रविवार

आब-ए-आफ़ताब


आब-ए-आफ़ताब

अनुपम स्पंदन शबनम सा तेरी आँखों मे जो ठहर गया,
दिल में छिपे कुछ भावों को चुपके से कह के गुजर गया।

बनकर मोती ठहरा है जो तेरी झुकी पलकों के कोरों पर,
उसकी आब-ए-आफ़ताब पर ये दिल मुझसे मुकर गया।

जिन राहों पर चले थे कभी थाम हाथों में हाथ तेरा,
देख तन्हा उन्हीं राहों में मील का पत्थर भी पिघल गया।

माना कि रंजो-गम है बहुत इस बेमुरौव्वत सी दुनिया में,
हमराह मेरा तू जब भी बना खुशियों का मेला ठहर गया।

आए थे क्या लेकर हम और क्या लेकर अब जाएँगे,
पर पाने को इक पल साथ तेरा ये दिल हर हद से गुजर गया।

राहे उल्फ़त दुश्वार बहुत ये समझाया लाख जमाने ने
पाने को मंजिले इश्क ये दिल आग के दरिया में उतर गया।

सोचा था कि उल्फ़ते इकरार लबों पे न आने देंगे कभी
पर बताने को हालेदिल बेकरार ये अश्क रुख्सारों पे ठहर गया

मालती मिश्रा

शनिवार

नोटबंदी के मारे नेता बेचारे



चुनाव के वक्त सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने अलग-अलग घोषणा-पत्र तैयार करती हैं और सभी के चुनावी घोषणा पत्रों में कुछ बातें कॉमन होती हैं, जो घोषणा सौ प्रतिशत सभी पार्टियाँ शामिल करती हैं वो है भ्रष्टाचार का उन्मूलन, कालाधन पर रोक, कालेधन की वापसी आदि। परंतु सत्ता में आने के बाद इन वादों को कचरे के डब्बे में फेंक दिया जाता है। क्यों न हो सभी जानते हैं कि 'हमाम में तो सभी नंगे हैं।' कौन पूछेगा? जनता खुद तो आएगी नहीं पूछने...जनता को मूर्ख बनाना तो राजनेता अपना मौलिक अधिकार मानते हैं, इसीलिए बेखौफ इसी मार्ग पर अग्रसर रहते हैं। 
पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा अदम्य साहस दिखाया है, जो वादा किया था अपने उस वादे पर कदम दर कदम आगे बढ़ता नजर आया है। तो क्यों न जनता को गर्व हो अपने उस प्रधानमंत्री पर जिसने आज देश के करोड़पतियों और गरीबों को एक समान एक लाइन में खड़ा कर दिया। 
सबसे बड़ा जो कार्य हुआ है वो है दोहरे मुखौटे वालों का असली चेहरा सामने लाने का....जी हाँ जो कालाधन वापस लाओ....कालाधन वापस लाओ...के नारे लगाते थे आज वही गुटबंदी कर नोटबंदी के खिलाफ खड़े हैं। जो अपनी आवाज को जनता की आवाज बताते थे आज वही जनता की आवाज दबाकर अपनी आवाज उठा रहे हैं और इसे जनता का नाम दे रहे हैं।
जनता परेशानियों का सामना कर रही है इसमें कोई संदेह नहीं पर वह इस परेशानी को सकारात्मक रूप में देख रही है, जनता को सरकारों ने ७० सालों से लाइन में खड़ा कर रखा है...कभी बिजली के बिल की लाइन, कभी पानी के बिल की लाइन, कभी राशन दफ्तर के बाहर लाइन तो कभी गैस सिलेंडर की लाइन, कभी रेल टिकट की लाइन तो कभी फिल्मों के टिकट की लाइन, कभी नये मोबाइल की लाइन और तो और भगवान के दर्शन के लिए भी मंदिर में घंटों की लम्बी लाइन। बैंकों में लम्बी लाइन में खड़े होना कोई नई बात नहीं है पर पहले कभी इन फिक्रमंदों ने फिक्र नहीं की और न ही मीडिया इतनी सतर्क नजर आई परंतु अब जब अपनी जेब पर वार हुआ तो जनता की पीड़ा को ढाल बनाने के लिए नेता मीडिया सब जनता  के दर्द में अपने दर्द को छिपाते हुए इतने संवेदनशील बन गए हैं कि तिजोरी कैसे भरें, चंदा कहाँ से लें इन सभी चिंताओं को छोड़ जनता की चिंता करने लगे हैं।.   इसे कहते हैं अच्छे दिन।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली मीडिया भी देश को सच्चाई से अवगत न कराके सिर्फ नकारात्मक और सुनियोजित खबरें ही दिखाता है। माना कि मीडिया पर अधिकांश जनता विश्वास करती है क्योंकि वही स्रोत होता है पूरे देश के विषय में जानने का  लेकिन जब जनता अपने आस-पास कुछ और देख रही हो और मीडिया लगातार कुछ और दिखा रहा हो तो निःसंदेह मीडिया का असली चेहरा सामने आ ही जाता है। मेरे आस-पास भी बाजारें हैं, मैंने नोटबंदी के कारण बाजारों में सिर्फ दो तीन दिन असर देखा था फिर से उतनी ही भीड़, उतनी ही खरीद-फरोख्त होने लगी, हाँ इतना बदलाव जरूर आया है कि दुकानदारों ने उधार देना शुरू कर दिया बहुतों ने ऑन लाइन पेमेंट लेना शुरू कर दिया परंतु बिकाऊ मीडिया सकारात्मकता नहीं दिखाती ऐसे में कब तक हम इन चैनलों की सच्चाई से अनभिज्ञ रहेंगे।
९० प्रतिशत जनता परेशानियों के बावजूद खुश है क्योंकि वह जानती है कि ये परेशानियाँ कुछ दिनों की है परंतु आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अच्छा होगा। परंतु आज सभी विरोधी पार्टियाँ हाय-तौबा मचा रही हैं कि जनता परेशान है, इससे पहले कानून की बदहाली, सरकारों के घोटाले, रुतबे के गलत प्रयोग, आरक्षण की मार आदि से जनता त्राहि-त्राहि करती रही है तब इन पार्टियों के कानों तक जनता की आवाज नही पहुँची। जनता इस समय बखूबी समझ रही है इनके दर्द का कारण, आखिर मायावती के नोटों की मालाओं का क्या होगा, मात्र तीन साल में राहुल गाँधी के जीजा वाड्रा के 50 लाख से 300 करोड़ बने खजाने का क्या होगा, ममता बनर्जी के चिटफंड के खजाने का क्या होगा? रातों-रात करोड़पति बने केजरीवाल के हवाला से मिले करोड़ों तो रद्दी ही बन गए, अब यदि ये लोग नहीं चिल्लाएँगे तो कौन चिल्लाएगा। 
देश के प्रधानमंत्री जिनका आज पूरा विश्व सम्मान करता है, जिनके कारण आज विश्व में भारत को सम्मान की नजर से देखा जाता है, जिसके कारण आज हम भारतीय होने पर गर्व कर रहे हैं...ये विरोधी पार्टियाँ उनपर खुलेआम इल्जाम लगा रही हैं कि नोटबैन की आड़ में वो घोटाला कर रहे हैं....और अपने इस कुकृत्य के लिए किसी ने माफी माँगने की आवश्यकता नही समझी। ये विरोध में इतने अंधे हो गए हैं कि पदों की गरिमा भूल गए हैं। जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा कि "यदि इन्हें  तैयारी के लिए ७२ घंटे दिए जाते तो आज यही पार्टियाँ समर्थन में खड़ी होतीं" (जो कि अक्षरशः सत्य है यह इस देश का बच्चा-बच्चा जानता है।) तो ये कहते हैं कि प्रधानमंत्री इस कथन के लिए माफी माँगें....क्यों?.. विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी क्या सिर्फ भ्रष्टाचारियों, देशद्रोहियों को ही है? प्रधानमंत्री को यह अधिकार भी नहीं कि वह सत्य बोल सकें? 
आज देश का प्रत्येक नागरिक यह समझ चुका है कि नोटबंदी के इस फैसले से से अधिक परेशानी किसको हो रही बै सर्वाधिक नुकसान किसका हो रहा है? इसलिए यह तो तय है कि २८ नवंबर के बंद में जो भी दुकानें, मॉल, बाजार बंद होंगे वो सभी जमाखोरों की जमात का हिस्सा होंगे। अन्यथा सोचने की बात है कि क्या बंद से जनता परेशान नहीं होगी? फिर जनता के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने वालों को अब जनता की परेशानी नहीं दिखाई पड़ रही......
मालती मिश्रा

शुक्रवार

अन्तर्ध्वनि

अन्तर्ध्वनि
अन्तर्ध्वनि......
कभी-कभी हमारी जिह्वा कुछ कहती है
और हमारा हृदय कुछ और,
कभी-कभी हमारा मस्तिष्क
कुछ निर्णय लेता है
किंतु हमारा हृदय कतराता है,
कभी-कभी हम वह नहीं सुनना चाहते
जो हमारा हृदय हमें बतलाता है।
अक्सर हमें मस्तिष्क की बात भली लगती है
और हृदय की बुरी,
कभी-कभी हम लोगों के समक्ष
कुछ ऐसा कर जाते हैं
कि उनकी नजर में महान कहलाते हैं,
परंतु अपनी दृष्टि में गिर जाते हैं।
कभी-कभी हम जो बातें
डंके की चोट पर ताल ठोंक कर
बोलते हैं,
अक्सर आईने में स्वयं से
नजरें मिलाकर बोलने में कतराते हैं।
कभी-कभी हम किसी से
कुछ दावा तो कर देते हैं,
परंतु नजरें बचाकर
अपने कानों को हाथ लगाते हैं।
क्यों......
क्योंकि व्यक्ति दुनिया से झूठ बोल सकता है
परंतु खुद से नहीं,
दिमाग से लिया गया निर्णय
स्वार्थग्रस्त हो सकता है
परंतु आत्मा का निर्णय नहीं
अक्सर हमारी मौखिक ध्वनि
भिन्न होती है
हमारी अन्तर्ध्वनि से,
अक्सर बाह्य ध्वनि का रूप
समय के साथ
परिवर्तित होता रहता है
किंतु अन्तर्ध्वनि सदा शाश्वत है।
जलज ज्यों पंक में रहकर भी
निर्मल पावन होता है,
छल-कपट-स्वार्थ के कीचड़ में
अन्तर्ध्वनि सदा समरूप
निस्वार्थ और पावन होता है।
वह ध्वनि जिसे मैं सुना न सकी
जिसका जग वरण कर न सका
जिस ध्वनि का जग में गौरव है
पर मान नहीं,
उस अन्तर्मन की अन्तर्ध्वनि को
मैंने शब्दों का रूप दिया,
और अन्तर्ध्वनि पर उतार दिया।
अन्तर्ध्वनि मेरी वह ध्वनि है
जो अनकहे भाव दर्शाती है,
जिह्वा व्यथित हो शांत जब होती
अन्तर्ध्वनि मेरी ध्वनि बन जाती है।
मालती मिश्रा

मंगलवार

चेहरों के उतरते नकाब

चेहरों के उतरते नकाब
चेहरों के उतरते नकाब....

मन की बात कह-कह हारे
पर मुफ्त खोर अब भी हाथ पसारे।
कालेधन पर किया स्ट्राइक
फिर भी पंद्रह लाख गुहारे।
काला हो या श्वेत रूपैया
इनको बस है नोट प्यारे।
भ्रष्टाचार मिटाएँगे
सबको स्वराज दिलाएँगे।
लोकतंत्र को रोपित करने
आए थे धरनों के मारे।
लक्ष्य समक्ष आया इनका
कैसे जनता को भरमाएँ,
उल्लू अपना सीधा करने को
भिन्न-भिन्न आरोप लगाएँ।
आरोपों के चंदों से
भरते रहे खजाने सारे,
नोटबंदी की मार पड़ी तो
कहाँ जाएँ और किसे पुकारें।
चोर-चोर मौसेरे भाई
फिर क्यों न इक-दूजे को उबारे,
थामा एक-दूजे का दामन
जनता को बरगलाने चले हैं सारे।
जनता अब इतनी मूर्ख नही
समझ रही है पैंतरे सारे,
सरकार के एक कठोर कदम ने
उतार दिए नकाब तुम्हारे।
जनता पशेमान है
पर ज्यादा हैरान है,
कल तक भ्रष्टाचार मिटाने वाले
आज भ्रष्ट उनका ईमान है।।
मालती मिश्रा


शनिवार

आई आहट आने की

आई आहट आने की
ऊषा के मुस्काने की
रक्तिम वर्ण बिखराने की
तारक के छुप जाने की
मयंक पर विजय पाने की
तमी के तम को हराने की
विजय ध्वज लहराने की
सोई अवनी को जगाने की
ओस के मोती बिखराने की
सूरज के मुस्काने की
रश्मिरथी के आने की
आई आहट आने की

कलियों के खिल जाने की
पुष्पों के महकाने की
मधुपों के गुनगुनाने की 
नदिया के लहराने की
वृक्षों के चँवर डुलाने की
विहगों के मंगल गाने की
कोयल के कूक सुनाने की
अरुण का तेज बढ़ाने की
चहुँदिशि स्वर्ण सजाने की
सूरज के मुस्काने की
रश्मिरथी के आने की
आई आहट आने की
मालती मिश्रा

बुधवार

क्यों व्यथित मेरा मन होता है

क्यों व्यथित मेरा मन होता है


कल्पना में उकेरा हुआ घटनाक्रम

पात्र भी जिसके पूर्ण काल्पनिक 
चित्रपटल पर देख नारी की व्यथा 
सखी क्यों मेरा हृदय रोता है
क्यों व्यथित.......


नहीं कोई सच्चाई जिसमें

महज अंकों में बँधा नाटक है
नारी पात्र की हर घटना को क्यों
मेरा दिल हर एक पल जीता है
क्यों व्यथित......


हर नारी की कथा एक सी

पुरुष सदा उसे छलता है
देख असहाय स्थिति में उसको
क्यों अश्रुधार कपोल भिगोता है
क्यों व्यथित........


जननी भार्या भगिनी और सुता

हर रूप में सिर्फ त्याग किया है
समाज के बदले रूप अनेकों पर
इनका अपना न कुछ होता है
क्यों व्यथित........
मालती मिश्रा

सोमवार

नेता जी की फिक्र..


नेता जी की फिक्र....
राजनीति से मेरा दूर-दूर का कोई नाता नहीं और न ही मुझे कभी राजनीति में कोई दिलचस्पी रही परंतु अपने देश से हमेशा से प्रेम किया... देशभक्ति का जज़्बा सदा से मन में रहा, हमेशा देश को व्यक्तिगत हितों से ऊपर माना इसीलिए बचपन में जिस किसी नेता को देशहित की बात करते समाचार में सुनती तो वही नेता मेरा पसंदीदा बन जाता। परंतु अब राजनीति का असली चेहरा पहचानने लगी हूँ, जागरूक भी हो गई हूँ, नेताओं की बे सिर-पैर की बातों को भली-भाँति जानने और समझने लगी हूँ तो सोचती हूँ कि ये नेता खुद इतने मूर्ख हैं या जनता को मूर्ख समझते हैं.....
भाजपा की सरकार आई तो विरोधी पार्टियों ने कालाधन वापस लाने की माँग ही नहीं की बल्कि सभी अपने-अपने खाते में पंद्रह लाख का इंतजार करते नजर आ रहे थे। जनता को बस यही कहकर उकसाया जाता रहा कि पंद्रह लाख कब आएँगे आदि। समय-समय पर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी समाप्त करने की माँग इन्हीं विरोधी पार्टियों के द्वारा किया जाने लगा....सभी बुद्धिजीवी, समाज और देश के हितैशी नेतागण, मीडिया सभी को कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, कालेधन से मुक्त भारत चाहिए था......
हमारी खुशकिस्मती कि हमारे प्रधानमंत्री ने सबकी यानी पूरे देश की माँग को इतनी जल्दी सुन ली कि उतनी जल्दी तो भगवान भी इंसानों की प्रार्थना नहीं सुनता और परिणामस्वरूप बड़े नोटों पर बैन लगा दिया। यह घोषणा अप्रत्याशित थी, किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा भी कुछ हो सकता है। बड़े-बड़े नेताओं तक की नींदें उड़ गईं, हाँ कह सकते हैं कि जनता की फिक्र में, उनके पास कौन सा कालाधन रखा था जो उन्हें उसकी चिंता सताती। किसी नेता ने जनता को आराम देने के लिए एक हफ्ते का समय माँगा ताकि वो उन दिनों में जनता के घर-घर जाकर उन्हें छोटे नोट व राशन आदि उपलब्ध करा सकें पर जनता तो मूर्ख है न....इसे कुछ और ही समझ बैठी उसे लग रहा है कि नेता जी अपना कालाधन सफेद करने के लिए एक सप्ताह चाहते हैं। दूसरी तरफ बेचारे परोपकारी दूसरे नेता जी वो इतने गरीब कि उनके घर में छुट्टे तक खत्म हो गए, बेचारे अपने दस बॉडी गार्ड के साथ सिर्फ चार हजार रूपए बदलवाने के लिए चालीस मिनट लाइन में खड़े रहे...अब ये तो हमारे देश की जनता की नासमझी या भोलापन है कि वो पिछले दस-पंद्रह सालों में इन बेचारे नेता जी की सादगी और परोपकारी भावनाओं को समझ न सकी और आज भी नहीं समझ रही....आज भी इसे पब्लिसिटी स्टंट और ड्रामा ही मान रही है। जनता कहती है एक मूर्ख पूरे देश को पप्पू बनाने चला है। खैर आते हैं अगले परोपकारी, गरीबों के हमदर्द, हम आम लोगों में से बने एक खास नेता की ओर....पहले तो इन्हें समझ ही न आया कि मोदी जी ने क्या कर दिया....इसे मोदी जी की साजिश कही जाए या नहीं इसीलिए डेढ़-दो दिन तो जैसे-तैसे संभाला खुद को, फिर बोले तो क्या बोले.........ये स्ट्राइक फर्जी है। पहले पाक आतंकियों पर सैनिकों द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत माँगकर पाक के सपूत की पदवी हासिल कर ली थी अब करेंसी पर स्ट्राइक को फर्जी बता रहे हैं और कहते हैं कि अपने जानने वालों को पहले बता कर आगाह कर दिया था....इन्होंने तो जनता को इतनी बड़ी सूचना दी पर जनता यहाँ भी वैसी ही अनजान और भोली निकली वह कह रही है कि इन्हें तो इल्जाम लगाने की बीमारी है....मान है नहीं इसलिए स्वयं पर किए गए किसी मानहानि के केस से डर नहीं लगता। सोचते हैं इल्जाम लगाकर जनता के मन में शक के बीज बो देते हैं बाद में फसल काट लेंगे पर यहाँ तो जनता के मन में इनके प्रति अविश्वास का वृक्ष उग आया है उसे कैसे काटेंगे?
बात करते हैं एक और नेता.. नहीं नेत्री की, जी हाँ मायावती की तो माया ही निराली है...कहती हैं मोदी जी ने अपना इंतजाम विदेशों में कर लिया है....अब जनता बेचारी ज्यादा किसी का इतिहास भूगोल तो जानती नहीं पर पूछ रही है कि जो विदेशों में हर दूसरे-तीसरे महीने थककर छुट्टियाँ मनाने जाते हैं कभी उनके लिए तो नहीं कहा कि विदेशों में इंतजाम कर लिया....मोदी जी विदेश में किसके साथ रहेंगे? अपनी उन माता श्री के साथ जिन्हें अब भी अपने साथ नहीं रख पाए सिर्फ जनता की सेवा के कारण। जनता समझती है कि मोदी जी ने देशहिके लिए स्वयं को समर्पित कर दिया है और यह देश ही उनका घर और देशवासी ही उनका परिवार हैं। अब तो सभी भोले-भाले नेताओं को समझ लेना चाहिए कि अब भोली-भाली जनता आपके चेहरों के पीछे के चेहरे पढ़ती है और उसके लिए उसे गूगल नहीं करना पड़ता।
यही विरोधी पार्टियाँ कहते नही थकती थीं कि भाजपा तो व्यापारियों की सरकार है यह तो बड़े-बड़े चंदे लेती है आदि-आदि। आज मोदी जी के इस फैसले से  व्यापारियों पर ही सबसे ज्यादा मार पड़ी है पर वो चुप हैं, और आम नागरिक, गरीब जनता की परेशानियाँ सिर्फ कुछ समय की है जो कि जनता भी खुशी-खुशी यह परेशानी उठाने को तैयार है। परंतु यदि सबसे ज्यादा तकलीफ में कोई दिखाई दे रहा है तो वो हैं बड़ी-बड़ी पार्टियों के बड़े-बड़े नेता। बस अपने आँसू छिपाने के लिए गरीब का दामन ढूँढ़ रहे हैं। मोदी जी ने दो अहम् सच्चाई जनता के समक्ष प्रकट कर दिया- पहली ये कि वो व्यापारियों के नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री हैं और दूसरी ये कि कालाधन और भ्रष्टाचार कहाँ अधिक है।
मालती मिश्रा

शनिवार

बेटी


 सूरज सिर पर चढ़ आया और रवि है कि अभी भी सो रहा है और वही क्यों श्रिति भी सो रही है। नेहा उसे कई बार जगा चुकी पर वो अभी उठती हूँ कहकर करवट बदल कर सो जाती। रवि को वह जगाना छोड़ चुकी है, उसका मानना है कि दोनों बच्चों को देर तक सोने की आदत उसी की वजह से है। अविका को स्कूल जाना होता है इसलिए जल्दी उठ जाती है वर्ना वो भी दस बजे तक सोती रहती एक अकेली नेहा ही है जो पाँच-छः बजे तक उठ जाती है और अकेले भूतों की मानिंद घर में काम के बहाने खटर-पटर करती रहती। उसे पूरे घर में अकेले जगना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, वो हमेशा यही कहती कि तुम लोग सात बजे तक उठ कर बैठ जाया करो बेशक कोई काम न करो, कोई बात नहीं कम से कम मुझे अकेलापन नहीं महसूस होगा, पर किसी को क्या पड़ी कि उसे कैसा लगता है, कोई क्यों अपनी नींद खराब करे उसकी खातिर.... धीरे-धीरे उसने रवि से तो कुछ कहना ही छोड़ दिया हाँ बच्चों को जरूर आठ-साढ़े आठ बजे तक जगा देती और खुद भी थोड़ा देर तक सोने लगी है या फिर अविका के स्कूल जाने के बाद हॉल में ही सोफे पर लेटकर एक-आधा घंटा यूँ ही बिना कुछ किए, बिना किसी की नींद खराब किए चुपचाप लेट कर सोने की कोशिश करती रहती है और यूँ ही करवट बदलते हुए आठ बजे तक का समय काट लेती है। लेकिन आज तो दस बजने वाले हैं और उसने किसी को भी नहीं जगाया है, वह बेचैन नजर आ रही थी, उसे देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है। वह बड़बड़ाती जाती और काम करती जाती, जिसे देख यह समझना बहुत मुश्किल था कि वह करना क्या चाहती थी.....
आज मैं किसी को नहीं जगाऊँगी...किसी को भी नहीं....मैंने ही ठेका ले रखा है सबको जगाने का... मुझे नींद नहीं आती क्या? मैं तो जैसे इंसान ही नहीं हूँ.... मुझे तो आराम पसंद ही नहीं.....वह बड़बड़ाती जाती और बेचैन होकर कभी सफाई करने के लिए झाड़ू उठाती फिर उसे रख सोफा साफ करने लगती फिर उसे भी अधूरा छोड़ इधर-उधर बिखरे पड़े सामान सहेजने लगती....उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि वह मानसिक रूप से बहुत परेशान है, उसका मस्तिष्क स्थिर नहीं इसीलिए वह कोई भी कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं कर पा रही। अभी कुछ ही देर पहले उसकी बात माँ से हुई थी, बहुत दिनों के बाद माँ से उसकी बात हुई थी, छोटे भाई से तो बात हो जाती, घर के हाल-चाल पता चल जाते पर माँ से बात नहीं हो पाती थी, महीनों बाद उनसे बात हुई पर बात करने के बाद उसे जितना खुश होना चाहिए था वह उतनी तो क्या बिल्कुल भी खुश नजर नहीं आ रही थी। वह सब काम छोड़कर फिर बैठ गई..... उसके दिमाग में माँ की वही असहज सी हो उठी आवाज गूँज रही थी, जब उसने माँ को बताया कि इस बार रवि भी गाँव आने के लिए कह रहे हैं...ऊँचा सुनने के कारण पहले तो माँ सुन न सकी परंतु जब दो-तीन बार बोलने के बाद सुना तो उनकी आवाज में कोई उत्साह नहीं था, वह बोलीं-"हाँ ठीक है बाबू जी से बात करेंगे।" नेहा के उत्साह पर मानों माँ ने पानी डाल दिया... क्यों माँ....बाबू जी को कोई परेशानी होगी क्या? उसने पूछा। 
नहीं उन्हें क्या परेशानी....बस वीरेंद्र शायद उन्हीं दिनों में आने वाले हैं और तुम्हें पता है कि वह तुम्हें....कहते हुए माँ चुप हो गईं
उसे मेरा आना अच्छा लगे या न लगे मैं क्या करूँ, मैं आना छोड़ दूँ?  तमतमा कर जवाब दिया नेहा ने।
नहीं, तुम आओ...देखा जाएगा, अब हम और बाबू जी तो बूढ़े हो चले हैं हम तो कुछ नहीं कहेंगे बस थोड़ा वीरेंद्र की समस्या है.. माँ ने बुझे हुए स्वर में कहा।
बात पूरी करके नेहा ने माँ को प्रणाम कर फोन डिस्कनेक्ट कर दिया, तब से ही उसके मनो-मस्तिष्क में द्वंद्व चल रहा है आखिर क्यों....क्यों मैं पूरे हक के साथ नहीं जा पाती अपने ही माँ-बाप के घर? आखिर वो मेरा भी तो घर है, वो मेरे भी तो माता-पिता हैं....तो मेरा अधिकार क्यों नहीं उनपर, क्योंकि मैं बेटी हूँ.......
यदि वो यह अपनी माँ से पूछती तो उसे पता है क्या जवाब मिलता...
माँ उसे अब तक दोषी मानती हैं और जब-तब उसे इस बात का अहसास करवा ही देतीं कि उसने घर वालों के विरुद्ध जाकर अपनी पसंद से विवाह करके गलत किया और इसीलिए दस-ग्यारह वर्षों बाद अब तक भी उसके भाई उसको पसंद नहीं करते। सोचते हुए नेहा की आँखों से आँसू बह निकले, मेरे उच्च शिक्षिता होने के बाद भी मैं अपने जीवन के इतने अहम् फैसले को अपनी इच्छा और पसंद से नहीं ले सकती.....तो क्या फायदा मेरे शिक्षित होने का.....क्या बिगाड़ा मैंने किसी का...यदि ऐसा ही फैसला मेरे भाइयों में से कोई लेता क्या तब भी सबकी यही प्रतिक्रिया होती?? नहीं.....
क्योंकि वो बेटे हैं और बेटों की तो गलतियाँ भी क्षमा योग्य होती हैं परंतु बेटी का स्वेच्छा से लिया हुआ एक फैसला सबके लिए असहनीय हो गया।
नेहा को याद आने लगे बचपन के वो दिन जब वह स्कूल से आने के बाद अपने छोटे भाइयों को पूरे-पूरे समय गोद में लिए घूमती रहती थी, थोड़ी बड़ी हुई तो भाइयों को पढ़ाना उनके सारे काम करना तथा उनकी देखभाल सब वही करती थी। किसी की क्या मजाल कि उसके भाइयों को कोई कुछ कह जाए, वह ये भूल कर कि वह स्वयं छोटी है, लड़ पड़ती। माँ तो गाँव में रहतीं बाबू जी के साथ रहते हुए वही भाइयों की देखभाल करती थी। आज वही भाई उसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहते और माँ बाबू जी पता नहीं उन्हें समझाते नहीं या समझा नहीं पाते। अगर मेरी जगह मेरा कोई भाई होता तो क्या उसके साथ भी ऐसा ही बर्ताव होता, क्या वह भी अपने ही घर में अलग-थलग रहने को विवश होता? शायद नहीं, उसके साथ तो मैं ऐसे बेगानों सा व्यवहार नहीं करती.....और न ही किसी को करने देती। 
सोच-सोच कर नेहा का सिर दर्द से फटने लगा, रवि चाहता था कि इस बार वह भी नेहा के गाँव जाए पिछले साल जब नेहा गई थी तो माँ ने कहा था कि "हमें लगा कि इस बार रवि भी आएँगे" सुनकर नेहा चौंक गई थी और माँ से पूछा था कि क्या अब बाबू जी को कोई ऐतराज नहीं रवि के आने से....तब माँ ने कहा था कि "नहीं" 
यही बात लौटकर उसने रवि को बताई, इसीलिए इस बार रवि ने भी जाने की इच्छा जताई है पर अब वह डर रही है कि यदि उसका वहाँ उचित मान-सम्मान न हुआ तो उसे बहुत बुरा लगेगा पर वह क्या करे? मना भी नही करना चाहती वह स्वयं भी दुविधा में फँसी हुई है कि क्या ठीक होगा? क्या नही? 
आज जहाँ दुनिया इतनी आगे निकल चुकी है वहीं मैं इस आजाद देश में एक स्वतंत्र निर्णय लेने की सजा भोग रही हूँ । आखिर मुझे किस बात की सजा मिल रही है...अपने जीवन का अहम् फैसला स्वयं लेने की..... या बेटी होने की? सोचते हुए अचानक उसकी आँखों से अश्रु बह निकले साथ ही कमरे से श्रिति के आने की आहट हुई और झट से नेहा सोफे से उठकर रसोई में चली गई।
मालती मिश्रा

गुरुवार

वो जिंदगी नही जो वक्त के साथ गुजर गई,
वो इश्के खुमारी नहीं जो गर्दिशों में उतर गई।
उजाले में तो साथ अजनबी भी चल देते हैं,
हमसफर नही अंधेरों में जिनकी राहें बदल गईं।
औरों के लिए जो इस जहाँ में जिया करते हैं,
न सिर्फ यही उसकी तो दोनों जहानें सँवर गईं।
माना कि राहे उल्फ़त में मुश्किलें हैं बेशुमार,
तासीरे वफा की शय में तो राहें भी मुड़ गईं।
मालती मिश्रा

रविवार

यादों में तुम


आते हो हर पल यादों में तुम,
मेरे तन्हा मन को बहलाने को।
बैठ मुंडेरी बाट जोहती,
चंदा संग तेरे आने को।
कुछ कहने को कुछ सुनने को,
कुछ रूठने और मनाने को।
पल-पल में जो सँजो रखा है,
वो हाले दिल सुनाने को।
व्याकुल मन मेरा सोच घबराए,
नए-नए से जुगत लगाने को।
शशि दर्शन के बहाने से तुम्हरी,
छवि आँखों में बसाने को।
छेड़ें सखियाँ मुझको जब-तब,
लेकर शेखर नाम बहाने को।
लाज की मारी मैं सिमटी जाऊँ,
छिप-छिप राह तकूँ तेरे आने को।
ज्यों-ज्यों दिनकर बढ़ता जाए,
अंबर के अंक में समाने को।
व्याकुलता मेरी बढ़ती जाए,
पर कह न सकूँ मैं जमाने को।
आते हो हर पल यादों में तुम,
मेरे तन्हा मन को बहलाने को।।
मालती मिश्रा

बुधवार

अँधेरा मेरे मन का

अँधेरा मेरे मन का
दीप जलाया गलियों में
हर घर के हर कोनों में,
सकल जग जगमग करने लगा
पर मिटा न अँधेरा मेरे मन का।

स्वच्छता अभियान की राह चला
हर गली नगर को साफ किया,
घर-आँगन सब स्वच्छ हुआ
पर धूल हटा न मेरे जीवन का।

क्यों असर नहीं सच्चाई का
जीवन की हर अच्छाई का,
उत्तर ढूँढ़ने मैं निकला तो
प्रश्न यही था जन-जन का।

राग-द्वेष की काली चादर से
ढँका हुआ था स्वत्व मेरा,
लालच के मोटे परदों ने
द्वार ढका मेरे मन का।
मालती मिश्रा