गुरुवार

संस्मरण

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यादों के पटल से 'मेरी दादी'
आज की विधा है संस्मरण यह जानकर मेरे मानसपटल पर सर्वप्रथम जो पहली और प्रभावशाली छवि अंकित हुई वो मेरी दादी जी की है। मैं अपनी दादी के साथ हमेशा नहीं रहती थी, क्योंकि मेरे बाबूजी की सरकारी नौकरी थी और इसीलिए हमारा पूरा परिवार यानि मैं और मेरे तीनों छोटे भाई माँ-बाबूजी कानपुर में रहते थे। दो चाचा-चाची, उनके बच्चे, बाबू जी के चाचा-चाची तथा उनके बच्चे, एक पूरा भरा-पूरा कुनबा था हमारा फिर भी एक दादी ही तो थीं जिनसे मैं सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करती थी, जब स्कूल की गर्मियों की छुट्टियाँ होतीं तो हम सभी गाँव जाने के लिए इतने उतावले होते थे कि एक-एक दिन काटना मुश्किल होता था। रोज पापा से पूछते कि आपको छुट्टी कब मिलेगी? चाचा के लड़कों के लिए खिलौने, पापा के चचेरे भाई यानी मेरे चाचा जो लगभग मेरी ही उम्र के थे उनके लिए मैं अपनी किताबें ले जाती और हम कंचे भी इकट्ठा करके रखते थे कि गाँव में खेलेंगे, जो भी हमारे छोटे-मोटे खिलौने होते, उन्हें भी सहेज कर रख लेते....कुछ ऐसी ही होती थी हम बच्चों के गाँव जाने की तैयारी, हमें मतलब नहीं होता था कि माँ-पापा क्या लेकर जा रहे हैं क्या नहीं, ये तो हमारी व्यक्तिगत तैयारी होती थी।

गाँव पहुँचने पर गाँव के बाहर ही दादी खड़ी मिलतीं, दुबली-पतली, छरहरी सी काया, कोई साढ़े चार-पौने पाँच फिट लंबी, अभी-अभी नहाकर आई होती थीं तो गीले खुले हुए बाल साफ-सुथरी धुली हुई सूती धोती पहने, सिर पर पल्ला डाले, उम्र के शायद चौथे पड़ाव में प्रवेश कर चुकने के बाद भी चेहरे पर झुर्रियों के बाद भी गोरा रंग इस प्रकार दमक रहा होता मानो पवित्रता की प्रतिमूर्ति समक्ष खड़ी हों। उनकी इसी सुंदरता के कारण ही शायद उनके माता-पिता ने उनका नाम 'कोइली' अर्थात् काया के बिल्कुल विपरीत 'कोयला', रखा था, ताकि उन्हें किसी की नज़र न लगे। उनके हाथों में पीतल के चमकते हुए लोटे में जल होता, वो पहले जल भरे लोटे को हमारे सिर से पैर तक वारती फिर उस जल को एक तरफ किसी देवी या देवता को डाल देतीं तब कहीं हमें गाँव में प्रवेश की अनुमति देतीं। घर पहुँच कर सब अपने अपने अनुसार काम, खेल, रिश्तेदारी के निर्वाह आदि में व्यस्त हो जाते थे और मैं व्यस्त हो जाती थी दादी के साथ....

दादी वैसे तो अपने सभी पोतों को भी प्यार करती थी परंतु उनका लगाव मुझसे कुछ विशेष ही था...सर्दियों मे जब गुड़ बनाया जाता तो वो मेरे लिए सोंठ और मेवे डालकर बनवाया हुआ सोंठौरा (गुड़) बचा कर गर्मियों की छुट्टी तक रखती थीं, पका हुआ सीताफल एक जरूर बचाकर रखतीं ताकि जब हम छुट्टियों में आएँ तो वो हलवा बनाकर मुझे खिला सकें, इतना ही नहीं वो हर जगह मुझे अपने साथ ले जातीं और मैं भी..
जहाँ दादी वहीं मैं, दादी खेतों में जातीं तो मैं भी साथ जाती, वो बगीचे में जातीं तो भी मुझे ले जातीं और तो और वो दूसरे गाँव में, जो कम से कम डेढ़-दो किलोमीटर होगा वहाँ गेहूँ पिसवाने जातीं तो भी मैं उनके साथ होती, किसी के घर, किसी की खुशी में, किसी के गम में, पूजा-पाठ में..कहीं भी कभी भी वो अकेली नहीं जाती थीं, और यदि जाना भी चाहतीं तो मैं नहीं जाने देती..यहाँ तक कि रात को भी मैं माँ के पास नहीं सोती थी। हम जब तक गाँव में रहते मैं दादी के पास ही सोती थी, हम कभी छत पर सोते तो दूर किसी गाँव मे एक बल्ब जलता दिखाई देता था, मैंने एक बार दादी से पूछा था कि वहाँ पर लाइट कैसे जलती है, जबकि हमारे गाँव में तो नही है। दादी ने इस प्रश्न का क्या जवाब दिया मुझे याद नहीं पर एक बात जो उन्होंने बताई थी वो मुझे आज भी याद है कि बिजली वहाँ भी हर घर में नही जलती, जो बल्ब हमें दिखाई देता है वो आटा-चक्की पर जलने वाला बल्ब था....कुछ ऐसी ही बातें होती रहती थीं मेरे और दादी के बीच और वो रोज एक नई कहानी सुनाते हुए धीरे-धीरे मेरे बालों में हाथ फेरती रहतीं और मैं कहानी सुनते हुए कब स्वप्नलोक की सैर पर निकल जाती मुझे पता ही नहीं चलता। मेरे बालों में उनकी उँगलियों का वो कोमल स्पर्श मुझे आज भी महसूस होता है....

गाँव में कहाँ नदी है, कहाँ तालाब है हमारे कितने खेत हैं और कहाँ-कहाँ हैं, ये मुझे दादी के ही कारण पता चला....
मेरे पापा जी तीन भाई हैं और पूरे परिवार में मैं अकेली लड़की, शायद ये वजह भी रही हो मेरी दादी के प्यार की। जो भी मुझपर कोई टिप्पणी करता उसका पहला सवाल यही होता था कि "मैं कानपुर में दादी के बिना कैसे रहती हूँगी".....
खैर छुट्टियाँ खत्म होतीं दादी हमें नम आँखों से गाँव के बाहर काफी दूर तक छोड़ने आतीं और जाते हुए मैं बार-बार मुड़-मुड़ कर उन्हें तब तक देखती रहती जब तक दूर और दूर होते हुए वो मात्र एक छोटी सी परछाई में तब्दील नहीं हो जातीं और फिर दादी की परछाई अपने साथ आई अन्य दूसरी परछाइयों के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती।

हर साल गर्मियाँ आतीं, स्कूल की छुट्टियाँ होतीं और फिर यही सिलसिला....मैं कुछ नौ-दस साल की हूँगी जब मंझले चाचा की जिद पर मेरे पापा और दोनों चाचा के बीच बँटवारा हुआ था। तब दादी को कितना दुख हुआ था मैं खुद इसकी साक्षी हूँ; दादी अपनी हमराज, हमदर्द मान अपनी किसी सखी के घर जातीं तो मैं भी उनके साथ होती थी। वो उनसे घर की तनावपूर्ण स्थिति के बारे में बातें करते-करते रो पड़ती थीं, भले ही दादी की बातें उस समय मेरी समझ से परे थीं परंतु उनकी आँखों से बहते आँसू मुझे भी रुला देते थे, मैं दादी की बाँह पकड़े उनसे ऐसे चिपक कर बैठ जाती मानो मुझे भय हो कि दादी मुझे छोड़कर कहीं चली न जाएँ...मुझे रोती देख सभी यही कहते कि पूरे घर में सिर्फ इसे ही तुम्हारी चिंता है, तब दादी कहतीं कि "मैं उनकी जान हूँ उनकी तकलीफ़ मुझे स्वतः महसूस हो जाती है।"
बचपन से लेकर मेरी शादी और उसके बाद भी मेरी दादी से मेरा लगाव कम नहीं हुआ परंतु कभी-कभी नियति के क्रूर चक्र में फँसकर घनिष्ट आत्मीयता पर भी समय और दूरी की गर्त जम जाया करती है। मेरी दादी बहुत वृद्धा हो चुकी थीं और एक दिन नीले आसमान में चमकते तारों में उन्होंने भी अपना स्थान बना लिया और मेरा दुर्भाग्य यह रहा कि मेरे सिर में स्नेह से सहलाने वाली उँगलियाँ कब मुझसे छूट गईं पता ही न चला....मेरी दादी सदा के लिए मुझे छोड़ गईं....किंन्तु उनकी उँगलियों के कोमल स्पर्श का अहसास दुखद समाचार के साथ मुझसे दो महीने बाद दूर हुआ।
गाँव पहुँचने पर लोटे के जल से नजर उतार कर स्वागत करने की परंपरा तो अबसे सालों पहले समाप्त हो चुकी है पर अब तो स्वागत करती हुई वो नजरें भी नहीं रहीं जिनमें मेरे लिए आशीर्वाद और हमेशा कुछ नया बनवाकर खिलाने की इच्छा नजर आती....
मालती मिश्रा, दिल्ली 

बुधवार

लेखनी स्तब्ध है

लेखनी स्तब्ध है
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है

गहन समंदर भावों का
जिसका न कोई छोर है,
डूबते-उतराते हैं शब्द
ठहराव पर न जोर है।
समझ समापन चिंतन का
पकड़ी तूलिका हाथ ज्यों,
त्यों शब्द मुझे भरमाने लगे
लगता न ये आरंभ है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है।

भावों का आवागमन
दिग्भ्रमित करने लगा
शब्दों के मायाजाल में
सहज मन उलझने लगा।
बढ़ गईं खामोशियाँ
जो अंतर को उकसाने लगीं,
निःशब्द शोर मेरे हृदय के
ये नहीं प्रारब्ध है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है।

चाहतों के पंख पे
उड़ता चला मेरा भी मन,
आसमाँ से तोड़ शब्द
भर लूँगी मैं खाली दामन।
शब्द बिखरने लगे
रसनाई सूखने लगी,
देखकर ये गत मेरी
मेरा दिल शोक संतप्त है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है।

जीवन के अनोखे अनुभव
कुछ मधुर तो कसैले कई
भाव इक-इक हृदय घट में
पल-पल मैंने समेटे कई
वो भाव अकुलाने लगे
बेचैनी दर्शाने लगे
बयाँ करूँ कैसे उन्हें मैं
जो हृदय में अब तक ज़ब्त हैं
लेखनी स्तब्ध है
मिलता व कोई शब्द है........
मालती मिश्रा

चौपाई

चौपाई
'चौपाई'

सिद्ध करने अपनी प्रभुताई,
मानव ने हर विधि अपनाई।
स्वर्ण चमक में प्रकृति को भूला,
नष्ट किया वन संपदा समूला।

सूर्यदेव ने रूप दिखाया,
किरणों से शोले बरसाया।
धारण किया रूप विकराला,
उठती लपटें अधिक विशाला।

नाना विधि सब कर कर हारे,
त्राहि-त्राहि सब मनुज पुकारे।
स्वहित में जिसे खूब चलाई,
भयवश वो बुद्धि काम न आई।।
#मालतीमिश्रा

मंगलवार

शोध भी है शोध का विषय

शोध भी है शोध का विषय
जब भी नारी-विमर्श की बात आती है तो हमारे पास एक ही काम रह जाता है कि जानी-मानी साहित्यकारों की कृतियाँ जैसे उपन्यास आदि के द्वारा उनके विचारों को पढ़ें और ऐसे ही कुछ जाने-माने साहित्यकारों के कुछ वक्तव्यों को उठाएँ और उन पर अपनी राय रखते हुए एक बड़ा और आकर्षक लेख तैयार कर दें। हो गया नारी विमर्श।
आज कितने लेखक/लेखिका ऐसे हैं जो विभिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों के पास जाकर उनसे उनके कार्यक्षेत्र के बारे में, उनकी समस्याओं के बारे में, उनकी पहले और आज की स्थिति में अंतर, उनके विचार आदि जानने के बाद इस विषय पर कोई लेख तैयार करते हैं?
शायद ही कोई या बहुत कम। क्योंकि हमें तो पका-पकाया खाने की आदत पड़ गई है, आज महिला की दशा और दिशा के विषय में कुछ लिखने को कहा जाए तो उठाकर महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, सुभद्राकुमारी, मन्नू भंडारी, मृणाल पांडेय, अनामिका, मैत्रेयी पुष्पा जैसे अन्य लेखिकाओं के विचारों को उदाहरण के रूप में अपने विचारों के साथ परोस दिया जाता है।

खुद की खोज कहाँ है? कहाँ से खोज की? पुस्तकों से? वाह शब्दों की जादूगरी आ जानी चाहिए फिर तो ए०सी० रूम में बैठकर सारा शोध पूरा हो जाता है। एक दस बाई दस के कमरे में बैठै-बैठे पूरे देश के सभी क्षेत्रों की रीतियों-रूढ़ियों तथा उनकी शिकार महिलाओं के विषय में जाना जा सकता है और फिर शब्दों की जादूगरी दिखाकर शोध तैयार कर लेने में समय ही कितना लगता है। ऐसा नहीं है कि इसमें समय नहीं लगता, पुस्तकें तो पढ़नी ही पड़ती हैं और वो भी कई-कई और फिर उसमें से चुनिंदा भागों का प्रयोग करते हुए अपने शब्दों में खूबसूरती से परोसना। सचमुच क्या यही है नारी विमर्श? क्या सिर्फ पुस्तकों से ही, वो भी आज से दशकों पहले लिखी गई हैं, हमें वर्तमान में नारी की दशा और दिशा का बोध हो जाता है? या फिर यह भी एक शोध का विषय है।
#मालतीमिश्रा

रविवार

आखिरी इम्तिहान

आखिरी इम्तिहान
आखिरी इम्तिहान
आज आखिरी पेपर है सुधि की खुशी का कोई ठिकाना न था, वह जल्दी-जल्दी विद्यालय की ओर कदम बढ़ा रही थी। बस भगवान मेरे बाकी सभी विषयों की तरह आज का पेपर भी अच्छा हो जाए तो मैं इस नरक से मुक्ति पा जाऊँगी, मैं फिर कभी इधर पलट कर भी नहीं देखूँगी, सोचती हुई सुधि तेज-तेज कदमों से चली जा रही थी उसे इतना भी ध्यान न रहा कि वह अपनी सबसे प्यारी सहेली रागिनी को उसके कमरे के पीछ की खिड़की से आवाज देना भी भूल गई और उसका कमरा पार करते हुए घर के आगे की ओर आकर भी बेसुध सी पगडंडी पर बढ़ती जा रही थी तभी पीछे से भागती हुई रागिनी ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया..."बहरी हो गई है क्या? कब से पीछे से आवाज दिए जा रही हूँ पर सुनती ही नहीं, और आज बुलाया भी नहीं, वो तो अच्छा हुआ कि मामी ने देख लिया और मुझे बता दिया कि तुम्हारी सहेली तो आगे निकल गई।" रागिनी हाँफती हुई एक ही साँस में बोल गई। इधर रागिनी के हाथ पकड़ते ही जैसे सुधि को होश आ गया, "ओह! सचमुच मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा।" वह सचेत होते हुए बोली।
"कहाँ खोई थी तू?" रागिनी ने पूछा।
"कुछ नहीं बस यही सोच रही थी कि आज हम लोगों के साथ का आखिरी दिन है, फिर पता नहीं कभी मिल भी पाएँगे या नहीं!" सुधि ने उदास होकर कहा।
"तो क्या सचमुच तू यहाँ फिर कभी नहीं आएगी? रागिनी भी उदास हो गई।
"हाँ यार देख सिर्फ तुझे बताया है, किसी और से नहीं बताया, प्लीज किसी से मत कहना अभी।" सुधि लगभग गिड़गिड़ा पड़ी।
"चुप पागल, मैं क्यों बताऊँगी? मैं भी तो चाहती हूँ तू यहाँ इन लोगों से छुटकारा पा ले, मैं भी तो अगले हफ्ते अपने घर चली जाऊँगी, मामा जाएँगे मुझे छोड़ने, फिर हम दोनों चिट्ठी लिखकर बातें किया करेंगे।" जैसे सुधि के साथ-साथ खुद को भी तसल्ली दे रही थी।
बातें करते-करते दोनों विद्यालय पहुँच गईं और अनुक्रमांक के अनुसार अपनी-अपनी कक्षाओं में जाकर बैठ गईं । सुधि फिर खयालों में खोने लगी, दो साल हो गए उसे जब वह दुल्हन बनकर यहाँ आई थी, विवाह तो उसका बचपन में ही जब वह नौ वर्ष की थी तभी हो गया था पर गौना अब हुआ था। वह ससुराल न आकर आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन बाबा ने तो मानों दसवीं तक पढ़ाकर जिम्मेदारी पूरी कर दी थी। अब उसकी विदाई करवाकर मानो गंगा नहा लिए। पर सरस्वती का वरदान अभी पूरा नहीं हुआ था इसीलिए उसके प्राइमरी विद्यालय के प्रधानाचार्य ससुर ने उसके आगे पढ़ने की इच्छा जानकर उसका ग्यारहवीं में एडमिशन करवा दिया। यही एक काम उन्होंने महान किया था। बाकी तो सुधि के खाने, पहनने, पुस्तक आदि का खर्च तो उसके बाबा ही उठा रहे थे। और तो और उसके ससुर का अपने बेटे की ऐय्याशियों पर भी नियंत्रण नहीं था, रोज-रोज शराब पीकर आना, जुआ खेलते हुए रात-रात भर बाहर रहना और मना करने पर उससे गाली-गलौज़ और मारपीट करना यही मानो उसकी नियति बन गई थी। वह बारहवीं तीसरे दर्जे से पास था तो सुधि का पढ़ना भी उसे अखरने लगा था, पत्नी उसके बराबर पढ़ जाएगी तो उसकी बराबरी करेगी, उसकी इज्जत नहीं करेगी यह बात उसके शराबी दोस्तों ने बखूबी उसके दिमाग में बैठा दी थी।  रोज-रोज के इस ड्रामे ने उसके मन में यहाँ के प्रति घृणा भर दी थी, इसीलिए उसने माँ से कह दिया था कि परीक्षा खत्म होते ही भाई को भेज दें उसे लिवाने और अब वह आगे की पढ़ाई भी बाबा के साथ शहर में रहकर करेगी। तभी निरीक्षक महोदय ने उत्तर-पुस्तिका उसकी बेंच पर रखी और उसकी तंद्रा भंग हो गई।
परीक्षा खत्म हुआ विद्यालय में चारों ओर मानो सभी परीक्षा के दबाव से मुक्त होकर चैन की साँस ले रहे थे, वहीं कुछ चेहरे उदास भी थे साथियों से बिछड़ने का दुख उनके चेहरों पर पसरा हुआ था। सुधि भी आज अपनी सभी सहेलियों से हमेशा के लिए अलग हो जाएगी इसीलिए सारी सहेलियाँ मिलकर विद्यालय के पास ही रहने वाली उनकी सहेली संगीता के घर चल पड़ीं ताकि आखिर के एक-दो घंटे और साथ में बिता लें। विद्यालय से निकलकर अभी कोई सौ-सवा सौ मीटर ही आगे आई होंगी कि सुधि ठिठक गई, "क्या हुआ, रुक क्यों गई?" संगीता ने पूछा।
"मेरा भाई आ गया।" सुधी को तो मानो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। "अब हमारा साथ यहीं तक था सखियों, बस पत्र लिखते रहना।" अपनी जगह पर खड़ी-खड़ी सुधि बोली, उसकी आँखें छलक पड़ीं भाई के आने की खुशी में या सखियों से जुदाई के गम में वह समझ न सकी। कुछ पल पहले चहकती सभी आँखें बरस पड़ीं।
#मालतीमिश्रा

शनिवार

एक रात की मेहमान

एक रात की मेहमान

जेठ की दुपहरी थी बाहर ऐसी तेज और चमकदार धूप थी मानों अंगारे बरस रहे हों ऐसे में यदि बाहर निकल जाएँ तो ऐसा लगता मानो किसी ने शरीर पर जलते अंगारे रख दिए, घर के भीतर भी उबाल देने वाली गर्मी थी, अम्मा, दादी, छोटी दादी और मंझली काकी सब हमारे ही बरामदे और गैलरी में बैठे थे क्योंकि गैलरी दोनों ओर से खुली होने के कारण अगर पत्ता भी हिलता तो गैलरी में हवा आती थी, बाबूजी और छोटे काका बरामदे से उतरकर जो आम का छोटा सा पेड़ था उसी की छाँव में चारपाई पर बैठे बतिया रहे थे। मैं और मेरे तीनों छोटे भाई अम्मा के डर से सोने की कोशिश कर रहे थे, कितनी भी गर्मी हो हम तो खेल-खेल में सब भूल जाते थे पर घर के बड़े हम बच्चों की भावनाओं को समझे बिना ही जबरदस्ती 'लू लग जाएगी' कहकर सुला देते, कितना कहा था अम्मा से कि धूप में नहीं खेलेंगे, काका की घारी में खेल लेंगे पर वो भला कहाँ मानने वाली थीं, डाँट-डपट कर सुला दिया। बीच-बीच में भाई कोहनी मारता अम्मा सो गईं?
"चुप, वो बैठी हैं।" कहकर मैं आँखें मूंदकर सोने का उपक्रम करती। तभी बाहर से बातों की आवाजें पहले की अपेक्षा कुछ तेज हो गईं, बाबूजी की आवाज़ आ रही थी। शायद कोई मेहमान आया है, अम्मा बाबूजी और दादी की मिली-जुली आवाजें सुनकर मैंने अंदाजा लगाया। फिर क्या था मैं भूल गई अम्मा की डाँट और उठकर बरामदे में आ गई तो देखा एक महिला.. नहीं लड़की सिर झुकाए बैठी है, उसके गाल आँसुओं और पसीने से भीगे हुए हैं और हमारे घर की सभी स्त्रियाँ उसे घेरकर बैठी हैं, मंझली काकी पंखा झल रही थीं। बाबूजी बोले-"हमने तो जब ये छोटी थी तब देखा था इसीलिए पहचाने नहीं,  हमें लगा इतनी दुपहरी में कौन आ सकता है भला, वो भी ऐसी हालत में!" 'ऐसी हालत में!' मेरा माथा ठनका तो मैंने फिर एक नजर उस लड़की पर डाली, वह गर्भवती थी। मैं इतनी बड़ी नहीं थी कि गर्भावस्था की समस्याओं को समझ पाती लेकिन अगर बाबूजी ऐसा बोल रहे हैं तो निस्संदेह परेशानी की बात होगी।
"पता नहीं कितने पत्थर दिल हैं निगोड़े जो जरा भी दया नहीं आई ऐसी हालत में भी।" कहते हुए मंझली काकी मानो रो ही पड़ीं। छोटी काकी भी आ गई थीं उस आगंतुक के लिए लोटे में पानी और दउरी (मूंज और कुश की बनी प्लेट के आकार की छोटी टोकरी) में गुड़ की दो-चार डली रखकर लाईं। "लो पानी पी लो और रोओ नहीं अब, ये भी तुम्हारा ही घर है।" अम्मा बोलीं।
मैं चुपचाप बैठी सबकी बातें सुनकर माजरा समझने का प्रयास कर रही थी। कुछ देर के बाद जो कुछ मैंने समझा वो ये था कि वो लड़की मेरे बाबूजी के ममेरे भाई की बेटी थी ससुराल में पति से या शायद पूरे परिवार से झगड़ा हुआ उन लोगों ने उसे घर से निकाल दिया। बेचारी ऐसी दयनीय स्थिति में बिना कोई सामान, बिना पैसे के पैदल चलती हुई यहाँ तक आ पाई थी, उसका मायका यहाँ से भी दो-तीन कोस की दूरी पर था इसलिए वो यहीं आ गई थी। उसके पति के द्वारा दी गई गालियों को काकी ये कहकर नहीं बता पाईं कि इतनी गंदी गालियाँ वह ज़बान पर नहीं ला पाएँगी। सारी आपबीती जान बाबूजी भड़क गए बोले- बुलाओ कैलाश (लड़की का पिता) को और उस लड़के को यहीं बुलाओ हम देखते हैं कितना बड़ा तीसमार खाँ है साला, हिम्मत कैसे हुई उसकी इसे हाथ लगाने की!" बाबूजी का क्रोध देख मेरे क्रोध को भी बल मिला मेरा भी मन कर रहा था कि अपनी पत्नी पर अत्याचार करने लाला वो शख्स मेरे सामने आ जाए तो उसे उसकी सही जगह दिखा दूँ हालांकि मैं भी जानती थी कि मैं कुछ नहीं कर सकती, परंतु बहुत खुशी हुई थी साथ ही गर्व भी कि मेरे बाबूजी अन्य लोगों की तरह बेटी पर हुए अत्याचार को चुपचाप सहने वालों में से नहीं थे।
मेरा इंतजार समाप्त हुआ, छोटे काका जाकर शाम तक कैलाश काका को बुला लाए थे। मैं बेचैन थी ये देखने के लिए कि कैलाश काका के दामाद को बुलाकर बाबूजी उसकी कैसे खबर लेते हैं। रातभर कैलाश काका हमारे ही घर रुके, दूसरे दिन उनके दामाद को भी बुलाया गया, हम बच्चे बड़ों की बातें नहीं सुन सकते खासकर जहाँ सिर्फ पुरुष हों, इसलिए मैं उन लोगों के बीच की बातें न जान पाई, पर मैं जानती थी कि मेरे बाबूजी अब उन दीदी को उनकी ससुराल तो नहीं जाने देंगे, अब पता चलेगा महाशय को कि पत्नी पर हाथ उठाने का नतीजा क्या होता है।
उनके बीच क्या बातें होती रहीं मुझे कुछ पता नहीं चल पाया किंतु दोनों ही ओर सुगबुगाहट और खलबली सी महसूस होती रही। कभी दूर से ही उन दीदी की आँखों से बहते आँसू देखा तो कभी मंझली काकी का गुस्से से तमतमाया चेहरा। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे महिला और पुरुष दो टोलियों में बँट गया हो पर फिर भी मुझे पता था मेरे बाबूजी ने कभी गाली देने वाले को माफ नहीं किया, फिर इसने तो गाली, मारपीट सब की थी, बस संशय था तो एक ही कि वह मेरे बाबूजी की अपनी नहीं किसी अन्य की बेटी थी तो निर्णय भी किसी अन्य का  ही माना जाएगा।
शाम होने वाली थी दीदी तैयार हो रही थीं नई साड़ी पहनकर पैरों में महावर, बिंदी, सिंदूर लगाकर दुल्हन सी लग रही थीं, विदाई होने लगी वो दादी, अम्मा और दोनों काकी के गले लगकर खूब रोईं। मैंने अम्मा से कहा- "ये अपने माँ-बाप के घर ही तो जा रही हैं, इन्हें तो खुश होना चाहिए, फिर रो क्यों रही हैं?"
माँ-बाप के घर कैसे जा सकती हैं? शादी करके माँ-बाप ने तो जैसे पल्ला झाड़ लिया होता है न, मर्दों की दुनिया है वही हमारा भगवान है, मारे-कूटे, गाली बके चाहे जान से मार डाले, हम औरतों को सब कुछ सहन करके अपनी बलि देने के हमेशा तैयार रहना पड़ता है।" काकी का क्रोध मानो फूट पड़ा।
मैं अवाक् खड़ी कभी उन दीदी को देख रही थी जो बेबस, निरीह उस बकरी सी प्रतीत हो रही थीं जिसे सजा-धजा कर बलि के लिए ले जाया जा रहा हो और कभी अपने बाबूजी और कैलाश काका को। एक रात की उस मेहमान ने मुझे समाज का वो रूप दिखाया था जिससे मैं पूर्णतः अंजान थी और काश हमेशा अंजान ही रहती।
#मालतीमिश्रा

मंगलवार

पचास साल का युवा गर दिखाए राह तो
बुद्धि का विकास कब होगा इस देश में

जनता समाज सब भ्रम में ही फँस रहे
हर पल विष घुल रहा परिवेश में।।

रोज नए मुद्दे बनें नई ही कहानी बने
भक्षक ही घूम रहे रक्षक के वेश में।।

उचित अनुचित का खयाल बिसरा दिया
चापलूस चाटुकार मिले अभिषेक में।।

शनिवार

साहित्यकार के दायित्व

साहित्यकार के दायित्व
साहित्य सदा निष्पक्ष और सशक्त होता है, यह संस्कृतियों के रूप, गुण, धर्म की विवेचना करता है और  साहित्यकार साहित्य का वह साधक होता है जो शस्त्र बनकर साहित्य की रक्षा साहित्य के द्वारा ही करता है तथा इस साहित्य साधना के लिए वह लेखनी को अपना शस्त्र बनाता है। ऐसी स्थिति में वह साहित्य की शक्ति का प्रयोग लेखनी के माध्यम से करता है। लोग लेखनी के माध्यम से साहित्य की पूजा करते हैं। साहित्य में वह शक्ति है जो संस्कृतियों का सृजन करने में सक्षम है। इसीलिए साहित्यकार बड़े गर्व से अपनी लेखनी को तलवार से अधिक शक्तिशाली कहता है और यह अक्षरशः सत्य भी है। लेखनी में सत्ता पलट देनें की शक्ति होती है, यह मुर्दों में प्राण फूँक देने का माद्दा रखती है बशर्ते कि यह सही हाथ में हो, साहित्यसर्जक यदि अपने ज्ञान का सकारात्मक प्रयोग करें तो नवयुग की रचना करने में भी समर्थ हो सकते हैं। परंतु सकारात्मकता और नकारात्मकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और यह लेखनी रूपी तलवार दोनों का शस्त्र है इसीलिए इतने सब के बाद भी साहित्य भी आजाद कहाँ?
यह तो मात्र साहित्यकारों के हाथों की कठपुतली बन गया है। अब लेखनी है तो साहित्यकार के हाथ में ही न, साहित्यकार उसको जैसे चाहेगा वैसे ही प्रयोग करेगा, वह सही या गलत जिस पक्ष को भी रखेगा सशक्त होकर रखेगा क्योंकि साहित्यकार जो ठहरा।
साहित्यकार है तो क्या! आखिर है तो एक जीता-जागता मानव मात्र ही न, जिसमें यदि कुछ गुण होते हैं तो कुछ अवगुण भी होते हैं। साहित्य का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी वह मानवीय गुणों अवगुणों से मुक्त नहीं होता। इसीलिए यह आवश्यक नहीं कि हर साहित्यकार की लेखनी सदा सत्य और निष्पक्ष बोलती हो।
तकनीक का जमाना है, सोशल मीडिया का वर्चस्व है देर-सबेर साहित्यकारों के विषय में किसी न किसी माध्यम से जानने को अवश्य मिल जाता है। अभी हाल ही में मैंने एक महिला साहित्यकार का ऑन लाइन इंटरव्यू news tv पर यू-ट्यूब के माध्यम से देखा। जानी मानी साहित्यकार हैं उपन्यास कविताएँ आदि कुल 52  पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं , अतः साहित्य के क्षेत्र में अनुभवी और ज्ञानी भी हैं। परंतु साक्षात्कार की प्रक्रिया के दौरान ज्यों-ज्यों संवाददाता द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब मोहतरमा ने दिए त्यों-त्यों एक साहित्यकार की छवि धुंधली होती गई। साफ-साफ उन्होंने न सिर्फ एक धर्म को इंगित कर उसे कटघरे में खड़ा किया बल्कि उसकी धार्मिक मान्यताओं पर भी प्रहार कर दिया और इतने पर ही बस नहीं किया बल्कि वो राजनीति पर भी चर्चा करते हुए किसी एक ही पार्टी की पक्षधर भी बन गई। उनके जवाब सुनकर मुझे वो साहित्यकार याद हो आए जिन्होंने एक अखलाक की हत्या के कारण अपने अवॉर्ड वापस करके असहिष्णुता का इल्जाम लगाकर पूरी दुनिया में अपने ही देश की छवि धुँधली करने में कोई कोर-कसर न छोड़ी। साहित्य सर्जक भले ही मानव मात्र है परंतु यदि उसने हाथ में कलम पकड़ ली है तो उसकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। फिर वह स्व-हिताय स्व-सुखाय की श्रेणी से बाहर बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय की श्रेणी में आ जाता है।  साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह अपने ज्ञान का प्रयोग समाज और देश के हितार्थ करे न कि स्वहितार्थ, उसे चाहिए कि लेखनी से जब सरस धारा बहे तो उसकी निर्मलता को समस्त मानव मन महसूस करे और उस पावन निर्मलता को आत्मसात करे। साधक ऐसा कुछ न करे कि उसके ज्ञान को नकारात्मकता की श्रेणी में रखा जाए। साहित्यिक ज्ञान प्रयोग समाज और देश के हित में हो न कि कुछ गिने-चुने लोगों के हित में या किसी विशेष जाति-धर्म के हित में।
#मालतीमिश्रा

बुधवार

एक और न्यूजपेपर हिन्दू सहस्रधारा साप्ताहिक मध्यप्रदेश में पुस्तक की समीक्षा को स्थान मिलना मेरे उत्साह के लिए संजीवनी।

रविवार

अन्तर्ध्वनि की समीक्षा का 'डेली हिन्दी मिलाप दैनिक' में प्रकाशन




माँ के आशीर्वाद से एक और शुभ समाचार ज्ञात हुआ।
जाने-माने साहित्यकार, समीक्षक आ०अवधेश अवधेश कुमार अवध जी द्वारा की मेरी पुस्तक की समीक्षा 'डेली हिन्दी मिलाप' दैनिक हैदराबाद के पेपर में छपी।
आदरणीय अवधेश जी का आभार व्यक्त करते हुए अपनी प्रसन्नता आप सभी मित्रों के साझा कर रही हूँ।

इतनी क्या जल्दी थी माँ..

लाई तू मुझे इस दुनिया में
अपरिमित कष्टों को सहन किया
नाना जिद और नखरों को
हँसकर तूने वहन किया
कुछ और समय इस दुनिया को
माँ तूने सहन किया होता,
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता

माँ तुझको जब-जब कष्ट हुआ
मुझ तक न हवा लगने पाई
खुद क्रूर काल की ग्रास बनी
मुझको न खबर होने पाई
काश हमारी अनुमति का
विधना ने विधान लिखा होता
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता

छोड़ गई तू मुझे अकेली
गैरों की इस भीड़ में
रखा सदा सुरक्षित जिसको
अपने आँचल के नीड़ में
काश तेरे आँचल को मैंने
मुट्ठी में तेजी से गहा होता
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता

उस घर से जब मुझे विदा किया
भर अंक में मुझको रोई थी
खुद विदा हुई जब दुनिया से
भर बाहों में तुझे न मैं रो पाई
दूर होती छाया को तेरी
मैंने भी महसूस किया होता
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता

आता है जो दुनिया में
इक रोज तो उसको जाना है
विधना का यह अटल सत्य
कटु है पर सबने माना है
इस सत्य से लड़ने की कोशिश को
मैंने भी तो जिया होता
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता

दूर भले मुझसे थी पर
आशीष की छाया घनेरी थी
हाथों का स्पर्श सदा साथ रहा
जो सिर पर तूने फेरी थी
अब वो स्पर्श नहीं वो छाया नहीं
सूख गया ममता का सोता
इतनी क्या जल्दी थी माँ
इक बार तो मुझे कहा होता
कष्ट तेरे अंतिम पल के
कुछ मैंने भी तो सहा होता।
कष्ट तेरे...........
कुछ मैंने...........
#मालतीमिश्रा

शनिवार

भक्ति जगाय दीजिए

भक्ति जगाय दीजिए
शारदे की पूजा करूँ काम नहीं दूजा करूँ
भक्ति ऐसी मेरे हिय में जगाय दीजिए।।

साथ दे जो हर घड़ी कभी न अकेला छोड़े
धर्म पथ पर कोई वो सहाय दीजिए।।

लेखनी का शस्त्र धरूँ अशिक्षा पे वार करूँ।
ज्ञान दीप मेरे हिय में जलाय दीजिए।।

शिक्षा जो ग्रहण किया सभी में मैं बाँट सकूँ
मानव का धर्म हमें बतलाय दीजीए।।
#मालतीमिश्रा

रविवार

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा : अन्तर्ध्वनि

       समीक्षक : अवधेश कुमार 'अवध'



मनुष्यों में पाँचों इन्द्रियाँ कमोबेश सक्रिय होती हैं जो अपने अनुभवों के समन्वित मिश्रण को मन के धरातल पर रोपती हैं जहाँ से समवेत ध्वनि का आभास होता है, यही आभास अन्तर्ध्वनि है। जब अन्तर्ध्वनि को शब्द रूपी शरीर मिल जाता है तो काव्य बन जाता है। सार्थक एवं प्रभावी काव्य वही होता है जो कवि के हृदय से निकलकर पाठक के हृदय में बिना क्षय के जगह पा सके और कवि - हृदय का हूबहू आभास करा सके।

नवोदित कवयित्री सुश्री मालती मिश्रा जी ने शिक्षण के दौरान अन्त: चक्षु से 'नारी' को नज़दीक से देखा। नर का अस्तित्व है नारी, किन्तु वह नर के कारण अस्तित्व विहीन हो जाती है। शक्तिस्वरूपा, सबला और समर्थ नारी संवेदना हीन पुरुष - सत्ता के चंगुल में फँसकर अबला हो जाती है। बहुधा जब वह विद्रोह करती है तो  अलग - थलग, अकेली व असमर्थित और भी दयनीय होकर लौट आती है। प्रकृति का मानवीकरण करके कवयित्री स्त्री के साथ साम्य दिखलाने की कोशिश की है और इस प्रयास में वह छायावाद के काफी निकट होती है। नैतिक अवमूल्यन से कवयित्री आहत है फिर भी राष्ट्रीयता की भावना बलवती है तथा सामाजिक उथल- पुथल के प्रति संवेदनशील भी।

यद्यपि स्त्री विमर्श, सौन्दर्य बोध, प्रकृति चित्रण, सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक समन्वय, पारिवारिक परिमिति सुश्री मालती मिश्रा की लेखनी की विषय वस्तु है तथापि केन्द्र में नारी ही है। बहत्तर कविताओं से लैस अन्तर्ध्वनि कवयित्री की पहली पुस्तक है । भाव के धरातल पर कवयित्री की अन्तर्ध्वनि पाठक तक निर्बाध और अक्षय पहुँचती है । कविताओं की क्रमोत्तर संख्या के साथ रचनाकार व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर देखी जा सकती है। अन्तर्ध्वनि शुरुआती कविताओं में आत्म केन्द्रित है जो धीरे - धीरे समग्रता में लीन होती जाती है। स्वयं की पीड़ा जन साधारण की पीड़ा हो जाती है तो अपने दर्द का आभास कम हो जाता है।

कुछ कविताओं का आकार काफी बड़ा है फिर भी भाव विन्यास में तनाव या विखराव नहीं है अतएव श्रेयस्कर हैं । न्यून अतुकान्त संग सर्वाधिक तुकान्त कविताओं में गीत, गीतिका और मुक्तक लिखने की चेष्टा परिलक्षित है, जिसमें छंद की अपरिपक्वता स्पष्ट एवं अनावृत है किन्तु फिर भी भावपक्ष की मजबूती और गेय - गुण अन्तर्ध्वनि को स्तरीय बनाने हेतु पर्याप्य है। अन्तर्ध्वनि की कविता 'प्रार्थना खग की' द्रष्टव्य है जिसमें खग मानव से वृक्ष न काटने हेतु प्रार्थना करता है -
"करबद्ध प्रार्थना इंसानों से,
करते हम खग स्वीकार करो।
छीनों न हमारे घर हमसे,
हम पर तुम उपकार करो ।।"

' बेटी को पराया कहने वालों' कविता में कवयित्री एक बेटी की बदलती भूमिका को उसके विशेषण से सम्बद्ध करते हुए कहती है -
"जान सके इसके अन्तर्मन को
ऐसा न कोई बुद्धिशाली है
भार्या यह अति कामुक सी
सुता बन यह सुकुमारी है
स्नेह छलकता भ्राता पर है
पत्नी बन सब कुछ वारी है।"

उन्वान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मात्र रुपये 150 की 'अन्तर्ध्वनि' में 'मजदूर', 'अंधविश्वास', 'तलाश', 'प्रतिस्पर्धा' और 'आ रहा स्वर्णिम विहान' जैसी कविताएँ बेहद प्रासंगिक हैं। एक ओर जहाँ शिल्प में दोष से इन्कार नहीं किया सकता वहीं रस के आधिक्य में पाठक - हृदय का निमग्न होना अवश्यम्भावी है। माता - पिता को समर्पित सुश्री मालती मिश्रा की अन्तर्ध्वनि को आइए हम अपनी अन्तर्ध्वनि बनाकर स्नेह से अभिसिंचित करें।

अवधेश कुमार 'अवध'
मेघालय 9862744237
awadhesh.gvil@gmail.com

गुरुवार

सरस्वती वंदना

सरस्वती वंदना
वीणापाणि मात मेरी करती आराधना मैं
आन बसो हिय मेरे ज्ञान भर दीजिए।।

समर्पित कर रही श्रद्धा के सुमन मात
अरज मेरी ये आप सवीकार कीजिए।।

बन कृपा बरसो माँ लेखनी विराजो मेरे
अविरल ज्ञान गंगा बन बहा कीजिए।।

यश गाथा गाय रही तुमको बुलाय रही
सुनो मात अरजी न देर अब कीजिए।।
#मालतीमिश्रा