बैठे-बैठे यूँ ही मेरे मन में
आज अचानक ये विचार आए
अपने जीवन के पन्नों को
क्यों न फिर से पढ़ा जाए
अतीत में छिपी यादों की परत पर
पड़ी धूल जो हटाने लगी
अपने जीवन के पन्नों को
एक-एक कर पलटने लगी
जब मैं छोटी सी गुड़िया थी
माँ की आँखों का तारा थी
बाबा की राजदुलारी थी
उनको जान से प्यारी थी
माँ के सारे अरमान थी मैं
बाबा का अभिमान थी मैं
संकुचित विचारों के उस छोटे गाँव में
लोगों की सोच भी छोटी थी
शिक्षा पर बेटों का हक था
बेटियाँ अशिक्षित ही होती थीं
संकुचित विचारधारा को तोड़कर
बाबा ने मुझे पढ़ाया था
बाबा का मान बढ़ाऊँगी
मैंने ये स्वप्न सजाया था
अकस्मात् जीवन में मेरे
नया एक आयाम आया
माँ-बाबा से इतर मेरे जीवन में
किसी और ने भी अपना स्थान बनाया
जीवन की प्राथमिकता बदली
स्वार्थ का बीज अंकुरित हो गया
माँ-बाबा के सम्मान से बढ़कर
अपनी खुशियों का नशा चढ़ गया
माँ-बाबा का मान बढ़ाने का
उनके स्वप्न सजाने का
ख्याल न जाने कहाँ खो गया
लक्ष्य कुछ करके दिखाने का
अपने गाँव की तंग सोच को
विकास के पंख लगाने का
वो ख्वाब न जाने कहाँ सो गया
नियति अपना खेल खेल गई
उस दिन ये बेटी फेल हो गई....
माँ-बाबा मैं फेल हो गई....
भाई-बहन का रिश्ता प्यारा था
इस जग से अलग वो न्यारा था
उनका तो विश्वास थी
सबसे अलग कुछ खास थी
उनके विश्वास से भी खेल गई
एक बहन फेल हो गई....
रूखा-सूखा खाकर भी
सम्मान को सदा ऊँचा रखना
कैसा भी संकट आए
स्वाभिमान नहीं जाने देना
बाबा से यही सीखा था मैंने
बाबा को आदर्श मान
पति में उन्हीं गुणों को तलाशा
गुण तो मिले न एक भी
उम्मीदें टूटीं मिली निराशा
हालातों से समझौता करना
यही एक विकल्प बचा
करके समझौता हालातों से
निराशा को भी गई पचा
पर सहा न गया मुझसे आघात
स्वाभिमान को खंडित करके
छलनी किए मेरे जज्बात
पति-पत्नी में विश्वास रहा न
ये रिश्ता मैं न झेल पाई
एक पत्नी मुझमें फेल हुई
मेरे बच्चे मेरी जान
जिनपर करती मैं अभिमान
लुटा दिया उनपर सारा जहान
उनको लेकर हर पल मेरे
सपने भरते रहे उड़ान
आज वो बच्चे बड़े हो गए
अपनी दुनिया में ही खो गए
मेरे आदर्श मेरे उसूल
उनको लगने लगे फिजूल
अपनी परछाईं में मैं
अपनी छवि न समा पाई
स्वाभिमान की शय्या पर
मेरे आदर्शों की मृत्यु हुई
एक माँ भी देखो फेल हुई.....
हाँ कहने में भले ही देर हुई
पर सच है...
हर रिश्ते में मैं फेल हुई.....
साभार.....मालती मिश्रा