गुरुवार

पहले तोलो फिर बोलो

पहले तोलो फिर बोलो
बातों का बतंगड़ बनते मैने बहुत देखा है,
इसीलिए मेरी बातों को सीमित करती रेखा है।
मुझसे जो भी प्रश्न हों करने समक्ष आकर पूछ डालो,
अपनी हर शंका का निदान सीधे मुझसे कर डालो।
गर इधर-उधर भटकोगे तो एक की चार बातें होंगी,
सही उत्तर की खोज में बातों की भूल-भुलैया होगी।
जहाँ से चले गर वहाँ भी वापस तुम पहुँचना चाहो,
बातों में ऐसे उलझोगे वह मार्ग भी खो चुके होगे।
वक्र जाल में खोने से तो बेहतर है कम बात करें हम,
जितनी कम होंगी बातें जालों के तार जुड़ेंगे कम।
कहा किसी विद्वान ने बोलने को जब भी मुँह खोलो,
अपने शब्दों को पहले कसौटी के तराजू में तोलो।
और हर इक बात को पहले तोलो फिर बोलो।
अधिक बतोले हैं जो, वो बात मेरी ये गाँठ बाँध लो,
स्वयं सुरक्षा को ध्यान मे रख क्यों न बातों की दुकान ही खोलो।
न खरीदेगा कोई तुम्हारी बातें,न बाँटोगे बातों की सौगातें,
फिर बातों की कीमत जान कर कम से कम बोलोगे।
और बोलने पहले अपनी बातों का वजन तुम तोलोगे।।
मालती मिश्रा 

रविवार

देशद्रोह के नए-नए रूप


आजादी के बाद से अबसे दो-ढाई वर्ष पहले तक कांग्रेस ने भारत पर एकछत्र शासन किया अपने साठ से पैंसठ सालों के शासन में कांग्रेस सरकार भारत को न तो यू०एन० में स्थायी सदस्यता दिला सकी और न ही NSG की सदस्यता दिला सकी। जिसका विधानसभा और राज्यसभा में सदा से शासन चला आ रहा था वह भी इतने लम्बे शासन काल में सदस्यता तो दूर सदस्यता के आस-पास भी नहीं पहुँचे और आज जब मोदी जी ने सिर्फ दो से ढाई साल के शासन काल में इतने आंतरिक विरोधों को झेलते हुए NSG सदस्यता के इतने निकट पहुँच गए थे कि सिर्फ एक ही देश के हाँ की आवश्यकता शेष थी और सभी को पता है कि वह देश हमारा शत्रु है फिर भी मोदी जी अकेले प्रयास रत रहे ऐसे में एक असफलता क्या हाथ लगी कि हमारे ही देश के अपने-आप को देशभक्त कहने वाली पार्टियाँ जश्न मनाने लगीं। ये कैसी देशभक्ति है? ये मोदी जी की हार है या देश की हार है......देश की हार पर जश्न मनाने वाले देशभक्त कैसे हो सकते हैं? 
हमें तो सराहना करनी चाहिए उस व्यक्ति की जो इतने विरोधों को झेलते हुए भी दिन-रात अपने पथ पर अग्रसर है और स्वयं को देश के विकास के लिए समर्पित कर दिया है। यहाँ भी राजनीति? अरे आपस में चाहे जितना लड़ों परंतु कम-से-कम दूसरे देशों के समक्ष तो एकता दर्शाते। किंतु ऐसा तभी संभव होता जब हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों में नाम मात्र को भी देश भक्ति होती। यहाँ सभी सिर्फ सत्ता लोलुप्सा में डूबे हुए हैं, यदि देशभक्ति होती तो इतने दशक न गँवाए होते, जिस सदस्यता के लिए आज प्रयास किया जा रहा है वो तो वर्षों पहले मिल गई होती किंतु उसके लिए जज्बा होना आवश्यक है। अब से पहले के प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते थे तो उनकी प्राथमिकता देश हितार्थ कार्य नही अपितु पारिवारिक भ्रमण होता था। यही वजह है कि अब मोदी जी के विदेशी दौरों को भ्रमण की दृष्टि से देखा जाता है, जबकि उनकी हर यात्रा से लाभ ही हुआ है। इस यात्रा से भी हमारे देश को चाहे NSG की सदस्यता का लाभ न प्राप्त हुआ हो परंतु कूटनीतिक दृष्टि से लाभ तो फिर भी हुआ है, आज चीन विश्व में अकेला रह गया है क्योंकि सदस्यता के लिए उसने स्वीकृति न देकर अन्य देशों की स्वीकृति की अवहेलना की है तो निश्चय ही उसने स्वयं को अकेला कर लिया है। फिर मोदी जी हारे कहाँ हैं उनकी तो इस हार में भी जीत निहित है उन्होंने देश के बाहर चीन को विश्व के समक्ष नंगा किया है तो देश के भीतर राजनीतिक पार्टियों के देशभक्ति के मुखौटों को हटाकर  देश की जनता के समक्ष उनके असली चेहरे उजागर किया है। आज कांग्रेस पार्टी मोदी जी से उनकी असफलता पर जवाब माँग रही है परंतु उसे यह समझ नहीं आता कि उन्होंने नेहरू जी की भाँति देश का कोई टुकड़ा चीन के हवाले नहीं किया तो किस बात का जवाब दें। जब उनके किसी कार्य में इन देशद्रोही पार्टियों का कोई सकारात्मक योगदान नहीं वो सबकुछ अकेले, स्वयं के बलबूते पर कर रहे हैं तो इन पार्टियों के लिए उनकी कोई जवाबदेही क्यों बनेगी? क्यों दें वो जवाब? आज पूरा देश उस व्यक्ति के साथ है जो देश के लिए कार्य करता है जिसने अपने-आप को देश के लिए समर्पित कर दिया है। कोशिश करके हार जाना बगैर कोशिश हार मान लेने से बहुत बेहतर होता है। साथ ही संभावनाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। तो हमें किसी संभावना को अंतिम नहीं मानना चाहिए। जब मोदी जी जैसे कर्मठ नेता हों तो असंभव भी संभव हो सकता है और भविष्य इसका साक्ष्य बनेगा।
जय हिंद
मालती मिश्रा 

आजाद परिंदे

हम नभ के आज़ाद परिंदे
पिंजरे में न रह पाएँगे,
श्रम से दाना चुगने वालों को
कनक निवाले न लुभा पाएँगे।
रहने दो मदमस्त हमें
जीवन की उलझनों से दूर,
जी लेने दो जीवन अपना
आजाद, खुशियों से भरपूर।
जिनको मानव पा न सका
अपने स्वार्थ मे फँसकर,
जात-पाँत के जाल में 
उलझ गया निरीह बनकर।
पंखों में भर लेंगे वो सपने
जो हमारे जीवन आधार,
सांप्रदायिकता की बीमारी से
नहीं हुए हैं हम बीमार।
लालच के पिंजरे में फँसकर
सेक्युलर आँखें मूँद रहे,
अधिकारों के पंख काटकर
अपनी आजादी ही बेच रहे।
हम स्वतंत्र हो जीने वाले
नभ को पंखों से नापेंगे,
धूप-छाँव हो या वर्षा
किसी विपदा से न भागेंगे।

मालती मिश्रा 

गुरुवार

मातृभाषा को समर्पित कुछ पल

मातृभाषा को समर्पित कुछ पल
अकस्मात् मस्तिष्क मे विचार आया
क्यों न संकुचित विचारों को कुछ विस्तार दिया जाए
इस प्रक्रिया हेतु हिन्दी वाचन का अभ्यास किया जाए
इन्हीं विचारों में मग्न मैं चली जा रही अपने गन्तव्य की ओर
अचानक वातावरण में गूंजने लगा मानवों का मिलाजुला शोर
देखा हमने एक त्रिचक्रिका मानव चालित वाहन से
भिड़ंत हो गई थी एक अन्य त्रिचक्रिका वाहन की
दोनों ही चालक जिद करते, वाद-विवाद में अकड़े थे
दोनों अपने निर्देशित पथ पर हैं इसी कथ्य पर अड़े हुए थे
शांत कराया उनको कुछ बुद्धिजीवी दर्शकों ने
तब अवसर पाकर मैने अपना प्रश्न पूछा एक त्रिचक्रिका वाहन के चालक से
क्यों भाई क्या प्रस्तर पथ गामी स्थानक चलने को तुम 'राजी हो
चालक ने सिर खुजलाया फिर सिर से पैरों तक मुझको निहारा और पूछा
कहाँ से आए हो तुम, भाई कौन सी भाषा है अपनाई 
ये नई जगह है कौन सी हमारी नजर में तो कभी न आई
पास खड़े एक महानुभाव मंद-मंद से  मुस्कराए
बस स्टॉप की बात कर रहे चालक को वो समझाए
ओहो, बस स्टॉप से फिर सरजी आगे कहाँ को जाना है
चालक का मंतव्य हमने भी भाँप लिया और बोले
चालक महोदय आज तो हमने परिभ्रमण की योजना बनाई है 
परिसदन से आरंभ करें यही सोच मस्तिष्क में आई है
चालक पुनः चकराया बोला साहब जी जरा हिंदी में बात करो 
दूसरी भाषाओं से हम सदा दूर ही रहे
हमने कहा चालक महोदय हम हिंदी में ही बोल रहे
वह मन ही मन बुदबुदाया
मोदी जी का नशा है कैसा सब पागल बन डोल रहे
पास खड़े महानुभाव नजरों से मुझको तोल रहे
ऑटो वाले को समझाया 
कि इन्होंने घूमने का मन है बनाया, सक्रिट हाउस से शुरू करें 
ऐसा अभी है बताया
चलिए सर जी, पर याद रखें मुँह बिल्कुल न खोलेंगे
सक्रिट हाऊस पहुँचकर वहाँ से दूसरा ऑटो ले लेंगे
मैं और साथ वाले सज्जन दोनों त्रिचक्रिका वाहन में बैठ गए
कुछ दूर चले होंगे हम मेरे मस्तिष्क में विचार कौंध गए
मैंने वाहन चालक से पूछा
क्यों श्रीमान चालक महोदय इस नगर में कितने 'छवि गृह' हैं?
चालक चकराया फिर सिर खुजलाया और क्रोधित हो बोला
"छवि गृह" मतलब
मतलब कितने "चलचित्र मंदिर" है, मैंने प्रश्न दुहराया
चालक का दिमाग हिल गया परंतु मुखड़ा खिल गया
मानो सोच रहा कि चलो किसी प्रश्न का तो उत्तर उसके पास है
बोला साहब मंदिर तो बहुत हैं इस शहर में बिड़ला मंदिर यहीं पास है
नहीं चलचित्र मंदिर की बात कर रहा मैंने उसे समझाया 
जहाँ नायक-नायिका का मंचभिनंदन पर प्रेमालाप जाता है दिखाया
फिल्म हॉल की बात कर रहे दूसरे सज्जन ने बतलाया
किंतु इससे पहले ही चालक चकरा चुका था 
अपनी त्रिचक्रिका वाहन को किसी अन्य त्रिचक्रिका से ठोंक चुका था
मैं बोला श्रीमन यह क्या हो गया
तुम्हारी वाहिनी का अग्र चक्र वक्र हो गया
आगे पंचर की दुकान थी
मैंने दुकान वाले से कहा-
हे त्रिचक्रिका सुधारक महोदय हमारी त्रिचक्रिका का अग्र चक्र है वक्र क्या तुम इसे सुधारोगे
दुकान वाला मानो पहले ही क्षुब्ध था, बोला सुबह से यहाँ बोहनी नही हुई तू मुझे श्लोक सुनाता है
चल भाग यहाँ से वर्ना मैं तेरा अगला-पिछला चक्र सब वक्र बनाता है
क्षमा याचना के साथ मैंने चालक से पुनः प्रश्न किया
महोदय कितनी मुद्राएँ हुईं आपकी कृपया मुझे बताएँ 
और हाँ यहाँ से जाने से पूर्व कृपया
अपने वाहन के चक्र में वायु ठूसक यंत्र से वायु भरवाएँ
चालक बोला श्रीमन मुझे क्षमा करें, आपके आदि से अंत तक का भाड़ा मेरे वाहन के भाड़ा सूचक यंत्र में प्रदर्शित है
कृपया स्वयं देखें और निर्देशित मुद्राएँ देकर अपने मार्ग पर अग्रसर हों
अब चकराने की बारी मेरी थी
स्तब्ध सा मैं स्वचालित भाव से भाड़ा चालक को देकर अपने पथ पर चल दिया 
मन में अपार संतुष्टि और साथ ही एक प्रश्न भी था...
वाहन चालक ने अभी-अभी जो भाषा उच्चारित किया
क्या वो मेरी संगति का असर था या वो चालक पहले से प्रखर था.....
मातृभाषा को समर्पित

मालती मिश्रा 








सोमवार

दायरों में सिमटी नारी की आधुनिकता

'आधुनिक नारी' यह शब्द बहुत सुनने को मिलता है। कोई इस शब्द का प्रयोग अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए करता है मसलन "मैं आधुनिक नारी हूँ गलत बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।" तो दूसरी तरफ कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग ताने देने के लिए भी करते हैं, जैसे-"अरे भई ये तो आधुनिक नारी हैं बड़ों का सम्मान क्यों करेंगी।" आदि। कहते हैं न 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' यह उक्ति सिर्फ भगवान के प्रति भावना के संदर्भ में नही है अपितु हमारी अपनी सोच के प्रति है कि हमारे भीतर जैसी भावना होगी हमें बाह्य व्यक्ति या वातावरण वैसा ही दिखाई देगा। 
आज नारी आधुनिक हो गई है अर्थात् उसकी सोच, उसका रहन-सहन, उसका नजरिया बदल गया है। वह अब घर से बाहर जाकर कार्य करने लगी है। पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी है। अब नारी का कार्यक्षेत्र केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रह गया अपितु वह घर से बाहर के कार्यों में भी अपना पूरा-पूरा योगदान देती है। इतना ही नहीं आज स्त्री अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो चुकी है, वह चुपचाप अन्याय सहन नहीं करती इसीलिए उसे आधुनिक नारी कहा जाता है। किंतु इस आधुनिक शब्द का समाज के कुछ बुद्धजीवी गलत अर्थ भी निकाल लेते हैं, स्वयं को आधुनिक दर्शाने का तो मानो फैशन सा चल पड़ता है और उनकी नजर में आधुनिक होने का मतलब फिल्मों या टी०वी० सीरियल में दिखाए जाने वाले परिधानों की नकल से होता है। विचारों कर्तव्यों के विषय में तो कोई सोचता तक नहीं, हम जहाँ रहते, जिस परिवार में रहते हैं उनकी मान्यताओं को किस हद तक परिवर्तित किया जाना चाहिए यह भी हमारे विचारों में नहीं आता। तो क्या यही आधुनिकता है, क्या आधुनिक वस्त्र पहनने मात्र से या फैशन का चलन बदलने मात्र से कोई आधुनिक बन सकता है। 
यही कारण है कि आधुनिकता के नाम पर ताने भी दिए जाते हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्वयं को घर से बाहर निकाल कर हर उस क्षेत्र में क्रियाशील होना जिसपर सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व रहा हो, आरंभ में स्त्री के लिए कितना संघर्ष पूर्ण रहा होगा यह हम लोग नहीं जान सकते जिन्हें एक बना-बनाया प्लेटफॉर्म (आधार) मिल गया। परंतु आधुनिक होने के बाद भी क्या आजकल स्त्रियों का जीवन उतना ही सरल है जितना हमें प्रतीत होता है.....क्या आज भी नारी उतनी ही स्वतंत्र है जितनी समझी जाती है? मैं समझती हूँ नहीं। नारी को आर्थिक स्वतंत्रता तो मिली है काफी हद तक निर्णय लेने का अधिकार भी प्राप्त हुआ है परंतु पूर्णतः स्वतंत्र तो वह अब भी नहीं है। रिश्तों का बंधन, उनकी मर्यादा का बंधन, अभी भी सबसे अधिक नारी पर ही है। इस बंधन को निभाने के लिए वह स्वयं अनेक बंधनों में बँधती चली जाती है। पुरुष तो बाहर के कार्य यानि पैसे कमाने तक ही अपने-आप को सीमित रखते हैं और उसके बाद जिम्मेदारी से मुक्त परंतु स्त्री घर और बाहर दोनों तरफ अपनी जिम्मेदारियों का सामंजस्य बिठाने में स्वयं से ही लड़ती है। मर्यादा के पालन हेतु घर में बड़ों से या पुरुष से किसी कार्य में सहायता की अपेक्षा भी नहीं कर सकती। कार्य की अधिकता या विचारों के विरोधाभाव के कारण रिश्तों में दूरियाँ न आ जाएँ इस बात का ध्यान रखना भी नारी की ही जिम्मेदारी है। यदि कुछ भी विपरीत हुआ तो दोषी सिर्फ नारी को ही ठहराया जाएगा और दोषारोपण भी नारी के द्वारा ही किया जाएगा। तो सच तो यह है कि आधुनिकता के चादर में लिपटी नारी आज भी स्वतंत्र नहीं है। नारी के कर्तव्यों का दायरा तो बढ़ चुका है किंतु अधिकारों कर दायरा आज भी सिर्फ दिखावे तक ही सीमित है। आज घर चलाने की जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष दोनों की बराबर है परंतु घर के जिन कार्यों को सिर्फ स्त्री का कर्तव्य माना जाता है उनमें सहायता प्राप्ति के लिए तो स्त्री सोच भी नहीं सकती। हाँ सिर्फ कर्तव्यों का दायरा बढ़ना ही यदि नारी के आधुनिक और स्वतंत्र होने का पर्याय है तो अवश्य आज नारी स्वतंत्र है। यदि परिधानों का बदलाव ही आधुनिकता का परिचायक है तो निश्चय ही नारी आधुनिक है। 
यदि हम आज से सालों पहले समाज में स्त्री की स्थिति से आज उसकी स्थिति की तुलना करें तो निःसंदेह बदलाव आया है किंतु यह अभी भी एक दायरे में ही सीमित है, अभी स्त्री पूर्णतः स्वावलंबी नहीं है।
मालती मिश्रा 

रविवार

गरिमामयी पदों के गरिमाहीन पदाधिकारी

गरिमामयी पदों के गरिमाहीन पदाधिकारी
उच्च पदों पर सभी पहुँचना चाहते हैं दिन रात कठोर परिश्रम करते हैं ताकि वो अपनी मंजिल पर पहुँच सकें। जिन्हें बचपन से ही सही मार्गदर्शन प्राप्त होता है और वो बचपन में ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, वो सही मार्गदर्शन में अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। ऐसे परिश्रमी व्यक्ति को जब उसका लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो वह उसकी गरिमा को समझता है और अपने पद की गरिमा बनाये रखने के लिए सदैव प्रयासरत रहता है, उस व्यक्ति को न सिर्फ पद की गरिमा का अहसास होता है बल्कि अपने माता-पिता का त्याग उनका सम्मान भी याद रहता है और वह जानते बूझते ऐसा कार्य नहीं करना चाहता जिससे कोई उसके माता-पिता की परवरिश या संस्कारों पर उँगली उठा सके।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिनको किस्मत से उच्च पद प्राप्त हो जाते हैं तब भी वह अपने संस्कारों के धनी होने के कारण अपने पद की गरिमा का मान रखते हैं। कुछ व्यक्ति इसे अवसर की दृष्टि से देखते हैं और सोचते हैं कि भाग्य ने उन्हें कुछ कर दिखाने का अवसर दिया है तो वो कुछ ऐसा करें जिससे समाज व देश का हित हो। हालांकि ऐसा सोचने व करने वालों की संख्या कम होती है परंतु हम यह नहीं कह सकते कि नहीं होती। 
अब हम बात करते हैं राजनीति की... राजनीति के क्षेत्र में कितने ऐसे भाग्यशाली होंगे जो पहली बार चुनाव लड़े हों और भारी बहुमत से विजयी होकर सीधे मुख्यमंत्री बन गए हों। हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी ऐसे ही भाग्यशाली व्यक्ति हैं। परंतु एक कहावत सुना है कि 'बिल्ली को घी हज़म नहीं होता' वही हाल मुख्यमंत्री जी का भी है रह-रह कर नहीं लगातार पेट में उबाल आता है और जब डकार लेते हैं तो बस एक ही बात मुँह से निकलती है-"मोदी जी कुछ करने नहीं देते, या सब बीजेपी की साजिश है।" इसीलिए तो किसी भी पद के लिए उसके अनुसार योग्यता और अनुभव आवश्यक होता है। एक कहावत तो सबने सुना या पढ़ा होगा-"नाच न जाने आँगन टेढ़ा" वही हाल इस समय हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का है। चुनाव के समय मुफ्त की खैरात बाँटने का लालच देकर वोट तो हासिल कर लिया परंतु अब ये समझ नहीं आ रहा कि वादों को पूरा कैसे किया जाय या राज्य का विकास कैसे किया जाय तो अपने कार्यों से स्वयं को ऊपर ले जाने की बजाय दूसरों को नीचे खींचने का प्रयास करते हैं, जो दिमाग विकास के विकल्प सोचने में लगाना चाहिए वो विकास रोकने के विकल्प सोचने में लगाते हैं। किसे किस प्रकार संबोधित करना चाहिए यह तक नहीं पता। उनके अब तक के कार्यों से सिर्फ एक ही चीज समझ में आई है कि उन्हें राज्य या देश से कोई लेना-देना नहीं, सत्ता में आने के बाद ज्यादा से ज्यादा सुर्खियों में रहना उनका एकमात्र उद्देश्य है, जिसके कारण उन्होंने सिर्फ अपने फोटो वाले बैनर और विज्ञापन पर ही जनता के करोड़ों रूपए पानी की तरह बहा दिए, यह जानते हुए भी कि यह गैरकानूनी है वो बिना झिझक ऐसे कार्य करते हैं जो संवैधानिक नहीं होते और उन पर जो ऐतराज करे वो उनके अपशब्द सुनने को तैयार रहे। ये कानून के अनुसार कार्य नहीं करते कानून को अपने अनुसार तोड़ना-मोड़ना चाहते है, सात के स्थान पर इक्कीस सचिवों की नियुक्ति इस बात का प्रमाण है और जब कानूनी कार्यवाही होती है तो सारा इल्जाम प्रधानमंत्री जी पर डाल देते हैं कि प्रधानमंत्री सब कर रहे है। जैसे स्वयं सारे फैसले स्वयं ले लेते हैं वैसे ही प्रधानमंत्री जी को समझते हैं। और तो और बात करते समय पद की गरिमा का भी मान नहीं रखते कि वो किस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जिसके कारण उनके संस्कारों पर उँगली उठना तो स्वाभाविक ही है। स्वयं हिटलरी फरमान जारी करते हैं और प्रधानमंत्री जी को तानाशाह बताते हैं, उन्हें आजकल देश या राज्य के विकास से ज्यादा आवश्यक प्रधानमंत्री जी की डिग्री जानना है हालांकि स्वयं की डिग्री भी साफ-सुथरी नहीं है परंतु उसकी शर्म ही किसे है लक्ष्य तो प्रधानमंत्री जी को बदनाम करना है। एक और लक्ष्य है जो वो बखूबी निभा रहे हैं वो रिलीज के पहले सप्ताह में ही सभी फिल्में देखना और उस पर टिप्पणी करना। 
अधिक क्या कहें जहाँ कहीं से देशद्रोह की बू आए वहाँ जाकर उसको संरक्षण प्रदान करना तो इनके देशप्रेम में शामिल है।
खैर हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी के इस छोटे से कार्यकाल में समाज विरोधी, देशविरोधी, कानून विरोधी तथा कुसंस्कारों को दर्शाने वाले इतने कारनामे हैं कि लिखते-लिखते हम थक जाएँ पर इनकी महिमा का गुणगान समाप्त न होगा।

सोमवार

हमारे अस्तित्व का रक्षक कौन....

हमारे अस्तित्व का रक्षक कौन....
हमारा देश, हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति क्या इन सब के विषय में सोचना सरकार का ही काम है? हम देशवासियों का कोई कर्तव्य नहीं अपने देश और संस्कृति के प्रति..... सचमुच सोचती हूँ तो दुख होता है जब हममें से ही कुछ लोग हमारी ही संस्कृति का मजाक उड़ा रहे होते हैं। वैसे तो हम बहुत नाज करते हैं अपनी परंपराओं पर, अपनी संस्कृति पर हमें गर्व है, परंतु जब अपनी संस्कृति की रक्षा का समय आता है तो धीरे से अपनी जिम्मेदारियों की पोटली सरकार की ओर सरका देते हैं। अपने से कमजोर के समक्ष तो हम सीना तान कर खड़े हो जाते हैं लड़ने और मरने-मारने को किंतु जहाँ हमें अपने बल का प्रदर्शन करना चाहिए वहाँ हम शांति प्रिय बन कर देश में शांति कायम रखने की जिम्मेदारी पूर्ण करते हैं।
निरीह गाय भी जो कभी किसी को सींग नहीं मारती वो भी अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए सींग मारना शुरू कर देती है फिर हम इंसान ही उल्टी विचार धारा क्यों रखते हैं........ 

हमारा राष्ट्र हिंदू बाहुल्य राष्ट्र रहा है किंतु आज जब कश्मीर और कैराना की स्थिति का अवलोकन करती हूँ तो दिल दहल जाता है, अपने ही देश में कश्मीर से हिंदुओं को अपना ही घर छोड़कर विस्थापितों की जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा और अब वही स्थिति उत्तर प्रदेश के 'कैराना' गाँव की है....जहाँ अब से सिर्फ पाँच साल पहले 2011में 3०% हिंदू परिवार थे वहाँ आज सिर्फ और सिर्फ ०8% हिंदू परिवार रह गए हैं। ऐसा क्यों हुआ?  सिर्फ पाँच सालों में इतना बदलाव!! क्या हिंदुओं को अपना घर अच्छा नहीं लगता या सभी अच्छे विकल्पों की तलाश में सपरिवार कहीं अन्य देश या शहर  में अपना भविष्य बनाने हेतु चले गए। करोड़ों की संपत्ति छोड़ कुछ हजार की नौकरी करना क्या भविष्य बनाना होता है? 
जब असामाजिक तत्वों के द्वारा किसी वर्ग विशेष पर हमला किया जाता है उन्हें डराया-धमकाया जाता है और उस वर्ग विशेष को कोई सहायता नहीं मिलती तो यह वर्ग विशेष कहता है "जान है तो जहान है।" और चल देता अपना सबकुछ छोड़कर यहाँ तक कि अपना अस्तित्व मिटा कर किसी अन्य ठिकाने की तलाश में।परंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि इसी वर्ग ने मिलकर एक साथ अपने हक के लिए आवाज उठाई होती तो क्या उसकी आवाज कुछ दूर भी सुनाई न देती? क्यों कोई चुपचाप हार मान लेता है? क्यों अपने अस्तित्व को मिटा देता है? 

आजकल तो छोटी-छोटी सी बात पर धरने दिए जाते हैं आंदोलन किए जाते हैं, सरकारी संपत्ति को सुपुर्दे खाक किया जाता है तो अपने अस्तित्व के लिए इस प्रकार के हथियार क्यों नहीं प्रयोग किए जाते? क्यों नहीं अपनी लड़ाई को सर्वव्यापी बनाया जाता? यही कमी है हम हिंदुओं में हममें कभी एकता नहीं होती, हम सही गलत को पहचानना नहीं चाहते। अभी किसी नेता को दिल्ली में आंदोलन करवाना हो तो चंद रूपयों के लालच में देश के कोने-कोने से लोग एकत्र हो जाते हैं बिना ये जाने कि ये आंदोलन उनके हित में है या नहीं...... कभी-कभी तो उन्हें ये तक नही पता होता कि वो किस लिए बुलाए गए हैं, पता होता है तो बस ये कि उन्हें एक आंदोलन में शामिल होना है जिसके उन्हें पैसे मिलेंगे..... बस। गुजरात में हार्दिक पटेल के आंदोलन की भीड़, दिल्ली में किसानों के धरने की भीड़ ये सब उदाहरण हैं इस बात के।
क्यों हम हिंदू अपने-आप को कमजोर कर रहे हैं वो भी चंद मुट्ठी भर अल्पसंख्यकों या यूँ कहूँ कि असामाजिक तत्वों के डर से। यदि हमें शक्ति बनना है, यदि हमें  अपना अस्तित्व कायम रखना है तो लड़ना होगा, एकजुट होना होगा और हर चीज के लिए सरकार का मुँह न देखकर सरकार को दिखाना होगा कि हमसे सरकार है सरकार से हम नहीं....हमें अपनी छोटी-छोटी जरूरतों से परे दूरगामी सोच रखकर सही फैसला लेना होगा तभी हम अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे।
मालती मिश्रा 

रविवार

देश हमारा जाग रहा है

देश हमारा जाग रहा है 
सुनकर मोदी की हुंकार,
भेड़िये कोना ढूँढ़ रहे हैं 
सुनकर शेर की दहाड़।
अपनी पीठ थपकने वाले तो 
सियार गीदड़ भी होते हैं,
दुनिया जिसका नाम जपे 
वो बिरले सिंह ही होते हैं।
देश जिसका अनुगमन करे 
वो किस्मत वाला होता है,
दुनिया जिसके पीछे चल दे 
वो सबका रखवाला होता है।
साम-दाम-दंड-भेद से
हर हथकंडे अपना लिए,
पर शीश नही झुकता उसका
जो सत्य का रखवाला होता है।
खड़ी करो नित नई दीवारें
बिछाओ शतरंज की चाल नई,
राहें नित नई बना ले वो 
जो फौलादी दिलवाला होता है।

मालती मिश्रा

शनिवार

मुफ्त बाँटने वाली चुस्त सरकार......

मुफ्त बाँटने वाली चुस्त सरकार......
जिस प्रकार घर के प्रत्येक सदस्य का अपने घर-परिवार के प्रति कोई न कोई कर्तव्य होता है और हर सदस्य अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी जिम्मेदारी से करता है, उसी प्रकार समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति अपने समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करे तो शायद हमें यह कहने की आवश्यकता ही न पड़े कि सरकार कुछ नहीं करती। हम ये नहीं कहते कि सरकारें हमेशा सही ही करती हैं यदि ऐसा होता तो कोई परेशानी ही क्यों होती परंतु क्या अपने कर्तव्यों का बोझ भी सरकार पर डाल कर सिर्फ कमियाँ गिनवाने के लिए खड़े हो जाना ही हमारा काम है? या यही समस्याओं का हल है.....मैं समझती हूँ कि नहीं।
हर पाँच साल में हमें एक मौका तो मिलता ही है कि हम स्वहित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कोई फैसला लें और ऐसी सरकार का चुनाव करें जो हमारी समस्याओं का निदान कर सके। उस समय हमें क्या दिखता है, हम क्या चुनते हैं.......
 उस वक्त हम चुनते हैं वो सरकार जो हमें फ्री में लैपटॉप बाँटती है, उस समय हम चुनते हैं वो सरकार जो हमें फ्री वाई-फाई, फ्री पानी, फ्री बिजली देने का वादा करती है, उस समय हम चुनते हैं वो सरकार जो हवा में ख्वाबों के महलों के सपने दिखाती है, उस समय हम वो सरकार चुनते हैं जो हमें आरक्षण देने का वादा करती है, उस वक्त हम वो सरकार चुनते हैं जो संघमुक्त भारत देने का वादा करती है। इनसे भी आगे यदि कुछ सोचते हैं तो ये कि फलाँ उम्मीदवार हमारे धर्म या जाति का है या हमारा रिश्तेदार है तो उसे ही चुनना चाहिए, फिर वो किस पार्टी से संबंध रखता है, कैसा बैकग्राउंड है, कैसी मानसिकता है, शिक्षित है या नहीं? इन सब विषयों पर नहीं सोचते। सोचते हैं तो बस इतना कि वो व्यक्तिगत रूप से हमें कितना लाभ पहुँचा सकता है।

कुल मिलाकर हम एक ऐसी सरकार चुनते हैं जो हमें अकर्मण्यता परोसती है, जो हमें बिना परिश्रम ऊँचे-ऊँचे ख्वाब दिखाती है और जब हमारी पसंद की सरकार बन जाती है, दूसरे शब्दों में मैं कहूँ कि जब हम अपने ही हाथों उस डाल को काट चुके होते हैं जिनपर हम बैठे थे, तब गिरने के बाद शिकायत करते हैं कि केंद्र में बैठी सरकार हमारी मदद नहीं करती।
इतना तो सभी जानते होंगे कि घर का मुखिया ही घर का हित-अहित देखेगा और करेगा, गाँव का मुखिया तो गाँव के विषय में सोचेगा और करेगा। वही स्थिति केंद्र और राज्य सरकारों की भी होती है। जब आपके घर का मुखिया यानि राज्य सरकार ही गलत है तो गाँव के मुखिया यानि केंद्र सरकार पर उँगली क्यों उठाना। केंद्र सरकार को तो हमने ही कमजोर बनाया तो जिसे हमने चुना जिसको ताकत दिया उसी से कहें और यदि बुराई ही करनी है तो उसी की करें। परंतु ऐसा भी नही कर सकते क्योंकि अपनी ही रचना यानि अपने ही क्रियेशन को कोई गलत कैसे कहे.....
हमारी तो आदत बन चुकी है अपनी हर असफलता हर गलती की जिम्मेदारी भगवान पर डालने की, भगवान ही नहीं चाहता तो हम कर ही क्या सकते हैं...ये हमारा सबसे सरल और उपयोगी बहाना बन चुका है, उसी प्रकार जहाँ केंद्र सरकार पर दोषारोपण करना हो पीछे नहीं हटते। यदि बुराई के खिलाफ हर घर से एक-एक हाथ भी बाहर आए तो करोड़ों हाथ बनते हैं फिर हमें बुराई और अत्याचार से निपटने के लिए किसी पर आश्रित नही होना होगा। और जो हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं उनके लिए भी सबक होगा।

मालती मिश्रा

गुरुवार

राम नाम के वृक्ष

राम नाम के वृक्ष

राम नाम के आजकल वृक्ष उगाए जाते हैं 
जिनकी छाँव तले असला-बारूद जुटाए जाते हैं
नेहरू जी के नाम पर जवाहर बाग लगाए जाते हैं
जिनको आतताइयों के ठिकाने बनाए जाते हैं
कैसा युग है अातंकी की सजा अपराध बताए जाते हैं
मेहनतकश और देशभक्तों के पुतले जलाए जाते हैं
देश विरोधी आवाजों को बुलंदी पर चढ़ाए जाते हैं
स्वतंत्रता के अमर शहीद आतंकी बताए जाते हैं
अपना स्वार्थ साधने को किसान मोहरे बनाए जाते हैं
चढ़ा कर बलि उन्हीं मोहरों को धरने करवाए जाते हैं

मालती मिश्रा 


शुक्रवार

याद आता है प्यारा वो गाँव

याद आता है पुराना वो पीपल का पेड़
वो नदी का घाट
वो छोटे बगीचे में महुआ के नीचे 
बिछी हुई खाट 
सूरज की तपती दुपहरी की बेला 
बाग में बच्चों के रेले पर रेला 
तपती दुपहरी में गर्म लू के थपेड़े 
पेड़ों की छाँव में वो बकरी वो भेड़ें 
बेपरवा बचपन की अल्हड़ किलोलें 
लुका-छिपी और झुकी टहनी के झूले 
अंधड़ के झोंके से बाँसों का हिलना 
आपस में लड़ना और गले मिलना 
दुपहरी के धूप से बचने की खातिर
खाटों पर बैठे काका और ताऊ
गाँव की तरक्की पर बतियाने मे माहिर
दूर-दूर तक धूप में फैले वो खेत 
मानों ओढ़े सुनहरी धूप की चूनर
गर्म हवा के तेज थपेड़ों से 
गेहूँ की बालियों के बजते वो घूँघर
आज भी याद है मुझे प्यारा वो गाँव
पंखे कूलर छोड़ भाती थी 
सिर्फ पेड़ों की छाँव.....
याद आता मुझको प्यारा वो गाँव.....

मालती मिश्रा

गुरुवार

जनता अब है जाग रही

जनता अब है जाग रही
जनता को मूर्ख मत समझो
जनता तो बहुत सयानी है,
अगर मूर्खाधिराज है कोई 
वो बस पप्पू अज्ञानी है।
चेत जा तू अब बदल तरीका
जनता अब है जाग रही,
नहला दहला राजा इक्का 
तेरे पत्ते सब भाँप रही।
असहिष्णुता, दलित विरोधी 
सूट बूट सब चाल चली,
फिर भी तेरेे मंसूबों की 
नहीं कहीं भी दाल गली।

मालती मिश्रा

बुधवार

राजनीति के अच्छे दिन

राजनीति के अच्छे दिन
   शहंशाह क्या होता है? कौन होता है? क्या आज के समय में कोई शहंशाह हो सकता है?
ये कोई ऐसे प्रश्न नहीं जिनके जवाब हमें न पता हो, परंतु राजनीति के क्षेत्र में इस शब्द का बार-बार प्रयोग इस प्रकार किया जाना जैसे कि ये जिसे शहंशाह कह देंगे उसे जनता विलेन मानने लगेगी, इनकी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। कह भी कौन रहा जिसने स्वयं को हमेशा भारत का सर्वेसर्वा समझा जो आज भी पूरे देश पर अपनी बपौती समझते हैं और कोई उनकी कमजोर नब्ज पर उँगली रख दे तो उन्हें अपना अधिकार खतरे में नजर आने लगता है। जिन्होंने पूरे देश में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए इमारतों, सड़कों, योजनाओं, पुरस्कारों सब पर अपना आधिपत्य दर्शाने हेतु उन्हें अपना ही नाम दे दिया। 
मोदी जी ने तो कभी नहीं कहा कि वह शहंशाह हैं, वह तो स्वयं को प्रधानमंत्री भी नहीं कहते बल्कि प्रधान सेवक कहते हैं अब यदि उनकी छवि से प्रभावित लोग ही उन्हें शहंशाह का दर्जा दे दें तो वो क्या करें। 
किसी नेता ने गलत बयान दे दिया तो मोदी जी दोषी, कहीं दो लोग आपसी दुश्मनी में लड़ पड़ें और उनमें कोई एक दलित निकला तो मोदी दलित विरोधी, कहीं कोई भी लूट-पाट या अन्य कोई अपराध हो तो मोदी जी क्या कर रहे, आपसी झगड़े या एक्सीडेंटली कोई मुस्लिम को नुकसान पहुँचा तो मोदी जी असहिष्णु, मोदी जी यदि सीमावर्ती देशों के मसले बातचीत से हल करने की कोशिश करें तो वो अपराधी न करें तो अभिमानी। ऐसा प्रतीत होता है कि आज की पूरी राजनीति देशहित के लिए है ही नहीं बल्कि मोदी जी के आस-पास घूम रही है मोदी जी को कैसे घेरें, कैसे दोषारोपण करें, कैसे उनकी छवि धूमिल करें आदि-आदि। 
यदि किसी के अस्तित्व पर दाग लगता है तो उस दाग को साफ करना चाहिए न कि ये देखो कि अपना दाग किसी और के दामन पर कैसे मलें, अभी यही हो रहा है बाड्रा की जाँच की माँग क्या हुई सोनिया गाँधी तिलमिला कर मोदी जी को कहने लगीं कि वो शहंशाह नहीं। जबकि यदि आप बेदाग हैं तो आपको तो जाँच का समर्थन करना चाहिए, आप भी तो यही कह रही हैं कि जाँच करवा लो तो मोदी जी बीच में कहाँ से आ गए उन्होंने बिना जाँच अपना फैसला सुना दिया क्या?
यही हाल दिल्ली सरकार का है इतने समय में आज तक अपने महिमामंडन के अलावा कुछ नहीं किया सिवाय प्रधानमंत्री की कमियाँ गिनवाने के, प्रधानमंत्री की डिग्री को नकली साबित करने में जितनी ऊर्जा लगाई यदि उतनी ही राज्य के हितार्थ कुछ काम करने में लगाते तो दिल्ली का कुछ भला होता। परंतु ऐसा तब होता जब उद्देश्य सकारात्मक होता। ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री बने ही सिर्फ इसलिए हैं कि बार-बार कोर्ट में शिकायतें करें और खुद तो कुछ करना नहीं दूसरों की आलोचना और फिल्मों की समीक्षा कर सकें और हाँ घोटालों मे रिकॉर्ड कायम कर सकें।
कौन कहता राजनीति लोगों को सिर्फ तोड़ती है आज देख लीजिए राजनीति दो विरोधियों को भी मित्र और रिश्तेदार बना रही है, माननीय प्रधानमंत्री को हराने के उद्देश्य से ही सही किंतु सभी विरोधी पार्टियाँ एक-दूसरे की सहयोगी बन गई हैं। अब राजनीति के लिए इससे अच्छे दिन और क्या हो सकते हैं कि जनता के समक्ष  एक साथ सभी के मुखौटों से शराफ़त का नकाब हटेगा। 

मालती मिश्रा