा जवाब दे सकती थीं पर घुमा-फिरा कर बोलीं। उसने कहा। फिर पूछा-आपका नाम क्या है?" अब हम दोनों बातें करने में मशगूल हो गए, क्या करते... एक ही बर्थ थी वो शायद इंसानियत के कारण नहीं सो सकता था और मैं संकोचवश सो नहीं सकती थी। बातों-बातों में उसने बताया कि दिल्ली में वो पढ़ाई करता है और रक्षाबंधन के अवसर पर वो भी अपनी बहन से राखी बँधवाने गोरखपुर जा रहा था। मुझे अच्छा लगा कि हमारे देश में भाई-बहन का रिश्ता अभी भी पश्चिमी सभ्यता से अछूता है। बातें करते हुए हमें काफी रात हो चुकी थी कभी-कभी हमें हँसी आ जाती तो सो रहे यात्रियों की नींद खराब हो जाती इसीलिए हम यत्नपूर्वक धीरे बोल रहे थे। बात करते-करते वह बोला-"भूख लग रही है, कुछ खाने के लिए होगा?"
"नहीं और कुछ तो नहीं पर मिठाई है अगर उससे आपका काम चल सके तो!" मैं बोली।
"नहीं-नहीं वो तो आप अपने भाइयों के लिए ले जा रही हैं न?" युवक नें कहा।
"हाँ,पर कोई बात नहीं, अब भूख लगी है तो खा लीजिए मैं वहाँ जाकर और खरीद लूँगी।" मैंने कहा।
"न बाबा! आपके भाइयों का श्राप लगेगा अगर मैंने उनके हिस्से की मिठाई खाई!" उसने मजाकिया अंदाज में कहा। इसीप्रकार बात करते हुए रात के तीन प्रहर बीत चुके थे। तीन-चार बजे के करीब मुझे उबासी लेते देख वो सज्जन युवक फिर दोस्तों के पास सोने के लिए कहकर मेरे मना करने के बावजूद चला गया और मैं किसी अन्य के अधिकार पर कब्ज़ा करके पैर फैलाकर बेफिक्री की नींद सो गई। एक-दो बार मन में आया कि जाकर देखूँ उसके दोस्त कहाँ हैं परंतु फिर ये सोचकर कि वो मुझ अजनबी के लिए झूठ क्यों बोलेगा मैंने अपने मस्तिष्क से ये ख़याल निकाल दिया। और गहरी नींद की आगोश में सो गई।
हल्का उजाला ट्रेन की खिड़की के बाहर दिखाई दे रहा था, ट्रेन अपनी रफ्तार से पेड़-पौधों के झुरमुटों, तालाब-पोखरों नदी-नालों, गाँव-कस्बों को पीछे छोड़ती आगे को बढ़ रही थी तभी किसी ने मेरे पैर को हल्के से हिलाया, मैंने चौंक कर पैर खींच लिए, डर गईं क्या? मुझे लगा आप जाग गई होंगी तो मैं थोड़ी देर सो जाऊँ। अब तक मैं बैठ चुकी थी और वह युवक कहता हुआ ऊपर बर्थ पर आकर बैठ गया। "हाँ आप सो जाइए, आपको तो पहले ही आ जाना चाहिए था मैं बैठ जाती, मेरी वजह से आपको बहुत परेशानी हुई।" मैंने कहा।
अरे नहीं, आप अपने भाई को राखी बाँधने जा रही हैं और मैं अपनी बहन से राखी बँधवाने जा रहा हूँ तो यहाँ एक भाई ने एक बहन की मदद कर दी बस...ये तो हर भाई का फर्ज़ होता है।" उसने कहा। वैसे आपकी मंजिल आने वाली है मेरी थोड़ी दूर है तब तक मैं दो-तीन घंटे आराम से सोऊँगा।" उसने लेटते हुए कहा। उसकी आँखों में और अलसाए चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वह पूरी रात जागा है। वह अब बिना डिस्टर्ब हुए सो जाए इसलिए मैं चुपचाप एक ओर को बैठ गई। मुझे अब भी बीच-बीच में झपकी आती इसलिए मैं पीठ टिका कर बैठ गई। सूरज की चमकीली तीक्ष्ण किरणों ने अपना साम्राज्य इस प्रकार फैला लिया था कि अंधकार के अस्तित्व की कोई छाप न रह गई थी। गाड़ी भी अब किसी भी समय मुझे मेरी मंजिल पर पहुँचाने वाली थी, इसीलिए मैं ऊपर की बर्थ से उतर कर नीचे की बर्थ पर बैठ गई थी। बाकी सभी यात्री जाग कर चाय नाश्ता आदि में व्यस्त हो गए थे। स्टेशन पर पहुँचकर गाड़ी की गति धीमी होने लगी थी, मैंने अपना बैग उठाया, कंधे पर पर्स टाँगा और गेट की ओर जाने से पहले सोचा कि उस भले युवक से विदा ले लूँ। जगाकर बताने के लिए उसकी ओर बढ़ते हुए हाथ को मैंने रोक लिया जब यह देखा कि वह गहरी नींद में सो रहा था। उसको देखकर ऐसा प्रतीत हुआ मानों पूरी रात अपना कर्तव्य निर्वहन करके अब बेफिक्री की नींद सो रहा है, उसकी नींद खराब करना मुझे उचित न लगा अतः मैं ट्रेन के गेट की ओर बढ़ी, मन में एक कसक लिए कुछ अधूरे अहसास के साथ। मैं अपने भाइयों के नाम के धागों को बाँटना नहीं चाहती थी परंतु अब सोचती हूँ कि यदि बाँट देती तो अधूरापन न रहता।
मालती मिश्रा