बुधवार

समीक्षा- साँसों के अनुबंध


समीक्षा
पुस्तक- साँसों के अनुबंध
कवयित्री- सारिका मुकेश
प्रकाशक- संजीव प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक- मालती मिश्रा 'मयंती'
नदी के शांत स्थिर जल में एक कंकड़ गिरने से हलचल हो उठती है और इसकी तरंगें स्थिर जल को दूर तक झंकृत कर देती हैं, ठीक उसी प्रकार संवेदनशील मानव मन किसी वेदना या हर्षानुभूति से झंकृत हो उठता है, उसके शांत भाव तरंगित हो उठते हैं और यदि यह कवि हृदय हो तो उसके हृदय की तरंगें उसके कलम के माध्यम से पाठक के हृदय में भी तरंगें उत्पन्न करते हैं। व्यक्ति कहता है तो श्रोता उसे अपनी समझ के अनुसार समझता व महसूस करता है किंतु कवि/कवयित्री का कथन पाठक/श्रोता उसी रूप में सुनते व समझते हैं कि दोनों के भाव एकाकार हो जाते हैं। कवि हृदय ही हो सकता है जो प्रकृति से, समाज से अपनी साँसों का अनुबंध कर बैठे। ऐसे ही कवि व कवयित्री के भावों का सृजन है *साँसों का अनुबंध* कवि/कवयित्री  *सारिका मुकेश* जी ने पति-पत्नी के रूप में न सिर्फ एक-दूसरे के साथ साँसों का अनुबंध किया है बल्कि समभाव  सम स्वर रखते हुए लेखनी से भी साँसों का अनुबंध किया है और शब्दों के माध्यम से यही अनुबंध वह सदा-सदा के लिए पाठकों से बनाए रखने की कामना करते हैं।
रोजमर्रा के जीवन में घटित होने वाली छोटी-छोटी ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें आमतौर पर हम सभी देखकर भी अनदेखा कर देते हैं या फिर वह निरंतर होने वाली प्रक्रिया होने के कारण सभी के लिए अत्यंत साधारण व महत्वहीन बात हो जाती है जबकि वही बात कवि के लिए बेहद महत्वपूर्ण बन जाती है। जैसे- इस संग्रह की एक बहुत ही छोटी किंतु विस्तृत व गूढ़ भावों को समेटे और गहन विचारोन्मुख कविता *आधुनिक जीवन* है, इस कविता के माध्यम से प्रकृति से दूर होते भौतिक सुख सुविधाओं में लिप्त मानवीय जीवन का बेहद सजीव चित्रण किया गया है। दृष्टव्य है- देर दोपहर तक/दरवाजे के बाहर/गैलरी में पड़े/अखबार और दूध की तरह/पड़ी रही सुबह....
इनकी कविताएँ छंदों की सीमा में न बँधकर भावों के खुले आकाश में स्वतंत्र उड़ान भरती हुई प्रतीत होती हैं। ये स्वयं कविता को किसी सीमा में न बाँधते हुए भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम और ईश्वर से एकाकार होने का स्रोत बताते हैं। 'कविता: एक परिभाषा' के माध्यम से कहते हैं- कविता.. मंदिर में होने वाली/शाम की आरती है/ जहाँ शब्द पुष्प हैं/श्रोता ईश्वर है/और कवि प्रार्थी है.. कवि/कवयित्री ने सतत लेखन को को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाते हुए लेखन को ही जीवित होने का साक्ष्य माना है क्योंकि लेखन के लिए संवेदनशील हृदय का होना आवश्यक है और संवेदनशील बनकर जीने को ही सार्थक मानते हैं। इन्होंने जीवन को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है, कभी यह प्रकृति के प्रति अति संवेदनशील तो कभी जीवन को गणितीय दृष्टिकोण से भी देखने लगते हैं और अपनी रचना के माध्यम से जीवनमूल्यों को बहुत आसानी से बेहद कम शब्दों में समझाने में सफल भी हुए हैं। यथा- जीवन का गणित/धन, ऋण, गुणा, भाग/ प्रेम-धन/घृणा-ऋण/अच्छाई-गुणा/बुराई-भाग..कवि/कवयित्री जहाँ 'परिवर्तन' कविता में चंद पंक्तियों में ही बड़ी बात कह देने में सफल हुए हैं वहीं 'चरैवेति चरैवेति जैसी मध्यमाकार कविताएँ भी हैं जो परिवर्तनशीलता को अपनाते हुए सदैव गतिमान रहने का संदेश देती हैं। ये समय के साथ परिवर्तन को अपनाने के लिए सदैव तत्पर हैं  किंतु इनका कोमल हृदय अखबार में रोजाना नकारात्मक खबरों से बेहद व्यथित होता है और कदाचित यही कारण है कि सूर्यास्त के साथ आती रात के सन्नाटे से व अकेलेपन से भयभीत भी प्रतीत होते हैं। सारिका मुकेश जी द्वारा प्रतीक बिंबों का भी भरपूर प्रयोग किया गया है, जैसे- 'नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर' कविता में सर्द मौसम की सजीवता हेतु- 'गुच्छा सा बैठा आदमी', तथा आकाश में/हँसिए की तरह/चमकते चाँद के/ डर के मारे/नन्हें बच्चों की तरह/आकाश की गोद में दुबके पड़े तारे। या फिर निशा की पलकों पर/ओस के मोती/अश्रुकण बन /पिघलते रहे/रातभर। ऐसे न जाने कितने ही प्रतीक बिंब इनकी रचनाओं को बेहद सजीव और प्रभावशाली बना देते हैं।
वर्तमान समय की निरंतर दौड़ती भागती जिंदगी को इन्होंने 'आज का आदमी' के माध्यम से बेहद रोचकता से प्रस्तुत किया है, यथा- अपनी ही पूँछ को/मुँह में भर लेने की/पवित्र इच्छा लिए/पागल कुत्ते की भाँति/दौड़ता रहता है/आज का आदमी/घूमता रहता है गोल गोल....कवि हृदय जहाँ प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत होता है, 'प्रिय कौन हो तुम' और 'मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ' जैसी श्रृंगार आधारित कविताओं का सृजन कर श्रृंगार रस का रसास्वादन भी करवाता है तथा समाज के परिवर्तित होती मान्यताओं को भी स्वीकार करता है, वहीं समाज की विकृतियों को देखकर उसका हृदय उद्वेलित भी होता है। समाज की विकृत मानसिकता के लोगों की चुभती नजरों का दंश झेलती लड़की के हृदय की व्यथा को समझते हुए इसे 'दृष्टि बलात्कार' की संज्ञा दी है।
प्रेम, भाईचारा, आपसी मेलजोल वाली ज़िंदगी से दूर हो चुके बड़े-बड़े अपार्टमेंट में एकाकी जीवन जीते लोगों के जीवन पर तरस खाते हुए कहती हैं 'मुझको तो आद्यक्षर लगते/अपार्टमेंट्स के लोग'
छोटी-बड़ी इक्यासी कविताओं का संकलन है 'साँसों के अनुबंध' अधिकतर कविताएँ बहुत छोटी हैं, इनके छोटे आकार में गूढ़ भाव के समाहित होने के कारण ही क्षणिकाओं का भ्रम उत्पन्न होता है।  यदि कहा जाए कि इन्होंने अपनी रचनाओं में गागर में सागर भर दिया है तो अतिशयोक्ति न होगी।
सारिका मुकेश जी की रचनाओं में प्रेम, आपसी सौहार्द्र, आत्मावलोकन, समाज के प्रति जागरूकता, चिंतन, करुणा, उद्वेलन, सतत सीखते रहने के गुण आदि सभी भाव देखने को मिलते हैं। यह पुस्तक कवयित्री की कोरी कल्पना नहीं बल्कि अनुभव और साधना है। सारिका मुकेश जी को उनके इस कृतित्व के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
संजीव प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 200/ रुपए है। हम सभी को कवयित्री के इस साहित्यिक साधना को अपनी शुभकामनाओं से अभिमंत्रित करना चाहिए।
मालती मिश्रा 'मयंती'
बी-20, गली नं०- 4,
भजनपुरा दिल्ली- 110053
मो०- 9891616087
ईमेल- malti3010@gmail.com

सोमवार

प्रकृति का नियम

प्रकृति का नियम
प्रकृति का नियम

बदलाव प्रकृति का नियम है, ठहरी हुई जिंदगी हो या ठहरा हुआ पानी दोनों में ही विकार उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। नदी सतत बहती रहती है इसीलिए उसका जल स्वच्छ होता है जबकि ठहरे होने के कारण तालाब का पानी कीचड़ और काई से युक्त होता है, किन्तु लगातार चलते रहने की इस प्रक्रिया में परिवर्तन स्वरूप मार्ग बदल जाए तो कोई बात नहीं परंतु नैसर्गिक गुण नहीं बदलने चाहिए। बिना परिश्रम के प्राप्त सफलता भी उतनी महत्वपूर्ण और उपयोगी नहीं होती जितनी कि परिश्रम करके प्राप्त की गई सफलता महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होती है। जिस प्रकार समतल मैदानी भाग में लगातार बहने वाली नदी का जल सिर्फ साधारण पानी ही बनकर रह जाता है जो सिंचाई के ही काम आ सकता है, जबकि पर्वतों के दुर्गम, कंकरीले, पथरीले भागों तथा कंदराओं झाड़ियों आदि से मार्ग बनाकर लगातार संघर्ष करते हुए बहने के बाद तमाम जड़ी-बूटियों आदि के सानिध्य में आने से गंगा नदी का जल पावन तथा विभिन्न रोग प्रतिरोधक क्षमता से युक्त हो जाता है।

उपरोक्त उदाहरण को हम मानव जीवन से भी जोड़कर देख सकते हैं, आजकल एकल परिवार का बहुत चलन है। कभी यह प्रथा आवश्यकतावश शुरू हुई होगी। माता-पिता को गांव में छोड़कर बेटा कमाने के लिए शहर या विदेश चला जाता था और फिर मजबूरी में ही सही वहीं वह पत्नी और बच्चों के साथ रहने को विवश होता। धीरे-धीरे यह प्रथा चलन में आ गई और वर्तमान समय में तो परिस्थिति ऐसी हो चुकी है कि एक ही घर में रहते हुए बेटे-बहू वृद्ध माता-पिता को स्वयं से अलग रहने पर विवश कर देते हैं या वृद्धाश्रम भेज देते हैं। आजकल घर में बड़े-बुजुर्गों की सेवा का कष्ट कोई नहीं उठाना चाहता और फलस्वरूप उनका यह आरामपरस्त स्वभाव उनके बच्चों को संस्कारहीन बना देता है। बड़े-बुजुर्गों की सेवा का थोड़ा परिश्रम करते तो बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी की देखभाल, उनका प्यार-दुलार मिलता उनकी कहानियों और नसीहतों से उनमें संस्कार के बीज पनपते और उनकी नैतिकता का पतन नहीं होता। आगे चलकर वही बच्चा बड़े-बुजुर्गों की सेवा और सम्मान सीखता और यही संस्कार वह आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाता किन्तु थोड़ी मेहनत से बचने के लिए न सिर्फ बड़े-बुजुर्गों की आत्मा को दुखाते हैं बल्कि संस्कार रूपी चरित्र निर्माण की औषधि को विराम लगाकर एक विकृत समाज की नींव डाल देते हैं।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार

दिल में हिंदुस्तान है

दिल में हिंदुस्तान है...

भारत की धरती पर जन्में
अरु पाई माँ की बोली
माँ की मीठी बोली ने ही
ममता की मिश्री घोली,
मिश्री सी मीठी बोली में
बसती हमारी जान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

जिस भाषा में मां ने हमको
सुनाया गाकर लोरियां
बिन सीखे जो बोल गए हम
वे हैं मात की बोलियां
माँ की बोली हिन्दी पर ही
हम सबको अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

इस देश को पूरे विश्व से
है आज इसी ने जोड़ा
विश्वपटल पर इसने अपनी
अमिट छाप को छोड़ा
मातृभाषा हिंदी से ही इस
जग में हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

मातृभाषा के अभाव में ज्यों
शैशव अधूरा होता है
त्यों राष्ट्रभाषा के बिना इक
राष्ट्र न पूरा होता है।
माँ की यह मीठी बोली ही
बनी हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिदुस्तान है।

हिन्दी है भारत की आशा
हर भारती की है भाषा
हर दिन नया विहान है हिंदी
मेरे हिंद की प्राण है हिंदी
इससे ही पहचान हमारी
अरु हमारा अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

अपने देश में हर क्षेत्र की
अलग-अलग हैं बोलियाँ
पर मातृभाषा हिंदी की ये
सभी हैं सखी-सहेलियाँ
हर इक भाषा-भाषी का इस
मातृभाषा से मान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

भारत में रहने वाले हर
भारती की शक्ति है हिन्दी
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई
सबकी सहज अभिव्यक्ति है हिन्दी
मंदिर का यह शंखनाद तो
मस्जिद का आज़ान है,
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

हिन्दी में हम पढ़ें कहानी
हिंदी में गाना गाते हैं
फिर क्यों हम हिन्दीभाषी
कहलाने में कतराते हैं,
हर हिन्दुस्तानी के दिल में
इसके लिए सम्मान है
अपनी जुबाँ पर हिन्दी है
अरु दिल में हिंदुस्तान है।

©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

सोमवार

सौतेली मां


सौतेली माँ
अनु आज छः महीने बाद ससुराल से आई है, घर में माँ के अलावा कोई नहीं है, फिरभी चारों ओर अपनापन बिखरा हुआ है। बेटी के लिए तो मायके की मिट्टी के कण-कण में ममता का अहसास होता है। न जाने क्यों शादी से पहले तो ऐसा अहसास कभी नहीं हुआ था अनु को जैसा अब हो रहा था। पहले तो अपने माँ-बाबा और भाई तक ही उसकी दुनिया सिमट गई थी, चाचा का परिवार, बाबा के चाचा का परिवार सब थे, सबसे लगाव भी था पर उनमें से किसी के होने न होने से अधिक फर्क नहीं पड़ता था परंतु अब ऐसा महसूस होता है कि सब अपने ही तो हैं, काश सब एक साथ मिलकर रहते तो कितना अच्छा होता, लेकिन उसे पता है कि ऐसा संभव नहीं क्योंकि ससुराल जाने के कारण भावनाएँ सिर्फ उसकी बदली हैं, औरों की नहीं। कितना सूना-सूना सा लग रहा था घर, सब अपने-अपने घरों में व्यस्त थे, वैसे तो अनु का परिवार छोटा नहीं है, बाबा तीन भाई और एक बहन हैं, बाबा के चाचा-चाची और उनके दो बेटे अर्थात् कुल पाँच भाई हैं, दादी, माँ बाबा, और चार चाचा-चाची उनके बच्चे, कुल मिलाकर भरा-पूरा परिवार है पर संयुक्त नहीं है। बँटवारा हो चुका है सभी अपने-अपने घरों तक ही सिमट गए हैं, कुल मिलाकर 'मैं' अधिक बलवान है।

कई महीने बाद आई अनु को अपने मायके में बहुत कुछ बदला-बदला सा लग रहा था, पापा के चाचा जो कि पापा के हमउम्र हैं उनसे अब बोल-व्यवहार सब बंद है और यह बात अनु को पता थी कि छोटे दादा-दादी अब उसके परिवार के किसी भी सदस्य से नहीं बोलते, न अनु की दादी से न ही दोनों चाचा-चाची और मम्मी-पापा से। उनके बड़े बेटे यानि पापा के चचेरे भाई जो कि उम्र में अनु से दो-तीन साल ही बड़े होंगे, उनकी शादी भी हो चुकी है। परिवार की अनबन के कारण नई बहू के आने से घर में जो रौनक होनी चाहिए वो भी नहीं है। चाचा-चाची के परिवार अपने-अपने घरों में, अनु का परिवार अपने घर तथा छोटे दादा-दादी का घर इनके घरों के बीच में। अजीब सा मायूसी भरा माहौल लग रहा था घर का। अक्टूबर का महीना था, न अधिक गर्मी थी न ही ठंड थी। अनु मम्मी के साथ बरामदे में बैठी बातें कर रही थी तभी उसकी नजर सामने बरामदे में मिट्टी के तेल की ढिबरी की मद्धिम रोशनी में घूँघट में बैठी दुल्हन पर पड़ी, जो मिट्टी के चूल्हे पर खाना बना रही थी। अनु मम्मी से कुछ पूछना ही चाहती थी कि तभी छोटी दादी कमरे से बाहर आती दिखाई दीं। वह बरामदे में आकर चूल्हे के पास ही बैठ गईं और खाना बनाने में बहू की मदद करने लगीं, कम से कम अनु जहाँ बैठी थी वहाँ से तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि वो बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं और साथ ही  उसकी मदद भी कर रही हैं। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नही हो रहा था कि दादी अपनी बड़ी बहू के साथ इतने प्यार से! आखिर उससे रहा नहीं गया तो उसने मम्मी से पूछ ही लिया- "वो दादी की बड़ी बहू ही हैं न, जिसके साथ वो खाना बनवा रही हैं।"
"हाँ, क्यों..विश्वास नहीं हो रहा?" मम्मी बोलीं।
"अरे मम्मी कैसे विश्वास होगा, जो बेटे को पेट भर खाना देना तो छोड़ो सीधे मुँह बात भी नहीं करती थीं, वो उसी बेटे की पत्नी से इतने प्यार से पेश आ रही हैं, कैसे विश्वास होगा।" अनु को यह सब चमत्कार सा लग रहा था।
"तुम्हारी छोटी दादी हम लोगों से नहीं बोलतीं बेटा, इसलिए बहू को प्यार जता करके अपने साथ मिलाए रखना चाहती हैं। उन्हें ये डर सताता होगा कि अगर उन्होंने उसे प्यार से नहीं रखा तो वो हम लोगों से बोलने लगेगी और जब वो हमसे बोलने लगेगी तो हम लोग उनकी बहू को उनके खिलाफ भड़का न दें, इसीलिए वो उसके साथ वैसे पेश नहीं आतीं जैसे बेटे के साथ आती थीं, बल्कि उम्मीद से ज्यादा ही प्यार लुटाती हैं ताकि अगर कोई इनके सौतेले पन को उससे कहे तो भी उसे विश्वास न हो।"

"चलो अच्छी बात है प्रतिस्पर्धा हो या डर, जिस भी कारण से हो, यही अच्छा है कि उस बेचारी को इनके सौतेलेपन का शिकार नहीं होना पड़ा।" अनु बोली।

"हाँ लेकिन दिखावा कब तक चलेगा?" जो सौतेलापन ये बेटे के बचपन से लेकर जवानी तक नहीं मिटा पाईं, छोटे से बच्चे को देखकर कभी इनका दिल नहीं पिघला, अब चार दिन पहले आई बहू को देखकर इतना प्यार बरस रहा है कि वो सौतेलापन खत्म हो गया मानो, पर क्या ऐसा संभव है?" मम्मी बोलीं।

"इसमें कोई कर भी क्या सकता है, जैसा चल रहा है चलने दो, सही क्या है ये तो शब्द चाचा भी बताएँगे ही अपनी पत्नी को।" अनु बोली।

"बताने की नौबत ना ही आए तो अच्छा है, ऐसे ही सब ठीक हो जाए। कम से कम वो बच्ची तो खुश रहेगी, जो अभी-अभी अपना घर छोड़कर आई है। अच्छा तुम बैठो मैं अभी थोड़ी देर में आती हूँ।" मम्मी बोलीं और उठकर रसोई में चली गईं।

छोटी दादी अपनी बहू के साथ ऐसे प्यार से घुलमिल कर खाना बनाने में मदद कर रही थीं कि उन्हें देखकर कोई ये नहीं सोच सकता था कि कभी यही अपने बड़े बेटे को पेट भर खाना तक नहीं देती थीं, अनु को अभी भी वो दिन याद है जब एक बार उसने शब्द चाचा को अनाज की डेहरी के ऊपर कई दिनों से रखी सूखी रोटी चबाते देखकर पूछा कि "इसे क्यों खा रहे हो, सूख चुकी है ये।" तब उन्होंने ये नहीं कहा कि उन्हें भूख लगी है बल्कि अपनी भूख छिपाते हुए हँसते हुए ये जवाब दिया कि "कभी खा के देखना कितना अच्छा लगता है बिल्कुल पापड़ जैसा, मेरा पापड़ खाने का मन कर रहा था इसलिए इसे खा रहा हूँ।" अनु समझ गई थी कि वो भूखे थे पर किसी से कहकर अपनी सौतेली माँ के क्रोध का शिकार नहीं बनना चाहते थे। शब्द चाचा अनु से बस दो-तीन साल ही बड़े थे इसलिए वे साथ-साथ ही खेलते-कूदते थे। अनु की पढ़ाई समय से शुरू हो गई थी इसलिए वह शब्द चाचा से एक कक्षा आगे थी, अतः अपनी पिछले सत्र की किताबें, जमेट्री बॉक्स और कभी-कभी बैग भी चाचा को दे दिया करती और उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोकता। कितनी बार तो शब्द चाचा के साथ अच्छा व्यवहार न करने के कारण छोटी दादी से अनु की मम्मी की लड़ाई भी हो जाया करती थी, वैसे भी पूरे परिवार में उनके सामने ही उनकी गलतियों के लिए टोकने की हिम्मत सिर्फ अनु के मम्मी पापा की ही होती थी, इसलिए जब कभी दादी शब्द चाचा पर हाथ उठातीं या शिकायत लगाकर दादा जी से पिटवातीं तब मम्मी से सहन नहीं होता और वो उन्हें बचाने के लिए बोल पड़तीं फिर कहा-सुनी होना तो तय था और फिर हर बात की बाल की खाल निकाली जाती पर जो भी हो मम्मी या पापा दोनों जब तक घर पर होते तब तक शब्द चाचा के ठाट होते पर इनकी अनुपस्थिति में बेचारे डर के मारे काँपते थे। उम्र के साथ-साथ सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि सोच-समझ का दायरा भी बढ़ा, सहनशक्ति के साथ ही रक्षा का भाव भी जागृत हुआ और चाचा में बड़े बेटे की जिम्मेदारी की भावना भी जागी और वो कमाने लगे। जब बेटा पैसा कमाकर माँ के हाथों में देने लगा तो माँ को उस सौतेले बेटे के पैसों में सगे जितना प्यार नजर आने लगा तो उन्होंने अपने सौतेले बर्ताव को संस्कार सिखाने हेतु उठाए गए सख्त कदमों की खोल में ढँक दिया और शत-प्रतिशत कामयाब भी रहीं। काफी समय बाद शहर से कमाकर आए बेटे पर माँ के क्षणिक प्यार सत्कार और फिक्रमंदी का असर कुछ यूँ हुआ कि बेटा उनका सौतेलापन तो भूल ही गया साथ ही खुद की सुरक्षा में उनकी माँ की नजरों में बुरे बनने वाले अनु के मम्मी-पापा को ही शत्रु समझने लगा।
अब वही शब्द काका हैं जो कभी अनु के शहर से आने पर सबसे ज्यादा खुश होते थे, क्योंकि उन्हें न सिर्फ अनु की साल भर पढ़ी गईं पर संभाल कर रखने के कारण बिल्कुल नई जैसी दिखने वाली किताबें, जमेट्री बॉक्स मिलते थे बल्कि कभी-कभी मम्मी द्वारा उनके लिए खरीदे गए कपड़े और मम्मी-पापा की सुरक्षा भी मिलती थी। परंतु आज वह मम्मी-पापा से बोलने की भी आवश्यकता नहीं समझते। उनके इस बर्ताव से होने वाले दुख को मम्मी ने भले ही हृदय में ज़ब्त कर लिया हो पर उनकी बातों से कभी-कभी वह छलक ही पड़ता है।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

शिक्षक के अधिकार व कर्तव्य


माता-पिता बच्चे को न सिर्फ जन्म देते हैं बल्कि पहले गुरु भी वही होते हैं। बच्चा जब दुनिया में आता है तब आसपास के वातावरण से, परिवार से, रिश्तों से तथा समाज व समाज के लोगों से उसका परिचय माँ ही करवाती है, वह बच्चे को जैसा बताती है वह वही मानता है, माँ ही बच्चे की उँगली पकड़ धरती पर उसे पहला कदम रखना सिखाती है, गिरने के पश्चात् संभलना और पुनः उठकर खड़े होना सिखाती है। माँ हृदय की कोमलता के वशीभूत होकर यदि लड़खड़ाकर गिरते बच्चे को लगने वाली चोट के दर्द से पिघल कर उसे उस चोट से बचाने के लिए पुनः उठना ही न सिखाती तो बच्चा पूरी जिंदगी के लिए न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक विकलांगता का शिकार हो जाता किन्तु उस समय माँ का हृदय जानता है कि कब उसे नरमी से और कब सख्ती अख्तियार करते हुए बच्चे को गिरकर संभलना और पुनः उठकर चलना सिखाना है और परिणाम स्वरूप बच्चा गिरता है संभलता है और फिर उठकर चलता और दौड़ता है। इन सबके दौरान जो गौर करने वाली बात है, वह है कि बच्चे के जीवन की प्रथम गुरु माँ बच्चे के हितार्थ आवश्यकतानुसार सख्त भी होती है और नरम भी। धीरे-धीरे बच्चे के बड़े होने के साथ-साथ उसकी शिक्षा-दीक्षा हेतु उसे गुरु के सुपुर्द किया जाता है और माता-पिता अपने पुत्र को गुरु के सुपुर्द कर आश्वस्त हो जाते। फिर गुरु बच्चों में अपनी शिक्षा के द्वारा मानवीय व सामाजिक गुणों का विकास करते हैं। बच्चा स्वभावतः बेहद जिज्ञासु, नटखट व स्वछंद प्रवृत्ति का होता है। कभी-कभी तो किसी-किसी बच्चे को स्वछंद से अनुशासित बनाने में गुरु को लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। पर गुरु की मर्यादा उसे उस काम को चुनौती की भाँति स्वीकारने पर विवश करती है, इसलिए वह उस बच्चे को कभी नरमी तो कभी सख्ती से सिखाने का प्रयास करता है।

एक समय था जब 'गुरु' शब्द को ही सम्मान सूचक मानते थे किन्तु धीरे-धीरे समाज की मान्यताएँ बदलीं, लोगों की सोच में परिवर्तन हुआ, रहन-सहन में बदलाव के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव न सिर्फ लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाया है हमारी शिक्षा पद्धति भी इससे बेहद प्रभावित हुई है। फलस्वरूप गुरुकुल से पाठशाला बने शिक्षण केंद्र विद्यालय और फिर कॉन्वेंट स्कूल बन गए और इसी के साथ जो पहले गुरु हुआ करते थे वो अब शिक्षक हो गए तथा शिष्य अब विद्यार्धी/शिक्षार्थी बन गए हैं। जहाँ पहले गुरु प्रधान हुआ करता था अब विद्यार्थी प्रधान होता है, तो जिसकी प्रधानता होगी उसी का दबाव रहेगा। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और अधिकार भावना की प्रबलता के कारण वर्तमान समय में बच्चे अति संवेदनशील भावनाओं से ग्रस्त हैं। दूसरी ओर मानसिक व शारीरिक दबाव के फलस्वरूप कुछ शिक्षक भी अपनी गरिमा को भूल जाते हैं और अपनी सीमा को भूलकर बर्बरता पर उतर आते हैं किन्तु ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है और ऐसी घटनाओं को देखते हुए तथा विद्यार्थियों की अति संवेदनशीलता को देखते हुए कानून बना दिया गया जिसके तहत शिक्षक के कर्तव्यों को तथा विद्यार्थियों के अधिकारों को वरीयता दी गई। किन्तु जिस प्रकार हर एक कानून का दुरुपयोग भी होता है, उसी प्रकार विद्यार्थियों के अधिकारों का भी दुरुपयोग होने लगा है।

 आजकल माता-पिता दोनों ही कामकाजी होने के कारण स्वयं तो अपने बच्चों को समय दे नहीं पाते किन्तु बच्चों के प्रति अति सुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर शिक्षक की थोड़ी सख्ती भी बर्दाश्त नहीं कर पाते और बिना सत्य जाने शिक्षक के प्रति नकारात्मक सोच के वशीभूत होकर आक्रामक कदम उठा लेते हैं और कानून का दुरुपयोग करने से भी नहीं चूकते। 
सामाजिक और शैक्षणिक परिवर्तन के फलस्वरूप आज का गुरु गुरु नहीं शिक्षक बन गया है, वह शिक्षक जो सम्मानित तो है किन्तु केवल हवाओं में, किंवदंतियों में। सच्चाई के धरातल पर उतरकर देखें तो न उसका कोई अधिकार है न कोई मान, इतना ही नहीं उसकी अपनी कोई ज़िंदगी भी नहीं है। वह बस आज के सिस्टम का मारा वह बेचारा जीव है, जो बिना आवाज निकाले चुपचाप पिसता है, चीख भी नहीं सकता। अगर आवाज निकालने का प्रयास भी करता है तो उसकी आवाज को शिक्षक की गरिमा के नीचे दबा दिया जाता है, शिक्षक है वह, उसके कंधों पर समाज निर्माण का उत्तरदायित्व है, उसे अपना उत्तरदायित्व पूरी श्रद्धा से पूरी मेहनत से निभाना चाहिए। उसे कितनी भी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया जाय पर वह शिक्षक है इसलिए उसे पाँच घंटे में पंद्रह घंटे का कार्य करना भी आना चाहिए और साथ ही विद्यार्थियों की पढ़ाई भी प्रभावित नहीं होनी चाहिए। उसे विद्यार्थियों को सजा देना तो दूर उन्हें डाँटना, आँख दिखाना और छूना भी वर्जित है, मारना या पीटना तो अपराध की श्रेणी से बहुत ऊपर है किन्तु उनको शिष्ट बनाना है। वह शिक्षक जो छात्र के भविष्य को सुधारने के लिए पूर्ण समर्पण भाव से नित नए तरीके खोजता है, विद्यार्थियों को और सिस्टम को एक पल नहीं लगता उसे अपराधी के कटघरे में खड़ा करने में। वह समझ भी नहीं पाता कि उससे क्या गलती हुई है, उसे अपराधी बनाकर बच्चे व उसके माता-पिता के समक्ष खड़ा कर दिया जाता है। 
वर्तमान समय में अध्यापक का सम्मान व अधिकार महज़ एक मृगतृष्णा है जो दूर से एक सुखद भ्रम उत्पन्न करता है किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। शिक्षण संस्थाएँ मानों मानवीय भावनाओं से शून्य हो चुकी हैं जिसके फलस्वरूप उनके सोच के अनुसार शिक्षक/शिक्षिका कभी बीमार नहीं हो सकते, उन्हें  अपने परिवार के प्रति समर्पित होने से पहले विद्यालय के प्रति समर्पित होना चाहिए। विद्यालय समय में अपने परिवार से बिल्कुल कट चुके होते हैं चाहे वहाँ कोई इमरजेंसी भी क्यों न हो पर उन तक सूचना पहुँचना अत्यंत दुरुह होता है। शिक्षक आठ के आठ पीरियड खड़े होकर ही पढ़ाने को मज़बूर होते हैं। इस दौरान वह कितनी भी शारीरिक समस्या के शिकार हो जाएँ परंतु कभी इस ओर न तो शैक्षणिक विभागों की दृष्टि पड़ी न मानवाधिकार विभाग की और न ही सरकार की। किन्तु विद्यार्थी की उग्रता व अशिष्टता के लिए यदि यही शिक्षक उसे डाँट दे या पाँच मिनट खड़ा कर दे तो सभी तन्त्र जागरूक हो जाते हैं। 
वर्तमान समय में 90% विद्यार्थी भी शिक्षक को एक वेतनभोगी कर्मचारी ही समझते हैं इससे अधिक कुछ नहीं, और तो और वो उन्हें विद्यालय या सिस्टम का नहीं बल्कि अपना कर्मचारी समझते हैं क्योंकि उनके द्वारा दी गई फीस से शिक्षक वर्ग की मासिक तनख्वाह निकलती है। इस समय के बच्चों के विचार व उनका व्यवहार देखकर देश के भविष्य के विषय में सोचती हूँ तो एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वो बच्चे जिनमें अभी 10 वीं 12 वीं तक भी अनुशासन, शिष्टाचार व  विनम्रता के भाव नहीं पनप सके, वो देश के कर्णधार कैसे बन सकते हैं?
प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्यों यह बच्चे इतने अधिक उग्र, अनुशासनहीन और संवेदनहीन हो चुके हैं? क्यों वही माता-पिता जो अपने बच्चे को खड़ा करने के लिए उसे चोट सहन करने देते थे वही क्यों उसके भविष्य को बनाने के लिए उसके प्रति थोड़ी सख्ती भी बर्दाश्त नहीं कर पाते? क्यों उन्हें शिक्षक अपने बच्चे के समक्ष सदैव हाथ बाँधे खड़ा हुआ चाहिए? अक्सर देखा जाता है कि वही बच्चा शिक्षक का सम्मान नहीं करता जिसके माता-पिता शिक्षक का सम्मान नहीं करते। जो माता-पिता शिक्षक के प्रति सम्मान दर्शाते हैं वो बच्चे भी सम्मान करते हैं। 
अतः आज भी माता-पिता ही बच्चे के गुरु हैं वो बच्चे को जैसी शिक्षा देते हैं बच्चा वैसा ही बनता है, बच्चे को शिष्ट-अशिष्ट बनाना अब सिर्फ माता-पिता के हाथ में है शिक्षक से भी उसे क्या और कितना सीखना है यह भी माता-पिता ही निर्धारित करते हैं। विद्यालय और शिक्षक तो महज किताबी ज्ञान ही दे पाते हैं। गिने-चुने विद्यार्थी ही होते हैं जो शिक्षक को गुरु मानकर उनकी बातों का अनुसरण करते हैं और निःसन्देह ऐसे विद्यार्थी मानवीय मूल्यों के वाहक तथा आदर्श नागरिक होते हैं।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️