सौ वाट का बल्ब खपरैल की छत से लटकते हुए दस बाई दस के उस रसोई के लिए प्रयोग होने वाले कमरे को ही रोशन नहीं कर रहा था बल्कि दरवाजे के ऊपरी चौखट तक लटके होने के कारण भीतर के कमरे में भी दूसरे बल्ब की उपयोगिता को समाप्त कर रहा था। सर्दी ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराना शुरु कर दिया था, सुबह शाम की ठंड के कारण शाम के सात-आठ बजे तक बाहर बिल्कुल सन्नाटा हो जाता है, सभी अपने-अपने घरों में सिमट जाते है बाहर सांय-सांय करता हुआ बड़ा सा रामलीला-मैदान दिन में जितना सुकून देह लगता है रात को उतना ही डरावना लग रहा था। दस-ग्यारह साल की निशि मन ही मन डर रही थी, उसका ये छोटा सा दो कमरों का घर जो सर्दी, गर्मी, वर्षा तथा अन्य सभी परिस्थितियों में उसका रक्षक है, इस समय उसे डरावना लग रहा था, वह शाम तक तो पड़ोस में चाची के घर में खेलती रही लेकिन जब पाँच बजे तक बाऊजी नहीं आए तो उसका एक-एक पल भारी होने लगा था। वह चाची की बेटियों के साथ खेलते-खेलते बाहर आकर मैदान के दूसरे छोर तक जहाँ तक नजर जाती, इस उम्मीद में देखती कि बाऊजी आते हुए दिखाई पड़ जाएँ पर निराश होकर वापस लौट आती। चाची की सास जिन्हें वह अम्मा जी कहती थी वो उसको बहलाती रहीं तू डर मत तेरे बाऊजी आ जाएँगे, किसी काम में फँस गए होंगे इसलिए देर हो गई। बाहर अँधेरे ने पैर पसारना शुरू कर दिया था, उससे रहा न गया वह फिर खेल बीच में से छोड़कर बाहर आ गई, तभी उसके गाँव के रिश्ते से 'बड़े दादा' आ गए, जो गाँव में उसके पड़ोसी हैं और यहाँ बाऊजी के साथ ही उसी गोदाम में काम करते हैं।
"बड़े दादा बाऊजी कहाँ हैं?" उन्हें देख नन्हीं निशि का सब्र मानो छलक ही पड़ा उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
"रो मत, तेरे बाऊ जी आज ओवर-टाइम कर रहे हैं, उन्होंने कहा है कि दूध ले आना और रोटी बना पाओ तो बना के खा लेना, वो दस बजे तक आएँगे।" बड़े दादा उसे समझाते हुए बोले।
"दस बजे तक" अकस्मात् ही उसके मुँह से निकला। वह दस बजे तक कैसे रहेगी यह सोचकर ही सिहर गई।
हाँ, हम घर जा रहे हैं आओ तू भी चल दूध लेकर आ जाना।" उन्होंने कहा। उनके घर से थोड़ा और आगे ही जाना था उसे दूध लेने, इसीलिए दूध की डोलची लेकर वह बड़े दादा के साथ ही चल दी। दूध लेकर आते-आते साढ़े सात बज गए थे रात पूरी कालिमा से घिर आई थी अब तक तो बाहर खेलने वाले बच्चे भीं नदारद हो चुके थे, पर कहीं कहीं इक्का-दुक्का बच्चे दिखाई दिए इसलिए रास्ते में डर नह़ी लगा, पर घर का दरवाजा अंदर को धकेलते हुए उसके हाथ रुक गए, कोई अंदर हुआ तो?
फिर खुद ही खुद को हिम्मत बँधाया...धत्त इतना क्यों डरती है! अभी तो सभी बाहर ही हैं और ऐसा सोचते हुए दरवाजा भीतर को धकेला और डरते -डरते घर में पैर रखा।
अब उसे रोटी बनानी थी; बाऊजी को रोटी बनाते देख-देखकर और खेल-खेल में कभी माँ के साथ तो कभी बाऊजी के साथ एक-दो रोटी बनाती और इस तरह कामचलाऊ रोटी बना लेती है, पर आटा; वो कैसे गूँदेगी? निशि पटरी पर उकड़ूँ बैठी पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरेदते दस-पंद्रह मिनट तक यही सोचती रही, फिर 'चलो आज ये भी करते हैं..' ये सोचकर वह उठी और थाली लेकर भीतर वाले कमरे में गई और आटा निकाला... वह बार-बार कमरे के अँधेरे भाग में नजरें गड़ा कर देखने का प्रयास करती कि कहीं कोई उसके पीछे तो नहीं! डरते-डरते वह आटा निकाल लाई और फिर अपने छोटे-छोटे हाथों से आटा गूँदने लगी, कितना पानी डालना है इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं था इसीलिए थोड़ा-थोड़ा पानी डालती फिर जितने आटे में मिल जाता उसे अलग रखकर फिर बचे हुए आटे में पानी मिलाती, इसी क्रम में उसने अपने और बाऊजी के खाने लायक रोटियों के लिए आटा गूँद लिया, उसके कपोलों और ललाट पर आटा लगा देख कोई भी सहज ही जान जाता कि उसने आटा गूँदने के लिए कितनी जद्दो-जहद की होगी।
जैसे-तैसे आटा तो गूँद दिया पर स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने बड़े दादा से कहलवाया था कि चाची से स्टोव जलवा लेना। निशि सोचने लगी चाची के घर कैसे जाए बाहर कोई छिपा हुआ होगा तो! नहीं..नहीं अभी तो सब जाग रहे हैं, बाहर चाची के बरामदे में लाइट भी जल रही है, डरने की कोई बात ही नहीं। उसने अपने-आप को हिम्मत बँधाया और बाहर निकलकर दाएँ-बाएँ गर्दन घुमाकर देखा कि कोई किसी अँधेरे कोने में छिपा तो नहीं और दौड़कर बरामदे में चढ़कर दो ही कदमों में बरामदा पार कर दरवाजा धकेलते हुए आँगन में आ गई, अब उसने खड़े होकर पहले अपनी डर से रुकी हुई साँस दुरुस्त की। दो-तीन बार लंबी-लंबी सांस ली फिर चाची की रसोई की ओर गई।
"क्या हुआ निशि बाऊजी अभी नहीं आए?" अम्मा जी ने पूछा।
"नहीं आज वो ओवर टाइम कर रहे हैं, दस बजे आएँगे।" उसने भोलेपन से जवाब दिया।
"तुझे किसने कहा?" चाची ने पूछा।
"वो ना, बड़े दादा आए थे, वही बता के गए हैं।"
"तो तुझे तो अकेले डर लग रहा होगा न! चल आ जा हमारे पास बैठ जा, जब बाऊजी आ जाएँगे तो चली जाना।" अम्मा जी बोलीं।
"नहीं वो बाऊजी ने कहा था कि रोटी बना लेना, मुझे स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने कहा था कि चाची से जलवा लेना।" नीशू की मासूमियत पर अम्मा जी को दया आ गई, मन ही मन सोचने लगीं बेचारी मासूम बच्ची कैसे करेगी?" प्रत्यक्ष में बोलीं- "जा बहू स्टोव जला दे और ये न सेंक पाए तो रोटी भी सेंक देना।"
निशि चाची के साथ अपने कमरे में आ गई, चाची ने स्टोव जलाया और तवा रखते हुए बोलीं- "आटा तो तूने गूँथ लिया है, रोटी बना लेगी या मैं बना दूँ?"
"नहीं चाची मैं बना लूँगी, आपको अपने घर में भी तो बनाना है, आप जाओ।" उसने कहा।
"ठीक है लेकिन सब्जी? चल मैं भिजवाए देती हूँ।"
"नहीं न, हम दूध से खा लेंगे, मैं दूध ज्यादा लाई हूँ बाऊजी ने बोला था।"
"चल ठीक है मैं जा रही हूँ, किसी चीज की जरूरत हो तो बताना और अगर डर-वर लगे तो हमारे घर आ जाना, मैं आँगन का दरवाजा बंद नहीं करूँगी।" जाते हुए चाची ने कहा।
"ठीक है।" कहकर निशि पटला-बेलन लेकर रोटी बेलने की कोशिश करने लगी, उसकी बेली हुई रोटी कम और भारत का नक्शा अधिक नजर आ रही थी...परंतु उसने हार नहीं मानी, दो-चार रोटियों के बनते-बनते आकार में सुधार होने लगा, कोई रोटी आधी फूली तो कोई बिल्कुल नहीं, पर जैसे- तैसे उसने छ:-सात रोटियाँ बना लीं। अब उसने तवे को चिमटे से उतारा गरम-गरम तवा चिमटा से फिसल गया..."बाऊजीईईई" चिल्लाकर वह पीछे हट गई। डर के मारे उसके हाथ-पैर काँप रहे थे, उसने स्टोव के फटने की कई घटनाएँ सुनी थीं, इसलिए उसे लगा कि अगर तवा स्टोव की टंकी पर गिर जाता तो!
वह नहीं जानती थी कि स्टोव फटने का कारण क्या होता है, उधर स्टोव खाली जल रहा था, तवा फिसलकर दूर पड़ा था, वह जलते हुए स्टोव को निर्विकार घूरे जा रही थी पर उस पर दूध का भगौना रखने का साहस नहीं कर पा रही थी । बमुश्किल अपने काँपते हाथों को नियंत्रण में किया और दूध का भगोना स्टोव पर रखा। थाली में बचा हुआ सूखा आटा कनस्तर में डालने के लिए भीतर के कमरे में जाना है, पर अगर मैं कमरे में गई और उतनी देर में दूध उबलकर स्टोव की टंकी पर गिरा और टंकी फट गई तो!" नहीं-नहीं मैं नहीं जाऊँगी, पहले दूध गरम कर लूँ फिर स्टोव बंद करके ही हटूँगी। इसी प्रकार के डर से लड़ते हुए वह तब तक वहीं बैठी रही जब तक कि दूध गरम नहीं हो गया, फिर उसने स्टोव बंद किया और बड़ी ही सावधानी से कमरे में झाँककर देखा कोई अंदर है तो नहीं! फिर आटा कनस्तर में रखकर बड़ी तेजी से भाग कर बाहर ऐसे आई जैसे पीछे से कोई पकड़ने को दौड़ा हो। स्टोव के पास आकर इस प्रकार बैठ गई ताकि कमरे का और बाहर का दोनो ही दरवाजे सामने से दिखाई दें। बाहर जरा भी कुछ खटकता तो डर जाती, मन हुआ कि चाची के घर चली जाए पर अब तो रात भी ज्यादा हो गई है कैसे जाऊँ। 'अब तक तो चाचा भी आ गए होंगे तो चाची ने दरवाजा भी बंद कर लिया होगा, बाऊजी क्यों नहीं आए? 'जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था उसके भीतर का डर भी बढ़ता जाता था....अब तो उसे ऐसा वहम होने लगा कि कोई दरवाजे के बाहर छिपकर खड़ा है। वह साँस रोके उसकी आहट को या साँसों की आवाज को सुनने का प्रयास करने लगी। जब बच्चा डरता है तो अक्सर उसे प्यास, टॉयलेट या लू महसूस होने लगती है उस मासूम का डर उस पर इतना हावी हो चुका था कि उसे लू जाने की आवश्यकता महसूस हुई पर उसमें अब इतना साहस नहीं था कि वह अब कमरे से निकलकर बाहर जा सके, अपनी जगह बैठी-बैठी वह कभी घुटनों में मुँह छिपा लेती कभी गर्दन घुमाकर अपने चारों ओर देखकर आश्वस्त होती, अब तक तो बाऊजी को आ जाना चाहिए था पर क्यों नहीं आए? सोचते हुए उसकी आँखों से आँसू ढुलक कर कपोलों पर आकर ठहर गए। वह बुदबुदाने लगी- "बाऊजी आ जाओ, बाऊजी आ जाओ" अचानक उसके पैर के पास से एक चुहिया भागी "बाऊजीईईई......" वह चिल्लाकर खड़ी हो गई,
"क्या हुआ बेटा!" तेजी से दरवाजे से अंदर आकर बाऊजी ने उसे कंधे से पकड़कर हिलाया।
निशि ने अपनी आँखें खोलीं और सामने बाऊजी को देखते ही लिपट गई... "आप कहाँ रह गए थे, मुझे बहुत डर लग रहा था।" सुबकते हुए निशि ने कहा। उसने बाऊजी को इतनी जोर से पकड़ रखा था जैसे अब कभी अपने से दूर नहीं जाने देगी।
"डरो मत, अब तो मैं आ गया न!" बाऊजी ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा। "तुम तो मेरी बहादुर बेटा हो, बहादुर बच्चे डरते थोड़ी न हैं।"
"नहीं मैं कोई बहादुर नहीं, मुझे बहुत डर लगता है, आप प्रॉमिस करो कि अब इतनी देर तक कभी मुझे अकेली नहीं छोड़ोगे।" उसने तुनकते हुए कहा।
"ठीक है बाबा नहीं छोड़ूगा।" कहकर बाऊजी नें उसका माथा चूम लिया।
मालती मिश्रा 'मयंती'