भ्रष्ट और आचार
इन दो शब्दों का मेल,
चारों ओर फैला है
इसी मेल का खेल।
आचरण में जिसके घुला
भ्रष्टता का मिश्रण,
इस मिश्रण से आजकल
त्रस्त है जन-जन का मन।
भ्रष्टाचार मिटाने के
नारे तो सभी लगाते हैं,
पर दुष्करता से बचने को
खुद भ्रष्टाचार बढ़ाते हैं।
सरकारी दफ्तरों में बाबू
नहीं है जिनके ऊँचे दाम,
सरकारी वेतन पर भी
चाय-पानी बिन करें न काम।
समाज का ऊँचा तबका
जो सफेद पोश कहलाता है,
भ्रष्टाचार विस्तारण से
उसका ही गहराता नाता है।
अपने दंभ में मदमस्त हुए
गरीब को तुच्छ बताते हैं,
अमीरी अपनी दर्शाने को
मानव का मूल्य लगाते हैं।
स्याह रुपैया श्वेत करने को
नित नए दाँव लगाते हैं,
अपनी टेढ़ी चालों में
सीधे-सादों को फँसाते हैं।
कालाबाजारी की गंदगी
समाज में ये फैलाते हैं,
काली नीयत के कीचड़ ये
औरों के दामन पर उड़ाते हैं।
दशकों बीत गए जिनको
गरीबों का शिकार करते,
गरीबी उन्मूलन को वो
अब अपना कर्म बताते हैं।
मानव को स्वराज दिलवाने का
जो अभियान चलाते हैं,
पहनाकर टोपी जन-जन को
भ्रष्टों का गुट बढ़ाते हैं।
लोकपाल और स्वराज को
अपना आदर्श बता करके,
बना हथियार चंद जुर्मों को
सांप्रदायिकता फैलाते हैं।
गर कृषक ही बोए दुराचार तो
सदाचार की फसल नहीं होगी,
पाकर पोषण पतितों का फिर
ये अपनी तादात बढ़ाते हैं।
ऐसे भ्रष्ट आचरण के स्वामी
गर देश राज्य के कर्ता-धर्ता हों,
फिर भ्रष्टाचार निवारण के वादे
बस कागजों में रह जाते हैं।
छोटा हो या बड़ा समाज में
सब अपने स्तर पर लूट रहे
इन दो शब्दों का मेल,
चारों ओर फैला है
इसी मेल का खेल।
आचरण में जिसके घुला
भ्रष्टता का मिश्रण,
इस मिश्रण से आजकल
त्रस्त है जन-जन का मन।
भ्रष्टाचार मिटाने के
नारे तो सभी लगाते हैं,
पर दुष्करता से बचने को
खुद भ्रष्टाचार बढ़ाते हैं।
सरकारी दफ्तरों में बाबू
नहीं है जिनके ऊँचे दाम,
सरकारी वेतन पर भी
चाय-पानी बिन करें न काम।
समाज का ऊँचा तबका
जो सफेद पोश कहलाता है,
भ्रष्टाचार विस्तारण से
उसका ही गहराता नाता है।
अपने दंभ में मदमस्त हुए
गरीब को तुच्छ बताते हैं,
अमीरी अपनी दर्शाने को
मानव का मूल्य लगाते हैं।
स्याह रुपैया श्वेत करने को
नित नए दाँव लगाते हैं,
अपनी टेढ़ी चालों में
सीधे-सादों को फँसाते हैं।
कालाबाजारी की गंदगी
समाज में ये फैलाते हैं,
काली नीयत के कीचड़ ये
औरों के दामन पर उड़ाते हैं।
दशकों बीत गए जिनको
गरीबों का शिकार करते,
गरीबी उन्मूलन को वो
अब अपना कर्म बताते हैं।
मानव को स्वराज दिलवाने का
जो अभियान चलाते हैं,
पहनाकर टोपी जन-जन को
भ्रष्टों का गुट बढ़ाते हैं।
लोकपाल और स्वराज को
अपना आदर्श बता करके,
बना हथियार चंद जुर्मों को
सांप्रदायिकता फैलाते हैं।
गर कृषक ही बोए दुराचार तो
सदाचार की फसल नहीं होगी,
पाकर पोषण पतितों का फिर
ये अपनी तादात बढ़ाते हैं।
ऐसे भ्रष्ट आचरण के स्वामी
गर देश राज्य के कर्ता-धर्ता हों,
फिर भ्रष्टाचार निवारण के वादे
बस कागजों में रह जाते हैं।
छोटा हो या बड़ा समाज में
सब अपने स्तर पर लूट रहे
मंदिर गुरुद्वारों देवालयों में भी
अपावन को पावन किये जाते हैं।
मालती मिश्रा
बहुत-बहुत आभार दिग्विजय अग्रवाल जी।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार दिग्विजय अग्रवाल जी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुशील कुमार जोशी जी बहुत-बहुत धन्यवाद।
हटाएंघुन है भ्र्ष्टाचार जिसकी दवा बनी ही नहीं.... इधर भ्र्ष्टाचार दूर करने की बात चली नहीं की उधर दूसरे उपाय पहले ढूढ़ लिए जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता रावत जी आपका कथन अक्षरशः सत्य है, धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया से हमारी लेखनी को बल मिलता है।
हटाएंआदरणीया कविता रावत जी आपका कथन अक्षरशः सत्य है, धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया से हमारी लेखनी को बल मिलता है।
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