हमारा देश, हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति क्या इन सब के विषय में सोचना सरकार का ही काम है? हम देशवासियों का कोई कर्तव्य नहीं अपने देश और संस्कृति के प्रति..... सचमुच सोचती हूँ तो दुख होता है जब हममें से ही कुछ लोग हमारी ही संस्कृति का मजाक उड़ा रहे होते हैं। वैसे तो हम बहुत नाज करते हैं अपनी परंपराओं पर, अपनी संस्कृति पर हमें गर्व है, परंतु जब अपनी संस्कृति की रक्षा का समय आता है तो धीरे से अपनी जिम्मेदारियों की पोटली सरकार की ओर सरका देते हैं। अपने से कमजोर के समक्ष तो हम सीना तान कर खड़े हो जाते हैं लड़ने और मरने-मारने को किंतु जहाँ हमें अपने बल का प्रदर्शन करना चाहिए वहाँ हम शांति प्रिय बन कर देश में शांति कायम रखने की जिम्मेदारी पूर्ण करते हैं।
निरीह गाय भी जो कभी किसी को सींग नहीं मारती वो भी अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए सींग मारना शुरू कर देती है फिर हम इंसान ही उल्टी विचार धारा क्यों रखते हैं........
हमारा राष्ट्र हिंदू बाहुल्य राष्ट्र रहा है किंतु आज जब कश्मीर और कैराना की स्थिति का अवलोकन करती हूँ तो दिल दहल जाता है, अपने ही देश में कश्मीर से हिंदुओं को अपना ही घर छोड़कर विस्थापितों की जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा और अब वही स्थिति उत्तर प्रदेश के 'कैराना' गाँव की है....जहाँ अब से सिर्फ पाँच साल पहले 2011में 3०% हिंदू परिवार थे वहाँ आज सिर्फ और सिर्फ ०8% हिंदू परिवार रह गए हैं। ऐसा क्यों हुआ? सिर्फ पाँच सालों में इतना बदलाव!! क्या हिंदुओं को अपना घर अच्छा नहीं लगता या सभी अच्छे विकल्पों की तलाश में सपरिवार कहीं अन्य देश या शहर में अपना भविष्य बनाने हेतु चले गए। करोड़ों की संपत्ति छोड़ कुछ हजार की नौकरी करना क्या भविष्य बनाना होता है?
जब असामाजिक तत्वों के द्वारा किसी वर्ग विशेष पर हमला किया जाता है उन्हें डराया-धमकाया जाता है और उस वर्ग विशेष को कोई सहायता नहीं मिलती तो यह वर्ग विशेष कहता है "जान है तो जहान है।" और चल देता अपना सबकुछ छोड़कर यहाँ तक कि अपना अस्तित्व मिटा कर किसी अन्य ठिकाने की तलाश में।परंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि इसी वर्ग ने मिलकर एक साथ अपने हक के लिए आवाज उठाई होती तो क्या उसकी आवाज कुछ दूर भी सुनाई न देती? क्यों कोई चुपचाप हार मान लेता है? क्यों अपने अस्तित्व को मिटा देता है?
आजकल तो छोटी-छोटी सी बात पर धरने दिए जाते हैं आंदोलन किए जाते हैं, सरकारी संपत्ति को सुपुर्दे खाक किया जाता है तो अपने अस्तित्व के लिए इस प्रकार के हथियार क्यों नहीं प्रयोग किए जाते? क्यों नहीं अपनी लड़ाई को सर्वव्यापी बनाया जाता? यही कमी है हम हिंदुओं में हममें कभी एकता नहीं होती, हम सही गलत को पहचानना नहीं चाहते। अभी किसी नेता को दिल्ली में आंदोलन करवाना हो तो चंद रूपयों के लालच में देश के कोने-कोने से लोग एकत्र हो जाते हैं बिना ये जाने कि ये आंदोलन उनके हित में है या नहीं...... कभी-कभी तो उन्हें ये तक नही पता होता कि वो किस लिए बुलाए गए हैं, पता होता है तो बस ये कि उन्हें एक आंदोलन में शामिल होना है जिसके उन्हें पैसे मिलेंगे..... बस। गुजरात में हार्दिक पटेल के आंदोलन की भीड़, दिल्ली में किसानों के धरने की भीड़ ये सब उदाहरण हैं इस बात के।
क्यों हम हिंदू अपने-आप को कमजोर कर रहे हैं वो भी चंद मुट्ठी भर अल्पसंख्यकों या यूँ कहूँ कि असामाजिक तत्वों के डर से। यदि हमें शक्ति बनना है, यदि हमें अपना अस्तित्व कायम रखना है तो लड़ना होगा, एकजुट होना होगा और हर चीज के लिए सरकार का मुँह न देखकर सरकार को दिखाना होगा कि हमसे सरकार है सरकार से हम नहीं....हमें अपनी छोटी-छोटी जरूरतों से परे दूरगामी सोच रखकर सही फैसला लेना होगा तभी हम अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे।
मालती मिश्रा
निरीह गाय भी जो कभी किसी को सींग नहीं मारती वो भी अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए सींग मारना शुरू कर देती है फिर हम इंसान ही उल्टी विचार धारा क्यों रखते हैं........
हमारा राष्ट्र हिंदू बाहुल्य राष्ट्र रहा है किंतु आज जब कश्मीर और कैराना की स्थिति का अवलोकन करती हूँ तो दिल दहल जाता है, अपने ही देश में कश्मीर से हिंदुओं को अपना ही घर छोड़कर विस्थापितों की जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा और अब वही स्थिति उत्तर प्रदेश के 'कैराना' गाँव की है....जहाँ अब से सिर्फ पाँच साल पहले 2011में 3०% हिंदू परिवार थे वहाँ आज सिर्फ और सिर्फ ०8% हिंदू परिवार रह गए हैं। ऐसा क्यों हुआ? सिर्फ पाँच सालों में इतना बदलाव!! क्या हिंदुओं को अपना घर अच्छा नहीं लगता या सभी अच्छे विकल्पों की तलाश में सपरिवार कहीं अन्य देश या शहर में अपना भविष्य बनाने हेतु चले गए। करोड़ों की संपत्ति छोड़ कुछ हजार की नौकरी करना क्या भविष्य बनाना होता है?
जब असामाजिक तत्वों के द्वारा किसी वर्ग विशेष पर हमला किया जाता है उन्हें डराया-धमकाया जाता है और उस वर्ग विशेष को कोई सहायता नहीं मिलती तो यह वर्ग विशेष कहता है "जान है तो जहान है।" और चल देता अपना सबकुछ छोड़कर यहाँ तक कि अपना अस्तित्व मिटा कर किसी अन्य ठिकाने की तलाश में।परंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि इसी वर्ग ने मिलकर एक साथ अपने हक के लिए आवाज उठाई होती तो क्या उसकी आवाज कुछ दूर भी सुनाई न देती? क्यों कोई चुपचाप हार मान लेता है? क्यों अपने अस्तित्व को मिटा देता है?
आजकल तो छोटी-छोटी सी बात पर धरने दिए जाते हैं आंदोलन किए जाते हैं, सरकारी संपत्ति को सुपुर्दे खाक किया जाता है तो अपने अस्तित्व के लिए इस प्रकार के हथियार क्यों नहीं प्रयोग किए जाते? क्यों नहीं अपनी लड़ाई को सर्वव्यापी बनाया जाता? यही कमी है हम हिंदुओं में हममें कभी एकता नहीं होती, हम सही गलत को पहचानना नहीं चाहते। अभी किसी नेता को दिल्ली में आंदोलन करवाना हो तो चंद रूपयों के लालच में देश के कोने-कोने से लोग एकत्र हो जाते हैं बिना ये जाने कि ये आंदोलन उनके हित में है या नहीं...... कभी-कभी तो उन्हें ये तक नही पता होता कि वो किस लिए बुलाए गए हैं, पता होता है तो बस ये कि उन्हें एक आंदोलन में शामिल होना है जिसके उन्हें पैसे मिलेंगे..... बस। गुजरात में हार्दिक पटेल के आंदोलन की भीड़, दिल्ली में किसानों के धरने की भीड़ ये सब उदाहरण हैं इस बात के।
क्यों हम हिंदू अपने-आप को कमजोर कर रहे हैं वो भी चंद मुट्ठी भर अल्पसंख्यकों या यूँ कहूँ कि असामाजिक तत्वों के डर से। यदि हमें शक्ति बनना है, यदि हमें अपना अस्तित्व कायम रखना है तो लड़ना होगा, एकजुट होना होगा और हर चीज के लिए सरकार का मुँह न देखकर सरकार को दिखाना होगा कि हमसे सरकार है सरकार से हम नहीं....हमें अपनी छोटी-छोटी जरूरतों से परे दूरगामी सोच रखकर सही फैसला लेना होगा तभी हम अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे।
मालती मिश्रा
वाजिब चिंतन ... देश समाज के हर तबके को सोचना होगा ...
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद Digamber Naswa Ji ब्लॉग पर आने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए, कृपया मेरी त्रुटियों पर भी अवश्य प्रकाश डालें, आपके सुझावों का भी स्वागत है।
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