लेखनी वही जो स्वतंत्र हो बोले....
कलम और तलवार की शक्ति पर चर्चा तो हमेशा से होती आई है और इस बात पर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ कि कलम की मार तलवार की मार से अधिक असरदार होती है यह बात आधुनिक समाज के लिए नयी नहीं है, सभी यह जानते हैं कि शब्दों के जख्म खंजर के घाव से अधिक गहरे होते हैं तलवार, खंजर आदि के जख्म तो भर जाते हैं और समय के साथ-साथ उनके निशान भी समाप्त हो जाते हैं किंतु शब्दों के जख्म कभी किसी भी औषधि से नहीं भरते। समय-समय पर इसके उदाहरण भी देखने को मिले हैं। भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए भी कलम का सहारा लिया गया, इसी कलम ने लोगों में अलख जगाया, लोगों की आत्माओं को झंझोड़ा और उन्हें आज़ादी के महत्व से रूबरू करवाया।
निःसंदेह कलम सदा से ही शक्तिशाली रही है परंतु कलम सदा सकारात्मकता की प्रतीक हो यह आवश्यक नहीं, जिस प्रकार तलवार की शक्ति को रक्षा और विनाश दोनों के लिए प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार कलम की शक्ति का प्रयोग भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में होता है। यह निर्भर करता है कि तलवार या कलम किसके हाथ में हैं। एक डाकू के हाथ में आकर तलवार संहारक बन जाती है तो एक सदाचारी वीर के हाथ में यही तलवार रक्षक बन जाती है।
आजकल कलम का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है और कलम की प्रतिभा से अर्जित पुण्य प्रसाद को देश के हित के विपरीत भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यक नहीं कि हर कलम सत्य और न्याय की पक्षधर हो, आजकल तो कलम भी राजनीति से अछूती नहीं रही, जिस प्रकार राजा-महाराजाओं के समय में राजकवि अपने आश्रय दाताओं का महिमामंडन करते थे आधुनिक समय में भी ऐसा ही होता है, परंतु मानवता की चाशनी में लपेटकर। कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आजकल के कलम के सिपाही अपने आकाओं के प्रति वफादारी सिद्ध करने के लिए कलम व कलम की शक्ति की गरिमा को भी मलिन करने में जरा भी संकोच नही करते और इससे अर्जित पुरस्कार स्वरूप प्रतीक चिह्न को भी त्यागने का ढोंग करने में नही हिचकते, अखलाक की हत्या के उपरांत अवॉर्ड वापसी का पूरा ड्रामा इस का एक जागृत उदाहरण है। ऐसी मानसिकता वाले कलम के सिपाही अपने साथ-साथ कलम की गरिमा को भी कलंकित करते हैं। ये कलम की शक्ति के उपासक नहीं, ये सत्य के उपासक नहीं होते बल्कि किसी व्यक्ति विशेष के उपासक होते हैं और उस सैनिक की भाँति होते हैं जो बिना तर्क-वितर्क, बिना उचित-अनुचित जाने अपने सेनापति की आज्ञा का पालन करते हैं।
अंत में सिर्फ इतना ही कि आवश्यक नहीं कि हर कलम सिर्फ सत्य बयाँ करे, आवश्यक नहीं कि हर कलम अलख जगाये, ऐसा भी हो सकता है कि कुछ कलमें घृणा बरपाए, कुछ कलमें शांति में आग लगाएँ। कुछ कलमें लोगों के हौसले बुलंद करती हैं तो दूसरी ओर कुछ कलमें लोगों के हौसले पस्त करती हैं। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक उसी प्रकार हर शब्द के आशय भी भिन्न-भिन्न होते हैं और किस शब्द का रुख किस ओर किस प्रकार मोड़ा जा सकता है ये कलमधारी बखूबी जानते हैं।
अच्छा है कि कलम सजीव वस्तु नहीं, उसके हृदय नही, नहीं तो वर्तमान में कलम धारियों की अपनी स्वार्थ साधना हेतु देश के प्रति उदासीनता और किन्हीं व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता में अपनी कलम बेच देने की घटनाएँ देख-देख कलम का भी हृदय व्यथित होता रहता।
अतः लेखनी वही जो स्वतंत्र हो बोले,
अपने शब्द-रस में वह बस अपने ही भाव घोले।
मालती मिश्रा
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