सोमवार

दायरों में सिमटी नारी की आधुनिकता

'आधुनिक नारी' यह शब्द बहुत सुनने को मिलता है। कोई इस शब्द का प्रयोग अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए करता है मसलन "मैं आधुनिक नारी हूँ गलत बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।" तो दूसरी तरफ कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग ताने देने के लिए भी करते हैं, जैसे-"अरे भई ये तो आधुनिक नारी हैं बड़ों का सम्मान क्यों करेंगी।" आदि। कहते हैं न 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' यह उक्ति सिर्फ भगवान के प्रति भावना के संदर्भ में नही है अपितु हमारी अपनी सोच के प्रति है कि हमारे भीतर जैसी भावना होगी हमें बाह्य व्यक्ति या वातावरण वैसा ही दिखाई देगा। 
आज नारी आधुनिक हो गई है अर्थात् उसकी सोच, उसका रहन-सहन, उसका नजरिया बदल गया है। वह अब घर से बाहर जाकर कार्य करने लगी है। पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी है। अब नारी का कार्यक्षेत्र केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रह गया अपितु वह घर से बाहर के कार्यों में भी अपना पूरा-पूरा योगदान देती है। इतना ही नहीं आज स्त्री अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो चुकी है, वह चुपचाप अन्याय सहन नहीं करती इसीलिए उसे आधुनिक नारी कहा जाता है। किंतु इस आधुनिक शब्द का समाज के कुछ बुद्धजीवी गलत अर्थ भी निकाल लेते हैं, स्वयं को आधुनिक दर्शाने का तो मानो फैशन सा चल पड़ता है और उनकी नजर में आधुनिक होने का मतलब फिल्मों या टी०वी० सीरियल में दिखाए जाने वाले परिधानों की नकल से होता है। विचारों कर्तव्यों के विषय में तो कोई सोचता तक नहीं, हम जहाँ रहते, जिस परिवार में रहते हैं उनकी मान्यताओं को किस हद तक परिवर्तित किया जाना चाहिए यह भी हमारे विचारों में नहीं आता। तो क्या यही आधुनिकता है, क्या आधुनिक वस्त्र पहनने मात्र से या फैशन का चलन बदलने मात्र से कोई आधुनिक बन सकता है। 
यही कारण है कि आधुनिकता के नाम पर ताने भी दिए जाते हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्वयं को घर से बाहर निकाल कर हर उस क्षेत्र में क्रियाशील होना जिसपर सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व रहा हो, आरंभ में स्त्री के लिए कितना संघर्ष पूर्ण रहा होगा यह हम लोग नहीं जान सकते जिन्हें एक बना-बनाया प्लेटफॉर्म (आधार) मिल गया। परंतु आधुनिक होने के बाद भी क्या आजकल स्त्रियों का जीवन उतना ही सरल है जितना हमें प्रतीत होता है.....क्या आज भी नारी उतनी ही स्वतंत्र है जितनी समझी जाती है? मैं समझती हूँ नहीं। नारी को आर्थिक स्वतंत्रता तो मिली है काफी हद तक निर्णय लेने का अधिकार भी प्राप्त हुआ है परंतु पूर्णतः स्वतंत्र तो वह अब भी नहीं है। रिश्तों का बंधन, उनकी मर्यादा का बंधन, अभी भी सबसे अधिक नारी पर ही है। इस बंधन को निभाने के लिए वह स्वयं अनेक बंधनों में बँधती चली जाती है। पुरुष तो बाहर के कार्य यानि पैसे कमाने तक ही अपने-आप को सीमित रखते हैं और उसके बाद जिम्मेदारी से मुक्त परंतु स्त्री घर और बाहर दोनों तरफ अपनी जिम्मेदारियों का सामंजस्य बिठाने में स्वयं से ही लड़ती है। मर्यादा के पालन हेतु घर में बड़ों से या पुरुष से किसी कार्य में सहायता की अपेक्षा भी नहीं कर सकती। कार्य की अधिकता या विचारों के विरोधाभाव के कारण रिश्तों में दूरियाँ न आ जाएँ इस बात का ध्यान रखना भी नारी की ही जिम्मेदारी है। यदि कुछ भी विपरीत हुआ तो दोषी सिर्फ नारी को ही ठहराया जाएगा और दोषारोपण भी नारी के द्वारा ही किया जाएगा। तो सच तो यह है कि आधुनिकता के चादर में लिपटी नारी आज भी स्वतंत्र नहीं है। नारी के कर्तव्यों का दायरा तो बढ़ चुका है किंतु अधिकारों कर दायरा आज भी सिर्फ दिखावे तक ही सीमित है। आज घर चलाने की जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष दोनों की बराबर है परंतु घर के जिन कार्यों को सिर्फ स्त्री का कर्तव्य माना जाता है उनमें सहायता प्राप्ति के लिए तो स्त्री सोच भी नहीं सकती। हाँ सिर्फ कर्तव्यों का दायरा बढ़ना ही यदि नारी के आधुनिक और स्वतंत्र होने का पर्याय है तो अवश्य आज नारी स्वतंत्र है। यदि परिधानों का बदलाव ही आधुनिकता का परिचायक है तो निश्चय ही नारी आधुनिक है। 
यदि हम आज से सालों पहले समाज में स्त्री की स्थिति से आज उसकी स्थिति की तुलना करें तो निःसंदेह बदलाव आया है किंतु यह अभी भी एक दायरे में ही सीमित है, अभी स्त्री पूर्णतः स्वावलंबी नहीं है।
मालती मिश्रा 

13 टिप्‍पणियां:

  1. मालती दी आप से सहमत हूँ, अभी कुछ साल पहले ही जैसे हमने अपनी डिग्री पूरी की वैसे ही मेरी क्लासमेट्स ने भी की और भी ज्यादा अच्छे अंको से साथ में प्लेसमेंट हुआ, और ज्वाइन किया कंपनीज़ को, उनमे से एक ने बहुत मेहनत कर बहुत जल्दी उच्च पद पर हो गई, उसका डेडिकेशन था उसके काम को लेकर

    पर फिर वंही हुआ सगाई, अच्छा लड़का, सेटल्ड बिज़नसमेन
    फिर घर संभालना और सब

    बस उसका एक ही सवाल था
    जब मुझे ये ही करना था तो क्यों स्कूल में मेहनत की कॉलेज में की और फिर जॉब में की .....

    वो आधुनिक थी पर स्वतंत्र नहीं

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    1. सुप्रभात भाई
      आपने बिल्कुल सत्य कहा ऐसे उदाहरण आपको हर दूसरे-तीसरे घर में देखने को मिल जाएँगे। आप मेरे ब्लॉग पर आए बहुत अच्छा लगा। आगे भी अपने कीमती विचारों और सुझावों से अवगत कराते रहिएगा।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 22 जून 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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    1. धन्यवाद मेरी रचना को शामिल करने के लिए।आप ब्लॉग पर आईं बहुत प्रसन्नता हुई, आभार

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    2. धन्यवाद मेरी रचना को शामिल करने के लिए।आप ब्लॉग पर आईं बहुत प्रसन्नता हुई, आभार

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  3. आप क्यूँ सीमाएं बाँध रही हैं - आधुनिक या पुरातन. जैसा रहना चाहें रहें.

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  4. आज घर चलाने की जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष दोनों की बराबर है परंतु घर के जिन कार्यों को सिर्फ स्त्री का कर्तव्य माना जाता है ..........आप से सहमत हूँ,

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी। शुभ रात्रि

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    2. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी। शुभ रात्रि

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  5. मुझे लगता है कि बंधन को तोड़ कर स्वतंत्र हो जाना आधुनिकता का पर्याय तो है पर सही नहीं है ।
    स्त्री पुरुष से और पुरुष स्त्री से कभी स्वन्त्र नहीं हो सकते। ये एक दूसरे के पूरक है । यदि गहराई में जाकर सोचे तो स्त्री पुरुष और पुरुष स्त्री के बिना कैसे जी सकता है । दरअसल जब हम किसी के साथ बंधन में हों तो बंधन ऐसा न हो की वो किसी का दम ही घोंट दे । और स्त्रियों के साथ यही हुआ।उनका दम घोटा गया । जब किसी को दम घोट के लंबे समय रखा जाये तो वह चाहेगा ही की अब कोई बंधन न हो । आज की नारी शायद इसलिए बंधनमुक्त होना चाहती है । हमें इस को समझना होगा और उसकी भावना का सम्मान करना होगा । मेरा विश्वास है कि वो दिन दूर नहीं जब ये बंधन पुनः स्थापित होगा , गरिमामय होगा, सम्मानजनक होगा, और प्रेम से परिपूर्ण होगा ।
    आप का आलेख अच्छा लगा

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    1. बहुत-बहुत आभार शिवराज जी आपके विचार जानकर प्रसन्नता हुई और मैं आपके विचार से सहमत हूँ,जिसे जितना अधिक बंधनों में जकड़ा जाए वह उतनी ही तीव्रता से बंधन मुक्त होने के लिए छटपटाता है।

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    2. बहुत-बहुत आभार शिवराज जी आपके विचार जानकर प्रसन्नता हुई और मैं आपके विचार से सहमत हूँ,जिसे जितना अधिक बंधनों में जकड़ा जाए वह उतनी ही तीव्रता से बंधन मुक्त होने के लिए छटपटाता है।

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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