शुक्रवार

चंदा तेरी शीतलता में, रही न अब वो बात।
बिन पंखे कूलर के ही जब, मन भाती थी रात।।

तेरे संगी साथी तारे, मलिन से रहते हैं।
मानव के अत्याचारों को, मन मार सहते हैं।।

लहर-लहर जो बहती नदिया, वह भी चुप हो गई।
सूखे रेतों की तृष्णा में, लहरें भी खो गईं ।।

हरे-भरे वन-कानन खोए, बंजर हुई धरती
सूखा बाढ़ तबाही आए, उन्नती अब मरती।।

मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

गुरुवार

योग हमारी धरोहर

योग हमारी धरोहर
21-06-18
विषय- योग

योग शब्द संस्कृत धातु 'युज्' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है 'जुड़ना' अतः हम कह सकते हैं कि योग आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का कार्य करता है। अलग-अलग ग्रंथों में योग की विभिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं।
जैसे- विष्णु पुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् "जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।"
(पातंजल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
परिभाषाएँ भले ही अलग-अलग हों किन्तु सभी का अर्थ यही है कि अपने भीतर की दुष्प्रवृत्तियों का त्याग करके आत्मा से परमात्मा का मेल ही योग है।

योग हमें अध्यात्म से जोड़ता है, यह विश्व का सबसे प्राचीन विज्ञान है जो हमें शारीरिक और मानसिक व्याधियों से मुक्त रहकर एक स्वस्थ जीवन जीना सिखाते हैं।
योग हमारे महान ऋषि-मुनियों की देन है तथा यह जाति-धर्म और देशगत सीमाओं से परे है। यह मानव मात्र को जीवन जीने की कला सिखाता है, यह व्यायाम या प्राणायाम मात्र नहीं है, यह सिर्फ शारीरक विकारों से ही नहीं मुक्त करता बल्कि यह एक ऐसी साधना है जो मनुष्य के मानसिक विकारों को दूर करके उसके विचारों, भावों को भी शुद्ध करता है। यह मात्र हमारी सांसों से नहीं जुड़ा होता बल्कि हमें आत्मा को परमात्मा से जोड़ना सिखाता है। योग सांसों पर नियंत्रण रखना सिखाता है,
एकाग्रता बढ़ाता है, मानसिक व शारीरिक क्षमता बढ़ाता है, याददाश्त बढ़ाता है, हमारी नकारात्मक सोच को खत्म करके सकारात्मकता का संचार करता है।
योग में मंत्रजाप का भी अपना महत्व है, मंत्र जाप से उत्पन्न होने वाला स्पंदन हमारे शरीर को झंकृत करता है जिससे दुर्भावनाओं को भूल शरीर में एकाग्रचित्तता का सृजन होता है।

योग को किसी एक धर्म से जोड़कर देखना हमारी संकीर्ण सोच का परिचायक है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है जो योग को राजनीति का शिकार होना पड़ा और इसे एक धर्म या संप्रदाय से जोड़ दिया गया।
योग की महत्ता बहुत ही विस्तृत है। योग के इस महत्व को विश्व ने समझा और इसीलिए इसे खुले दिल से अपनाकर लाभान्वित हो रहे हैं।

मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

मंगलवार

कुण्डलिया छंद

कुण्डलिया छंद
🙏🙏🌺🌹सुप्रभात🌹🌺🙏🙏
श्याम चूनर रजनी की, तन से रहि बिलगाय
धरती देखो खिल रही, नव परिधान सजाय।।
नव परिधान सजाय, धरा का रूप सुनहरा
पुलकित पल्लव पुष्प,जिनपर भ्रमर का पहरा।।
मालती हर्षित हुई, खुशियाँ भइ अविराम
छवि देखी भोर की, खींच लिया चूनर श्याम।।
मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

सोमवार

जाग री विभावरी


ढल गया सूर्य संध्या हुई
अब जाग री तू विभावरी

मुख सूर्य का अब मलिन हुआ
धरा पर किया विस्तार री
लहरा अपने केश श्यामल
तारों से उन्हें सँवार री
ढल गया सूर्य संध्या हुई
अब जाग री तू विभावरी

पहने वसन चाँदनी धवल
जुगनू से कर सिंगार री
खिल उठा नव यौवन तेरा
नैन कुसुम खोल निहार री
ढल गया सूर्य संध्या हुई
अब जाग री तू विभावरी

मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

बुधवार

कहानी हरखू की

कहानी हरखू की
सूरज सिर पर चढ़ आया था लेकिन हरखू और उसका परिवार खेत से घर जाने का नाम ही न ले रहे थे तभी दीना की आवाज आई "अरे हरखू भइया दुपहरी हुई गई काहे धूप में जले जात हो, चलो अब साँझ को आना जूड़े-जूड़े में कर लिहो।"
"हाँ भाई तुम चलौ हम अबहीं आय रहे।" कहकर हरखू फिर खेत की गुड़ाई करने लगा। उसके साथ उसका चौदह वर्ष का बेटा हरीचंद भी कुदाल से खेत को गोड़ कर अपने बाबा का हाथ बँटा रहा था, हरखू की पत्नी बुधिया और 12 वर्ष की बेटी गौरी खुदी हुई मिट्टी से घास निकाल-निकाल कर खेत के एक कोने में ढेरी बना रही थीं ताकि जब वो सारी घास सूख जाएगी तो उसे जला देंगे।
हरखू के पास न बैल थे और न ही इतने पैसे कि वह किराया देकर ट्रैक्टर से खेत की जोताई करवा पाता, इसीलिए उसने ये दो बीघा खेत हाथों से ही खोदने(गोड़ने) का निश्चय किया। इसे गोड़कर घास साफ करके तब सिंचाई करवा कर इसमें सब्जी लगाएगा। सिंचाई के लिए भी तो पैसा चाहिए, सोचकर हरखू दुखी हो गया, फिर सोचा, अब सिंचाई बिना तो सब्जी उगेगी नहीं, जैसे-तैसे करवाना है ही।
प्यास से गला सूख रहा था, थूक सटकते हुए हरखू ने खेत की मेंड़ पर रखी छोटी सी बाल्टी की ओर देखा और बेटी को आवाज लगाते हुए बोला- "गौरी देख बेटा पानी है का? गला सूखा जा रहा है।"
गौरी झट से बाल्टी के पास गई और बाल्टी और गिलास लेकर हरखू के पास गई पानी थोड़ा ही था, बोली- "बाबा लो इसे पी लो हम अबहीं और भरे लाते हैं।" वो बगीचे के कुएँ से पानी भर लाई और पानी पीकर पूरा परिवार फिर काम में लग गया। उनकी काम में तल्लीनता देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आज ही सारा काम खत्म करना उनकी जिद और मजबूरी है।
दोपहर के दो बज गए चिलचिलाती धूप में काम करते-करते पूरा परिवार बेहाल हो गया तब घर की ओर चल दिए।
"पाँच दिन होइ गए, आज चाहे रात होइ जाय पर काम खतम करे क है, कल सब्जी लगाकर खेतन मा नमी लायक  सिंचाई करवा लिहैं।" हरखू ने कहा।
"पर ए जी सिंचाई के लिए पैसे कहाँ हैं हम लोगन के पास!" पत्नी बोली।
"पैसे तो नाही हैं पर किए बिना तो काम न चलिहै, हाथ पैर जोड़के सिंचाई तो करवान क परिहै। फसल होवे के बाद दै दिहैं।" हरखू मायूसी भरे स्वर में बोला।
जो काम बैलों से दो दिन में, ट्रैक्टर से कुछ घंटों में हो जाता, हरखू इन दोनों के अभाव में वही काम हाथों से लगातार पाँच दिनों से रोज के अट्ठारह घंटे पूरे परिवार के साथ कर रहा है। दो घंटे आराम करके हरखू का परिवार फिर चार बजे से खेत में पहुँच गया और फिर उसी क्रम में खेत की गुड़ाई शुरू कर दिया हरखू या हरीचंद थक कर कुछ देर के लिए बैठ जाते तो उसकी पत्नी और बेटी कुदाल लेकर गोड़ने लगतीं। बाप-बेटे दोनों के हाथों में छाले पड़कर फूट भी चुके थे, फिर भी दोनों हाथों में कपड़ा बाँधकर खेत की सख्त हो चुकी मिट्टी को खोदकर सब्जी उगाने लायक बना रहे थे। हाड़तोड़ मेहनत के बाद रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक हरखू और उसका परिवार काम पूरा करके घर लौटा। उनके चेहरों पर संतोषजनक थकान नजर आ रही थी।
हरखू के सामने अब एक नया लक्ष्य मुँह बाए खड़ा था। वह सोच रहा था कि प्रधान को सिंचाई के लिए कैसे राजी करेगा। वह मिन्नतें करके मान तो जाएँगे, पर पहले बहुत हीला-हवाली करेंगे। बहुत चिरौरी करनी पड़ेगी, हरखू का आत्मसम्मान भी आहत होगा, पर इसके बिना गुजारा नहीं है। फसल नहीं उगाएँगे तो खाएँगे क्या? बच्चों को पढ़ाएँगे कैसे? रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी होंगीं? खुले आसमान के नीचे तारों को देखते हुए उसके दिमाग में ऐसे न जाने कितने ही सवालों के चक्रव्यूह बनते जा रहे थे। हरखू के पास कोई जवाब न था सिवाय इसके कि वह प्रधान की चिरौरी करके उधारी पे सिंचाई करवाए।
अपनी शर्म को घर पर छोड़ हरखू ने मिन्नतें करके जैसे-तैसे खेत की सिंचाई की और पूरे परिवार ने मिलकर खेत में आलू, टमाटर, प्याज और कुछ मौसमी सब्जियाँ भी लगा दिया। बारी-बारी से पूरा परिवार देखभाल करता, दुबारा पानी की आवश्यकता हुई पर अब तो भगवान भी हरखू और उसके परिवार की मेहनत से प्रसन्न हो गए थे इसलिए इंद्रदेव की कृपा से उसे दुबारा सिंचाई के लिए किसी की चिरौरी नहीं करनी पड़ी। जैसे-जैसे सब्जियों की फसल खेत की क्यारियों में फैलती जाती उसकी हरियाली के साथ-साथ हरखू का मन भी हरा होता जाता। अब वह अधिक सावधान रहने लगा था किसी के मवेशी न घुस जाएँ खेत में। कभी कोई मूली खीरा आदि न चुरा ले.... अब हरखू एक पल को भी खेत को बिना निगरानी के न छोड़ता। दोपहर में भी खेत के पास वाले बगीचे में छाँव में खटोली (छोटी चारपाई) डालकर उसी पर लेटे-लेटे खेत पर ही नजर रखता। रात को भी खेत में ही एक कोने में वही खटोली डालकर सोता, जरा सा भी खटका होते ही नींद खुल जाती और जब आस-पास चारों ओर देखकर आश्वस्त हो जाता तब फिर सो जाता। सुबह-शाम शौच, नहाने-धोने व अन्य किसी काम से कहीं जाना होता तो बुधिया को रखवाली के लिए छोड़ जाता। बेटे पर भरोसा नहीं था, बालक बुद्धि है कहीं खेल में लग गया तो?
पूरे परिवार की मेहनत और देखभाल से फसल भी बेजोड़ हुई। हरखू और बुधिया एक-एक सब्जी को बड़े ही प्यार से पोस रहे थे, जिस प्रकार माता-पिता बच्चों को प्यार से पालते-पोसते हैं, उन्हें स्वस्थ देख लोगों की बुरी नजर से बचाते हैं, वैसे ही हरखू और बुधिया अपनी फसल को लेकर डरते थे वे सब्जियों को पुआल से ढँकते, कुछ को पत्तों के नीचे ढँक देते जिससे लोगों की नजर सीधे सब्जियों पर न पड़े।
इस बार फसल इतनी अच्छी थी कि हरखू की सारी परेशानी दूर हो जानी थी, प्रधान का कर्जा भी चुकता हो जाएगा और भगवान ने चाहा तो इस बार  बैलों का एक जोड़ा खरीद लेगा फिर उसे परिवार के साथ हाथ से गुड़ाई नहीं करनी पड़ेगी।
"अरे हरखू भैया कुछ सुना? प्रधान कह रहे थे कि सरकार के खिलाफ किसान आंदोलन शुरू हुइ गवा है, तो कोई किसान अपना फल, सब्जी और दूध मंडी में नाहीं बेचेगा।" दयाल ने हरखू को खेत से सब्जी तोड़ते देखकर कहा।
"का कहि रहे हो भइया, अइसा कइसे होइ सकत है, अगर हम मंडी में बेचेंगे नाहीं तो हमार काम कइसे चलिहै?" हरखू की मानो किसी ने साँस रोक दी हो।
"भइया सही कहि रहे हो, हमने तो जो सुना वही बता दिए, हम लोगन को का लेना-देना ई आंदोलन-वांदोलन से, हम अपना काम करि रहे, हमें कुछ नाही चाहिए सरकार से।" दयाल ने कहा।
"हाँ भइया जिसे जो करना होय करे, हमें कोई मतलब ना है इन सब बातन से।" कहते हुए हरखू सब्जी तोड़ने लगा, उसे सवेरे सब्जी लेकर मंडी जाना था इसलिए जितनी सब्जियाँ वह ले जा सकता था उतनी तोड़ लेना चाहता था।
हरखू अपने बेटे हरीचंद के साथ बड़ी-बड़ी दो टोकरियों को सब्जियों से भरकर सुबह मुँह अंधेरे ही मंडी के लिए निकल गया था। बुधिया बची हुई सब्जियों की मिट्टी साफ करके दूसरी टोकरी में सजा रही थी कि हरखू जब आएगा तो इन्हें भी पास में लगने वाले बजार में जाकर बेच आएगा। तभी हरखू और हरीचंद आ गए। बाल अस्त-व्यस्त, पसीने से तर-बतर, आँखें लाल-लाल हो रही थीं, हरखू की कमीज़ कंधे से फटकर लटक रही थी।
"अरे, ये का हुआ? कैसी दशा बनाए हो ई तुम दोनों?" कहती हुई बुधिया दौड़ी।
हरखू धड़ाम से निढाल होकर वहीं जमीन पर बैठ गया और सिर पकड़ कर फफक कर रो पड़ा। हरीराम भी वहीं बैठकर रोने लगा।
"अरे काहे रोय रहे हो तुम दोनो़ कुछ तो बतावो, हमार जी बइठा जा रहा है।" बुधिया ने घबराकर पूछा। बाबा और भाई को रोते देख गौरी भी खुद को संभाल न सकी वह भी वहीं बैठकर रोने लगी।
"हम बर्बाद होइ गए हरी की माँ, ई किसान आंदोलन ही हम किसानों की जान की दुश्मन होय गई है, अरे हमें का लेना-देना ई सबसे, लेकिन नाहीं, ई नेता लोगन अपने-अपने गुंडा छोड़ रक्खे हैं, जबरजस्ती हम लोगन के सब्जी, फल सब छीनके सड़कन पर फेंक रहे हैं और हमें धमका के मारपीट के भेज दिये।" हरखू कहते-कहते बिलख कर रोने लगा। उसे अपनी सारी जरूरतें सारे सपने किसान आंदोलन की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे थे।
"हे भगवान अब हम लोग का करेंगे, अगर ऐसे ही कुछ दिल चलत रहा तो हम लोगन के तो सारी फसल, सारी लागत बर्बाद होइ जाई, कर्जा कहाँ से चुकाएँगे, मर जाएँगे हम तो।"  कहते हुए बुधिया बिलख-बिलख कर रोने लगी। जहाँ कुछ देर पहले खुशियाँ और आशाएँ और आने वाले दिनों कों लेकर उत्साह और सुनहरे स्वप्न थे वहाँ अब मातम का माहौल था।
मालती मिश्रा✍️

कहानी हरखू की

कहानी हरखू की
सूरज सिर पर चढ़ आया था लेकिन हरखू और उसका परिवार खेत से घर जाने का नाम ही न ले रहे थे तभी दीना की आवाज आई "अरे हरखू भइया दुपहरी हुई गई काहे धूप में जले जात हो, चलो अब साँझ को आना जूड़े-जूड़े में कर लिहो।"
"हाँ भाई तुम चलौ हम अबहीं आय रहे।" कहकर हरखू फिर खेत की गुड़ाई करने लगा। उसके साथ उसका चौदह वर्ष का बेटा हरीचंद भी कुदाल से खेत को गोड़ कर अपने बाबा का हाथ बँटा रहा था, हरखू की पत्नी बुधिया और 12 वर्ष की बेटी गौरी खुदी हुई मिट्टी से घास निकाल-निकाल कर खेत के एक कोने में ढेरी बना रही थीं ताकि जब वो सारी घास सूख जाएगी तो उसे जला देंगे।
हरखू के पास न बैल थे और न ही इतने पैसे कि वह किराया देकर ट्रैक्टर से खेत की जोताई करवा पाता, इसीलिए उसने ये दो बीघा खेत हाथों से ही खोदने(गोड़ने) का निश्चय किया। इसे गोड़कर घास साफ करके तब सिंचाई करवा कर इसमें सब्जी लगाएगा। सिंचाई के लिए भी तो पैसा चाहिए, सोचकर हरखू दुखी हो गया, फिर सोचा, अब सिंचाई बिना तो सब्जी उगेगी नहीं, जैसे-तैसे करवाना है ही।
प्यास से गला सूख रहा था, थूक सटकते हुए हरखू ने खेत की मेंड़ पर रखी छोटी सी बाल्टी की ओर देखा और बेटी को आवाज लगाते हुए बोला- "गौरी देख बेटा पानी है का? गला सूखा जा रहा है।"
गौरी झट से बाल्टी के पास गई और बाल्टी और गिलास लेकर हरखू के पास गई पानी थोड़ा ही था, बोली- "बाबा लो इसे पी लो हम अबहीं और भरे लाते हैं।" वो बगीचे के कुएँ से पानी भर लाई और पानी पीकर पूरा परिवार फिर काम में लग गया। उनकी काम में तल्लीनता देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आज ही सारा काम खत्म करना उनकी जिद और मजबूरी है।
दोपहर के दो बज गए चिलचिलाती धूप में काम करते-करते पूरा परिवार बेहाल हो गया तब घर की ओर चल दिए।
"पाँच दिन होइ गए, आज चाहे रात होइ जाय पर काम खतम करे क है, कल सब्जी लगाकर खेतन मा नमी लायक  सिंचाई करवा लिहैं।" हरखू ने कहा।
"पर ए जी सिंचाई के लिए पैसे कहाँ हैं हम लोगन के पास!" पत्नी बोली।
"पैसे तो नाही हैं पर किए बिना तो काम न चलिहै, हाथ पैर जोड़के सिंचाई तो करवान क परिहै। फसल होवे के बाद दै दिहैं।" हरखू मायूसी भरे स्वर में बोला।
जो काम बैलों से दो दिन में, ट्रैक्टर से कुछ घंटों में हो जाता, हरखू इन दोनों के अभाव में वही काम हाथों से लगातार पाँच दिनों से रोज के अट्ठारह घंटे पूरे परिवार के साथ कर रहा है। दो घंटे आराम करके हरखू का परिवार फिर चार बजे से खेत में पहुँच गया और फिर उसी क्रम में खेत की गुड़ाई शुरू कर दिया हरखू या हरीचंद थक कर कुछ देर के लिए बैठ जाते तो उसकी पत्नी और बेटी कुदाल लेकर गोड़ने लगतीं। बाप-बेटे दोनों के हाथों में छाले पड़कर फूट भी चुके थे, फिर भी दोनों हाथों में कपड़ा बाँधकर खेत की सख्त हो चुकी मिट्टी को खोदकर सब्जी उगाने लायक बना रहे थे। हाड़तोड़ मेहनत के बाद रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक हरखू और उसका परिवार काम पूरा करके घर लौटा। उनके चेहरों पर संतोषजनक थकान नजर आ रही थी।
हरखू के सामने अब एक नया लक्ष्य मुँह बाए खड़ा था। वह सोच रहा था कि प्रधान को सिंचाई के लिए कैसे राजी करेगा। वह मिन्नतें करके मान तो जाएँगे, पर पहले बहुत हीला-हवाली करेंगे। बहुत चिरौरी करनी पड़ेगी, हरखू का आत्मसम्मान भी आहत होगा, पर इसके बिना गुजारा नहीं है। फसल नहीं उगाएँगे तो खाएँगे क्या? बच्चों को पढ़ाएँगे कैसे? रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी होंगीं? खुले आसमान के नीचे तारों को देखते हुए उसके दिमाग में ऐसे न जाने कितने ही सवालों के चक्रव्यूह बनते जा रहे थे। हरखू के पास कोई जवाब न था सिवाय इसके कि वह प्रधान की चिरौरी करके उधारी पे सिंचाई करवाए।
अपनी शर्म को घर पर छोड़ हरखू ने मिन्नतें करके जैसे-तैसे खेत की सिंचाई की और पूरे परिवार ने मिलकर खेत में आलू, टमाटर, प्याज और कुछ मौसमी सब्जियाँ भी लगा दिया। बारी-बारी से पूरा परिवार देखभाल करता, दुबारा पानी की आवश्यकता हुई पर अब तो भगवान भी हरखू और उसके परिवार की मेहनत से प्रसन्न हो गए थे इसलिए इंद्रदेव की कृपा से उसे दुबारा सिंचाई के लिए किसी की चिरौरी नहीं करनी पड़ी। जैसे-जैसे सब्जियों की फसल खेत की क्यारियों में फैलती जाती उसकी हरियाली के साथ-साथ हरखू का मन भी हरा होता जाता। अब वह अधिक सावधान रहने लगा था किसी के मवेशी न घुस जाएँ खेत में। कभी कोई मूली खीरा आदि न चुरा ले.... अब हरखू एक पल को भी खेत को बिना निगरानी के न छोड़ता। दोपहर में भी खेत के पास वाले बगीचे में छाँव में खटोली (छोटी चारपाई) डालकर उसी पर लेटे-लेटे खेत पर ही नजर रखता। रात को भी खेत में ही एक कोने में वही खटोली डालकर सोता, जरा सा भी खटका होते ही नींद खुल जाती और जब आस-पास चारों ओर देखकर आश्वस्त हो जाता तब फिर सो जाता। सुबह-शाम शौच, नहाने-धोने व अन्य किसी काम से कहीं जाना होता तो बुधिया को रखवाली के लिए छोड़ जाता। बेटे पर भरोसा नहीं था, बालक बुद्धि है कहीं खेल में लग गया तो?
पूरे परिवार की मेहनत और देखभाल से फसल भी बेजोड़ हुई। हरखू और बुधिया एक-एक सब्जी को बड़े ही प्यार से पोस रहे थे, जिस प्रकार माता-पिता बच्चों को प्यार से पालते-पोसते हैं, उन्हें स्वस्थ देख लोगों की बुरी नजर से बचाते हैं, वैसे ही हरखू और बुधिया अपनी फसल को लेकर डरते थे वे सब्जियों को पुआल से ढँकते, कुछ को पत्तों के नीचे ढँक देते जिससे लोगों की नजर सीधे सब्जियों पर न पड़े।
इस बार फसल इतनी अच्छी थी कि हरखू की सारी परेशानी दूर हो जानी थी, प्रधान का कर्जा भी चुकता हो जाएगा और भगवान ने चाहा तो इस बार  बैलों का एक जोड़ा खरीद लेगा फिर उसे परिवार के साथ हाथ से गुड़ाई नहीं करनी पड़ेगी।
"अरे हरखू भैया कुछ सुना? प्रधान कह रहे थे कि सरकार के खिलाफ किसान आंदोलन शुरू हुइ गवा है, तो कोई किसान अपना फल, सब्जी और दूध मंडी में नाहीं बेचेगा।" दयाल ने हरखू को खेत से सब्जी तोड़ते देखकर कहा।
"का कहि रहे हो भइया, अइसा कइसे होइ सकत है, अगर हम मंडी में बेचेंगे नाहीं तो हमार काम कइसे चलिहै?" हरखू की मानो किसी ने साँस रोक दी हो।
"भइया सही कहि रहे हो, हमने तो जो सुना वही बता दिए, हम लोगन को का लेना-देना ई आंदोलन-वांदोलन से, हम अपना काम करि रहे, हमें कुछ नाही चाहिए सरकार से।" दयाल ने कहा।
"हाँ भइया जिसे जो करना होय करे, हमें कोई मतलब ना है इन सब बातन से।" कहते हुए हरखू सब्जी तोड़ने लगा, उसे सवेरे सब्जी लेकर मंडी जाना था इसलिए जितनी सब्जियाँ वह ले जा सकता था उतनी तोड़ लेना चाहता था।
हरखू अपने बेटे हरीचंद के साथ बड़ी-बड़ी दो टोकरियों को सब्जियों से भरकर सुबह मुँह अंधेरे ही मंडी के लिए निकल गया था। बुधिया बची हुई सब्जियों की मिट्टी साफ करके दूसरी टोकरी में सजा रही थी कि हरखू जब आएगा तो इन्हें भी पास में लगने वाले बजार में जाकर बेच आएगा। तभी हरखू और हरीचंद आ गए। बाल अस्त-व्यस्त, पसीने से तर-बतर, आँखें लाल-लाल हो रही थीं, हरखू की कमीज़ कंधे से फटकर लटक रही थी।
"अरे, ये का हुआ? कैसी दशा बनाए हो ई तुम दोनों?" कहती हुई बुधिया दौड़ी।
हरखू धड़ाम से निढाल होकर वहीं जमीन पर बैठ गया और सिर पकड़ कर फफक कर रो पड़ा। हरीराम भी वहीं बैठकर रोने लगा।
"अरे काहे रोय रहे हो तुम दोनो़ कुछ तो बतावो, हमार जी बइठा जा रहा है।" बुधिया ने घबराकर पूछा। बाबा और भाई को रोते देख गौरी भी खुद को संभाल न सकी वह भी वहीं बैठकर रोने लगी।
"हम बर्बाद होइ गए हरी की माँ, ई किसान आंदोलन ही हम किसानों की जान की दुश्मन होय गई है, अरे हमें का लेना-देना ई सबसे, लेकिन नाहीं, ई नेता लोगन अपने-अपने गुंडा छोड़ रक्खे हैं, जबरजस्ती हम लोगन के सब्जी, फल सब छीनके सड़कन पर फेंक रहे हैं और हमें धमका के मारपीट के भेज दिये।" हरखू कहते-कहते बिलख कर रोने लगा। उसे अपनी सारी जरूरतें सारे सपने किसान आंदोलन की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे थे।
"हे भगवान अब हम लोग का करेंगे, अगर ऐसे ही कुछ दिल चलत रहा तो हम लोगन के तो सारी फसल, सारी लागत बर्बाद होइ जाई, कर्जा कहाँ से चुकाएँगे, मर जाएँगे हम तो।"  कहते हुए बुधिया बिलख-बिलख कर रोने लगी। जहाँ कुछ देर पहले खुशियाँ और आशाएँ और आने वाले दिनों कों लेकर उत्साह और सुनहरे स्वप्न थे वहाँ अब मातम का माहौल था।
मालती मिश्रा✍️

सोमवार

सुप्रभात🙏🏵️🙏
🌺🌿🌺 🍁🌷🍁 🌻🍂🌹🏵️
अलसाए मन के अंधियारे से
प्रात की स्फूर्ति का हुआ जो मिलन
नव आस जगा मन मुदित हुआ
पाकर नव प्रभा का आचमन
पूरब में क्षितिज सिंदूरी हुआ
दिवापति दिनकर का हुआ आगमन।
फैली  स्वर्णिम आभा चहुँदिश
दमक उठा धरती और गगन
निस्तेज निष्प्राण हो चुके थे जो तत्व
पुलक उठे पाकर नव जीवन
🌺🌿🌺🍁🌹🍁🌸🌷🌸🍂🌱🏵️
#मालतीमिश्रा, दिल्ली

रविवार

मन में उमंगें छाएँ मन हुलसा सा जाए
काली रात बीती छाई अरुण की लाली है।।

फुनगी पे ओस कण मोती से दमक रहे
जी भर के रोई मानो जाती रात काली है।।

हरी-हरी चूनर पे कुसुम के मोती सजे
देख दिनेश धरा ने चुनरी संभाली है।।

कुसुम कुमुदिनी पे मधुप गुंजार करे
कुहुक कुहू कोयल गाए मतवाली है।।

मालती मिश्रा, दिल्ली

शनिवार

ससुराल

ससुराल
ससुराल
निधि कमरे में बैठी मैगजीन के पन्ने पलट रही थी पर मैगजीन पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लग रहा था, उसका ध्यान तो बाहर हाल में से आ रही आवाजों पर था....जहाँ उसके ससुर जी, सासू माँ और बड़ी ननद सरला के बीच बातचीत हो रही थी। बातचीत भी कहाँ सीधे-सीधे फैसला सुनाया जा रहा था। आज दोपहर ही उसकी ननद दोनों बच्चों के साथ ससुराल से आई हैं। शाम को पापा(ससुर) स्कूल से आए और अपनी बेटी को देखते ही बोले- "तुम क्यों आईं और बच्चों को भी ले आईं!"
दरवाजे के पीछे खड़ी निधि ऐसे चौंक गई मानो गर्म तवे पर पैर पड़ गए हों, वह हतप्रभ थी कि ससुराल से आई हुई बेटी को देखकर कोई पिता ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है! वह अभी दो महीने पहले ब्याह कर आई थी तो इस घर की प्रथा के अनुसार अभी वह ससुर और घर के अन्य पुरुषों के सामने बिना घूँघट किए बाहर नहीं आती थी, अतः वह वहीं कुर्सी खिसका कर बैठ गई उनकी बातें सुनने के लिए..तब उसे पता चला कि सरला की सास ने उसके गहने अपनी बेटी के लिए माँगे तो सरला ने कह दिया कि बाकी सारे तो आप ले चुके हैं बस ये दो कंगन बचे हैं इन्हें वह नहीं देगी। इसी बात के लिए उसकी सास ने और न जाने क्या-क्या बातें जोड़कर उसकी शिकायत अपने बेटे से की और माँ-बेटे ने मिलकर उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया।
"बड़ों के सामने जबान चलाओगी तो ऐसा तो करेंगे ही।"
उधर ससुर जी की आवाज आई और इधर निधि काँप सी गई। पढ़े-लिखे होकर ऐसे विचार रखते हैं...
"पर पापा मेरी क्या गलती थी मेरे सारे गहने तो ले चुके, जो यहाँ से मिले थे, वो भी।" सरला बोली।
"जो भी हो शादी के बाद बेटी पर माँ-बाप का कोई हक नहीं रह जाता, और ये रोज-रोज छोटी-छोटी बातों पर यहाँ मत चली आया करो, नहीं तो तुम्हें देखकर हमारी बहू भी ऐसा ही करना शुरू कर देगी, इसीलिए जैसे आई हो कल वैसे ही चली जाना।" कहकर पापा जी वहाँ से उठकर बाहर जाने लगे।
निधि को आश्चर्य हो रहा था कि माँ बीच में एक शब्द भी नहीं बोलीं उन्होंने एकबार भी अपनी बेटी का पक्ष नहीं लिया, क्या सिर्फ इसलिए ताकि भविष्य में वो अपनी पुत्रवधू पर इस प्रकार का शासन कर सकें। सरला रोती हुई निधि के कमरे में आ गई और निधि के गले लगकर फफक कर रो पड़ी। निधि ने सरला को स्वयं से अलग किया और सिर पर घूँघट ठीक करती हुई बाहर आ गई और बोली-
"पापा जी, दीदी कहीं नहीं जाएँगीं, ये उनका भी घर है।"
सुनते ही उनके पैर अपनी जगह मानो चिपक गए हों।
"क्या कर रही है बहू, तू चुपचाप कमरे में जा।" उसकी सास हड़बड़ाकर बोलीं।
"निधि ठीक कह रही है माँ, दीदी अब अपनी ससुराल ऐसे नहीं जाएगी।" नीलेश ने हॉल में प्रवेश करते हुए कहा।
मालती मिश्रा, दिल्ली

मंगलवार

आखिरी रास्ता

आखिरी रास्ता
सूर्य अस्तांचल की ओर जा रहा था और गाड़ी विपरीत दिशा में भागी जा रही थी। घूँघट में सहमी सिकुड़ी सी कमला अपने सपनों की दुनिया छोड़ एक ऐसी दुनिया बसाने जा रही थी जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। ऐसे अनचाहे भविष्य के लिए उसके सपनों की बलि दे दी गई थी, इसीलिए आज ससुराल जाते हुए उसे माँ-बाबा व परिवार के अन्य सदस्यों के लिए दुख नहीं हुआ। वह विदाई के समय रोई नहीं सिर्फ गले लगी और चल दी अपनी बलिबेदी की ओर। उसे अब भी याद है वो दिन..... जब सोचते हुए कमला अतीत की गहराई में डूबती चली गई.....

अभी सुबह के ग्यारह-बारह बजे होंगे लेकिन जेठ का महीना है, गर्मी अपने चरमोत्कर्ष पर है। इस समय भी धूप ऐसी चिलचिलाती हुई महसूस हो रही थी मानो सूर्यदेव शोले बरसा रहे हों। गेहूँ के फसल की कटाई हो चुकी थी, दवनी करके अनाज भी सबके घरों में आ चुके थे, तो खेत-खलिहान सब खाली हो चुके थे। दूर-दूर जहाँ तक नजर जाती खाली खेतों के आर-पार सिवाय चमकती धूप के कुछ भी नजर न आता, हाँ गाँव के पश्चिम दिशा में जरूर बीच-बीच में कहीं-कहीं इक्का-दुक्का खेतों में लहलहाते गन्ने  नजरों को अवरुद्ध कर रहे थे।
इतनी तेज धूप में लोग या तो घरों में या फिर घरों के बाहर घने पेड़ों की ठंडी छाया में बैठे मिलते, लगभग सभी घरों के पुरुष इस समय गाँव के बाहर पश्चिम की ओर चार-पाँच बड़े-बड़े पेड़ वाले छोटे से बगीच में तथा कुछ गाँव के उत्तर दिशा मे इसी तरह के एक छोटे बगीचे में बैठकर गप-शप या ताशबाजी करते। बहुत से पुरुष, युवा और बच्चे तो गाँव से पश्चिम दिशा की ओर कुछ दूरी पर उस बड़े और घने बगीचे में ही सुबह से शाम तक पूरा दिन गप-शप करते, तरह-तरह के खेल खेलते हुए बिता देते, जो गाँव वालों का साझा था। गर्मी से बचने का इससे अच्छा साधन कुछ नहीं था।
रोज की यही दिनचर्या थी , लेकिन आज कमला को घर का माहौल कुछ बदला सा महसूस हो रहा था, घर की औरतों में कुछ ऐसी सुगबुगाहट महसूस हो रही थी जो कमला की उत्सुकता को बढ़ा रही थी। उसने देखा कि माँ शरबत बना रही हैं घर में नींबू नहीं था तो किसी पड़ोसी के घर से माँग कर लाईं, शरबत के साथ भूजा (चावलों को रेत में भूनकर बनाए गए मुरमुरे) लेकर दादी को भेजा फिर खुद भी पीछे-पीछे गईं, और घर के दाईं ओर जो पड़ोस का घर है, उस घर के सामने छोटा सा बगीचा है, कमला का घर उस घर के पीछे की ओर है। उसी बगीचे में शायद कोई मेहमान हैं, पर मेहमान हैं तो घर पर क्यों नहीं आए? कमला के मस्तिष्क में सवाल कौंधा, फिर हर बार जब भी कोई मेहमान आते तो आवभगत की सारी तैयारी तो कमला ही करती थी पर आज तो उससे किसी ने कुछ कहा ही नहीं उलटा छिपाने का प्रयास करते दिख रहे हैं। वो माँ के पीछे-पीछे चुपचाप जाने लगी तो माँ ने रोक दिया-
"कहाँ जा रही हो? घर में कोई नहीं है, घर में रहो।"
वह वहीं बरामदे के कोने पर ही रुक गई और माँ को जाते हुए देखती रही, वहाँ से मेहमान तो दिखाई नहीं दे रहे थे शायद वो बगीचे में यहाँ से काफी दूरी पर बैठे थे। कमला ने देखा माँ पड़ोसी के बरामदे में ईंटों से बने खंभे की आड़ में खड़ी हो गईं और पड़ोस की ही महिला (जिन्हें कमला बड़ी माँ बोलती थी) ने दादी के हाथ से शरबत और भूजा ले लिया और लेकर बगीचे में उस ओर बढ़ गईं जहाँ दो चारपाइयों पर कुछ पुरुष बैठे थे, कमला के बाबा भी, उनमें थे एक-दो लोगों को वह पहचानती भी नहीं, वह चुपचाप वापस घर के भीतर आ गई। अब उसे कुछ-कुछ शुबहा होने लगी कि शायद ये उसकी ससुराल से आए हुए मेहमान हैं।
उसके गाँव की यही रीत है कि समधन अपने समधी के सामने नहीं जा सकती, शायद इसीलिए माँ छिप रही थीं। पर वो क्यों आए होंगे? उसकी शादी को कितने साल हो गए उसे खुद याद नहीं पर अभी तक गौना नहीं हुआ है और अभी होना भी नहीं फिर क्यों आए, इन्हीं सवालों में डूबती-उतराती उसे नींद आ गई।

कुछ लोगों की मिली जुली अस्पष्ट सी आवाजें उसको बहुत दूर से आती हुई लग रही थीं, वो आपस में एक दूसरे से झगड़ रहे थे या बात कर रहे थे कुछ भी स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ रहा था। कमला बार-बार सुनने का प्रयास करती लेकिन वह जितना कोशिश करती आवाजें उतनी ही दूर होती जातीं। तभी माँ की अस्फुट सी आवाज आई शायद वो कह रही थीं- "लेकिन गौना अभी कैसे कर सकते हैं?" "गौना" यह शब्द सुनते ही कमला हड़बड़ाहट में उठ बैठी...अब उसे महसूस हुआ कि वह कच्ची नींद में ही उन आवाजों को सुन रही थी जो उसे समझ नहीं आ रही थीं। अब वह चुपचाप लेटकर सबकी बातें सुनने लगी। उसे ज्ञात हुआ कि उसके ससुर गौना की तारीख तय करने आए थे और उसके बाबा ने प्रस्ताव मान लिया था।
कमला की आँखों से आँसू छलक आए वह तो अभी पढ़ना चाहती थी, उसने अपनी इच्छा माँ-बाबा को भी बताई थी, फिर क्यों बाबा ने उसकी बात नहीं मानी। बाबा के सामने वैसे तो उसकी हिम्मत न होती थी कि उनके फैसले के विरुद्ध वह मुँह खोले पर आज बात उसके पूरे जीवन की है। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा डाँटेंगे कोई बात नहीं, अगर वो मुझे दो थप्पड़ भी लगा दें फिर मेरी बात मान लें तो भी मैं सहने को तैयार हूँ, ऐसा सोचकर वह बरामदे में आ गई जहाँ माँ-बाबा, दादी और चाचा-चाची बैठे थे। "बाबा!" उसने पुकारा।
"हाँ, बोलो!" बाबा ने कहा
"मुझे अभी पढ़ना है।"
"दसवीं तक पढ़ा दिया, चिट्ठी-पत्री लिख लेती हो अब कौन सी तुमसे नौकरी करवानी है जो आगे पढ़ोगी?" बाबा ने कहा।
कमला को आश्चर्य हुआ कि बाबा ने डाँटा नही जैसा कि उसे उम्मीद थी, अब उसका साहस और बढ़ा उसने कहा- "बाबा दसवीं से क्या होता है, मुझे तो बी०ए० करना है।" वह आगे कहना चाहती थी कि उसका गौना-वौना न करवाएँ पर वह साहस न कर सकी, तभी दादी बोल पड़ीं- "यहाँ हम गौने का दिन तय कर रहे हैं और तुम जिंदगी भर पढ़ना चाहती हो, बहुत पढ़ चुकीं, हमारे गाँव में कोई लड़की इतना नही पढ़ती, चलो अंदर जाओ।"
अपनी बेबसी पर कमला की आँखें भर आईं वह आँसू पोछती हुई भीतर चली गई। उसका मन कर रहा था कि वह खुद बगीचे में चली जाए और मेहमानों से कह दे कि वह अभी पढ़ना चाहती है तो गौना के लिए वो लोग पाँच साल बाद आएँ, पर उसे अपने बाबा के सम्मान की भी परवाह थी। बार-बार माँ यही सिखाया करती थीं कि बेटा कोई ऐसा काम मत करना जिससे तुम्हारे बाबा का सिर झुके।
जैसे-जैसे दिन बीतता जाता कमला की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, वह क्या करे, कैसे समझाए सबको? उसका मन बगावत करने लगा...नहीं मैं नहीं जा सकती ससुराल, मुझे कुछ तो करना होगा, सोचती हुई वह कमरे में इधर से उधर टहल रही थी तभी माँ ने कहा- "ये टोकरी वाला चिड़वा एक थैले में, दूसरे में भूजा रख दो। तब तक मैं बाकी सामान रख रही हूँ।" कमला के दिमाग में बिजली सी कौंध गई उसने झट से एक चिट्ठी लिख डाली अपने ससुर के लिए कि वह अभी गौना नहीं चाहती। और चिड़वे के बीच में रख दिया। उसने सोचा था कि उसके ससुर शायद उसकी भावनाओं को समझ सकें और स्वयं गौना कुछ सालों के लिए टाल दें तो बाबा को पढ़ाने के लिए मना लेगी।
 माँ-बाबा बहुत देर के गए हुए हैं अब तक तो मेहमान भी जा चुके होंगे, फिर अब तक आए क्यों नहीं? कहीं उसकी चिट्ठी बाबा के हाथ तो नहीं लग गई, सोचते ही उसके बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई। तभी बाहर से बोलने की आवाजें आने लगीं वह समझ गई कि सभी आ चुके हैं। वह गिलास में पानी डाल रही थी कि सबको बाहर ले जाकर देगी तभी माँ आईं और उसको बाजू से पकड़कर लगभग घसीटते हुए दूसरे कमरे में ले गईं । और दबी आवाज में फुँफकार कर बोलीं- "क्या किया तूने कुछ पता भी है? तू चिट्ठी भेज रही थी?"
कमला के पैरों तले मानो जमीन निकल गई फिर अगले ही पल वह संभलते हुए बोली-
"पर माँ मैंने आप लोगों से भी तो कहा था आप लोग ही नहीं माने तो मेरे पास और कोई रास्ता नहीं बचा।"
"रास्ता नहीं बचा...तेरे बाबा को पता चलता न तो आज ही तुझे जमीन में गाड़ देते, वो तो अच्छा है कि मैंने देख लिया।" माँ दाँत पीसती हुई बोलीं।
कमला ने राहत की सांस ली कि बाबा को पता नहीं चला पर अगले ही पल वह निढाल होकर वहीं धम्म से बैठ गई जब उसे यह अहसास हुआ कि अब उसका आखिरी रास्ता भी बंद हो गया।
#मालतीमिश्रा, दिल्ली


छवि आधारित घनाक्षरी

देश का बढ़ाया मान, टीम का है अभिमान
क्रिकेट का बादशाह, माही कहलाता है।।

पिता का बढ़ाया मान, राँची की वो पहचान
विश्वकप का विजेता, देश को बनाता है।।

शान्त चित्त रहा सदा, क्रोध जतलाता नहीं
अंतस का जोश सब, खेल में दिखाता है।।

आदर्श पुत्र व भाई, आदर्श पिता व पति
सभी रिश्तों को भी वह, दिल से निभाता है।।
मालती मिश्रा, दिल्ली

रविवार

सुप्रभात🙏

अंधकार मिट रहा निशिचर छिप रहे
पूरब दिशा में फैली अरुण की लाली है।

तेज को मिटाने वाली निराशा जगाने वाली
बुराई की परछाई गई रात काली है।

तारागण छिप गए चाँद धुँधला सा हुआ
जाती हुई रजनी का हाथ अब खाली है।

सभी प्राणी जाग रहे आलस को त्याग रहे
पुरवा पवन देखो बही मतवाली है।।
मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

शनिवार

लीला भाभी

लीला भाभी
लघु कथा

शुचि घर के काम जल्दी-जल्दी निपटा रही थी उसे नौ बजे कॉलेज के लिए निकलना था, दस बजे से उसकी पहली क्लास होती है इसलिए वह सुबह पाँच बजे ही उठ जाती है, पापा आठ बजे ऑफिस के लिए निकल जाते हैं, वह नौ बजे और भाई साढ़े नौ बजे निकलते हैं, इसीलिए आठ बजे तक नाश्ता खाना सब बनाकर, पापा का टिफिन तैयार करके और उसके बाद सबके नाश्ते के बर्तन साफ करके फिर तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल जाया करती। जब तक माँ नहीं होतीं यही रूटीन चलता, उनके गाँव से वापस आते ही शुचि आजाद हो जाती।
वह अपना बैग लेकर गेट से बाहर निकली ही थी कि पड़ोस में रहने वाली मीनू लगभग दौड़ते हुए ही आई और हाँफते हुए बोली-
"लीला भाभी ने आग लगा ली।"
"क्या!" शुचि उछल ही पड़ी।
"कौन सी लीला भाभी? वो अपनी गुड़िया की भाभी?" शुचि को खुद नहीं समझ आया कि वह क्या बोल रही है क्योंकि लीला नाम की किसी अन्य स्त्री को वह जानती भी नहीं, फिरभी उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है।

"अरे हाँ वही, अभी पूरा परिवार अस्पताल में है।" मीनू ने कहा।
"लेकिन क्यों? वो तो इतनी स्वीट..." शुचि ने बात अधूरी छोड़ दी। फिर तुरंत ही बोल पड़ी- "अभी ठीक तो हैं?.. या..."
मीनू उसकी अनकही बात समझ गई और बोली- "अभी तक तो शायद जिन्दा हैं।"
"पर उन्होंने ऐसा क्यों किया?" शुचि ने प्रश्न किया।
कौन जाने? मैं कल शाम को जब उनके घर गई थी तो सब ठीक था, वो प्रेगनेंट हैं, इसलिए उस समय अल्ट्रासाउंड करवा कर आई थीं।" मीनू ने कहा
"अल्ट्रासाउंड क्यों?" उसके मुँह से अनायास निकला।
"ये जानने के लिए कि लड़का है या लड़की? पर इस बार भी लड़की है, तो सबके चेहरे उतर गए थे।" मीनू ने कसैला सा मुँह बनाकर कहा।
"कहीं इसीलिए तो नहीं...? उसने बात अधूरी छोड़ दी।
पता नहीं पर पड़ोस वाली आंटी कह रही थीं कि कुछ कहासुनी तो शायद हुई थी, लेकिन सबने पुलिस को ये बयान दिया है कि दूध गरम करते हुए स्टोव फट गया था।" मीनू ने बताया।
शुचि वापस अंदर आ गई और निढाल सी होकर सोफे पर धम्म से बैठ गई।
उसकी आँखों के समक्ष लीला भाभी का वह मासूम और शालीन सा चेहरा तैर गया। छरहरी सी काया, बड़ी-बड़ी आँखें, पतले-पतले मांसल से होंठ, पतली नुकीली नाक, पतली नाजुक सी कमर, सुराही दार गर्दन जैसे चित्रकार ने बड़ी लगन से बनाया हो उन्हें, बस रंग भरते समय शायद उसके पास रंग खत्म हो गए इसलिए काले रंग में भूरा रंग मिलाकर जैसे-तैसे कोयले की कालिमा से उबार लिया था, परंतु काली होने के बाद भी गजब का आकर्षण था। उन्हें देखकर ऐसा लगता कि शायद ईश्वर ने उनका रंग इतना इसलिए दबा दिया ताकि बैलेंस बराबर रहे नहीं तो कितनी ही सुंदरियाँ डाह के मारे मर जातीं। इतने शारीरिक सौंदर्य के बाद सोने पर सुहाग उनका स्वभाव था।  साड़ी का पल्ला कभी भी ललाट से ऊपर नहीं होता, जब भी घर से बाहर निकलतीं तो घूँघट नाक तक होता, बमुश्किल कभी-कभी ठुड्डी या होंठ दिख जाते, घर के भीतर भी साड़ी का पल्ला कभी माथे से ऊपर नहीं होता। यूँ तो दो बेटियाँ हैं उनकी परंतु उन्हें देखकर कोई अनुमान नहीं लगा पता कि उनके बच्चे भी होंगे।
उनके घर में नल नहीं था तो पानी के लिए गली के नुक्कड़ पर लगे सरकारी नल पर आती थीं, सबसे बड़े ही प्यार से बोलतीं। पूरे मुहल्ले की लड़कियों की फेवरिट भाभी थीं। बस अपनी पाँच छोटी ननदों की फेवरिट नहीं बन पाईं। उनकी ननदों की सहेलियाँ तो कितनी ही बार ननदों से मिलने के बहाने सिर्फ उनसे ही मिलने जाया करतीं और उनसे कभी कुरोशिया की बुनाई तो कभी कढ़ाई सीखतीं। सास-ससुर, पति, देवर, पाँच ननदें, भरा-पूरा परिवार था पर पूरे घर का काम अकेली ही करतीं। साथ ही ननदों और सास की तानाशाही भी बर्दाश्त करतीं पर मजाल था जो होंठों से मुस्कान लुप्त होने दें। शुचि और उनके परिवार का आपस में मेल-मिलाप कुछ ज्यादा ही था, इसीलिए कभी-कभी मौका पाकर वह अपनी आपबीती शुचि की माँ को बता लिया करतीं, कभी-कभी मौका पाकर उन्होंने शुचि से भी उसकी सहेली यानि अपनी ननद जो बहनों में बड़ी है उसके अनुचित व्यवहार का जिक्र करके अपने मन का बोझ हल्का कर लिया करतीं।
उसे याद आया एक बार वह शाम को उनके घर गई तो वह फूँकनी से चूल्हा फूँक रही थीं, जुलाई या अगस्त का चिपचिपाहट वाला मौसम था, पूरी रसोई धुएँ से भरी थी, वो पसीने से तर-बतर थीं, आँखें लाल हो रही थीं।
शुचि ने कहा- "क्या बात है भाभी, चूल्हा क्यों नहीं जल रहा?"
कंडे (उपले) गीले हैं न बड़ी मुश्किल से जलते हैं।" उन्होंने कहा।
"क्यों गीले उपले क्यों जला रही हो, सूखे खतम हो गए क्या? फिर तो पूरे बरसात में बड़ी परेशानी होगी।" शुचि ने सहानुभूति जताया।
"खतम तो नहीं हुए हैं, आपकी सहेली मुझे गीले उपले ही देती हैं खाना बनाने के लिए, कोठरी में पीछे की ओर सारे सूखे उपले रखे हैं एक दिन मैंने उसमें से निकाल लिया खाना बनाने को, तो जब उन्होंने देखा कि चूल्हा बहुत अच्छे से जल रहा है तो रसोई में आईं और एक उपला तोड़कर देखा, फिर क्या था... चिल्लाईं मेरे ऊपर "खबरदार जो पीछे के उपलों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूँगी, आगे के उपलों से ही खाना बनाया करो। तब से मैं जब भी वहाँ से ईंधन निकालती हूँ, वो साथ में खड़ी होकर निगरानी करती हैं।" कहते हुए भाभी का गला भर आया।
शुचि को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर अविश्वास करने जैसी कोई बात भी नहीं थी। उसने खुद कई बार देखा था कि गुड़िया उन पर सास की तरह हुक्म चलाती थी, कई बार तो वो पूरे परिवार के जूठे ढेरों बरतनों की कालिख रगड़ रही होतीं और दूसरी ओर सास उन्हें गालियाँ सुना रही होती बिना ये सोचे कि घर में बाहर का भी कोई मौज़ूद है।
"भाभी गाय का सारा काम भी तो तुम्हीं करती हो न, यहाँ तक कि उपले भी थापती हो, फिरभी ये लोग ऐसा बर्ताव करते हैं तो भइया कुछ कहते नहीं?" शुचि ने दुखी होकर पूछा।
"अगर वो अपनी माँ और बहनों को कुछ बोलते तो मुझे इतनी परेशानी क्यों होती? पर न वो न ही बाबू जी कुछ बोलते। पूरा घर बेटियों खासकर बड़ी बेटी के हाथ में है।" उन्होंने कहा।
उस दिन शुचि को उस परिवार से घृणा हो गई थी। शुचि की माँ ने भी उसे बताया था कि लीला भाभी अपने पति से कितनी ही बार मिन्नतें कर चुकी हैं कि वो अलग होकर कहीं और रह लें वो रूखा-सूखा खाकर भी कभी शिकायत नहीं करेंगी, बल्कि अगर वो अनुमति देंगे तो सब्जी  की दुकान चलाकर घर खर्च में भी मदद कर देंगी, पर उनके पति उनकी एक नहीं सुनते। सभी को उस परिवार का उनकी ओर बर्ताव समझ आता है पर बाहर वाले क्या कर सकते थे।
उनका वो डेढ़-दो सौ गज में बना हुआ मकान पहले मात्र एक कमरे का था, उस जमीन से लगा हुआ बहुत विशाल कई एकड़ में फैला गहरा तालाब था जिसके कुछ हिस्से में मिट्टी पाट-पाट कर उन लोगों ने इतना बड़ा प्लाट, फिर मकान बना लिया था। उस मुहल्ले में पहले से ही रहने वाले लोग बताते थे कि लीला भाभी सुबह तीन-चार बजे से ही सिर पर कभी टोकरी में कभी बोरी में रखकर आधा किलोमीटर दूर से मिट्टी ढोना शुरू कर देती थीं जब तक उजाला नहीं हो जाता तब तक ढोतीं और फिर रात को सबको खिलाने-पिलाने के बाद फिर मिट्टी ढोना शुरू करतीं तो रात के बारह बजे तक ढोतीं। जब तक गड्ढा भरकर मकान बन नहीं गया तब तक यही उनकी दिनचर्या रही। फिरभी उनके साथ उस घर में ऐसे व्यवहार का कारण समझ नहीं आया।
शुचि की तंद्रा भंग हुई जब उसने देखा कि बाबूजी सामने खड़े हैं। "तुम कॉलेज नहीं गईं ?"  बाबूजी ने पूछा।
"नहीं, लेकिन आप तो ऑफिस गए थे, फिर इतनी जल्दी?"
हाँ, जवाहर के पास हॉस्पिटल जा रहा हूँ।" बाबूजी ने कहा।
"मैं भी चलूँ?" वह खड़ी होती हुई बोली।
"तुम क्या करोगी जाकर?" बाबूजी की आवाज में तल्खी साफ झलक रही थी।
"मैं भी देख आऊँगी।" उसने मायूस होकर कहा।
"किसे देख आओगी, वो अब नहीं रही।" बाबूजी की आवाज कहीं गहराई से आती प्रतीत हुई। शुचि फिर धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, आँसू उसके गालों पर ढुलक आए, वह रोना चाहती थी पर जैसे किसी ने उसका कंठ भींच दिया हो।
#मालतीमिश्रा