रविवार

आखिरी इम्तिहान

आखिरी इम्तिहान
आज आखिरी पेपर है सुधि की खुशी का कोई ठिकाना न था, वह जल्दी-जल्दी विद्यालय की ओर कदम बढ़ा रही थी। बस भगवान मेरे बाकी सभी विषयों की तरह आज का पेपर भी अच्छा हो जाए तो मैं इस नरक से मुक्ति पा जाऊँगी, मैं फिर कभी इधर पलट कर भी नहीं देखूँगी, सोचती हुई सुधि तेज-तेज कदमों से चली जा रही थी उसे इतना भी ध्यान न रहा कि वह अपनी सबसे प्यारी सहेली रागिनी को उसके कमरे के पीछ की खिड़की से आवाज देना भी भूल गई और उसका कमरा पार करते हुए घर के आगे की ओर आकर भी बेसुध सी पगडंडी पर बढ़ती जा रही थी तभी पीछे से भागती हुई रागिनी ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया..."बहरी हो गई है क्या? कब से पीछे से आवाज दिए जा रही हूँ पर सुनती ही नहीं, और आज बुलाया भी नहीं, वो तो अच्छा हुआ कि मामी ने देख लिया और मुझे बता दिया कि तुम्हारी सहेली तो आगे निकल गई।" रागिनी हाँफती हुई एक ही साँस में बोल गई। इधर रागिनी के हाथ पकड़ते ही जैसे सुधि को होश आ गया, "ओह! सचमुच मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा।" वह सचेत होते हुए बोली।
"कहाँ खोई थी तू?" रागिनी ने पूछा।
"कुछ नहीं बस यही सोच रही थी कि आज हम लोगों के साथ का आखिरी दिन है, फिर पता नहीं कभी मिल भी पाएँगे या नहीं!" सुधि ने उदास होकर कहा।
"तो क्या सचमुच तू यहाँ फिर कभी नहीं आएगी? रागिनी भी उदास हो गई।
"हाँ यार देख सिर्फ तुझे बताया है, किसी और से नहीं बताया, प्लीज किसी से मत कहना अभी।" सुधि लगभग गिड़गिड़ा पड़ी।
"चुप पागल, मैं क्यों बताऊँगी? मैं भी तो चाहती हूँ तू यहाँ इन लोगों से छुटकारा पा ले, मैं भी तो अगले हफ्ते अपने घर चली जाऊँगी, मामा जाएँगे मुझे छोड़ने, फिर हम दोनों चिट्ठी लिखकर बातें किया करेंगे।" जैसे सुधि के साथ-साथ खुद को भी तसल्ली दे रही थी।
बातें करते-करते दोनों विद्यालय पहुँच गईं और अनुक्रमांक के अनुसार अपनी-अपनी कक्षाओं में जाकर बैठ गईं । सुधि फिर खयालों में खोने लगी, दो साल हो गए उसे जब वह दुल्हन बनकर यहाँ आई थी, विवाह तो उसका बचपन में ही जब वह नौ वर्ष की थी तभी हो गया था पर गौना अब हुआ था। वह ससुराल न आकर आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन बाबा ने तो मानों दसवीं तक पढ़ाकर जिम्मेदारी पूरी कर दी थी। अब उसकी विदाई करवाकर मानो गंगा नहा लिए। पर सरस्वती का वरदान अभी पूरा नहीं हुआ था इसीलिए उसके प्राइमरी विद्यालय के प्रधानाचार्य ससुर ने उसके आगे पढ़ने की इच्छा जानकर उसका ग्यारहवीं में एडमिशन करवा दिया। यही एक काम उन्होंने महान किया था। बाकी तो सुधि के खाने, पहनने, पुस्तक आदि का खर्च तो उसके बाबा ही उठा रहे थे। और तो और उसके ससुर का अपने बेटे की ऐय्याशियों पर भी नियंत्रण नहीं था, रोज-रोज शराब पीकर आना, जुआ खेलते हुए रात-रात भर बाहर रहना और मना करने पर उससे गाली-गलौज़ और मारपीट करना यही मानो उसकी नियति बन गई थी। वह बारहवीं तीसरे दर्जे से पास था तो सुधि का पढ़ना भी उसे अखरने लगा था, पत्नी उसके बराबर पढ़ जाएगी तो उसकी बराबरी करेगी, उसकी इज्जत नहीं करेगी यह बात उसके शराबी दोस्तों ने बखूबी उसके दिमाग में बैठा दी थी।  रोज-रोज के इस ड्रामे ने उसके मन में यहाँ के प्रति घृणा भर दी थी, इसीलिए उसने माँ से कह दिया था कि परीक्षा खत्म होते ही भाई को भेज दें उसे लिवाने और अब वह आगे की पढ़ाई भी बाबा के साथ शहर में रहकर करेगी। तभी निरीक्षक महोदय ने उत्तर-पुस्तिका उसकी बेंच पर रखी और उसकी तंद्रा भंग हो गई।
परीक्षा खत्म हुआ विद्यालय में चारों ओर मानो सभी परीक्षा के दबाव से मुक्त होकर चैन की साँस ले रहे थे, वहीं कुछ चेहरे उदास भी थे साथियों से बिछड़ने का दुख उनके चेहरों पर पसरा हुआ था। सुधि भी आज अपनी सभी सहेलियों से हमेशा के लिए अलग हो जाएगी इसीलिए सारी सहेलियाँ मिलकर विद्यालय के पास ही रहने वाली उनकी सहेली संगीता के घर चल पड़ीं ताकि आखिर के एक-दो घंटे और साथ में बिता लें। विद्यालय से निकलकर अभी कोई सौ-सवा सौ मीटर ही आगे आई होंगी कि सुधि ठिठक गई, "क्या हुआ, रुक क्यों गई?" संगीता ने पूछा।
"मेरा भाई आ गया।" सुधी को तो मानो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। "अब हमारा साथ यहीं तक था सखियों, बस पत्र लिखते रहना।" अपनी जगह पर खड़ी-खड़ी सुधि बोली, उसकी आँखें छलक पड़ीं भाई के आने की खुशी में या सखियों से जुदाई के गम में वह समझ न सकी। कुछ पल पहले चहकती सभी आँखें बरस पड़ीं।
#मालतीमिश्रा

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