मँझधार में फँसकर किनारों को ढूँढ़ते हैं
पतझड़ के मौसम में बहारों को ढूँढ़ते हैं |
दिल ढूँढ़ता है उसे जिसे पाना नहीं आसाँ,
क्या-क्या जतन किया बताना नहीं आसाँ
छूने को तेरा साया उन दरो-दिवारों को ढूँढ़ते हैं,
पतझड़ के.......
देखे थे हमने सपने जो हद से निकल कर,
वो मुट्ठी में बंद रेत सी गिर जाए जो फिसलकर
खोलकर मुट्ठी हम उन दरारों को ढूँढ़ते हैं,
पतझड़ के........
कण्ठ में भरने को चिड़िया का चहकना
मन चाहे पहनने को चाँद-तारों का गहना |
बंद पलकों में पले सपने नजारों को ढूँढ़ते हैं
पतझड़ के.........
नाजुक कोपलों पे सजी ओस के बूँदों की बारात,
धरती पे बिखरी हरियाली से तारों की मुलाकात|
बंद आँखों से हम उन नजारों को ढूँढ़ते हैं
पतझड़ के मौसम में बहारों को ढूँढ़ते हैं....
मालती...मिश्र
मालती...मिश्र
मँझधार में फँसकर किनारों को ढूँढ़ते हैं।
जवाब देंहटाएंपतझड़ के मौसम में बहारों को ढूँढ़ते हैं ।
देखे थे हमने सपने जो हद से निकल कर,
बंद आँखों से हम उन नजारों को ढूँढ़ते हैं ......बहुत उम्दा रचना है । अकुलाहट सी.....
आपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया और ब्लॉग पर पधारने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया और ब्लॉग पर पधारने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आ०
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