मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का....
70 साल बाद भी यदि दलितों की स्थिति में सुधार नहीं आया तो इसका जिम्मेदार कौन है, सोचने की बात है...
यह भी सोचने का विषय है कि क्या मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर कर किसी वर्ग विशेष का विकास किया जा सकता है........?
यह कैसी विडंबना है कि हमारा समाज, हमारा पूरा देश आजादी के बाद से आज तक दलितों, मज़लूमों, अल्पसंख्यकों का उद्धार करने के लिए प्रयासरत है किंतु इतने लम्बे समयांतराल के बाद भी आज भी हमारा दलित वर्ग ज्यों का त्यों है। ऐसा नहीं कि अवसरों की कमी है, ऐसा भी नहीं कि आज भी उनके साथ दोहरा रवैया अपनाया जाता है परंतु क्या कारण है कि वो आज भी दलित हैं।
एक समय था जब समाज में सवर्णों का ही कानून चलता था, अछूत कहे जाने वाले निम्नवर्ग के लोग सवर्णों के द्वारा शोषित होते थे, दबाए कुचले जाते थे, और तो और प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर भी सवर्णों का आधिपत्य होता था। समाज का यह निम्न तबका बेचारा निरीह और उच्चवर्ग की दया पर आश्रित होता था। उसे सवर्ण कहे जाने वाले लोगों के कुएँ से पानी लेने तक का अधिकार नहीं था, यहाँ तक कि भगवान पर भी सवर्णों का आधिपत्य था ये लोग मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते थे। समाज की हर सुविधाएँ सिर्फ उच्चवर्ग के लिए होती थीं इनके हिस्से में कुछ आता था तो भूख, गरीबी और तिरस्कार। धीरे-धीरे समाज के ही कुछ सहृदयों की कृपा दृष्टि इन पर पड़ी और फिर इस निम्नवर्ग के लिए भी सोचा जाने लगा। निःसंदेह पहले इस दलित वर्ग पिछड़े तबके के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने जो कुछ भी करना प्रारंभ किया वह निःस्वार्थ ही था, इनकी दयनीय दशा को देख हृदय में उपजी मानवता की भावना ही थी कि जिसको सभी दबाते कुचलते आए थे उनका ही उद्धार करने का प्रयास इसी समाज के कुछ लोगों द्वारा प्रारंभ हुआ। यह कार्य उस समय अवश्य बेहद कठिन रहा होगा परंतु जब हमारे देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो गई तो सरकार के समक्ष इस वर्ग के उत्थान के लिए नए-नए प्रभावी और अधिकाधिक अवसरों की कमी नहीं रही और सरकार ने ऐसा किया भी। दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए नए-नए कानून बनाए गए, विभिन्न तरीकों से उन्हें सहूलियतें देकर उनका विकास करने का प्रयास किया गया। काफी हद तक सरकार सफल भी हुई किन्तु सफलता उतनी बड़ी नहीं है जितना लंबा समय बीता है। आजादी के सत्तर साल बीत गए फिर भी आज जब चुनाव का समय आता है तो हर राजनीतिक पार्टी को अपने घोषणा-पत्र में दलितों के लिए अलग से सुविधाओं और आरक्षण आदि की घोषणा करनी पड़ती है। ऐसा क्यों होता है....?
निश्चय ही यह सवाल दिल में हलचल पैदा करता है। जब एक सरकार के पास किसी वर्ग का उत्थान करने का पूरा समय, सुविधाएँ और स्रोत सबकुछ है फिर भी इतने सालों बाद भी उसे चुनाव में फिर उसी समस्या को मुद्दा बनाना पड़ रहा है। आज समाज के प्रत्येक वर्ग के पास बराबर की सुविधाएँ बराबर के अवसर हैं कि वो अपना विकास कर सकें बल्कि देखा जाए तो दलित या पिछड़ा कहे जाने वाले वर्ग के समक्ष अधिक अवसर और सुविधाएँ हैं फिर भी स्थिति यह है कि यदि आज से दस वर्ष बाद चुनाव होंगे तब भी मुद्दा यही रहेगा कि दलितों, पिछड़े वर्ग आदि को आरक्षण देना। वर्तमान समय में जब शिक्षा पर किसी का एकाधिकार नही, रोजगार पर किसी का एकाधिकार नहीं और अश्पृश्यता की भावना के लिए समाज में जगह नहीं है तो आरक्षण के लिए भी जगह नहीं होनी चाहिए। आजकल देखा यह जाता है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ वही उठा पाते हैं जो सर्वथा समर्थ होते हैं, बैंक अकाउंट में लाखों पड़े होते हैं किन्तु जाति सर्टिफिकेट बनवाकर आरक्षण का लाभ उठाते हैं और जिन्हें सचमुच आवश्यकता होती है जो गरीब होते हैं वो उच्च जाति के होने के कारण योग्यता होते हुए भी अवसरों से वंचित रह जाते हैं। बहुधा देखा जाता है कि आरक्षण के लिए आंदोलन और धरने करने वाले लोगों में कोई गरीब नहीं होता और यदि होता है तो वह आंदोलन भी दिहाड़ी पर ही करता है क्योंकि गरीब को रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं वो आंदोलन क्या करेगा?
आज वही राजनीतिक पार्टियाँ पिछड़े वर्ग, दलित वर्ग के उत्थान के लिए फिक्रमंदी दिखाती हैं जो सत्तर सालों से इन्हीं के नाम पर वोट बटोरती रही हैं, अब तो जनता को समझ जाना चाहिए कि यदि अभी भी दलित पिछड़ा है तो इन्हीं हुक्मरानों के कारण ताकि वो आगे हर बार उन्हें अपना चुनावी मुद्दा बना सकें।
जनता को समझना चाहिए कि मुफ्त की चीजें बाँट कर जो पिछले पाँच साल में लोगों को पिछड़े से अगड़े पंक्ति में नहीं खड़ा कर सके वो आगे भी मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर क्या लोगों का विकास कर सकेंगे। यदि मुफ्त किसी चीज की आवश्यकता है तो सिर्फ शिक्षा की ताकि शिक्षित होकर लोग स्वयं अपना विकास कर सकें उन्हें मुफ्त के लंगर पर जीवित न रहना पड़े। परंतु हमारी राजनीतिक पार्टियाँ तो मुफ्तखोरी की आदत डालकर जनता को सदा पंगु बनाए रखना चाहती है ताकि अगले चुनाव में फिर मुद्दा उठाया जा सके दलितों और पिछड़े वर्ग का क्योंकि यदि कोई दलित ही न होगा यदि कोई पिछड़ा ही न होगा, सभी शिक्षित और समझदार होंगे तो इनके तुरूप का इक्का बेअसर हो जाएगा।
मालती मिश्रा
70 साल बाद भी यदि दलितों की स्थिति में सुधार नहीं आया तो इसका जिम्मेदार कौन है, सोचने की बात है...
यह भी सोचने का विषय है कि क्या मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर कर किसी वर्ग विशेष का विकास किया जा सकता है........?
यह कैसी विडंबना है कि हमारा समाज, हमारा पूरा देश आजादी के बाद से आज तक दलितों, मज़लूमों, अल्पसंख्यकों का उद्धार करने के लिए प्रयासरत है किंतु इतने लम्बे समयांतराल के बाद भी आज भी हमारा दलित वर्ग ज्यों का त्यों है। ऐसा नहीं कि अवसरों की कमी है, ऐसा भी नहीं कि आज भी उनके साथ दोहरा रवैया अपनाया जाता है परंतु क्या कारण है कि वो आज भी दलित हैं।
एक समय था जब समाज में सवर्णों का ही कानून चलता था, अछूत कहे जाने वाले निम्नवर्ग के लोग सवर्णों के द्वारा शोषित होते थे, दबाए कुचले जाते थे, और तो और प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर भी सवर्णों का आधिपत्य होता था। समाज का यह निम्न तबका बेचारा निरीह और उच्चवर्ग की दया पर आश्रित होता था। उसे सवर्ण कहे जाने वाले लोगों के कुएँ से पानी लेने तक का अधिकार नहीं था, यहाँ तक कि भगवान पर भी सवर्णों का आधिपत्य था ये लोग मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते थे। समाज की हर सुविधाएँ सिर्फ उच्चवर्ग के लिए होती थीं इनके हिस्से में कुछ आता था तो भूख, गरीबी और तिरस्कार। धीरे-धीरे समाज के ही कुछ सहृदयों की कृपा दृष्टि इन पर पड़ी और फिर इस निम्नवर्ग के लिए भी सोचा जाने लगा। निःसंदेह पहले इस दलित वर्ग पिछड़े तबके के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने जो कुछ भी करना प्रारंभ किया वह निःस्वार्थ ही था, इनकी दयनीय दशा को देख हृदय में उपजी मानवता की भावना ही थी कि जिसको सभी दबाते कुचलते आए थे उनका ही उद्धार करने का प्रयास इसी समाज के कुछ लोगों द्वारा प्रारंभ हुआ। यह कार्य उस समय अवश्य बेहद कठिन रहा होगा परंतु जब हमारे देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो गई तो सरकार के समक्ष इस वर्ग के उत्थान के लिए नए-नए प्रभावी और अधिकाधिक अवसरों की कमी नहीं रही और सरकार ने ऐसा किया भी। दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए नए-नए कानून बनाए गए, विभिन्न तरीकों से उन्हें सहूलियतें देकर उनका विकास करने का प्रयास किया गया। काफी हद तक सरकार सफल भी हुई किन्तु सफलता उतनी बड़ी नहीं है जितना लंबा समय बीता है। आजादी के सत्तर साल बीत गए फिर भी आज जब चुनाव का समय आता है तो हर राजनीतिक पार्टी को अपने घोषणा-पत्र में दलितों के लिए अलग से सुविधाओं और आरक्षण आदि की घोषणा करनी पड़ती है। ऐसा क्यों होता है....?
निश्चय ही यह सवाल दिल में हलचल पैदा करता है। जब एक सरकार के पास किसी वर्ग का उत्थान करने का पूरा समय, सुविधाएँ और स्रोत सबकुछ है फिर भी इतने सालों बाद भी उसे चुनाव में फिर उसी समस्या को मुद्दा बनाना पड़ रहा है। आज समाज के प्रत्येक वर्ग के पास बराबर की सुविधाएँ बराबर के अवसर हैं कि वो अपना विकास कर सकें बल्कि देखा जाए तो दलित या पिछड़ा कहे जाने वाले वर्ग के समक्ष अधिक अवसर और सुविधाएँ हैं फिर भी स्थिति यह है कि यदि आज से दस वर्ष बाद चुनाव होंगे तब भी मुद्दा यही रहेगा कि दलितों, पिछड़े वर्ग आदि को आरक्षण देना। वर्तमान समय में जब शिक्षा पर किसी का एकाधिकार नही, रोजगार पर किसी का एकाधिकार नहीं और अश्पृश्यता की भावना के लिए समाज में जगह नहीं है तो आरक्षण के लिए भी जगह नहीं होनी चाहिए। आजकल देखा यह जाता है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ वही उठा पाते हैं जो सर्वथा समर्थ होते हैं, बैंक अकाउंट में लाखों पड़े होते हैं किन्तु जाति सर्टिफिकेट बनवाकर आरक्षण का लाभ उठाते हैं और जिन्हें सचमुच आवश्यकता होती है जो गरीब होते हैं वो उच्च जाति के होने के कारण योग्यता होते हुए भी अवसरों से वंचित रह जाते हैं। बहुधा देखा जाता है कि आरक्षण के लिए आंदोलन और धरने करने वाले लोगों में कोई गरीब नहीं होता और यदि होता है तो वह आंदोलन भी दिहाड़ी पर ही करता है क्योंकि गरीब को रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं वो आंदोलन क्या करेगा?
आज वही राजनीतिक पार्टियाँ पिछड़े वर्ग, दलित वर्ग के उत्थान के लिए फिक्रमंदी दिखाती हैं जो सत्तर सालों से इन्हीं के नाम पर वोट बटोरती रही हैं, अब तो जनता को समझ जाना चाहिए कि यदि अभी भी दलित पिछड़ा है तो इन्हीं हुक्मरानों के कारण ताकि वो आगे हर बार उन्हें अपना चुनावी मुद्दा बना सकें।
जनता को समझना चाहिए कि मुफ्त की चीजें बाँट कर जो पिछले पाँच साल में लोगों को पिछड़े से अगड़े पंक्ति में नहीं खड़ा कर सके वो आगे भी मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर क्या लोगों का विकास कर सकेंगे। यदि मुफ्त किसी चीज की आवश्यकता है तो सिर्फ शिक्षा की ताकि शिक्षित होकर लोग स्वयं अपना विकास कर सकें उन्हें मुफ्त के लंगर पर जीवित न रहना पड़े। परंतु हमारी राजनीतिक पार्टियाँ तो मुफ्तखोरी की आदत डालकर जनता को सदा पंगु बनाए रखना चाहती है ताकि अगले चुनाव में फिर मुद्दा उठाया जा सके दलितों और पिछड़े वर्ग का क्योंकि यदि कोई दलित ही न होगा यदि कोई पिछड़ा ही न होगा, सभी शिक्षित और समझदार होंगे तो इनके तुरूप का इक्का बेअसर हो जाएगा।
मालती मिश्रा