मंगलवार

सौतेली..



चाय की ट्रे लेकर जाती हुई उर्मिला के पाँव एकाएक जहाँ थे वहीं ठिठक गए, जब उसके कानों में पड़ोस की प्रभावती ताई की आवाज पड़ी, जो उसकी माँ से कह रही थीं, "अरे नंदा कब तक घर में बैठा कर रखेगी जवान विधवा बेटी को? अभी तो उसकी पूरी जिंदगी पड़ी है सामने। जब तक तू और भागीरथ भाई सा'ब हैं तब तक तो जैसे-तैसे दिन काट लेगी बेचारी, लेकिन माँ-बाप जिंदगी भर थोड़े ही साथ देते हैं, फिर भाई-भाभी का क्या पता! अच्छी भाभियाँ नसीब वालों को ही मिलती हैं और तेरी उर्मी इतनी नसीब वाली होती, तो आज वैधव्य का कलंक न होता उस बेचारी के माथे पर।"
"पर दीदी उस लड़के के एक बेटी है, शादी करते ही मेरी उर्मी पत्नी के साथ-साथ पाँच-छः  साल की बच्ची की माँ बन जाएगी। सबकी नजर मेरी बच्ची पर होगी, वो कैसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभा पाएगी?" माँ की दुख और निराशा में डूबी आवाज उर्मी को भी दुखी कर गई।
"नंदा मैं समझती हूँ, कोई माँ नहीं चाहती कि उसकी बेटी को सौतेली माँ बन किसी और के बच्चे की जिम्मेदारी उठानी पड़े, पर जरा शांत दिमाग से सोच.. हमारी उर्मी विधवा है और हमारे समाज में विधवा विवाह अभी आम बात नहीं है। पुरुष तो बुढ़ापे तक भी विवाह कर लेता है, पर यदि स्त्री के माथे पर विधवा की मुहर लग जाए, तो उसे तो इंसान होने के अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। लोग उसे ऐसे देखते हैं, जैसे उसकी उस अवस्था की जिम्मेदार वही है, और तो और कितने ही पुरुषों की नजर बदलते देर नहीं लगती, ऐसे में तू और भाई साहब कब तक उसकी ढाल बने रहोगे? शादी कर दोगे तो वहाँ वह सौतेली ही सही, माँ और पत्नी बनकर सम्मान से जी तो पाएगी। कुछ समय के संघर्ष के बाद वही उस घर की मालकिन होगी। फिर सोच, लड़के में भी कोई कमी नहीं, अभी तीस-बत्तीस साल का जवान ही है। तीन साल पहले पत्नी चल बसी तो लोगों के लाख समझाने पर भी शादी नहीं की, पर अब, जब माँ भी बीमार रहने लगी, तब सबने समझाया कि अब उस घर में किसी स्त्री का होना कितना जरूरी है; तब जाकर माना दूसरी शादी के लिए।"
प्रभावती ताई की आवाज में उसके लिए जो फिक्र झलक रही थी उसकी सत्यता-असत्यता का कोई प्रमाण तो नहीं था पर चाहकर भी उर्मी उनकी बातों से असहमत नहीं हो पा रही थी, और उसकी माँ ने तो मानो ताई के समक्ष हथियार डाल दिया था। पापा को भी माँ और ताई ने मिलकर समझा लिया।
बाल-विधवा उर्मी अब फिर से सुहागन बनने जा रही थी पर मन में उल्लास की जगह भय था, सुहागिन होने का सुख तो उसने भोगा नहीं, पर अब सुहाग के प्रकाश में सौतेली माँ की स्याह परछाई भी साथ-साथ चलेगी। घर में विवाह की तैयारियाँ शुरू हो गईं पर जो चहल-पहल, उमंग उत्साह आम तौर पर ऐसे अवसर पर होता है, वह लुप्त था। सभी तैयारियाँ ऐसे शांतिपूर्वक हो रही थीं जैसे कोई अनैतिक कार्य करने की तैयारी हो रही हो।
जब-तब माँ उर्मी की नजर बचाकर उसकी ओर ऐसे देखतीं, जैसे वह उसे बलि के लिए तैयार कर रही हैं। कभी उन्हें इसप्रकार कातर नजरों से अपनी ओर देखते हुए उर्मी देख लेती, तो वो नजरें चुराकर वहाँ से हट जातीं, पर उनकी आँखों में अपने लिए दया का यह भाव उसे भीतर तक बेध जाता। वह माँ को समझाना चाहती है कि वह उसे दया का पात्र न समझें, उसके पुनर्विवाह को अपराध न समझें पर कह नहीं पाती। कैसे कहती! बचपन से अब तक कभी बड़े-छोटे के अंतराल को खत्म ही नहीं कर पाई, बेटी तो बन गई पर कभी अपने मन के उथल-पुथल को माँ के सामने नहीं कह सकी। माँ भी तो! इतना प्यार करती हैं पर कभी उससे खुलकर बात नहीं करतीं, न जाने क्यों...पर ऐसा ही है उर्मी का रिश्ता उसकी सगी माँ से। अब वह भी माँ बनने जा रही है, उस बच्चे की जो उस घर में उससे पाँच-छः वर्ष पहले से रहती है, जिसे वह जानती नहीं। यूँ तो माँ ही अपने बच्चे को सबकुछ सिखाती है और परवरिश के साथ-साथ धीरे-धीरे उसमें अपने संस्कार और गुणों का रोपण करती है, अपनी ममता, दुलार और देखभाल से उसका पोषण करती है, उस नव पल्लवित कोपल में अपने संस्कारों की सुगंध भरती है, पर उसे तो ये सब करने का अवसर ही नहीं मिला और किसी अन्य के रोपित पौधे की मालिन बनकर उसको वृक्ष बनाना है। कैसे करेगी वह ये सब? भीतर ही भीतर इन्हीं झंझावातों से लड़ती उर्मी अपने मन के उथल-पुथल को अपने आप में समेटे, आँखों में बिना रंगीन सपने सजाए, दुल्हन बन गई और रातों-रात रिश्तों का एक लंबा अंतराल पार कर लिया। कल तक अपने घर में सिर्फ बेटी और बहन के रिश्ते से अलंकृत उर्मी सात फेरे खत्म होते-होते कई रिश्तों की सीढ़ी चढ़ गई। भोर की पहली किरण के निकलने से पहले ही वह पत्नी, बहू, भाभी आदि बनने के साथ माँ की गरिमापूर्ण पदवी से सजा दी गई। किन्तु इस उपलब्धि की खुशी नहीं भय था, साथ ही अपने वैधव्य के दोष को दूर करने के लिए किए गए समझौते का दंश, जो उसके अंतस को कचोट रहा था।
अपने घर की मान मर्यादा को बनाए रखने तथा किसी को शिकायत का अवसर न देने जैसे तमाम सुझावों, सलाहों, आँसुओं और आशीषों के साथ उसकी विदाई हुई।

"बहू, यह घर अब तुम्हीं को संभालना है, मेरा अब क्या ठिकाना कि कब ऊपर से बुलावा आ जाए। सुहास तो दूसरा विवाह ही नहीं करना चाहता था, बहुत समझाया सबने कि दादी पूरी जिंदगी तो रहेगी नहीं, बिन माँ के लड़की को कैसे पालेगा, तब माना है। अब तरु तुम्हारी जिम्मेदारी है। मुझे पूरी आशा है कि तुम इसका पूरा खयाल रखोगी, इसे कोई परेशानी नहीं होने दोगी।" सासू माँ के अपनत्व भरे शब्दों से उर्मी को संबल मिला, उसका मन हुआ कि वह उनसे अपने मन का सारा डर कह दे पर साहस नहीं जुटा सकी, बस स्वीकृति में सिर हिलाकर इतना ही कह सकी- "आपके आशीर्वाद की छाया में मैं पूरी कोशिश करूँगी कि किसी को कोई परेशानी न हो।"
यशोदा देवी बहू की मधुर आवाज सुनकर खुश हो गईं और मन ही मन खुश होती, मुस्कुराती हुई बाहर चली गईं। साँझ की स्याही ज्यों-ज्यों गहराती जा रही थी, उर्मी की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। उसे पता है कि सुहास भी आते ही सबसे पहले उससे अपनी बेटी तरु का ही जिक्र करेगा और उम्मीद करेगा कि मैं उसे आश्वस्त कर सकूँ, पर कैसे?  'क्या मेरे आश्वासन देने मात्र से उसे विश्वास हो जाएगा? यदि नहीं..तो मेरे कुछ भी कहने का क्या लाभ...क्यों न सब समय पर ही छोड़ दें...समय से बड़ा शिक्षक कोई नहीं होता...समय और परिस्थितियाँ मनुष्य को जिस मजबूती से सिखा सकती हैं, वो कोई व्यक्ति लाख कोशिशों के बाद भी नहीं सिखा सकता।' सोचते-सोचते विवाह की न जाने कितनी ही रस्मों से थकी उर्मी कब नींद की आगोश में समा गई उसे पता ही न चला।

उर्मी अलमारी में कपड़े रखने में तल्लीन थी, तभी उसे अहसास हुआ शायद पीछे कोई है, वह मुड़ी तो देखा दरवाजे पर स्कूल की ड्रेस पहने बाल बिखरे हुए, हाथ में कंघी और रबड़ लिए सहमी-सी तरु खड़ी थी। डरी-डरी सी उसकी ओर देख रही थी, पर न तो अंदर आ रही थी न ही कुछ बोल रही थी। उर्मी ने अलमारी बंद करते हुए कहा- "आओ, अंदर आओ न, वहाँ क्यों रुक गईं।"
वह धीरे-धीरे भीतर आई और बेड के पास चुपचाप खड़ी हो गई। उर्मी समझ गई कि वह बाल बनवाने के लिए आई है परंतु वह देखना चाहती थी कि वह खुद बोलती है या नहीं? इसलिए वह व्यस्त होने का दिखावा करती हुई कभी बिस्तर ठीक करती तो कभी टेबल साफ करने लगती, पर तरु चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही तो उर्मी ही बोली- "आप कुछ बोलो बे..तरु कुछ काम है?" वह बेटा बोलना चाहती थी पर न जाने क्यों अजीब महसूस हुआ और ज़बान अपने-आप ही रुक गई, 'बेटा' शब्द उसके लिए अजनबी जो था इसलिए स्वाभाविक रुप से ज़बान पर न आ सका।
"आंटी, दादी कह रही हैं कि आपसे चोटी बनवा लूँ।" तरु डरती हुई बोली।
"तो ठीक है इसमें डरने की क्या बात है, आओ मैं बना देती हूँ।" उसे पकड़ कर कुर्सी पर बैठाते हुए उर्मी बोली।
चोटी बनाकर उसके कोमल किन्तु खुश्की से रूखे कपोलों को देखकर उर्मी बोली- "चेहरे पर कुछ नहीं लगाया, देखो त्वचा कितनी सूख गई है!" कहकर उसने लोशन निकालकर उसके चेहरे और हाथ पैरों पर अच्छी तरह से लगाया, फिर उसके होठों पर बाम लगाया और पूरी तरह तैयार करके उसे भेज दिया।
उसका यह स्नेहिल अपनापन पाकर तरु मन ही मन खिल गई, परंतु बाल सुलभ संकोच और अनजानेपन के कारण कुछ कह न सकी।
उसके चेहरे के परिवर्तन को सुहास ने भी महसूस किया।
अब रोज ही वह उर्मी के पास आकर चुपचाप खड़ी हो जाया करती, पहले शुरू-शुरू में दरवाजे पर ही तब तक खड़ी रहती, जब तक उर्मी उसे भीतर आने को न कहती। फिर धीरे-धीरे भीतर आने लगी लेकिन तब तक नहीं बोलती, जब तक उससे उर्मी पूछती नहीं।
जब से वह उर्मी से बाल बनवाने लगी है तब से उसकी कोमल त्वचा की भी देखभाल हो जाती है। पहले उसके गाल फटे-फटे से रहते थे, उनमें रूखेपन से  खिंचाव के कारण दर्द भी होता था, कभी-कभी होंठ भी फट जाया करते, परंतु अब ऐसा नहीं होता। कक्षा में उसके जो सहपाठी मित्र उसे पहले चिढ़ाया करते थे उसका मजाक उड़ाते थे, वही अब उसको जिज्ञासु नजरों से देखते हैं, उसमें आए बदलाव का कारण जानना चाहते हैं। अध्यापिका ने भी उसे स्वच्छ और इस्त्री किए ड्रेस पहनकर आने के लिए उसे चॉकलेट दिया, तब उसको अपनी नई आंटी पर गर्व हुआ था। घर आकर उसने खुशी-खुशी दादी को बताया।
अब वह कंघी लेकर कमरे के गेट पर नहीं खड़ी होती, बल्कि सीधे कमरे में आकर उर्मी के हाथ में कंघी दे देती।
उर्मी ने उसका लंचबॉक्स उसके बैग में रखा और रसोई में जाने के लिए मुड़ी ही थी कि तभी वह एक हाथ में कंघी और रबर तथा दूसरे हाथ में जूते लिए उसके सामने आ खड़ी हुई। उर्मी ने एक पल को उसकी ओर देखा, फिर कतरा कर बगल से निकल गई।
"आंटी मेरी चोटी बना दो।" उर्मी को अपनी ओर ध्यान न देते देख तरु साहस करके धीमी आवाज में बोली।
वह रुक गई और पलट कर देखा, उसके मासूम चेहरे को देखकर उसका मन हुआ कि उसको अंक में भर ले पर अपनी भावनाओं को छिपाते हुए सपाट स्वर में बोली- "मेरी एक शर्त है, प्रॉमिस करो मानोगी, तो बनाऊँगी चोटी।"
उर्मी की बात सुन सुहास चौंक गया, अखबार से नजरें हटकर अकस्मात् उर्मी के चेहरे पर टिक गईं, ठाकुर जी को नहलाते हुए सासू माँ के हाथ रुक गए। दोनों के मस्तिष्क में एक साथ खयाल आया, आखिर शुरू कर दिया अपना सौतेलापन दिखाना।
"प्रॉमिस" तभी तरु बोली।
"ओके, तो प्रॉमिस करो कि आज से मुझे आंटी नहीं बोलोगी।" उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए उर्मी बोली।
"ठीक है आंटी जी प्रॉमिस।" तरु इतनी मासूमियत से बोली कि एकसाथ सुहास और सासू माँ की हँसी छूट गई पर दोनों ने अपनी आवाज़ें दबा लीं।
"अच्छा जी! प्रॉमिस भी कर रही हो और आंटी भी बोल रही हो।" उन दोनों से अंजान उर्मी मीठी सी झिड़की देती हुई बोली।
"त् तो क्या बोलूँ?" उसने पूछा।
"मम्मी, मम्मी बोलोगी तभी मैं आपके काम करूँगी। आप ही सोचो न किसी की आंटी क्या रोज-रोज किसी बच्चे को तैयार करती हैं? नहीं न...सबकी मम्मी अपने बच्चों को तैयार करके भेजती हैं, मैं भी वैसे ही भेजती हूँ फिर आप मम्मी क्यों नहीं बोलते?" उसने तरु के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।
"पर मेरी मम्मी तो भगवान जी के घर गई हैं न? तो मैं आपको कैसे बोलूँ?"
"क्योंकि भगवान जी ने ही तो मुझे आपके पास भेजा है, वो मुझसे कह रहे थे कि तरु को तुम्हारी जरूरत है इसलिए तुम्हें उसके पास होना चाहिए। क्या अब भी आप मुझे आंटी बोलोगी?" उर्मी तरु के मासूम चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए बोली।
उसकी इस बात को सुन यशोदा देवी ने ठाकुर जी के चरणों में माथा टेककर धन्यवाद किया, सुहास ने गहरी सांस लेकर कुछ ऐसे निश्वांस छोड़ा मानों अब तक की सारी चिंताओं को बाहर निकाल दिया और मुस्कुराता हुआ पुनः अखबार में नजरें गड़ा दिया।
"फिर तो आज मैं अपने फ्रैंड्स को बताऊँगी कि मेरी मम्मी वापस आ गईं।" तरु खुशी से चहकती हुई बोली।
"अच्छा! तो अब तक आपने क्या बताया था अपने फ्रैंड्स को मेरे बारे में?" उर्मी ने उसके कोमल गालों को प्यार से खींचते हुए पूछा।
तरु ने अपराधी की भाँति सिर झुका दिया।
"कोई बात नहीं आ जाओ आपकी चोटी बनाते हैं।"
"शूज़ भी पॉलिश करने हैं।" तपाक से बोली तरु।
"हाँ..हाँ वो भी हो जाएँगे।" कहते हुए उसका हाथ पकड़े उर्मी कमरे में चली गई।

सुहास और यशोदा देवी की यह चिंता दूर हो गई थी कि नई बहू पता नहीं तरु को प्यार करेगी या नहीं। दोनों ही उर्मी से खुश थे, उसने तरु की पूरी जिम्मेदारी कुशलता से संभाल ली थी। उसे पढ़ाना हो या उसके साथ खेलना, उसकी छोटी-छोटी खुशियों का भी पूरा ख्याल रखती साथ ही सास की सेवा में भी कोई कमी नहीं आने देती। सुहास भी अब उर्मी की खुशियों का  ध्यान रखने लगा था। इस बीच उर्मी अपने मायके भी जाकर आ गई थी। माँ ने सबसे पहले तरु के बारे में ही पूछा था और जब उसने माँ को सब बताया तो वह भी चिंतामुक्त हो गईं।
आज घर में चहल-पहल रोज की अपेक्षा अधिक थी, दो बज चुके हैं उर्मी अभी भी रसोई में व्यस्त है। सुहास की बड़ी बहन मेघा आज अपने दोनों बच्चों के साथ आई हैं, तरु भी स्कूल से आते ही बिना कपड़े बदले पिंकी और अंशुल के साथ खेलने में व्यस्त हो गई। काम में व्यस्त होने के कारण उर्मी ने ध्यान नहीं दिया कि आज किसी ने तरु के हाथ-मुँह धोकर उसके कपड़े नहीं बदलवाए। वह तो सोच रही थी कि मम्मी जी उसे व्यस्त देख खुद ही उसके कपड़े बदल देंगीं वह तो बस भाग-भागकर कभी ननद की कभी उनके बच्चों की तो कभी सासू माँ की फरमाइशें पूरी करने में रत थी, पर तरु को खाना खिलाना नहीं भूली, अतः खाना लेकर यशोदा देवी के कमरे में पहुँची। तरु खेल में खोई हुई थी, मेघा माँ से बातें कर रही थी पर उसे देखते ही चुप हो गई। उर्मी को थोड़ा अजीब जरूर लगा पर उसने उधर ध्यान नहीं दिया बल्कि तरु को स्कूल के कपड़ों में देखकर बोली "तरु आपने अभी तक कपड़े नहीं बदले, चलो आओ पहले हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलो फिर खाना खाने के बाद खेलना।" कहती हुई वह उसका हाथ पकड़कर कर अपने कमरे में लेकर जाने लगी।
"तुम कहना क्या चाहती हो उर्मी वो अपने कपड़े खुद बदलती है..अपने आप ही हाथ-मुँह धोती है? मेरी बेटी उससे एक साल बड़ी है पर आज भी मैं ही उसके सारे काम करती हूँ और तुम...." मेघा ने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ दी।
"नहीं दीदी मेरा वो मतलब नहीं था, मुझे लगा कि मम्मी जी ने कर दिया होगा।" वह बोली।
"अब भी मम्मी जी ही करेंगीं....?" मेघा फुँफकारती हुई बोली। उसने जो आधा वाक्य बोला उर्मी के आहत हृदय ने उस वाक्य को पूरा कर लिया..."अब भी मम्मी जी ही करेंगीं...तो तुम क्या करोगी?"

वह बिना रुके तरु को लेकर अपने कमरे में चली गई, उसकी आँखें भर आईं, तरु उसकी आँखों में आँसू न देख ले, इसलिए उसे कमरे में छोड़ वह जल्दी से बाथरूम में चली गई। एकांत का आभास पाकर आहत दिल ने नियंत्रण खो दिया और जबरन रुका आँसुओं का सैलाब पलकों का बंधन तोड़ बह निकला।
"मम्मी जल्दी करो मुझे पिंकी दीदी के साथ खेलना है।" तरु की आवाज सुन उर्मी ने जल्दी से मुँह धोया और तौलिए से पोछती हुई बाथरूम से बाहर आई और उसके कपड़े बदले, हाथ, पैर, मुँह धुलाकर उसे खाना खिलाया।

इंसान को राह चलते यदि किसी पत्थर से ठोकर लग जाए तो वह या तो उस पत्थर को वहाँ से उखाड़ फेंकता है या उससे बचकर कतरा कर निकलता है, किन्तु रिश्तों में अक्सर ऐसा करना संभव नहीं होता। बहुधा आहत करने वाले, दर्द देने वाले रिश्तों को भी न चाहते हुए भी मुस्कुराते हुए निभाना पड़ता है, उन्हें न तो उखाड़कर फेंका जा सकता है न ही उनसे बचने के लिए दूर हुआ जा सकता है। ऐसी ही स्थिति उर्मी की थी। उसे समझ में आ रहा था कि उसकी ननद अपनी माँ को भड़काने का प्रयास कर रही है, वह अपनी मम्मी के समक्ष यह सिद्ध करना चाह रही थी कि उर्मी तरु के प्रति लापरवाह है, फिरभी उसे हँसते हुए ही सेवा करनी है। परंतु उसे खुशी हुई थी जब मम्मी जी की आवाज कान में पड़ी- "चुप रह मेघा, फ़िजूल की बातें मत कर। वह तरु का बहुत ध्यान रखती है बिल्कुल वैसे ही जैसे तू अपनी बेटी का रखती है। तू तो यहाँ रहती नहीं, फिर कुछ ही घंटों में तूने वो देख लिया जो मेरी अनुभवी आँखें आज तक नहीं देख पाईं।"
उर्मी इतना सुनकर रसोई में चली गई उसे सुहास के लिए चाय बनानी थी और वो अब इससे ज्यादा कुछ सुनना भी नहीं चाहती थी। खुशी के मारे उसका मन मानो हवा में उड़ रहा था, मम्मी जी के लिए उसके मन में सम्मान और बढ़ गया।
मेघा अपने पति और बच्चों के साथ दो दिन रही उर्मी ने उनका खूब सेवा-सत्कार किया, अब उसे मेघा से भी कोई शिकायत न थी, उसने अहसास भी नहीं होने दिया कि उसने कुछ सुना या महसूस किया। जाते समय मेघा और उसके पति ने भी उर्मी की प्रशंसा की और अपने घर आने का निमंत्रण दिया।

"मम्मी मैं भी चलूँगी आपके और पापा के साथ प्लीज़।" उर्मी को सूटकेस में कपड़े रखते देख तरु ने जिद करते हुए कहा।
"बेटा आप नहीं जा सकते, हम काम से जा रहे हैं और जल्दी से वापस आ जाएँगे। अच्छे बच्चे जिद नहीं करते।" कहते हुए सुहास ने तरु को गोद में उठा लिया और कमरे से बाहर की ओर चला गया, जाते हुए तरु उर्मी को उम्मीद भरी नजरों से देखती रही, उसकी मासूम आँखों में झिलमिलाते मोती उर्मी को भीतर तक नम कर गए, उसका रुआंसा उदास सा चेहरा उसकी ममता को झकझोर गया।
तरु को जब से पता चला था कि उसके मम्मी पापा कहीं जा रहे हैं, तब से वह लगातार साथ जाने की जिद कर रही थी। सुहास को ऑफिस के काम से दो दिन के लिए भोपाल जाना था यह सुनते ही मम्मी जी बोल पड़ीं, "बहू को भी ले जा, एकाध हफ्ते के लिए घुमा ला। वैसे भी शादी के बाद तुम दोनों कहीं गए भी नहीं हो, अलग से ज्यादा छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ेगी, एक पंथ दो काज हो जाएँगे। सुहास ने भी मम्मी की बात मान कर अपने दो दिन के टूर को एक हफ्ते का कर लिया था। दो दिन में ऑफिस का काम खत्म करके फिर उर्मी के साथ घूमने का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया और और उसे अपना सामान रखने को कहा, परंतु यह सुनते ही उर्मी ने कहा था "तरु कैसे रहेगी हमारे बिना! उसे भी ले लेते साथ।"
"उसे मम्मी संभाल लेंगीं, अब तक भी तो वही संभालती रही हैं न, तुम फिक्र मत करो।" कहकर सुहास ने उर्मी को चुप करा दिया। पर अब तरु की वो विनीत आँखें उर्मी की ममता को झकझोरने लगीं, उसे महसूस हुआ जैसे सिर्फ तरु ही नहीं वह भी उसके बिना नहीं रह पाएगी। वह कपड़े ज्यों के त्यों छोड़ कमरे से बाहर आ गई पर हॉल में सुहास नहीं मिला तो मम्मी जी के कमरे में चली गई।
"मम्मी जी आप समझाइए न उन्हें कि तरु को भी ले चलें, वो रो रही है, मैं उसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकती।" कहती हुई उर्मी ने कमरे में प्रवेश किया।
"बच्ची है, अभी तुम्हें देखकर जिद कर रही है क्योंकि उसे उम्मीद है कि उसकी जिद तुम मान लोगी पर तुम्हारे जाने के बाद शांत हो जाएगी, वहाँ भी बच्ची को संभालती रहोगी तो क्या फायदा होगा तुम्हारे जाने का।" यशोदा देवी ने उसे समझाया।
"पर मम्मी जी मेरा भी कहाँ उसके बिना मन लगेगा, दो दिन ये ऑफिस के काम में व्यस्त रहेंगे और मैं अकेली होटल के कमरे में बोर हूँगी, तरु होगी तो उसके साथ घूम-फिर कर मन लग जाएगा। प्लीज आप समझाइए या फिर मना कर दीजिए हम कभी और चले जाएँगे।"
यशोदा देवी समझ गई थीं कि उर्मी तरु के बिना जाना नहीं चाहती, अतः जब सुहास अपनी बेटी को बहलाकर घर वापस आया तब तक तीन लोगों के कपड़े सूटकेस में रखे जा चुके थे।
तरु खुशी से पूरे घर में चहक रही रही थी। सुहास ने मानों दोनों के एकांत में खलल पड़ जाने की प्यार भरी शिकायत आँखों ही आँखों में की हो उर्मी से। तरु की खुशी से पूरे घर में खुशी थिरक रही थी सभी के होठों पर मुस्कान थी।
अचानक रसोई में काम करती उर्मी की इंद्रियाँ सतर्क हो उठीं जैसे ही उसे तरु की आवाज सुनाई पड़ी..
"दादी सौतेली क्या होता है, क्या मेरी मम्मी सौतेली हैं?" तरु हॉल में यशोदा देवी से पूछ रही थी। उस मासूम को कहाँ पता था कि उसके इस शब्द से किसी की ममता छलनी हो सकती है, उसे तो जब उसके दिल में अंकित माँ की छवि पर, उसके अस्तित्व पर यह शब्द प्रहार करता प्रतीत हुआ, तो उसने सही जवाब पाने की उम्मीद में पूछ लिया।
"तुमसे किसने कहा यह, कहाँ से सीखती हो यह सब?" यशोदा देवी झिड़कती हुई बोलीं।
"मैं नहीं सीखती वो अंशुल भैया और पिंकी दीदी कह रहे थे उस दिन।" उसने मासूमियत से सफाई दी।
"क्या कह रहे थे वो?"
"वो कह रहे थे कि मेरी मम्मी सौतेली है, मैंने पूछा सौतेली क्या होती है? तो कहने लगे कि बुरी मम्मी को सौतेली कहते हैं, वो कभी प्यार नहीं करती और हमारी असली मम्मी भी नहीं होती। मेरी मम्मी तो बुरी नहीं है ना दादी, फिर वो तो सौतेली भी नहीं है...है ना?" तरु तो जैसे अपने ही भीतर के द्वंद्व से छुटकारा पाना चाहती थी।
"मेरी गुड़िया तुझे तेरी मम्मी कैसी लगती है?" यशोदा देवी ने पूछा।
"बहुत अच्छी, वो तो मुझे कितना प्यार करती हैं, पापा मना कर रहे थे फिरभी मम्मी मुझे अपने साथ लेकर भी जा रही हैं।" उसने मासूमियत से कहा।
"फिर तू खुद ही सोच वो सौतेली कैसे हो सकती है। जो लोग ऐसा कहें उनसे बोल दिया कर कि मेरी मम्मी तो बहुत अच्छी है, उससे अच्छी मम्मी तो मुझे मिल भी नहीं सकती। अंशुल और पिंकी को तो मैं डाँट लगाऊँगी, फिर ऐसा कहना भूल जाएँगे।" यशोदा देवी ने उसे समझाते हुए कहा।
उर्मी अपने गालों पर ढुलक आए आँसुओं की बूंदों को पोछते हुए लंबी निश्वास छोड़ते हुए अपने-आप से ही बुदबुदाई..."पता नहीं यह कलंकित शब्द जीवन में कभी पीछा छोड़ेगा भी या नहीं।"
घर के खुशनुमा वातावरण में कुछ पल के लिए नीरवता व्याप्त हो गई थी, यशोदा देवी मन ही मन क्रोध से आग-बबूला हुई जा रही थीं कि उनकी बेटी मेघा ही अपने बच्चों के सामने ऐसी बातें करती होगी, तभी तो बच्चे ऐसा कह रहे थे। वह भीतर ही भीतर अपने क्रोध को पीने की कोशिश कर रही थीं और सोच रही थीं कि सुहास उर्मी और तरु के साथ चला जाय, फिर बात करती हूँ मेघा से।
वह घड़ी भी आई उर्मी ने सास के पैर छूकर आशीर्वाद लिया, सुहास ने माँ को अपना खयाल रखने के लिए कहा, तरु ने चहकते हुए खुशी-खुशी दादी को पप्पी देकर बाय किया। यशोदा देवी ने घर की फिक्र भुलाकर हफ्ते भर आनंदपूर्वक बिताने की सलाह देते हुए अपना ध्यान रखने को कहकर उन्हें विदा किया।

खाली घर उन्हें जैसे काटने को दौड़ने लगा, सुहास ने कहा था कि मेघा दीदी को बुला लेना पर बेटी के प्रति उनका क्रोध उन्हें ऐसा करने से रोक रहा था। उन्हें नहीं पता था कि उर्मी के कहने पर सुहास ने पहले ही मेघा को फोन करके माँ के पास रहने के लिए कह दिया था, इसलिए थोड़ी ही देर में मेघा का फोन आया कि वह कल बच्चों के साथ आ रही है।
ये पूरा सप्ताह मेघा अंशुल और पिंकी के साथ खुशी-खुशी बीत गया। यशोदा देवी ने बेटी को प्यार से समझाया भी कि बच्चों के सामने कभी उर्मी के लिए 'सौतेली' शब्द का प्रयोग न करे, अपनी बहू की तारीफ करते हुए उसके लिए मन में किसी भी दुर्भावना को न रखने की सलाह भी दी। "ठीक है बाबा गलती हो गई, अब नहीं कहूँगी तुम्हारी बहू के लिए कुछ भी। वैसे वो है भी अच्छी, ये मैं भी मानती हूँ पहले थोड़ा डर था पर अब नहीं है।" कहते हुए मेघा ने बात खत्म कर दी। सुहास उर्मी और तरु के साथ वापस आ गया। उर्मी सभी के लिए कुछ न कुछ लाई थी। मेघा भी उससे मन ही मन खुश थी पर न जाने क्यों उसके समक्ष उसकी तारीफ करने से उसका अहंकार आहत हो रहा था। सुहास के वापस आने के अगले दिन ही मेघा और बच्चे अपने घर चले गए।

"जल्दी जा बहू स्कूल की छुट्टी हो चुकी होगी वहाँ किसी को न पाकर बच्ची घबरा जाएगी।" यशोदा देवी उर्मी के हाथ से चाय लेते हुए बोलीं।
"जी मम्मी जी जा रही हूँ, मैं रिक्शा ले लूँगी आप चिंता मत कीजिए।" कहती हुई वह जल्दी-जल्दी पैरों में घर की चप्पल डालकर तरु को स्कूल से लाने के लिए चल दी।
आज तरु को लाने के लिए ज्यों ही यशोदा देवी घर से निकल रही थीं तभी पड़ोस की वसुंधरा आंटी और उनकी एक और सखी यशोदा देवी से मिलने आ गईं तो उन्हें रुकना पड़ा, उर्मी उनके लिए चाय बनाने लगी इसलिए वह भी समय से न जा सकी। अब तक तो स्कूल की छुट्टी भी हो चुकी होगी, कम से कम पंद्रह-बीस मिनट का पैदल का रास्ता है, आज तो कोई ऑटो रिक्शा भी नहीं मिल रहा। वह लगभग भागती हुई सी जा रही थी, न जाने क्यों उसे घबराहट होने लगी, तरु रो रही होगी.... छोटी बच्ची है... किसी को वहाँ न पाकर घबरा जाएगी, कहीं अकेली ही न आने लगे....हे भगवान! फिर तो उसे रास्ता भी नहीं पता... खो गई तो... ऐसे न जाने कितने ही उल्टे सीधे खयाल उसके मन में आ रहे थे। वह इतनी तेज-तेज चल रही थी कि हाँफने लगी, जल्दबाजी में मोटरसाइकिल से टक्कर होते-होते बची.."देखकर नहीं चल सकती, मरने के लिए मेरी ही बाइक मिली।" चालक बोला।
स्सॉरी, कहकर वह फिर उसी तेजी से चल पड़ी तभी उसे उसे एक साइकिल रिक्शा वाला दिखाई दिया उसने उसे चलने के लिए पूछा तो उसने उल्टी दिशा में न जाने की इच्छा जाहिर करते हुए दुगना किराया माँगा। मुँहमाँगे पैसे देकर वह रिक्शे से स्कूल पहुँची।
उसे तरु कहीं नजर नहीं आई, लगभग सभी बच्चे जा चुके थे बस दो-चार बच्चे ही खड़े थे वहाँ। दरबान से पूछा तो उसने भी अनभिज्ञता जताई, अध्यापिका को भी कुछ पता नहीं था। उर्मी को रोना आ गया, अब कहाँ ढूढ़ूँ मैं अपनी बच्ची को...कहीं वह अकेली ही तो नहीं चली गई? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसने सुहास को फोन किया, फिर अपनी सास को रोते-रोते सारी बात बताई। मुहल्ले में यह बात फैल गई, स्कूल से घर तक जाने के सभी रास्ते खोज डाले, पर तरु कहीं नहीं मिली। उर्मी बदहवास सी हो चुकी थी न जाने क्यों स्वयं को अपराधी समझ रही थी, 'काश मैं समय से पहुँच जाती तो मेरी बच्ची नहीं खोती' यही सोच उसकी सिसकियाँ रुकने नहीं दे रहा था। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हो चुकी थी, पूरी रात बीत गई पर उसका कहीं पता नहीं चला। यशोदा देवी की तबियत खराब हो गई, उन्हें संभालने के लिए मेघा हर पल उनके पास थी। सभी नाते-रिश्तेदार घर पर एकत्र हो चुके थे, सब अपने-अपने तरीके से खोज रहे थे पर उसका कहीं पता नहीं चल पा रहा था।
कब रात बीती कब सूरज निकला और कब सुबह के दस बज गए किसी को इसका होश नहीं, अपनी माँ के कहने से उर्मी दवाई लेकर यशोदा देवी के पास गई.."मम्मी जी दवाई ले लीजिए।" उसके इतना बोलते ही मेघा ने हाथ से पानी का गिलास झटके से ले लिया और उसी तेजी से दूसरे हाथ से दवाई ले ली। उसका यह बदला हुआ रवैया और उसे देखकर भी यशोदा देवी का कुछ न कहना उर्मी को भीतर तक हिला गया। उसे अब सभी का बर्ताव बदला-बदला सा लग रहा था। सभी की नजरें उसे शक की निगाह से देख रही थीं, अब उसे महसूस हुआ कि रात से ही सुहास ने भी उससे बात नहीं की है। कल तक उसपर प्यार लुटाने वाला परिवार आज पराया लग रहा था।
वापस कमरे में आकर माँ से लिपट कर वह फूट-फूटकर रो पड़ी।
"चुप हो जा बेटा हिम्मत रख बच्ची मिल जाएगी।" माँ से उसे ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया।
"माँ मेरी बच्ची को कुछ हुआ तो मैं मर जाऊँगी, मैं नहीं रह सकती उसके बिना।" रोते हुए उर्मी बोली। किसी के पास कोई जवाब नहीं था, तभी फोन की घंटी बज उठी वह हॉल की ओर दौड़ पड़ी। सभी को इंतजार था कि अगर किसी ने किडनैप किया है तो फोन अवश्य करेगा पर माँ का हृदय न जाने कितनी आशंकाओं से घिरा हुआ था। सब इंस्पेक्टर की ओर देख रहे थे कि फोन उठाएँ या नहीं पर तभी बेतहाशा भागती हुई आई उर्मी ने फोन उठा लिया।
ह् हैलो..
फोन टैप कर रहे इंस्पेक्टर ने उसे देर तक बात करने का संकेत किया।
उधर से आवाज आई "तुम्हारी बेटी मेरे पास है।"
प्लीज मेरी बेटी को छोड़ दो, क्या चाहिए तुम्हें बताओ मैं...मैं...तुम्हें वो सब दूँगी...प्लीज मेरी गुड़िया को छोड़ दो...कहती हुई उर्मी फूट-फूटकर रो पड़ी।
सुहास ने उसके हाथ से फोन ले लिया, हैलो...उसके इतना बोलते ही दूसरी तरफ से फोन कट गया।
"किडनैपर बहुत चालाक है, उसने जल्दी फोट काट दिया ताकि लोकेशन ट्रैक न हो सके।" इंस्पेक्टर ने कहा।
सुहास उर्मी की ओर देखने लगा, फिर न जाने क्या सोचकर उसे पकड़कर अपने कमरे में ले गया और बेड पर बैठाते हुए कहा-
"मम्मी की तबियत पहले ही खराब हो चुकी है, अब तुम अपनी तबियत भी खराब मत कर लेना। संभालो अपने-आपको, सभी कोशिश कर रहे हैं, उम्मीद रखो कुछ नहीं होगा मेरी बेटी को।"
अचानक उर्मी को मानो किसी ने जोर से थप्पड़ मारा हो...."आपकी बेटी....सुहास! क्या वो मेरी बेटी नहीं है?"
"म्मेरा मतलब यही था।" कहकर वह बाहर जाने लगा।
"मुझसे क्या गलती हो गई सुहास, क्यों सबकी नज़रें बदल गईं? मेरी भी तो बेटी किडनैप हुई है।" वह रोते हुए बोली पर सुहास बिना कुछ जवाब दिए चला गया।
अचानक उर्मी की छठी इंद्री जागृत हो उठी, उसके फोन उठाते ही किडनैपर को कैसे पता चला कि उसी की बेटी को उसने किडनैप किया है? उसकी आवाज भी कुछ जानी-पहचानी सी लग रही थी। उर्मी अब कोशिश करने लगी उस आवाज को पहचानने की कि कहाँ सुनी है उसने यह आवाज? पर उसे कुछ याद नहीं आ रहा था।
दिन बीतता जा रहा था पर तरु का कोई पता नहीं चल पा रहा था। एक बार और फोन आया तब किडनैपर ने पचास लाख की माँग की पर जगह बताने से पहले ही फोन रख दिया क्योंकि वह अधिक देर तक बात नहीं करना चाहता था।
शाम के सात बज रहे थे अचानक मेघा की आवाज सुनकर सुहास चौंक पड़ा, वह बोल रही थी "पूरे घर में देख लिया बाथरूम में भी देख लिए पर वो कहीं नहीं है, अब क्या उसे भी ढूढ़ें।"
"कौन नहीं है दीदी, किसकी बात कर रही हो?" सुहास ने पूछा।
"तुम्हारी पत्नी की, उर्मी बिना बताए पता नहीं कहाँ चली गई है, यहाँ तक कि अपनी माँ को भी नहीं बताया।" मेघा बिफरती हुई बोली।
"गई होगी कहीं आ जाएगी।" कहकर सुहास किसी को फोन करने में व्यस्त हो गया, उसे पचास लाख का इंतजाम जो करना था।
सुहास ने फोन काटा तो देखा उर्मी के दो मिसकॉल आए हुए थे। उसने कॉल बैक किया.. हैलो.. दूसरी ओर से किसी पुरुष की आवाज सुनकर सुहास किसी अनहोनी के भय से काँप उठा।
ह्हलो..उसने कहा।
मैं इंस्पेक्टर भुवन सिंह बोल रहा हूँ, क्या मेरी बात सुहास जी से हो रही है?"
"ज् जी मैं सुहास बोल रहा हूँ।"
"मिस्टर आपकी पत्नी उर्मी सिटी हॉस्पिटल में हैं, आप शीघ्र आ जाएँ उनकी हालत गंभीर है।"
सुहास के हाथ से फोन छूट गया, पैर लड़खड़ा गए तो उसके जीजा ने तुरंत उसे संभाल कर सोफे पर बैठाया। उसने अभी फोन पर हुई सारी बात बताई और मेघा और उसके पति को घर पर इंस्पेक्टर के साथ छोड़कर उर्मी के मम्मी-पापा और रिश्ते के भाई के साथ सुहास हॉस्पिटल पहुँचा। आई. सी. यू. की ओर बढ़ते हुए सुहास के पैर काँप रहे थे, अचानक उसके पैर जहाँ के तहाँ जम गए आई. सी. यू. के सामने बेंच पर बैठी तरु सुबक रही थी, उसे देखते ही दौड़कर लिपट गई और जोर-जोर से रोने लगी।
"पापा मम्मी को कुछ होगा तो नहीं..प्लीज डॉक्टर साहब से बोलो उनको जल्दी से ठीक करने को।" सुबकियाँ लेती हुई तरु बोली।
"कुछ नहीं होगा तुम्हारी मम्मी को।" कहते हुए सुहास ने उसे उर्मी की माँ की गोद में दे दिया और इंस्पेक्टर से बात करने लगा। अंदर डॉक्टर ऑपरेशन करके उर्मी का रक्तस्राव रोकने का प्रयास कर रहे थे।
इंस्पेक्टर ने सुहास और उर्मी के माता-पिता को सारा वृत्तांत बताया। उसने बताया कि उर्मी को फोन पर आवाज जानी-पहचानी लगी तो मस्तिष्क पर जोर देने के बाद उसका शक उसके ही पड़ोस में रहने वाली प्रभावती ताई के किराएदार इमरान पर गया, जो उनके मायके का ही था और उन्हें बुआ कहता था। तभी उर्मी चुपचाप बिना किसी को बताए अपने मायके गई पर उसने इंस्पेक्टर भुवन को फोन करके सारी बात बता दी थी और उनसे मदद माँगी। उसका मायका इंस्पेक्टर भुवन के कार्यक्षेत्र में ही आता था अतः उन्होंने भी मदद करने का आश्वासन दिया। उर्मी अपने घर की पहली मंजिल के कमरे की खिड़की से चुपचाप इमरान पर नजर रख रही थी। जब वह घर से बाहर गया तो उसने इंस्पेक्टर भुवन को फोन करके बता दिया और इंस्पेक्टर उसका पीछा करने लगा। इधर उर्मी चुपचाप ताई के घर में गई और इमरान के कमरे के दरवाजे की झिरी से भीतर कमरे में झाँककर देखने लगी पर उसे कुछ नजर नहीं आया, फिर वह ताई के घर के अन्य कमरों में देखने का प्रयास करने लगी, उसने सोचा कि हो सकता है कि उसने तरु को यहाँ छिपाया हो, क्योंकि मम्मी बता रही थीं कि प्रभावती ताई इस समय पूरे परिवार के साथ वैष्णों देवी दर्शन के लिए गई हैं, तभी उसे स्टोर रूम में कुछ खटपट की आवाज आई वह उसी ओर गई, दरवाजे में बाहर से ताला था, अंदर अंधेरा था उसने दरवाजे को धीरे से खटखटाया। अंदर से कोई आवाज नहीं आई वह वापस जाने लगी, तभी कुछ गिरने की आवाज आई वह झटके से मुड़ी और आवाज दी..तरु.. उसे लगा अंदर कोई है। भय के कारण उसके हाथ पैर काँपने लगे। साहस करके उसने इंस्पेक्टर भुवन को फोन करके सब बताकर वहाँ आने के लिए कहा और खुद बाहर से एक ईंट का टुकड़ा लाकर ताला तोड़ने लगी। बहुत कोशिश के बाद वह ताला तोड़ने में कामयाब हुई, जैसे ही दरवाजा खोला उसके पैरों तले धरती खिसक गई। सामने कुर्सी पर तरु बंधी हुई थी, मुँह में कपड़ा ठूँस कर बाँधा हुआ था, दोनों हाथ कुर्सी के हत्थों से तथा पैर कुर्सी के पैरों से बाँधा हुआ था, आँखों से आँसू की धार बह रही थी, पूरा चेहरा ही नहीं बाल भी पसीने से लथपथ हो रहे थे। उसे देखकर छूटने के प्रयास में किए गए उसके संघर्षों का पता चल रहा था, उस नन्हीं सी जान ने कुर्सी समेत खिसक कर सामान गिराकर अपने वहाँ होने की सूचना देने की कोशिश में कितनी जद्दोजहद की होगी, इसका अनुमान उसके आसपास की स्थिति देखकर लगाया जा सकता था।
उसकी दयनीय दशा देख उर्मी का खून खौल उठा, उसने जल्दी-जल्दी उसे खोला और सीने से लगा लिया। रो-रोकर तरु की सिसकियाँ बंध गई थीं। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी बस माँ से ऐसे चिपकी हुई थी, जैसे उसे भय हो कि कोई उसे खींचकर अलग न कर दे। तभी उन्हें बाहर बाइक रुकने की आवाज सुनाई दी। उर्मी समझ गई कि इंस्पेक्टर भुवन आ चुके हैं।
वह तरु को लेकर बाहर आई और सामने इमरान को देख उसके पैर जहाँ थे वहीं जम गए, उसके हाथ-पैर कांपने लगे, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्यों? क्रोध की अधिकता से या तरु के किसी अहित के भय से।
"ये तूने ठीक नहीं किया उर्मी, इसे यहीं छोड़ दे नहीं तो.."
"नहीं तो क्या?" उर्मी दहाड़ी, अचानक ही उसमें न जाने कहाँ से इतना साहस आ गया था कि उसने सोच लिया कि वह इसे नहीं छोड़ेगी।
उधर इमरान की आवाज सुनती ही तरु ने उर्मी को और जोर से जकड़ लिया।
"देख मुझे सिर्फ पैसे चाहिए, जब तक पैसे नहीं आ जाते मैं तुम दोनों को यहाँ से नहीं जाने दूँगा।" कहते हुए वह उर्मी की ओर बढ़ा।
"वहीं रुक जा इमरान, वर्ना तेरे लिए ठीक नहीं होगा, पैसे तो तू भूल ही जा, अगर खुद को बचाना है तो यहाँ से भाग जा।" उर्मी उसे चेतावनी देकर मुख्य गेट की ओर बढ़ गई पर  वह कहाँ मानने वाला था, उसने वहीं पड़ा लोहे का रॉड उठा कर उर्मी के सिर पर दे मारा, वह चीख कर वहीं गिर गई, वह दुबारा उस पर प्रहार करने जा ही रहा था तभी इंस्पेक्टर भुवन ने गोली चला दी जो उसके कंधे में लगी।
इंस्पेक्टर ने उसे गिरफ्तार करके दोनों को हॉस्पिटल पहुँचाया।
सुहास की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे, 'भगवान मेरी उर्मी को बचा लो, मेरी बच्ची को दुबारा बिन माँ की मत करना।' ऊपर देखता हुआ मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उर्मी के पापा ने फोन करके घर पर तरु के मिलने की खबर दे दी। यशोदा देवी की तबियत मानों ईश्वरीय चमत्कार से ठीक हो गया, वह अस्पताल पहुँचीं। ऑपरेशन सफल हुआ, उर्मी अब खतरे से बाहर थी। यशोदा देवी, मेघा, सुहास और उर्मी के मम्मी-पापा सभी उसके सामने थे। तरु उसके पास ही खड़ी थी। सबकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे।
"मुझे माफ कर दो उर्मी, मैं शायद कभी तुम्हें मन से अपना ही नहीं पाई थी, हमेशा तुम्हारे कामों में कमियाँ ढूँढ़कर तुम्हें सौतेली साबित करने की कोशिश की, पर तुमने हमेशा मुझे गलत सिद्ध किया। इसबार तो मैंने हद ही कर दी, एक माँ होकर तुम्हारी ममता नहीं समझ सकी।"
"यही क्यों हम सभी तुम्हारे अपराधी हैं बहू, हमने भी तुम्हारा दुख नहीं समझा और तुमसे नजरें फेर लीं।" यशोदा देवी की आँखों से पश्चाताप की दो बूंदें ढुलककर उर्मी के हाथ पर गिरीं तो वह बोल पड़ी, "आप लोग मुझसे बड़े हैं, माफी माँगकर शर्मिंदा न करें।" कहते हुए उसकी नजर सुहास की ओर उठी, वह दोनों हाथों से कान पकड़े किसी मासूम बच्चे सा खड़ा था। उसको ऐसे देख उर्मी को हँसी आ गई। आज उसकी इस हँसी पर सभी निहाल हो रहे थे। सभी के दिलों पर जमी भ्रम की काई आज साफ हो चुकी थी।

© मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

मैं औरत हूँ

मैं औरत हूँ

एक दिन एक पुरुष को अपनी पत्नी पर चिल्लाते उसे धमकाते देखा, जो कह रहा था *"औरत है, औरत बनकर रह, मर्द बनने की कोशिश मत कर।"* उस घटना से मेरे मन में उपजे भावों को पंक्तिबद्ध करने का प्रयास किया है..

मैं औरत हूँ
औरत ही रहूँगी
मर्द नहीं बनना मुझको
हे पुरुष!
नाहक ही तू डरता है
असुरक्षित महसूस करता है
मेरे मर्द बन जाने से।
सोच भला...
एक सुकोमल
फूल सी नारी
क्या कंटक बनना चाहेगी
अपने मन की सुंदरता को
क्यों कर खोना चाहेगी?
ममता भरी हो जिस हृदय में
क्या द्वेष पालना चाहेगी
दुश्मन पर भी दया दिखाने वाली
कैसे निष्ठुर बन जाएगी
बाबुल का आँगन छोड़ के भी
दूजों को अपनाया जिसने
ऐसे वृहद् हृदय को क्यों
संकुचन में वो बाँधेगी
पुरुष मैं बनना चाहूँ
ये भ्रम है तेरे मन का
या फिर यह मान ले तू
डर है तेरे अंदर का
क्योंकि
मैं देहरी के भीतर ही
तुझको सदा सुहाती हूँ
देहरी से बाहर आते ही
रिपु दल में तुझको पाती हूँ
मैंने तो कदम मिला करके
बस साथ तेरा देना चाहा
कठिन डगर पर हाथ थाम के
मार्ग सरल करना चाहा
पर तेरे अंतस का भय
मेरा भाव समझ न सका
मेरे बढ़ते कदमों को
अपने साथ नहीं समक्ष समझा
सहयोग की भावना को
प्रतिद्वंद्व का नाम दिया
अहंकार में डूबा पौरुष
लेकर कलुषित भाव मन में
अपने मन की कालिमा
मेरे दामन पर पोत दिया
कभी वस्त्रों की लंबाई
कभी ताड़ता अंगों को
अपने व्यभिचारी भावों पर
नहीं नियंत्रण खुद का है
दोष लगाता नारी पर
खुद को देख न पाता है
जो कालिमा मुझ पर पोत रहा
वो उपज तेरे हृदय की है
मैं नारी थी
नारी हूँ
नारी ही रहना मुझको
बाधाओं को तोड़ लहर सी
खुद अपना मार्ग बनाना मुझको
क्योंकि मैं औरत हूँ।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

बुधवार

फागुन आया

फागुन आया
फागुन आया
हवाओं की नरमी जब मन को गुदगुदाने लगे 
नई-नई कोपलें जब डालियाँ सजाने लगें, 
खुशनुमा माहौल लगे, मन में उठें तरंग 
तब समझो फागुन आया, लेकर खुशियों के रंग। 

खिलते टेसू पलाश मन झूमे होके मगन 
पैर थिरकने लगे नाचे मन छनन-छनन,
बैर-भाव भूलकर खेलें जब सभी संग 
तब समझो फागुन आया लेकर खुशियों के रंग।

होली है त्योहार रंगों का खुशियाँ भर-भर लाता है 
फागुन के मदमस्त फिजां में, झूम-झूम मन गाता है,
राग रंजिश भूल सभी आज रंगें प्रेम रंग 
अब देखो फागुन आया लेकर खुशियों के रंग।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

अतीत के पन्नों में झाँकती कहानियाँ

अतीत के पन्नों में झाँकती कहानियाँ
अतीत के पन्नों में झाँकती कहानियाँ: कहानी-संग्रह – इंतज़ार ‘अतीत के पन्नों से’ लेखिका – मालती मिश्रा प्रकाशन – समदर्शी प्रकाशन, भिवानी पृष्ठ – 146 कीमत – 175/- अतीत के पन्नों में झाँकते हुए मालती मिश्रा …

शनिवार

नारी सम्मान

नारी सम्मान

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवताः
कहा जाता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है किन्तु आधुनिक समाज में नारी को पूजा की नहीं आदर की पात्र बनने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। यह विषम परिस्थिति मात्र कुछ महीनों या कुछ वर्षों की देन नहीं है बल्कि यह तो सदियों से ही चला आ रहा है कि नारी को देवी की पदवी से गिरा कर उसे भोग्या समझा जाने लगा तभी तो महाभारत काल में ही धर्म के वाहक माने जाने वाले पांडव श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रुपद नरेश की पुत्री और इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी को ही जुए में दाँव पर लगा दिया और विजेता कौरवों ने उनकी पत्नी को जीती हुई दासी मान भरी सभा में अपमान किया।
दहेज प्रथा, सती प्रथा जैसी कुरीतियों का शिकार नारी ही होती आई है, भोग्या भनाकर बाजारों में बेची जाती रही है, तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं का शिकार आज भी होती है। नारी की दुरुह दशा पर सूफी संतों की दृष्टि तो पड़ी किन्तु पुरुषत्व के चश्मे के साथ.. तभी तो तुलसीदास जैसे महाकवि लिख डालते हैं-
"ढोल,गँवार,शूद्र,पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।।"
समाज सुधारक मानवता के द्योतक, निराकार ब्रह्म के उपासक, समाज के पथ-प्रदर्शक कहे जाने वाले संत कबीर दास लिखते हैं-
"नारी की झाँई पड़त,
अंधा होत भुजंग,
कबिरा तिन की कौन गति,
नित नारी के संग।"

रहीम दास कहते हैं-
"उरग तुरग नारी नृपति,
नीच जाति,हथियार।
रहिमन इन्हें सँभालिये,
पलटत लगत न वार।"

एक ओर पुरुष समाज नारी पर दया दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर उसे निम्न कोटि की, भोग्या और मनोरंजन की वस्तु मानकर अपने झूठें अहं पिपासा को तृप्त करते हैं।
पुरुषों की ऐसे ही कृत्यों को देख कर साहिर लुधियानवी ने नारी टीस को महसूस किया और उसे अपनी कलम की स्याही बना ली और इसी तिलमिलाहट में लिख बैठे....
"बिकती हैं कहीं,बाजारों में,
तुलती है कहीं दीनारों में।
नंगी नचवाई जाती है, अय्याशों के दरबारों में।
यह वो बेइज्जत चीज है जो बँट जाती है इज्जतदारों में।।

समय के साथ-साथ समाज सुधारकों व विद्वानों की दृष्टि नारी की दयनीय दशा पर पड़ी और उन्होंने स्वीकारा कि किसी भी देश की सामाजिक व मानसिक उन्नति का अनुमान हम उस देश-काल की स्त्रियों की स्थिति से लगा सकते हैं, नारी समाज देश का आधा भाग होती है, जब तक समाज में महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुरक्षित, समर्थ और शक्तिशाली नहीं होंगी तब तक समाज में संतुलन नहीं होगा और असंतुलित समाज या देश का सकारात्मक उत्थान संभव नहीं।
गुप्त जी 1914 में प्रकाशित महत्वपूर्ण काव्य 'भारत-भारती' में आधुनिक महिलाओं की उन्नति पर अत्यधिक बल देते हुए देश में शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार की बात करते हुए कहते हैं कि "हमारी शिक्षा तब तक कोई काम नहीं आएगी, जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, यदि पुरुष शिक्षित हो गए और महिलाएँ अनपढ़ रह गईं तो हमारा समाज ऐसे शरीर की तरह होगा जिसका आधा हिस्सा लकवे से बेकार है।"
तब स्त्री को इस योग्य बनाने का अभियान चलाया गया कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक ओर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जनता को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने का काम किया गया, तो दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथी लेखकों द्वारा अपने नाटकों, निबंधों और काव्यों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। आधुनिक युग के सुधार आंदोलनों पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि उस समय के अधिकांश सुधार आंदोलन नारी-उत्थान से संबंधित थे जैसे- पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, शिशु-कन्या-हत्या, बाल-विवाह आदि।
उस समय का ये संघर्ष आज हमें मामूली लग सकता है किन्तु उस देश-काल के नजरिए से सोचें तो यह बहुत ही दुरुह व संघर्षपूर्ण कार्य था।
धीरे-धीरे ये कुरीतियाँ तो समाप्त हो गईं परंतु पितृसत्तात्मक समाज का चलन खत्म नहीं हुआ और स्त्री-पुरुष के अंतस में जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर या उनके अधीन मानने की धारणा समा चुकी है, वह अब भी निरापद कायम है। आज भी कानूनी रूप से समान अधिकारों के आवरण में समानता लुप्त है,  हमारे देश में अभी भी महिला और पुरुष की साक्षरता दर समान नहीं है एक सैंपल सर्वे के रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर ८३ प्रतिशत है तो महिलाओं की ६७ प्रतिशत, अर्थात् अभी भी पुरुषों की तुलना में १६ प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। विभिन्न संथानों में कार्यरत महिलाओं को पुरुषों के समान कार्य, समान पद के लिए समान वेतन नहीं प्राप्त होता।
आज स्त्री समर्थ होने के बाद भी यही मानती है कि शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। अभी भी लड़की के विवाह का फैसला भी पिता ही लेता है। दाह संस्कार पुत्र ही करता है। पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर अधिकार होने के बाद भी बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। संपत्ति में हिस्सा लेने के उपरांत भाइयों-भाइयों का रिश्ता तो बना रह सकता है परंतु यदि बहन को हिस्सा देना पड़े तो भाई-बहन का रिश्ता दांव पर लग जाता है। कहते हैं स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है, स्त्रियों को पीछे धकेलने में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक होता है। कौन से कार्य लड़कों के हैं और कौन से कार्य लड़कियों के इसका निर्धारण घर में ही माँ तथा अन्य बड़े बुज़ुर्गों द्वारा कर दिया जाता है और इसी मानसिकता के साथ बेटियों की परवरिश की जाती है कि उन्हें घर के सारे काम करने आने चाहिए क्योंकि उनका प्रथम कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर होता है, वह चाहे बाहर नौकरी पेशा ही क्यों न हों किन्तु घर के भीतर के सारे काम, परिवार के सदस्यों की देख-रेख आदि उनका उत्तरदायित्व है वहीं दूसरी ओर लड़कों को इस सीख के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ घर से बाहर है।
आज भी समाज में संस्कार, लज्जा, चरित्र आदि को संभालने का उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री का माना जाता है। यदि स्त्री अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना चाहे तो मर्यादा रूपी हथियार दिखा कर उसकी आवाज दबा दी जाती है। यूँ तो बेटा-बेटी समान हैं परंतु बेटियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते समय बेटों को वही पाठ पढ़ाने की प्रथा अब भी नहीं है, आज भी समाज में स्त्रियों को सीता, सावित्री जैसी पौराणिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनकी सोच को दायरों में सीमित करने का प्रयास किया जाता है किन्तु पुरुषों से राम बनने की अपेक्षा नहीं की जाती। यदि कोई लावारिस नवजात शिशु पाया जाता है तो उँगली सिर्फ माँ पर उठाई जाती है, पिता के विषय में तो कोई सोचता ही नहीं।
हम आधुनिक समाज में जी रहे हैं और आज स्त्रियों ने धरती से अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध किया है, फिर भी देर रात अकेली घर से बाहर जाते हुए वह डरती है, क्योंकि आज भी स्त्री पुरुषों की नजर में भोग्या बनी हुई है। आधुनिकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज आज भी स्त्री को वह सम्मान वह अधिकार नहीं दे पाया जिसका वर्णन हमारे वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इसका कारण यही है कि पुरुष समाज अपना सत्तात्मक दंभ छोड़ना नहीं चाहता, इसीलिए स्त्री जब भी अधिकारों के लिए सजग हुई तभी पुरुषों की नजर से विलग हुई, जब भी इसने सिर उठाने का प्रयास किया पुरुष का अहंकार  आहत हुआ, जब भी स्त्री ने कमर सीधा कर सीधे खड़े होने की कोशिश की पुरुष को अपनी कमर झुकती महसूस हुई, जब भी इसने धरती पर अपने पैर जमाना चाहा पुरुषों को अपने पैरों तले की धरती खिसकती दिखाई दी और जब भी स्त्री ने अपना मौन तोड़ा तभी पुरुष वर्ग को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आया।
ऐसा ही होता है जब हम किसी के अधिकारों पर जबरन आधिपत्य जमा कर बैठे होते हैं, तो उसकी तनिक सी सतर्कता हमारे कान खड़े कर देती है और हर जायज क्रियाकलाप भी हमें नागवार गुजरती है।
आज महिला दिवस के अवसर पर नारियों को तरह-तरह के सम्मान दिए जाते हैं, तरह-तरह से उनकी उपलब्धियों और संघर्षों को सराहा जाता है किन्तु यह सब भी सिर्फ सामयिक ही होता है यदि नारी-सम्मान को धरातल पर लाना है तो जन-जन को उसके सम्मान को हृदय में स्थान देना होगा, उसे वर्ष में एक दिन नहीं बल्कि हर दिन हर पल सम्मान की दृष्टि से देखना होगा उसे अपने समक्ष प्रतिद्वंद्वी न समझकर अपने समकक्ष सहभागी सहयोगी समझना होगा तभी सही मायने में नारी को सगर्व सम्मान की प्राप्ति हो सकेगी।

मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

पीठ में खंजर घोंप रहे

पीठ में खंजर घोंप रहे
पीठ में खंजर घोंप रहे

समय की धारा हर पल बहती, मानव के अनुकूल,
तीन सौ सत्तर कैसी धारा' बहे सदा प्रतिकूल।
जो है निरर्थक नहीं देश हित, पैदा करे दुराव,
खत्म करो वो धाराएँ जो नहीं राष्ट्र अनुकूल।।

व्याधियों से लड़ते-लड़ते बीते सत्तर साल,
बनकर दीमक चाट रहे जो, वही बजाते गाल।
जुबां खोलने से पहले वो सोचें सौ-सौ बार,
घर के जयचंदों का घर में कर दो ऐसा हाल।

सत्ता पाने के लालच में हुए शत्रु के मीत,
भेड़ खाल में छिपे भेड़िए नाहर से भयभीत।
घर में बैठे जयचंदों का हो पहले संहार,
तभी सुनिश्चित हो पाएगी अरि पर अपनी जीत।

धाराओं की आड़ में ये बेल विषैली रोप रहे,
अपनी कुत्सित मंशाओं को जनता पर थोप रहे।
पाक प्रेम में लिप्त जयचंदों को भेजो उस पार,
भाई कहकर ये भाई के पीठ में खंजर घोंप रहे।।

मालती मिश्रा 'मयंती'