शुक्रवार

मैं देश के लिए जिया

मैं देश के लिए जिया

जिया मैं देश के लिए
मरा मैं देश के लिए
उठा मैं देश के लिए
गिरा मैं देश के लिए

जला मैं देश के लिए
बुझा मैं देश के लिए
ये जन्म देश के लिए
हो मृत्यु देश के लिए

चला मैं देश के लिए
रुका मैं देश के लिए
मैं भक्त देश के लिए
आसक्त देश के लिए

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

वो नहीं आया

वो नहीं आया
 *वो नहीं आया*

ठीक-ठीक तो याद नहीं पर नवंबर या दिसंबर का महीना था रात के करीब  साढ़े दस-ग्यारह बजे रहे थे, वैसे तो मार्केट में होने के कारण हमारी गली में दस बजे तक लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है पर ठण्ड अधिक होने के कारण उस दिन गली सुनसान हो गई थी, मैं और मेरी दोनों बेटियाँ सोने की तैयारी कर रहे थे हम रजाई में लेटे-लेटे बातें कर रहे थे कि तभी बाहर से किसी पिल्ले के रोने की आवाज आई, पहले एक-दो बार तो सुनकर अनसुना किया पर वह हमारे गेट के पास ही रोए जा रहा था। बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि कुत्ते-बिल्ली का रोना अच्छा नहीं होता, मेरे पतिदेव बिजनेस के काम से शहर से बाहर गए हुए थे, अतः मन में अजीब-अजीब से ख़याल आने लगे। मन तो कर रहा था कि उसे अपने घर के सामने से भगा दूँ पर ठंड की वजह से उठने में आलस आ रहा था। अब उसका रोना बीच-बीच में बंद हो जाता फिर धीरे-धीरे किकियाने की सी आवाज आती, अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि वह कोई पिल्ला है, उसकी आवाज से ऐसा लग रहा था कि उसे चोट लगी होगी, काफी देर तक यही उपक्रम चलता रहा तो बेटी बोली- "मम्मी एक बार देख लेते हैं न! पता नहीं बेचारे को क्या हुआ है?"
"देखना तो मैं भी चाहती थी पर इतनी रात को गेट खोलना भी तो सुरक्षित नहीं था, डर भी लग रहा था कि कोई गेट के पास दीवार से लगकर खड़ा हुआ तो! वैसे भी आजकल आएदिन समाचारों में ऐसी खबरों ने दहशत का माहौल बना दिया है फिर घर में यदि मेरे पति देव होते तो शायद इतना डर नहीं लगता, हो सकता है उनके घर में न होने की बात किसी और को भी पता हो? ऐसे खयालों ने और अधिक भीरु बना दिया था। खैर बेटी के कहने से मैं उठी और हम दोनों गेट के पास गए, हमारा लोहे का गेट है जिसमें से आरपार देखा जा सकता है अतः हमने बिना गेट खोले इधर-उधर देखा पर कुछ भी नजर नहीं आया, फिर मैंने गेट खोला तो देखा कि दाहिनी ओर नीचे सीढ़ियों के पास एक गंदा सा मरियल सा पिल्ला, जिसके पैर कीचड़ से सने हुए थे, काँप रहा था रह-रहकर कूँ कूँ की आवाज़ निकालता। मेरी छोटी बेटी को वैसे भी जानवरों के बच्चों को देखकर बहुत दया आती है... मुझे याद है कुछ साल पहले एक गाय के बछड़े को गली से चिल्लाते हुए अकेले जाते देख यह कहकर कि "इसकी मम्मी नहीं मिल रही बेचारा खो गया है अपनी मम्मी को ढूँढ़ रहा है।" वो फूट-फूटकर रोई थी। आज भी उसकी स्थिति कुछ वैसी ही लगी। आखिर वह बोल ही पड़ी- "मम्मी बेचारे को पता नहीं क्या हुआ, ये कहाँ जाएगा?" मैं समझ चुकी थी कि उसे ठंड लग रही है, भूखा भी हो सकता है, गंदा होने के कारण छूना नहीं चाहती थी पर वहाँ मरने के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी, मैंने बेटी से अपनी पुरानी शॉल मँगवाई और उसी के सहारे उसे पकड़कर ऊपर ले आई, वैसे मुझे उसके काटने का डर भी लग रहा था, पर सोचा कि इस जानवर को भी शायद यह समझ आ जाएगा कि मैं इसकी सहायता कर रही हूँ। उसे गेट के पास रखकर बेटी से दूध गरम करके लाने को कहा वह दूध को हल्का सा गरम करके  कटोरी में लेकर आई, वह भूखा भी था इसलिए तुरंत दूध पी लिया। अब मैंने वहीं गेट के पास बोरी बिछाकर बैठा दिया और ऊपर से शॉल डाल दिया। वह अभी भी काँप रहा था पर उम्मीद थी कि थोड़ी देर में शॉल की गरमाहट से ठीक हो जाएगा इसी उम्मीद से हम अंदर जाने लगे, बड़ी बेटी अंदर गई पर मेरे जाने से पहले ही वह पिल्ला अंदर चला गया। मैंने उसे बाहर निकाला और फिर जैसे ही अंदर जाने के लिए पैर बढ़ाती वह मेरे पैर के नीचे से मुझसे पहले ही अंदर होता। हमें उसकी चालाकी पर हँसी भी आ रही थी, उसकी दयनीय दशा पर दया भी आ रही थी पर अगर उसे अंदर रखते तो वो घर में गंदगी फैलाता इसका भी डर था, समझ नहीं आ रहा था क्या करें...कुछ देर के लिए तो यह अंदर जाना-बाहर आना खेल सा बन गया पर ऐसा कब तक चलता! मैंने अपने हसबेंड को फोन करके उन्हें सारी बात बताई और उस पिल्ले की चतुराई भी तो उन्होनें सलाह दी कि उसे गेट के अंदर आने दूँ और किसी छोटी रस्सी से अंदर ही गेट से बाँध दूँ। हमें यह बात जँच गई, अब मैंने सोचा कि अगर गेट के पास उसने टॉयलेट भी कर लिया तो कोई बात नहीं पानी डालकर साफ हो जाएगा, अतः उसे गेट से बाँध दिया और बोरी पर बैठाकर शॉल से ढक दिया। उसे मानो असीम आनंद की प्राप्ति हो गई, उसने आवाज तक नहीं की चुपचाप ऐसा सोया कि हम बिस्तर पर पड़ते ही सो गए हमें उसकी एकबार भी आवाज नहीं आई।
सुबह साढ़े छः -सात बजे मेरी नींद खुली रविवार था, उठने की जल्दी नहीं थी इसलिए मैं रजाई में ही दुबकी रही अचानक मुझे पिल्ला याद आया और मैं झटके से उठ बैठी। उसकी आवाज नहीं आ रही थी, रात की उसकी दशा याद आते ही लगा कि कहीं मर तो....मैंने तुरंत बेटियों को जगाया और पिल्ले की याद दिलाई। वो दोनों जो रोज कई-कई बार जगाने से भी नहीं जागती आज एकबार में ही उठकर बैठ गईं  हम तीनों कमरे से निकले देखा वो चुपचाप टहल रहा था। मैंने गेट खोला कि अब इसे बाहर निकाल दूँ, मुझे लगा कि यह जाना नहीं चाहेगा पर गेट खोलते ही वह बाहर निकल कर सीढ़ियों से नीचे गली में उतरने लगा, हम माँ बेटी खुश हो गए कि चलो इसने परेशान नहीं किया घर भी गंदा नहीं किया। वह आखिरी सीढ़ी उतर कर दो कदम चला और फिर वहीं लघुशंका से निवृत्त हुआ फिर मुड़ा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, हम हैरान थे कि यह इसलिए नीचे गया था और हम क्या समझ रहे थे...तभी अखबार वाला आया और उसे देखते ही पिल्ले ने भौंकना शुरु कर दिया, हमने उसे फिर दूध पिलाया और सोचा कि अब चला जाय इसलिए भगाने की कोशिश भी की पर वह वहीं गेट पर डटा रहा गली में हमारे घर के सामने से जो भी निकलता उस पर जोर-जोर से भौंकता, अब क्या! वह वहीं गेट पर हमारे साथ था हम उसका वो घर की सुरक्षा का अधिकार भाव देख-देख अभिभूत हो रहे थे, वह हमारी थोड़ी सी देखभाल के लिए हमारे प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए हमारे घर की चौकीदारी कर रहा था। उसे भौंकते देख आने-जाने वाले पीछे मुड़-मुड़कर देखते। कुछ देर के बाद उसे छोड़ने के लिए ही मेरी बेटी सीढ़ियों से नीचे उतर कर एक ओर को जाने लगी वह भी पीछे-पीछे गया फिर वह भाग कर वापस आई तो उतनी ही तेजी से वह भी आ गया। अब बेटी पुनः गई पर थोड़ी तेजी से ताकि दूरी बनी रहे और वह भी पीछे-पीछे जाने लगा, हमारे घर में आगे-पीछे दोनों गलियों में गेट है अतः आगे जाकर दूसरी गली के लिए मुड़कर जैसे ही अगले गेट पर आने के लिए गली में दाहिनी ओर मुड़ी बाँई ओर से कुछ लड़के आ रहे थे वह पिल्ला फिर स्वामिभक्ति दिखाते हुए उन पर जोर-जोर से भौंकने लगा और उसकी व्यस्तता का लाभ उठाकर बेटी वहाँ खड़ी गाड़ियों के पीछे से छिपती-छिपाती अगले गेट से घर में आ गई।
हमने चैन की साँस ली कि अब धूप निकल रही है वह कहीं भी चला जाएगा। थोड़ी देर के बाद बाहर फिर से भौंकने की आवाज आई तो मैं दौड़कर गेट के पास आई और देखा कि वह गेट के बाहर ही धूप में बैठा है और गली से निकलने वाले किसी के ऊपर भौंक रहा था। मन अजीब सी बेबसी से भर गया.. काश हमारे घर में इतनी जगह होती कि हम इसे पाल पाते, पर पालतू जानवर रखना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है जिसमें हम सक्षम नहीं। इसलिए मैं चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई। काफी देर के बाद देखा तो वह वहाँ से जा चुका था, बेटी ने बताया कि हमारे घर के सामने जो फ्लैट बन रहा है, उसमें से सीमेंट और कंकड़ आदि गिर कर उसे लग रहे थे, इसीलिए वो चला गया। उसे तो हम भी भगाना ही चाहते थे पर फिरभी उसका जाना अच्छा नहीं लगा, खयाल आया कि क्या वो अब हमारा घर भूल जाएगा या शाम को फिर आएगा....मन के किसी कोने में उसका इंतजार था कि शायद शाम को जब ठंड लगे तो वो फिर आए...शाम हुई...रात भी हो गई...पर वो नहीं आया...शायद वो समझ गया था कि हम उसे भगाना चाहते थे।
मालती मिश्रा 'मयंती'

मंगलवार

निशि


सौ वाट का बल्ब खपरैल की छत से लटकते हुए दस बाई दस के उस रसोई के लिए प्रयोग होने वाले कमरे को ही रोशन नहीं कर रहा था बल्कि दरवाजे के ऊपरी चौखट तक लटके होने के कारण भीतर के कमरे में भी दूसरे बल्ब की उपयोगिता को समाप्त कर रहा था। सर्दी ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराना शुरु कर दिया था, सुबह शाम की ठंड के कारण शाम के सात-आठ बजे तक बाहर बिल्कुल सन्नाटा हो जाता है, सभी अपने-अपने घरों में सिमट जाते है बाहर सांय-सांय करता हुआ बड़ा सा रामलीला-मैदान दिन में जितना सुकून देह लगता है रात को उतना ही डरावना लग रहा था। दस-ग्यारह साल की निशि मन ही मन डर रही थी, उसका ये छोटा सा दो कमरों का घर जो सर्दी, गर्मी, वर्षा तथा अन्य सभी परिस्थितियों में उसका रक्षक है, इस समय उसे डरावना लग रहा था, वह शाम तक तो पड़ोस में चाची के घर में खेलती रही लेकिन जब पाँच बजे तक बाऊजी नहीं आए तो उसका एक-एक पल भारी होने लगा था। वह चाची की बेटियों के साथ खेलते-खेलते बाहर आकर मैदान के दूसरे छोर तक जहाँ तक नजर जाती, इस उम्मीद में देखती कि बाऊजी आते हुए दिखाई पड़ जाएँ पर निराश होकर वापस लौट आती। चाची की सास जिन्हें वह अम्मा जी कहती थी वो उसको बहलाती रहीं तू डर मत तेरे बाऊजी आ जाएँगे, किसी काम में फँस गए होंगे इसलिए देर हो गई। बाहर अँधेरे ने पैर पसारना शुरू कर दिया था, उससे रहा न गया वह फिर खेल बीच में से छोड़कर बाहर आ गई, तभी उसके गाँव के रिश्ते से 'बड़े दादा' आ गए, जो गाँव में उसके पड़ोसी हैं और यहाँ बाऊजी के साथ ही उसी गोदाम में काम करते हैं।
"बड़े दादा बाऊजी कहाँ हैं?" उन्हें देख नन्हीं निशि का सब्र मानो छलक ही पड़ा उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
"रो मत, तेरे बाऊ जी आज ओवर-टाइम कर रहे हैं, उन्होंने कहा है कि दूध ले आना और रोटी बना पाओ तो बना के खा लेना, वो दस बजे तक आएँगे।" बड़े दादा उसे समझाते हुए बोले।
"दस बजे तक" अकस्मात् ही उसके मुँह से निकला।  वह दस बजे तक कैसे रहेगी यह सोचकर ही सिहर गई।
हाँ, हम घर जा रहे हैं आओ तू भी चल दूध लेकर आ जाना।" उन्होंने कहा। उनके घर से थोड़ा और आगे ही जाना था उसे दूध लेने, इसीलिए दूध की डोलची लेकर वह बड़े दादा के साथ ही चल दी। दूध लेकर आते-आते साढ़े सात बज गए थे रात पूरी कालिमा से घिर आई थी अब तक तो बाहर खेलने वाले बच्चे भीं नदारद हो चुके थे, पर कहीं कहीं इक्का-दुक्का बच्चे दिखाई दिए इसलिए रास्ते में डर नह़ी लगा, पर घर का दरवाजा अंदर को धकेलते हुए उसके हाथ रुक गए, कोई अंदर हुआ तो?
फिर खुद ही खुद को हिम्मत बँधाया...धत्त इतना क्यों डरती है! अभी तो सभी बाहर ही हैं और ऐसा सोचते हुए दरवाजा भीतर को धकेला और डरते -डरते घर में पैर रखा।

अब उसे रोटी बनानी थी; बाऊजी को रोटी बनाते देख-देखकर और खेल-खेल में कभी माँ के साथ तो कभी बाऊजी के साथ एक-दो रोटी बनाती और इस तरह कामचलाऊ रोटी बना लेती है, पर आटा; वो कैसे गूँदेगी? निशि पटरी पर उकड़ूँ बैठी पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरेदते  दस-पंद्रह मिनट तक यही सोचती रही, फिर 'चलो आज ये भी करते हैं..' ये सोचकर वह उठी और थाली लेकर भीतर वाले कमरे में गई और आटा निकाला... वह बार-बार कमरे के अँधेरे भाग में नजरें गड़ा कर देखने का प्रयास करती कि कहीं कोई उसके पीछे तो नहीं! डरते-डरते वह आटा निकाल लाई और फिर अपने छोटे-छोटे हाथों से आटा गूँदने लगी, कितना पानी डालना है इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं था इसीलिए थोड़ा-थोड़ा पानी डालती फिर जितने आटे में मिल जाता उसे अलग रखकर फिर बचे हुए आटे में पानी मिलाती, इसी क्रम में उसने अपने और बाऊजी के खाने लायक रोटियों के लिए आटा गूँद लिया, उसके कपोलों और ललाट पर आटा लगा देख कोई भी सहज ही जान जाता कि उसने आटा गूँदने के लिए कितनी जद्दो-जहद की होगी।
 जैसे-तैसे आटा तो गूँद दिया पर स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने बड़े दादा से कहलवाया था कि चाची से स्टोव जलवा लेना। निशि सोचने लगी चाची के घर कैसे जाए बाहर कोई छिपा हुआ होगा तो! नहीं..नहीं अभी तो सब जाग रहे हैं, बाहर चाची के बरामदे में लाइट भी जल रही है, डरने की कोई बात ही नहीं। उसने अपने-आप को हिम्मत बँधाया और बाहर निकलकर दाएँ-बाएँ गर्दन घुमाकर देखा कि कोई किसी अँधेरे कोने में छिपा तो नहीं और दौड़कर बरामदे में चढ़कर दो ही कदमों में बरामदा पार कर दरवाजा धकेलते हुए आँगन में आ गई, अब उसने खड़े होकर पहले अपनी डर से रुकी हुई साँस दुरुस्त की। दो-तीन बार लंबी-लंबी सांस ली फिर चाची की रसोई की ओर गई।
"क्या हुआ निशि बाऊजी अभी नहीं आए?" अम्मा जी ने पूछा।
"नहीं आज वो ओवर टाइम कर रहे हैं, दस बजे आएँगे।" उसने भोलेपन से जवाब दिया।
"तुझे किसने कहा?" चाची ने पूछा।
"वो ना, बड़े दादा आए थे, वही बता के गए हैं।"
"तो तुझे तो अकेले डर लग रहा होगा न! चल आ जा हमारे पास बैठ जा, जब बाऊजी आ जाएँगे तो चली जाना।" अम्मा जी बोलीं।
"नहीं वो बाऊजी ने कहा था कि रोटी बना लेना, मुझे स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने कहा था कि चाची से जलवा लेना।" नीशू की मासूमियत पर अम्मा जी को दया आ गई, मन ही मन सोचने लगीं बेचारी मासूम बच्ची कैसे करेगी?" प्रत्यक्ष में बोलीं- "जा बहू स्टोव जला दे और ये न सेंक पाए तो रोटी भी सेंक देना।"
निशि चाची के साथ अपने कमरे में आ गई, चाची ने स्टोव जलाया और तवा रखते हुए बोलीं- "आटा तो तूने गूँथ लिया है, रोटी बना लेगी या मैं बना दूँ?"
"नहीं चाची मैं बना लूँगी, आपको अपने घर में भी तो बनाना है, आप जाओ।" उसने कहा।
"ठीक है लेकिन सब्जी? चल मैं भिजवाए देती हूँ।"
"नहीं न, हम दूध से खा लेंगे, मैं दूध ज्यादा लाई हूँ बाऊजी ने बोला था।"
"चल ठीक है मैं जा रही हूँ, किसी चीज की जरूरत हो तो बताना और अगर डर-वर लगे तो हमारे घर आ जाना, मैं आँगन का दरवाजा बंद नहीं करूँगी।" जाते हुए चाची ने कहा।
"ठीक है।" कहकर निशि पटला-बेलन लेकर रोटी बेलने की कोशिश करने लगी, उसकी बेली हुई रोटी कम और भारत का नक्शा अधिक नजर आ रही थी...परंतु उसने हार नहीं मानी, दो-चार रोटियों के बनते-बनते आकार में सुधार होने लगा, कोई रोटी आधी फूली तो कोई बिल्कुल नहीं, पर जैसे- तैसे उसने छ:-सात रोटियाँ बना लीं। अब उसने तवे को चिमटे से उतारा गरम-गरम तवा चिमटा से फिसल गया..."बाऊजीईईई" चिल्लाकर वह पीछे हट गई। डर के मारे उसके हाथ-पैर काँप रहे थे, उसने स्टोव के फटने की कई घटनाएँ सुनी थीं, इसलिए उसे लगा कि अगर तवा स्टोव की टंकी पर गिर जाता तो!
वह नहीं जानती थी कि स्टोव फटने का कारण क्या होता है, उधर स्टोव खाली जल रहा था, तवा फिसलकर दूर पड़ा था, वह जलते हुए स्टोव को निर्विकार घूरे जा रही थी पर उस पर दूध का भगौना रखने का साहस नहीं कर पा रही थी । बमुश्किल अपने काँपते हाथों को नियंत्रण में किया और दूध का भगोना स्टोव पर रखा। थाली में बचा हुआ सूखा आटा कनस्तर में डालने के लिए भीतर के कमरे में जाना है, पर अगर मैं कमरे में गई और उतनी देर में दूध उबलकर स्टोव की टंकी पर गिरा और टंकी फट गई तो!" नहीं-नहीं मैं नहीं जाऊँगी, पहले दूध गरम कर लूँ फिर स्टोव बंद करके ही हटूँगी। इसी प्रकार के डर से लड़ते हुए वह तब तक वहीं बैठी रही जब तक कि दूध गरम नहीं हो गया, फिर उसने स्टोव बंद किया और बड़ी ही सावधानी से कमरे में झाँककर देखा कोई अंदर है तो नहीं! फिर आटा कनस्तर में रखकर बड़ी तेजी से भाग कर बाहर ऐसे आई जैसे पीछे से कोई पकड़ने को दौड़ा हो। स्टोव के पास आकर इस प्रकार बैठ गई ताकि कमरे का और बाहर का दोनो ही दरवाजे सामने से दिखाई दें। बाहर जरा भी कुछ खटकता तो डर जाती, मन हुआ कि चाची के घर चली जाए पर अब तो रात भी ज्यादा हो गई है कैसे जाऊँ। 'अब तक तो चाचा भी आ गए होंगे तो चाची ने दरवाजा भी बंद कर लिया होगा, बाऊजी क्यों नहीं आए? 'जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था उसके भीतर का डर भी बढ़ता जाता था....अब तो उसे ऐसा वहम होने लगा कि कोई दरवाजे के बाहर छिपकर खड़ा है। वह साँस रोके उसकी आहट को या साँसों की आवाज को सुनने का प्रयास करने लगी। जब बच्चा डरता है तो अक्सर उसे प्यास, टॉयलेट या लू महसूस होने लगती है उस मासूम का डर उस पर इतना हावी हो चुका था कि उसे लू जाने की आवश्यकता महसूस हुई पर उसमें अब इतना साहस नहीं था कि वह अब कमरे से निकलकर बाहर जा सके, अपनी जगह बैठी-बैठी वह कभी घुटनों में मुँह छिपा लेती कभी गर्दन घुमाकर अपने चारों ओर देखकर आश्वस्त होती, अब तक तो बाऊजी को आ जाना चाहिए था पर क्यों नहीं आए? सोचते हुए उसकी आँखों से आँसू ढुलक कर कपोलों पर आकर ठहर गए। वह बुदबुदाने लगी- "बाऊजी आ जाओ, बाऊजी आ जाओ" अचानक उसके पैर के पास से एक चुहिया भागी "बाऊजीईईई......" वह चिल्लाकर खड़ी हो गई,
"क्या हुआ बेटा!" तेजी से दरवाजे से अंदर आकर बाऊजी ने उसे कंधे से पकड़कर हिलाया।
निशि ने अपनी आँखें खोलीं और सामने बाऊजी को देखते ही लिपट गई... "आप कहाँ रह गए थे, मुझे बहुत डर लग रहा था।" सुबकते हुए निशि ने कहा। उसने बाऊजी को इतनी जोर से पकड़ रखा था जैसे अब कभी अपने से दूर नहीं जाने देगी।
"डरो मत, अब तो मैं आ गया न!" बाऊजी ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा। "तुम तो मेरी बहादुर बेटा हो, बहादुर बच्चे डरते थोड़ी न हैं।"
"नहीं मैं कोई बहादुर नहीं, मुझे बहुत डर लगता है, आप प्रॉमिस करो कि अब इतनी देर तक कभी मुझे अकेली नहीं छोड़ोगे।" उसने तुनकते हुए कहा।
"ठीक है बाबा नहीं छोड़ूगा।" कहकर बाऊजी नें उसका माथा चूम लिया।

मालती मिश्रा 'मयंती'


सोमवार

जाग हे नारी

जाग हे नारी
आज रो रही भारत माता
व्यथा हृदय की किसे कहे
नारी की लुटती अस्मत को
देख आँख से लहू बहे
मान तेरा अब तेरे हाथ है
मत बन तू लाचार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

गिद्ध जटायु का वो जमाना
बीत गया त्रेतायुग में
गर्म मांस को खाने वाले
मिलते हैं इस कलयुग में
आएँगे श्री कृष्ण सोचकर
लगा नहीं तु गुहार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार

चीर बढ़ाकर लाज बचाया
ये बातें सब बीत गईं 
राम-कृष्ण की मर्यादा से
ये धरती अब रीत गई
है आज धरा पर व्याप्त हुआ
दुशासन अत्याचार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार

सीता सावित्री बन करके
तूने धर्म निभाया है
द्रौपदी बन बिना शस्त्र भी
अधर्मियों को मिटाया है
छोड़ लचारी बन जा दुर्गा
कर दुश्मन संहार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

आज कि माता बेटा जनकर
कैसे खुशी मनाएगी
यदि पुत्र/बेटा रावण बन जाए
चैन नहीं वो पाएगी
ऐसे में तो बिना पूत ही
मिलती खुशी अपार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

चौराहों पर पल्लू खींचें
नहीं कृत्य ये मानव के
नहीं दिखा तू भय अपना मत
बढ़ा हौसले दानव के
रावण भी भयभीत हुआ सुन
सीता की ललकार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

गुरुवार

संस्मरण...'मौसी'

संस्मरण...'मौसी'
संस्मरण
मौसी
आज अचानक ही न जाने क्यों उस व्यक्तित्व की याद आई जो मेरे जीवन में माँ सी थीं। हालांकि आज वो इस दुनिया में प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु माँ की यादों के साथ उनकी यादें भी सदा मेरे हृदय में जीवित रहती हैं। आज तो मेरी माँ जिन्हें हम 'अम्मा' कहते हैं वो भी हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु मौसी उनकी छोटी बहन होते हुए भी उनसे पहले ही इहलोक को छोड़ गई थीं शायद उनका बिछोह ही था जिसने अम्मा को और अधिक तोड़ दिया, मुझे तो उनकी मृत्यु के विषय में बाद में पता चला, अम्मा ने फोन पर बताया कि 'मौसी चल बसीं' और वो आज ही उनकी तेरहवीं आदि सारे क्रियाकर्म सम्पन्न करवाकर घर लौटी हैं। उनकी आवाज उनके व्यथित हृदय की दशा को दर्शा रही थी, मैं चाहकर भी उनके दुःख का अनुमान नहीं लगा सकती थी। ले-देकर मायके के नाम पर उनकी वो छोटी बहन ही तो थीं, मेरे इकलौते मामा जी तो वर्षों पहले परलोकवासी हो चुके थे, फिर कुछ सालों के बाद नानी और उनके जाने के कोई चार-पाँच माह बाद ही नाना जी भी परलोक को सिधार गए। अब सिर्फ मौसी ही बची थीं... तो दोनों बहनें ही एक-दूसरे का मायका थीं। अब वो भी चली गईं, मैं समझ सकती हूँ कि माँ आज कितना अकेलापन महसूस कर रही होंगीं। उनका मायका बना रहे इसीलिए तो उन्होंने कभी नाना जी के खेतों में या फसल में मौसी से हिस्सा नहीं लिया, वो चाहती थीं कि मौसी का इकलौता बेटा ही नाना जी के खेत, घर आदि की देखभाल करे, माँ के इस निर्णय को बाबू जी ने भी सहमति दी थी पर विधि के विधान ने यह अंतिम डोर भी तोड़ दी थी। मेरा मन कर रहा था कि काश मेरे पंख लग जाते और मैं उड़कर माँ के पास पहुँच जाती, पर अगले ही पल ख्याल आता कि मैं पहुँचकर कर भी क्या लूँगी! मुझे तो सांत्वना देना भी नहीं आता, मैं उनका दुःख किसी भी तरह कम नहीं कर सकती थी। माँ ने बताया कि कोई छोटी सी चोट लगने से उनके एक हाथ में जख्म हो गया था जो शुगर के कारण बढ़ता ही गया और धीरे-धीरे पूरा हाथ जख्म से भर गया। उसी जख़्म में इन्फेक्शन ने उनकी जान ले ली। अम्मा से बात करके फोन रखते ही मस्तिष्क में मौसी का वो भावशून्य झुर्रियों भरा चेहरा घूमने लगा जो वर्षों पहले मैंने आखिरी बार देखा था।
'मौसी' शब्द सुनते ही मेरे मनो-मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वो कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी की नहीं बल्कि धो-धोकर रंग उड़ चुकी पुरानी सी सूती साड़ी में लिपटी रहने वाली एक दुबली-पतली छरहरी सी काया, गहरा साँवला रंग और साधारण से नैन-नक्श वाली महिला की छवि है। बाल खिचड़ी हो चुके थे...नहीं, जब मैं उनसे आखिरी बार कोई सात-आठ साल पहले मिली थी तब वह बूढ़ी हो चुकी थीं उनके बाल पूरे सफेद हो चुके थे, झुर्रियों ने न सिर्फ चेहरे पर बल्कि पूरे शरीर पर ही अपना आधिपत्य जमा लिया था। मेरी इकलौती मौसी मेरी अम्मा से छोटी थीं पर वक्त की मार ने उन्हें अम्मा से भी पहले उनसे ज्यादा बूढ़ी बना दिया था। मुझे आज भी याद है जब मेरे मामा जी का देहान्त हो गया था तो अम्मा को कई बार यह कहते सुना था कि मौसी को उनके वैधव्य ने उतना नहीं तोड़ा जितना इकलौते भाई की मौत ने तोड़ दिया। मौसा जी की मृत्यु कब और कैसे हुई मैं नहीं जानती; मुझे कुछ याद है तो मौसी और उनके इकलौते बेटे, जो मुझसे बड़े हैं। मुझे उनके व्यवहार से कभी लगा ही नहीं था कि उनके जीवन में किसी प्रकार का खालीपन है, किन्तु मामा जी की मृत्यु के उपरांत वो एकाएक बड़ी ही तेजी से वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगीं, क्यों न हो मौसी का गाँव मामा जी के गाँव के पास ही है, मामा जी हर छोटी-बड़ी जरूरत पर मौसी के लिए उपस्थित रहते थे जिससे वह अपना दुख भूल चुकी थीं किन्तु जब ईश्वर ने इकलौते दो बहनों के लाडले भाई को छीन लिया तो अम्मा तो अपने भरे पूरे परिवार में इस विपदा को झेल गईं लेकिन मौसी न झेल सकीं और धीरे-धीरे वह शुगर की मरीज हो गईं। आज भी याद है गाँव में लोग मौसी को आदर्श मान उनका उदाहरण देते थे...कहते औरतों को उनसे हिम्मत और अपनी बात पर अडिग रहने की सीख लेनी चाहिए। नाना-नानी, गाँव के सम्मानित वयोवृद्ध और मौसी के ससुराल के परिजनों ने बहुत कोशिश की थी कि मौसी  दूसरी शादी के लिए तैयार हो जाएँ पर मौसी ने अपनी इकलौती संतान के सहारे अपना जीवन बिताने का अपना फैसला जितनी दृढ़ता से सबको सुनाया था, उतनी ही दृढ़ता से जीवनपर्यंत उसका पालन किया। कुछ सिरफिरे लोगों ने तो ये सलाह तक दे डाली थी कि मेरे पिताजी से ही मौसी को विवाह कर लेना चाहिए ताकि एक पत्नी गाँव में तो दूसरी उनके साथ शहर में रहती। ऐसी बातें सुनकर बाबूजी ने जो फटकार लगाई थी वो तो अलग' मौसी ने जिनको झाड़ लगाई वो महीनों उनका सामना करने से कतराते थे। एकबार मैं कुछ दिनों के लिए उनके घर रहने के लिए गई थी, लगभग एक हफ्ता मैं वहाँ रही पर एक पल को भी नहीं लगा कि मैं अपनी माँ से दूर हूँ। उन दिनों में उनकी वो देखभाल करती ममतामयी छवि देख मैं मन ही मन उनके उस रूप से तुलना करने लगी जब उन्होंने मेरे पैर में कील चुभ जाने पर बड़ी ही सख्ती से न सिर्फ उस कील को खींचकर निकाल दिया था बल्कि सरसों के तेल में रुई की बाती भिगो कर जलती हुई बाती का तेल जख्म पर टपकाया था। मैं कितना चीखी थी पर वो सख्ती से मेरा पैर पकड़कर अपना वो घरेलू इलाज करके ही मानी थीं, कहने लगीं ऐसा करने से टिटनेस नहीं होगा। पर उस कठोर चेहरे के पीछे छिपे इस ममतामयी मौसी को लेकर मेरे भाई और मुझमें तब बहस हुई थी जब वह भी कुछ दिन उनके पास रहकर आया। वो कहता कि मौसी ने उसे ज्यादा लाड़ लड़ाया और मैं कहती मुझे। पर एक बेटी की किस्मत ने मुझे मेरी मौसी से वर्षों पहले दूर कर दिया था और विधाता ने अब हमेशा के लिए।

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

बालदिवस

बालदिवस
बालदिवस
कंधे से बस्ता उतारकर सोफे पर फेंकते हुए बंटी ने माँ को बताया कि कल विद्यालय में बालदिवस मनाया जाएगा इसलिए सब बच्चों को फैन्सी ड्रेस पहनकर आना है। "माँ मैं क्या बनकर जाऊँ?" तब माँ उसे बाजार लेकर गई ताकि उसके लिए कोई ऐसी ड्रेस खरीद सके जिसमें बंटी कल सबसे अलग सबसे सुंदर लगे। जाते-जाते अपनी नौकरानी की दस साल की बेटी गुड्डी को बंटी के कपड़े, जूते-मोजे और बस्ता जगह पर रखकर रसोई में पड़े जूठे बरतनों को साफ करने के लिए भी कहती गई। आज उसकी नौकरानी बुखार होने के कारण नहीं आई तो बंटी की माँ ने उसकी बेटी को ही बुला लिया। अगली सुबह बंटी खरगोश की सुंदर सी ड्रेस पहनकर बहुत ही सुंदर सा खरगोश लग रहा था, खुशी के मारे उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, खरगोश की ड्रेस में वह खुद को खरगोश जैसा ही महसूस करते हुए पूरे घर में उछल-कूद कर रहा था। स्कूल में जहाँ कोई महात्मा गाँधी तो कोई झाँसी की रानी, कोई नेता जी तो कोई भगत सिंह बनकर आए थे वहीं कोई बच्चा हाथी तो कोई खरगोश बनकर। बंटी ने सबके साथ खूब मजे किए। घर आते समय रास्ते में एक छोटा सा बच्चा बंटी की माँ के आगे खड़ा हो गया, और हाथ फैलाकर बोला "कुछ खाने को दे दो भूख लगी है।"
बंटी की माँ ने उसकी ओर देखा.. मैली-कुचैली सी कमीज कंधे से फटकर लटक रही थी, मुँह और हाथ-पैर इतने गंदे मानो कई दिनों से पानी छुआ ही न हो। 'कुछ नहीं है' कहकर बंटी की माँ उससे बचकर किनारे से ऐसे निकलीं ताकि वह छू न जाए। घर पर आज भी गुड्डी सफाई कर रही थी।
"माँ ये बालदिवस क्या होता है?" बंटी ने पूछा। "बेटा बाल मतलब बच्चे और दिवस का मतलब दिन, यानि बच्चों का दिन। हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बच्चों से बहुत प्यार करते थे, बच्चे उन्हें प्यार से चाचा नेहरू कहते थे, इसीलिए उनके जन्मदिन को बालदिवस के रूप में मनाते हैं।"
"अच्छा तो चाचा नेहरू को गरीब और गंदे दिखने वाले बच्चे अच्छे नहीं लगते थे इसलिए ये बालदिवस उनके लिए नहीं होता, है न माँ!"
माँ अवाक् निरुत्तर सी बंटी को देखने लगी।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शुक्रवार

धूमिल होते धार्मिक त्योहार

धूमिल होते धार्मिक त्योहार
'धूमिल होते धार्मिक त्योहार'

 हमारा देश 'त्योहारों का देश' कहा जाता है, सत्य भी है क्योंकि यहाँ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बहुत से तीज-त्योहार मनाए जाते हैं, हमारे प्रत्येक त्योहार के पीछे धार्मिक मान्यता होती है, यह तो हम जानते हैं किन्तु प्रत्येक मान्यता के पीछे वैज्ञानिक कारण भी होते हैं; इस बात से सर्वथा अंजान होते हुए भी हम अपने धार्मिक मान्यताओं को महत्व देते हुए पूर्ण आस्था के साथ सभी रीति-रिवाजों, नियमों का पालन करते हुए अपने त्योहारों को मनाते हैं। हमारे सभी त्योहार परिवार को एक साथ मिलजुल कर रहने तथा सामाजिक दायित्व निभाते हुए समाज में भी घुलमिल कर रहने का संदेश देते हैं, इसीलिए तो त्योहारों को मनाने की विधियाँ ऐसी होती हैं जिसमे समाज और परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता होती है जैसे दीपावली के त्योहार पर भी कुम्हार के घर से दीये तो लुहार के घर से लोहे का औजार, हरिजन, नापित का भी महत्व और फिर पूजन के लिए ब्राह्मण की आवश्यकता होती है।  इसी प्रकार परिवार के भी प्रत्येक सदस्य अपने-अपने भाग का कार्य करते हुए त्योहारों को मनाते हैं, जिससे सभी में आपस में प्रेम-सद्भाव बना रहता था। किन्तु अब ऐसा नहीं है। समाज विकास पथ पर अग्रसर है और विकास की इस दौड़ में धन और भौतिक साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है। आवश्यकता की सभी चीजें बाजार में मिलती हैं तथा 'पैसा फेंको तमाशा देखो' वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। जिसके कारण आपस में प्रेम-सहयोग के स्थान पर आर्थिक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ जिसके चलते व्यक्ति अधिकाधिक धन को प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो गया और वह श्रम तथा आपसी प्रेम से ज्यादा पैसों को महत्व देने लगा।
आजकल समाजिक और पारिवारिक स्वरूप में भी परिवर्तन आया है, संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है। हमारे त्योहार परिवार के सभी सदस्यों को तथा आस-पड़ोस को एक साथ मिलजुल रहने की प्रेरणा देते हैं किन्तु आजकल इसके विपरीत एकल परिवारों की बहुलता होने तथा बढ़ती मँहगाई व आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पति-पत्नी दोनों का ही कामकाजी होना आवश्यक हो गया है, जिससे समयाभाव के कारण लोग न सिर्फ आस-पड़ोस से कटकर अपने आप में ही सिमटते जा रहे हैं बल्कि अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारों से भी बचते हैं क्योंकि रिश्तेदारी निभाते हुए समय, श्रम और धन तीनों की आवश्यकता होती है और आजकल व्यक्ति ये तीनों ही बचाने का मार्ग खोजता है, जिसके कारण न तो वे अपने धार्मिक त्योहारों को अधिक समय दे पाते और न ही बच्चों में उन संस्कारों का विकास कर पाते जो उन्हें उनकी परंपराओं से जोड़े रखे।

ऐसी स्थिति में बच्चों का झुकाव मनोरंजन की ओर होता है और वह अपनी परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं या अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए टेलीविजन और सोशल मीडिया पर आश्रित हो जाते हैं। अतः परिणामस्वरूप तरह-तरह की भ्रामक तथ्यों का शिकार हो जाते हैं। उन्हें सही ज्ञान न मिलकर विपरीत तथा नकारात्मक बातों की जानकारी प्राप्त होती है जिससे वे अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही अति आधुनिकता के मारे माता-पिता भी त्योंहारों को सिर्फ औपचारिकता निर्वहन के लिए धार्मिक आस्था के रूप में न देखते हुए इन्हें उत्सव के रूप में मनाते हैं, जिससे हमारी नई पीढ़ी धार्मिक त्योहारों के वास्तविक स्वरूप व इनके पीछे के उद्देश्य से अनभिज्ञ रह जाती है।
महानगरों में रोजमर्रा के भागमभाग भरी और उबाऊ जिंदगी से कुछ समय के लिए यह त्योहार मानसिक संतोष तो प्रदान करते हैं परंतु ऐसी स्थिति में इनको मनाते समय धार्मिक आस्था को कम और दिखावा और मनोरंजन को अधिक महत्व दिया जाता है। अतः कहना अतिश्योक्ति न होगी कि विभिन्न  सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से धीरे-धीरे हमारे त्योहारों का वास्तविक स्वरूप धूमिल होता जा रहा है जिससे हमारी नई पीढ़ी इसके वास्तविक स्वरूप से अंजान तथा परंपराओं से विमुख होती जा रही है।

मालती मिश्रा 'मयंती'