गुरुवार

संस्मरण...'मौसी'

संस्मरण
मौसी
आज अचानक ही न जाने क्यों उस व्यक्तित्व की याद आई जो मेरे जीवन में माँ सी थीं। हालांकि आज वो इस दुनिया में प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु माँ की यादों के साथ उनकी यादें भी सदा मेरे हृदय में जीवित रहती हैं। आज तो मेरी माँ जिन्हें हम 'अम्मा' कहते हैं वो भी हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु मौसी उनकी छोटी बहन होते हुए भी उनसे पहले ही इहलोक को छोड़ गई थीं शायद उनका बिछोह ही था जिसने अम्मा को और अधिक तोड़ दिया, मुझे तो उनकी मृत्यु के विषय में बाद में पता चला, अम्मा ने फोन पर बताया कि 'मौसी चल बसीं' और वो आज ही उनकी तेरहवीं आदि सारे क्रियाकर्म सम्पन्न करवाकर घर लौटी हैं। उनकी आवाज उनके व्यथित हृदय की दशा को दर्शा रही थी, मैं चाहकर भी उनके दुःख का अनुमान नहीं लगा सकती थी। ले-देकर मायके के नाम पर उनकी वो छोटी बहन ही तो थीं, मेरे इकलौते मामा जी तो वर्षों पहले परलोकवासी हो चुके थे, फिर कुछ सालों के बाद नानी और उनके जाने के कोई चार-पाँच माह बाद ही नाना जी भी परलोक को सिधार गए। अब सिर्फ मौसी ही बची थीं... तो दोनों बहनें ही एक-दूसरे का मायका थीं। अब वो भी चली गईं, मैं समझ सकती हूँ कि माँ आज कितना अकेलापन महसूस कर रही होंगीं। उनका मायका बना रहे इसीलिए तो उन्होंने कभी नाना जी के खेतों में या फसल में मौसी से हिस्सा नहीं लिया, वो चाहती थीं कि मौसी का इकलौता बेटा ही नाना जी के खेत, घर आदि की देखभाल करे, माँ के इस निर्णय को बाबू जी ने भी सहमति दी थी पर विधि के विधान ने यह अंतिम डोर भी तोड़ दी थी। मेरा मन कर रहा था कि काश मेरे पंख लग जाते और मैं उड़कर माँ के पास पहुँच जाती, पर अगले ही पल ख्याल आता कि मैं पहुँचकर कर भी क्या लूँगी! मुझे तो सांत्वना देना भी नहीं आता, मैं उनका दुःख किसी भी तरह कम नहीं कर सकती थी। माँ ने बताया कि कोई छोटी सी चोट लगने से उनके एक हाथ में जख्म हो गया था जो शुगर के कारण बढ़ता ही गया और धीरे-धीरे पूरा हाथ जख्म से भर गया। उसी जख़्म में इन्फेक्शन ने उनकी जान ले ली। अम्मा से बात करके फोन रखते ही मस्तिष्क में मौसी का वो भावशून्य झुर्रियों भरा चेहरा घूमने लगा जो वर्षों पहले मैंने आखिरी बार देखा था।
'मौसी' शब्द सुनते ही मेरे मनो-मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वो कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी की नहीं बल्कि धो-धोकर रंग उड़ चुकी पुरानी सी सूती साड़ी में लिपटी रहने वाली एक दुबली-पतली छरहरी सी काया, गहरा साँवला रंग और साधारण से नैन-नक्श वाली महिला की छवि है। बाल खिचड़ी हो चुके थे...नहीं, जब मैं उनसे आखिरी बार कोई सात-आठ साल पहले मिली थी तब वह बूढ़ी हो चुकी थीं उनके बाल पूरे सफेद हो चुके थे, झुर्रियों ने न सिर्फ चेहरे पर बल्कि पूरे शरीर पर ही अपना आधिपत्य जमा लिया था। मेरी इकलौती मौसी मेरी अम्मा से छोटी थीं पर वक्त की मार ने उन्हें अम्मा से भी पहले उनसे ज्यादा बूढ़ी बना दिया था। मुझे आज भी याद है जब मेरे मामा जी का देहान्त हो गया था तो अम्मा को कई बार यह कहते सुना था कि मौसी को उनके वैधव्य ने उतना नहीं तोड़ा जितना इकलौते भाई की मौत ने तोड़ दिया। मौसा जी की मृत्यु कब और कैसे हुई मैं नहीं जानती; मुझे कुछ याद है तो मौसी और उनके इकलौते बेटे, जो मुझसे बड़े हैं। मुझे उनके व्यवहार से कभी लगा ही नहीं था कि उनके जीवन में किसी प्रकार का खालीपन है, किन्तु मामा जी की मृत्यु के उपरांत वो एकाएक बड़ी ही तेजी से वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगीं, क्यों न हो मौसी का गाँव मामा जी के गाँव के पास ही है, मामा जी हर छोटी-बड़ी जरूरत पर मौसी के लिए उपस्थित रहते थे जिससे वह अपना दुख भूल चुकी थीं किन्तु जब ईश्वर ने इकलौते दो बहनों के लाडले भाई को छीन लिया तो अम्मा तो अपने भरे पूरे परिवार में इस विपदा को झेल गईं लेकिन मौसी न झेल सकीं और धीरे-धीरे वह शुगर की मरीज हो गईं। आज भी याद है गाँव में लोग मौसी को आदर्श मान उनका उदाहरण देते थे...कहते औरतों को उनसे हिम्मत और अपनी बात पर अडिग रहने की सीख लेनी चाहिए। नाना-नानी, गाँव के सम्मानित वयोवृद्ध और मौसी के ससुराल के परिजनों ने बहुत कोशिश की थी कि मौसी  दूसरी शादी के लिए तैयार हो जाएँ पर मौसी ने अपनी इकलौती संतान के सहारे अपना जीवन बिताने का अपना फैसला जितनी दृढ़ता से सबको सुनाया था, उतनी ही दृढ़ता से जीवनपर्यंत उसका पालन किया। कुछ सिरफिरे लोगों ने तो ये सलाह तक दे डाली थी कि मेरे पिताजी से ही मौसी को विवाह कर लेना चाहिए ताकि एक पत्नी गाँव में तो दूसरी उनके साथ शहर में रहती। ऐसी बातें सुनकर बाबूजी ने जो फटकार लगाई थी वो तो अलग' मौसी ने जिनको झाड़ लगाई वो महीनों उनका सामना करने से कतराते थे। एकबार मैं कुछ दिनों के लिए उनके घर रहने के लिए गई थी, लगभग एक हफ्ता मैं वहाँ रही पर एक पल को भी नहीं लगा कि मैं अपनी माँ से दूर हूँ। उन दिनों में उनकी वो देखभाल करती ममतामयी छवि देख मैं मन ही मन उनके उस रूप से तुलना करने लगी जब उन्होंने मेरे पैर में कील चुभ जाने पर बड़ी ही सख्ती से न सिर्फ उस कील को खींचकर निकाल दिया था बल्कि सरसों के तेल में रुई की बाती भिगो कर जलती हुई बाती का तेल जख्म पर टपकाया था। मैं कितना चीखी थी पर वो सख्ती से मेरा पैर पकड़कर अपना वो घरेलू इलाज करके ही मानी थीं, कहने लगीं ऐसा करने से टिटनेस नहीं होगा। पर उस कठोर चेहरे के पीछे छिपे इस ममतामयी मौसी को लेकर मेरे भाई और मुझमें तब बहस हुई थी जब वह भी कुछ दिन उनके पास रहकर आया। वो कहता कि मौसी ने उसे ज्यादा लाड़ लड़ाया और मैं कहती मुझे। पर एक बेटी की किस्मत ने मुझे मेरी मौसी से वर्षों पहले दूर कर दिया था और विधाता ने अब हमेशा के लिए।

मालती मिश्रा 'मयंती'

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपके लेख हमेशा अपनो की याद दिला देते है और सच्च बताउ तो मै केवल नाम का भयंकर हूँ बाकी ऐसे लेखो से मेरा अंतर्मन भावुक हो जाता है सिर्फ आँसू आना बाकी रहते है अपनो की याद मे मै भी चार मौसीयो का भाणजा था अब केवल ऐक का हूँ मगर मौसाजी के रूखे और कटू व्यवहार के कारण मौसी से मिलने भी नही जा सकता

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    1. सुप्रभात आदरणीय, ये मैं भी जानती हूँ कि आप सिर्फ नाम के भयंकर हैं आपका बेहद भावुक स्वभाव ही आपको विशिष्ट बनाता है। मेरे लेख पर आपकी टिप्पणी मेरी लेखनी में ऊर्जा संचार करते हैं, मैं सदैव आपके आशीर्वाद की आकांक्षी रहूँगी।

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  2. बेहद ही भावपूर्ण संस्मरण है मालती जी।
    अपनों का स्नेह उनसे जुड़ी स्मृतियाँ ही तो हमारे जीवनभर की जमापूँजी होती है।

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    1. सादर आभार श्वेता जी, आपकी प्रतिक्रिया और ब्लॉग पर पर उपस्थिति मुझे हौसला देती है। इस स्नेह के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  3. हृदय भारी हो गया। किसी को सांत्वना देना तो मुझे भी नहीं आता। इसे शुरू से लेकर अंत तक पढने के दौरान मुझे भी अपनी मौसी का स्मरण होता रहा। चलचित्र की भांति आपकी ये संस्मरण।

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    1. आ० प्रकाश जी अपने विचारों से रूबरू करवाने के लिए बहुत-बहुत आभार। आपकी टिप्पणियाँ लेखनी का ऊर्जा स्रोत होती हैं।

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