शनिवार

२०१६ तुम बहुत याद आओगे.....


२०१६ तुम बहुत याद आओगे.....

बीते हुए अनमोल वर्षों की तरह
२०१६ तुम भी मेरे जीवन में आए
कई खट्टी मीठी सी सौगातें लेकर 
मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग 
बन छाए
कई नए व्यक्तित्व जुड़े इस साल में
कितनों ने अपने वर्चस्व जमाए
कुछ मिलके राह में 
कुछ कदम चले साथ
और फिर अपने अलग नए
रास्ते बनाए
कुछ जो वर्षों से थे अपने साथ
तुम्हारे साथ वो भी बिछड़ते 
नजर आए
कुछ जो थे निपट अंजान
तुम उनकी मित्रता की सौगात 
ले आए
जीवन की कई दुर्गम 
टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर
चलते हुए जब न था कोई 
साथी
ऐसे तन्हा पलों में भी 
तुम ही साथ मेरे नजर आए
वक्त कैसा भी हो
खुशियों से भरा 
या दुखों से लबरेज
तुम सदा निष्काम निरापद
एक अच्छे और 
सच्चे मित्र की भाँति
हाथ थामे साथ चलते चले आए
वक्त का पहिया फिर से घूमा
आज तुम हमसे विदा ले रहे हो
सदा के लिए तुम जुदा हो रहे हो
भले ही साल-दर-साल तुम 
दूर होते जाओगे
पर जीवन के एक अभिन्न
अंग की भाँति
ताउम्र तुम 
बहुत याद आओगे 
साल २०१६ 
जुदा होकर भी तुम न
जुदा हो पाओगे
जीवन का हिस्सा बन 
हमारी यादों में अपनी 
सुगंध बिखराओगे
साल २०१६ तुम 
बहुत याद आओगे।
मालती मिश्रा
चित्र साभार गूगल से

शुक्रवार

वंदना

वंदना
हे शारदे माँ करूँ वंदना
कमल नयना श्वेत वसना
हंसवाहिनी वीणा धारिणी
वागेश्वरी माँ करूँ प्रार्थना

भवभय हरिणी मंगल करणी
श्वेत पद्मासना माँ शतरूपा
अज्ञानता मिटाकर हमें तार दे
वाणी अधिष्ठात्री माँ शारदे

स्वार्थ लोभ दंभ द्वेष
अवगुणों से हमें उबार दे
शुक्लवर्णा माँ भारती
प्रेम सौहार्द्र का संसार दे

हे जगजननी भव भय हरनी
श्वेत वस्त्रधारिणी वीणा वादिनी
नित-नित शीश नवाकर तुझको
हो शारदे माँ करूँ वंदना।
मालती मिश्रा

बुधवार

जीवन पानी सा बहता जाए

जीवन पानी सा बहता है
ऊँची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी, 
कंकरीली-पथरीली सी
सँकरी कभी 
और कभी गहरी-उथली
आती बाधाएँ राहों में
पानी अपनी राह बनाता
लड़ता सारी बाधाओं से
अविरल धारा सम कर्मरत रह
हर प्रस्तर को पिघलाता जाए
जीवन पानी सा बहता जाए

आगे आए कष्टों का पर्वत
पर जीवन नहीं रुका करता
राह नई बनाने को
पर्वत काट गिराता है
पथ की दुर्गमता अधिक हो जितनी
प्रण उतना ही यह सबल बनाए
मंजिल अपनी पाने को 
नदिया सम
सागर से मिल जाने को
बाधाओं को परे हटाकर
नई डगर यह रचता जाए
जीवन पानी सा बहता जाए
मालती मिश्रा

सांप्रदायिकता को जन्म देते राजनेता

सांप्रदायिकता को जन्म देते राजनेता
सांप्रदायिकता को जन्म देते राजनेता
बहुत पुरानी युक्ति है यदि दो धर्म या जाति वालों में आपसी रंजिश पैदा करनी हो तो किसी एक को आवश्यकता से अधिक संरक्षण देना प्रारंभ कर दो दूसरा अपने-आप स्वयं को असुरक्षित मान बचाव प्रक्रिया की स्थिति में आ जाएगा। बस....फूट डालने वाले का काम पूरा हो गया। अब तो बस समय-समय पर आग में घी डालने रहना है ताकि दुश्मनी की आग शांत न हो जाए।
कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों हमारे देश की राजनीति की है, राजनेता जनता के समक्ष वोट माँगने आते है तो अपनी एक ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं कि वो ही देश के सब से बड़े हितैशी हैं, उनका एक मात्र मकसद देश सेवा और जन सेवा है परंतु जब जनता इन पर विश्वास करके इनका चुनाव कर लेती है तब ये अपने सारे वादे भूल कर जन सेवा की बजाय स्व-सेवा में लग जाते हैं फिर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के तिकड़म लगाते हैं, अब इनके स्वार्थ पूर्ति में समाज या देश का नुकसान होता है, तो हो इनकी बला से।
कोई भी आम नागरिक कभी किसी भी प्रकार का दंगा-फसाद नहीं चाहता। आम नागरिक हमेशा शांति और अमन से जीना पसंद करता है, उसके पास अपनी आजीविका चलाने अपने परिवार के प्रति अपने जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद इतना समय नहीं होता कि जाति-धर्म के नाम पर समाज में तनाव बढ़ाए। सांप्रदायिकता की आग भड़काने के पीछे हमेशा ही समाज के उन शरारती तत्वों का हाथ होता है जिन्हें संरक्षण प्राप्त होता है।
अभी हाल ही में सेना के अधिकारी की नियुक्ति को लेकर ही राजनीतिक पार्टी के नेता का बयान आ जाता है कि मोदी जी ने पक्षपात किया नहीं तो इस पद पर मुस्लिम अधिकारी होता। कितने शर्म की बात है कि उन महाशय ने सेना के कार्यों और नीतियों पर भी सवाल उठा दिया और मोहरा बनाया धर्म को जबकि इस बात से पहले किसी साधारण नागरिक के मस्तिष्क में इस प्रकार के धार्मिक भेदभाव की बात आई भी न होगी। परंतु आम नागरिक के दिमाग में यह भेदभाव भरने का एक और प्रयास है। इसी प्रकार अखलाक की हत्या पर भी बहुत प्रयास किया गया लोगों के मस्तिष्क में यह बात बिठाने की कि मुस्लिम असुरक्षित हैं, कभी कोई आत्महत्या कर ले तो उसे भी राजनीतिक रूप देने के लिए जाति धर्म को आगे कर दिया जाता है। जैसे कि रोहित वेमुला। आत्म हत्या करने वाले सामान्य वर्ग के भी होते हैं परंतु वहाँ राजनेताओं की दाल नहीं गलेगी इसलिए कभी उनके लिए हमदर्दी नहीं जागती नेताओं के हृदय में किन्तु कोई दलित आत्महत्या कर ले तो नेताओं की भीड़ लग जाती ये साबित करने के लिए कि वो 'दलित' था इसलिए मजबूर हो गया। सामान्य वर्ग की मजबूरी इन्हें कभी दिखाई नहीं देती। दलित अगर देशद्रोह भी करे तो भी उसे संरक्षण देने को तैयार हो जाते हैं उसके देशद्रोह को अभिव्यक्ति की आजादी का नकाब पहना कर उसका साथ देते हैं, सिर्फ इसलिए कि इनके ऐसा करने से समाज का एक तबका इनका हो जाएगा, इनके वोट देगा। परंतु इनके ऐसा करने से समाज का एक वर्ग विशेष पूरी तरह इनका होता है या नहीं यह तो नही पता परंतु वो दूसरा वर्ग जिसकी ये कदम-कदम पर उपेक्षा करते हैं वह जरूर इस वर्ग के खिलाफ हो जाएगा और फिर समाज की एकता और अखण्डता खंडित होती है, धीरे-धीरे यहीं से सांप्रदायिक तत्वों का जन्म होता है। पर इन सबका जिम्मेदार कौन है? ये राजनीतिक पार्टियाँ और उनके नेता।
इन राजनेताओं को सिर्फ अपना स्वार्थ दिखाई देता है, इसके कारण ये देश के रक्षक'सेना को भी नहीं छोड़ते, इन्होंने कभी शहीद सेनानियों के लिए उनके परिवारों के लिए इतना हमदर्दी और फिक्र नहीं जताया, हाँ सवाल जरूर उठाया है। आपसी रंजिश मे कोई मारा जाए और इत्तफ़ाक से मरने वाला 'दलित' या मुस्लिम हो तो दलितों और मुस्लिमों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए नए-नए बने नेता भी उसे शहीद का दर्जा देकर करोड़ों रू०देने की घोषणा कर आते हैं फिर चाहे वो इनके अपने राज्य से बाहर का ही क्यों न हो। और जब  सैनिक देश की सीमा पर आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हो जाता है तो उसके लिए इन्हीं नेताओं के मुँह से श्रद्धांजलि के बोल भी नहीं फूटते करोड़ों रू० देना तो दूर की बात है।
अब जनता को ही समझना होगा इनकी नीयत और इनके पैंतरे और जनता को ही जवाब देना होगा कि ये कितने भी पैंतरे आजमा लें एक भारतीय को दूसरे भारतीय से लड़ने के जनता इनके बहकावे में नही आएगी और इन्हें मुँहतोड़ जवाब भी देगी।
मालती मिश्रा

रिश्तों की डोर


हाथ से रिश्तों की डोर छूटी जाती है
लम्हा दर लम्हा दूरी बढ़ती जाती है
जितना खींचो इसको ये 
उतनी ही फिसलती जाती है 
ढीली छोड़ दें तो
राह भटक जाती है
कोई तो समझाए ये
कैसे संभाली जाती है?
हाथों से रिश्तों की डोर छूटी जाती है

तिनका-तिनका करके 
बनाया था जो घरौंदा
वक्त की आँधी 
बिखेरने लगी है उसको
प्रेम प्यार के तिनकों का
अस्तित्व मिटा जाता है
एक-एक तिनका
आँधी में उड़ा जाता है
अपनी थी जो दुनिया
बेगानी नजर आती है
हाथों से रिश्तों की डोर छूटी जाती है
कोई तो बताए कैसे संभाली जाती है
मालती मिश्रा

रविवार

अपराध


बस अड्डा आ गया उसने अपना बैग उठाया और बस से उतरने को आगे बढ़ी..बस के गेट की ओर बढ़ते हुए उसके पैर कांप रहे थे, वह समझ नहीं पा रही थी कि  ऐसा क्यों??  मौसम की सर्दी का असर था या अपनी मंजिल से नजदीकी का अंजाना सा भय जो सर्द लहर बनकर उसकी नस-नस में दौड़ गया था। यह वही जगह है जो कभी अपना लगता था, यहाँ पहुँच कर उसे ऐसा महसूस होता था कि वह अपने घर के आस-पास ही है। यह जगह उसपर अपनेपन की वर्षा करता और आज इसकी धरती पर पैर काँपने लगे हैं। उसके उतरते ही बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ गई। उसने अपने चारों ओर गर्दन घुमाकर देखा अभी सूर्योदय नहीं हुआ था हल्के अँधेरे में चारों ओर कुहरे के सिवा उसे कुछ भी नजर नहीं आ रहा था, उसने कलाई पर बँधी घड़ी पर नजर डाली, छः बज रहे थे। 

उसने अपने चारों ओर गर्दन घुमाई..शायद कोई रिक्शा नजर आ जाए....पर दूर-दूर तक कोहरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था पर इसी धुँधलके में उसे अपने पीछे ही एक फूस की झोपड़ी नजर आई, जिसमें कच्ची मिट्टी की भट्टी बनी हुई थी, भट्टी को ही मिट्टी से चौड़ा किया हुआ था शायद कुछ सामान रखने के लिए...झोपड़ी के बाहर सड़क और झोपड़ी के बीच खाली पड़ी जगह पर ईंटों को जोड़ कर बैठने के लिए बेंचनुमा दो-तीन चबूतरे बने हुए थे। ये जरूर कोई चाय-वाय की दुकान लगती है सोचती हुई वह एक बेंच की ओर बढ़ गई। जब तक कोई रिक्शा नहीं मिलता तब तक यहीं बैठ कर इंतजार करने के सिवा और कोई उपाय नही था उसके पास।

उसने बैग एक तरफ रखा और वहीं उनमें से एक बेंच पर बैठ गई। पेड़ के पत्तों से छनकर कर गिरती हुई ओस की बूँदें उसके बालों को नम कर रही थीं, ठंड से हाथ बर्फ की मानिंद जमें हुए से महसूस हो रहे थे, उसने ओवरकोट पहन रखा था इसलिए उसे सिर्फ बहुत मीठी-मीठी सर्दी का अहसास हो रहा था जो कि इस मौसम में यदि न होता तो शायद मौसम के आनंद से वंचित रह जाती, उसने अपने दोनों हाथों को बाजुओं के नीचे दबा लिया अब जमती हुई उँगलियों को भी गरमाहट मिलने लगी परंतु सर्दी से सिर बहुत ठंडा हो गया था वो तो चलो कोई बात नहीं पर ओस की बूँदें बालों को नम करने लगीं और ये नमी धरा को अच्छी नहीं लग रही थी। वह अब तक बैग खोलने में आलस कर रही थी पर अब...उसने बैग खोला और कैप ढूँढ़ने लगी। तभी किसी की आवाज से चौंक पड़ी वह...
"कौन हो बिटिया, इहाँ अकेली काहे बैठी हो?" एक बुजुर्ग (जो उससे पाँच-छः कदम की दूरी पर खड़ा था) ने पूछा।
"बाबा रिक्शे का इंतजार कर रही हूँ।" धरा ने जवाब दिया।
"अरे तो बिटिया इहाँ ओस में काहे बैठी हो, उहाँ भीतर झोपड़िया में चली जाओ।" बुजुर्ग ने कहा।
"पर बाबा यहाँ कोई नहीं है तो कैसे..." धरा ने बात अधूरी छोड़ दी। बूढ़े बाबा ने धरा की मनःस्थिति समझ लिया था, वह झोपड़ी में गया और वहाँ खड़ी खाट को गिरा दिया और बोला-"आओ बिटिया इहाँ बइठो कोई कुछ नाही कही, बाहिर ठंड जादा है, इतना ठंडी में रिक्शा देरी से मिलिहै।" धरा ने अपना बैग उठाया और झोपड़ी में जाकर खाट पर बैठ गई। सचमुच सर पर  सूखी घास-फूस की छत भी इस समय उसे इतना सुकून दे रही थी जितना कि पक्की छत में भी उसने कभी महसूस नहीं किया। वो सर पर छत की अहमियत जानती है पर कहते हैं न कि भोजन का असली स्वाद तो भूखे को ही मिलता है, यही स्थिति इस समय धरा की थी। उसे यहाँ बैठाकर वह बूढ़ा व्यक्ति अपना लोटा लिए एक ओर दूर कहीं कोहरे में गायब हो गया था धरा के सिर पर छत देकर। 

बस से उतरते समय धरा के मन में जो अंजाना सा भय जागा था वो तो बस के जाने के साथ ही गायब हो चुका था।
यहाँ इस धुँधले से अँधियारे में अकेली धरा को जहाँ तक नजर जाती वहाँ तक इंसान तो क्या कोई कुत्ता भी नजर नहीं आ रहा था, जरूर ठंड से बचने के लिए जानवर भी कहीं न कहीं आसरा लेकर दुबके होंगे, ऐसे सन्नाटे में भी धरा को भय का अहसास नहीं था न जाने क्यों वह आश्वस्त थी जैसे यह क्षेत्र उसका अपना हो जबकि यहाँ आए हुए उसे नौ साल हो चुके हैं, इतने सालों में तो गाँव का नक्शा भी बदल सकता है फिर ये तो कस्बा है जो अनेक गाँवों को जोड़ता है छोटे-बड़े सभी शहरों से आने वाली बसें यहीं से मिलती हैं, रेलवे स्टेशन भी यहीं है। पहले यह जगह महज कस्बा हुआ करता था पर अभी कुछ साल पहले इसे जिला घोषित कर दिया गया है तो ऐसी जगह पर तो विकास कार्य हमेशा होते ही रहते हैं ऐसे में बदलाव भी तेजी से 
होता है। वह जानती थी कि यदि उसे टैम्पो स्टैंड तक पैदल जाना होता तो वह रास्ता भूल चुकी है पर शुक्र है कि जगह का नाम याद है। यही तो वह जगह है जहाँ से धरा उन दो वर्षों में बखूबी परिचित हो गई थी जब वह ग्यारहवी और बारहवीं की पढ़ाई के लिए यहाँ से कोसों दूर मेहदावल में रह रही थी। यहीं से उसे मेहदावल के लिए बस मिलती थी और जब वह मेहदावल से अपने घर आती थी तो यहीं बस से उतरकर यहाँ से रिक्शा लेकर मोखलिस पुर चौराहा जाती थी फिर वहाँ से कटाई के टैम्पो में बैठकर जाती और गोरयाभार उतर कर वहाँ से कम से कम पच्चीस-तीस मिनट पैदल चलकर तब अपने गाँव पहुँचती थी। इतना ही नहीं बचपन से ही जब भी वह बाबू जी और भाइयों के साथ कानपुर से गाँव आती थी तब भी यहीं पर बस से उतरती थी। यही वजह है कि सालों बाद आने के बाद भी उसे इस जगह से अपनेपन की खुशबू आई है, इस जगह ने उसे ऐसे अपने में समेट लिया मानो माँ ने अपनी बेटी को अंक में भर लिया हो। इसीलिए वह इस नितांत सन्नाटे में भी निडर और निश्चिंत होकर उजाले का इंतजार कर रही है। किंतु जहाँ वह जा रही है, जो उसका अपना घर है वहाँ पर उसे देखकर सबकी क्या प्रतिक्रिया होगी...इस बात को लेकर वह आशंकित थी। वह सालों बाद यहाँ आई है भाई ने बताया था कि बाबू जी उसके पास कानपुर में हैं, यहाँ पर माँ और छोटा भाई है पर पता नहीं माँ मुझे देखकर खुश होंगी या नहीं? कितनी शिकायतें हैं उन्हें मुझसे, यदि वो मुझे डाँटेंगी तो... ठीक ही तो है, दो चाँटे भी लगा दें तो भी मैं कोई शिकायत नहीं करूँगी। पर मार कर फिर मुझे गले से लगा लें तो मेरी वर्षों की प्यास बुझ जाएगी। और मेरा छोटू....अब तो कितना बड़ा हो गया होगा... जब तक हमारे पास कोई चीज होती है, चाहे वह कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो! हमें उसकी अहमियत का अंदाजा नहीं होता, जब वह चीज हमारी पहुँच से बाहर हो जाती है तब हम उसकी सही कीमत जान पाते हैं। धरा भी तो दूर होकर कितना तड़पी है अपने परिवार के लिए। दूर होकर भी वो कभी उनसे दूर न हो सकी। पर कभी साहस न जुटा सकी कि स्वयं आकर उन सबसे मिल पाती। अब भी यदि भाई-भाभी ने न कहा होता तो शायद अभी भी वो यहाँ आने का साहस नहीं कर पाती, पर भाभी ने बताया कि माँ उसे बहुत याद करती हैं उसे मिलना चाहिए, इसीलिए...
अचानक कुछ आवाजें  सुनकर उसकी तंद्रा भंग हो गई, वह चारपाई से उठकर झोपड़ी के देहरी तक आई और आवाज की दिशा में देखा तो तीन आदमी आपस में बात करते हुए सड़क के दूसरी ओर विपरीत दिशा में जा रहे थे और थोड़ी ही दूर एक दूसरी झोपड़ी थी कोई महिला वहाँ उस झोपड़ी के बाहर झाड़ू लगा रही थी सन्नाटे को चीरती हुई झाड़ू की आवाज साधारण से कुछ अधिक तेज आ रही थी। कुहरा भी कम होने लगा था, उजाले ने अंधेरे पर  आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया था। झाड़ू लगाती उस महिला को देखकर धरा ने सोचा कि यहाँ भी कोई आता होगा। शायद थोड़ी ही देर में रिक्शा भी मिल जाए। वह वापस खाट पर बैठ गई। और दूसरी ओर देखने लगी जहाँ दो-तीन लोग न जाने कहाँ से एकत्र हो गए थे उनमें से एक आस-पास पड़े गीले पत्तों का ढेर बनाकर उस पर सूखे पत्ते रखकर अलाव जलाने का प्रयास कर रहा था। पत्ते नम होने के कारण उसे आग जलाने के लिए बार-बार फूँक मारना पड़ रहा था। देखते ही देखते आग जलने लगी, धरा ये सब बड़े ही कौतूहल से देख रही थी, वह इसमें इतनी खो गई थी जैसे पहली बार किसी को अलाव जलाते हुए  देख रही हो, उसे याद आया कि कैसे सुबह शाम दादी भी ऐसे ही सूखे पत्तों और पुआल इकट्ठा करके अलाव जलाया करती थीं और वह दादी के साथ हाथ  सेंकने बैठा करती थी.... आग थोड़ी कम होते ही दादी फिर से उसपर पुआल रखतीं और फूँक मारकर आग जलातीं। कभी जब उसे धुआँ लगता तो दादी उसे दूसरी तरफ बैठा देतीं, कितना ख्याल रखता थीं दादी उसका.... अब तो काफी वृद्ध हो गई होंगी...सोचते हुए धरा की आँखें धुँधला गईं, उसमें हथेलियों को आँखों पर रखकर गरमाहट देनी चाही पर ये क्या...उसकी हथेलियाँ गीली हो गई थी और आँसू की दो बूँदें उसके कपोलों पर ढुलक आए। उसने झट से हाथों से आँसू पोंछे और रिक्शे की उम्मीद में फिर से इधर-उधर नजर दौड़ाई। कुहरा काफी छँट चुका था परंतु अभी कोई रिक्शा कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। तभी उसे दूर से आती परछाई सी दिखाई दी...शायद कोई रिक्शा लेकर इधर ही आ रहा था। वह खुश हो गई जैसे प्यासे को पानी मिल गया हो, भूखे भोजन मिल गया हो इस समय वह भी ऐसी ही खुशी महसूस कर रही थी। वह चाहती थी कि अँधेरे-अँधेरे ही घर पहुँच जाए पर मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूरी हो जाएँ तो जीने का लुत्फ खत्म हो जाए। रिक्शे वाला आ चुका था वह उसी अलाव के पास बैठ गया  था वहाँ और भी लोग आ गए थे। इतनी सर्दी में जहाँ आग जल रही हो वहाँ लोगों का जुटना तो स्वाभाविक ही था। धरा ने अपना बैग उठाया और वह भी वहीं आ गई और रिक्शे वाले से बोली-"काका मोखलिस पुर चौराहा चलोगे?"  "बिटिया अबहीं तो चा-पानी पी लेई तब कहीं चलिबै।" रिक्शे वाले ने कहा। धरा ने देखा उसके हाथ में दातुन था, वह समझ गई कि यह अभी दातुन करके चाय-नाश्ता करके ही यहाँ से जाएगा। "आओ बिटिया आग ताप लेओ।" वहाँ अभी-अभी आई एक महिला ने उसका ओर पटरी सरकाते हुए कहा। एक और अधेड़ आदमी जो अभी-अभी आया था पास लगे हैंडपंप से पानी भरकर शायद चाय बनाने की तैयारी करने लगा था। 

जिस दुकान में वह थोड़ी देर पहले खाट पर बैठी हुई थी, वहाँ भी अब कोई महिला झाड़ू लगा रही थी। अब तो हर ओर चहल-पहल होने लगी थी तभी एक और रिक्शे वाला आया। "अरे हरखू मोखलिस पुर चौराहा जाबा का हो?" पहले वाले रिक्शे वाले ने पूछा
"काहे तु नाही जात बाटा?" दूसरे ने पूछा
अबही हम चाह पीयब तब तक इ बिटिया बेचारी बैठल रहि हैं, पता नाही केतना देरी से बैठल बानी।" पहले वाले ने कहा।
"चला बिटिया हम चलत बानी।" दूसरे रिक्शे वाले ने कहा।
धरा जो अब तक चुपचाप दोनों को वार्तालाप करते देख और सुन रही थी, मन ही मन सोचने लगी कि अभी भी गाँव वालों के मन में कितना अपनापन कितना प्यार है.....एक दूसरे की सहायता करते हैं। कितने भोले और निश्छल हैं ये लोग, जो बिन पूछे किसी अन्जान की भी मदद बिना स्वार्थ करते हैं।
"धन्यवाद काका" पहले रिक्शे वाले को कहती हुई धरा ने अपना बैग लिया और रिक्शे में रखकर स्वयं बैठ गई।
"आज तो बहुत जाड़ा है बिटिया, कब से बैठी हो इहाँ?" रिक्शा चलाते हुए पूछा रिक्शे वाले ने। 
"काका छः बजे से।" धरा ने जवाब दिया।
अरे बाप रे, छ बजे त कोहरा के मारे इहाँ कुछ दिखात  नाही रहा होई, डर नाही लगा बिटिया?" रिक्शे वाले काका ने पूछा।
अब तक तो धरा को वह रिक्शे वाला बिल्कुल परिचित सा लगने लगा था, उसकी बातों से कितना अपनापन महसूस हो रहा था जरा भी दिखावा या बनावटी व्यवहार नहीं लग रहा था।
धरा ने कहा- "नही काका, पता नहीं क्यों डर नहीं लगा, फिर एक बाबा जी आ गए थे तो उन्होंने उस चाय की दुकान में खाट डाल दिया, मैं उसी पर बैठ कर उजाला होने का इंतजार करने लगी, डर महसूस करने का तो जैसे समय ही नहीं मिला।" 
बातें करते-करते धरा को रास्ते का पता ही नही चला, वह टैम्पो स्टैंड पर पहुँच चुकी है, इसका पता उसे तब लगा जब रिक्शे वाले काका ने रिक्शा रोक दिया और उतर कर बोले- लेव बिटिया आय गइल तोहार मोखलिस पुर चौराहा। अब इहाँ से कहाँ जाबू।"
"कटाई का टैम्पो लेना है काका।" रिक्शे से उतरते हुए धरा ने कहा।
कटाई का टैम्पू तो बिटिया ऊऊ बड़का पेड़ है न उहाँ खड़ा होई, पर अबही जाई नाही, तब तक तुम इहाँ चाय-वाय पी लेव।" रिक्शे वाले ने कहा।
"ठीक है काका, ये लो" कहते हुए धरा ने रिक्शे वाले को पैसे दिए।
"बिटिया अबहीं सबेरे-सबेरे छुट्टा कहाँ है हमरे पास, खुल्ला दै देतीं।" पचास का नोट देखकर रिक्शे वाले ने विनीत स्वर में कहा।
"काका, सवेरे-सवेरे इतनी ठंड में आग की गरमी छोड़कर आप मुझे यहाँ ले आए हो, कौन करता है आजकल किसी की इतनी मदद, ये आपकी मेहनत के ही हैं, रखिए।" धरा ने कहा।
"राम-राम-राम बिटिया, मदद काहे की, इ तो हमार काम है, अब ऐसन पैसा दइ के हमार आदत न बिगाड़ा, हमार तो बस बीस रुपैय्या होत है।" रिक्शे वाले ने कानों को हाथ लगाते हुए कहा।
धरा ने बड़े ही विनम्रता से कहा- "नहीं काका रखिए इसे, आप नहीं जानते अगर अभी शहर में होती ना तो कोई सौ रूपये से कम नहीं लेता, आपने तो मेरे पचास रूपए बचा दिए। अब एक और काम कर दीजिए, मुझे कटाई का टैम्पो करवा दीजिए, मुझे तो पता नहीं है कि अभी वो ड्राइवर कहाँ होगा।" 
"चला बेटा" कहते हुए रिक्शे वाले ने धरा का बैग उठा लिया। धरा ने मना करके बैग स्वयं लेना चाहा किंतु वह नहीं माना और जाकर बैग टैम्पो में ही रखा।
फिर उसने थोड़ी दूरी पर एक चाय की दुकान पर बैठे किसी लड़के से जाकर कुछ कहा। शायद वो धरा के ही बारे में बात कर रहा था। फिर वापस आकर धरा से बोला- "अच्छा बिटिया हम डिराइबर से कहि दिए हैं, अबही आधा घंटा बाद जइहै, तब तक चाय-वाय पी लेव हम बोल दिए हैं अबही ऊ चाय वाला तोहे दइ दिहै। अब हम जात हैं बिटिया सवारी का टाइम होइ गइल।"
ठीक है काका, आपने मेरी बहुत मदद की, अब आप जाओ, मैं चली जाऊँगी।" कहते हुए धरा को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह किसी अपने को विदा कर रही है।

पास ही लगे हैंडपंप पर धरा ने हाथ-मुँह धोया और अपने बोतल से पानी पीया अब तक चाय वाले ने लाकर धरा को चाय और ग्लूकोज़ के बिस्किट का एक पैकेट दे दिया। "और कुछ चाही मेम सा'ब?" उसने पूछा
"नहीं, थैंक्यू " कहते हुए धरा ने पर्स से पैसे निकाल कर उसे दिए, वह चला गया और बचे हुए पैसे वापस लाकर धरा को दे दिया। धरा ने टैम्पो में बैठकर ही चाय पी। अब तक वह अकेली थी पर अब अन्य सवारियाँ भी आने लगी थीं। एक साथ ही कई लोग आ गए, शायद ये लोग भी कहीं बाहर से आ रहे थे, उनके पास काफी सामान था। ड्राइवर ने सामानों को टैम्पो की छतपर बँधवाया और फिर चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर।
वही रास्ता है जो पहले था पर फिर भी कितना बदल गया है...सड़क के दोनों ओर पहले बहुत दूर-दूर कहीं-कहीं इक्का-दुक्का झोपड़ी हुआ करती थी, कहीं ट्यूबवेल की, कहीं सब्जियों के खेतों में रखवाली के लिए, कहीं-कहीं तो उपलों के भिटोरे हुआ करते थे पर अब.... झोपड़ियाँ तो अब शायद ही कहीं दिखाई दी हों, अब तो सड़क के दोनों ही ओर पक्के मकान बन गए हैं...हाँ उनमें लोग शायद अभी रहते नहीं हैं वो या तो दुकान के लिए हैं या फिर बनवा कर यूँ ही छोड़े हुए हैं। दूर-दूर कहीं-कहीं लोग रहते भी हैं पर बदलाव के बाद भी धरा को ये सब देखने में अच्छा लग रहा था। गाँव से तो उसे विशेष लगाव रहा है, वह जब से गाँव से दूर हुई है तब से ही गाँव से उसका लगाव अधिक बढ़ गया है। अब जबकि वह अपने गाँव आ ही गई है तो जी भर कर जीएगी यहाँ जब तक रहेगी। तभी टैम्पो रुका वहाँ दो लोग और बैठे और टैम्पो रोड छोड़कर दाँई ओर जा रही पतली सड़क पर मुड़ गया। 
"भइया ये नौरंगिया है क्या?" धरा ने उत्सुकतावश पूछा। पास ही बैठे एक यात्री ने कहा-"हाँ"
धरा की उत्सुकता बढ़ गई जैसे वह खुद की ही परीक्षा ले रही थी कि वह अब भी रास्ते में आने वाले कुछ खास गाँवों को पहचान पाती है या नहीं? परंतु काफी बदलाव आ चुका था, उसे सब कुछ अलग और अंजाना सा लग रहा था उसे लगा कहीं ऐसा न हो कि वह आगे कटाई पहुँच जाए और उसे पता ही न चले इसलिए उसने ड्राइवर को बोला-"भइया हमें गोरयाभार उतार देना।" 
"आपक कहाँ जाएक है" ड्राइवर ने पूछा
"देवरी" धरा ने कहा
"ठीक है हम गोरयाभार जहाँ से रिक्शा मिली ओहीं उतार देब आप रिक्शा से चली जायो" ड्राइवर ने कहा।
"ठीक है" कहते हुए धरा फिर टैम्पो से बाहर की ओर देखने लगी, उसे ऐसा लगा जैसे अभी जो गाँव पीछे छूटा है शायद वो कोनी है परंतु यहाँ तो पहले नदी हुआ करती थी पर अब तो ऐसा लगा जैसे छोटी सी किसी पुलिया के ऊपर से निकले हैं बस...जैसे किसी पतली नहर या नाले की पुलिया हो। पर धरा ने किसी से कुछ न पूछा वह चुपचाप बाहर पीछे छूटते पेड़ों झोपड़ियों झाड़ियों को देखती रही और आगे आने वाली अपनी मंजिल का इंतजार करती रही।

टैम्पो रुका गया सामने एक झोपड़ी थी यहाँ भी भट्टी पर चाय बन रही थी कुछ लोग हाथ सेंक रहे थे पास ही दो रिक्शे खड़े थे। यहीं आगे से सड़क बाँई ओर को मुड़ जाती है एक सड़क दाँयी ओर को जा रही है, धरा ने अनुमान लगाया कि शायद यही गोरयाभार है। काफी बदलाव है पर फिर भी कुछ ऐसा है जो दिखाई न देते हुए भी जाना-पहचाना सा लग रहा है। वह उतर गई...उसने ड्राइवर को पैसे दिए। ड्राइवर ने कहा- "यहीं से रिक्शा मिल जाई।"
"धन्यवाद" धरा ने कहा और अलाव पर हाथ सेंक रहे लोगों की ओर मुखातिब होकर बोली- "यहाँ से देवरी जाने के लिए रिक्शा मिलेगा?"
"हाँ-हाँ काहे नाही, देउरी में कउन पुरवा पे जाएक है?"
उनमें से एक ने कहा।
"छोटे पुरवा पर" धरा ने कहा।
"ठीक बा, चला चलत बाटी" कहते हुए वही अधेड़ व्यक्ति उठा और वहाँ खड़े एक रिक्शे की गद्दी को कपड़े से साफ किया धरा का बैग रिक्शे पर रखा और धरा के बैठते ही रिक्शा चल पड़ा। 
धरा ने कलाई पर बँधी घड़ी देखी पौने नौ बज रहे थे किंतु सूर्य देव के दर्शन अभी भी नही हुए थे। रिक्शा अब पगडंडी पर चल रहा था, पगडंडी के दोनो ओर हरियाली की दरी बिछी हुई थी कहीं गेहूँ के खेत कहीं चने के, कहीं मटर के तो कहीं गन्ने के खेत कहीं-कहीं तो सरसो के पीले-पीले फूल दूर-दूर तक अपना मनोहारी छवि बिखेर रहे थे जहाँ तक नजर जाती सरसों के फूल ही नजर आते। वर्षों बाद धरा ऐसी छटा देख रही थी। मन में घर जाने और माँ से मिलने की खुशी थी और एक अंजाना सा भय भी था कि माँ की कैसी प्रतिक्रिया होगी, वह मुझे देखकर खुश तो होंगी पर क्या दौड़कर मुझे अपने सीने से लगा लेंगी या मुझे देखकर स्तब्ध रह जाएँगीं और उन्हें कुछ ख्याल ही नहीं रहेगा, वह अपनी खुशी किस प्रकार जाहिर करेंगीं? इन्हीं खयालों में खोई धरा को पता ही न चला कब रास्ता खतम हो गया, रिक्शा अब गाँव में प्रवेश कर चुका था घरों के बाहर काम करती औरतें खेलते हुए बच्चे अपना काम रोक कर उसे देखने लगते, उन्हें ऐसे देखते हुए देखकर धरा को बड़ा अजीब महसूस हो रहा था। उसे यहाँ कोई नहीं पहचान रहा ये तो उसे पता है क्योंकि ये उसके गाँव का वो दूसरा पुरवा यानि भाग है जहाँ इक्का-दुक्का को छोड़ कोई उसे नहीं पहचानता था, फिर क्यों लोग उसे ऐसे देख रहे हैं? उसने कपड़े भी अजीब नहीं पहने हैं साड़ी ही तो पहनी है। वह समझ नहीं पा रही थी कि गाँव में सुबह-सुबह कोई शहरी आ जाए वो भी अंजाना तो लोगों का कौतूहल भी बढ़ जाता है।

उसे दूर से ही अपना घर दिखाई देने लगा उसने देखा कि वहाँ खेतों की मेड़ों से होकर जाया जा सकता है तो क्यों लोगों के बीच हाई लाइट बने, क्यों न यहीं से सीधे चली जाये। वह वहीं रिक्शे से उतर गई और उसे पैसे देकर खेतों के बीच से होती हुई उस रास्ते पर आ गई जो सालों पहले भी एक पुरवा से दूसरे पुरवा पर जाने के लिए प्रयोग करते थे, उसी रास्ते से वह घर आ गई। अच्छा हुआ यहाँ कोई घर से बाहर नहीं था....उसके घर में भी सन्नाटा पसरा हुआ था।
कितना कुछ बदल चुका था वहाँ...उसका सबसे पुराना वाला घर जिसमे दादी, मँझले चाचा का परिवार रहते थे वो तो यहाँ था ही नहीं, छोटे बाबा यानि बाबू जी के चाचा का ही घर जो उस घर का ही आधा भाग हुआ करता था वो भी जर्जर हो चुका था। उसके घर के बराबर में पहले छोटे बाबा की झोपड़ी हुआ करती थी वहाँ अब पक्का मकान बन रहा है जो कि अभी अधूरा ही है। छोटे चाचा का वही मकान खपरैल वाला वो अभी नहीं बदला है और धरा का खुद का घर वो भी आगे से बदला तो नहीं है पर बाहर की तरफ एक रसोई भी बन गई और पीछे भी बरामदा बनवा दिया है जो कि धरा को आते हुए दूर से ही दिखाई पड़ा था।
धरा ने महसूस किया शायद रसोई में कोई है उसने बरामदे में बैग रखा और रसोई की ओर बढ़ गई, ठंड के कारण रसोई का दरवाजा आधा बंद था... धरा ने दरवाजे को हल्के हाथ से धकेला....
"के हो".....माँ की आवाज आई
धरा का दिल मानों धड़कना भूल गया... उसकी बाहर की साँस बाहर और भीतर की साँस भीतर रह गई...धमनियों में रक्त प्रवाह कुछ क्षणों के लिए रुक गया... आज नौ साल के बाद उसने माँ की आवाज सुनी... 
म्म्म्माँ.... धरा के काँपते होंठों से निकला
माँ झटके से खड़ी हो गईं किंतु कुछ बोल न सकीं, वह अपनी ही जगह पर मानों जम गईं, उनके मुँह से कोई शब्द न निकल सके...वह बस अपलक अपनी बेटी को निहारे जा रही थीं शायद उन्हें इस सच्चाई पर विश्वास नहीं हो रहा था कि सामने उनकी धरा सचमुच ही खड़ी है....
धरा भी अपनी माँ को बिना पलक झपकाए एकटक देख रही थी...कितनी बदल गई हैं माँ...कितनी कमजोर और बूढ़ी लग रही हैं, सारे बाल सफेद हो गए है, अपनी उम्र से कितनी ज्यादा लग रही हैं...उसे पता था कि माँ की उम्र अभी पचास से अधिक नहीं है पर वो कम से कम सत्तर-बहत्तर साल की बूढ़ी लग रही थीं... माँ...मैं..कहती हुई धरा की आँखों में आँसू छलक पड़े, उससे माँ की यह दशा देखी नहीं जा रही थी...
माँ को जैसे होश आया वो धीरे से आगे बढ़ीं और धरा को गले से लगा लिया...सब्र का बाँध टूट चुका था...अपने सारे बाँध तोड़ कर आँसुओं की धारा बह चली.....
जब रोकर मन हल्का हुआ तब शायद माँ को धरा के प्रति अपनी शिकायत याद आई उन्होंने धरा को कंधे से पकड़ कर अपने से अलग हटाते हुए कहा- "अब तोहे हमार याद आईल है ?"
"याद तो हमेशा ही आती थी माँ, भूली ही कब थी!" धरा ने अपराधी की भाँति नजरें झुका कर कहा।
"हाँ...तबही तो नौ साल तक खबर नाही लेहलू कि माँ मर गईल या जिन्दा है।" माँ की आवाज में निराशा और क्रोध का मिलाजुला भाव साफ महसूस किया जा सकता था।
माँ तुम....धरा कुछ कहती इससे पहले ही माँ बोल पड़ीं- "खैर बात-चीत त होत रही, थक गईल होबू चला हाथ-मुँह धोइ के, चाय-वाय पी ल पहिले।"
धरा बैग लेकर गैलरी से होती हुई भीतर के बरामदे में आ गई। माँ हैंडपंप से धरा के लिए पानी भरने लगीं...
"रहने दो माँ मैं भर लूँगी।" धरा ने माँ को हटाते हुए कहा।
"ठीक ह तुही कइ ल तब तक हम चाय बनाइ लेइ" कहती हुई माँ बाहर रसोई में चली गईं।
धरा ने पानी भरा और नहा-धोकर बाहर रसोई में आ गई। तो माँ ने उसकी ओर पटरी सरका दी, धरा उसपर बैठने ही लगी थी कि माँ बोल पड़ीं- " दरवजवा थोड़ा भिड़काय ल, बयार लागी।"
"हाँ, माँ छोटू कहाँ है?" कहती हुई धरा ने दरवाजे को बंद किया रोशनी आती रहे इसलिए आधा खुला ही रहने दिया और फिर वह पटरी पर बैठ गई। 
"मौसी के गाँव गइल हैं।" कहते हुए माँ ने चाय और टोस्ट धरा के सामने रख दिया। टोस्ट देखकर उसने सोचा माँ इतनी ठंड में जल्दी से जाकर मेरे लिए टोस्ट ले आईं आज वह बहुत खुश हैं पर उदासी ने उनके चेहरे पर इस प्रकार अपना कब्ज़ा कर लिया है कि खुश होते हुए भी वह खुश नहीं लग रहीं। सोचते हुए वह चाय पीने लगी, माँ निर्विकार भाव से बिल्कुल शांति पूर्वक रोटी बना रही थीं। धरा उन्हें ही देख रही थी...पता नहीं क्या चल रहा है माँ के दिलो-दिमाग में? वह बहुत कुछ कहना चाहती थी पर बोल पाने में खुद को असमर्थ महसूस कर रही थी। कहते हैं जब बातों की अधिकता होती है तो व्यक्ति निर्णय नही कर पाता कि वह क्या बोले और क्या छोड़े या कहाँ से शुरू करे, ऐसी उलझनों के कारण व्यक्ति की वो सभी बातें अनकही रह जाती हैं जिनके ताने-बाने वो पिछले न जाने कितने दिनों महीनों या वर्षों से बुनता आ रहा होता है। ऐसी ही स्थिति इस समय धरा की थी और शायद माँ की भी।
बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ पर माँ के समक्ष तो बच्चे ही रहते हैं धरा भी इस समय स्वयं को बच्ची ही महसूस कर रही थी और मन ही मन अपनी असमर्थता को स्वीकार करते हुए अब वो भी यही सोचने पर विवश हो गई थी कि माँ तो आखिर माँ हैं वो उसकी अनकही बातें भी समझ ही जाएँगीं।
तभी कोई औरत माँ को आवाज लगाती हुई आई, आवाज सुनते ही माँ ने दरवाजे को थोड़ा और धकेल दिया ताकि आने वाली महिला धरा को न देख सके। अचानक ही धरा को ऐसा महसूस हुआ मानो किसी ने उसके कलेजे को मुट्ठी में भींच लिया हो...माँ लोगों से उसे छिपाना चाहती हैं! पर क्यों? उसे महसूस हुआ कि उसकी पलकों का बाँध तोड़कर आँसू कपोलों पर ढुलकने ही वाले हैं तभी उसने अपने घुटनों पर आँसुओं को सुखा दिया। 

माँ से बात करके वह स्त्री चली गई तो उसने माँ से कहा- "क्यों माँ? तुमने ऐसा क्यों किया? वो अगर मुझे देखकर लेती तो क्या तुम्हारी नाक कट जाती? मुझे नहीं पता था कि तुम्हें मेरा आना इस तरह लोगों से छिपाना पड़ेगा..शायद तुम्हें मेरा आना अच्छा नही लगा।"
माँ के चेहरे पर दयनीय भाव नजर आए, वह बोलीं- "एतना साल होई गइल, एतने साल के बाद अइलू ह, इ गाँव होय तोबे नाही मालूम कि अगर तनिको भनक केहू के लग जाइ तो इ बात पूरे गाँव में जंगल के आग की तरह फैल जाई।"
तो क्या हुआ माँ? फैल जाने दो। कब तक तुम मुझे छिपाओगी? धरा ने आक्रोश पूर्वक कहा।
"बात छिपावक नाही है बच्चा, बात बाबू जी के है, बाबू जी के ऐसे पता चली तो ऊ बहुत नाराज होइहैं। ऊ सोचिहै कि तू चोरी-चोरी हमसे मिले आइल बाटू तो पहिलो ऐसे आइल होबू, विश्वास टूटत है। ऊ आय जाएँ हम उन्हें बताइ देई ओकरे बाद हमे कउनो डर नाही।"
"पर माँ तब तक तुम मुझे लोगों से छिपाओगी, ये ठीक नहीं। मैंने कोई पाप तो नहीं किया है कोई मर्डर भी नहीं किया फिर भी मुझे यहाँ छिपकर रहना पड़ेगा। मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था।"  कहते हुए धरा की आवाज भर्रा गई।
बिटिया पढ़ाई खातिर तुम हम सबन क छोड़ि के हमसे नाता तोड़ि के गइल रहलू , और फिर नौ साल पलट के नाही देखलू, ऐसे केहू अपने महतारी-बाप से नराज होत है? फिर तु अपने बाबू जी क गुस्सा त जानत बाटू न... 
बोलते हुए माँ की आँखों से आँसू छलक पड़े।
धरा ने माँ के आँसू पोछते हुए कहा- " नहीं माँ! सिर्फ पढ़ाई के कारण नही पढ़ाई तो बस बहाना था मैंने तुम्हारी और बाबू जी की बात सुन ली थी कि तुम लोगों ने बचपन में जो मेरी शादी कर दी थी और पढ़ाई के बाद मुझे उस शराबी के गले बाँधने वाले थे, बाबू जी को तुम्हारी बात भी नहीं मानी थी तो मेरी तो वो बिल्कुल भी नही सुनते। मैं अपनी जिंदगी जानबूझ कर बर्बाद नहीं कर सकती थी माँ, इसीलिए। वो सबसे बड़ा कारण था मेरे यहाँ से जाने का..
"और हम लोगन क कुछ पता नाही कि तु कुछ जानत बाटू, बाबू जी तोहार सकल नाही देखल चाहत है" धरा की बात बीच में काटकर माँ बोल पड़ीं।
"तो तुम अब क्या चाहती हो माँ, मैं यहाँ नहीं आऊँ?" कहते हुए धरा रो पड़ी।
"रो नाही, बाबू जी आवे तब उनसे बतियाइल जाइ, लेकिन तब तक गाँव वालन क पता नाही चलक चाहीं" माँ ने उसे कोमलता से ही सही पर अपना निर्णय सुना दिया।

ठंड की अधिकता के कारण लोगों का बाहर निकलना अन्य दिनों की अपेक्षा कम ही होगा शायद या फिर उसे ही ऐसा लग रहा होगा क्योंकि वह बाहर नहीं निकली।
घर के भीतर बरामदे में ही माँ ने तसले में आग जला दिया वह वहीं आग तापती या रजाई में बैठ जाती। वैसे भी वो नौ साल पहले भी गाँव में किसी के घर नहीं जाती थी पर बगीचे और खेतों में चली जाया करती थी। घर के भीतर रहना उसके लिए परेशानी नहीं होती यदि यह स्वेच्छा से होती। कहते हैं न कि यदि किसी ओर व्यक्ति का रुझान पैदा करना हो तो उसे उस चीज से दूर रहने के लिए कह देना चाहिए। यह मानव का प्राकृतिक स्वभाव है कि उसे जिस चीज के लिए रोका जाए उसका मन उसी ओर आकृष्ट होता है। यही दशा इस समय धरा की थी...जिस घर में आने के लिए वह बेकरार थी, वही घर उसे पराया लग रहा है उसे किसी चीज से अपनेपन की खुशबू नहीं आ रही। माँ के और उसके बीच भी एक अनदेखी सी दीवार महसूस की उसने। 
उसे याद आने लगा वह मंजर जब वह कानपुर में थी वहीं पर वह ग्रेजुएशन की परीक्षा दे रही थी तभी उसने माँ से बाबू जी को बातें करते सुना था कि वो उसी वर्ष उसका गौना कर देना चाहते थे। धरा को गाँव में माँ की सहेली जिन्हे धरा दादी कहती थी उनकी बात याद आई, वो माँ को बता रही थीं कि वह लड़का जिससे बचपन में उसका विवाह हुआ था वो बहुत बड़ा शराबी और जुआरी बन चुका है। 
गौना की बात सुनकर माँ ने भी बाबू जी को सब बताया था पर बाबू जी परंपराओं को नहीं छोड़ सकते थे सो माँ को डाँटकर चुप कर दिया था।
धरा ने उस समय कुछ नही कहा था, उसने चुपचाप परीक्षा दिया और रिज़ल्ट आने के बाद बाबू जी से दिल्ली जाकर पढ़ाई और जॉब करने की बात कही थी।
बाबू जी के मना करने पर भी जब वह नही मानी तो उन्होंने कठोरता से अपना फैसला सुना दिया था कि "जाओ पर कभी वापस मत आना।"
धरा ने रोते हुए घर छोड़ दिया था पर सोचा था कि बाबू जी का गुस्सा शांत होगा तो वह बुला लेंगे, पर ऐसा कभी नहीं हुआ। बाबू जी का गुस्सा न शांत हुआ और न ही कभी उसने स्वयं वापस आने का साहस किया।
अब इतने वर्षों बाद साहस जुटाकर आई पर ऐसा लगता है कि अब यहाँ की मिट्टी भी उसकी सुगंध भूल चुकी है। जिन दीवारों को उसने अपने हाथों से सजाया-सँवारा था वो दीवारें उसके स्पर्श को भूल चुकी हैं। अब तो माँ को भी अपनी कोख जनी संतान को दुनिया की नजरों से छिपाना पड़ रहा है। ये तो उसके लिए शर्म से डूब मरने की बात है। 

"खाना यहीं लाई कि रसोई में खाबू?" रात का खाना बना कर माँ ने पूछा।
"रसोई में आ रही हूँ।" कहती हुई धरा आग के पास से उठी और हाथ पैर धोकर रसोई में आ गई।
"माँ मैं कल शाम की गाड़ी से वापस जा रही हूँ।" खाना खाते हुए धरा ने कहा।
"कल ही!" माँ के हाथ जहाँ थे वहीं रुक गए। "इतने जल्दी? हम सोचली कि अबही एकाध हफ्ता रहबू।" माँ ने उदास होकर कहा।
"नहीं माँ तुमसे मिलना था मिल ली, अब रहकर करूँगी भी क्या घर के भीतर बंद होकर किसी काम में तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकती और मेरी छुट्टी भी परसों तक की है।" धरा ने झूठ बोला।
"एतने साल बाद अइलू ह खाली एक दिन खातिर" माँ की आवाज में निराशा को धरा भाँप गई थी। पर वह चाहते हुए भी यहाँ और अधिक रुकने में असमर्थ थी। उसे इस प्रकार रहना अपमानजनक लग रहा था।
"माँ अब आ गई हूँ ना तो चिंता मत करो अब मैं आती रहूँगी, अब अगली बार जब बाबू जी घर पर होंगे तब आऊँगी" धरा ने छोटे बच्चे की तरह जिद करते हुए कहा। अब माँ बेचारी क्या कहतीं वो भी चुपचाप खाना खाने लगीं।
माँ ने एक ही बिस्तर लगाया, वर्षों बाद आज धरा माँ के साथ सोएगी, ढेर सारी बातें करनी हैं पर वह नही कर पाएगी... अनदेखी सी दूरी आ गई है अब दोनों पीढ़ियों के बीच। वह जानती है कि माँ के दिल में उसके लिए प्यार कम नहीं हुआ है पर अब उस पर समय की धूल जम चुकी है, वह चाहते हुए भी लोगों के समक्ष उस पर अपनी ममता नहीं लुटा सकतीं, उनमें समाज की रीतियों का विरोध करने का साहस नहीं है और न ही इतनी जागरूकता, यहाँ आज भी वही व्यक्ति सही और चरित्रवान है जो समाज के बनाए नियमों को बिना तर्क स्वीकार कर ले। यदि कोई इन नियमों पर सवाल उठाता है या अपना हित सोचकर इन नियमों के विपरीत कोई कदम उठाता है तो वह इस समाज का अपराधी होता है और ऐसे व्यक्ति को खासकर यदि वह स्त्री हो तो हमारा यह समाज उसे पुनः स्वीकार नहीं करता। ऐसा ही है हमारा समाज। यदि धरा समाज के इन्हीं रूढ़िवादी नियमों के तहत हुए बालविवाह को मान कर अपनी खुशियों और अपनी जिंदगी की कुर्बानी दे देती तो यही माँ-बाबू जी अपनी बर्बाद बेटी को गर्व के साथ अपने सीने से चिपटाए रखते लेकिन धरा ने अपने आप को बर्बाद ही नहीं होने दिया यही उसका गुनाह बन गया, जो कि समाज और उसके अपने माता-पिता के द्वारा अक्षम्य हो गया। अब वह खुश है, सुखी है, इस बात से समाज और माँ-बाबू जी को खुशी नहीं होगी पर उसने समाज की रूढ़िवादी नियम को तोड़ा इस बात का रंज अभी भी है और शायद हमेशा रहेगा।
"माँ, दादी और चाची से कल मिल लूँ?" धरा ने माँ से पूछा, जो अभी-अभी आकर लेटी थीं।
हाँ, हम बिहान (कल) उन लोगन क यहीं बुलाय लेब, तब मिल लिहो।" माँ ने कहा।
"ठीक है," कहकर धरा ने करवट बदला और मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते सवालों को परे सरका सोने की कोशिश करने लगी।
मालती मिश्रा

शनिवार

सवाल

सवाल..
ये दिल मेरा कितना खाली है
पर इसमें सवाल बेहिसाब हैं
मैं जवाब की तलाश में
दर-दर भटक रही हूँ
पर मेरे दिल की तरह 
मेरे जवाबों की झोली भी 
खाली है।
ये दिल मेरा....
भरा है माता-पिता के प्रति
कृतज्ञता से
भाई-बहनों के प्रति
प्यार और दुलार से
माँ की दी हुई सीख से
पिता के दिए हुए ज्ञान से
दादा-दादी के दुलार से
सबने सिखाया तरह-तरह से
अलग-अलग ढंग से
बस एक ही सीख
औरों के लिए जीना
औरों की खुशी में खुश रहना
बहुत सा ज्ञान भरा है मेरे उर में
पर फिर भी
ये दिल मेरा..कितना खाली है
वो दिल...
जिसमे परिवार के लिए
प्यार भरा है
पत्नी का त्याग भरा है
माँ की ममता का सागर 
हिलोरें लेता है
बहू के कर्तव्यों से भरा है
अहर्निश की अनवरत 
खुशियाँ बाँटने का 
प्रयास भरा है
फिर भी....
ये मेरा दिल.. कितना खाली है...
इस खाली दिल में
बच्चों के टिफिन की 
खुशबू
उनकी पुस्तकों के हरफ 
भरे हैं
पति के फाइलों को करीने से
रखने की फिक्र
ससुर जी की दवाइयों की
उड़ती गंध और
सासू माँ के घुटनों की मालिश
के तेल की चिकनाहट
भरी है
देवर ननद के
इस्त्री के लिए
दिए गए कपड़ों की
सिलवटें भरी हैं
जिम्मेदारियों को सिससिलेवार
पूरा करने की ख्वाहिशों में
कितनी सफल और 
कितनी असफल हुई
ऐसे भी अनगिनत
सवालों का अंबार भरा है
फिर भी....
ये दिल.. कितना खाली है...
एक खाली टीन के डब्बे सा
जो रिश्तों की थाप से
भरे होने का भ्रम पैदा करता है
किन्तु भीतर शून्यता का
बोध कराता है
इस संसार में मैं क्या हूँ
कौन हूँ मैं
ये आज तक जाना ही नहीं
मेरी पहचान जो औरों से
परिचय कराती है मेरा
उसमें भी मेरा अपना क्या है?
 पहले पिता 
फिर पति का नाम 
जुड़ा हुआ यूँ लगता है
मानों मैं परछाई हूँ 
बिना किसी अस्तित्व के,
मेरा अस्तित्व तो मेरे पिता या पति हैं
वह परछाई जो
उजाले में प्रत्यक्ष होती है
अँधेरे में विलुप्त हो जाती है
रैन-दिवा मैं कर्मरत
पर मेरा कोई कर्म 
स्वतंत्र रूप से मेरा नही 
मेरा ये दिल....
कितना खाली है..
पर इसमें सवालों की
कभी न खत्म होने वाली
वो पूँजी है
जो कभी समाप्त ही नहीं होती।
ये दिल मेरी....कितना खाली है?????
मालती मिश्रा

मंगलवार

कान्हा तेरो रूप सलोनो


कान्हा तेरो रूप सलोना
मेरो मन को भायो
इत-उत बिखरे मोर पंख को
तुमने भाल चढायो
देखि-देखि तेरो रूप सलोनो
मेरो मन बलि-बलि जायो
मधुर बँसुरिया है बड़ भागी
जेहि हर पल अधर लगायो
मन ही मन उनसे जले गोपियाँ
जिन राधे संग रास रचायो
कान्हा तेरो रंग सलोना 
मेरो मन हर जायो
करत ठिठोली गोपियन संग
मटकी फोड़न धायो
सुन ओरहन जसुमति जब खीजे
नए-नए स्वांग रचायो
कान्हा तेरो ढंग अति न्यारो
मेरो मन तुझमें रमायो।
मालती मिश्रा 

शनिवार

भोर सुहानी


उषा की लहराती चूनर से 
अंबर भया है लाल
तटिनी समेटे अंक मे 
सकल गगन विशाल
सकल गगन विशाल 
प्रकृति छटा बिखरी है न्यारी
सिंदूरी सी चुनरी मे 
दुल्हल सी भयी धरा हमारी
रंग-बिरंगे पुष्पों ने सजा दिया 
पथ दिवा नरेश का
मधुकर की मधुर गुनगुन ने 
खोल दिया पट कलियों का
मुस्काते फूलों से सज गई है 
हर क्यारी-क्यारी 
कुहुक-कुहुक कर गीत सुनाती 
कोयल फिरे है डारी-डारी
मंदिरों में घंटे की टन-टन 
कानों में पावनता घोले
माझी के आवन की बेला 
नदी में नैया इत-उत डोले
मालती मिश्रा

गुरुवार

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार
भ्रष्ट और आचार
इन दो शब्दों का मेल,
चारों ओर फैला है
इसी मेल का खेल।

आचरण में जिसके घुला
भ्रष्टता का मिश्रण,
इस मिश्रण से आजकल
त्रस्त है जन-जन का मन।

भ्रष्टाचार मिटाने के
नारे तो सभी लगाते हैं,
पर दुष्करता से बचने को
खुद भ्रष्टाचार बढ़ाते हैं।

सरकारी दफ्तरों में बाबू
नहीं है जिनके ऊँचे दाम,
सरकारी वेतन पर भी
चाय-पानी बिन करें न काम।

समाज का ऊँचा तबका
जो सफेद पोश कहलाता है,
भ्रष्टाचार विस्तारण से
उसका ही गहराता नाता है।

अपने दंभ में मदमस्त हुए
गरीब को तुच्छ बताते हैं,
अमीरी अपनी दर्शाने को
मानव का मूल्य लगाते हैं।

स्याह रुपैया श्वेत करने को
नित नए दाँव लगाते हैं,
अपनी टेढ़ी चालों में
सीधे-सादों को फँसाते हैं।

कालाबाजारी की गंदगी
समाज में ये फैलाते हैं,
काली नीयत के कीचड़ ये
औरों के दामन पर उड़ाते हैं।

दशकों बीत गए जिनको
गरीबों का शिकार करते,
गरीबी उन्मूलन को वो
अब अपना कर्म बताते हैं।

मानव को स्वराज दिलवाने का
जो अभियान चलाते हैं,
पहनाकर टोपी जन-जन को
भ्रष्टों का गुट बढ़ाते हैं।

लोकपाल और स्वराज को
अपना आदर्श बता करके,
बना हथियार चंद जुर्मों को
सांप्रदायिकता फैलाते हैं।

गर कृषक ही बोए दुराचार तो
सदाचार की फसल नहीं होगी,
पाकर पोषण पतितों का फिर
ये अपनी तादात बढ़ाते हैं।

ऐसे भ्रष्ट आचरण के स्वामी
गर देश राज्य के कर्ता-धर्ता हों,
फिर भ्रष्टाचार निवारण के वादे
बस कागजों में रह जाते हैं।

छोटा हो या बड़ा समाज में
सब अपने स्तर पर लूट रहे
मंदिर गुरुद्वारों देवालयों में भी
अपावन को पावन किये जाते हैं।
मालती मिश्रा

मंगलवार

दूर के ढोल सुहाने

दूर के ढोल सुहाने
दूर के ढोल सुहाने...

जीवन में कुछ लोग 
बहुत खास होते हैं
पर जो खास होते हैं 
वो कब पास होते हैं
और जो पास होते हैं 
वो कब कहाँ खास होते हैं
मानव की फितरत है यही
कि वो हमेशा अनदेखे की 
तलाश करता है
और जो पास होता है 
उसे अनदेखा करता है
वह हमेशा 
परछाइयों के पीछे भागता है
और जो उसके पास होता है 
उसकी परछाइयों से भागता है
मानव हमेशा अप्राप्य को 
प्राप्त करने का प्रयास करता है
और जो उसे प्राप्त है,
जो उसके पास है, 
उसकी अहमियत से अन्जान होता है
उसे दूर की चीज कीमती
और अपनी कीमती वस्तु भी
निरर्थक और सस्ती लगती है
यह मनुष्य का
स्वाभाविक गुण होता है
कि उसे दूर के ढोल ही
सुहाने लगते हैं
अपने तो बस बेमाने और
पुराने लगते हैं
वह सदा मृगतृष्णा 
के पीछे भागा है
अपनी बहुमूल्य निधि
गँवाकर ही वह
जागा है
अपनी अमूल्य निधि
खोकर ही इसने
उसके मूल्य को जाना है
संग रहते अनमोल रिश्तों
के महत्व को भी
कहाँ यह जाना है
मिट्टी में मिल जाने पर ही
व्यक्ति के गुणों को यह
पहचाना है।
वैसे तो मानव के पास
गुणों का खजाना है 
पर समय निकल जाने के
उपरांत ही सदा 
इसने उनको पहचाना है
इसीलिए तो कहते हैं 
मनुष्य के लिए हमेशा से
दूर का ढोल ही सुहाना है।
मालती मिश्रा

सोमवार

स्वार्थ के रिश्ते

स्वार्थ के रिश्ते
वह अकेला है
नितांत अकेला
कहने को उसके चारों ओर
लोगों का मेला सा है
पर फिर भी वह अकेला है
सभी रिश्ते हैं, रिश्तेदार है
पर सब के सब बीमार हैं
स्वार्थ की बीमारी ने सबको घेरा है
सबके दिलों में बस
लालच का डेरा है
नजरें सबकी बड़ी तेज
बटुए का वजन दूर से ही
भाँप लेते हैं
पर दिल कितना खाली है
इसका कोई न सवाली है
सबको बस चाहिए
देना किसी ने न सीखा
उसे क्या चाहिए 
ये किसी को न दीखा
उसके सामने दूर दूर तक
फैला हुआ है गहन अंधकार
अंधकार 
जो जितना बाहर है
उतना ही उसके भीतर है
मन में सवालों के बड़े-बड़े से
झाड़ खड़े हैं
जितना बाहर निकलने का
प्रयास करता
उतना ही और उलझता जाता
निरीह पड़ा हुआ 
नितांत अकेला
सहसा अँधेरे में 
उसे नोचने को आतुर
गिद्धों का झुंड टूट पड़ा
कोई कलाई तो कोई उँगली
कोई गर्दन 
तो कोई दिल
नहीं
क्यों नहीं करता वह
प्रतिकार
क्यों नहीं बताता सबको
कि स्वार्थ की नींव पर
संबंधों के प्रासाद नहीं बना करते
पर इससे पहले
उसे समझना होगा
कि
संबंधों का महत्व
निभाने में है
भार समझ ढोने में नहीं।
मालती मिश्रा

शुक्रवार

जनता अब जाग रही

जनता अब जाग रही
कालेधन और भ्रष्टाचार पर 
सत्तर सालों तक रहे खामोश।
समय आ गया मुक्ति का तब
चले दिखाने मिलकर आक्रोश।

भ्रष्टाचार जब फैलता है तो
निर्धन जनता ही पिसती है,
भ्रष्टाचार निवारण पर भी 
वही लाइनों में दबती है।

जिन मज़लूमों के नाम पर
तुम अपनी रोटी सेंक रहे
स्याह को श्वेत बनाने को तुम
उनको ही भीड़ में झोंक रहे।

हर एक रोटी मज़लूमों की
छीन-छीन कर तुमने खाई
आ गया समय चुकाने का
करना होगा अब भरपाई

फूलों की जगह नोटों की माला
अरबों-खरबों का गड़बड़ झाला
इंसान तो क्या पशु को न बक्शा
उनका चारा भी खा डाला।

गरीब के सिर पर छत भी नहीं
खुद भू अधिपति बन बैठे हैं
गरीब के नाम चंदा ले-लेकर
करोड़ों अंदर कर बैठे हैं।

अपना आधिपत्य बचाने को
गरीबों को क्यों उकसाते हो
लेकर सहारा निर्धन कांधे का
क्यों बंदूक चलाते हो? 

चेत जा तू अब बदल तरीका
जनता अब है जाग रही,
निर्धन,किसान,दलित,अल्पसंख्यक
तुम्हारे पत्ते सब भाँप रही।
मालती मिश्रा