सांप्रदायिकता को जन्म देते राजनेता
बहुत पुरानी युक्ति है यदि दो धर्म या जाति वालों में आपसी रंजिश पैदा करनी हो तो किसी एक को आवश्यकता से अधिक संरक्षण देना प्रारंभ कर दो दूसरा अपने-आप स्वयं को असुरक्षित मान बचाव प्रक्रिया की स्थिति में आ जाएगा। बस....फूट डालने वाले का काम पूरा हो गया। अब तो बस समय-समय पर आग में घी डालने रहना है ताकि दुश्मनी की आग शांत न हो जाए।
कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों हमारे देश की राजनीति की है, राजनेता जनता के समक्ष वोट माँगने आते है तो अपनी एक ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं कि वो ही देश के सब से बड़े हितैशी हैं, उनका एक मात्र मकसद देश सेवा और जन सेवा है परंतु जब जनता इन पर विश्वास करके इनका चुनाव कर लेती है तब ये अपने सारे वादे भूल कर जन सेवा की बजाय स्व-सेवा में लग जाते हैं फिर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के तिकड़म लगाते हैं, अब इनके स्वार्थ पूर्ति में समाज या देश का नुकसान होता है, तो हो इनकी बला से।
कोई भी आम नागरिक कभी किसी भी प्रकार का दंगा-फसाद नहीं चाहता। आम नागरिक हमेशा शांति और अमन से जीना पसंद करता है, उसके पास अपनी आजीविका चलाने अपने परिवार के प्रति अपने जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद इतना समय नहीं होता कि जाति-धर्म के नाम पर समाज में तनाव बढ़ाए। सांप्रदायिकता की आग भड़काने के पीछे हमेशा ही समाज के उन शरारती तत्वों का हाथ होता है जिन्हें संरक्षण प्राप्त होता है।
अभी हाल ही में सेना के अधिकारी की नियुक्ति को लेकर ही राजनीतिक पार्टी के नेता का बयान आ जाता है कि मोदी जी ने पक्षपात किया नहीं तो इस पद पर मुस्लिम अधिकारी होता। कितने शर्म की बात है कि उन महाशय ने सेना के कार्यों और नीतियों पर भी सवाल उठा दिया और मोहरा बनाया धर्म को जबकि इस बात से पहले किसी साधारण नागरिक के मस्तिष्क में इस प्रकार के धार्मिक भेदभाव की बात आई भी न होगी। परंतु आम नागरिक के दिमाग में यह भेदभाव भरने का एक और प्रयास है। इसी प्रकार अखलाक की हत्या पर भी बहुत प्रयास किया गया लोगों के मस्तिष्क में यह बात बिठाने की कि मुस्लिम असुरक्षित हैं, कभी कोई आत्महत्या कर ले तो उसे भी राजनीतिक रूप देने के लिए जाति धर्म को आगे कर दिया जाता है। जैसे कि रोहित वेमुला। आत्म हत्या करने वाले सामान्य वर्ग के भी होते हैं परंतु वहाँ राजनेताओं की दाल नहीं गलेगी इसलिए कभी उनके लिए हमदर्दी नहीं जागती नेताओं के हृदय में किन्तु कोई दलित आत्महत्या कर ले तो नेताओं की भीड़ लग जाती ये साबित करने के लिए कि वो 'दलित' था इसलिए मजबूर हो गया। सामान्य वर्ग की मजबूरी इन्हें कभी दिखाई नहीं देती। दलित अगर देशद्रोह भी करे तो भी उसे संरक्षण देने को तैयार हो जाते हैं उसके देशद्रोह को अभिव्यक्ति की आजादी का नकाब पहना कर उसका साथ देते हैं, सिर्फ इसलिए कि इनके ऐसा करने से समाज का एक तबका इनका हो जाएगा, इनके वोट देगा। परंतु इनके ऐसा करने से समाज का एक वर्ग विशेष पूरी तरह इनका होता है या नहीं यह तो नही पता परंतु वो दूसरा वर्ग जिसकी ये कदम-कदम पर उपेक्षा करते हैं वह जरूर इस वर्ग के खिलाफ हो जाएगा और फिर समाज की एकता और अखण्डता खंडित होती है, धीरे-धीरे यहीं से सांप्रदायिक तत्वों का जन्म होता है। पर इन सबका जिम्मेदार कौन है? ये राजनीतिक पार्टियाँ और उनके नेता।
इन राजनेताओं को सिर्फ अपना स्वार्थ दिखाई देता है, इसके कारण ये देश के रक्षक'सेना को भी नहीं छोड़ते, इन्होंने कभी शहीद सेनानियों के लिए उनके परिवारों के लिए इतना हमदर्दी और फिक्र नहीं जताया, हाँ सवाल जरूर उठाया है। आपसी रंजिश मे कोई मारा जाए और इत्तफ़ाक से मरने वाला 'दलित' या मुस्लिम हो तो दलितों और मुस्लिमों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए नए-नए बने नेता भी उसे शहीद का दर्जा देकर करोड़ों रू०देने की घोषणा कर आते हैं फिर चाहे वो इनके अपने राज्य से बाहर का ही क्यों न हो। और जब सैनिक देश की सीमा पर आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हो जाता है तो उसके लिए इन्हीं नेताओं के मुँह से श्रद्धांजलि के बोल भी नहीं फूटते करोड़ों रू० देना तो दूर की बात है।
अब जनता को ही समझना होगा इनकी नीयत और इनके पैंतरे और जनता को ही जवाब देना होगा कि ये कितने भी पैंतरे आजमा लें एक भारतीय को दूसरे भारतीय से लड़ने के जनता इनके बहकावे में नही आएगी और इन्हें मुँहतोड़ जवाब भी देगी।
मालती मिश्रा