रविवार

नारी तू खुद को क्यों
इतना दुर्बल पाती है,
क्यों अपनी हार का जिम्मेदार
तू औरों को ठहराती है।
महापराक्रमी रावण भी
जिसके समक्ष लाचार हुआ,
धर्मराज यमराज ने भी
अपना हथियार डाल दिया।
वही सीता सावित्री बनकर
तू जग में गौरव पाती है,
पर क्यों इनके पक्ष को तू
सदा कमजोर दिखाती है।
माना कि युग बदल गया
कलयुग की कालिमा छाई है,
पर नारी भी तो त्याग घूँघट को
देहरी से बाहर आई है।
जिस अधम पुरुष से हार के तू
दुर्गा का नाम लजाती है,
क्या भूल गई ये अटल सत्य
उसे तू ही धरा पर लाती है।
सतयुग की काली चंडी तू
तो आज की लक्ष्मीबाई है।
तू उसकी ही प्रतिछाया है
जो महिषासुर मर्दिनी कहाती है,
मर्द बनी मर्दानों में ये
उनको धूल चटाती है,
और आज खड़ी तू बिलख रही
मदद की गुहार लगाती है।
क्यों नराधम के हाथ उठने के लिए
और तेरे बस जुड़ने के लिए।
जिन हाथों को जोड़ कर विनती करती
क्यों उनको नहीं उठाती है,
एकबार खोल तू हाथ अपने
तो देख कैसे शक्ति समाती है,
जो तमाशबीन बन देख रहे
कैसे उनको भी साथ तू पाती है।
जो करता मदद स्वयं की है
उसके पीछे दुनिया आती है,
बन सक्षम अब तू बढ़ आगे
नारी में ही शक्ति समाती है।
मालती मिश्रा

शुक्रवार

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव
वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है। 
मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था...कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी। 
बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते। 
उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिरभी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि "और कितनी दूर है?" और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते "बस थोड़ी दूर" और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता। 
डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं। 
धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं। 
अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे। 
कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर  पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-"मिल गई फुरसत बिटिया?" पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है। 
अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके। 
विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया या पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।
मालती मिश्रा

यादों की दीवारों पर

यादों की दीवारों पर
यादों की दीवारों पर लिखी वो अनकही सी कहानी
जिसे न जाने कहाँ छोड़ आई ये जवानी
कच्चे-पक्के मकानों के झुरमुटों में खोया सा बचपन
यादों के खंडहरों में दबा सोया-सा बचपन
न जाने कब खो गई दुनिया की भीड़ में
वो गाती गुनगुनाती संगीत सी सुहानी
यादों की दीवारों.....

मकानों के झुरमुटों से निकलती सूनी सी वो राहें
बुलाती हैं मानो आज भी फैलाकर अपनी बाहें
वहीं से निकल दूर तलक जाती लंबी-सी सड़क
जो दूर होते-होते खो जाती है किसी अंजाने मोड़ पर
जीवन जहाँ था वहाँ पसरी है अब वीरानी
यादों की दीवारों.......

जेठ की दुपहरी में ठंडी छाँह खोजती वो सड़क
किनारे खड़े वृक्षों की भी रह गई अस्थियाँ दुर्बल
सड़क के उसी मोड़ पर खो गए वो अल्हड़
चहकते पल
अनजानी गलियों में भटकती-सी चाहतों की रवानी
जर्जर काँधों पर ले जाती यादों की गठरी पुरानी
यादों की दीवारों.....

अपनी कंकरीली पथरीली टूटी-फूटी जर्जर-सी काया में
समेटे हुए असंख्य असीम यादों की परत दर परत
वो सड़क जो हमराही थी जीवन की धूप-छाँव में
अपने पत्थर हृदय में समेटे कुछ अनकही कहानी
कुछ हँसती कुछ आँसू से दामन भिगोती जवानी
यादों की दीवारों....

दिलों  में पलते अनकहे सहमे से सपने
आँखों से बहते अविरल ज़ज्बातों के झरने
अधरों पर तैरते पल-पल अल्फ़ाज़ अनसुने
कानों में सरगोशियाँ कर जाती कोई मीठी याद पुरानी
सड़क जो सुनाती बीते पलों की अनकही कहानी
यादों की दीवारों.....
मालती मिश्रा

रविवार

राजनीतिक मानवाधिकार

राजनीतिक मानवाधिकार
'मानवाधिकार' यह शब्द सुनने में पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है पर जब यही शब्द हमारे हितों के मार्ग को अवरुद्ध करने लगे तो इसकी सारी मिठास कड़वाहट में तब्दील हो जाती। आजकल 'मानवाधिकार 'सहिष्णुता-असहिष्णुता' जैसे शब्द सिर्फ़ वोट-बैंक के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अधिकार चाहे व्यक्तिगत हो या सामाजिक यदि पूर्णतया बंधनमुक्त या पूर्णतः बंधन में बँधा हुआ हो तो समाज और देश दोनों के लिए घातक होता है। समाज में जब तक सभी अधिकार सबके लिए समान नहीं होंगे तब तक विकास का सपना अधूरा ही रहेगा।
हमारे देश में तो दशकों से तुष्टिकरण की भयंकर बीमारी ने इसप्रकार अपने पैर जमा लिए हैं कि स्वयं को समाज का ठेकेदार समझने वालों को अधिकार भी सिर्फ उनके ही नजर आते हैं जिनसे उनको अपना स्वार्थ सिद्ध होता हुआ नजर आता हो। मानवाधिकार जैसे शब्दों का प्रयोग भी वर्गविशेष के लिए होता है।

यदि अतीत में झाँकें तो कुछ साल पहले तक दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल का मुख्य त्योहार हुआ करता था और आज हर वर्ष दुर्गा पूजा के लिए वहाँ के नागरिकों को संघर्ष करना पड़ता है। आज वहाँ का मुख्य त्योहार मुहर्रम है। क्या ये मानवाधिकार का हनन नहीं?
मानवाधिकार सभी मानव मात्र के लिए होता है किसी हिन्दू या मुसलमान के लिए नहीं फिरभी हमारे देश के नेताओं को एक अखलाक की हत्या तो दिखाई पड़ती है परंतु पश्चिम बंगाल में मरते बेघर होते सैकड़ों हजारों हिन्दू नहीं।
दुर्गापूजा के समय हिन्दुओं को पंडाल खड़े करने से रोका जाता है और दर्जनों घटनाओं में दुर्गा पूजा विसर्जन यात्राओं पर हमले होते हैं। इस वर्ष भी दुर्गा पूजा पर राज्य सरकार द्वारा ही व्यवधान उत्पन्न करने का प्रयास किया गया।

अनेक ग्रामों में, हिन्दुओं की सम्पत्ति को नष्ट किये जाने, महिलाओं के उत्पीड़न, मंदिरों तथा मूर्तियों को भ्रष्ट करने की घटनाओं आदि के परिणामस्वरूप हिन्दू समाज इन क्षेत्रों से पलायन करने को विवश हो रहा है, ऐसी ही एक घिनौनी घटना में, पिछले वर्ष 10 अक्तूबर को नदिया जिले के हंसकाली थाना अंतर्गत दक्षिण गांजापारा क्षेत्र में एक दलित नाबालिग बालिका मऊ रजक पर उसके घर में ही हमला करके उसकी हत्या कर दी गई।

तमिलनाडु, केरल एवं कर्नाटक सहित दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में रा. स्व. सेवक संघ, विहिप, भाजपा एवं हिन्दू मुन्नानी के अनेक कार्यकर्ताओं पर आक्रमण हुए हैं। कुछ स्थानों पर संघ कार्यकर्ताओं की हत्या, करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का विनाश एवं हिन्दू महिलाओं पर अत्याचार हुए हैं, कर्नाटक में एक संघ स्वयंसेवक की व्यस्त सड़क पर दिनदहाड़े हत्या, कर्नाटक में बंगलूरू के अलावा मुडबिदरी, कोडागु एवं मैसूर में जेहादी तत्वों द्वारा कई हिन्दू कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हुई हैं।

जिस देश में एक मुस्लिम की हत्या पर विश्व स्तर पर हाहाकार मच जाता है उसी देश में सैकड़ों-हजारों की संख्या में मरते हुए हिन्दुओं को न अंधी मीडिया देख पाती और न ही मानवाधिकार का रोना रोने वाले तथाकथित समाज के ठेकेदार नेता।
रोहिंग्या मुसलमानों का पक्ष लेती जो पार्टियाँ भी मानवाधिकार का खोल लेकर खड़ी हैं वो रोहिंग्या के द्वारा किए गए हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार को न ही देख रहीं और न देखना चाहतीं, उन्हें कैराना और कश्मीर से विस्थापित होते हुए हिन्दुओं का न तो दर्द दिखाई दिया न अधिकार। जिस प्रकार ये मानवभक्षी रोहिंग्या के मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हैं, उसी प्रकार हिन्दुओं के अधिकारों के लिए भी लड़ते तो देश में समानाधिकार कायम हो पाता। पर इस प्रकार के दोहरे रवैये ने तो सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हिन्दुओं का मानवाधिकार नहीं होता या वो मानव की श्रेणी में ही नहीं आते। क्यों हमारे देश में कानून के द्वारा भी पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जाता है? हिन्दुओं के सभी अधिकार संविधान के अनुसार और मुस्लिम के अधिकार उनकी शरिया के अनुसार... जो देश पर फिर से राज करने का सपना देख रहे हैं वो भी देश के विकास के विषय में सोचने की बजाय मात्र एक वर्ग के तुष्टिकरण के विषय में सोचते हैं।
मालती मिश्रा