मेरी अविस्मरणीय यात्रा
मैं बचपन से बसों और ट्रेनों में यात्रा करती आ रही हूँ, बहुत सी यात्राओं की कई ऐसी घटनाएँ हैं, जो यादगार बन गई पर 16 मार्च 2018 का खलीलाबाद से दिल्ली का मेरा सफर मेरे लिए अविस्मरणीय बन गया।
27 दिसंबर 2017 को मेरी माँ का स्वर्गवास हुआ था, उनके देहावसान के उपरांत पहली बार मैं अपने उस मायके में जा रही थी जहाँ मेरे आने की बाट जोहती बरामदे या आँगन में बैठी मेरी माँ नहीं होगी। मेरे लिए मेरा मायका सूना हो चुका था पर बाबू जी की बूढ़ी आँखों का सूनापन मेरे मायके के सूनेपन से कहीं अधिक था, यही कारण था कि मैं खुद को रोक न सकी और बाबूजी से मिलने गाँव के लिए रवाना हो गई। गोरखपुर-आनंदविहार नामक साप्ताहिक ट्रेन में 15 मार्च का गाँव के लिए रिजर्वेशन मिला, सुबह 7:15 बजे खलीलाबाद स्टेशन पर पहुँच गई। उसी शाम रात पौने दस बजे उसी ट्रेन से वापसी थी। मैं आश्वस्त थी कि ट्रेन समय पर होगी क्योंकि पहला अनुभव अच्छा जो था। परंतु मेरी सोच के विपरीत ट्रेन 35-40 मिनट लेट थी। खैर जब ट्रेन प्लेटफार्म पर आई तो भागकर जैसे-तैसे मैं S6 डब्बे तक पहुँच तो गई पर रात अधिक होने के कारण सभी यात्री गेट बंद करके सो रहे थे, बाहर से लोगों द्वारा जोर-जोर से गेट पीटे जाने पर भी कोई खोल नहीं रहा था। मैं डर गई क्योंकि वहाँ गाड़ी बमुश्किल 2 मिनट रुकती है, जो मेरे दौड़कर वहाँ तक पहुँचने में निकल चुके थे, मुझे लगा अब तो गाड़ी छूट ही जाएगी पर तभी मैं बिना एक पल गँवाए आगे के डिब्बे की ओर भागी और S5 में जाकर चढ़ गई। और वहाँ से S6 में आई तो सभी यात्री घोड़े बेचकर सो रहे थे।
मैंने फोन का टॉर्च ऑन किया और बर्थ नं० देखा, अपर बर्थ थी, मैं ऊपर चढ़कर बैठ गई, सभी सो रहे थे, रात भी काफी हो गई थी तो मैंने सोचा कि मैं भी सो जाती हूँ, पर यों ही लेटने का उपक्रम किया स्वतः उठकर बैठ गई। आदत के अनुसार फोन में नेट ऑन करके मेल और फेसबुक आदि चेक किया फिर एक कहानी जो कई दिनों से लिखने का प्रयास कर रही थी पर किसी न किसी वजह से रह जाती थी उसे लिखना शुरू किया। मुझे सफर में कभी गहरी नींद नहीं आती हर मूवमेंट पर आँख खुलती है इसी आदत के कारण मैं पिछली रात को सोई नहीं थी और गाँव पहुँचकर दिन में भी नहीं सोई थी या कहूँ कि समय ही नहीं मिला, क्योंकि एक ही दिन तो रुकना था। इसीलिए अभी कहानी लिखते हुए मुझे झपकी आई तो मुझे लगा कि अब सो ही जाना चाहिए। मेरे पास सामान के नाम पर अपना एक कंधे पर टाँगने वाला पर्स ही था, उसी में मेरे जरूरत की सभी चीजें होने के कारण वो मोटा-सा हो गया था। मेरे पास सिर के नीचे रखने के लिए कुछ नहीं था पर पर्स की मोटाई के कारण मैं उस पर भी सिर नहीं रख सकती थी, लिहाजा मैंने पर्स से अपना कुरता निकाल कर सिर के नीचे रखा और स्टॉल निकालकर पर्स को सिर के पास रखा ओर स्टॉल ओढ़कर सो गई।
"टिकट दिखाइए टिकट" की आवाज सुनकर मेरी नींद खुल गई तो देखा टी०टी० विंडो के ऊपरी बर्थ पर सो रहे सज्जन की टिकट चेक कर रहा था, मैं उठकर बैठ गई और पर्स से अपना वॉलेट निकलकर उसमें से आधार कार्ड निकाला और फोन के मैसेज बॉक्स में आरक्षित टिकट का मैसेज निकाला, तब तक वह अन्य यात्रियों की टिकटें चेक कर चुका था, मेरी ओर मुड़ा ही था कि मैंने अपना मोबाइल उसके सामने कर दिया, उसने "ठीक है।" कहा और आधार कार्ड देखने की ज़हमत उठाए बिना दूसरे यात्री की ओर मुड़ गया। मैंने पुनः अपना वॉलेट पर्स के अंदर बड़े ध्यान से नीचे तक खिसका कर रखा और सो गई।
मैं गहरी नींद में थी तभी किसी ने मेरा पैर पकड़ कर हिलाया... मैं चौंककर उठ बैठी। वो एक अधेड़ उम्र के सभ्य से दिखने वाले महाशय थे।
"क्या हुआ?" मैंने पूछा।
"ये हमारी सीट है।" उन सज्जन ने कहा।
"जी! पर ऐसा कैसे हो सकता है? ये तो मेरी सीट है।" मैंने कहा और अपना बर्थ नं० चेक करने या उनको दिखाने के लिए अपना फोन ढूँढ़ने लगी जो मैं अपने पेट के पास रखकर सो गई थी। वह सज्जन पुरुष सीट नं० गिनकर बताने लगे "पाँच, छः, सात, आठ ये चारों हमारी सीट हैं।" उन सभी बर्थ पर सो रहे यात्री जाग चुके थे, विंडो के ऊपरी बर्थ पर सो रहे सज्जन पुरुष जागे हुए थे, उनकी सीट को भी वह सभ्य पुरुष अपनी बता रहे थे। मैं मोबाइल में वह आरक्षित टिकट वाला मैसेज निकाल ही रही थी कि तभी विंडो के ऊपरी बर्थ पर लेटे सज्जन यात्री बोले-
"भाई साहब आपका कोच नं० क्या है?"
"जी!" आगंतुक ने पूछा।
"आपका डब्बा नं० क्या है?" उन महाशय ने पुनः प्रश्न किया।
"S7" आगंतुक ने बताया।
"ये S6 है, S7 उधर है।" उन सज्जन पुरुष ने दूसरे डब्बे की ओर उँगली से इशारा करते हुए पुनः कहा।
"ओह, हमें लगा S7 है।" कहते हुए वह उसी ओर बढ़ गए।
मैंने भी राहत की साँस ली और मोबाइल की लाइट ऑफ करके रख दिया।
"ठीक से देखते नहीं ख़ामख़्वाह ही सबको परेशान कर दिया।" विंडो के ऊपरी बर्थ पर लेटे सज्जन बोले, नींद खराब होने का क्षोभ उनकी वाणी में झलक रहा था।
"जी हाँ, उन्हें चेक करना चाहिए था।" बोलकर मैं पुनः लेट गई और कब गहरी नींद में सो गई पता ही न चला।
अचानक लोगों के बोलने की अस्पष्ट सी आवाजें सुनकर मेरी नींद टूटी, नीचे झाँककर देखा तो सामने निचली बर्थ की महिला बोल रही थीं और एक पुरुष नीचे कुछ देखने का प्रयास कर रहे थे, विंडो के ऊपरी बर्थ पर सोए हुए सज्जन भी जाग चुके थे। अपने को स्थिर करके मैंने उनकी बातों पर ध्यान दिया,
"धम्म से कुछ गिरने की आवाज़ आई है, तभी तो मेरी नींद खुली।" वह निचली बर्थ पर बैठी महिला कह रही थीं।
"पर कुछ भी तो नहीं गिरा है यहाँ।" वह पुरुष जो शायद उस महिला का पति था बोला।
मैंने भी नीचे नज़र दौड़ाई पर फ्लोर बिल्कुल खाली था, तभी मेरी नजर अपने सिर के पास रखे पर्स पर गई, वहाँ पर्स नहीं था। एक पल को मेरा दिमाग सुन्न हो गया। ये जानते हुए भी कि नीचे कुछ नहीं है मैंने पुनः नीचे नज़र दौड़ाई और मेरे मुँह से निकला-
"मेरा पर्स कोई ले गया।"
"लो इनका पर्स ले गया, तभी मैं कह रही हूँ मैंने कुछ गिरने की आवाज सुनी थी।" वह महिला बोली, अफसोस कम और अपनी बात सत्य सिद्ध होने के विजय का भाव अधिक था उनकी आवाज़ में। जिनकी नींद नहीं खुली थी वो भी जाग चुके थे, विंडो के ऊपरी बर्थ पर सोए हुए सज्जन व्यक्ति अपनी बर्थ से उतरकर दूसरे डिब्बे में भी देख आए। मैंने देखा ट्रेन कहीं बिना स्टेशन के ही रुकी हुई थी, हमारी सीटें गेट के पास ही थीं, गेट खुला हुआ था, शायद चोर ने पर्स उठाने से पहले गेट खोला होगा ताकि आसानी से दो कदम में ही बाहर भाग जाए, बाहर घुप्प अँधेरा था। मैं समझ गई थी कि अब सामान हाथ से जा चुका है। मैं जल्दी-जल्दी अपना मोबाइल ढूँढ़ने लगी कहीं मोबाइल भी तो नहीं! एक लंबी सी सुकून की साँस ली जब मोबाइल पर मेरा हाथ पड़ा, भगवान का शुक्र है मोबाइल पर्स में नहीं था वर्ना पर्स के पूरे सामान से भी ज्यादा मँहगा पड़ता। सभी आपस में अटकलें लगा रहे, बातें कर रहे , मैंने मोबाइल में देखा तो उस समय 3:00 बज रहे थे, मैंने उसी समय अपने पतिदेव को फोन किया, उम्मीद तो नहीं थी पर उन्होंने फोन उठा लिया।
"मेरा सामान चोरी हो गया।" कहकर मैंने उन्हें पूरी बात बताई और दोनो कार्ड ब्लॉक करवाने के लिए कहा।
"मैडम ज्यादा कैश तो नहीं था पर्स में?" विंडो के ऊपरी बर्थ पर बैठे सज्जन बोले।
"चार-पाँच हजार होंगे, दरअसल 3000 कैश मेरे गिने हुए थे, फिर मेरे बाबू जी ने और दोनों भाभियों ने अपनी-अपनी ओर से विदाई दी थी, जो मैंने बिना गिने ही रख दिए थे, डेविट कार्ड, क्रेडिट कार्ड और आधार कार्ड भी थे।" मैंने बताया। साथ ही मैं मन ही मन अपना नुकसान गिनने लगी। उसमें एक जोड़ी सूट (कुर्ता, पजामी) मेरी लिखी एक पुस्तक की दो प्रतियाँ, अटल बिहारी बाजपेयी की लिखी 'हार नहीं मानूँगा' जिसे मैंने दिल्ली पुस्तक मेले से खरीदा था और अभी तक पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला था, मोबाइल के दो डाटा केबल, हैंड-फ्री, पोर्टेबल चार्जर (पावर बैंक), टूथ-पेस्ट आदि आवश्यक सामग्री के साथ मेरा वॉलेट था जिसमें मेरे 3000 कैश मेरे पहले से ही थे, फिर बाबूजी और भाभियों द्वारा विदाई में दिए गए डेढ़-दो हजार रु० और थे। ATM कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड और मेरा आधार कार्ड था।
"पर आवाज तो धम्म से गिरने की आई थी जैसे कोई भारी चीज गिरी हो।" वह महिला बोलीं।
"दरअसल पर्स में किताबें थीं जिससे वो भारी हो गया था, उसे आइडिया नहीं होगा इसीलिए झटके से पर्स नीचे गिर गया होगा।" मैंने कहा।
"सबके सो जाने के बाद नीचे फ्लोर पर रात कोई आकर सोया था, ये उसी का काम है, हमें तभी उसे भगा देना चाहिए था पर कौन जानता था कि ऐसा भी हो सकता है।" विंडो के ऊपरी बर्थ पर बैठे महाशय बोले।
"पर मैंने तो नहीं देखा वहाँ किसी को लेटे।" मैंने कहा।
"जब रात को वो महाशय आए थे न जो हमारी बर्थ को अपनी बता रहे थे, तब वो यहीं सो रहा था चादर ओढ़कर।" उन्होंने कहा।
" ये लोग ऐसे ही करते हैं, पर यहाँ सीट के नीचे रखे हमारे बैग नहीं ले गया, उतने ऊपर से आपका ही पर्स ले गया।" महिला के पति बोले।
"जी उसे पता होगा कि बैग में कोई कैश वगैरा नहीं रखता और मेरे पास इकलौता पर्स था तो सबकुछ उसी में होगा, इसीलिए वो पर्स ले गया।" मैंने कहा।
"आपका तो बहुत नुकसान हो गया।" वो महाशय बोले।
"जी, पर शुक्र है कि फोन बच गया।" मैंने कहा।
"फिर तो आपके पास अब पैसे-वैसे भी नहीं बचे।" विंडो के ऊपरी बर्थ पर बैठे सज्जन बोले।
"जी"
मेरा ही सामान चोरी हुआ था और मैं मन ही मन न जाने क्यों लाचारगी के साथ-साथ जैसे खुद को अपराधी सा महसूस कर रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे लोग सोच रहे होंगे कि कैसी स्त्री है, जो इतनी गहरी नींद सो जाती है, या ये भी सोच रहे होंगे कि क्या पता पर्स में कितने रुपए थे, हो सकता है झूठ बोल रही हो। मैंने देखा उन सज्जन व्यक्ति ने अपना वॉलेट निकाला और उसमें से 100 रूपए निकालकर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले-
"इसे रख लीजिए, काम आएगा।" उन्होंने कहा।
मैं जानती हूँ कि उनका इरादा मेरी मदद करने का था फिर भी मुझे बेचारगी सी महसूस हुई।
"नहीं थैंक्यू, मैं ये नहीं ले सकती।" मैंने कहा।
"घर तक जाने के लिए जरुरत तो पड़ेगी, आप कुछ सोचिए मत रख लीजिए।" उन्होंने आग्रह किया।
"नहीं, नहीं मुझे इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, मेरे हस्बेंड स्टेशन पर मुझे लेने आएँगे।" मैंने कहा।
"फिर ठीक है, पर अगर कोई जरुरत हो तो हिचकिचाइएगा नहीं।" उन्होंने कहा।
हम काफी देर तक बातें करते रहे। अब तो यदि कोई आकर वहाँ गेट के पास खड़ा होता तो वह सज्जन पुरुष तुरंत उसे गेट बंद कर वहाँ से हट जाने को कहते। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि वह भी दिल्ली जा रहे थे पर अभी उन्हें मुरादाबाद बाद उतरना था। वो व्यापार के सिलसिले में हरदोई से आ रहे थे। मुरादाबाद से वह फिर दिल्ली के लिए रवाना होंगे। मैं पहले शालीमार गार्डन में पढ़ाती थी यह जानकर उन्होंने बताया कि वह शालीमार गार्डन ही जा रहे हैं, वहाँ उनका फ्लैट है। काफी देर बातें करने के उपरांत मैंने करीब चार-साढ़े चार बजे अपनी बेटी को फोन करके कार्ड ब्लॉक करवाने का निर्देश दिया और फिर सो गई।
सुबह की चहल-पहल से नींद खुली तो उठकर बैठ गई, सोचा मोबाइल में मैसेज चेक करती हूँ पर याद आया कि चश्मा तो बैग के साथ ही चोरी हो गया। मन मसोस कर बैठी रह गई, पर कब तक ऊपर बैठती, सभी जाग चुके थे, छः-साढ़े छः बज रहे थे, मैं अपनी बर्थ से उतर कर सामने की निचली बर्थ पर बैठ गई। और पुनः बेटी को फोन किया। वो क्रेडिट कार्ड तो रात को ही ब्लॉक करवा चुकी थी लेकिन दूसरे कार्ड को ब्लॉक करने के लिए OTP की जरुरत थी जो मेरे रजिस्टर्ड नं० पर आया, चश्मा न होने के कारण मैंने उस महिला के पति से OTP पढ़वाया और बेटी को बताया इतने में वह एक्सपायर हो गया। अब बेटी ने बताया कि मैं मैसेज को कॉपी करके भेज दूँ। मैंने ऐसा ही किया और कार्ड ब्लॉक होने का मैसेज मेरे फोन पर आया। बिना चश्मा परेशान होते हुए उन महाशय ने मुझे देखा तो अपना चश्मा दिया और मैंने मैसेज़ पढ़कर कार्ड ब्लॉक होने की बात बताई।
उसी समय मेरे सामने की सीट पर बैठे एक युवक ने अपनी जेब से स्टील का एक विजिटिंग कार्ड बॉक्स निकाला और ज्यों ही उसने वह बॉक्स खोला तो मैंने देखा कि उसमें विजिटिंग कार्ड तो एक भी नहीं था बल्कि कई डेविट और क्रेडिट कार्ड थे। उसने उसमें से एक कार्ड निकाला जो कि बिल्कुल ही अलाहाबाद बैंक के मेरे डेविट कार्ड जैसा था, साथ ही मेरी नजर उस बॉक्स में रखे एक और कार्ड पर पड़ी जो एच०डी०एफ०सी० बैंक के मेरे क्रेडिट कार्ड जैसा था, मेरा मन हुआ कि कार्ड्स का बॉक्स झपट लूँ और उन पर अपना नाम चेक कर लूँ, पर मैं ऐसा नहीं कर सकती थी, ऐसा कार्ड सिर्फ मेरे पास ही थोड़ी हो सकता है...फिर भी मन को तसल्ली देने के लिए सोचा कार्ड पर प्रिंट नाम ही दिख जाए तो तसल्ली हो जाए, पर वह युवक कार्ड को हथेलियों के बीच इस प्रकार छिपाकर मोबाइल में कार्ड का नंबर टाइप करने लगा कि कोई दूसरा न देख पाए। एक तो दो कार्ड का मेरे कार्ड्स जैसे होना, दूसरे इस प्रकार छिपाना मेरे मन को व्याकुल करने लगा, यह भी एहसास हुआ कि शायद उसकी सीट भी रिज़र्व नहीं है, इसीलिए कभी किसी तो कभी किसी सीट पर बैठ रहा था। वो किसी से बात भी नहीं कर रहा था, सामने की निचली बर्थ पर जो महिला लेटी हुई थीं, अब तक नहीं उठी थीं इसलिए दूसरी स्लीपर बर्थ ज्यों की त्यों खुली थी और वह युवक महिला के पैर के पास सीधा न बैठ पाने की स्थिति में झुककर बैठा हुआ था। मैंने कभी पैर की बिछिया सीधी करने तो कभी युवक के पीछे दूसरे कंपार्टमेंट में झाँकने के बहाने उसकी हथेली के बीच छिपे कार्ड को देखने का प्रयास किया परंतु वह सीप में मोती की मानिंद यूँ छिपा रहा कि मुझे इतने जतन के बाद भी न दिखा। युवक ने कार्ड वापस बॉक्स में रख लिया, उसके चेहरे के भाव से लग रहा था कि वह जो चाहता था वह नहीं हुआ, इधर मेरा कार्ड ब्लॉक होने का मैसेज आ चुका था तो मैं भी इस नुकसान की संभावना से आश्वस्त हो चुकी थी। फिर भी, काश! मैं देख पाती....
तभी बीच वाली बर्थ पर लेटी एक महिला और मेरे साथ बैठे पति-पत्नी आपस में मौजूदा सरकार की नीतियों पर चर्चा करने लगे, अचानक ही माहौल राजनीतिक हो गया, सरकार ने आधार जरूरी कर दिया तो लोग राशन नहीं ले पा रहे, सरकार की कड़ी नीतियों के कारण छात्र परीक्षा नहीं दे पा रहे, नोटबंदी के कारण लोग लाइनों में मर गए और गरीब लोग परेशान हो रहे...आदि न जाने कितनी परेशानियाँ थीं उन लोगों को। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि राजनीति के गहन आध्याता तो यही लोग हैं और सारी परेशानियाँ इन्हीं लोगों ने झेली हैं। उनका एकतरफा ज्ञान सुन-सुन कर मेरे लिए असहनीय होने लगा तो मैं बोल पड़ी और जब मैंने बोलना शुरू किया तो थोड़ी देर पहले की उनकी सहानुभूति गायब हो गई उन्हें उनके तर्क फेल होते प्रतीत होने लगे तो सामने की बर्थ पर लेटी महिला उठकर बैठने की कोशिश करती हुई बोलीं "भाजपा को वोट देके आई हो क्या?"
मैं तर्कपूर्ण वाद-विवाद कर रही थी, इसलिए किसी प्रकार की नकारात्मक बहस नहीं चाहती थी पर उनके इस प्रश्न का उत्तर देती उससे पहले ही विंडो के ऊपरी बर्थ वाले महाशय ने सरकार की सकारात्मक नीतियों का जो शांतिपूर्वक वर्णन करना शुरू किया कि सभी की बोलती बंद हो गई। सामने की बर्थ वाली महिला वॉशरूम चली गईं, मेरे साथ बैठे दोनों पति-पत्नी मूक हो किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति चुपचाप उन सज्जन की बात सुनते और हाँ में हाँ मिलाते रहे। निःसंदेह मेरी बात को बल मिला तो मुझे तो अच्छा लगना ही था, परंतु जो बात मुझे अधिक अच्छी लगी वो ये कि वो बहुत शांति से बिना क्रोधित हुए एक मँझे हुए राजनेता की भाँति अपनी बात कह रहे थे , जबकि मुझे तो क्रोध अति शीघ्र आता है।
खैर वार्तालाप समाप्त हुई, इधर-उधर की बातों के बीच सबने ब्रश आदि करके नाश्ता किया, उन सज्जन ने मुझे चाय पीने के लिए कहा पर मैंने साभार मना कर दिया। साथ बैठी महिला ने कहा कि उनसे टूथपेस्ट लेकर मैं मंजन आदि कर लूँ पर मुझे लगा कि मैं समय से पहुँच जाऊँगी तो घर पर ही जाकर चाय-नाश्ता करूँगी इसलिए मैंने मना कर दिया, परंतु जब पता चला कि ट्रेन काफी लेट है तो मैं जाकर कुल्ला कर आई। उन सज्जन व्यक्ति ने इस बार मुझसे पूछे बिना ही दो कॉफी ली और एक मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले "मना मत कीजिएगा पी लीजिए।" मैंने धन्यवाद बोलते हुए उनके हाथ से कॉफी ले ली, कुछ ही देर बाद एक चिप्स की पैकेट भी मेरे बहुत मना करने के बाद भी उन्होंने आग्रह करके दिया तथा अपने बैग से बिस्किट का पैकेट निकालकर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले- "इसे रख लीजिए, मैं तो मुरादाबाद उतर जाऊँगा आपको आगे जाना है, ट्रेन काफी लेट है पता नहीं कब पहुँचेगी।" मैं चाह कर भी मना नहीं कर पाई और हाथ से बिस्किट लेकर चुपचाप रख लिया। मेरी पानी की बोतल बाहर होने के कारण बच गई थी तो मुझे पानी की परेशानी से नहीं जूझना पड़ा। साथ की महिला से पॉलीथिन माँगकर मैंने अपना कुर्ता, स्टॉल, बिस्किट का पैकेट और बोतल उसमें रखा।
उधर वो लेटी हुई महिला ने अपने पति से झगड़ना शुरू कर दिया था वह रो रही थी और बार-बार यही कह रही थी कि मुझे तेरे साथ नहीं रहना, तू यहीं से वापस चला जा और न जाने क्या-क्या इल्जामों की बड़ी लंबी लिस्ट थी। उस प्रौढ़ महिला के अनुसार उसका बेटा विदेश में रहता है, और वह अपने बेटे के साथ ही अलग रहती थी किंतु बेटे के जाने के बाद पति फिर आ गया और जबरदस्ती साथ में रह रहा है। अभी ये लोग गाँव से वापस दिल्ली जा रहे थे, गाँव में कोई झगड़ा हुआ होगा जिसमें पति ने पत्नी का साथ नहीं दिया, इसके अलावा भी वह महिला बड़े ही गंभीर आरोपों से अपने पति के पौरुष और स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ा रही थी। थोड़ी देर पहले जिस महिला का रोना और झगड़ना मन में क्रोध उत्पन्न कर रहा था, सत्य जानकर उस महिला के लिए मन सहानुभूति से भर गया, किन्तु सुनते-सुनते जब बहुत देर हो गई तो उसका झगड़ना, जिद, रोना-धोना अब असह्य होने लगा था, परंतु कर ही क्या सकती थी! बैठ कर चुपचाप देख व सुन रही थी। विंडो वाली सीट पर बैठे सज्जन भी इन सब से कुपित लग रहे थे पर दर्शा नहीं रहे थे। उन्होंने मेरी बहुत मदद की थी मेरा मन हुआ कि मैं उनका मोबाइल नं० या फेसबुक आई-डी माँग लूँ पर न जाने क्यों माँग न सकी। खैर अपने नियत समय से तीन-साढ़े तीन घंटे लेट ट्रेन मुरादाबाद पहुँची और वो महाशय वहीं उतर गए। साथ बैठे दंपत्ति को भी दिल्ली जाना था। मेरे लिए ट्रेन का रुक-रुक कर चलना असह्य हो रहा था परंतु कर भी क्या सकती थी। बार-बार मन में आता ट्रेन से उतर जाऊँ और बाई रोड चली जाऊँ फिर अगले ही पल याद आता कि मेरे पास पैसे नहीं हैं। खैर जैसे-तैसे ग्यारह बजे पहुँचने वाली ट्रेन 3:30-4:00 बजे दिल्ली पहुँची, पतिदेव प्लेटफार्म पर ही मिल गए, अब मैं निश्चिंत होकर बिना टेंशन घर जा सकती थी, यह सोच आधी थकान तो यूँ ही कम हो गई पर यह यात्रा मेरे लिए यादगार बन गई।
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