गतांक से आगे..
सौम्या शब्दों की गहराई में खोती जा रही थी, वह अगला पन्ना पलटती है तभी बाहर से जोर की आवाज आई। जैसे कुछ गिरा हो और वह आवाज की दिशा में भागी। उसने देखा रसोईघर में कुछ डिब्बे गिरे हुए थे, उसे आश्चर्य हुआ कि आखिर ये कैसे गिर सकते हैं! ये तो शेल्फ में रखे थे। सोचते हुए उसने उन डिब्बों को उठाकर जगह पर रखा और फिर स्टडी रूम में वापस आ गई। वह आगे की डायरी पढ़ना चाहती थी लेकिन डायरी वहाँ नहीं थी, जहाँ वह रखकर गई थी।
'य..ये क्या हो रहा है भगवान! बार-बार ऐसा लगता है जैसे कोई है यहाँ पर जो हमें दिखाई नहीं दे रहा... लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, कोई होता तो दिखता भी।' सोचते हुए न जाने क्यों उसे डर महसूस हुआ और वह स्टडी रूम से बाहर आ गई। अभी वह सीढ़ियों पर ही थी कि तभी उसे हॉल वाले कॉमन वॉशरूम से पानी गिरने की आवाज आई, जैसे शॉवर चल रहा हो। वह फिर नीचे आई और पानी बंद करने के लिए वॉशरूम का दरवाजा खोलते ही चौंक गई। पिछली रात की तरह आज भी वॉशरूम धुला हुआ लग रहा था जैसे किसी ने अभी-अभी वाइपर से पानी खींचा हो। वह डर गई और भागकर एक ही साँस में सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में पहुँच गई। बेड पर बैठकर वह अपनी साँसे दुरुस्त करने लगी। सुबह के पाँच बजे का अलार्म बजने लगा। उसने अलार्म बंद किया, खुद को समझाकर थोड़ा साहस एकत्र किया और रोज के नियमित कार्यों में व्यस्त हो गई।
पूरे घर की साफ-सफाई करते-करते सात बज गए, रविवार था इसलिए बच्चे अभी सो रहे थे। सौम्या लॉन में पौधों को पानी देने चली गई। पानी देते हुए पाइप कहीं अटक गया उसने झटके से उसे खींचा,
"संभाल के, एक भी पौधा टूटा तो छोड़ूँगी नहीं तुझे।"
अपने पीछे से किसी की सरसराती-सी आवाज सुनकर वह झटके से पीछे मुड़ी, पर वहाँ कोई नहीं था। वह इधर-उधर देखने लगी लेकिन पूरे लॉन में उसे कहीं कोई नजर नहीं आया। उसने बचे हुए पौधों में जल्दी-जल्दी पानी डाला और अंदर आ गई। अलंकृता को सोफे पर अलसाई सी बैठी देखकर उसने कहा- "बेटा अस्मि को भी जगा दो और नहा-धोकर तुम दोनों नीचे आ जाना नाश्ते के लिए, तब तक मैं भी नहाकर पूजा कर लेती हूँ। कहकर वह अपने कमरे में चली गई। उसके कानों में रह-रहकर अब भी वही आवाज सरगोशी कर रही थी और कभी डायरी का खयाल आ जाता। अब वह परेशान सी होने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह सब हो क्या रहा है, सच में यहाँ कोई है या उसके मन का वहम है!! इसी उधेड़-बुन में उसने सब काम कर लिया, बच्चों के साथ नाश्ता करके उसने अलंकृता से पुस्तकें लगाने में मदद के लिए कहा और स्टडी रूम में चली गई।
पुस्तकें लगाते हुए उसने अलंकृता को भी बताया कि कैसे उसे डायरी मिली और फिर गायब भी हो गई।
"आपने खोलकर देखा उस डायरी को? कुछ खास था क्या उसमें?" अलंकृता ने कहा।
"किसी की पर्सनल डायरी लग रही थी, पहला और दूसरा पृष्ठ ही पढ़ा था मैंने, रोचक था और उदासी भरा भी।" सौम्या ने कहा।
"कोई बात नहीं मम्मी यहीं कहीं होगी मिल जाएगी।" अलंकृता ने कहा और एक-एक पुस्तक को झाड़-पोंछ कर शेल्फ में लगाती रही।
पुस्तकें रखकर दोनों बाहर आ गईं, और घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना तय करके अलंकृता सामान की लिस्ट बनाने लगी, सौम्या उसे बताती जाती और वह लिखती जाती। तभी अस्मि ने कहा- "मेरे लिए बास्केटबॉल और बैडमिंटन भी ले आना।"
"ठीक है, मम्मी और कुछ?"
ह..हाँ..डायरी..मेरा मतलब है कि....।" सौम्या ने बात अधूरी छोड़ दी।
अनजाने में सौम्या के मुँह से वही शब्द निकल गया जो उसके मस्तिष्क में चल रहा था। 'आखिर डायरी अपने-आप जा कहाँ सकती है?' सोचते हुए अचानक सौम्या को कुछ याद आया और वह झटके से खड़ी हो गई।
"क्या हुआ मम्मी?" अलंकृता ने उसे ऐसे खड़े होते देखकर पूछा।
"कुछ नहीं, अभी आई।" कहती हुई सौम्या तेज कदमों से स्टडी-रूम की ओर बढ़ गई।
कमरे में खड़े होकर उसने बड़े ध्यान से चारों ओर नजर दौड़ाई फिर उसे ध्यान आया कि उसे डायरी कहाँ से मिली थी, उसने शेल्फ में उसी जगह आगे की पुस्तकें हटाईं, पुस्तकों के पीछे डायरी पूर्व अवस्था में रखी हुई थी। सौम्या ने एक गहरी साँस ली डायरी को वहीं रखकर पुस्तकें फिर से वैसे ही रखकर बाहर आ गई। अब डायरी कहाँ रखी है, यह उसे पता है अतः जब भी समय मिलेगा तब वह आकर पढ़ सकती है, यह सोचकर वह आश्वस्त तो हो गई लेकिन डायरी वहाँ कैसे पहुँची, यह खयाल आते ही फिर से उलझन में पड़ गई।
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बच्चों को खाना खिलाकर सौम्या जल्दी-जल्दी रसोई साफ कर रही थी, इस समय उसके दिलो-दिमाग में बस डायरी घूम रही थी। आखिर क्यों यह डायरी पहेली बन गई... क्यों उस पर धूल नहीं जमती... कैसे वह अपने-आप वापस शेल्फ में पहुँच गई...और ठीक उसी स्थान पर जहाँ से उसे उठाया था... आखिर ऐसा क्या है उसमें जिसे जानने को वह स्वयं इतनी व्यग्र हो रही है? इन्हीं प्रश्नों के जाल में उलझी उसने सारा काम खत्म कर लिया और बच्चों के कमरे में झाँककर तसल्ली किया कि वे सो गए या नहीं! दोनों को सोते देख वह स्टडी-रूम में गई और डायरी निकालकर वहीं बैठ गई। डायरी खोलते हुए न जाने क्यों उसके हाथ कंपकंपा रहे थे। अपनी उंगलियों को नियंत्रित करते हुए उसने आगे का पन्ना पलटा..
समझ नहीं आता...
क्यों जिए जा रही हूँ?
जीवन का हलाहल
क्यों घूँट-घूँट पिए जा रही हूँ?
क्यों नहीं समापन कर लेती मैं...
नरक भरे इस जीवन का,
और कौन सा जख्म है बाकी...
जो रोज नया एक सिए जा रही हूँ????
उसकी उँगलियों ने बेसाख्ता अगला पन्ना पलट दिया...
"माना कि मैं साहसी हूँ, माना कि मैं मजबूत हूँ, आसानी से हार नहीं मानती, माना कि मैं सहनशील हूँ सब सह जाती हूँ और लोगों के सामने उफ तक नहीं करती...पर मैं भी इंसान हूँ यार, मेरे सीने में भी दिल है जो दुखता है। बहुत दर्द होता है और तब मुझे मेरी मजबूती अभिशाप लगती है। मैं तड़पती हूँ भीतर ही भीतर, मेरा भी मन करता है कि मैं भी कुछ पलों के लिए कमजोर पड़ जाऊँ और कोई हो जो मेरा संबल बने, मेरा हौसला बढ़ाए, जिसके कंधे पर अपना सिर रखकर मैं अपने मन का सारा बोझ हल्का कर दूँ। अंदर ही अंदर बिखर रही हूँ काश कोई तो ऐसा हो जिसके सीने से लगकर खूब जी भरकर रो लूँ काश मैं भी किसी के सामने अपनी मजबूती भूलकर खुलकर रो सकती। नहीं चाहिए ऐसी सहन शक्ति यार जो मेरे लिए ही सजा बन गई। थक गई हूँ, कमजोर हो गई हूँ अब नहीं चला जाता, मुझे भी सहारा चाहिए।
जब से होश संभाला तब से छोटे भाई-बहन को संभाला, घर की जिम्मेदारी संभाली अपना बचपन भूल ही गई, बस यही ख्याल हर पल रहता कि भाइयों को पढ़ाना है, उनके कपड़े धोने हैं, घर की सफाई करनी है , खाना बनाना है, अपनी भी पढ़ाई करनी है। पापा ने भी घर की मालकिन ही बना दिया था, बच्ची रही कहाँ मैं। कमजोर होती तो कैसे संभालती! भाइयों को कोई कुछ कहता तो आगे से खड़ी हो जाती उन्हें बचाने, माँ की तरह। सबकी माएँ अपने बच्चों के गलत होने पर भी हमें गलत ठहरा देतीं तब बड़ा दुख होता था, मम्मी की बड़ी याद आती थी लेकिन पता होता था कि वो अभी बहुत दूर हैं, मुझे ही सब संभालना है तो अड़ जाती थी उम्र से बड़ी बनकर, इसीलिए सबकी आँखों में खटकती भी थी। कभी छोटी बनकर उन बड़ों के सामने अपनी कमजोरी जाहिर भी करती तो मजबूती का टैग जो लग गया था, यही सुनने को मिलता अरे तुम कैसे हार सकती हो, तुम कैसे थक सकती हो, तुम कैसे फेल हो सकती हो, तुम कैसे पीछे रह सकती हो... वगैरा.. वगैरा।
आज तक उसी मजबूती का बोझ उठाए जी रही हूँ, लड़खड़ाती हूँ, थककर चूर हो गई हूँ, पर गिरने का हारने का हक खो चुकी हूँ। चीख-चीखकर रोना चाहती हूँ पर आवाज मजबूती के बोझ तले दब गई है।
बहुत मन करता है कोई तो हो जो मेरे कमजोर पलों में मेरा सहारा बने, जो आकर पूछे कि मेरे दिल में इस समय क्या चल रहा है, मैं कितनी डरी हुई हूँ, कितनी असहाय महसूस कर रही हूँ.. पर आसपास लोग दिखाई तो पड़ते हैं पर इनमें मेरा कोई नहीं, इनमें तो क्या पूरी दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो मुझे समझ सके, जिसे मेरी टूटन दिखाई पड़े। जो मेरा बिखरना देख सके, मुझे समेटने की कोशिश करे।"
सौम्या डायरी पढ़ते हुए मानों उसी में डूब चुकी थी, कभी किसी के व्यक्तिगत चीजों को न छूने वाली सौम्या को यह भी याद नहीं था कि वह किसी और की डायरी पढ़ रही है। एक पन्ना पढ़ते ही उसकी उँगलियाँ स्वत: अगला पन्ना पलट देतीं...
"प्यार हमें लड़ने की हिम्मत देता है, प्यार जीने के लिए प्रेरित करता है, प्यार हमें हौसला देता है...
लेकिन जब आप धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रहे हों और आपको उसी प्यार के सहारे की जरूरत हो आपको पूरा विश्वास होता है कि आपका प्यार आपको हाथ पकड़कर मौत के दरवाजे से खींच लाएगा और उसी समय आपका वही प्यार एक झटके से अपना हाथ खींचकर आपके सामने किसी और का हाथ थाम ले तब......
यही प्यार एक ऐसा नासूर बन जाता है जो न तो जीने देता है और न ही मरने देता है। इसी प्यार के नासूर से विश्वासघात का विष मवाद बन रोज सुबह-शाम आँखों से ढुरता है और शरीर एक ऐसा शापित पिंजरा बन जाता है जिसमें से आत्मा बाहर निकलने को पंख फड़फड़ाती है, तड़पती है, इसकी तीलियों से सिर पटकती है पर यह पिंजरा तोड़ नहीं पाती और वह पिंजरा समाज, परंपरा और लोग क्या कहेंगे का आलंबन पा मजबूत और मजबूत होता जाता है और इसमें कैद विश्वासघात के आघात से जख्मी मन और छली गई आत्मा दिन-ब-दिन उपेक्षाओं और तिरस्कारों के तीर सह-सहकर बेबस, निरीह और कमजोर और कमजोर होती जाती है।"
पढ़ते-पढ़ते उसकी उँगलियाँ यंत्रचालित सी स्वत: पन्ने पलटती जातीं और वह निर्बाध आगे पढ़ती जा रही थी..
क्रमशः
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️