समीक्षा
पुस्तक- साँसों के अनुबंध
कवयित्री- सारिका मुकेश
प्रकाशक- संजीव प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक- मालती मिश्रा 'मयंती'
कवयित्री- सारिका मुकेश
प्रकाशक- संजीव प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक- मालती मिश्रा 'मयंती'
नदी के शांत स्थिर जल में एक कंकड़ गिरने से हलचल हो उठती है और इसकी तरंगें स्थिर जल को दूर तक झंकृत कर देती हैं, ठीक उसी प्रकार संवेदनशील मानव मन किसी वेदना या हर्षानुभूति से झंकृत हो उठता है, उसके शांत भाव तरंगित हो उठते हैं और यदि यह कवि हृदय हो तो उसके हृदय की तरंगें उसके कलम के माध्यम से पाठक के हृदय में भी तरंगें उत्पन्न करते हैं। व्यक्ति कहता है तो श्रोता उसे अपनी समझ के अनुसार समझता व महसूस करता है किंतु कवि/कवयित्री का कथन पाठक/श्रोता उसी रूप में सुनते व समझते हैं कि दोनों के भाव एकाकार हो जाते हैं। कवि हृदय ही हो सकता है जो प्रकृति से, समाज से अपनी साँसों का अनुबंध कर बैठे। ऐसे ही कवि व कवयित्री के भावों का सृजन है *साँसों का अनुबंध* कवि/कवयित्री *सारिका मुकेश* जी ने पति-पत्नी के रूप में न सिर्फ एक-दूसरे के साथ साँसों का अनुबंध किया है बल्कि समभाव सम स्वर रखते हुए लेखनी से भी साँसों का अनुबंध किया है और शब्दों के माध्यम से यही अनुबंध वह सदा-सदा के लिए पाठकों से बनाए रखने की कामना करते हैं।
रोजमर्रा के जीवन में घटित होने वाली छोटी-छोटी ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें आमतौर पर हम सभी देखकर भी अनदेखा कर देते हैं या फिर वह निरंतर होने वाली प्रक्रिया होने के कारण सभी के लिए अत्यंत साधारण व महत्वहीन बात हो जाती है जबकि वही बात कवि के लिए बेहद महत्वपूर्ण बन जाती है। जैसे- इस संग्रह की एक बहुत ही छोटी किंतु विस्तृत व गूढ़ भावों को समेटे और गहन विचारोन्मुख कविता *आधुनिक जीवन* है, इस कविता के माध्यम से प्रकृति से दूर होते भौतिक सुख सुविधाओं में लिप्त मानवीय जीवन का बेहद सजीव चित्रण किया गया है। दृष्टव्य है- देर दोपहर तक/दरवाजे के बाहर/गैलरी में पड़े/अखबार और दूध की तरह/पड़ी रही सुबह....
इनकी कविताएँ छंदों की सीमा में न बँधकर भावों के खुले आकाश में स्वतंत्र उड़ान भरती हुई प्रतीत होती हैं। ये स्वयं कविता को किसी सीमा में न बाँधते हुए भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम और ईश्वर से एकाकार होने का स्रोत बताते हैं। 'कविता: एक परिभाषा' के माध्यम से कहते हैं- कविता.. मंदिर में होने वाली/शाम की आरती है/ जहाँ शब्द पुष्प हैं/श्रोता ईश्वर है/और कवि प्रार्थी है.. कवि/कवयित्री ने सतत लेखन को को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाते हुए लेखन को ही जीवित होने का साक्ष्य माना है क्योंकि लेखन के लिए संवेदनशील हृदय का होना आवश्यक है और संवेदनशील बनकर जीने को ही सार्थक मानते हैं। इन्होंने जीवन को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है, कभी यह प्रकृति के प्रति अति संवेदनशील तो कभी जीवन को गणितीय दृष्टिकोण से भी देखने लगते हैं और अपनी रचना के माध्यम से जीवनमूल्यों को बहुत आसानी से बेहद कम शब्दों में समझाने में सफल भी हुए हैं। यथा- जीवन का गणित/धन, ऋण, गुणा, भाग/ प्रेम-धन/घृणा-ऋण/अच्छाई-गुणा/बुराई-भाग..कवि/कवयित्री जहाँ 'परिवर्तन' कविता में चंद पंक्तियों में ही बड़ी बात कह देने में सफल हुए हैं वहीं 'चरैवेति चरैवेति जैसी मध्यमाकार कविताएँ भी हैं जो परिवर्तनशीलता को अपनाते हुए सदैव गतिमान रहने का संदेश देती हैं। ये समय के साथ परिवर्तन को अपनाने के लिए सदैव तत्पर हैं किंतु इनका कोमल हृदय अखबार में रोजाना नकारात्मक खबरों से बेहद व्यथित होता है और कदाचित यही कारण है कि सूर्यास्त के साथ आती रात के सन्नाटे से व अकेलेपन से भयभीत भी प्रतीत होते हैं। सारिका मुकेश जी द्वारा प्रतीक बिंबों का भी भरपूर प्रयोग किया गया है, जैसे- 'नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर' कविता में सर्द मौसम की सजीवता हेतु- 'गुच्छा सा बैठा आदमी', तथा आकाश में/हँसिए की तरह/चमकते चाँद के/ डर के मारे/नन्हें बच्चों की तरह/आकाश की गोद में दुबके पड़े तारे। या फिर निशा की पलकों पर/ओस के मोती/अश्रुकण बन /पिघलते रहे/रातभर। ऐसे न जाने कितने ही प्रतीक बिंब इनकी रचनाओं को बेहद सजीव और प्रभावशाली बना देते हैं।
वर्तमान समय की निरंतर दौड़ती भागती जिंदगी को इन्होंने 'आज का आदमी' के माध्यम से बेहद रोचकता से प्रस्तुत किया है, यथा- अपनी ही पूँछ को/मुँह में भर लेने की/पवित्र इच्छा लिए/पागल कुत्ते की भाँति/दौड़ता रहता है/आज का आदमी/घूमता रहता है गोल गोल....कवि हृदय जहाँ प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत होता है, 'प्रिय कौन हो तुम' और 'मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ' जैसी श्रृंगार आधारित कविताओं का सृजन कर श्रृंगार रस का रसास्वादन भी करवाता है तथा समाज के परिवर्तित होती मान्यताओं को भी स्वीकार करता है, वहीं समाज की विकृतियों को देखकर उसका हृदय उद्वेलित भी होता है। समाज की विकृत मानसिकता के लोगों की चुभती नजरों का दंश झेलती लड़की के हृदय की व्यथा को समझते हुए इसे 'दृष्टि बलात्कार' की संज्ञा दी है।
प्रेम, भाईचारा, आपसी मेलजोल वाली ज़िंदगी से दूर हो चुके बड़े-बड़े अपार्टमेंट में एकाकी जीवन जीते लोगों के जीवन पर तरस खाते हुए कहती हैं 'मुझको तो आद्यक्षर लगते/अपार्टमेंट्स के लोग'
छोटी-बड़ी इक्यासी कविताओं का संकलन है 'साँसों के अनुबंध' अधिकतर कविताएँ बहुत छोटी हैं, इनके छोटे आकार में गूढ़ भाव के समाहित होने के कारण ही क्षणिकाओं का भ्रम उत्पन्न होता है। यदि कहा जाए कि इन्होंने अपनी रचनाओं में गागर में सागर भर दिया है तो अतिशयोक्ति न होगी।
सारिका मुकेश जी की रचनाओं में प्रेम, आपसी सौहार्द्र, आत्मावलोकन, समाज के प्रति जागरूकता, चिंतन, करुणा, उद्वेलन, सतत सीखते रहने के गुण आदि सभी भाव देखने को मिलते हैं। यह पुस्तक कवयित्री की कोरी कल्पना नहीं बल्कि अनुभव और साधना है। सारिका मुकेश जी को उनके इस कृतित्व के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
संजीव प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 200/ रुपए है। हम सभी को कवयित्री के इस साहित्यिक साधना को अपनी शुभकामनाओं से अभिमंत्रित करना चाहिए।
रोजमर्रा के जीवन में घटित होने वाली छोटी-छोटी ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें आमतौर पर हम सभी देखकर भी अनदेखा कर देते हैं या फिर वह निरंतर होने वाली प्रक्रिया होने के कारण सभी के लिए अत्यंत साधारण व महत्वहीन बात हो जाती है जबकि वही बात कवि के लिए बेहद महत्वपूर्ण बन जाती है। जैसे- इस संग्रह की एक बहुत ही छोटी किंतु विस्तृत व गूढ़ भावों को समेटे और गहन विचारोन्मुख कविता *आधुनिक जीवन* है, इस कविता के माध्यम से प्रकृति से दूर होते भौतिक सुख सुविधाओं में लिप्त मानवीय जीवन का बेहद सजीव चित्रण किया गया है। दृष्टव्य है- देर दोपहर तक/दरवाजे के बाहर/गैलरी में पड़े/अखबार और दूध की तरह/पड़ी रही सुबह....
इनकी कविताएँ छंदों की सीमा में न बँधकर भावों के खुले आकाश में स्वतंत्र उड़ान भरती हुई प्रतीत होती हैं। ये स्वयं कविता को किसी सीमा में न बाँधते हुए भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम और ईश्वर से एकाकार होने का स्रोत बताते हैं। 'कविता: एक परिभाषा' के माध्यम से कहते हैं- कविता.. मंदिर में होने वाली/शाम की आरती है/ जहाँ शब्द पुष्प हैं/श्रोता ईश्वर है/और कवि प्रार्थी है.. कवि/कवयित्री ने सतत लेखन को को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाते हुए लेखन को ही जीवित होने का साक्ष्य माना है क्योंकि लेखन के लिए संवेदनशील हृदय का होना आवश्यक है और संवेदनशील बनकर जीने को ही सार्थक मानते हैं। इन्होंने जीवन को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है, कभी यह प्रकृति के प्रति अति संवेदनशील तो कभी जीवन को गणितीय दृष्टिकोण से भी देखने लगते हैं और अपनी रचना के माध्यम से जीवनमूल्यों को बहुत आसानी से बेहद कम शब्दों में समझाने में सफल भी हुए हैं। यथा- जीवन का गणित/धन, ऋण, गुणा, भाग/ प्रेम-धन/घृणा-ऋण/अच्छाई-गुणा/बुराई-भाग..कवि/कवयित्री जहाँ 'परिवर्तन' कविता में चंद पंक्तियों में ही बड़ी बात कह देने में सफल हुए हैं वहीं 'चरैवेति चरैवेति जैसी मध्यमाकार कविताएँ भी हैं जो परिवर्तनशीलता को अपनाते हुए सदैव गतिमान रहने का संदेश देती हैं। ये समय के साथ परिवर्तन को अपनाने के लिए सदैव तत्पर हैं किंतु इनका कोमल हृदय अखबार में रोजाना नकारात्मक खबरों से बेहद व्यथित होता है और कदाचित यही कारण है कि सूर्यास्त के साथ आती रात के सन्नाटे से व अकेलेपन से भयभीत भी प्रतीत होते हैं। सारिका मुकेश जी द्वारा प्रतीक बिंबों का भी भरपूर प्रयोग किया गया है, जैसे- 'नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर' कविता में सर्द मौसम की सजीवता हेतु- 'गुच्छा सा बैठा आदमी', तथा आकाश में/हँसिए की तरह/चमकते चाँद के/ डर के मारे/नन्हें बच्चों की तरह/आकाश की गोद में दुबके पड़े तारे। या फिर निशा की पलकों पर/ओस के मोती/अश्रुकण बन /पिघलते रहे/रातभर। ऐसे न जाने कितने ही प्रतीक बिंब इनकी रचनाओं को बेहद सजीव और प्रभावशाली बना देते हैं।
वर्तमान समय की निरंतर दौड़ती भागती जिंदगी को इन्होंने 'आज का आदमी' के माध्यम से बेहद रोचकता से प्रस्तुत किया है, यथा- अपनी ही पूँछ को/मुँह में भर लेने की/पवित्र इच्छा लिए/पागल कुत्ते की भाँति/दौड़ता रहता है/आज का आदमी/घूमता रहता है गोल गोल....कवि हृदय जहाँ प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत होता है, 'प्रिय कौन हो तुम' और 'मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ' जैसी श्रृंगार आधारित कविताओं का सृजन कर श्रृंगार रस का रसास्वादन भी करवाता है तथा समाज के परिवर्तित होती मान्यताओं को भी स्वीकार करता है, वहीं समाज की विकृतियों को देखकर उसका हृदय उद्वेलित भी होता है। समाज की विकृत मानसिकता के लोगों की चुभती नजरों का दंश झेलती लड़की के हृदय की व्यथा को समझते हुए इसे 'दृष्टि बलात्कार' की संज्ञा दी है।
प्रेम, भाईचारा, आपसी मेलजोल वाली ज़िंदगी से दूर हो चुके बड़े-बड़े अपार्टमेंट में एकाकी जीवन जीते लोगों के जीवन पर तरस खाते हुए कहती हैं 'मुझको तो आद्यक्षर लगते/अपार्टमेंट्स के लोग'
छोटी-बड़ी इक्यासी कविताओं का संकलन है 'साँसों के अनुबंध' अधिकतर कविताएँ बहुत छोटी हैं, इनके छोटे आकार में गूढ़ भाव के समाहित होने के कारण ही क्षणिकाओं का भ्रम उत्पन्न होता है। यदि कहा जाए कि इन्होंने अपनी रचनाओं में गागर में सागर भर दिया है तो अतिशयोक्ति न होगी।
सारिका मुकेश जी की रचनाओं में प्रेम, आपसी सौहार्द्र, आत्मावलोकन, समाज के प्रति जागरूकता, चिंतन, करुणा, उद्वेलन, सतत सीखते रहने के गुण आदि सभी भाव देखने को मिलते हैं। यह पुस्तक कवयित्री की कोरी कल्पना नहीं बल्कि अनुभव और साधना है। सारिका मुकेश जी को उनके इस कृतित्व के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
संजीव प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 200/ रुपए है। हम सभी को कवयित्री के इस साहित्यिक साधना को अपनी शुभकामनाओं से अभिमंत्रित करना चाहिए।
मालती मिश्रा 'मयंती'
बी-20, गली नं०- 4,
भजनपुरा दिल्ली- 110053
मो०- 9891616087
ईमेल- malti3010@gmail.com
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