रविवार

पीठ में खंजर घोंप रहे

पीठ में खंजर घोंप रहे

समय की धारा हर पल बहती, मानव के अनुकूल,
तीन सौ सत्तर कैसी धारा' बहे सदा प्रतिकूल।
जो है निरर्थक नहीं देश हित, पैदा करे दुराव,
खत्म करो वो धाराएँ जो नहीं राष्ट्र अनुकूल।।

व्याधियों से लड़ते-लड़ते बीते सत्तर साल,
बनकर दीमक चाट रहे जो, वही बजाते गाल।
जुबां खोलने से पहले वो सोचें सौ-सौ बार,
घर के जयचंदों का घर में कर दो ऐसा हाल।

सत्ता पाने के लालच में हुए शत्रु के मीत,
भेड़ खाल में छिपे भेड़िए नाहर से भयभीत।
घर में बैठे जयचंदों का हो पहले संहार,
तभी सुनिश्चित हो पाएगी अरि पर अपनी जीत।

धाराओं की आड़ में ये बेल विषैली रोप रहे,
अपनी कुत्सित मंशाओं को जनता पर थोप रहे।
पाक प्रेम में लिप्त जयचंदों को भेजो उस पार,
भाई कहकर ये भाई के पीठ में खंजर घोंप रहे।।

मालती मिश्रा 'मयंती'

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