बुधवार

आजकल चारों ओर राजनीति का माहौल गरम है और ऐसे में गुजरात पर सबकी नजर है। अन्य राज्यों में तो जनता की बेसिक जरूरतों को और राज्य के विकास को मुद्दा बनाया जा सकता है लेकिन गुजरात के लिए तो ये मुद्दा हो ही नहीं सकता था इसलिए जनता को बरगलाने के लिए वही सदाबहार चाल चली गई कि 'जनता को आपस में बाँट दो और राज करो' इसके लिए फिर वही आरक्षण का मुद्दा..... अब देखना ये है कि गुजरात की जनता कितनी समझदार है? क्या आरक्षण जैसा मुद्दा उसे अपने राज्य और देश के विकास में बाधा डालने के लिए विवश कर सकता है?

मंगलवार

हमारा देश स्वतंत्र हुआ परंतु स्वतंत्रता का सुख एक रात भी भोग पाते उससे पहले ही देश दो भागों में बँट गया। देश को बाँटने वाले भी वही जिनको देशवासी अपना सर्वोच्च मानते थे।  क्यों न हो भई देश को स्वतंत्र करवाने में दिन- रात एक कर दिया, घर-परिवार के ठाट-बाट को छोड़कर जेल की यात्रा भी कर आए, क्या हुआ अगर जेल में भी वी०आई०पी० बनकर रहे। अगर जेल नहीं जाते तो बड़े-बड़े लेख कैसे लिखते, अगर जेल न जाते तो लोग कैसे जानते कि ये लोग कितने बड़े देशभक्त हैं.... अब अगर देश की खातिर इतने बलिदान किए तो क्या देश को अपनी मर्जी से बाँट भी नहीं सकते? वो अलग बात है कि इस प्रक्रिया में न जाने कितनों की दुनिया उजड़ गई, तो क्या!  बड़ा पेड़ गिरने पर छोटे-मोटे पौधे तो कुचलते ही हैं। खैर पूरा देश इनका आभारी था और है, इसीलिए तो किसी ने देश बाँटने वालों पर उँगली नहीं उठाई, किसी ने भी यह नहीं सोचा कि शायद ऐसा भी हो सकता था कि देश टूटने से बच जाता और घर उजड़ने से बच जाते। किसी के मस्तिष्क में ये नहीं आया कि देश में तुष्टीकरण की नीति वहीं से शुरू हो गई और जो देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त करवाने की बात करते हैं वे स्वयं  अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम है, वही आज देश के तारनहार बन बैठे। कोई क्यों सोचता...हम भारतीय इतने बड़े अहसान-फरामोश थोड़े ही हैं।  किसी ने भी न सोचा होगा कि आगे चलकर सत्तर सालों तक हमारा देश आँखें बंद किए एक ही ढर्रे पर चलता रहेगा। क्यों न चले...अरे भई! उन्होंने हमें आज़ादी दिलाई तो हम उनकी गुलामी कर भी लेंगे तो क्या हुआ.. भले ही  आज़ादी की उस लड़ाई में इनके परिवारों से कोई एक चींटी भी शहीद नहीं हुई तो क्या! अब शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजा़द की तरह ये थोड़ी न हिंसा के मार्ग पर चल रहे थे और ब्रिटिश सरकार को हिंसा पसंद नहीं थी इसीलिए तो उसने आज़ादी के दस्तावेजों पर नेहरू और गाँधी लिखकर दिया और भारत का शासन इनके वंशजों के नाम लिख गए।
अब ये सदियों तक अपने पूर्वजों के नाम पर सिंहासन पर कब्जा करके बैठे रहेंगे चाहे गुणहीन पप्पू ही क्यों न हों। अब तो बाप की बपौती है रखें या बेच दें। किसी अन्य को तो देशभक्ति की बात करना शोभा भी नहीं देता क्योंकि इस शब्द पर सिर्फ एक ही खानदान का कॉपी राइट है।
कहने को तो हमारा देश लोकतांत्रिक है परंतु आजतक समझ न आया कि लोकतंत्र है कहाँ? आज भी एकमात्र परिवार इस देश की सत्ता पर अपना अधिकार मानता है और यदि लोकतंत्र के नाम पर जनता किसी अन्य को चुन ले तो मजाल है इनसे बर्दाश्त भी हो जाए...और क्यों हो हमारी आपकी छोटी सी प्रॉपर्टी पर कोई अपना अधिकार जताए तो क्या हम-आप सहन कर लेंगे? तो ये तो इतने बड़े देश की बात है।
कोई और सत्ता पर आँख उठाकर तो देखे...... दंगे-फसाद, आगजनी आदि न बढ़ जाए तो?
इन्होंने सत्तर साल कुछ और किया हो या न किया हो पर अराजक तत्वों को पनाह बखूबी दिया, अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे इतने सालों तक हम सो रहे थे हमें अहसास ही न था कि हम अब भी राजतंत्र में जी रहे हैं। जब पैरों तले की जमीन खिसकी तक अहसास हुआ।