बुधवार

चाह मेरे मन की

संसार की बगिया का मैं भी खिलता हुई प्रसून हूँ
मैं भी सुंदर और सुरभित नवल प्रफुल्लित मुस्कान हूँ
उपवन में सौरभ फैलाने को मैं भी तैयार हूँ
अनचाहे भँवरों सैय्यादों की नजरों का शिकार हूँ
तोड़ने को डाली से बढ़ते हाथ बारंबार हैं
हर हाथ मुझको मसल कर फेंकने को तैयार है
पा जाऊँ गर मैं अपने माली की ममता और दुलार 
मिटा दूँ मैं हर बाधा और भँवरों का अनाचार 
फैलाऊँ मैं भी सौरभ फिर हर घर के हर आँगन में
हर हृदय हो सुरभित खुशियों से यही चाह मेरे मन में।
मालती मिश्रा


मंगलवार

इक हाथ में मटकी दूजे में रई है
रूप अधिक मनभावन भई है
स्वर्ण पात्र माखन को भरो है
बंसी भी इक ओर धरो है
कान्हा तेरो रूप सलोनो
देख-देख मन पुलकित भयो है।
बदरा ऊपर आस लगाए
उमड़-घुमड़ तोहे छूवन चाहे
भोर किरन भई बड़ भागी
अपनी आभा को तुम फैलायो
श्याम वर्ण काया पर कान्हा
नीलवरण पटका अधिक सुहायो
दिवा-रात्रि के मिलन ने जैसे
स्वर्ण-रजत की छवि बिखरायो
देख-देख छवि अति सुघड़ सलोनो
मन बार-बार तुम पर बलि जायो
मालती मिश्रा

सोमवार

आज मैं आजाद हूँ

उड़ान भरने को स्वच्छंद गगन में
तोल रही पंखों का भार
भूल चुकी हूँ पंख फैलाना
पंखों में भरना शीतल बयार
होड़ लगाना खुले गगन में
छू लेने को अंबर का छोर
निकल पड़ी हूँ तोड़ के पिंजरा
तोड़ दिया है भय की डोर
फँसी हुई थी अपने ही 
आकांक्षाओं के बुने जाल में
अब जब जागी तो तोड़ दिया
नही फँसी निष्ठुर जंजाल में
रहता था मन व्याकुल हरपल
देख-देख असंवेदनशीलता
भर उठता था विद्वेष हृदय में
मानव के प्रति देख क्रूरता
तिल-तिल घुटती रहती थी
उस सुनहरे पिंजरे में
आज वो पिंजरा तोड़ चली
उन्मुक्त गगन के सहरे में
अब तो अपनी हर सुबह होगी
होगी अपनी हर शाम नई
पूरे करूँगी अपने वो सपने
अंतर्मन में दबे-कुचले जो कई
बनाने को उज्ज्वल समाज
अपने घर में तम का विस्तार किया
उसी तम को मिटाने के लिए
पग-पग पर दीप प्रज्ज्वलित किया
न होंगी अब शिकवों की संध्या
नही शिकायतों भरी प्रात
हर शिकवे-गिले मिटाने को
मन में जगाया नव प्रभात
जो समय गँवाया जी हुजूर में
वो तो वापस पा सकती नहीं
परंतु बचे अनमोल पलों को
अब और गँवा सकती मैं नहीं
मालती मिश्रा





बुधवार

विचाराभिव्यक्ति की आजादी

विचाराभिव्यक्ति की आजादी
"आजादी" कितना महान, कितना मधुर और कितना प्रिय लगता है यह शब्द। आजादी के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते... मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी सदैव आजादी ही पसंद करते हैं। कवि शिवमंगल सिंह सुमन जी ने अपनी रचना के द्वारा व्यक्त भी किया है "हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे" जब हमारा देश अंग्रेजी शासन का गुलाम था तब आजादी पाने के लिए देश के सपूतों ने कितनी कुर्बानियाँ दीं। कितनी बहनों के भाई शहीद हो गए, कितनी ही माँओं की गोद सूनी हो गई, कितनी वनिताओं की माँग सूनी हो गई इस आजादी को पाने के लिए और आज हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हम आजाद देश के नागरिक हैं। फिर भी इस आजाद देश में भी कितने ही बीमार ऐसे हैं जो अभी भी आजादी चाहते हैं परंतु विचारणीय है कि किससे? 
आज लोग आजादी का क्या अर्थ समझते हैं.... क्या आजादी का अर्थ यह है कि हम कुछ भी करें कुछ भी कहें कहीं भी कभी भी जाएँ हम पर कोई रोक-टोक न हो!!!!  क्या हमें आतंक फैलाने की आजादी मिलनी चाहिए, क्या किसी को किसी अन्य व्यक्ति पर पत्थर मारने की आजादी हो सकती है?? क्या यही है आजादी का मतलब? यदि ये आजादी का अर्थ है तो हमें यह भी समझना होगा कि फिर सिर्फ हम ही नही हमारे सामने वाला भी तो आजाद है, यदि हम कुछ भी कहने को आजाद हैं तो वह भी तो कुछ भी करने को आजाद है, फिर ऐसी आजादी के क्या नजारे हो सकते हैं कल्पना कीजिए....

आजकल एक चीज बहुत सुनने को मिलती है-"विचाराभिव्यक्ति की आजादी" निःसंदेह सभी को अपने विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन क्या इसका यह अर्थ हो जाता है कि हम कुछ भी कहेंगे ? यहाँ तक कि विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर अपने देश की नीतियों का विरोध करेंगे और उम्मीद रखेंगे कि हमारे कहे पर कोई आपत्ति नही जताएगा। 

जहाँ तक मैं समझती हूँ कि मेरे इस विचार से सभी सहमत होंगे कि आजादी का अर्थ होता है "निर्धारित नियमों के दायरे में अनुशासित ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन" सोचिए यदि सभी आजाद होने के कारण यातायात के नियमों का पालन न करें तो..... जब प्रकृति तक अपने नियम नहीं तोड़ती तो हम तो मानव हैं।
क्या हमारे देश की गरिमा को बनाए रखने के लिए कोई नियम नहीं होंगे?? क्या जिस देश की गरिमा को बनाए रखने के लिए, जिसे आजाद करवाने के लिए हजारों देशभक्तों ने अपनी कुर्बानी दी है उसी देश के हित के विरोध में, उस देश की गरिमा को खंडित करने के लिए किसी को कुछ भी कहने की आजादी हो सकती है? क्या विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हम कुछ भी कहने के हकदार हैं? 
क्या कोई भी समाज कोई भी व्यक्ति हमें यह आजादी दे सकता है कि हम उस समाज या उस व्यक्ति के लिए कोई अमर्यादित टिप्पणी करें ! यदि नहीं तो हमारे देश के कानून में भी विचाराभिव्यक्ति की आजादी की सीमाओं का निर्धारण अति आवश्यक है।
इतना ही नहीं विचाराभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आजकल गरिमामयी पदों पर आसीन पदाधिकारी किसी अन्य गरिमामयी पदाधिकारी के लिए भी अत्यंत गरिमाहीन शब्दों का प्रयोग करते हैं। ऐसी आजादी किस काम की जो हमे अमर्यादित बनादे, जो हमसे हमारे संस्कार ही छीन ले। यदि हम बंधन में ही व्यक्तियों, समाज व देश का सम्मान करना सीख सकते हैं तो वह बंधन ही अच्छा।
जिस प्रकार हम हमारे घरों के छोटे बच्चों को उनकी ही भलाई के लिए नियमों में बाँधते हैं, उनके गलत व्यवहार, गलत शब्दों और अन्य गलतियों पर अंकुश लगाते हैं उसी प्रकार इस देश के कानून का भी इतना सख्त और प्रभावशाली होना आवश्यक है कि देश-विरोधी नारे लगाने, आतंकियों का समर्थन करने और नारे लगाने वालों का समर्थन करने से पहले हर छोटा-बड़ा व्यक्ति दस बार अवश्य सोचे।
                                                               
मालती मिश्रा

सोमवार

अरुण रथ आया है...

रंग दे अपने रंग में जग को
ऐसी किसी में ताब कहाँ
सूरज न घोले सोना जिसमें
ऐसी कोई आब कहाँ 
भर-भर कर स्वर्ण रस से गागर
तरंगिनी मे उड़ेल दिया 
उषा तुमने अपनी गागर से
जल-थल का सोने से मेल किया
हरीतिमा भी रक्त वर्ण हो
अपने रंग को भूल गई
ओढ़ ओढ़नी स्वर्ण वसन की
सुख सपनों में झूल गई 
कर श्रृंगार प्रकृति कनक सी
तरंगिनी में झाँक रही 
बना दर्पण नीर सरिता की
अपनी छवि को आँक रही 
रूप अधिक मनभावन कब हो
तारक चुनरी हो जब मस्तक पर
या स्वर्ण सुरा मे नहा के निखरी
पुष्पों के गजरे हों केशों पर
मोती से चमकते ओस की माला
इतराते चढ़ मेरे कंठ पर
पवन थाप से लहराती कोपलें
लज्जा से सिमट रहीं रह-रहकर
मनभावन सा रूप प्रकृति का यह
जिसने जग को हरषाया है
मीठा-मीठा तेज दिवस का
लेकर अरुण रथ आया है।

मालती मिश्रा 

रविवार

नमन करो उस धीरव्रती को

जिसका पूरा विश्व आज बना दीवाना
      उस लोकप्रिय जनमानस प्रिय पर
            देश के शत्रु साधते निशाना

चलता जिसके पीछे इक युग
       जिसने रचा इतिहास नया
              उसके कथ्य अकथ्य भाव का
                     लोहा सबने माना
                           ऐसे युगदृष्टा महाविभूति पर
                                  कायरता कसती ताना

वह सुप्तप्राण में नवजीवन लाया
     उसने सोया हिंदुस्तान जगाया
          उस आत्मबली और महाबली का
               सब तकते आन-जाना
                     उस महाधीर और कर्मवीर पर
                          सत्य के शत्रु साधते निशाना

लख-लख नमन उस धीरव्रती को
     राष्ट्रोत्थान को जिसने ध्येय बनाया
           जिसने मुरझाए प्रसून खिलाकर
                 सौरभ का भरा खजाना
                      ऐसे महारथी और सत्यपथी पर
                            रिपु सेना साधे निशाना

एक सिंह से टकराने को
      गीदड़ रचते हैं फौज नई
           नहीं चाल में नयापन कुछ भी
                 यह पुराना है ताना-बाना
                      शेर पर काबू कर पाने को
                            सभी गीदड़ बुनते जाल पुराना

ऐसे धीरव्रती और महारथी पर
      अमन के शत्रु साधते निशाना 

मालती मिश्रा 

कानून के रक्षक और समय

कानून के रक्षक और समय
बस सांस ली मुझे इतना सुकून मिल रहा था जैसे कि कितने लम्बे समय के अंतराल के बाद मैने खुली हवा में सांस लिया हो, थोड़ी देर पहले गाड़ियों के जो हॉर्न मुझे अत्यंत कष्टदायी प्रतीत हो रहे थे वही अब मुझे निष्क्रिय लग रहे हैं, मैं पिछले एक घंटे से ट्रैफिक में फंसी हुई थी...
जब बस थोड़ी सी खिसकती तो हवा लगती तब जरा सी राहत की सांस लेती और  बस फिर रुक जाती, पता नहीं कितने समय में चलेगी? एक तो मौसम उमस भरा फिर गाड़ियों का शोर और धुआँ...पीछे खड़ी गाड़ियों में बैठे ड्राइवर आगे जाने के लिए उतावले हो रहे थे, ये जानते हुए भी कि आगे रास्ता नही है वो हॉर्न पे हॉर्न बजाए जा रहे थे..मन में आ रहा था कि अभी बस से उतरूँ जाकर बोलूँ इन्हें कि अगर इन्हें संभव लगता है तो ये उड़कर चले जाएँ क्योंकि आगे वालों के लिए तो ये संभव नही ....हर चेहरे पर एक ही सवाल था कि ये ट्रैफिक जाम क्यों लगा है ? एक युवक जो अपनी जिज्ञासा को अधिक देर तक रोक न सका बस से उतर गया कारण जानने के लिए....पाँच मिनट में ही वापस आ गया और अपने साथियों को कुछ इस अंदाज में बताया कि आसपास बैठे और लोग भी सुन सकें...आगे दो-तीन लोग एक पुलिस वाले को पीट रहे है...क्या पुलिस वाले को...एक साथ आश्चर्य में डूबी हुई कई आवाजें एक साथ सुनाई दी | क्या जमाना आ गया है भई पहले पुलिस वाले निर्दोषों को भी पकड़ कर पीट देते थे और आज जनता ही उन्हे पकड़कर पीट देती है, पीछे से किसी बुजुर्ग की आवाज आई | अरे अंकल जी हो सकता है किसी महिला को कुछ उल्टा-सीधा बोल दिया होगा, आज कोई गलत व्यवहार बर्दाश्त नहीं करता, आखिर कानून तो सबके लिए एक समान ही है न...किसी जागरूक नवजवान ने कहा जो उस बुजुर्ग व्यक्ति के पास ही बैठा था...अरे नहीं भाई साहब आज तो उस पुलिस वाले को कानून का पालन करने के लिए ही पीटा है कुछ मनचले दबंगों ने...एक नवयुवक (जो शक्लोसूरत से पढ़ा-लिखा दिख रहा था) बस में चढ़ते हुए कहा...क्या बात कर रहे भाई साहब वो कैसे? किसी ने पीछे से पूछा, मैं अभी तक चुपचाप उन लोगों की बातें सुन रही थी...अरे भाई वो ट्रैफिक पुलिस वाला है, अपनी ड्यूटी कर रहा था, एक ही बाइक पर तीन लड़के बिनावो भी बिना हेलमेट सवार थे..उस ट्रैफिक पुलिस वाले ने अपनी ड्यूटी निभाते हुए उन लोगों को रोक लिया बस उन लोगों ने उस बेचारे को ही पीटना शुरू कर दिया....हे भगवान क्या जमाना आ गया है, एक महिला बोली...
बस चल पड़ी शायद कुछ पुलिस वाले आ गए और वो लड़के भाग गए....भीड़ भी जो तमाशबीन बनकर अब तक तमाशा देख रही थी तेजी से अपने अपने रास्ते चले गए...
खैर जैसे-तैसे मै अपने स्टैंड पर पहुँच गई और थककर चूर होने के बावजूद मैं जल्दी-जल्दी चल रही थी ताकि जल्दी से घर पहुँचूँ और चलते हुए यही सोच रही थी कि घर पहुँचते ही नहाउँगी फिर उसके बाद ही चाय-वाय पिउँगी...
मैंने दरवाजा खटखटाया बेटी ने तुरंत ही दरवाजा खोल दिया, मैंने अपना पर्स सोफे पर एक तरफ लगभग फेंकते हुए खुद भी सोफे पर गिर सी पड़ी..टी०वी० का रिमोर्ट कहाँ है बेटा?किसी न्यूज चैनल पर लगा तो कहीं कुछ हुआ है शायद...बेटी ने चैनल बदल कर रिमोर्ट मेरे ही पास रख दिया | मैं चैनल बदल-बदल कर देखने लगी कि शायद किसी चैनल पर वो समाचार दिखा दें जिसकी वजह से मैं इतनी देर तक जाम में फँसी रही, अचानक टी०वी० स्क्रीन पर नीचे समाचार परिवर्तित हुआ और लिखा हुआ आने लगा "यमुना विहार में कुछ लोगों ने मिलकर की पुलिस वाले कि पिटाई"...पुलिस वाले की पिटाई!!! सचमुच समय कितना परिवर्तित हो गया है, पहले लोग निरपराध होते हुए भी 'पुलिस' शब्द से भी डरते थे, गाँव में किसी के घर पुलिस आ जाती तो आसपास के लोग अपने घरों में दुबक कर झाँका करते, सामने आने से डरते थे कि कहीं उनसे ही कुछ पूछ लिया तो...कहीं उन्हें ही न थाने पर बुलाकर पूछताछ करने लगें...लोग पुलिस और थाने के नाम से ही दूर भागते थे और आज का समय है कि लोग दोषी होते हुए भी अपने अपराध के कारण डरने की बजाय पुलिस वाले को ही पीट देते हैं....ये कोई दादी-नानी से सुनी कहानी नही है मैंने तो खुद इसका अनुभव किया है कि किस प्रकार लोग शिक्षा के अभाव में अज्ञानतावश, व कानून से अनभिज्ञता के कारण निर्दोष होते हुए भी अपराधियों की भाँति कानून यानि पुलिस से भागते थे........ये घटना उस समय की है जब मैं मैं कोई सात-आठ वर्ष की हूँगी........
रात के अँधेरे ने अपनी चादर तान दी थी,चारों ओर घना अँधेरा कि हाथ को हाथ सुझाई न दे, सन्नाटे की आवाज कानों मे सांय-सांय कर रही थी ऊपर नीले आसमान मे तारे ऐसे टिमटिमा रहे थे जैसे कि विस्तृत नीली चादर पर किसी ने असंख्य हीरे बिखेर दिए हों, दूर से कहीं किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी, न जाने क्यूँ वातावरण इतना डरावना सा हो गया था किअपने ही दिल के धड़कने कीे आवाज डरावनी लग रही थी शायद इसलिए क्योंकि माँ डरी हुई थीं जो हमारा आधार हो, जो हमें आलंभ देता हो, जिसके आँचल के समक्ष वितान भी छोटा महसूस हो, जिसके आँचल तले हम खुद को इतना सुरक्षित पाते हैं जितना कि भगवान की छत्रछाया में भी नही..वही..वही माँ न जाने क्यूँ आज इतनी डरी हुई थीं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था...आखिर रात तो रोज ही होती है पर रोज के और आज के माहौल में इतना अंतर क्यों ? क्यों आज माँ इतनी सहमी हुई सी हैं? क्यों डर से मेरा दिल मुँह को आ रहा है? आखिर क्या होने वाला है? घर के बाहर खड़ी मैं अँधेरे में दूर मैदान के दूसरे छोर पर देखने की असफल कोशिश कर रही थी पर उधर अँधेरे में नीम के पेड़ की परछाई के अलावा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, आँखें अँधेरे में पापा की परछाई को ढूँढ़ते हुए थकने लगी थीं मैं वापस घर के भीतर आने के लिए सोच ही रही थी कि तभी मैदान के करीब बीच तक पहुँच चुकीं दो तीन परछाइयाँ दिखाई दी मुझे...मैं डर गई क्योंकि पापा तो हो नही सकते...उन्हें तो अकेले आना चाहिए था, मैदान के किनारे-किनारे छोटे-छोटे घरों की कतार थी, सभी के दरवाजे बंद हो चुके थे...फिर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वो लोग हमारे ही घर की तरफ बढ़े आ रहे हैं...मैं जल्दी से अंदर भागी...माँ-माँ बाहर दो-तीन लोग आ रहे हैं....मैंने माँ को बताया,  क्या..वो भी घबरा गईं, कहाँ तक पहुँचे हैं?... चबूतरे के उस तरफ थोड़ी दूर हैं...माँ और घबरा गईं, मैंने तुझे बाहर इसीलिए खड़ा किया था न कि जब दूर से ही कोई परछाई दिखाई दे या जूतों की ठक-ठक सुनाई दे तो मुझे बताना..पर तेरा तो ध्यान ही पता नहीं कहाँ रहता है, बड़बड़ाती हुई माँ ने मेरे हाथ में दाल-चावल का वो कटोरा जल्दी से पकड़ाया जिसमें से वो मेरे छोटे भाई को खिला रही थीं...जल्दी से सबसे छोटे भाई को जो सो चुका था अपने कंधे पर डाला दूसरे का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए ही कहा चल...मैं हाथ में दाल-चावल का कटोरा पकड़े उनके पीछे-पीछे जल्दी-जल्दी चल दी...वो इतनी हड़बड़ी में थीं कि उन्होंने अपना जूठा हाथ भी नहीं धोया, बाहर आकर घर का दरवाजा भी बंद नहीं किया,  घर के बाँयी ओर ही सटकर चाची(पड़ोसी) के घर के बरामदे में चढ़ गईं बिजली न होने से अँधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, मुझे लगा कि अब वो दरवाजा खटखटाएँगी...पर ये क्या उन्होंने उनके बंद दरवाजे को बाहर से कुंडी लगा दी और मुझे और मेरे भाई को फुसफुसा कर चुप रहने का आदेश दे कर घेर की तरफ मुड़ गईं....अब तक मैं इतना तो समझ ही चुकी थी कि हम उन परछाइयों से छिप रहे हैं, वह घेर भी चाची के जमीन का ही एक हिस्सा था जो बरामदे से सटा हुआ था...बाहर से देखकर तो ऐसा ही लगता था जैसे कि ये कोई पतली सी गली होगी जो दूर तक निकल गई होगी, किंतु वो दरअसल जमीन का खाली पड़ा तिकोना हिस्सा था कोई २५-३०गज का, जिसमें घास और झाड़ियाँ उगी हुई थीं...वहीं उन्हीं घासों में बिना कीड़े-मकोड़ों से डरे एक कोने में माँ हम तीनों बहन-भाइयों को लेकर दुबक गईं...भाई को चावल-दाल खिलाने लगीं ताकि वो रोये न...आज न सिर्फ माँ को बल्कि मुझे भी कीड़े-मकोड़े, साँप आदि से उतना डर नहीं लग रहा था जितना कि इंसानों से...अचानक जूतों की खट-खट सुनाई दी, वो लोग बरामदे तक आ पहुँचे थे, जरूर वो पहले हमें हमारे घर में ढूँढ़ कर फिर यहाँ आए होंगे...अब मुझे समझ आ रहा था कि माँ ने चाची का दरवाजा क्यों नही खटखटाया...क्योंकि जितनी देर में वो दरवाजा खोलने आते उतनी देर में तो ये लोग हम तक पहुँच चुके होते...पर क्या यहाँ हम लोग बच जाएँगे? अगर हमें वहाँ न पाकर उन्होंने इधर झाँक भी लिया तो...? अब मुझे हमारा बचना मुश्किल लग रहा था...माँ पता नहीं क्या सोच रही होंगी, उनकी मनःस्थिति क्या है मै कुछ समझ नही पा रही थी...हम साँस भी इतने धीरे-धीरे ले रहे थे कि कहीं हमारी साँसों की आवाज भी उन तक न पहुँच जाए....दरवाजा खुलवाएँ...तभी उनमें से एक की आवाज आई, हाँ, अरे! लेकिन ये तो बाहर से बंद है...दूसरे की आवाज आई..लगता है भाग गए और पड़ोसियों को पता भी नहीं..हम चुपचाप साँसे रोके उनकी हर बात हर आहट सुनने की कोशिश करते रहे..मन ही मन मैं भगवान से प्रार्थना करती रही कि वो लोग इधर न आएँ..माँ ने तो मन ही मन न जाने कितनी मन्नतें माँग डाली होंगी..मैं तो डरी-सहमी माँ का हाथ पकड़े उनसे चिपक कर सहमी सी खड़ी रही पर वो तो अपना डर भी किसी से बाँट नहीं सकती थीं पापा भी पता नहीं कहाँ रह गए थे...रोज पाँच बजे आ जाते थे और आज इतनी रात तक भी नहीं आए थे, पता नहीं ये सब क्या और क्यों हो रहा था , दिमाग में सवालों का तूफान सा चल रहा था..मन कर रहा था कि माँ से पूछूँ..पर अभी तो बोल भी नहीं सकती थी..ये समय टल जाय, ये लोग जो भी हों यहाँ से चले जाएँ...सवाल तो मैं बाद में भी पूछ लूँगी...इधर देखें ? अचानक आवाज आई और ऐसा लगा कि वो लोग हमारी ही तरफ आने को मुड़े हैं...अब क्या होगा????...डर के मारे मेरे पैर काँपने लगे..आँखों से आँलू छलक आए,मैंने माँ को कसकर पकड़ लिया, अँधेरे में माँ का चेहरा साफ नजर नहीं आ रहा था पर शायद उनकी भी ऐसी ही स्थिति थी...ऐसा लगा किसी का पैर दिखाई दिया, अँधेरा अधिक होने के बावजूद अब तक आँखें अँधेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं शायद इसीलिए मैं देख पाई...तभी दूसरे साथी की आवाज आई अरे अब इधर क्या वो लोग खड़े होकर हमारा इंतजार कर रहे होंगे, अब तक तो क्या पता कहाँ निकल गए होंगे, चलो समय बर्बाद मत करो...और वह पैर जैसे घेर के भीतर आया था वैसे ही तुरंत बिना एक भी पल गँवाए वापस बाहर चला गया. फिर वही जूतों की ठक-ठक..परंतु इस बार दूर होती हुई..अब माँ ने एक गहरी साँस ली मानो कब से साँसें रोके खड़ी थीं, मेरी पकड़ भी ढीली पड़ गई...मेरे दिमाग मे एक नए प्रश्न ने जन्म ले लिया कि इनके जूतों से इतनी तेज ठक-ठक की आवाज क्यों आती है? मेरे पापा के जूतों से तो नहीं आती.....पापा..आं..पापा अभी तक नहीं आए, माँ पापा क्यों नही आए अब तक..मैंने बेचैन होकर पूछा,अब तक हृदय उन आगंतुकों के भय से ग्रस्त था..परंतु अब उधर से आश्वस्त हो गया तो पापा के लिए अंजाना सा डर फिर सताने लगा....आ जाएँगे, माँ ने लम्बी सी साँस छोड़ते हुए जवाब दिया, जैसे कितने बड़ी चिंता को साँसों के जरिए बाहर निकाल देना चाहती हों....उसी स्थिति में जैसे हम गए थे वैसे ही बाहर आए..पर हाँ माँ चाची के दरवाजे की कुंडी खोलना नहीं भूलीं, हम फिर घर में आ गए घर में घुसते हुए भी माँ थोड़ी सतर्क नजर आ रही थीं, उन्हें ऐसे चौकन्ना देख मुझे भी डर लगने लगा..कितना अजीब है न ये समय जो घर अभी कुछ देर पहले तक हमें पनाह देकर हमारे सारे दुख और डर से हमे बचा रहा था अभी वही घर एक पल में डरावना सा लगने लगा है, तेल के दिए की कमजोर सी रोशनी अभी भी घर में ज्यों की त्यों बिखरी हुई है, फिरभी ऐसा लग रहा है कि कहीं कोई छिपा हुआ बैठा न हो...धीरे-धीरे माँ भीतर के कमरे में गईं और छोटे भाई को गोद से चारपाई पर सुला दिया..बाहर आईं तो आश्वस्त दिखाई पड़ रही थीं. अब विश्वास हो गया कि घर में हमारे अलावा कोई नही है...उन्होंने बड़े भाई जो लगभग चार साढ़े चार साल का था उसे खाना खिलाया..पर मुझे तो पापा का इंतजार था मैं तो उन्हीं के साथ खाऊँगी..बेटा अब खा ले पापा देर से आएँगे आज ओवर टाइम कर रहे हैं, खबर तो भिजवा दिया था शाम को ही..माँ ने कह, तो पहले क्यों नहीं बताया, मैंने तुनक कर कहा..पहले थोड़ा परेशान थी न इसीलिए, चलो अब खाना खाओ और सो जाओ, माँ वो लोग कौन थे? ..मैंने उत्सुकता से पूछा,
पुलिस..माँ ने बताया
क्या ! ल..लेकिन..पुलिस हमारे घर क्यों आई थी ? कहीं वो लोग पापा को पकड़ कर तो नहीं ले गए? मैंने डरते हुए पूछा
नहीं नहीं ऐसा नहीं है , बेटा वो लोग पापा के ऑफिस के किसी दूसरे आदमी को ढूँढ़ रहे थे, और उस आदमी के जितने भी दोस्त और रिश्तेदार होंगे उन सभी के घर उसे ढूँढ़ेगे...माँ ने बताया
तो हम लोग क्यों छिप रहे थे? मैने मासूमियत से पूछा..
अगर हम उन्हें मिल जाते तो वो हमसे पूछते और हम नही बता पाते ते वो हमें परेशान करते. इसीलिए पापा ने कहलाया था कि हम छिप जाएँ..माँ ने मुझे समझाने की कोशिश की..अब तक भाई नीचे फर्श पर बैठा-बैठा माँ की गोद में सिर रख कर सो गया था...चलो तुम भी खाकर  सो जाओ, माँ ने कहा और मुझे खाना खिलाने लगीं | माँ छोटे-छोटे निवाले बना-बना कर मुझे खाना खिलाती रहीं और न चाहते हुए भी बार-बार उनकी नजर दरवाजे की तरफ उठ जाती, वो अभी भी बेचैन दिखाई दे रही थीं वैसे वो बहुत कोशिश कर रही थी मुझसे अपनी बेचैनी छिपाने की..मैं बहुत छोटी थी फिरभी इतनी समझदार तो थी ही कि अपनी माँ के चेहरे पर बदलती भाव-भंगिमाओं को समझ सकती थी | आज सोचती हूँ तो समझ पाती हूँ कि उस समय मेरी माँ की मनःस्थिति क्या रही होगी? जिस प्रकार हर बच्चा अपनी माँ की गोद में आकर दुनिया भर की खुशियाँ प्राप्त कर लेता है और स्वयं को सबसे बड़ा धनाड्य समझता है, जिस प्रकार एक बच्चा पिता की उँगली थाम कर स्वयं को सभी मुश्किलों सभी डर से सुरक्षित महसूस करता है उसी प्रकार एक पत्नी भी परिवार के अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में अपने पति की उपस्थिति में ही स्वयं को सुरक्षित और दृढ़ महसूस करती है | माँ ने मुझे खाना खिला कर बिस्तर पर लिटा दिया और हमारे ही पास बैठ गईं धीरे-धीरे मेरा सिर सहलाते हुए कुछ सोचने लगीं, मुझे निद्रा ने कब घेर लिया मुझे पता ही नहीं चला....
चहल-पहल की आवाज सुनकर मेरी नींद खुली, दोनों छोटा भाई रो रहा था शायद दूध के लिए क्योंकि माँ दूध उबाल रही थीं, ऐर बड़ा भाई पापा की गोद...अरे! पा..पा.. पापा मैं खुशी से उछल पड़ी, जैसे मन की मुराद पूरी हो गई हो, मेरे पापा मेरे सामने जो थे | कब आए आप, इतनी देर क्यों कर दी? पता है हम लोग कितना डर गए थे? आपको क्या, हमें भी तो अपने साथ लेकर जा सकते थे..मैं बिना रुके लगातार बोलती जा रही थी और माँ मुस्कुराती हुई चुपचाप मुझे देख रही थीं...अरे बाबा चुप होगी तब तो मैं बोलूँगा..मालूम है, माँ ने बता दिया था, मैंने मासूमियत से जवाब दिया..लेकिन पापा वो लोग दुबारा तो नहीं आएँगे? मैने पापा के बगल में बैठते हुए उनकी बाँह ऐसे मजबूती से पकड़ ली जैसे मैं कहना चाहती हूँ कि अब मैं आपको जाने नहीं दूँगी | अरे पगली डरती क्यों है आज सब ठीक हो जाएगा, पुलिस वाले ही तो थे, जिनके लिए आए थे वो आज जाकर कचहरी से जमानत ले लेंगे फिर हमारा कोई लेना-देना ही नहीं....फिर क्यों आएँगे | पर पापा उनसे कहना कि जरूर-जरूर से जमानत ले लें उनकी वजह से हम कितने परेशान हुए हैं उन्हें कहाँ पता? मैंने ऐसे जिद किया जैसे खिलौना माँग रही हूँ, क्यों न हो हर बेटी का पिता उसके लिए भगवान के जितना महत्त्व रखता है बेटी की नजर में दुनिया में ऐसा कोई कार्य नही जो उसके पिता न कर सकें..मेरे पापा भी मेरे लिए हीरो ही थे और मुझे पूर्ण विश्वास था कि वो सबकुछ कर सकने में सक्षम थे फिर जमानत क्या चीज थी, ये तो मुझ नादान की समझ में पापा के लिए दुकान से लालीपॉप खरीद कर लाने जितना आसान था |
मम्मी..मम्मी...अचानक बेटी की आवाज आई...ह..हाँ बेटा! क..कुछ कहा क्या ? मैं विचारों मे इतनी खो गई थी कि मुझे होश ही नही रहा कि मुझे नहाना भी है | विचारों में तल्लीनता के कारण मैं गर्मी और पसीने से होने वाली चिपचिपाहट भी भूल गई थी.....
आप चाय पियोगी? बेटी ने पूछा
हाँ तू चाय बना तब तक मैं फ्रेश हो जाती हूँ.....कहकर मैं बाथरूम की तरफ बढ़ गई......

शुक्रवार

क्यों......


जब से मिली मैं उस कृशकाय 
निर्बल और असहाय 
स्वयं ही अपनी आत्मा पर बोझ सम 
उस निरीह मृतप्राय काया से....
एक ही प्रश्न बार-बार 
कर रहा मेरे मस्तिष्क पर प्रहार 
क्यों???
क्यों.....
गलत सही की परिभाषाएँ
नही होतीं सभी के लिए एक समान 
क्यों फँसता है मन 
कशमकश की उलझन में...
क्यों???
अपनी हर समस्या का समाधान 
किसी से भी कभी भी नही पा लेता इंसान
क्यों ऐसा होता है???
जो किसी के लिए सही 
तो किसी के लिए गलत होता है वही
क्यों जीवन की सभी राहें 
सभी को एक ही मंजिल पर नहीं ले जातीं
क्यों कोई मार्ग सही 
तो कोई गलत हो जाता है?
क्यों??? 
एक ही गलती किसी के लिए गलती
तो किसी के लिए अभिशाप बन जाती है
क्यो???
हमारी जो समस्या हमारे लिए विकराल है
उसी पर किसी अन्य के बड़े 
साधारण से खयाल हैं 
क्यों लोग किसी की मनोदशा नहीं समझते
क्यों???
किसी की विवशता को
उसके किए न किए अपराधों का 
परिणाम मानते हैं 
क्यों??? 
सिर्फ 'मैं' सही होता है, 'तुम' या 'वह' नहीं
क्यों???
बहुधा यह 'मैं' 'हम' नहीं बन पाता
और तू-तू, मैं-मैं में जीवन निकल जाता
क्यों???
रेशमीं सौंदर्य के पीछे की कुरूपता 
नहीं नजर आती
क्यों??? 
मुस्कुराहटों के पीछे की उदासी
नही दिखाई देती
क्यों???
बाहरी आवरण में लिपटी 
मृतप्राय कृशकाय काया नहीं दिखाई देती
आखिर क्यों??? क्यों??? क्यों???

मालती मिश्रा


सोमवार

भारत की जय बोलेंगे

भारत की जय बोलेंगे
आजादी की बधाई देकर
हर व्यक्ति हर्षित होता है
हम स्वतंत्र देश के वासी हैं
यह सोचते गर्वित होता है
पर आजादी की कीमत क्या
कोई जाकर उनसे पूछे
जिसने इसको पाने के लिए
अपने लहू से धरती सींचे
होते न अगर सुखदेव भगत सिंह
तो लाखों शेर न जगते
चंद्रशेखर आजाद न होते तो 
हम कपड़े बुनते रहते
आज तिरंगा फहराने से 
पहले जरा समझ लो
आजादी के लिए चुकाई 
कीमत जरा परख लो
नहीं लजाओ आजादी के 
मस्तानों की कुर्बानी
छोड़ जाति-धर्म के झगड़े
सबकी एक हो बानी
बंद हो चुके हृदय द्वार को 
एक-दूजे के लिए खोलेंगे 
एक स्वर में मिलकर हम
अब भारत की जय बोलेंगे।।
जय हिंद.....

प्रकृति ने तिरंगा फहराया

प्राचीर को भेद कर
अश्वत्थ ऊपर उठ रहा
मानों हाथों में पकड़े भगवा ध्वज
धरणी ने भी कर्तव्य निभाया
हरियाली दे हरा रंग बिखराया
सागर क्यों कर रहता पीछे
मध्य में श्वेत पटल वो खींचे
हम मनुष्यों को पीछे छोड़
प्रकृति ने स्वतंत्रता दिवस मनाया
धरती अंबर ने मिलजुल कर
देखो अद्भुत तिरंगा फहराया 
प्रकृति ने कलियाँ और फूल बरसाया
खग-विहग ने जनगण मंगल गाया
मन देख-देख पुलकित हुआ
लो फिर स्वतंत्रता-दिवस है आया



मालती मिश्रा

गुरुवार

नई शिक्षण पद्धति में पिसता अध्यापक

नई शिक्षण पद्धति में पिसता अध्यापक
सी०बी०एस०ई० की नई शिक्षण पद्धति सी०सी०ई०पैटर्न (CCE pattern) continuous comprehensive evaluation (सतत व्यापक मूल्यांकन) सुनने और पढ़ने में बहुत ही प्रभावशाली लगता है, ऐसा लगता है कि सचमुच यह छात्रों के  बहुआयामी विकास के लिए बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण कदम है। बच्चों पर बढ़ता बस्तों का बोझ, पाठ्यक्रम का बोझ और शिक्षा की ओर उनकी अरुचि को देखते हुए ही CBSE ने यह पद्धति लागू किया। नहीं तो आए दिन बच्चे अच्छा परिणाम न आने या फेल हो जाने के डर से आत्महत्या कर लिया करते थे। निःसंदेह इस पाठ्यक्रम ने बच्चों को बहुत राहत दी है, अब उनपर उतना दबाव नहीं रहता जितना पहले होता था। परंतु सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच  आत्महत्याएँ बंद हो गई हैं? क्या सचमुच इस पद्धति से छात्रों का बहुआयामी विकास हो रहा है? या सचमुच छात्रों पर पढ़ाई का दबाव नहीं रहता?
इस पद्धति के अन्तर्गत छात्रों को वर्ष में छः बार परीक्षा देना पड़ता है जबकि पहले सिर्फ तीन बार ही होता था। पाठ्यक्रम तो वही है किंतु क्रियात्मकता दिखाने हेतु व्यस्तता और खर्च जरूर बढ़ गया है। पहले सिर्फ छात्र पढ़ते थे अब उनके माता-पिता भी उनके साथ व्यस्त होते हैं। 
CBSE के अनुसार इस प्रक्रिया के द्वारा छात्रों के भीतर की प्रतिभा को परखना और उसको निखारना है। छात्र इससे दबाव महसूस नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें फेल होने का भय नहीं तथा विभिन्न क्रियाकलापों के द्वारा अपनी प्रतिभा को सबके समक्ष ला सकेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि CCE pattern को लागू करने का ध्येय उत्तम था, परंतु क्या उद्देश्य पूर्ण हो सका? मैं समझती हूँ कि नहीं..... वजह अलग-अलग हो सकते हैं परंतु परिणाम एक ही हुआ है कि पद्धति महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सकी।
छात्रों ने शिक्षा विभाग की उदारता का गलत अर्थ निकाल लिया, आत्महत्या में कितनी कमी आई यह तो सरकार के आकड़ों पर निर्भर करते हैं, किंतु शिक्षा के स्तर में अत्यधिक गिरावट अवश्य आ गई है। अब  विद्यार्थी शिक्षा को संजीदगी से नही लेते उन्हें पता है कि फेल नहीं होंगे और न ही वो क्रियाकलापों को ही संजीदगी से करते हैं यदि हम निरीक्षण करें तो पाएँगे कि मुश्किल से ४०-५० प्रतिशत छात्र ही विद्यालय द्वारा सौंपे गए क्रियाकलापों को करते हैं जिनमें बमुश्किल १०% ही ठीक से समझ कर संजीदगी से कार्य करते हैं बाकी सिर्फ खाना पूर्ति करते हैं। विद्यार्थियों की इस उदासीनता के पीछे विद्यालयों का भी बहुत बड़ा हाथ है। CCE pattern को या तो विद्यालयों ने ही ठीक से नहीं समझा या फिर अपना नाम बनाकर बिजनेस चमकाने के लिए इस प्रणाली का गलत व आवश्यकता से अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं।
इस पद्धति के अनुसार विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास होने की संभावना ही नही पूर्ण आशा जताई गई थी परंतु आज जब हम विद्यार्थियों की गुणवत्ता का आंकलन करें तो यही दृष्टिगोचर होता है कि विद्यार्थियों में गुणवत्ता तो नहीं परंतु शिक्षा के प्रति उदासीनता और अकर्मण्यता का संचार हुआ है। आजकल छात्र पढ़ाई से भी दूर हो चुके हैं और जिन क्रियात्मकता के द्वारा उनकी प्रतिभा निखारने का प्रयास कर रहे थे छात्र उन क्रियाकलापों को पैसा खर्च करके प्रोफेशनल से करवाते हैं तो किसके गुणों का विकास हुआ???? क्योंकि क्रियाकलाप छात्रों की रुचि व प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती बल्कि सभी छात्रों को स्कूल द्वारा निर्धारित क्रियाकलाप ही करने को दिया जाता है, तो क्या अंतर आया एक जैसी किताबी शिक्षा या एक जैसे क्रियाकलाप करने में! बल्कि समय और पैसों की बर्बादी ही है।
पहले  चौथी-पाँचवी का छात्र हिंदी पढ़ना व लिखना जानता था आज आठवीं-दसवीं के छात्र को पत्र लिखना भी नहीं आता और तो और हिंदी तक ठीक से पढ़ना भी नहीं आता.... तो कौन सा विकास हुआ है?? फायदा कहाँ हुआ? आत्महत्या में कमी हुई? शायद कुछ प्रतिशत। पर मैं समझती हूँ कि यह कमीं छात्रों के भविष्य से खेले बिना लाया जा सकता था। छात्र माता-पिता के डर से या रिश्तेदारों, पड़ोसियों के समक्ष शर्मिंदगी के डर से आत्महत्या करते हैं न कि पढ़ाई के दबाव के कारण, तो निःसंदेह सुधार की आवश्यकता तो कहीं और थी और सुधार कहीं और हुआ।
खैर मैं यह नहीं कह सकती कि यह पद्धति पूरी तरह महत्वहीन साबित हुई परंतु अपने सत्रह-अट्ठारह वर्ष के अध्यापन काल के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह जरूर कह सकती हूँ कि इस प्रक्रिया ने छात्रों की शैक्षणिक योग्यता का ह्रास किया है और अध्यापक वर्ग को तेजी से शारीरिक और मानसिक रोगी बना रहा है।
जो अध्यापक पहले छात्रों की पढ़ाई, उनके लेख, उनके व्यवहार और अनुशासन पर  ध्यान देते थे वो अब रोज सुबह हाथ में दो-चार सर्कुलर लेकर कक्षा में प्रवेश करते हैं और यह विचार करते दिखाई देते हैं कि छात्रों को सर्कुलर बाँटने और उनके विषय में समझाने के पश्चाताप क्या उनके पास इतना समय बचेगा कि वह पाठ्यक्रम को उचित और विस्तृत रूप से पढ़ा सकें? फलतः जो पठन-सामग्री उन्होंने 35-40 मिनट के लिए निर्धारित की होती है उसे वह 10-15 मिनट में समाप्त करने के लिए बाध्य होते हैं क्योंकि निर्धारित पाठ्य-सामग्री को निर्धारित समय में पूरा करने के प्रधानाचार्य के निर्देश का पालन भी उतना ही आवश्यक होता है जितना कि सर्कुलर बाँटना और उसके विषय में समझाना। विद्यालयों में क्रियाकलापों पर अधिक जोर देने के कारण पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती परिणामस्वरूप लगभग सभी छात्र ट्यूशन पढ़ते हैं और फिर उनका परिश्रम भी दुगना हो जाता है तथा जो छात्र पढ़ाई को लेकर थोड़े गंभीर होते हैं वह हर विषय से संबंधित क्रियाकलापों में अति व्यस्तता के कारण थक जाते हैं और मुख्य कोर्स की ओर ध्यान नहीं दे पाते साथ ही खेलकूद से दूर होते जाते हैं जो कि उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक होता है।
इन शैक्षणिक क्रियाकलापों के कारण अध्यापक वर्ग भी अति व्यस्तता का शिकार है। यदि विद्यालय स्वयं को सबसे श्रेष्ठ दिखाने की दौड़ में शामिल हों तब तो अध्यापकों के लिए यह नौकरी सजा बनकर रह जाती है क्योंकि वहाँ पढ़ाई तो कम रिकॉर्ड बनाने और विद्यालय द्वारा स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हर छोटे-बड़े अवसर पर उससे संबंधित क्रियाकलाप बच्चों द्वारा करवाए जाते हैं। एक F.A. से दूसरे F.A के बीच कोई एक महीने का अंतराल होता है जिसमे न जाने कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रियाकलाप करवाए जाते हैं अध्यापक को कॉपी-पुस्तकें जाँचने के अलावा इन क्रियाकलापों को भी जाँचना उनका रिकॉर्ड बनाना सभी कार्य होते हैं। एक फॉर्मेटिव की उत्तर पुस्तिकाएँ चेक नहीं होती दूसरे के प्रश्न-पत्र बनने शुरू हो जाते है।
आजकल तो यह अकसर देखने को मिलता है कि अध्यापक विद्यालय के कार्य घर पर लेकर जाते हैं और परिणामस्वरूप घर-परिवार के साथ समय व्यतीत न कर पाने से पारिवारिक संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ता है और अध्यापक रोज-इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हुए मानसिक विकारों का शिकार हो रहा है।
साभार......मालती मिश्रा 

बुधवार

जाग नारी पहचान तू खुद को

नारी की अस्मिता आज
क्यों हो रही है तार-तार,
क्यों बन राक्षस नारी पर
करते प्रहार यूँ बारम्बार।
क्यों जग जननी यह नारी
जो स्वयं जगत की सिरजनहार,
दुष्ट भेड़ियों के समक्ष
क्यों पाती है खुद को लाचार।
क्यों शिकार बनती यह जग में
नराधम कुंठित मानस का,
क्यों नहीं बनकर के यह दुर्गा
करती स्वयं इनका शिकार।
जो नारी जन सकती मानव को
क्या वह इतनी शक्ति हीन है,
क्यों नही दिखाती अपना बल यह
क्यों नहीं दिखाती नरक द्वार।
सुन हे अबला अब जाग जा
पहचान तू अपने आप को,
पहचान ले अपनी शक्तियों को
त्याग दे दुख संताप को।
नहीं बिलखने से कुछ होगा
दया की आस तू अब छोड़,
उठने वाले हाथों को तू
बिन सोचे अब दे तोड़।
जो दया है तेरी कमजोरी
तू अपनी शक्ति उसे बना,
जैसे को तैसा के सिद्धांत
बिन झिझके अब तू ले अपना।
अब कृष्ण नहीं आएँगे यहाँ
तेरी चीर बढ़ाने को,
तुझे स्वयं सक्षम बनना होगा
दुशासन का रक्त बहाने को।
गिद्ध जटायू नहीं इस युग में
तेरा सम्मान बचाने को,
राम बाण तुझे ही बनना होगा
रावण की नाभि सुखाने को।
जाग हे नारी पहचान तू खुद को
तू आदि शक्ति तू लक्ष्मी है,
महिषासुरों के इस युग में
तुझमें ही महिषासुरमर्दिनी है।
सीता-सावित्री अहिल्या तुझमें 
तो दुर्गा-काली भी समाई है,
पुत्री,भार्या, भगिनी है तो
दुर्गावती लक्ष्मीबाई भी है।
मत देख राह तू कानून का
वह तो पट्टी बाँधे बैठी है,
उसकी आँखों के सामने ही 
आबरू की बलि चढ़ती है।
न्याय तुझे पाने के लिए 
अपना कानून बनना होगा,
छोड़ सहारा दूजे लोगों का
खुद सशक्त हो उठना होगा।।
मालती मिश्रा