रविवार

'दलित' एक राजनीतिक शब्द

'दलित' एक राजनीतिक शब्द

'दलित' यह एक ऐसा शब्द है जिसने देश को बाँटना शुरू कर दिया है,  अब से कुछ वर्ष पहले तक लोग अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते थे लोग चाहते थे कि उन्हें उनके नाम से जाना जाए, इसके लिए उन्हें कठोर परिश्रम, अनगिनत मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता था किंतु जब वो समाज में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो जाते तो जो संतुष्टि उन्हें प्राप्त होती उसकी अनुभूति अवर्णनीय होती....निःसंदेह कठोर परिश्रम के बाद प्राप्त सफलता का अलग ही सुख होता है | मेरा अनुभव कहता है कि हर व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत पहचान अधिक प्रिय होती है, कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर एक वर्ग विशेष के नाम से पहचाने जाने को अधिक सम्माननीय नहीं समझता और सम्मान किसे प्रिय नहीं होता? हममें से अधिकतर लोगों ने अपने विद्यार्थी जीवन में महादेवी वर्मा की एक कृति पढ़ी होगी 'गिल्लू' जिसमें लेखिका ने गिलहरी के बच्चे को पाला और उसको नाम दिया 'गिल्लू' | एक स्थान पर लिखा है 'गिल्लू' जो अब तक जातिवाचक था 'गिल्लू' नाम मिलते ही व्यक्तिवाचक हो गया' इसे पढ़कर वास्तव में ऐसा महसूस होता है कि गिल्लू अपने समकक्ष प्राणियों यानि अन्य गिलहरियों से श्रेष्ठ हो गया है| विचारणीय है कि जब एक बेजुबान अदना से जीव मात्र के लिए उसका व्यक्तिगत नाम इतना महत्वपूर्ण हो सकता है तो मनुष्य के लिए क्यों नही? परंतु आजकल तो एक अलग ही लहर चल पड़ी है- 'दलित' कहलाने की... यदि समाज में किसी व्यक्ति को दलित कह कर संबोधित किया जाय तो उस दलित को बहुत बुरा लगेगा, उसे समाज के किसी अधिकार से वंचित रखा जाय तो यह निःसंदेह शोषण कहलाएगा|

   यदि हम आज से कुछ दशक पहले का इतिहास देखें तो पाएँगे कि उस समय समाज में छुआछूत बहुत व्याप्त था, लोग निम्न जाति के लोगों को छूते नहीं थे यदि गलती से छू गए तो शुद्धिकरण आदि किया करते थे...शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं थे जिसके कारण आर्थिक स्थिति भी दयनीय होती थी, समाज मे इनकी दशा बेहद दयनीय होती थी,  उस समय सचमुच ही ये निम्न श्रेणी के लोग दलित ही होते थे किंतु बदलते समय के साथ-साथ इनके भाग्य भी बदले और कानून के बदलाव तथा सरकार के प्रयासों से इन पिछड़े और दलितों के जीवन में बदलाव आया गाँव से लेकर शहर, शिक्षा से लेकर रोजगार सभी क्षेत्रों में इनकी भागीदारी को समानता के स्तर पर रखा गया बल्कि यदि सामान्य श्रेणी से ऊपर कहा जाय तो भी गलत न होगा क्यों कि सामान्य श्रेणी के लोग इनके आरक्षित स्थानों में अपनी शिरकत नहीं कर सकते जबकि ये अपने आरक्षण और उससे बाहर दोनों ही जगह अपने पैर पसार सकते हैं,
आज स्थिति यह है कि SC,ST,OBC, पिछड़ा,दलित आदि कहकर कोई किसी को संबोधित नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से वह व्यक्ति अपमानित महसूस करता है, किंतु सोचने की बात है कि जिस नाम से पुकारे जाने पर व्यक्ति स्वयं को अपमानित महसूस करता है, जहाँ फायदा उठाने की बारी आती है वहाँ बड़ी शान के साथ उसी नाम का प्रयोग करता है....    
  आज राजनीति में भी इन नामों का हुकुम के इक्के की तरह प्रयोग हो रहा है, अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए तथा मौजूदा सरकार को विकास के कार्य करने से रोकने के लिए और उसे बदनाम करने के लिए समाज को दलित, सवर्ण, अल्पसंख्य व पिछड़े वर्ग के नाम पर बाँटा जा रहा है और जनता है जो मूर्ख बन रही है या फिर चंद नोटों के लालच में भीड़ का हिस्सा बन जाती है......
जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है तो दलित के नाम पर सुविधाएँ लेने व आरक्षण आदि लेने में क्यों अपमान महसूस नहीं होता ? इसका अर्थ तो यही हुआ कि या तो इस 'दलित' शब्द का प्रयोग सिर्फ राजनीतिक पार्टियों द्वारा इन्हें अपने स्वार्थ रूपी मछली का चारा बनाने के लिए किया जाता है या फिर जो इस नाम से अतिरिक्त सुविधाएँ लेना चाहते हैं उनकी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं अर्थात् मान-अपमान से उन्हें कोई सरोकार नहीं बस स्वार्थ पूर्ति एकमात्र लक्ष्य होता है और ऐसे लोग समाज के लिए दीमक के समान होते हैं परंतु जितना मैं जानती हूँ ये सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा दिग्भ्रमित होते हैं इसलिए जबतक समाज में व्यक्ति में जागरूकता नहीं आएगी देश की विकास की गति में अपेक्षित तीव्रता नहीं आएगी|

मालती मिश्रा

गुरुवार

राष्ट्रद्रोह आंदोलन की चक्की में देश पिसता है

राष्ट्रद्रोह आंदोलन की चक्की में देश पिसता है

इतनी शक्ति कांग्रेस ने गर ब्रिटिश काल मे दिखाई होती,
देश को आजाद कराने में फिर सौ साल नहीं गँवाई होती|
सत्ता की लालसा प्रबल इतनी है हित अहित न दिखता है,
राष्ट्रद्रोह और आंदोलन की चक्की में देश पिसता है |
देशद्रोह के नारे को वैचारिक अभिव्यक्ति बताते हैं,
देशभक्ति का दम भरने वाले संविधान का मजाक बनाते हैं |
सत्य पर पर्दा पड़ा रहे हर संभव जुगत लगाते हैं,   
जनहित का प्रपंच रचकर आंदोलन में देश जलाते हैं |
आरक्षण का लॉलीपॉप दिखा अयोग्यता की जड़ें फैलाते हैं, 
भारत माँ के पुत्रों से ही उनका दामन कुचलवाते हैं |
लाख करो कोशिश तुम दुष्टों जनता अब है जाग रही, 
तुम्हारी हर खल चेष्टाओं को अपने स्तर पर भाँप रही| 
हर घर से अफजल पैदा करो इतनी तुम्हारी औकात नहीं, 
अफज़ल संग तुमको धूल न चटा दें तो हम भारत माँ के लाल नहीं ||
मालती मिश्रा...

मंगलवार

सरहद पर भारत के वीर जिस ध्वज का आन बढ़ाते हैं

सरहद पर भारत के वीर जिस ध्वज का आन बढ़ाते हैं
देश बर्बाद करने की जिसने भी जिद ये ठानी है
आवाम नही वो देशद्रोही है ये बात उसे बतानी है 
सरहद पर भारत के वीर जिस ध्वज का आन बढ़ाते हैं 
घर के भीतर उसी तिरंगे को सत्ता के लोभी जलाते हैं 
राष्ट्रद्रोह को खादी धारी विचारों की अभिव्यक्ति बता करके 
जहाँ बनता हो देश का भविष्य वहाँ देश द्रोही बनाते हैं 
हिंदुस्तान में हिंदुत्व को वर्जित करने का षडयंत्र रचाया है 
लेकर सहारा पूर्वजों के नाम का सकल देश पे हक जताते हैं 
आतंकी के मृत्युदंड को शहादत से परिभाषित करके 
भारत माँ के सच्चे सपूतों की शहादत को लजाते हैं 
वेमुला की कायरता भरी आत्महत्या पर आंदोलन करके 
कश्मीर के छः शहीदों की कुर्बानी को छिपाते हैं 
सत्ता में जमने को देश को जाति धर्म के नाम पर बाँटा है 
पहन के सच्चाई की टोपी मफलर जनता को भरमाते हैं 
भारत माँ आज रोती है क्यों ऐसे कपूत पाए हैं 
जो सत्ता को पाने की खातिर हर नीचता पर उतर आए हैं 
मालती मिश्रा




रविवार

आरक्षण बनाम राजनीति

आरक्षण बनाम राजनीति
 
    आरक्षण के लिए आंदोलन की आड़ में अपना स्वार्थ साधना कोई नई बात नहीं है ऐसा तो यहाँ बार-बार होता रहा है और आगे भी होता ही रहेगा परंतु सवाल यह उठता है कि क्या ये आंदोलन करने वाले सचमुच आम जनता ही है, हमारे देश की आम जनता कब से इतनी संवेदनाहीन हो गई? अपनी संवेदनशीलता के कारण हिंदू हमेशा धोखा खाते आए हैं हमेशा छले जाते रहे हैं, परंतु आंदोलन की आड़ में दंगे-फसाद, आगजनी करने वाले लोग साधारण जनता नहीं हो सकती, परंतु यह भी सत्य है कि हथियार तो साधारण जनता को ही बनाया गया..
दंगाइयों की मुहर तो साधारण जनता यानी जाटों पर ही लगी,इसलिए साधारण जाट जो आंदोलन में शामिल थे उन्हें चाहिए था कि वो खुद इन दंगा-फसादों का विरोध करते ताकि उन्हें इस्तेमाल करने वालों को उनकी असली जगह दिखाई जा सकती, परंतु लालच बुरी बला है यही सत्य है बिना मेहनत बिना किसी गुण के आरक्षण पाने का लालच देश की संपत्ति को आग के हवाले होते देखता रहा.....
सवाल यह उठता है कि जो लोग अपनी स्वार्थ साधना हेतु देश को इतना नुकसान पहुँचा सकते हैं देश की करोड़ों की संपत्ति फूँक सकते हैं, हत्याएँ कर सकते हैं, देश की आम जनता को भूख-प्यास से मरने को मज़बूर कर सकते हैं, वो आरक्षण मिलने के उपरांत देश का क्या भला करेंगे सिवाय अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए हर जायज-नाजायज तरीके अपनाने के....ऐसे लोग देश के विकास में एक अवरोधक का कार्य करते हैं,इन्हें आरक्षण की नहीं सही सबक सिखाने की आवश्यकता है| इन्हें आरक्षण मिलना चाहिए परंतु कुछ शर्तों पर कि देश का जो भी नुकसान हुआ है संपूर्ण आरक्षित जाट वर्ग को यह नुकसान पूरा करना होगा इसके साथ ही सरकार को सभी वर्गों को चाहे वह जनरल हो, ओ बी सी हो, पिछड़ा, अल्प संख्यक या कोई भी वर्ग हो उसकी संख्या के आधार पर आरक्षण दे देना चाहिए और आरक्षित सीटों पर भी शिक्षा में प्रवेश या नौकरी में भर्ती सभी में चयन योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए| इससे विभाजन में सामंजस्य रहेगा और सत्ता के लोभियों को आरक्षण पर राजनीति करने का अवसर नहीं मिलेगा |
मालती मिश्रा

बुधवार

A different perspective on the JNU issue. Think about it.

Take a hard look and you will notice JNU drama is timed with the "Make in India week" initiative in Mumbai. This is the largest such event ever hosted in India and foreign governments, delegates and businesses are invited. Also of course Indian businesses and media will participate as well. This event will cover major investments and deals that will provide employment and opportunities in coming months and years. It is very positive news for India in this global economic uncertainty. This event is in line with the Vibrant Gujarat Summit which all of have read about and may be even attended.

There are institutions and political parties who want local and foreign media to talk about JNU 'created' issues and not "Make in India week" initiative. They will attempt to show India in a negative light. You will see Indian media go ballistic on JNU issue in pursuit of TRPs. So be aware of this and be very smart how to beat them in their own game. Don't play into their hands. Instead of discussing JNU I suggest spread the good word about "Make in India week". Once it starts trending on whatsapp and Twitter, the Indian media will move away from JNU. Again in pursuit of TRPs.

Think !! JNU issue will not create employment or job opportunities but Make in India will.

शुक्रवार


ओस की गीली चादर सुखाने लगा है, 
सूरज देखो मुखड़ा दिखाने लगा है |
पत्तों पे बिखरे पड़े हैं ओस के जो मोती, 
अरुण उनकी शोभा बढ़ाने लगा है |
शीत लहरों से छिपाते थे मुखड़ा जो पंखों में,  
वो खगकुल भी खुश होकर गाने लगा है |
ठंड से ठिठुर रजाई से झाँकता था जो शिशु वृंद,
वो भी सर्दी को अँगूठा दिखाने लगा है |
धरा को सजा के रंग-बिरंगे फूलों से, 
मौसम भी खुशियाँ दर्शाने लगा है |
पीने को फूलों का मृदुल मधु रस, 
मधुकर भी देखो मँडराने लगा है |
प्रकृति का श्रृंगार करने को देव-मानव, 
धरा पे हरी चादर बिछाने लगा है |
वसुधा ने ओढ़ी सरसों की पीली चूनर,
पवन दे-देकर थपकी मुस्कुराने लगा है |
हरी चूनर में पिरो के रंग-बिरंगे फूलों के मोती, 
धरा को दुल्हन सी सजाने लगा है |
स्वागत में वर वसंत के मदमस्त उपवन,
भीनी-भीनी खुशबू बिखराने लगा है ||
मालती मिश्रा



































ओस की गीली चादर सुखाने लगा है, 
सूरज देखो मुखड़ा दिखाने लगा है |
पत्तों पे बिखरे पड़े हैं ओस के जो मोती, 
अरुण उनकी शोभा बढ़ाने लगा है |
शीत लहरों से छिपाते थे मुखड़ा जो पंखों में,  
वो खगकुल भी खुश होकर गाने लगा है |
ठंड से ठिठुर रजाई से झाँकता था जो शिशु वृंद,
वो भी सर्दी को अँगूठा दिखाने लगा है |
धरा को सजा के रंग-बिरंगे फूलों से, 
मौसम भी खुशियाँ दर्शाने लगा है |
पीने को फूलों का मृदुल मधु रस, 
मधुकर भी देखो मँडराने लगा है |
प्रकृति का श्रृंगार करने को देव-मानव, 
धरा पे हरी चादर बिछाने लगा है |
वसुधा ने ओढ़ी सरसों की पीली चूनर,
पवन दे-देकर थपकी मुस्कुराने लगा है |
हरी चूनर में पिरो के रंग-बिरंगे फूलों के मोती, 
धरा को दुल्हन सी सजाने लगा है |
स्वागत में वर वसंत के मदमस्त उपवन,
भीनी-भीनी खुशबू बिखराने लगा है ||
मालती मिश्रा

















मंगलवार

दिल ढूँढ़ता है...


मँझधार में फँसकर किनारों को ढूँढ़ते हैं
पतझड़ के मौसम में बहारों को ढूँढ़ते हैं |
दिल ढूँढ़ता है उसे जिसे पाना नहीं आसाँ,
क्या-क्या जतन किया बताना नहीं आसाँ 
छूने को तेरा साया उन दरो-दिवारों को ढूँढ़ते हैं, 
पतझड़ के.......

देखे थे हमने सपने जो हद से निकल कर, 
वो मुट्ठी में बंद रेत सी गिर जाए जो फिसलकर 
खोलकर मुट्ठी हम उन दरारों को ढूँढ़ते हैं, 
पतझड़ के........

कण्ठ में भरने को चिड़िया का चहकना 
मन चाहे पहनने को चाँद-तारों का गहना |
बंद पलकों में पले सपने नजारों को ढूँढ़ते हैं 
पतझड़ के.........

नाजुक कोपलों पे सजी ओस के बूँदों की बारात,
धरती पे बिखरी हरियाली से तारों की मुलाकात|
बंद आँखों से हम उन नजारों को ढूँढ़ते हैं 
पतझड़ के मौसम में बहारों को ढूँढ़ते हैं....

मालती...मिश्र

रविवार

राजनीति का शस्त्र-'धार्मिक असहिष्णुता'

राजनीति का शस्त्र-'धार्मिक असहिष्णुता'
   
  हमारे देश ने आज विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में बहुत उन्नति हासिल किया है....परंतु इन क्षेत्रों की उपलब्धियाँ लोगों तक पहुँचते-पहुँचते बहुत समय लग जाता है और फिरभी बहुत बड़ी संख्या में लोग इन उपलब्धियों से अनजान ही रह जाते हैं |किंतु भारत में बिना किसी विशेष तकनीकी ज्ञान के एक और बहुत ही प्रभावी और बहुत दूर तक की मारक क्षमता रखने वाले शस्त्र का निर्माण हुआ है, जो है-धार्मिक असहिष्णुता... जी हाँ इस शस्त्र के लिए किसी तकनीकी ज्ञान की नहीं बल्कि लोगों की भावनाओं की और उनकी कमजोरियों को पहचानने की क्षमता होनी चाहिए, एक ही घर के सदस्यों को आपस में लड़ाना आना चाहिए और लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए भीड़ जुटाने की क्षमता होनी चाहिए....और खुशकिस्मती से हमारे देश के राजनीतिज्ञ इन कलाओं में पारंगत हैं उनके पास चाहे तकनीकी ज्ञान का अभाव कम हो या न हो पर भाई को भाई से सास को बहू से पिता को पुत्र से कैसे लड़ाया जाए इसका अनुभव भरपूर है...
यही कारण है कि देश के वो लोग जिन्हें सहिष्णुता अर्थ भी पता नहीं होगा वो भी भीड़ का हिस्सा बनकर धार्मिक असहिष्णुता का राग अलापने लगते हैं.....
पहले इस देश के लोग एक-दूसरे के धर्मों का एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते थे परंतु धीरे-धीरे ये मान्यताएँ दम तोड़ती दिखाई पड़ने लगी हैं, जनता किसी धर्म से बैर नहीं रखती किंतु यदि कहीं आपसी शत्रुता के कारण कोई दुर्घटना हो जाती है तो राजनीतिक पार्टियाँ और उनका समर्थन करने वाले मीडिया चैनल उस दुर्घटना को धर्म-जातीयता का रूप देकर इस प्रकार पेश करते हैं जो देखने-सुनने वालों को ऐसा लगता है कि निःसंदेह दुर्घटना का कारण धार्मिक ही रहा होगा...और राजनीतिक पार्टियाँ ऐसी दुर्घटनाओं को खोज-खोज कर किसी एक ही वर्ग का इतना अधिक समर्थन व सहयोग करती हुई दिखाई देती हैं कि दूसरा वर्ग न चाहते हुए भी स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे और उस अमुक वर्ग से घृणा करने लगे...तथा अमुक वर्ग भी ऐसा सोचने पर विवश हो जाता है कि शायद सचमुच ही वह निम्न वर्ग या अल्प संख्यक होने के कारण उपेक्षा का शिकार है इसीलिए तो समाज का एक जागरूक और बुद्धिजीवी वर्ग उसके लिए चिंतित है और उसके लिए आंदोलन व धरना आदि कर रहा है| 
परिणामस्वरूप समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग से कट जाता है और दोनों ही वर्गों की सोच एक ही होती है कि अमुक वर्ग के कारण हम उपेक्षित हो रहे हैं, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल भिन्न होती है उदाहरण के तौर पर अभी हाल ही की घटना रोहित वेमुला के आत्महत्या की ही ले लो....उसने आत्महत्या की उसे किसी ने नहीं मारा, यदि सारे आरोपों को सच भी मान लिया जाए तो भी आत्महत्या का कोई कारण नहीं बनता उसे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए था... चलिए आत्महत्या भी कर लिया तो भी यह समाज की पहली दुर्घटना नहीं थी ऐसी दुर्घटनाएँ उच्च वर्ग के लोगों के साथ भी होती हैं परंतु उनके लिए कभी इतनी राजनीतिक अफरा-तफरी नहीं देखी.....रोहित वेमुला के पिता उसके दलित होने से इनकार कर रहे हैं और हमारे आदरणीय नेतागण जबरदस्ती उसे दलित बनाकर राजनीति करने आंदोलन करने पर आमादा हैं, परिणाम ये हुआ कि जो समाज रोहित के परिवार से हमदर्दी रखता, उनके दुख में दुखी होता वो समाज राजनीति का शिकार होकर सिर्फ गलत और सही का विश्लेषण करने में व्यस्त हो गया और दुख-सुख महसूस करने का भाव समाप्त हो गया.....जो समाज पहले यह कहता था कि दलित वर्ग हो या अल्प संख्यक सभी को समानता का दर्जा मिलना चाहिए वही समाज आज राजनीति के चलते इन वर्गों से दूरी बनाए रखने में ही अपने वर्ग का सम्मान समझता है | वहीं दूसरी ओर दलित वर्ग या अल्पसंख्यक वर्ग को भी कहीं न कहीं ऐसा लगने लगा है कि उन्हें दलित या अल्प बने रहने में ही फायदा है या उनकी आत्महत्या उन्हें राजनीतिक फायदा दिला सकती है....
इन सबसे जो परिणाम निकल कर सामने आता है वो बस यही कि जो राजनीतिक पार्टियाँ इस प्रकार के हथकंडे अपनाती हैं उनको तो राजनीतिक लाभ मिल जाता है परंतु समाज जिन ऊँच-नीच रूपी धारणाओं से सदियों से लड़ता रहा है उन धारणाओं का विकास पुनः शुरू हो गया है.....बल्कि मुझे कहते हुए खुशी हो रही है कि इस प्रकार की भावनाओं या ये कहूँ की इस प्रकार की राजनीति का असर अभी गाँवों में काफी हद तक कम है और कारण सिर्फ ये है कि गाँवों के लोग बिकाऊ मीडिया चैनलों के प्रभाव से अभी दूर हैं.......
अर्थात् यदि हमें इस धार्मिक असहिष्णुता नामक शस्त्र का तोड़ चाहिए तो हमें स्वयं को जागरूक बनाना होगा तथा आजकल के बिकाऊ मीडिया और स्वार्थी राजनेताओं के प्रभाव से दूर रहना चाहिए....
ऐसी अफवाहों से इनकी जन्मदाता राजनीतिक पार्टियों को तो फायदा पहुँचाया है उनका मकसद तो पूरा हो गया परंतु देश का क्या भला हुआ ? क्या देश फिर से नहीं कई वर्गों-धर्मों में बँटने लगा है? क्या हमनें यही चाहा था? 

साभार.....मालती मिश्रा

सोमवार

जब मैं छोटा बच्चा था...

जब मैं छोटा बच्चा था...

जब मैं छोटा बच्चा था तो
सबके घर में घुसता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
सबके राज्यों में घुसता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
मम्मी-पापा से पिटता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
तो मैं जनता से पिटता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
मम्मी का काजल लगाता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
जनता से स्याही पुतवाता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
पड़ोसी बच्चों के खिलौने लेता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
तो पुलिस पर अधिकार माँगता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
पापा से पैसे लेता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
तो विदेशों से चंदे लेता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
नाक हमेशा बहती थी
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
तो खाँसी हमेशा रहती है
जब मैं छोटा बच्चा था तो
क्लास में पेंसिल चोरी करता था
अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ
तो बड़े घोटाले करता हूँ
जब मैं छोटा बच्चा था तो
गोदी-गोदी करता था
अब जब मैं बड़ा हो गया तो
मोदी-मोदी करता हूँ