सी०बी०एस०ई० की नई शिक्षण पद्धति सी०सी०ई०पैटर्न (CCE pattern) continuous comprehensive evaluation (सतत व्यापक मूल्यांकन) सुनने और पढ़ने में बहुत ही प्रभावशाली लगता है, ऐसा लगता है कि सचमुच यह छात्रों के बहुआयामी विकास के लिए बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण कदम है। बच्चों पर बढ़ता बस्तों का बोझ, पाठ्यक्रम का बोझ और शिक्षा की ओर उनकी अरुचि को देखते हुए ही CBSE ने यह पद्धति लागू किया। नहीं तो आए दिन बच्चे अच्छा परिणाम न आने या फेल हो जाने के डर से आत्महत्या कर लिया करते थे। निःसंदेह इस पाठ्यक्रम ने बच्चों को बहुत राहत दी है, अब उनपर उतना दबाव नहीं रहता जितना पहले होता था। परंतु सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच आत्महत्याएँ बंद हो गई हैं? क्या सचमुच इस पद्धति से छात्रों का बहुआयामी विकास हो रहा है? या सचमुच छात्रों पर पढ़ाई का दबाव नहीं रहता?
इस पद्धति के अन्तर्गत छात्रों को वर्ष में छः बार परीक्षा देना पड़ता है जबकि पहले सिर्फ तीन बार ही होता था। पाठ्यक्रम तो वही है किंतु क्रियात्मकता दिखाने हेतु व्यस्तता और खर्च जरूर बढ़ गया है। पहले सिर्फ छात्र पढ़ते थे अब उनके माता-पिता भी उनके साथ व्यस्त होते हैं।
CBSE के अनुसार इस प्रक्रिया के द्वारा छात्रों के भीतर की प्रतिभा को परखना और उसको निखारना है। छात्र इससे दबाव महसूस नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें फेल होने का भय नहीं तथा विभिन्न क्रियाकलापों के द्वारा अपनी प्रतिभा को सबके समक्ष ला सकेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि CCE pattern को लागू करने का ध्येय उत्तम था, परंतु क्या उद्देश्य पूर्ण हो सका? मैं समझती हूँ कि नहीं..... वजह अलग-अलग हो सकते हैं परंतु परिणाम एक ही हुआ है कि पद्धति महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सकी।
छात्रों ने शिक्षा विभाग की उदारता का गलत अर्थ निकाल लिया, आत्महत्या में कितनी कमी आई यह तो सरकार के आकड़ों पर निर्भर करते हैं, किंतु शिक्षा के स्तर में अत्यधिक गिरावट अवश्य आ गई है। अब विद्यार्थी शिक्षा को संजीदगी से नही लेते उन्हें पता है कि फेल नहीं होंगे और न ही वो क्रियाकलापों को ही संजीदगी से करते हैं यदि हम निरीक्षण करें तो पाएँगे कि मुश्किल से ४०-५० प्रतिशत छात्र ही विद्यालय द्वारा सौंपे गए क्रियाकलापों को करते हैं जिनमें बमुश्किल १०% ही ठीक से समझ कर संजीदगी से कार्य करते हैं बाकी सिर्फ खाना पूर्ति करते हैं। विद्यार्थियों की इस उदासीनता के पीछे विद्यालयों का भी बहुत बड़ा हाथ है। CCE pattern को या तो विद्यालयों ने ही ठीक से नहीं समझा या फिर अपना नाम बनाकर बिजनेस चमकाने के लिए इस प्रणाली का गलत व आवश्यकता से अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं।
इस पद्धति के अनुसार विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास होने की संभावना ही नही पूर्ण आशा जताई गई थी परंतु आज जब हम विद्यार्थियों की गुणवत्ता का आंकलन करें तो यही दृष्टिगोचर होता है कि विद्यार्थियों में गुणवत्ता तो नहीं परंतु शिक्षा के प्रति उदासीनता और अकर्मण्यता का संचार हुआ है। आजकल छात्र पढ़ाई से भी दूर हो चुके हैं और जिन क्रियात्मकता के द्वारा उनकी प्रतिभा निखारने का प्रयास कर रहे थे छात्र उन क्रियाकलापों को पैसा खर्च करके प्रोफेशनल से करवाते हैं तो किसके गुणों का विकास हुआ???? क्योंकि क्रियाकलाप छात्रों की रुचि व प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती बल्कि सभी छात्रों को स्कूल द्वारा निर्धारित क्रियाकलाप ही करने को दिया जाता है, तो क्या अंतर आया एक जैसी किताबी शिक्षा या एक जैसे क्रियाकलाप करने में! बल्कि समय और पैसों की बर्बादी ही है।
पहले चौथी-पाँचवी का छात्र हिंदी पढ़ना व लिखना जानता था आज आठवीं-दसवीं के छात्र को पत्र लिखना भी नहीं आता और तो और हिंदी तक ठीक से पढ़ना भी नहीं आता.... तो कौन सा विकास हुआ है?? फायदा कहाँ हुआ? आत्महत्या में कमी हुई? शायद कुछ प्रतिशत। पर मैं समझती हूँ कि यह कमीं छात्रों के भविष्य से खेले बिना लाया जा सकता था। छात्र माता-पिता के डर से या रिश्तेदारों, पड़ोसियों के समक्ष शर्मिंदगी के डर से आत्महत्या करते हैं न कि पढ़ाई के दबाव के कारण, तो निःसंदेह सुधार की आवश्यकता तो कहीं और थी और सुधार कहीं और हुआ।
खैर मैं यह नहीं कह सकती कि यह पद्धति पूरी तरह महत्वहीन साबित हुई परंतु अपने सत्रह-अट्ठारह वर्ष के अध्यापन काल के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह जरूर कह सकती हूँ कि इस प्रक्रिया ने छात्रों की शैक्षणिक योग्यता का ह्रास किया है और अध्यापक वर्ग को तेजी से शारीरिक और मानसिक रोगी बना रहा है।
जो अध्यापक पहले छात्रों की पढ़ाई, उनके लेख, उनके व्यवहार और अनुशासन पर ध्यान देते थे वो अब रोज सुबह हाथ में दो-चार सर्कुलर लेकर कक्षा में प्रवेश करते हैं और यह विचार करते दिखाई देते हैं कि छात्रों को सर्कुलर बाँटने और उनके विषय में समझाने के पश्चाताप क्या उनके पास इतना समय बचेगा कि वह पाठ्यक्रम को उचित और विस्तृत रूप से पढ़ा सकें? फलतः जो पठन-सामग्री उन्होंने 35-40 मिनट के लिए निर्धारित की होती है उसे वह 10-15 मिनट में समाप्त करने के लिए बाध्य होते हैं क्योंकि निर्धारित पाठ्य-सामग्री को निर्धारित समय में पूरा करने के प्रधानाचार्य के निर्देश का पालन भी उतना ही आवश्यक होता है जितना कि सर्कुलर बाँटना और उसके विषय में समझाना। विद्यालयों में क्रियाकलापों पर अधिक जोर देने के कारण पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती परिणामस्वरूप लगभग सभी छात्र ट्यूशन पढ़ते हैं और फिर उनका परिश्रम भी दुगना हो जाता है तथा जो छात्र पढ़ाई को लेकर थोड़े गंभीर होते हैं वह हर विषय से संबंधित क्रियाकलापों में अति व्यस्तता के कारण थक जाते हैं और मुख्य कोर्स की ओर ध्यान नहीं दे पाते साथ ही खेलकूद से दूर होते जाते हैं जो कि उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक होता है।
इन शैक्षणिक क्रियाकलापों के कारण अध्यापक वर्ग भी अति व्यस्तता का शिकार है। यदि विद्यालय स्वयं को सबसे श्रेष्ठ दिखाने की दौड़ में शामिल हों तब तो अध्यापकों के लिए यह नौकरी सजा बनकर रह जाती है क्योंकि वहाँ पढ़ाई तो कम रिकॉर्ड बनाने और विद्यालय द्वारा स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हर छोटे-बड़े अवसर पर उससे संबंधित क्रियाकलाप बच्चों द्वारा करवाए जाते हैं। एक F.A. से दूसरे F.A के बीच कोई एक महीने का अंतराल होता है जिसमे न जाने कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रियाकलाप करवाए जाते हैं अध्यापक को कॉपी-पुस्तकें जाँचने के अलावा इन क्रियाकलापों को भी जाँचना उनका रिकॉर्ड बनाना सभी कार्य होते हैं। एक फॉर्मेटिव की उत्तर पुस्तिकाएँ चेक नहीं होती दूसरे के प्रश्न-पत्र बनने शुरू हो जाते है।
आजकल तो यह अकसर देखने को मिलता है कि अध्यापक विद्यालय के कार्य घर पर लेकर जाते हैं और परिणामस्वरूप घर-परिवार के साथ समय व्यतीत न कर पाने से पारिवारिक संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ता है और अध्यापक रोज-इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हुए मानसिक विकारों का शिकार हो रहा है।
साभार......मालती मिश्रा
इस पद्धति के अन्तर्गत छात्रों को वर्ष में छः बार परीक्षा देना पड़ता है जबकि पहले सिर्फ तीन बार ही होता था। पाठ्यक्रम तो वही है किंतु क्रियात्मकता दिखाने हेतु व्यस्तता और खर्च जरूर बढ़ गया है। पहले सिर्फ छात्र पढ़ते थे अब उनके माता-पिता भी उनके साथ व्यस्त होते हैं।
CBSE के अनुसार इस प्रक्रिया के द्वारा छात्रों के भीतर की प्रतिभा को परखना और उसको निखारना है। छात्र इससे दबाव महसूस नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें फेल होने का भय नहीं तथा विभिन्न क्रियाकलापों के द्वारा अपनी प्रतिभा को सबके समक्ष ला सकेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि CCE pattern को लागू करने का ध्येय उत्तम था, परंतु क्या उद्देश्य पूर्ण हो सका? मैं समझती हूँ कि नहीं..... वजह अलग-अलग हो सकते हैं परंतु परिणाम एक ही हुआ है कि पद्धति महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सकी।
छात्रों ने शिक्षा विभाग की उदारता का गलत अर्थ निकाल लिया, आत्महत्या में कितनी कमी आई यह तो सरकार के आकड़ों पर निर्भर करते हैं, किंतु शिक्षा के स्तर में अत्यधिक गिरावट अवश्य आ गई है। अब विद्यार्थी शिक्षा को संजीदगी से नही लेते उन्हें पता है कि फेल नहीं होंगे और न ही वो क्रियाकलापों को ही संजीदगी से करते हैं यदि हम निरीक्षण करें तो पाएँगे कि मुश्किल से ४०-५० प्रतिशत छात्र ही विद्यालय द्वारा सौंपे गए क्रियाकलापों को करते हैं जिनमें बमुश्किल १०% ही ठीक से समझ कर संजीदगी से कार्य करते हैं बाकी सिर्फ खाना पूर्ति करते हैं। विद्यार्थियों की इस उदासीनता के पीछे विद्यालयों का भी बहुत बड़ा हाथ है। CCE pattern को या तो विद्यालयों ने ही ठीक से नहीं समझा या फिर अपना नाम बनाकर बिजनेस चमकाने के लिए इस प्रणाली का गलत व आवश्यकता से अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं।
इस पद्धति के अनुसार विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास होने की संभावना ही नही पूर्ण आशा जताई गई थी परंतु आज जब हम विद्यार्थियों की गुणवत्ता का आंकलन करें तो यही दृष्टिगोचर होता है कि विद्यार्थियों में गुणवत्ता तो नहीं परंतु शिक्षा के प्रति उदासीनता और अकर्मण्यता का संचार हुआ है। आजकल छात्र पढ़ाई से भी दूर हो चुके हैं और जिन क्रियात्मकता के द्वारा उनकी प्रतिभा निखारने का प्रयास कर रहे थे छात्र उन क्रियाकलापों को पैसा खर्च करके प्रोफेशनल से करवाते हैं तो किसके गुणों का विकास हुआ???? क्योंकि क्रियाकलाप छात्रों की रुचि व प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती बल्कि सभी छात्रों को स्कूल द्वारा निर्धारित क्रियाकलाप ही करने को दिया जाता है, तो क्या अंतर आया एक जैसी किताबी शिक्षा या एक जैसे क्रियाकलाप करने में! बल्कि समय और पैसों की बर्बादी ही है।
पहले चौथी-पाँचवी का छात्र हिंदी पढ़ना व लिखना जानता था आज आठवीं-दसवीं के छात्र को पत्र लिखना भी नहीं आता और तो और हिंदी तक ठीक से पढ़ना भी नहीं आता.... तो कौन सा विकास हुआ है?? फायदा कहाँ हुआ? आत्महत्या में कमी हुई? शायद कुछ प्रतिशत। पर मैं समझती हूँ कि यह कमीं छात्रों के भविष्य से खेले बिना लाया जा सकता था। छात्र माता-पिता के डर से या रिश्तेदारों, पड़ोसियों के समक्ष शर्मिंदगी के डर से आत्महत्या करते हैं न कि पढ़ाई के दबाव के कारण, तो निःसंदेह सुधार की आवश्यकता तो कहीं और थी और सुधार कहीं और हुआ।
खैर मैं यह नहीं कह सकती कि यह पद्धति पूरी तरह महत्वहीन साबित हुई परंतु अपने सत्रह-अट्ठारह वर्ष के अध्यापन काल के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह जरूर कह सकती हूँ कि इस प्रक्रिया ने छात्रों की शैक्षणिक योग्यता का ह्रास किया है और अध्यापक वर्ग को तेजी से शारीरिक और मानसिक रोगी बना रहा है।
जो अध्यापक पहले छात्रों की पढ़ाई, उनके लेख, उनके व्यवहार और अनुशासन पर ध्यान देते थे वो अब रोज सुबह हाथ में दो-चार सर्कुलर लेकर कक्षा में प्रवेश करते हैं और यह विचार करते दिखाई देते हैं कि छात्रों को सर्कुलर बाँटने और उनके विषय में समझाने के पश्चाताप क्या उनके पास इतना समय बचेगा कि वह पाठ्यक्रम को उचित और विस्तृत रूप से पढ़ा सकें? फलतः जो पठन-सामग्री उन्होंने 35-40 मिनट के लिए निर्धारित की होती है उसे वह 10-15 मिनट में समाप्त करने के लिए बाध्य होते हैं क्योंकि निर्धारित पाठ्य-सामग्री को निर्धारित समय में पूरा करने के प्रधानाचार्य के निर्देश का पालन भी उतना ही आवश्यक होता है जितना कि सर्कुलर बाँटना और उसके विषय में समझाना। विद्यालयों में क्रियाकलापों पर अधिक जोर देने के कारण पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती परिणामस्वरूप लगभग सभी छात्र ट्यूशन पढ़ते हैं और फिर उनका परिश्रम भी दुगना हो जाता है तथा जो छात्र पढ़ाई को लेकर थोड़े गंभीर होते हैं वह हर विषय से संबंधित क्रियाकलापों में अति व्यस्तता के कारण थक जाते हैं और मुख्य कोर्स की ओर ध्यान नहीं दे पाते साथ ही खेलकूद से दूर होते जाते हैं जो कि उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अति आवश्यक होता है।
इन शैक्षणिक क्रियाकलापों के कारण अध्यापक वर्ग भी अति व्यस्तता का शिकार है। यदि विद्यालय स्वयं को सबसे श्रेष्ठ दिखाने की दौड़ में शामिल हों तब तो अध्यापकों के लिए यह नौकरी सजा बनकर रह जाती है क्योंकि वहाँ पढ़ाई तो कम रिकॉर्ड बनाने और विद्यालय द्वारा स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हर छोटे-बड़े अवसर पर उससे संबंधित क्रियाकलाप बच्चों द्वारा करवाए जाते हैं। एक F.A. से दूसरे F.A के बीच कोई एक महीने का अंतराल होता है जिसमे न जाने कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रियाकलाप करवाए जाते हैं अध्यापक को कॉपी-पुस्तकें जाँचने के अलावा इन क्रियाकलापों को भी जाँचना उनका रिकॉर्ड बनाना सभी कार्य होते हैं। एक फॉर्मेटिव की उत्तर पुस्तिकाएँ चेक नहीं होती दूसरे के प्रश्न-पत्र बनने शुरू हो जाते है।
आजकल तो यह अकसर देखने को मिलता है कि अध्यापक विद्यालय के कार्य घर पर लेकर जाते हैं और परिणामस्वरूप घर-परिवार के साथ समय व्यतीत न कर पाने से पारिवारिक संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ता है और अध्यापक रोज-इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हुए मानसिक विकारों का शिकार हो रहा है।
साभार......मालती मिश्रा
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