रविवार

मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का.....

मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का.....
मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का....
70 साल बाद भी यदि दलितों की स्थिति में सुधार नहीं आया तो इसका जिम्मेदार कौन है, सोचने की बात है...
यह भी सोचने का विषय है कि क्या मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर कर किसी वर्ग विशेष का विकास किया जा सकता है........?

यह कैसी विडंबना है कि हमारा समाज, हमारा पूरा देश आजादी के बाद से आज तक दलितों, मज़लूमों, अल्पसंख्यकों का उद्धार करने के लिए प्रयासरत है किंतु इतने लम्बे समयांतराल के बाद भी आज भी हमारा दलित वर्ग ज्यों का त्यों है। ऐसा नहीं कि अवसरों की कमी है, ऐसा भी नहीं कि आज भी उनके साथ दोहरा रवैया अपनाया जाता है परंतु क्या कारण है कि वो आज भी दलित हैं। 
एक समय था जब समाज में सवर्णों का ही कानून चलता था, अछूत कहे जाने वाले निम्नवर्ग के लोग सवर्णों के द्वारा शोषित होते थे, दबाए कुचले जाते थे, और तो और प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर भी सवर्णों का आधिपत्य होता था। समाज का यह निम्न तबका बेचारा निरीह और उच्चवर्ग की दया पर आश्रित होता था। उसे सवर्ण कहे जाने वाले लोगों के कुएँ से पानी लेने तक का अधिकार नहीं था, यहाँ तक कि भगवान पर भी सवर्णों का आधिपत्य था ये लोग मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते थे। समाज की हर सुविधाएँ सिर्फ उच्चवर्ग के लिए होती थीं इनके हिस्से में कुछ आता था तो भूख, गरीबी और तिरस्कार। धीरे-धीरे समाज के ही कुछ सहृदयों की कृपा दृष्टि इन पर पड़ी और फिर इस निम्नवर्ग के लिए भी सोचा जाने लगा। निःसंदेह पहले इस दलित वर्ग पिछड़े तबके के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने जो कुछ भी करना प्रारंभ किया वह निःस्वार्थ ही था, इनकी दयनीय दशा को देख हृदय में उपजी मानवता की भावना ही थी कि जिसको सभी दबाते कुचलते आए थे उनका ही उद्धार करने का प्रयास इसी समाज के कुछ लोगों द्वारा प्रारंभ हुआ। यह कार्य उस समय अवश्य बेहद कठिन रहा होगा परंतु जब हमारे देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो गई तो सरकार के समक्ष इस वर्ग के उत्थान के लिए नए-नए प्रभावी और अधिकाधिक अवसरों की कमी नहीं रही और सरकार ने ऐसा किया भी। दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए नए-नए कानून बनाए गए, विभिन्न तरीकों से उन्हें सहूलियतें देकर उनका विकास करने का प्रयास किया गया। काफी हद तक सरकार सफल भी हुई किन्तु सफलता उतनी बड़ी नहीं है जितना लंबा समय बीता है। आजादी के सत्तर साल बीत गए फिर भी आज जब चुनाव का समय आता है तो हर राजनीतिक पार्टी को अपने घोषणा-पत्र में दलितों के लिए अलग से सुविधाओं और आरक्षण आदि की घोषणा करनी पड़ती है। ऐसा क्यों होता है....? 
निश्चय ही यह सवाल दिल में हलचल पैदा करता है। जब एक सरकार के पास किसी वर्ग का उत्थान करने का पूरा समय, सुविधाएँ और स्रोत सबकुछ है फिर भी इतने सालों बाद भी उसे चुनाव में फिर उसी समस्या को मुद्दा बनाना पड़ रहा है। आज समाज के प्रत्येक वर्ग के पास बराबर की सुविधाएँ बराबर के अवसर हैं कि वो अपना विकास कर सकें बल्कि देखा जाए तो दलित या पिछड़ा कहे जाने वाले वर्ग के समक्ष अधिक अवसर और सुविधाएँ हैं फिर भी स्थिति यह है कि यदि आज से दस वर्ष बाद चुनाव होंगे तब भी मुद्दा यही रहेगा कि दलितों, पिछड़े वर्ग आदि को आरक्षण देना। वर्तमान समय में जब शिक्षा पर किसी का एकाधिकार नही, रोजगार पर किसी का एकाधिकार नहीं और अश्पृश्यता की भावना के लिए समाज में जगह नहीं है तो आरक्षण के लिए भी जगह नहीं होनी चाहिए। आजकल देखा यह जाता है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ वही उठा पाते हैं जो सर्वथा समर्थ होते हैं, बैंक अकाउंट में लाखों पड़े होते हैं किन्तु जाति सर्टिफिकेट बनवाकर आरक्षण का लाभ उठाते हैं और जिन्हें सचमुच आवश्यकता होती है जो गरीब होते हैं वो उच्च जाति के होने के कारण योग्यता होते हुए भी अवसरों से वंचित रह जाते हैं। बहुधा देखा जाता है कि आरक्षण के लिए आंदोलन और धरने करने वाले लोगों में कोई गरीब नहीं होता और यदि होता है तो वह आंदोलन भी दिहाड़ी पर ही करता है क्योंकि गरीब को रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं वो आंदोलन क्या करेगा? 
आज वही राजनीतिक पार्टियाँ पिछड़े वर्ग, दलित वर्ग के उत्थान के लिए फिक्रमंदी दिखाती हैं जो सत्तर सालों से इन्हीं के नाम पर वोट बटोरती रही हैं, अब तो जनता को समझ जाना चाहिए कि यदि अभी भी दलित पिछड़ा है तो इन्हीं हुक्मरानों के कारण ताकि वो आगे हर बार उन्हें अपना चुनावी मुद्दा बना सकें।
जनता को समझना चाहिए कि मुफ्त की चीजें बाँट कर जो पिछले पाँच साल में लोगों को पिछड़े से अगड़े पंक्ति में नहीं खड़ा कर सके वो आगे भी मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर क्या लोगों का विकास कर सकेंगे। यदि मुफ्त किसी चीज की आवश्यकता है तो सिर्फ शिक्षा की ताकि शिक्षित होकर लोग स्वयं अपना विकास कर सकें उन्हें मुफ्त के लंगर पर जीवित न रहना पड़े। परंतु हमारी राजनीतिक पार्टियाँ तो मुफ्तखोरी की आदत डालकर जनता को सदा पंगु बनाए रखना चाहती है ताकि अगले चुनाव में फिर मुद्दा उठाया जा सके दलितों और पिछड़े वर्ग का क्योंकि यदि कोई दलित ही न होगा यदि कोई पिछड़ा ही न होगा, सभी शिक्षित और समझदार होंगे तो इनके तुरूप का इक्का बेअसर हो जाएगा।
मालती मिश्रा

शनिवार

क्या रखा है जीने में

क्या रखा है जीने में
भावों का सागर बहता है
मेरे सीने में
मन करता है छोड़ दूँ दुनिया
क्या रखा है जीने में

सागर में अगणित भावों का
मानों यूँ तूफान उठा है
आपस में टकराती लहरें तत्पर
हों अस्तित्व मिटाने में

दिल और दिमाग के मध्य
मानो इक प्रतिस्पर्धा हो
एक दूजे के कष्टों के हलाहल
उधत हों मानो पीने में

भावों की अत्याधिकता भी
करती है शून्य मनोभावों को
प्यासा नदिया तीरे जाकर भी
असक्षम होता जीने में।
मालती मिश्रा

गुरुवार

नारी धर्म


नारी धर्म...
पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया जब नाम की घोषणा हुई "कीर्ति साहनी"। आगे की पंक्ति से उठकर कीर्ति मंच की ओर बढ़ी.....कद पाँच फुट तीन इंच, हल्के हरे रंग की प्लेन साड़ी सिल्वर कलर का पतला सा बार्डर और सिल्वर कलर की प्रिंटेड ब्लाउज, गले में साड़ी के बॉर्डर से मेल खाती सिंगल लड़ी की मोतियों की माला, कानों में सिंगल मोती के टॉप्स, बालों को बड़े ही करीने से पीछे लेकर ढीला सा जूड़ा बनाया हुआ था, दाँए हाथ में बड़े डायल की सिल्वर घड़ी और तर्जनी उँगली में पुखराज जड़ी अँगूठी, दूसरे हाथ में सिल्वर कलर का स्टोन जड़ा एक ही कड़ा और अनामिका उँगली में डायमंड की अँगूठी तथा तर्जनी में सोने की एक दूसर फैन्सी अँगूठी। मेकअप के नाम पर होंठों पर हल्के गुलाबी रंग की लिप्सटिक थी। गेहुँआ रंग तीखे नैन-नक्श, छरहरी काया कुल मिलाकर आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी वह, कोई भी उसे देखकर उसकी उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता था। बहुत ही नपे-तुले कदमों से वह मंच पर पहुँची। सम्मान समारोह कार्यक्रम के संयोजक तथा कॉलोनी के सेक्रेटरी मि०विनोद शर्मा ने उसका परिचय 'नारी स्वाभिमान की संरक्षिका' के रूप में करवाते हुए बताया कि यह वो महिला हैं जिन्होंने अपनी नौकरानी की मासूम बच्ची को अपने पति की नीयत का शिकार होने से न सिर्फ बचाया बल्कि अपने पति को पुलिस के हवाले भी किया और इसीलिए उनको सम्मान देने हेतु कॉलोनी की तरफ से उनके लिए यह सम्मान समारोह आयोजित किया गया है। फिर पुलिस कमिश्नर के हाथों कीर्ति ने प्रशस्ति पत्र ग्रहण किया। प्रशस्ति पत्र देते हुए कमिश्नर ने भी कीर्ति के द्वारा उठाए गए कदम की सराहना करते हुए कहा कि "यदि हर स्त्री यह फैसला कर ले कि वह न तो स्वयं पर अन्याय होने देगी और न ही किसी अन्य पर अन्याय होते देख चुप रहेगी तो निश्चय ही हमारा समाज स्त्रियों के लिए सुरक्षित होगा। मैं समझता हूँ कि बहुत से अपराधों की शुरुआत घरों के भीतर से ही होती है और यदि कीर्ति जी की तरह सभी चौकन्ने रहें तथा अपराध के खिलाफ आवाज उठाने का साहस दिखा सकें तो यह अपराध इनके पनपने से पहले ही समाप्त हो सकते हैं, मैं मानता हूँ कि किसी को बचाने के लिए ही सही किंतु अपने ही पति के खिलाफ खड़े हो जाने और उसे सजा दिलाने के लिए बहुत अधिक साहस की आवश्यकता है, यह निर्णय ही अपने-आप में किसी कठिन परीक्षा से कम दुश्वार नहीं। ऐसा करने से पहले हर स्त्री सोचेगी कि बाद में उसका क्या होगा उसके बच्चों का क्या होगा? समाज के लोग क्या कहेंगे, उनका बर्ताव कैसा होगा, स्वयं उसके परिवार वाले उसका साथ देंगे या नहीं? इस प्रकार के अनगिनत सवालों और भविष्य की दुश्वारियों की चिंता से गुजरना पड़ता है। अधिकतर लोग फेल हो जाते हैं और जो इक्का-दुक्का पास हो जाते हैं वो कीर्ति साहनी बन जाते हैं।" हॉल फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। कीर्ति ने प्रशस्ति-पत्र लेकर मुख्य अतिथि तथा अन्य सभी आगंतुकों का धन्यवाद करते हुए कहा "मैं मानती हूँ कि यह मेरे लिए बहुत ही मुश्किल निर्णय था, परंतु जब सभी रिश्तों से ऊपर उठकर सोचा जाय कि हम सबसे पहले इंसान हैं, और इंसान को अपना कर्तव्य सदैव स्वार्थ से अलग रखना चाहिए तो फैसला लेना आसान हो जाता है, मेरी भी बेटियाँ हैं मैं जो कुछ भी अपनी बेटियों के लिए चाहती हूँ वही हर माँ अपनी बेटी के लिए चाहती है, बेटियों की माँ होते हुए मैं किसी अन्य की बेटी के साथ गलत होते कैसे देख सकती थी इसीलिए फैसला लेते वक्त मेरे समक्ष मेरी बेटियों का चेहरा था और मेरे लिए गलत सिर्फ गलत था, चाहे उस गलत को करने वाला कोई भी क्यों न हो।" 
समारोह समाप्त होने के उपरांत कीर्ति अपने घर आ गई थी, देर रात तक आस-पड़ोस वालों का आना-जाना लगा रहा। किशोर की गिरफ्तारी की खबर सुनकर जो रिश्तेदार पिछले सप्ताह आए थे वो दूसरे दिन ही चले गए थे लेकिन किशोर की बहन अभी आज शाम को सम्मान समारोह के बाद गईं। वह अभी तक इस आस में रुकी रहीं कि कीर्ति को समझा-बुझा कर केस वापस लेने के लिए मना लेंगीं परंतु वह सफल नहीं हो पाईं और आज शाम को असफलता और निराशा को गले लगाकर कोई शिकायत न होने का दिखावा करते हुए शिकायतों को दिल में छिपाए चली गईं।

कीर्ति की आँखों में नींद नहीं थी वह बार-बार करवट बदलती, न चाहते हुए भी वह मनहूस पल उसकी आँखों के समक्ष सजीव हो उठता...
कीर्ति उस दिन ऑफिस से एक घंटा जल्दी आ गई, कमला बाजार जाने के लिए मेन गेट खोल ही रही थी इसीलिए उसे डोरबेल बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, उसने बरामदा पार करके ड्रॉइंग रूम में जैसे ही कदम रखा उसने देखा कि कमला की बेटी रज्जो जो बारह-तेरह साल की थी बदहवास सी भागती हुई उसके बेडरूम से निकली और बाहर चली गई शायद लान से होते हुए कोठी के पीछे। वह इतनी बदहवास दिखाई दे रही थी कि कीर्ति के बगल से भागते हुए भी उसका ध्यान उसकी ओर नहीं गया। कीर्ति का माथा ठनका...आखिर बात क्या है? वह इतनी डरी हुई क्यों है? वह जल्दी-जल्दी लंबे-लंबे डग भरती अपने बेडरूम में गई तो देखा किशोर लेटा हुआ था। उसे देखते ही चौंक गया, "अरे, तुम! आज इतनी जल्दी कैसे आ गईं?"
"वो छोड़िए मुझे ये बताइए कि अभी यहाँ क्या हुआ?" उसकी आवाज बेहद तल्ख और सर्द थी।
"यहाँ, क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं।" किशोर ने अंजान बनते हुए कंधे उचकाकर कहा।
"कुछ भी नही? तो रज्जो क्यों अभी यहाँ से भागती हुई गई है?" अब उसकी आवाज तेज और तीखी हो चुकी थी, उसकी छठी इंद्री कह रही थी कि कुछ तो जरूर ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था।
किशोर एक पल के लिए सन्न सा रह गया किंतु अगले ही पल संभलते हुए बोला- "अरे वोओओ मैंने उससे आधे घंटे पहले चाय माँगा था पर वो मैडम खेलने में भूल गईं इसीलिए मैंने बुलाकर डाँट दिया, बस।" 
"किशोर वो बच्ची है, उसकी माँ हमारे यहाँ काम करती है, वो बच्ची हमारी नौकरानी नहीं है ये आप कब समझोगे? मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि उस बच्ची को कोई काम मत बताया करो और आज फिर कह रही हूँ।" कीर्ति ने गुस्से में कहा और कहकर वह स्वयं सोचने लगी कि गुस्से के भी कई रूप होते हैं न! अभी थोड़ी देर पहले जो गुस्सा था उस समय मन कर रहा था कि किशोर को छोड़ेगी नहीं वह उसे सबक सिखा कर ही रहेगी किंतु अगले ही पल गुस्सा तो है परंतु उसका रूप बदल गया,अहित करने की तो सोच नहीं बल्कि मन में यह ख्याल आ रहा है कि किशोर कब समझेंगे कि बच्चा तो बच्चा होता है किसी का भी हो। उसने अपना पर्स अलमारी में रखा और हाथ-मुँह धोने के लिए बाथरूम में चली गई। वॉश बेसिन पर नल चलाकर ज्यों ही उसने अंजलि में पानी भरकर अपने मुँह पर डाला कि अचानक भागती हुई रज्जो का भयभीत और तमतमाया चेहरा उसकी आँखों के समक्ष साकार हो उठा... क्या डाँट पड़ने से रज्जो इतनी भयभीत हो सकती है जितनी दिखाई पड़ रही थी? पर उसका तो चेहरा भय से लाल हो रहा था, न जाने क्यों कीर्ति की छठी इंद्री कुछ अधिक ही सक्रिय हो उठी थी उसके मस्तिष्क में अजीब-अजीब से खयाल आने लगे। 'क्या मुझे किशोर से पूछना चाहिए कि वो सच बोल रहे हैं या नहीं?' 
धत् बेवकूफ वो क्यों झूठ बोलेंगे? एक छोटी सी बात को लेकर अपने पति पर शक करती है, मत भूल तेरे पति की भी बेटियाँ हैं और रज्जो भी उनकी बेटी के बराबर ही है। कीर्ति ने अपने-आप को ही समझाया और मुँह-हाथ धोकर वॉशरूम से बाहर आ गई। "किशोर आज तुम ऑफिस से इतनी जल्दी कैसे आ गए?" कीर्ति ने तौलिए से हाथ पोछते हुए पूछा।
"कहाँ डार्लिंग, अभी आधा घंटा पहले ही तो आया हूँ, मीटिंग के लिए गया था मीटिंग खत्म करके घर आ गया , रात आठ बजे की फ्लाइट है बंगलोर जाना है।" किशोर ने कहा।
"बंगलोर! कितने दिनों के लिए और पहले क्यों नहीं बताया?" कीर्ति ने कहा।
"पहले कैसे बताता, आज ही डिसाइड हुआ है, बस दो दिन के लिए जा रहा हूँ।" किशोर ने कहते हुए हाथ में पकड़ी हुई फाइल साइड टेबल पर रख दिया और उठकर कमरे के एक कॉर्नर में रखे टेबल के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया और लैपटॉप को ऑन करने लगा। कीर्ति समझ गई कि अब वह दो-तीन घंटे के लिए काम में व्यस्त हो गया, वह चुपचाप कमरे से बाहर आ गई और चाय बनाने के लिए रसोई की ओर चल दी तभी डोरबेल बजी, जरूर कमला होगी, सोचती हुई वह गेट खोलने के लिए उधर मुड़ी ही थी कि दौड़ती हुई रज्जो न जाने कहाँ से प्रकट हुई बिजली की फुर्ती से गेट खोल दिया और ज्यों ही कमला ने अपना पैर गेट के भीतर रखा रज्जो लिपट गई उससे और रोने लगी। "क्या हुआ, क्यों रो रही है कुछ बोलेगी भी?" कमला ने घबराकर एक साथ कई सवाल पूछ डाले। "अरे कुछ नहीं कमला वो किशोर ने आज इसे डाँट दिया बस इसीलिए डर गई है, मैंने समझा दिया है उन्हें, अब वो कभी नहीं डाँटेंगे, रोना बंद करो और जाओ जाकर पढ़ाई करो। कमला तुम जरा दो कप चाय बना दो!" कीर्ति ने रज्जो के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा और भीतर चली गई।
स्टडी रूम में बैठी कीर्ति मैगजीन में कुछ पढ़ रही थी तभी ट्रे में कमला चाय लेकर आई और चाय मेज पर रखकर खुद वहीं फर्श पर बैठ गई चुपचाप सिर झुकाकर।
"क्या बात है कमला, कुछ कहना चाहती हो?" कीर्ति ने जैसे उसके मन की बात समझ ली हो।
"दीदी आप मुझ अभागन को गाँव से यहाँ लाईं रोजगार दिया सिर पर छत और पेट भरने को खाना दिया मेरी बेटी को पढ़ा लिखा रही हैं, इज्जत की जिंदगी दी है, आप के अहसान मैं जिंदगी भर नहीं उतार पाऊँगी..."
"कहना क्या चाहती हो वो कहो ऐसा लग रहा है कि तुम कहना कुछ चाहती हो कह कुछ रही हो।" कीर्ति ने कमला के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
"दीदी वो मैं कह रही थी कि.....कमला फिर चुप हो गई।
"क्या कमला, बोलती क्यों नही?" कीर्ति के मन में आशंकाओं ने जन्म लेना प्रारंभ कर दिया था वह बेचैन होकर बोल उठी।
"आप हमें गाँव भेज दीजिए।" कमला जल्दी से बोल गई। 
"क्या..... लेकिन क्यों?"
"बस दीदी शहर हमें रास नहीं आ रहा, गाँव में मेहनत मजदूरी करके पेट पाल लूँगी रज्जो को पढ़ा नहीं पाऊँगी कोई बात नहीं।" कमला ने वैसे ही सिर झुकाकर कहा।
कीर्ति को एकबार फिर रज्जो का भय से तमतमाया चेहरा याद आ गया, उसकी छठी इंद्री फिर सक्रिय हो गई।
"तुम जाओ रज्जो को लेकर आओ।" कमला ने सख्त आवाज में कहा।
"लेकिन दीदी वो......
"मैंने जो कहा वो करो!" कीर्ति ने सपाट लहजे में कहा।
कमला चुपचाप बाहर चली गई और पाँच मिनट बाद रज्जो के साथ वापस आई। 
कीर्ति ने रज्जो को कंधों से पकड़ कर अपनी कुर्सी पर बैठाया और बड़े प्यार से पूछा- "जब मैं आई थी तब तुम मेरे बेडरूम में से भागती हुई बाहर आ रही थीं, अब मुझे बिना डरे बताओ कि क्यों, क्या हुआ था जो तुम इतनी डरी हुई लग रही थी?"
रज्जो डर से कांप रही थी,वह कुछ नहीं बोली किंतु उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।
"बताओ बेटा, जबतक आप बताओगी नही मैं आपकी मदद कैसे करूँगी।" कीर्ति ने फिर कहा।
"अगर मैं कुछ कहूँगी तो साहब मेरी मम्मी को चोरी के इल्जाम में जेल में डाल देंगे।" रज्जो ने सिसकियाँ लेते हुए कहा।
"अरे! ऐसे कैसे, मैं हूँ न! कोई कुछ नहीं करेगा, तुम बताओ।" 
वो रोती रही कुछ भी बोल नहीं सकी तभी कमला ने उसकी फ्रॉक गर्दन के नीचे थोड़ा सरका कर कहा- "ये देखिए दीदी नाखून के निशान, ये साहब ने किया है, कहते हुए कमला फफक कर रो पड़ी।
कीर्ति को मानो मूर्छा सी आ गई, लड़खड़ाते हुए उसने कुर्सी का सहारा ले लिया फिर धीरे से वहीं पड़ी दूसरी कुर्सी पर बैठ गई। कुछ देर तक कमरे में बस सिसकियों की आवाज गूँजती रही। फिर एकाएक कीर्ति के चेहरे के भाव बदले और उसने कहा-  "रज्जो, सुनो बेटा अब जो मैं कह रही हूँ तुम वो करो बिना डरे, ध्यान रखना मैं तुम्हारे साथ हूँ तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है।" 
"पर दीदी आप क्या करवाना चाहती हैं?" कमला ने विस्मय से पूछा।
"तुम साहब के पास जाओ और उनसे कहो कि मैं अपनी माँ को सब कुछ बता दूँगी।" कीर्ति ने बिना रुके कहा।
"नहीं मैं नहीं जाऊँगी, वो फिर से पकड़ लेंगे मुझे।" सहमकर रोते हुए रज्जो ने कहा।
"कुछ नहीं होगा, मैं कमरे के बाहर ही रहूँगी और ये फोन तुम अपने हाथ में पीठ के पीछे की ओर रखना।" कहते हुए उसने रिकॉर्डिंग पर करके फोन रज्जो के हाथ में पकड़ा दिया और कुछ देर तक उसे साहस बँधाती रही जब तक कि वह आश्वस्त नही हो गई कि रज्जो तैयार हो गई है उसके बताए अनुसार करने के लिए। कमला चुपचाप यह सब देख रही थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर कीर्ति करना क्या चाहती है। 
कीर्ति रज्जो को लेकर अपने बेडरूम तक गई और स्वयं बाहर ही गेट के पास एक ओर दीवार से सटकर खड़ी हो गई ताकि किशोर उसे देख न पाए और रज्जो को अंदर जाने का इशारा किया। रज्जो डरती हुई कमरे में गई, उसके पैर काँप रहे थे परंतु उसे पता था कि कीर्ति बाहर ही है इसलिए उसने हिम्मत नहीं छोड़ा, उसे देखते ही किशोर चौंक पड़ा.." त् त् तू तू यहाँ क्या कर रही है?" 
रज्जो ने साहस बटोरा और बोली- "मैं माँ को बता दूँगी जो आपने मेरे साथ किया।"
"क्या...तेरी इतनी हिम्मत..तू मुझे धमकी देने आई है! एक फोन करूँगा दोनों माँ बेटी जेल में सड़ोगी समझी, नहीं तो चुपचाप मुँह बंद रख।" किशोर ने भड़कते हुए कहा।
"मैं पुलिस को भी सच-सच बता दूँगी।" रज्जो पर कीर्ति की बातों का असर साफ दिखाई दे रहा था।
"अभी तो मैंने कुछ किया नहीं था सिर्फ हाथ लगाया था, रुक अभी बताता हूँ कहते हुए किशोर खड़ा हो गया, उसे खड़े होते देख रज्जो डरकर बाहर की ओर भागी और कीर्ति से जो कमरे के गेट पर आ खड़ी हुई थी, टकरा गई। उसने रज्जो को बाँहों में भर लिया मानो वह उसी की बेटी हो, फिर उसके हाथ से फोन ले लिया। किशोर उसे देखकर जड़ हो गया उसके पैर मानो जमीन से चिपक गए वह कुछ बोल न सका। तभी पुलिस इंस्पेक्टर दो हवलदारों के साथ आ पहुँचे। 
इंस्पेक्टर अरेस्ट कर लीजिए इन्हें, इन्होंने हमारी गैर मौजूदगी में इस बच्ची को फिजिकली हैरेस किया और अभी फिर उसे धमकाकर मेंटली हैरेस कर रहे हैं। किशोर और कमला दोनों ही अवाक् होकर कीर्ति को देख रहे थे, कमला कीर्ति के पैरों पर गिर पड़ी, कीर्ति ने उसे उठाया और चुपचाप उसके सिर पर हाथ फेरती रही किंतु कोई भी नहीं था जो कीर्ति के सिर पर हाथ रखकर कहता कि "चिंता की कोई बात नहीं मैं हूँ तुम्हारे साथ।" 
अचानक कमरे के गेट पर उसे कोई साया खड़ा दिखाई दिया.. "कौन..कौन हैं वहाँ?" कहते हुए उसने साइड टेबल पर रखा लैंप ऑन कर दिया। 
"माँ मैं हूँ...रिंकी" कहते हुए वह कमरे के भीतर आ गई।
"तुम यहाँ क्या कर रही हो, सोई क्यों नहीं अभी तक?" उसने शिकायती लहजे में कहा।
"आप भी तो नहीं सोईं माँ, नींद नहीं आ रही न?" पिंकी ने कहा।
"हाँ बेटा नहीं आ रही पर कोई बात नहीं मैं सो जाऊँगी, तुम भी जाकर सो जाओ।" कीर्ति ने कहा।
"हमें भी नहीं आ रही, पिंकी भी जाग रही है...हम दोनों यहीं आकर आप के पास सो जाएँ?" रिंकी ने पूछा।
"ठीक है जाओ उसे भी बुुला लो।" 
दोनों बेटियाँ आकर उसके पास ही सो गईं। कीर्ति की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था उसकी आँखों के सामने कभी रज्जो की घबराई हुई आँखें, कभी किशोर की नीच हरकत और रज्जो को धमकी देती सूरत घूमने लगती, कैसे-कैसे लोग होते हैं दुनिया में, शराफत के नकाब के पीछे किसका चेहरा कितना भयावह और घिनौना है यह सालों साथ रहने वाला व्यक्ति भी नहीं जान सकता। यह पुरुष जाति ही ऐसी क्यों होती है...तभी उसके मस्तिष्क में एक और चेहरा घूम गया पुरुष ही क्यों औरत भी।  इसप्रकार के गिरे हुए कृत्य सिर्फ पुरुष ही नही औरत भी तो करती है कभी रिश्ते के दबाव में, कभी हृदयहीन हो कर अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए औरत ही मासूम लड़कियों का शोषण होते देख चुप रहती है या शोषक की सहभागी बनती है। कीर्ति के मस्तिष्क में उसके अपने बचपन की एक-एक तस्वीर मानो चलचित्र की  मानिंद घूमने लगीं………
वह दस-ग्यारह साल की होगी तभी उसके इकलौते मामा जी का देहांत हो गया और बूढ़े नाना-नानी की देखभाल के लिए उसकी मम्मी को गाँव में ही रहना पड़ा, पापा की शहर में सरकारी नौकरी थी इसलिए वो शहर में उसे और उसके भाइयों को भी ले गए ताकि उनकी शिक्षा में कोई बाधा न आए। माँ हर दो-तीन महीने में उनके पास आ जाया करती थीं और दो-तीन महीने उनके पास रहतीं। यही सिलसिला सदा चलता रहा। उनके पड़ोस में एक परिवार रहता था जिसमें दादा-दादी तथा उनके बेटे-बहू और पोतियाँ थीं, वो लोग कीर्ति और उसके भाइयों को बहुत प्यार करते तथा कीर्ति के पापा भी उनका बहुत आदर करते व उनके बेटे को छोटे भाई के समान मानते थे। कीर्ति उन्हें चाचा-चाची कहती और उनकी बेटियों को अपनी छोटी बहनों की तरह मानती थी। उसका अधिकतर समय चाची के पास उनके ही घर में खेलते-कूदते बीतता। पढ़ाई में कोई कठिनाई आती तो चाचा के पास पहुँच जाती पूछने और वो भी उसे अपनी ही बेटी के समान पढ़ाते। धीरे-धीरे वह जब बड़ी होने लगी तो चाची उससे इस प्रकार के मजाक करतीं जो उसे कुछ अजीब लगता परंतु वह उसे ये कहकर बहला देतीं कि "हर लड़की को यह सब सीखना होता है किसी की भाभियाँ सिखाती हैं तो किसी की चाचियाँ"  उसे लगता कि वो सच कह रही होंगीं। उसके घर के ही दूसरी ओर एक और परिवार रहता था उनकी भी दो बेटियाँ थीं, बड़ी बेटी सीमा कीर्ति से दो-तीन साल बड़ी थी और वो भी उन्हें कीर्ति की तरह चाचा-चाची कहती थी। चाची ने एक दिन उसे बताया कि चाचा वयस्कों के नावेल पढ़ते हैं और सीमा को पढ़ने को देते हैं, चाची उसे चाचा द्वारा लाए गए साधारण  सामाजिक उपन्यास पढ़ने को दिया करतीं और वह पढ़ने भी लगी थी, उस दिन उन्होंने उसे भी वही उपन्यास पढ़ने को दिया। उसने कुछ पन्ने ही पढ़े होंगे कि उसे पता चल गया कि यह उपन्यास बच्चों के पढ़ने लायक नहीं, तभी उसने उसे वापस कर दिया था। चाची ने पूछा- "तुमने पढ़ लिया?" 
"ह् हाँ," उसने कहा।
"कैसा लगा?" 
"गंदी किताब है।" उसने मुँह बनाते हुए कहा।
उसके कंधों पर दोनों हाथ रख कर घुटनों पर बैठते हुए चाची ने कहा- "अरे पगली जिसे तू गंगा बोल रही है वो जीवन का एक जरूरी हिस्सा है, सबके लिए जरूरी है।"
"क्यों जरूरी है? मैं तो ऐसा नहीं मानती।" उसने तुनक कर कहा।
"अच्छा सच बता क्या तुझे पढ़कर अच्छा नहीं लगा?" उन्होंने पूछा।
वह सोचने लगी कि क्या जवाब दे, उसने तो पढ़ी ही नहीं पर वह बताना नहीं चाहती थी कि उसने नहीं पढ़ी अन्यथा वह पढ़ने के लिए जोर डालतीं इसलिए उसने कह दिया- "नहीं, मुझे तो बेहद फूहड़ और गंदी लगी।" 
"तू पता नहीं किस मिट्टी की बनी है वो सीमा का देख उसे तो ऐसा चस्का लगा कि उसने कल चाचा से संबंध भी बना लिया।" कीर्ति अवाक् रह गई, वह अब इतनी भी छोटी नहीं थी लगभग तेरह साल की थी सबकुछ नहीं तो भी इन्हीं चाची की वजह से काफी कुछ समझती थी। उसने पसीना पोछते हुए कहा- "क्या ये सच है?"
"ये ले मैं झूठ क्यों बोलूँगी, तुझे विश्वास नही न! तो कल दोपहर को आ जाना मैं तुझे दिखाऊँगी।"
वह चुपचाप यंत्रवत् सी अपने घर में चली गई और शाम से रात और रात से सुबह हो गई वह चाची के पास नही गई। दोपहर को स्कूल से आकर भी वह वहाँ नहीं गई तभी करीब तीन बजे चाची भागती हुई आईं और उसका हाथ पकड़ कर उसे अपने घर में ले जाकर अपने बेडरूम के बाहर खड़ी कर दिया, बेडरूम का दरवाजा अंदर से बंद था। "क्या हुआ?" उसने पूछा
चाची ने फुसफुसाते हुए कहा- "सीमा और चाचा अंदर हैं।" 
उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे, वह उल्टे पाँव भागती हुई अपने घर आ गई। उसके मस्तिष्क में सवालों की आँधी चल रही थी, काश माँ साथ होतीं तो मैं उन्हें बता पाती। वह अपने आप को असहाय महसूस कर रही थी। पढ़ाई में भी उसका मन नहीं लग रहा था, एक ही दिन में  उसे ऐसा लग रहा था कि उसने वर्षों का अंतराल पार कर लिया हो, वह जो माँ के साथ न होते हुए भी चाची को माँ समान मानती और हर बात उनसे साझा करती थी आज उसे लगा कि वह अब अकेली और पापा के बाद अपने घर में बड़ी है, उसके भाई उससे छोटे हैं उन्हें चाचा-चाची से ज्यादा नजदीकी नहीं बढ़ाने देगी। वह रातों-रात जिम्मेदार हो गई थी। उसदिन और दूसरे दिन शाम तक वह फिर चाची के पास नही गई तो चाची ने अपना बेटी को भेजकर उसे बुलवाया। "क्या हुआ कीर्ति, तू कल से आई नहीं?" उसके आते ही चाची ने कहा।
"कुछ नहीं।" उसने कहा।
"कुछ तो है, तू बता नहीं रही।" उन्होंने कहा।
"नहीं कुछ नहीं।" उसने बात टालने के लिए कहा।
"अच्छा सुन चाचा एक और उपन्यास लाए हैं अंदर रखी है जा ले ले।" उन्होंने कहा।
उसने उनके बेडरूम के आगे से गुजर तो हुए देख लिया था कि चाचा अंदर लेटे हैं, अब उसे चाचा में शैतान दिखाई देने लगा था, वह डरने लगी थी। उसने मना करते हुए कहा- "नहीं चाची अब मैं कोई उपन्यास नहीं पढूँगी, मैंने बहुत सोचा मुझे लगा कि मैं जितनी देर उपन्यास पढ़ती हूँ वही समय मैं अपने कोर्स की किताबें पढूँगी तो मेरे मार्क्स और अच्छे आएँगे। और आप न मुझे ये सब बातें न ही सिखाया करो तो अच्छा है।"
"मैं तो तेरा भला ही कर रही हूँ।" उन्होंने कहा।
बीच में ही बात काटकर वह बोल पड़ी-"चाची आपके पति किसी लड़की के साथ ऐसा करते हैं तो आपको बुरा नहीं लगता?" 
"मुझे क्यों बुरा लगेगा? मेरे पीछे करें इससे अच्छा है मेरे सामने कर लें जो करना हो।" उन्होंने कहा
"अच्छा अगर ये बातें मेरे भले की हैं तो यही भले की बातें आप अपनी बेटियों को भी समझाती हो।" उसने पूछा।
चाची को क्रोध आ गया, क्रोधित होकर वह बोलीं-"तेरा दिमाग खराब है वो अभी छोटी हैं और मेरी बेटियाँ हैं,भला माँ ऐसा कैसे बता सकती है अपनी बेटी को, तुम्हारी माँ भी तो नहीं बता सकती।"
"तो मैं बता सकती हूँ उन्हें?" उसने कहा।
"बिल्कुल नहीं, तुम्हें नहीं सीखना तो न सही मेरी बेटियों से इस बारे में कुछ मत कहना।" उन्होंने कहा।
"नहीं कहूँगी चाची पर अब आज के बाद आप भी मुझे ऐसी बातें मत करना।" कहती हुई वह वापस आ गई। उस दिन से वह चाचा से कतराती थी, पढ़ाई से संबंधित कुछ भी नहीं पूछती, वह सबकुछ माँ को बताना चाहती थी पर जब माँ आईं तो चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कह सकी थी, शायद दूर रहने के कारण माँ-बेटी के बीच कोई अनदेखी रेखा खिंच गई थी जिसके कारण वह अपने दिल की बातें उनसे साझा नहीं कर पाती थी।  बहुत छोटी थी वह कुल तेरह-चौदह साल की परंतु अच्छे बुरे की पहचान हो गई थी, अपने माँ-पापा का चाचा-चाची पर अंधा विश्वास देखकर उसका मन करता कि उन्हें सब बता दे पर चाहते हुए भी वह कभी बता नहीं पाई। वह उनके रिश्ते भी खराब नहीं करना चाहती थी इसलिए आना-जाना तो कम कर दिया पर पूरी तरह से बोलना बंद नहीं किया। अचानक अलार्म की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हो गई उसने अलार्म बंद किया पर उठी नहीं, लेटी रही इस उम्मीद में कि शायद अभी भी नींद आ जाए तो कुछ देर सो लेगी। 
भगवान तेरा लाख-लाख धन्यवाद कि तूने मुझे चाची जैसा नहीं बनने दिया, आज मैंने एक स्त्री धर्म निभाकर स्वयं को स्वयं की नजरों में गिरने से बचा लिया। उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद किया और सोने का प्रयास करने लगी।
मालती मिश्रा
चित्र...साभार गूगल से

सोमवार

कब से था इंतजार

कब से था इंतजार

कब से था इंतजार मुझे
सावन तेरे आने का,
अखियाँ तकती पथराने लगीं
खुशियों को देख पाने को।
नव पल्लवित कोपलों को देखे
ऐसा लगता सदियाँ बीतीं,
ताल पोखर नदियाँ नहरें
सब जल बिन रीती रीतीं।
तरुवर अड़े खड़े रहे
कब तक न आओगे जलधर,
न सूखेंगे न टूटेंगे
करते रहेंगे 
जीवन का उत्सर्जन।
धरती का सीना पथराने लगा
संताप भी अब गहराने लगा,
पीड़ा अपनी दर्शाने को 
हृदय फाड़ दिखलाने लगी।
ताप तप्त ये हृदय धरा का
संतान कष्ट से विदीर्ण हुआ,
कैसे तुम निर्मोही हो
क्यों हृदय तुम्हारा संकीर्ण हुआ।
मौसम हो या कि मानव 
सब समय की गति के मारे हैं,
समय रहते जो न चेत सके
वो सदा समय से हारे हैं।
समझा न जो गति समय की
अपना अस्तित्व गँवाया उसने,
उपरांत समय के आने पर फिर
वह सम्मान नही पाया उसने।
जिनका जीवन आश्रित था तुमपर
जो तुमको पा जी सकते थे, 
असमय तुम्हारे आने पर
तुमसे मिल मुर्झाने लगे।
जब जीवन उनका 
तुमपर निर्भर था
तुम अभिमान में मदमस्त रहे,
तुम बिन जीना सीख लिया जब
अब उपस्थिति तुम्हारी रहे न रहे।
समय सदा चलायमान है
इसका मोल न जाना जिसने,
समय रहते जो न संभला तो
उसका अस्तित्व मिटाया इसने।
जो तुम पर मिटने को बैठे थे
उनका तुमने परित्याग किया
गिरकर बमुश्किल संभले तो
उम्मीदों का दिखाओ न दिया।
मालती मिश्रा

गुरुवार

नारी तू सिर्फ स्वयं से हारी है


गांधारी की तरह 
आँखों पर पट्टी बाँध लेना ही 
समाधान होता अगर 
विनाश लीला से बचने का
तो द्रौपदी भी बाँध पट्टी
बच जाती 
चीर हरण के अपमान से 
न रची जाती 
महाभारत की विनाश लीला
बाँध पट्टी आँखों पर 
गाँधारी बचा लेती 
अपने शत पुत्रों का जीवन,
गाँधारी बन जाना ही
अगर समाधान होता 
हर समस्या का
तो न रचा जाता कोई
लाक्षागृह
न रचना होती चक्रव्यूह की
असमय अभिमन्यु न मारा जाता
न होती उत्तरा की कोख
विदीर्ण,
गाँधारी सम आँखों पर
पट्टी बाँध लेना ही
यदि समाधान होता
हर समस्या का तो
महिला उत्पीड़न के 
नित नए कारनामे न होते
बाँध पट्टी आँखों पर 
नजरिया बदल देते
बन जाते सब गाँधारी
स्त्री असुरक्षित न होती कहीं
गाँधारी बन जाने से
समाज होता स्वच्छ और निर्मल
तो अक्सर अखबारों के पन्नों पर
नई निर्भया न जन्म लेतीं 
राह चलती लड़कियाँ 
न छेड़ी जातीं
छोटी-छोटी मासूम 
कन्याओं के हाथों से
खेल-खिलौने छीनकर
उन्हें घर के भीतर रहने
को मजबूर न किया जाता
गाँधारी के समान 
आँखों पर पट्टी बाँध लेना ही
अगर समाधान होता समस्याओं का
तो श्री राम को 
चौदह वर्षों का वनवास नहीं होता
जगजननी माँ
सीता का अपहरण नही होता
गाँधारी की तरह आँखों पर
पट्टी बाँधना ही गर समाधान होता 
हर समस्या का तो
हमारा देश कभी गुलाम नहीं होता
असमय अपने अगणित 
वीर सपूतों को नहीं खोता
गाँधारी के समान आँखों पर
पट्टी बाँध लेना ही
अगर समाधान होता 
हर समस्या का
तो आज इस देश के
हर राज्य, हर नगर के
हर गली हर कूचे के
हर घर में
कम से कम एक गाँधारी
नजर आती
अपने घर को धृतराष्ट्र की
अंधता से बचाने को,
अपने घर को
हर बुरी नजर, हर विनाश की
परछाई से बचाने को,
यदि यही समाधान होता
हर समस्या का तो
आज तैयार होती हर स्त्री
गाँधारी बन जाने को।

समय बदल रहा है
गाँधारी के आँखों की पट्टी
न तब सही थी
न अब सही है
आज बदले समय की माँग है...
गाँधारी को अपनी पट्टी खोल
धृतराष्ट्र की बुद्धि पर
बँधी लालच की पट्टी को 
नोचकर फेंकना होगा
द्युत क्रीड़ा में रमे हाथों को
बेड़ियों में जकड़ना होगा
द्रौपदी की लाज बचाने
आज कृष्ण नहीं आने वाले
अपने मान की रक्षा इसको
आज स्वयं ही करना होगा
चीर के सीना दुशासन का
रक्तपान इसे करना होगा
दुर्योधन की जंघा तोड़ने को
भीम नहीं आने वाले
उसकी जंघा तोड़ इसे
तांडव स्वयं मचाना होगा
अपने अस्तित्व का परिचय इसको
आज स्वयं कराना होगा
पुष्प सजाने वाले केशों को
रक्त स्नान कराना होगा
चूड़ियाँ सजने वाली कलाइयों की
शक्ति इसे दिखलानी होगी
मेंहदी वाले हाथों में 
फिर तलवार सजानी होगी
जिन पैरों के पायल की रुनझुन
संगीत बन मन हरते थे
उन पैरों के आहट की गूँज से
उनका हृदय दहलाना होगा
जिस मीठी बोली को दुनिया ने
समझा नारी की कमजोरी
उस बोली की मिठास छोड़
अब दहाड़ उन्हें सुनाना होगा।
आँखों पर पट्टी को बाँधने के
तेरे त्याग को जग न समझेगा
तेरी महानता दुनिया के लिए
त्याग नहीं लाचारी है
उतार पट्टी आँखों की
तू अपनी शक्ति को पहचान 
कमजोर नहीं 
तू शक्तिस्वरूपा है
तू जग की सिरजनहारी है
नारी किसी अन्य से नहीं
हर युग में
हर रण में
तू सिर्फ स्वयं से हारी है।
तू सिर्फ स्वयं से हारी है।।
मालती मिश्रा

रविवार

कसम


कसम....
रसोई में काम करते-करते अचानक ही दिव्या चौंक पड़ी उसके हाथ से प्लेट छूटते-छूटते बची, वह बच्चों के कमरे की ओर भागी जहाँ से सनी के चीखने की आवाज आई थी....मम्मीzzzzzz 
क्या हुआ???  कहते हुए कमरे में पहुँची और एकदम से ठिठक गई....दोनों बच्चे सनी और महक एक दूसरे से लड़ते हुए गुत्थम-गुत्था हो रहे थे, सनी ने महक की चोटी पकड़ रखी थी और महक सनी के एक हाथ की मुट्ठी को अपने दोनों हाथों से खोलने की नाकाम सी कोशिश कर रही थी। 
"मम्मा देखो सनी ने चोरी की" दिव्या को देखते ही महक ने सनी की मुट्ठी छोड़ते हुए शिकायत की।
सनी ने भी झटके से चोटी छोड़ दी और दौड़कर मम्मी से लिपट गया। "नहीं मम्मी मैने चोरी नहीं की" सनी ने मासूमियत से कहा।
"क्या चीज है मुझे दिखाओ, आप तो अच्छे बच्चे हो न!" दिव्या ने घुटनों पर बैठते हुए सनी के दोनो बाजू पकड़ कर प्यार से कहा।
"मम्मा मैने चोरी नहीं की।" सनी ने अपनी बात पर जोर देते हुए बड़े ही भोलेपन से कहा।
"नहीं मम्मा आप देखो तो ये ट्वाय इसका नहीं है, कल तक इसके पास नहीं था।" महक ने जल्दी से सनी का वो हाथ आगे करते हुए कहा जिसमें सनी ने मुट्ठी में कुछ पकड़ रखा था।
"एक मिनट..एक मिनट मैं देख रही हूँ बेटा, और महक! बेटा आप बड़ी हो न! तो छोटे भाई से ऐसे लड़ते नहीं, उसे समझाते हैं।" 
"जी मम्मा, सॉरी" नन्ही महक ने कान पकड़ कर बड़े ही भोलेपन से कहा, जैसे सचमुच ही वो कितनी बड़ी हो जबकि वो सात साल की थी और सनी पाँच साल का।
"दैट्स लाइक ए गुड गर्ल" दिव्या ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।
"ओ के नाउ योर टर्न माय ब्वाय, दिखाओ तो क्या है आपकी जादुई मुट्ठी में?" दिव्या ने प्यार से सनी के गालों को पकड़ कर कहा।
सनी ने अपना हाथ आगे करके मुट्ठी खोल दी....उसकी हथेली पर एक छोटा सा खिलौने वाला जहाज था जिसके पुर्जे जोड़कर बनाया गया था। "मम्मा ये मैंने चुराया नहीं है, ये मेरे फ्रैन्ड ने दिया है सच्ची।" सनी ने मासूमियत से कहा।
"झूठ बोल रहा है, खा मम्मी की कसम!" महक तुनककर बोली।
"मम्मा की कसम मैं झूठ नहीं बोल रहा।" सनी ने रुआँसी सी आवाज में कहा जैसे कि कसम खाते हुए उसे कितना जोर पड़ रहा हो पर शायद उससे कहीं अधिक दर्द दिव्या को हुआ उसने सनी को सीने से लगा लिया और प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगी, उसकी आँखों में न जाने कौन सा दर्द आँसू बन झिलमिलाने लगा।
"नहीं बेटा कसम खाने की कोई जरूरत नहीं, मम्मी तो आप लोगों की बात वैसे ही मानती है, मुझे पता है कि मेरे बच्चे मुझसे झूठ नहीं बोलते, आप दोनों ध्यान रखना एक-दूसरे पर विश्वास किया करो, कोई झूठ नहीं बोलेगा और आगे से कभी एक-दूसरे को कसम खाने को नहीं कहोगे।" दिव्या ने महक की ओर देखते हुए कहा।
"जी मम्मा" दोनों बच्चे बोले, सनी भी ऐसे खुश हो गया मानो उसकी बात पर विश्वास कर लेने से वह निरपराध घोषित कर दिया गया और अब उसके मन पर कोई बोझ नहीं।
दिव्या दोनों को खुश देखकर मुस्कुराते हुए वापस किचन में आ गई, वह अपने काम में लग गई किंतु उसके दिमाग में फिर से एक द्वंद्व सा छिड़ गया.... 'कसम'... क्यों लोग बिना कसम खाए किसी की बातों पर विश्वास नहीं करते? और क्यों कभी-कभी लोग कसम खाने वाले पर भी विश्वास नहीं करते? क्यों कुछ लोगों की बातों का आरंभ और अंत दोनो ही कसम से होता है और क्यों किसी-किसी को कसम खाने में बहुत जोर पड़ता है। यह कसम खाना भी हर किसी के लिए आसान नहीं होता और किसी-किसी के लिए बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होता अभी कल शाम की ही तो बात है जब उसकी जेठानी अपनी सास की शिकायत बताते हुए रो पड़ीं और कसम खाने हुए बोलीं कि "अगर मैं झूठ बोल रही हूँ तो तुम मेरा मरा मुँह देखो।" दिव्या को तब भी अजीब असहजता महसूस हुई थी उसके मन में आया कि बोल दे कि "भाभी जी मैं आपकी सारी बातें मानती हूँ आपको कसम खाने की जरूरत नहीं है।" पर वह बोल न सकी थी। आज वही कसम की काली परछाई उसके बच्चों पर पड़ने लगी थी, वह ऐसा नहीं होने देगी, अपने बच्चों को इस काली और अविश्वास की परछाई से दूर ही रखेगी। उन्हें कसम के उस दर्द से नहीं गुजरने देगी जो उसने सहन किया। उन्हें सिखाएगी कि वह हमेशा सच बोलें यदि उन्होंने गलत किया है तो उसे स्वीकारें और यदि गलत नहीं किया तो सिर्फ सत्य कहें अपनी सच्चाई को साबित करने के लिए कसम न खाएँ क्योंकि यह कसम अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग महत्व रखता है। झूठ बोलकर अपने को सही सिद्ध करने के प्रयास में हर बात पर कसम खाने वालों के लिए यह शब्द बहुत हल्का और महत्वहीन होता है और जो व्यक्ति हमेशा सच बोलता हो कभी मजबूरीवश अपनी सत्यता सिद्ध करने के लिए यदि वह कसम खा ले और फिर भी उसका विश्वास न किया जाए तो वह उस अनचाहे खाए गए कसम के बोझ को पूरी जिंदगी अपने दिल पर ढोता है और हर पल इसी पश्चाताप में रहता है कि क्यों उसने कसम खाई? क्यों नहीं अपनी बात कहकर परिणाम सामने वाले पर छोड़ दिया? क्यों स्वयं की सत्यता सिद्ध करने के लिए कसम का बोझ अपने सीने पर लादा? 
दिव्या ने हाथ धोए और तौलिए से पोछती हुई किचन से बाहर आ गई। तौलिया जगह पर रखकर वह सोफे पर बैठ गई उसके मस्तिष्क में अतीत की कड़वाहटें हिलोरें मारने लगीं.... उस समय सनी मात्र एक साल का था जब विनीत उसे महक और सनी के साथ अपने मम्मी-पापा के पास छोड़ आया था ताकि वह एक-डेढ़ महीना उनके साथ रह लेगी उसके मम्मी-पापा की उनके पोते-पोती के साथ न रह पाने की शिकायत भी दूर हो जाएगी। विनीत दिल्ली आ गया था मम्मी-पापा और उनका बड़ा बेटा उस समय बड़ी बहू की विदाई के लिए गाँव गए हुए थे। घर पर दिव्या और उसकी पाँच ननदें थीं, सभी बहने विनीत से छोटी थीं लिहाजा इस समय घर में सबसे बड़ी दिव्या ही थी परंतु घर की मालकिन इस समय उसकी ननद गुड़िया थी जो कि ननदों में सबसे बड़ी और एक बच्ची की माँ थी। गुड़िया की अनुपस्थिति में उससे छोटी बहन रेनू का मालिकाना हुकुम चलता, परंतु वह थोड़ी समझदारी और नम्रता से काम करती, शायद बड़ों के प्रति आदर का भाव उसमें अधिक था। बाकी बहने छोटी थीं वो सबकी बातें मानती थीं पर अपनी बड़ी बहन गुड़िया से डरती थीं इसलिए उसके सामने उसके खिलाफ कुछ नहीं बोल सकती थीं, रेनू का लगाव गुड़िया से अधिक था परिणामस्वरूप वह भी उसके समक्ष कोई ऐसा कार्य या बात नहीं करती जिससे उसको बुरा लगे या वह दुखी हो। दिव्या घर के इस चलन और माहौल से पूरी तरह वाकिफ थी परंतु उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह सबके साथ मिलजुल कर रहती, उसका मानना था कि कुछ दिनों के लिए आती है तो अपना बड़प्पन इसी में है कि जो जैसे चल रहा हो चलने दे यदि ननदों को घर में छोटी-बड़ी चीजों की मालकिन बनाया हुआ है, मम्मी-पापा तक उनसे ही सलाह-मशविरा करते हैं तो इसमें मेरा क्या नुकसान। इस समय भी मम्मी-पापा और बड़े भइया-भाभी (जेठ-जेठानी) की अनुपस्थिति में भी दिव्या भी हर काम गुड़िया और रेनू की सहमति से उनके साथ मिलजुल कर करती, वो भी उस पर हुकुम नहीं चलाती थीं, शायद यही सोचकर कि वह कुछ समय के लिए आई है। परंतु दिव्या को कई बार ऐसा महसूस होता कि ये बहने आपस में बात करतीं
और उसको देखते ही चुप हो जातीं या बात बदल देतीं, वह सबकुछ समझते हुए भी अंजान बनकर उनके साथ ही घुल-मिल जाती, उसका दिल भी दुखता कि किस प्रकार ये लोग उसे परायेपन का अहसास करवाती हैं परंतु वह अनदेखा कर देती। 
घर में गाय थी जो रोज दूध देती थी उस समय मम्मी-पापा और बड़े भइया गाँव गए हुए थे तो सुबह-शाम दूध निकालने की जिम्मेदारी घर में रह रहे उस किराएदार  की थी जिन्हें मम्मी-पापा के अलावा सभी सम्मान से चाचा जी कहते थे। वो रोज दूध निकाल देते फिर गुड़िया उसमें से एक-डेढ़ किलो दूध अपनी बेटी के लिए, चाय बनाने और सुबह महक के पीने के लिए  निकाल लेती बाकी बचे दूध को उपलों की आग पर रख देती वो पूरे दिन धीमीं आँच पर मिट्टी के बर्तन में पकते-पकते लालिमा लिए सुनहरा होने लगता फिर रात को उसमें एक चम्मच दही जामन के रूप में डाल देती और सुबह उस दही को बेच देती। घर के आस-पास किसी अन्य के पास गाय या भैंस नहीं थी इसलिए दही या दूध की डिमांड रहती थी। परिवार में इतने सदस्य थे कि यदि एक-एक गिलास दूध सभी पीते तो दूध खत्म हो जाता परंतु गुड़िया दूध सिर्फ अपनी बेटी के पीने के लिए रखती थी चाय सिर्फ सुबह और शाम को बनती थी उसमें भी दूध नाम मात्र को पड़ता था। दिव्या क्योंकि कुछ दिनों के लिए ही रुकी हुई थी इसलिए उसकी बेटी महक को सुबह एक बार दूध पीने को दे दिया जाता था हालाँकि महक और गुड़िया की बेटी की उम्र में महज दो माह का अंतर था, सनी तो सिर्फ माँ का दूध पाता था फिर भी दिव्या ने कभी नहीं कहा कि क्यों गुड़िया की बेटी की भाँति महक को भी दिन में भी दूध दिया जाता, वह देखती कि बड़े भइया की बेटी भी छोटी है फिर भी उसके लिए भी दूध नहीं रखा जाता महक को तो फिरभी एकबार मिल जाता था। वह कई बार जब महक को दूध देती तो चुपचाप उसी दूध में से आधा जेठ की बेटी को भी दे देती। दिव्या ने एकबार कहा भी "गुड़िया! दूध-दही उतना ही बेचा करो न जितना घर के बच्चों के खाने पीने के बाद बचे, या एक टाइम का बेच लो दूसरे टाइम का घर के लिए रख लो।" 
यह बात गुड़िया को बड़ी नागवार गुजरी थी, उसने बड़े ही तल्खी से जवाब दिया था "आपको क्या पता घर की जरूरत, अब गाय के चारे का खर्च भी नहीं निकलेगा तो गाय रख भी नहीं पाएँगे।" दिव्या के मन में आया कि बोल दे कि जब घर के बच्चों को ही दूध-दही के लिए तरसना पड़े तो क्या फायदा गाय-भैंस रखने का? और यदि कंजूसी ही करनी है तो अपनी बेटी के लिए भी करो बाकियों के लिए ही क्यों? पर वह बोल नहीं सकी थी।
सुबह के नौ-दस बज रहे होंगे सभी अपने-अपने काम में व्यस्त थे, दिव्या किचन में सबके लिए नाश्ता बना रही थी दो बहने मिलकर झाड़ू और पोछे का काम कर रही थीं एक बहन रात के बर्तन माँज रही थी, रेनू उपले की आग जलाकर उसपर दूध रख रही थी तभी दिव्या ने कहा- "मुझे मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ दूध जो पककर लाल हो जाता है बचपन से बहुत पसंद है पर ये तभी मिलता था जब गाँव जाती थी, दादी मेरे लिए रोज दूध निकाल देतीं फिर ठंडा करके पिलाती थीं।" 
"तो अब कौन सी पहुँच से बाहर की बात है, दूध भी है घर में मिट्टी का बर्तन भी और उपले की आँच भी। रोज ही तो गरम होता है, आप आज ही पी लेना।" रेनू ने कहा। दिव्या जानती थी कि यही रेनू का असली स्वभाव है उसमें बनावटीपन बिल्कुल भी नहीं है।
उसने कहा- "ठीक है तो तुम आज दोपहर को निकाल देना।"
"ठीक है।" रेनू ने कहा।
फिर दोनों अपने-अपने काम में व्यस्त हो गईं। दोपहर को जब सभी काम खत्म करके दोपहर का खाना आदि खा-पी कर फ्री हो गए तो बड़े कमरे में सभी लेटकर टी०वी० देख रहे थे और दिव्या की दो छोटी ननदें, जेठ की दो बेटियाँ, बड़ी ननद यानि गुड़िया की बेटी एक छोटे कमरे में खेल रही थीं, महक भी वहीं थी दिव्या ने सोचा कि क्यों न महक को सुला दे इसलिए वह उसे लेने गई तभी जिस कमरे में बच्चे खेल रहे थे उसी कमरे के बाहर उपलों की आँच पर रखा दूध देखकर दिव्या को याद आ गया कि उसे दूध निकालना है, उसने रेनू को आवाज लगाई। रेनू वहाँ आई तो दिव्या ने कहा-"प्लीज एक गिलास दूध निकाल दो न! एक-दो घंटे में ठंडा हो जाएगा तो शाम को चाय के टाइम पर मैं दूध ही पीऊँगी।" 
"अरे भाभी आप ही निकाल लो न, मैं निकालूँ या आप क्या फर्क पड़ता है।" रेनू ने कहा।
"ठीक है, मैं ही निकाल लेती हूँ" कहकर दिव्या ने एक गिलास में दूध निकाल कर बाकी दूध ज्यों का त्यों ढक दिया। दूध लेकर वह किचन में रखने गई तभी देखा कि उसकी सबसे छोटी ननद जो कि छः-सात साल की थी किचन में से गुड़िया की बेटी के लिए रखे दूध के पतीले में से दूध निकाल रही थी। "क्या कर रही हो अनी?" उसने पूछा।
"भाभी हम लोग घर-घर खेल रहे हैं, मैं खीर बनाने के लिए दूध ले रही हूँ।" अनी ने कहा।
यदि मैंने ये दूध यहाँ रखा तो ये बच्चे इसे खेल-खेल में ही खत्म कर देंगे, ऐसा सोचकर दिव्या ने दूध जिस कमरे में बच्चे खेल रहे थे उसी कमरे में टाँड पर रख दिया जो कि ऊँचाई पर बच्चों की पहुँच से दूर था। और टी०वी० वाले कमरे में आकर लेट गई। टी०वी० देखते-देखते उसे नींद आ गई।
अचानक बड़े जोर-जोर से बोलने की आवाजें सुनकर दिव्या की नींद खुल गई। उसने बाहर आँगन की ओर देखा शाम हो चुकी थी, तभी उसे फिर से वही जोर-जोर से बोलने की आवाज आई..."तुम लोग बताते क्यों नहीं, किसने चुराकर रखा ये दूध? आज तक हमारे घर में चोरी नहीं हुई, अब दूध भी चुराने लगे तुम लोग" गुड़िया के चिल्लाने की आवाज थी। दूध....चोरी....ये शब्द कानों में पड़ते ही दिव्या को याद आया कि उसने दूध रखा था, वह तुरंत बाहर आई और बोली- "किस दूध की बात कर रही तुम? जो टाँड पर रखा था?"
"हाँ पर आपको कैसे पता?" गुड़िया ने कहा।
"क्योंकि वो दूध मैंने ही रखा था, बच्चों से बचाकर।" 
"बच्चों से बचाकर या चुराकर?" गुड़िया ने जहर बुझे स्वर में कहा।
व्हाट???? दिव्या को ऐसा महसूस हुआ मानो किसी ने उसे जोर का थप्पड़ मारा हो...
"मैं चोरी क्यों करूँगी, वो भी अपने ही घर में?" दिव्या ने आहत होकर कहा।
"अपना घर? किसका?" गुड़िया की आवाज पिघले शीशे सी दिव्या के कानों को चीरने लगी।
उसे अचंभा हो रहा था कि रेनू कुछ भी नहीं बोल रही थी, जबकि उसे तो सब पता था।
" सुनो गुड़िया तुम इस घर की बेटी हो तो मैं भी बहू हूँ, मुझे एक गिलास दूध के लिए चोरी करने की आवश्यकता नहीं, भगवान की दया से किसी बात की कमी नहीं है, यहाँ तुम लोगों पर डिपेंड हूँ तो क्या हुआ, हूँ तो मैं सेल्फ डिपेंड। रही चोरी की बात तो रेनू से पूछो, दूध उनसे पूछकर बल्कि उनके कहने से निकाला था मैंने। दिव्या से बर्दाश्त नही हुआ तो उसने भी कमर कस ली गुड़िया की बातों का जवाब देने के लिए।
"बहू... हुँह...और रेनू से क्या पूछूँ, मुझे दिखता नहीं क्या?" कसैला सा मुँह बनाकर गुड़िया ने कहा था।
कुछ देर ऐसी ही बहस होती रही, दिव्या को यह बहुत ही अपमान जनक लगा। वह अपने घर में तीन भाइयों के बीच इकलौती और सबसे बड़ी बेटी थी, बड़े ही लाड़-प्यार में पली थी, जिस भी चीज पर उँगली रख देती वो उसके पास हाजिर कर दी जाती। खाने-पीने, पहनने आदि की कमी का तो उसे अहसास भी नहीं था परंतु यहाँ इन लोगों ने उसपर चोरी का इल्जाम लगा दिया, और रेनू कुछ भी नहीं बोली ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब कुछ प्लान किया गया हो। वह क्षुब्ध हो उठी, अपमान के मारे भीतर ही भीतर तिलमिला रही थी, अब एक-एक पल यहाँ काटना उसके लिए सजा के समान महसूस हो रही थी। अतः उसने विनीत को फोन कर दिया और सारी बातें बताते हुए कहा-"जबतक तुम आ नहीं जाते मैं अन्न का एक दाना भी नहीं खाऊँगी, और एक बात गुड़िया के लिए जो टी०वी० लेकर आने वाले थे वो नहीं लाओगे"
दूसरे दिन विनीत दिल्ली से आ गया किंतु दिव्या को फिर एक झटका लगा कि इतना सबकुछ होने के बाद और उसके मना करने के बाद भी विनीत टी०वी० लाया था। "मैंने तुम्हें टी०वी० के लिए मना किया था फिरभी!" उसने कहा
"मैं ये खरीद चुका था" दिव्या को विनीत का झूठ समझ आ गया। उसका आत्मसम्मान फिर से आहत हुआ, उसने स्वयं को संभाल कर कहा- "हमें आज ही वापस जाना है।"
"मम्मी-पापा को आ जाने दो मैं पहले उनसे बात कर लूँ फिर चलेंगे।" विनीत ने कहा।
"मैंने कल से न कुछ खाया है और न ही यहाँ का खाना खाऊँगी, अब तुम सोच लो क्या करना है।" कहती हुई वह दूसरे कमरे में चली गई। 
शाम को गुड़िया और विनीत के बातें करने की आवाज सुन कर दिव्या से रहा न गया तो वह भी उसी कमरे में आ गई और सनी को अपनी गोद में लिए जमीन पर ही बैठ गई।
गुड़िया कह रही थी "मैंने क्या गलत कहा कोई दूध अगर चुराएगा नहीं तो टाँड पर क्यों रखेगा?" 
वह बोल पड़ी "मुझे चोरी की जरूरत ही क्या थी, मैं तुमसे डरती हूँ क्या? तुम्हारे सामने भी लेकर पी सकती थी और रेनू के कहने से ही निकाला था।"
"रेनू को कुछ नहीं पता है ये झूठ बोल रही हैं।" गुड़िया ने जहरीले स्वर में कहा। वहीं बैठी रेनू को चुप देख दिव्या बेहद आहत हुई और अपनी सच्चाई सिद्ध करने के लिए उसके मुख से बेसाख्ता निकल पड़ा- "मेरी गोद में मेरी औलाद है मैं अपने बच्चे की कसम खाती हूँ मैंने चोरी नहीं की बल्कि रेनू के कहने के बाद ही दूध निकाला था।"
"हँह ऐसे कसम तो हम रोज गाजर मूली की तरह खाते हैं" गुड़िया ने अजीब सा मुँह बनाकर कहा।
व्हाट.... दिव्या को मानो काटो तो खून नहीं, उसे मूर्छा सी आने लगी, वैसे भी दो दिन से उसने कुछ भी खाया नहीं था और फिर अाघात पर आघात लगते जा रहे थे। वह विनीत की ओर बेबस नजरों से देखने लगी, उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। तभी विनीत बोल पड़ा-" तुम लोग खाती होंगी हर बात पर कसम पर ना ही दिव्या और ना ही मैं कभी कसम खाते।" यह कहकर वह बाहर चला गया और दिव्या बच्चे को लेकर दूसरे कमरे में। दूसरे दिन सुबह ही विनीत के मम्मी-पापा और भाई-भाभी गाँव से आ गए पर विनीत ने उनसे कोई बात नहीं की, दिव्या कमरे से बाहर नहीं निकली भूखे होने के कारण उसे कमजोरी महसूस हो रही थी।वह तो बस शाम का इंतजार कर रही थी कि विनीत बात कर ले और शाम को वो लोग दिल्ली वापस चले जाएँ, अब उसे यहाँ रहने का बिल्कुल मन नहीं था, अपना सामान वह पैक कर चुकी थी। एक और चोट उसे सास की ओर से मिली कि सबकुछ जानते हुए भी उसकी सास ने एक बार भी उससे पूछने की जरूरत नहीं समझी कि बात क्या है? या फिर वही सबकुछ सत्य मान लिया जो उनकी बेटी ने उन्हें बताया। पर ऐसा कैसे हो सकता है वो उसे भी तो बखूबी जानती हैं उसका बैक ग्राउंड भी बहुत अच्छी तरह जानती हैं फिर बेटी के मोह में इतनी अंधी हो गईं कि बहू का पक्ष सुनना ही नहीं है।
दोपहर को बाहर से पापा जी की आवाज आई "अरे उसे अगर घर का खाना नहीं खाना है तो बाहर से कुछ ला दो खाने के लिए, क्यों पाप चढ़ा रहे हो हम पर।" 
"मैं लाया था पर उसने नहीं खाया।" विनीत ने जवाब दिया।
शाम को फिर से पापा जी ने विनीत से कहा- "दिव्या को घर का खाना नहीं खाना तो उसे बाहर ले जाओ कुछ खिला-पिला लाओ।"
यह सुनकर दिव्या से रहा नहीं गया वह बाहर आ गई और बोली- "मुझे खाना नहीं अब सिर्फ सच और झूठ का फैसला चाहिए, क्या आपकी बेटियाँ इसी तरह सब पर तानाशाही चलाएँगी, और अपमान करती रहेंगी?" 
"अब देखो अगर इस घर में रहना है तो ये सब तो सहना ही पड़ेगा।" पापा जी ने कहा और अपनी इसी बात के साथ वह सदा के लिए दिव्या की नजरों से गिर गए।
वह बोली- "तो ठीक है, ना मुझे इस घर में रहना है और ना ही मैं ऐसे वाहियात इल्जाम सहन करूँगी, मैं अपने बच्चों को लेकर जा रही हूँ आपके बेटे का मन करे तो आ जाएँ नहीं तो उन्हें भी रखिए अपने साथ बहनों की गुलामी करने के लिए।" इतना कहकर वह कमरे में गई अपना बैग कंधे पर टाँगा, सनी को गोद में लिया और दूसरे हाथ से महक का हाथ पकड़ कर घर से बाहर आ गई और बस स्टैंड की ओर चल दी। वह मन ही मन स्वयं को कोस रही थी कि मैंने क्यों विनीत को दिल्ली से बुलाया? मैंने क्यों अपने बच्चे की कसम खाई। उसने बड़े प्रयास से स्वयं को कठोर बना रखा था ताकि उसकी आँखों से आँसू न छलक पड़ें पर भीतर ही भीतर उसकी आत्मा मानो चीत्कार कर रही हो। मन ही मन उसने फैसला कर लिया कि चाहे उसकी बात कोई माने या ना माने पर वह किसी को विश्वास दिलाने के लिए कभी भी कसम नहीं खाएगी। बस स्टैंड पर बस का इंतजार करते उसे करीब दस मिनट हो गए पर अभी तक बस नहीं आई थी तभी विनीत हाथ में अटैची लिए हुए आता दिखाई दिया। वह आश्वस्त हो गई कि अब वह अकेली नहीं जाएगी।
"मम्मा...मम्मा देखो सनी मेरी बुक छीन रहा है।" बच्चों के कमरे से आती हुई महक की आवाज दिव्या को फिर वर्तमान में खींच लाई।
करीब चार साल हो गए, वह एक कसम ही थी जिसे दिव्या ने मन ही मन खाई थी उस घर में कभी वापस न जाने की और वह आज भी उस कसम को निभा रही है। उसे मन ही मन लिए गए उस कसम का कोई अफसोस नही किंतु जो कसम उसने बोलकर सबके सामने खाई थी उसका बोझ आज तक उसके दिल से नहीं उतरा। 
मालती मिश्रा
चित्र साभार..गूगल

इस युग के रावण


इत-उत हर सूँ देखो तो
गिद्ध ही गिद्ध अब घूम रहे
किसी की चुनरी किसी का पल्लू
चौराहों पर खींच रहे
मरे हुए पशु खाते थे जो
अब जीवित मानव पर टूट रहे
नजरें बदलीं नजरिया बदला
हर शय में गंदगी ढूँढ़ रहे
अपनी नीयत की कालिमा
दूजे तन पर पोत रहे
मर चुकी है जिनमें मानवता
वो हर अक्श में नग्नता देख रहे
माता-भगिनी मान हर नारी को
जहाँ शीश नवाया जाता था
हर गली हर मोड़ पर अब
बैठे उनको ही ताड़ रहे
नारी को देवी के समकक्ष 
जिस देश में पूजा जाता था
उस देश के चौराहों पर अब
उसके वस्त्रों को फाड़ रहे
आज के मानव को देख-देख
पशुता भी घबराती है
इतनी गंदगी और नीचता
मानव जाति कहाँ से लाती है
नारी का मान जिसे बर्दाश्त नहीं
यह उसकी मानसिक बीमारी है
मान घटाने को नारी का
अपना चरित्र और  मानवता हारी है।
सीता की लाज बचाने वाला
गिद्ध न जाने कहाँ खो गया
जाते-जाते अपनी दृष्टि 
इस युग के रावण को दे गया
मालती मिश्रा

शनिवार

ऐ जिंदगी पहचान करा दे मुझसे तू मेरी


चाहे-अनचाहे गर बिगड़ जाए दास्ताँ जो मेरी 
जीवन सारा अफ़वाहों का बाज़ार बना जाता है

खुदा ने भेजा औरों की तरह जहाँ में मुझको
क़ायदा-ए-ज़हाँ ने असीर बना डाला है

खुदा की अल हूँ या क़ज़ा है मेरा ये क़फ़स
गर्दिशे-सवाल में क़रार खोया जाता है।

कुछ काम किए खास जो जमाने की निगाहों में 
सारा जीवन अब्तरे-अफ़साना नज़र आता है।

ख़लिश सी उठती सीने में जब देखती हूँ आइना
उम्र गुजारा तलाश में जिसकी वो बेगाना नजर आता है।

मालती मिश्रा


असीर- -कैदी
अल - कला
क़ज़ा- ईश्वरीय दंड
क़फ़स- शरीर/पिंजर
गर्दिशे-सवाल- सवालों का भँवर
करार- चैन
अब्तरे-अफ़साना-बिखरी हुई कहानी

बुधवार


ऐ जिंदगी पहचान करा दे मुझसे तू मेरी
खुद को ढूँढ़ते एक उम्र कटी जाती है।

मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है खुदाया
खोजने के जद्दो-ज़हद में खुद को मिटाए जाती हूँ।

रिश्तों के चेहरों में ढका वजूद मेरा इस कदर
आईने में अपना अक्श भी अंजाना नजर आता है।

पहचान अपनी पाने की कोशिशें जो की मैंने या रब
जमींदोज़ मुझे करने को ज़माना नजर आता है।
मालती मिश्रा