चुनाव
दोपहर की चिलचिलाती हुई धूप, हवा भी चल रही थी लेकिन इतनी गर्म मानो भट्टी की आँच साथ लेकर आ रही हो। ऐसे में गाँव के लोग अपने-अपने घरों में या फिर बगीचे में दो-तीन घंटे आराम कर लेते हैं, जिससे दोपहर तक के जी तोड़ काम से थक कर टूट रहे शरीर को थोड़ा आराम मिल जाता है, साथ ही धूप और लू से भी बच जाते हैं। लेकिन आजकल तो गाँव के लोगों के पास सोने का समय ही नहीं है इस तपती दोपहरी में भी गाँव में चहल-पहल सी दिखाई पड़ रही है। लोग जहाँ-तहाँ झुंड बनाकर बैठे चर्चा करते नजर आते हैं दूर से देखकर ही ऐसा प्रतीत होता है मानों कोई गंभीर चर्चा चल रही है। ये सत्य भी है कि इस समय चलने वाली चर्चाओं का विषय गंभीर ही है परंतु चर्चा करने वाले कितना गंभीर हैं यह कहना मुश्किल होगा। सभी चर्चाओं का विषय गाँव में होने वाला चुनाव है, इस बार मुखिया किसे बनाया जाय इसी विषय पर चर्चा जोरों पर है। बगीचे के एक किनारे पर पीपल के पेड़ के नीचे खाट पर बैठे महादेव, जगदीश और बिसेसर भी उसी चुनाव के बारे में चर्चा में तल्लीन हैं....
"अरे वो कल के आए छोकरे ने गाँव का माहौल खराब कर रखा है, उसके बहकावे में आकर रमेसर परधानी की खातिर खड़ा होय गया।" अधेड़ उम्र के महादेव ने हथेली से खैनी उठाके निचले होंठ के पीछे दबाते हुए कहा।
"हाँ दद्दा सही कहत हो तुम, ऊका सहर की हवा लग गई है इही खातिर अब अपने को सबसे बड़ा विद्वान समझ रहा है।" कहते ही तीस-पैंतीस बरस के जगदीश ने बीड़ी का सुट्टा जोर से खींचकर फिर नाक और मु्ँह से एक साथ ऐसे धुआँ निकाला मानो ईंट के भट्ठे की चिमनी से धुआँ निकल रहा हो।
"अरे इ जो तुम बीड़ी का सुट्टा मार रहे हो न अइसे ही एक दिन हरिया को बीड़ी पीते हुए ऊ हरीश ने देख लिया था, तो बड़ा लंबा-चउड़ा भाषण सुनाय दिया, कहन लागा इससे कैंसर होत है। अब ई गाँव में बीड़ी पीये से आज तक केहू के कैंसर हुआ? लेकिन महासय अपनी चतुराई झाड़ने को हरदम तैयार रहत हैं।" बिसेसर ने कसैला सा मुँह बनाते हुए कहा।
"अब भइया कोई कितनो हाथ-पाँव मार ले, जीत तो बलवंत चौधरी की ही होयगी, अरे जबसे हम होस संभाले हैं न....तबसे किसी अउर को तो देखा नाही गाँव का परधान। पहले उनके दादा परधान थे, फेर उनके बाप भए अउर उनके बाद फिर बलवंत चौधरी।" कहते हुए महादेव ने वहीं खाट पर बैठे-बैठे पिच्च से खैनी थूका।
"हाँ भइया काहे ना हो आखिर उनके दादा आजादी की लड़ाई में गाँधी जी के साथ रहे, ऊ भी देश को आजाद करवाए खातिर लड़े थे तो उनके खानदान का तो हक बनता है कि परधान बने।" बिसेसर बोला।
"चलो परसों तो चुनाव है देखते है ऊँट कौन करवट बैठता है?" जगदीश मुँह से धुआँ निकालते हुए बोला।
"अरे वो बँसवारी के नीचे हरीश लोगन को जुटा के कुछ बताय रहा, चलोगे का सुनन खातिर"? बल्ली ने पास आते हुए बताया।
"हाँ-हाँ काहे नाही चलो देखें अब कउन-सा तुरुप का इक्का लाए हैं हमारे पढ़े-लिखे नौजवान" कहते हुए महादेव उठा और उसके साथ ही जगदीश और बिसेसर भी चल पड़े।
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बँसवारी के नीचे तीन खाट बिछी है आठ-दस लोग बैठे हैं.... अभी-अभी पहुँचे महादेव, जगदीश और बिसेसर भी उन्हीं खाटों पर समा गए। "भइया तुम ई बात तो ठीक कह रहे हो कि आस-पास के अउर गाँवन की तरक्की हमारे गाँव से ज्यादा भई है, ऊ हरिपुरवा में तो पक्का सकूल बन गया है, पक्की सड़क बन गई और उहाँ के परधान कह रहे थे कि उनका लक्ष्य गाँव में बिजली लाना है।" मनजीत ने कहा।
"हाँ अउर एक हम हैं....हमारे गाँव के बच्चा लोग पढ़न खातिर दुसरे गाँव में जाते हैं, सावन-भादों में रस्ता इतना खराब होय जात है कि उन्हें छुट्टी करनी पड़ जात है।" सुखिया बोला।
"इसीलिए तो हम आप सब लोगों को कह रहे हैं कि घर-घर जाकर समझाओ कि हम सबका हक है कि सरकारी सहायता का फायदा उठाके अपने गाँव का विकास करें।"
"अरे ई बात तो ठीक है भइया, लेकिन मान लेव कि ई बार रमेसर दादा परधानी जीत गए, तो उनका इतना अनुभव तो है नाही कि गाँव की तरक्की कर लें।" अभी-अभी आए बिसेसर ने कहा।
"मैं मानता हूँ कि उन्हें अनुभव नहीं है पर उन्हें गाँव वालों की परेशानियों का ज्ञान तो है, वो आप लोगों की एक-एक समस्या से परिचित हैं क्योंकि वो भी आपके साथ सारी परेशानियों के भागीदार रहे हैं और जब जिम्मेदारी मिलती है न! तो उसको पूरा करने के रास्ते इंसान खुद निकाल लेता है।" हरीश ने बड़े ही शांत भाव से जवाब दिया।
"भइया ई तो जानते हैं कि रमेसर भइया बहुत ईमानदार और मेहनती हैं, ऊ सरकार से मिलने वाली सारी सुविधाओं का फायदा गाँव को जरूर पहुँचाएँगे।" अधेड़ से दिखने वाले भगवती प्रसाद ने कंधे पर रखे गमछा से पसीना पोछते हुए कहा।
"अच्छा काका ये बताओ कि तुम्हारा लड़का किशन वो भी तो हमारे साथ पढ़ता था, हम तो शहर चले गए, पर ऐसा क्या हुआ कि उसने आगे की पढ़ाई नहीं की? पढ़ने में वो हमसे भी अच्छा था।" हरीश ने भगवती प्रसाद से पूछा।
"अब का बताएँ बिटवा ऊकी संगत अइसे लोगन के साथ होय गई कि जिंदगी खराब कर लिया, चरसी होय गया चरसी।" भगवती प्रसाद के चेहरे पर घृणा के भाव झलकने लगे।
"अब दूसरे को काहे दोष दे रहे हो काका जिनकी संगति में वो रहता है, वो लोग तो चरसी ना हुए।" जगदीश बीच में ही बोल पड़ा।
"गाँव के गरीब परिवार के जितने भी लड़के उनकी संगति में पड़े हैं, कोई चरसी तो कोई जुआरी, कोई शराबी होय गया बस ऊ लोग पता नहीं कैसे दूध के धुले रह गए।" बोलते हुए सुखिया के चेहरे से वितृष्णा साफ झलक रही थी।
"ई लोग गाँव को कैसे अपनी बपौती समझते हैं, ई जानते तो सब हैं, बस हिम्मत नहीं होती किसी की उनके खिलाफ जाने की।" बूढ़े रामधनी काका बोले, आक्रोश के कारण उनकी आवाज काँप उठी।
"हरीश चाचा दादा बुलाय रहे तुम्हें।" तभी एक 12-13 साल के लड़के ने आकर कहा।
"जाओ बेटा तुम्हारे बाबा बुलाय रहे कोई काम होयगा।" रामधनी ने कहा।
हरीश घर की ओर चल दिया और उसके जाते ही सभी आपस में बातें करते इधर-उधर चल दिए।
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रामधनी बार-बार करवटें बदलता पर नींद आँखों से कोसों दूर थी, सोने की कोशिश में ज्यों ही आँखें बंद करता... आँखों के सामने लहलहाती फसल की तस्वीर घूमने लगती, वह झट आँखें खोल लेता, फिर बंद करता और फिर खोल लेता....आज फिर क्रोध की अग्नि उसके भीतर धधक रही थी इसीलिए वह सो नहीं पा रहा था। धीरे-धीरे वह तीन साल पहले की घटना याद करते-करते अतीत की गहराइयों में खोने लगा....
पश्चिम में दूर जहाँ तक नजर जाती सिंदूरी आकाश की लालिमा ही नजर आ रही थी। परत-दर-परत एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाते बादल भी उस लालिमा को ओढ़ने के लिए व्यग्र थे, सूर्य मानो अपनी सारी लाली समेटे उन बादलों से दूर जाते हुए उन्हें चिढ़ाते हुए कह रहा हो- "आओ मुझे पकड़ो और ले जाओ सिंदूरी सौंदर्य।" दूर-दूर तक झूमते वृक्षों ने मानो ताम्रवर्णी मुकुट धारण कर लिया है। सुबह अपनी नीड़ छोड़ कर आए खग वृंद अपने-अपने आशियाने की ओर उड़ान भर चुके थे। रामधनी अपने खेत की मेड़ पर खड़ा पाँच बीघे खेत में लहलहाती फसल को देख-देख मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था। वह मन ही मन में सपने बुन रहा था....इसबार भगवान ने हमारी सुन ली, बस एक महीना और फिर हम उमा बिटिया की शादी के खातिर लिए गए कर्ज से मुक्त हो जाएँगे। बात-बात पर परधान की जी हजूरी ना करनी पड़ेगी।
"अरे रामधनी काका खड़े-खड़े का सोच रहे हो, घर नाही चलोगे का?" गाँव की ओर जाते हुए बिसेसर ने आवाज लगाई।
"हाँ-हाँ चल रहे हैं, और तुम कहाँ से आय रहे हो?" रामधनी खेत से पगडंडी पर आते हुए बोला।
"हम बजार गए थे....
"अरे! का हुआ बिटिया काहे रोय रही?" बिसेसर की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बगल से रोती हुई लड़की को जाते देख रामराम बोल पड़ा।
"अरे कुमुद का भया?" बिसेसर भी बोल पड़ा।
कुमुद अपना बस्ता संभाले रोती हुई घर की ओर भागी जा रही थी, उसने रामधनी और बिसेसर के सवालों पर ध्यान ही नहीं दिया। उसके पीछे आते चार-पाँच बच्चे जो शायद उसके साथ ही स्कूल से आ रहे थे उन्हें देख बिसेसर ने रोका..। "ए बच्चों सुनो! वो कुमुद काहे रोती हुई गई है, तुम लोगन के साथ थी न?"
"हाँ, हमारे साथ थी।" उनमें से एक बोला।
"फिर रोय काहे रही?" बिसेसर बोला।
"वो...वो प्रधान का छोटा लड़का और उसके दोस्त छेड़ रहे थे कुमुद दीदी को।" दूसरा बच्चा बोला।
"ई परधान अपने लड़कन की नाक में नकेल नाही डालेगा, पूरे गाँव में मनमानी कर रहे हैं, लड़कियों का सकूल जाना दूभर कर दिया।" रामधनी तिलमिला उठा।
"अब लड़के तो कुत्ते होत हैं काका, लड़कियों को भी तो संभल के रहना चाहिए। अब पाँचवी-छठी तक पढ़ गई तो बहुत है, का जरूरत है बड़ी होती लड़की को सकूल भेजने की? कलक्टर बनाय क है का?" बिसेसर बोला।
"चुप कर बेवकूफ! आज के जमाने में भी लड़कियों को अनपढ़ रखने की वकालत कर रहा है।" रामधनी क्रोध से बिफर पड़ा।
"अरे काका ई गाँव है, शहर नाही कि लड़की पढ़ायँ। ज्यादा पढ़ लिख गई ना तो सिर पर तांडव करेंगी..सिर पर, लेकिन तुमको कौन समझाए, तुम्हरी समझ में तो आने से रहा।" कहते हुए बिसेसर दाईं ओर मुड़ गया रामधनी खून का घूँट पीकर रह गया।
बड़बड़ाता और मन ही मन प्रधान के लड़कों को कोसता हुआ धनीराम घर पहुँचा।
"नीलम की माँ पानी लाना जरा गला सूखा जा रहा है।" कहते हुए वहीं बरामदे के बाहर पड़ी चारपाई पर वह निढाल सा बैठ गया। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि घर में कोई नहीं।
"नीलम की माँ! कहाँ हो भई थोड़ा पानी पिलाय देव।" रामधनी ने फिर पुकारा और थकान के कारण निढाल हो चुके शरीर को आराम देने के लिए उसी मूंज की नंगी खाट पर लेट गया और आँखें बंद कर लीं।
"अरे नीलम के बापू तुम कब आए?" अचानक आवाज सुनकर रामधनी चौंक गया।
कब आए मतलब....इतनी देर से तुमसे पानी माँग रहे हैं अउर तुम कहती हो कब आए! कहाँ थीं तुम?" रामधनी आक्रोश से बोला।
नीलम की माँ अंदर गई और एक हाथ में कटोरी में गुड़ की डली और दूसरे हाथ में पानी का लोटा लिए हुए लौटी।
"ये लेव पानी पियो।" कहते हुए उसने कटोरी चारपाई पर रख दिया और लोटा वहीं जमीन पर रख दिया।
"तुम कहाँ गई रहीं।" गुड़ की डली मुँह में डालते हुए रामधनी ने पूछा।
"परधान की बिटिया की शादी है न तो वही बुला भेजे रहे, दोपहर से वहीं अनाज साफ करवाय रहे थे।"
"जब तक ऊका उधार नहीं चुका देंगे तब तक वो ऐसे ही बेगार करवाता रहेगा।" रामधनी बोला।
"सही कहि रहे हो, कभी भी बुला लेते हैं और उनही का काम करवाते हैं, लेकिन मजाल है जो किसी को एक गिलास पानी पूछ ले...." कहते हुए वह चुप हो गई, उसकी नजर प्रधान के छोटे भाई पर पड़ी जो उन्हीं की ओर आ रहा था। रामधनी ने पत्नी को उधर देखते हुए देखा तो उसकी गरदन भी घूम गई.......
"और भई रामधनी कैसे हो?" कहते हुए दुष्यंत चौधरी खाट पर बैठ गया।
"बस सब आप लोगन की किरपा है।" रामधनी ने कहा।
"रामधनी हम कौन होते हैं किरपा करने वाले? सब ऊपर वाले की मेहरबानी है।" दुष्यंत चौधरी ने आसमान की ओर उँगली दिखाते हुए कहा।
"सही कह रहे हो चौधरी ऊपर वाले की ही तो मेहरबानी है नहीं तो हंस जूठन और कौआ मोती ना चुगता।" रामधनी ने लंबी सी साँस छोड़ते हुए कहा मानो साँस के साथ ही सारी शिकायतें, सारी परेशानियों को निकाल कर मुक्त हो जाना चाहता हो।
परंतु दुष्यंत चौधरी के माथे पर बल पड़ गए उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे रामधनी ने उसे तमाचा जड़ दिया हो...."क्या मतलब है तुम्हारा?" उसने रूखे अंदाज में पूछा।
"हमारा मतलब तो दुनिया की रीत से है चौधरी, आजकल दुनिया में यही तो चल रहा है.... मजदूर दिन-रात मेहनत करके भी आराम की जिंदगी कहाँ जी पा रहा, हम जैसे खेतिहर भी हमेशा कर्जे में ही दबे रहते हैं, अब ई सब ऊपर वाले की माया ना होती तो का हम जैसे लोग भी आराम की जिंदगी ना जी लेते।" रामधनी ने सीधे चौधरी को इंगित न करते हुए कहा।
"मेहनत तो सब ही करते हैं रामधनी भाई पर किस्मत का क्या करोगे?" दुष्यंत ने व्यंग्य पूर्ण लहजे में कहा।
"सही कहि रहे हो चौधरी अब किस्मत से कोई कैसे लड़े, अच्छा ई बताओ इहाँ कैसे... कउनों काम रहा का?" रामधनी ने पूछा।
"हाँ रामधनी भइया तुम तो जानते ही हो कि शादी-ब्याह का घर है जरूरतै पूरी नहीं होती, तो भाई सा'ब कहलवा भेजे कि हो सके तो दस हजार रुपैया का इंतजाम कर दियो।"
रामधनी का गला सूख गया..."द..दस हज्जार! चौधरी तुम तो जानतै हो कि हम चाहें तो भी दस तो का एक हजार भी नाही कर पाएँगे।" वह गिड़गिड़ा पड़ा।
"लेकिन रामधनी भइया अब अगर तुम जरूरत के घड़ी भी हमार पैसा ही हमे ना दोगे तो बताओ फिर कैसे चलेगा? आखिर इंसान को वहीं से तो उम्मीद होती है जहाँ उसने दे रक्खा होता है।"
"पर चौधरी हमारे पास अभी तो कउनो इंतजाम नाही है।" रामधनी ने हाथ जोड़ दिए।
"ठीक है...अब तुम्हारे रुपैया न देने से शादी तो ना रुकेगी, लेकिन हमें भी कर्जा लेना पड़ेगा पर ध्यान रखना ऊ कर्जे का ब्याज भी तुमको ही देना पड़ेगा।" चौधरी ने धमकी भरे लहजे में कहा।
"हम दुइ-दुइ बियाज कइसे देंगे चौधरी?" रामधनी का सिर चकराने लगा, माथे पर पसीना छलक आया, उसकी पत्नी से यह सब देखा नहीं जा रहा था क्रोध को भीतर ही भीतर पीने की कोशिश में उसने अपने ही नाखून अपनी कलाई में गड़ा लिए पर उसे इसका अहसास भी नहीं हुआ। इस समय विवशता और मन की वेदना मनोमस्तिष्क पर इतनी हावी थी कि शारीरिक पीड़ा महसूस ही नहीं हो रही थी।
"देखो रामधनी भइया हम तुम्हारी परेशानी समझ रहे हैं, हमारे पास एक रास्ता है...अगर तुम मानों तो हम भाई सा'ब को समझा लेंगे।"
"कैसा रास्ता?" रामधनी को अपनी ही आवाज ऐसी लगी मानो किसी गहरी खाई से आ रही हो। उसे ऐसा लगा कि अब तो कोई भी रास्ता हो हर हाल में बलि तो उसकी चढ़नी ही है
"देखो ऐसा करके तुम भी कर्जे के बोझ से जल्दी मुक्त होइ जाओगे और भाई सा'ब भी जहाँ से कर्जा लेंगे उहाँ के ब्याज का पहले से इंतजाम देखके संतुष्ट होइ जाएँगे।" दुष्यंत ने भूमिका बाँधी तो रामधनी को अपनी साँसें अटकती हुई महसूस हुई।
उसका धैर्य जवाब देने लगा तो वह बोल पड़ा- "उपाय का है?"
"तुम अपनी सारी फसल हमे दइ दो।"
क्क्का! रामधनी को मूर्छा सी आने लगी।
"हाँ इससे तुम सारे कर्जे से उऋण होइ जाओगे।"
"तुम होस में हो चौधरी! जाने कउन-कउन जुगत लगाय-लगाय के हमनें फसल बोई, सिंचाई के खातिर कितनी चिरौरी मिन्नतें करी तब सिंचाई होइ पाई...दिन का चैन रात की नींद हराम करके तब अइसी फसल तैयार भई। जइसे अपनी संतान को पाला जाता है न चौधरी! वइसे रात-दिन एक करके इ फसल को हमने पाला है ई उम्मीद में कि जब ई पक कर तैयार होयगी तो हमरी सारी मुसीबत दूर होय जाएगी। खाद-पानी और...और तुम्हरा सबका कर्जा चुकाय के उऋण होय लेंगे और तुम कह रहे हो कि फसल तुम्हें दै दें और हम पति-पत्नी मुँह में तुलसी-दल और गंगाजल लेके हमेशा के लिए सोय रहें।" कहते-कहते आवेश के कारण रामधनी पत्ते की मानिंद काँपने लगा।
"हम समझ रहे हैं रामधनी...चलो ठीक है तुम्हारी फसल पाँच बीघा में है न? चलो चार बीघा हमें दे दो एक बीघा तुम अपने लिए रक्खो , तुम दुइ लोग हो गुजारे खातिर बहुत है।"
"नाही चौधरी अइसा जुलुम ना करो, हम अगली फसल तक का करेंगे कैसे गुजारा होयगा, अबही के खाद-पानी का कर्जा, अगली फसल का बीज खाद-पानी, फिर अपने पेट के साथ-साथ नाते-रिश्तेदारी, बिटिया की ससुराल.... ई सब कैसे होयगा चौधरी, तुम तो हमारी पूरी फसल ही लेन की बात कर रहे हो।" रामधनी गिड़गिड़ाने लगा।
"देखो रामधनी मजबूरी तो हमारी भी है नहीं तो हम ना करते, अब हम कर्जा लेंगे तो ऊका ब्याज हम काहे देंगे या तो तुम हमारा कर्जा चुकाय दो नहीं तो हम बस इतना ही कर सकते हैं कि चार की बजाय साढ़े तीन बीघा खेत की फसल हमें दइ दो और डेढ़ बीघा की तुम रक्खो। और ये सोच लो ई हम कहि रहे हैं भाई सा'ब तो पूरी फसल लइ जाते.....
"दिया"....अचानक रामधनी की पत्नी जो अबतक बमुश्किल खून का घूँट पी-पीकर सब सहन कर रही थी, उसके सब्र का बाँध टूट गया और वह बोल पड़ी।
"ई का कह रही हो तुम नीलम की माँ..." रामधनी चौंककर बोला।
"हाँ नीलम के बापू, साढ़े तीन बीघा की फसल इन्हें दे दिया कागज में दस्खत करवाय लेना कि अब कउनो कर्जा नाही रहा इनका हम पर।" वह गुर्राती हुई बोली।
"ठीक है रामधनी तो अब हम चल रहे, भाई सा'ब को भी समझाना है।" कहते हुए दुष्यंत उठा और एक विजयी मुस्कान लिए जिधर से आया था उधर ही चल दिया।
"तुमने ऐसा काहे किया नीलम की माँ, हम बात कर रहे थे ना उससे।" रामधनी ने पत्नी की ओर बेचारगी से देखते हुए कहा।
"नीलम के बापू अब सब भूल जाओ, हम जब तक चौधरी का कर्जा ना चुका देते वो हमें अइसे ही जलील करता रहता, हम तुम्हें ऐसे गिड़गिड़ाते हुए नाही देख सकते, हम रूखी-सूखी खाय के गुजारा कर लेंगे पर ई सोचो ऊके हाथन से बेइज्जत होने से बच जाएँगे। उसने रामधनी को समझाते हुए कहा। पर रामधनी सुन कहाँ रहा था! उसकी आँखों में लहलहाती हुई फसल, खेतों की हरियाली की तस्वीर डोल रही थी, उसका सपना उसकी आँखों के सामने टूटता-बिखरता दिखाई दे रहा था। जिस प्रकार माता-पिता संतान से बिछोह के खयाल से ही तड़प उठते हैं, वैसे ही रामधनी अपनी पकती हुई फसल के बिछोह के दुख को महसूस करते हुए भीतर ही भीतर खुद से ही लड़ने का प्रयास कर रहा था। जब वह खेत में जाएगा तो अपनी ही संतान सम फसल को क्या वह पराया मान पाएगा? ऐसे अनेकों सवालों के चक्रव्यूह में फँसा रामधनी उठा और धीरे-धीरे फिर खेत की ओर जाने वाली राह पर चल दिया....आज वह अपनी फसल को जी भर कर देखना चाहता था, कल से वह परायी हो जाने वाली थी।
रामधनी के लिए तो हाथ आया पर मुँह न लगा वाली बात चरितार्थ हो गई थी उसे कहाँ पता था कि जिस फसल के लिए वह दिन-रात एक कर रहा है उसपर चौधरी की गिद्ध दृष्टि है। वह खेत में जाता मन को कठोर बनाकर अपनी ही फसल से दूरी बनाए रखता।
"क्या बात है नीलम के बापू.....अब तक सोए नहीं?" अचानक पत्नी की आवाज से रामधनी अतीत से वर्तमान के धरातल पर लौट आया।
"नींद ना आय रही नीलम की माँ, पता नहीं ई चौधरी के चालबाजिन से हमार गाँव कब आजाद होई?" रामधनी ने करवट बदलते हुए कहा।
"अबकी बार तो होय सकत है कि गाँव को निजात मिल जाय ऊ चौधरी से।"
"पता नहीं".....उसने लंबी सी साँस छोड़ते हुए कहा। गाँव के जवान लरिके सब ऊके बस में हैं सबको शराबी, चरसी, जुआरी बनाय रक्खा है तो ऊ सब उसी की मानेंगे और औरतों में वैसे ही खौफ भर रक्खा है।"
"अब चिन्ता करे से का होई जो उप्पर वाला लिखे होई वही तो होई। तु म सोय जाओ।" कहती हुई उसने रामधनी को चादर ओढ़ाया और मिट्टी के तेल की ढिबरी को आँचल से हवा करके बुझा दिया।
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इस बार चुनाव में दोनों ओर से रस्साकशी बहुत ही तीव्र थी, वोट डालने के लिए बलवंत चौधरी ने घर-घर से लोगों को अपने आदमियों द्वारा बुलवाया और उन्हें गाड़ियों में बैठाकर दूसरे गाँव जहाँ बूथ था वहाँ तक पहुँचाया गया। चौधरी के इस प्रकार के शक्ति प्रदर्शन को देखकर वो सभी लोग जो रमेसर के पक्ष में थे सभी निराश थे, सब यह मान चुके थे कि इस बार भी चौधरी ही जीतेगा। पर न जाने क्यों हरीश को अब भी उम्मीद थी, वह गाँव वालों को यही समझाता कि जब तक परिणाम नहीं आ जाता तब तक उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।
इंतजार की घड़ियाँ समाप्त हुईं और परिणाम आया सभी बगीचे में एकत्र होकर हरीश और रमेसर का इंतजार कर रहे थे। वे दोनों दूसरे गाँव गए थे जहाँ वोटों की गिनती के बाद परिणाम बताया जाना था। जैसे ही गाँव वालों ने दूर से ही रमेसर और हरीश को आते देखा सभी की धड़कने तेज हो गईं।
"का भया रमेसर भाई?" सुखिया ने आगे बढ़कर रमेसर के कंधे पर हाथ रखकर कहा।" रमेसर का उतरा चेहरा देख सभी के दिल बैठे जा रहे थे, सबने अनुमान लगा लिया कि परिणाम क्या आया।
"अब किस्मत के लिखे को का कर सकते हैं दद्दा, कोसिस तो हम सबन ने खूब करी ना नाही जीते तो का कर सकत हैं।" भगवती प्रसाद ने कहा।
"चलो चलो कउनो बात नाही, जइसे अब तक जी रहे थे आगे भी कट जाई, दिल ना दुखाओ रमेसर भाई।" रामधनी जैसे रमेसर के बहाने स्वयं को ही तसल्ली दे रहा था।
"जी तो लेंगे काका लेकिन चौधरी और ऊके लड़कों के ताने और उनकी मनमानी अउर बढ़ जाई।" अभी-अभी आए महेश ने कहा।
"अब का कर सकत हैं!" किसी की आवाज आई और सभी उठ-उठ कर जाने लगे।
"हम जीत गए।"
अचानक सबके पैर यथावत् अपनी ही जगह जैसे चिपक गए।
क्क्क्या? एक साथ कई आवाजें आईं। सभी के चेहरे पर अविश्वास और आश्चर्य का मिला जुला भाव था जैसे उन्हें अपने कानो पर विश्वास न हुआ हो।
"हाँ हम जीत गए....." कहते हुए हरीश मानो खुशी से उछल पड़ा।
पर कैसे....ऊ गाड़ी में भर-भर के सबन को लइ गया था अपने पक्ष में वोट डलवावे के लिए तब कैसे जीत गए? रामधनी की पत्नी बोली।
"काकी वो तुमको भी तो अपनी गाड़ी में लेके गया रहा ना?" हरीश ने पूछा।
हाँ..
"तब का तुमने उसको वोट दिया?"
नाही हम ऊ मुँहझौंसे को काहे वोट देते? खाली गाड़ी में लइ जाने के अहसान में दबके ऊका किया-धरा का सब भूल जाइब!" रामधनी की पत्नी के चेहरे पर घृणा और आक्रोश का मिला जुला भाव था।
"ऐसे ही काकी...ऐसे ही सबने सोचा और उसकी गाड़ी में गए लेकिन वोट दिया रमेसर काका को।" हरीश से मानो खुशी संभाले नहीं संभल रही थी।
"फिर रमेसर भाई तोहार मुँह काहे लटका है।" रामधनी प्रफुल्लित होते हुए बोला।
"अरे का बताएँ भाई अब ई डर सताय रहा कि कइसे हम इत्ता बड़ा जिम्मेवारी संभालेंगे?"
रमेसर जो अब तक चुप था , बोल पड़ा।
"सब हो जाएगा काका चिन्ता न करो, हम हरपल तुम्हारे साथ हैं, अब गाँव को सही दिशा में लाना है और ई सब गाँव वाले मिल के करेंगे।" हरीश ने कहा। उत्साह उसके अंग-अंग से छलक रहा था आखिर उसने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया था।
"अब बस एक चीज पूरे गाँव वालों को समझाना है काका...
ऊ का?
"चौधरी अब गाँव वालों को आपस में भड़काएगा, लड़वाएगा, कभी जाति के नाम पर कभी जमीन के नाम पर....लेकिन उसे बस अब सिर्फ एक ही तरीके से हरा सकते हैं...आपसी एकता से, चाहे कोई भी किसी के खिलाफ कुछ भी कहके हम सबको आपस में भड़काए पर हमें अपनी समझदारी नहीं छोड़नी।" हरीश ने सबको समझाते हुए कहा।
इतने बरस भोगे हैं बेटा, अब मुक्ति मिली है तो अब ऊकी ना चलने देंगे। भगवती प्रसाद ने गमछा कंधे पर डालते हुए कहा और सभी खुशी के भाव चेहरों पर सजाए अपने-अपने घरों को चल दिए। आज उनकी आँखों में सुनहरे सपनों ने पंख फैलाना शुरू कर दिया और उधर पश्चिम में दूर पेड़ों के झुरमुटों के पीछे दिनकर ने अपना दामन समेटना शुरू कर दिया है, आज डूबते सूरज की सिंदूरी लाली गाँव वालों की आँखों में सुनहरा सपना बनकर चमकने लगी है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️