गुरुवार

जुबाँ पर अपने हिन्दी है और दिल में हिन्दुस्तान है

जुबाँ पर अपने हिन्दी है और दिल में हिन्दुस्तान है
जन्म लिया इस धरती पर  हमने (नव निर्मित)
पाया माँ की गोदी
माँ की मीठी बोली ने
ममता की मिश्री घोली,
मिश्री सी मीठी बोली में
बसती हमारी जान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

जिस भाषा में माँ हमको
सुनाती थी गाकर लोरी
बिन सीखे जो बोल गए हम
वह है माँ की बोली
माँ की बोली हिन्दी पर
हम सबको अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

देश को पूरे विश्व से
आज है इसने जोड़ा
विश्वपटल पर इसने अपनी
अमिट छाप को छोड़ा
मातृभाषा हिंदी से ही
विश्व में हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

मातृभाषा के अभाव में
ज्यों शैशव अधूरा होता है
त्यों राष्ट्रभाषा के बिना
एक राष्ट्र न पूरा होता है।
माँ की वह मीठी बोली ही
बनी हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

हिंदी है भारत की आशा
यही है हर भारती की भाषा
हर दिन नया विहान है हिन्दी
मेरे हिन्द की प्राण है हिन्दी
इससे ही पहचान हमारी
यही हमारा अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

अपने देश में हर क्षेत्र की
अलग-अलग हैं बोलियाँ
पर मातृभाषा हिंदी की
ये सभी हैं सखी-सहेलियाँ
हर इक भाषा-भाषी का
मातृभाषा से सम्मान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

भारत में रहने वाले
हर भारती की शक्ति है हिन्दी
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई
सबकी सहज अभिव्यक्ति है हिन्दी
मंदिर का यह शंखनाद तो
मस्जिद का आज़ान है,
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।

हिंदी में हम पढ़ें कहानी
हिंदी में गाना गाते हैं
फिर क्यों हिंदीभाषी
कहलाने में कतराते हैं,
हर हिंदुस्तानी के दिल में
इसके लिए सम्मान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है
और दिल में हिंदुस्तान है।
#मालतीमिश्रा

बुधवार

जुबां पर अपनी हिन्दी है, दिल में हिंदुस्तान है..


जन्म लिया इस धरती पर  हमने (नव निर्मित)
पाया माँ की गोदी
माँ की मीठी बोली ने 
ममता की मिश्री घोली,
मिश्री सी मीठी बोली में
बसती हमारी जान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

जिस भाषा में माँ हमको
सुनाती थी गाकर लोरी
बिन सीखे जो बोल गए हम
वह है माँ की बोली
माँ की बोली हिन्दी पर
हम सबको अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

देश को पूरे विश्व से 
आज है इसने जोड़ा
विश्वपटल पर इसने अपनी
अमिट छाप को छोड़ा
मातृभाषा हिंदी से ही
विश्व में हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

मातृभाषा के अभाव में
ज्यों शैशव अधूरा होता है
त्यों राष्ट्रभाषा के बिना
एक राष्ट्र न पूरा होता है।
माँ की वह मीठी बोली ही
बनी हमारी शान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

हिंदी है भारत की आशा
यही है हर भारती की भाषा
हर दिन नया विहान है हिन्दी
मेरे हिन्द की प्राण है हिन्दी
इससे ही पहचान हमारी 
यही हमारा अभिमान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

अपने देश में हर क्षेत्र की 
अलग-अलग हैं बोलियाँ 
पर मातृभाषा हिंदी की 
ये सभी हैं सखी-सहेलियाँ 
हर इक भाषा-भाषी का 
मातृभाषा से सम्मान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

भारत में रहने वाले
हर भारती की शक्ति है हिन्दी
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई 
सबकी सहज अभिव्यक्ति है हिन्दी
मंदिर का यह शंखनाद तो
मस्जिद का आज़ान है,
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।

हिंदी में हम पढ़ें कहानी
हिंदी में गाना गाते हैं
फिर क्यों हिंदीभाषी 
कहलाने में कतराते हैं,
हर हिंदुस्तानी के दिल में
इसके लिए सम्मान है
अपनी जुबाँ पर हिंदी है 
और दिल में हिंदुस्तान है।
#मालतीमिश्रा

शुक्रवार

पगडंडी मेरे गाँव की



वो टेढ़ी-मेढ़ी 
कहीं संकरी तो
कहीं उथली-सी
पगडंडी
गाँव के मुहाने से
शुरू होकर
खेतों के मोड़ों से
होती हुई
बगीचे को दो हिस्सों
में बाँटती
दूसरे गाँव में
पूरे हक से प्रवेश
करती 
अल्हड़ बाला-सी
कभी दाएँ 
तो कभी 
बाएँ
बलखाती 
इठलाती-सी
अन्जाने गाँवों में भी
पहचान बनाती
लोगों के दिलों में
उतरती हुई
अन्य ग्रामों के
खेतों बगीचों
को बाँटती काटती
लोगों की
आवाजाही को सुगम
बनाती
सड़कों के 
लंबे मार्ग को
छोटा बनाती हुई
कहाँ से शुरू
कहा खत्म
होगी
ये किसी को नहीं
बताती
हमारी प्यारी
पगडंडी
आज भी गाँवों
से हमारी 
पहचान कराती
कितनी ही पुरानी
हो पर
दिल से 
भुलाई न
जाती
मेरे गाँव की
वो सँकरी 
उथली बलखाती
पगडंडी
@मालतीमिश्रा
चित्र साभार... गूगल से

बुधवार


'कुछ हकीकत कुछ फलसफे'
नवोदित कवि श्री मनीष सिंह और उनके दो अन्य सहयोगी मित्रों द्वारा रचित ऐसी पुस्तक है जिसे पढ़ने बैठो तो मन करता है कि पूरी समाप्त किए बगैर न छोड़ें। वैसे तो मनीष सिंह जी पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं परंतु उनकी कविताओं को पढ़कर साहित्य में उनकी गहन रुचि का परिचय मिलता है, उनकी रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि वह श्रृंगार रस के मंझे हुए कवि हों।
कवि की सबसे प्यारी कल्पना
चित्रकार की सबसे बड़ी रचना
कभी सबसे अच्छा ख्वाब
और कभी सबसे प्यारी हकीकत हो तुम।
तथा..
नजर तेरे चेहरे से हटती नहीं है
लगी है लगन अब तो मिटती नहीं है
खयालों से तेरे महकती सुबह है
मगर शाम भारी है कटती नहीं है।
जहाँ संयोग की ऐसी कई अत्यंत मधुर पंक्तियाँ हैं वहीं वियोग के पारावार की भी कमी नहीं, परंतु संयोग हो या वियोग दोनों ही परिस्थितियों में इन्होंने काव्य सौंदर्य को बनाए रखते हुए 'गेयता' के गुणों को नहीं छोड़ा।
जो दिन के उजाले में न मिला,
दिल ढूँढ़े ऐसे सपने को।
इस रात की जगमग में डूबा,
मैं ढूँढ़ रहा हूँ अपने को।
वैसे तो मनीष जी के ही लफ़्जों में यह उनकी पहली पुस्तक है परंतु ऐसा लगता है जैसे उन्होंने न जाने कितनी रचनाओं के सागर से चुनकर मोती निकाले हैं। उनकी कविताएँ बेशक छांदिक नहीं परंतु छंदमुक्त कविताओं का सुंदर उदाहरण हैं। कविताएँ पढ़ते हुए अनायास लयबद्ध हो जाती हैं ऐसी गेयता है इनमें-
अब तक हम थे चुप बैठे,
अब दिल ने भी इकरार किया
जब से दिल ने तुमको जाना,
तबसे तुम को प्यार किया....
इस तरह की और भी कई कविताएँ हैं जिन्हें होठ अनायास ही गुनगुनाने लगें।
इनकी कविताएँ जहाँ एक ओर हमसफर के रंगीन सपनों से सजी हैं वहीं इन्होंने जीवन को लेकर सकारात्मक सोच को भी अपनी रचनाओं के द्वारा दर्शाया है-
राहों में पड़े काँटे तो क्या
मंजिल पाने की आस तो है,
कल का सूरज अपना होगा
मन में ये विश्वास तो है।
इसी तरह की अन्य पंक्तियाँ
न होगी भूख न सूखा होगा,
चहुँओर होगी हरियाली। जैसी पंक्तियों में सुनहरे भविष्य की कल्पना भी की है। रुपहले ख्वाबों से सजी रचनाओं के रचयिता होने के साथ-साथ 'नेताजी का इंटरव्यू' 'कंप्यूटराइज्ड प्रेम पत्र' जैसी कविताओं से उनके हास्य पक्ष का भी परिचय मिलता है। वहीं 'मेरा हिंदुस्तान कहाँ है' 'मजदूर की व्यथा' तथा इसी प्रकार  की कई अन्य सुंदर रचनाओं के द्वारा समाज और देश के प्रति अपने चिंतन-मनन का भी परिचय दिया है।
तीनो कवियों ने मिलकर इस पुस्तक को बड़ी ही सुंदरता से विभिन्न कविता रूपी पुष्पों से सजाया है 'गुजरा दिन' के माध्यम से जीवन की व्यस्तता में उपेक्षित दिन का मानवीकरण करके बड़ी ही सुंदरता से अंकित किया है इसी प्रकार रोजमर्रा के अनुभवों का भी सजीव चित्रण किया है। मैं ये नहीं कहती कि इनकी रचनाएँ काव्यगत गुणों से परिपूर्ण हैं, निःसंदेह इनमें भी शैलीगत दोष उपलब्ध हो सकते हैं परंतु काव्य की विशेषता होती है कि बड़ी ही सहजता से कम शब्दों में अपनी बात पाठक तक पहुँचा दे और अपनी सरलता और सहजता से मानव मन के तारों को झंकृत कर दे और इस काव्य संग्रह की कविताओं में ये गुण विद्यमान है।
इनकी कविताएँ सहज ही मन को भाती हैं तथा इन्हें पढ़ते वक्त पंक्तियों में वर्णित छवि मस्तिष्क में साकार होने लगती है। इनकी कविताएँ महज कोरी कल्पना नहीं लगती बल्कि हर एक पंक्ति को मानो जिया हो और फिर अपने अनुभवों को शब्दों का रूप दे दिया। एक जगह यह कहते भी हैं कि
"निकला हूँ बेचने को बाज़ार में,
यादों को तुम्हारी लफ़्ज़ों में लिखकर।
खरीदार भी कई हैं पर न जाने,
यादें बिकती नहीं और न चैन मिला कहीं।"

कुल मिलाकर कविताओं की सरलता, उनका माधुर्य, उनका रस और उनकी गेयता उनके शिल्पगत कमियों को महसूस भी नहीं होने देते। मैं समझती हूँ कि न सिर्फ काव्य प्रेमी बल्कि हिन्दी साहित्य की किसी भी विधा में रुचि रखने वालों को एक बार अवश्य इसे पढ़ना चाहिए।
और अन्त में मनीष जी व उनके सहयोगी मित्रों की इस कृति के लिए शुभेच्छा के साथ उन्हीं की पंक्ति से समापन करूँगी कि
"रोज सुबह जो पढ़ी जाए वो किताब हो तुम
लफ्जों में बयाँ हो न सके ऐसा एक अहसास हो तुम।"
#मालतीमिश्रा

तुम जो गईं मुझे छोड़कर...

तुम जो गईं मुझे छोड़कर
कुछ भी रहा न पास
ज्यों सागर के बीच भी
बुझे न मीन की प्यास।

बाग-बगीचे बारी, पनघट
घर, चौबारा जब भी सोचूँ
हर सूँ तू ही तू दिखती है
हर शय को बस तेरी आस।

जब तक हाथ तेरा सिर पर था
मैं राजकुमारी थी तेरे महल की
हाथ  जो  तूने  हटा  लिया  तो
दुनिया  में  कोई  रहा  न खास।

बाबूजी की हिम्मत तुम थीं
रातें कट जाती थीं करते बात
उन सूनी आँखों की नींद गई
छलकी-छलकी रहतीं हैं उदास।

उस घर में तुम दुनिया थीं मेरी
तुम नहीं तो सब अजनबी हुए
उस घर में बीता एक-एक पल
मेरे लिए तो अब होगा प्रवास।

जब तक तेरी ममता से माँ
भरी थी खुशियों की झोली मेरी
अश्रु से नयन सदा रिक्त रहे
चमका करती खुशियों की उजास।

ममता का आँचल ज्यों ही हटा
जीवन में छाई गम की घटा
नयनों से अश्रु अनवरत बहें
फिरभी बुझे न मेरे हिय की प्यास।

मिट्टी में बसी तेरी खुशबू
पुरवइया में तेरे गीतों की धुन
हर शय में तू ही तू बसती
फिरभी हर शय तुझ बिन उदास।

एकबार तो आ जा मइया मेरी
सीने से फिर से लगा ले मुझे
मेरी बिटिया रानी कह कर
कानों में घोल फिर वही मिठास।
#मालतीमिश्रा

मंगलवार

नदी और तालाब के पानी की यदि तुलना करें तो नदी का पानी तालाब के पानी की तुलना में अधिक स्वच्छ होता है क्योंकि वह निरंतर बहता रहता है जबकि ठहराव के कारण तालाब का पानी सड़ जाता है और वह बीमारी फैलाता है। कहते हैं परिवर्तन का दूसरा नाम जीवन है यदि जीवन में परिवर्तन स्वीकार न हो तो जीवन का ठहराव जीना दूभर कर देता है। वैसे तो हमारे विद्वजनों, महापुरुषों ने सदैव यही ज्ञान दिया है कि हमें समय के अनुसार अपने विचारों में परिपक्वता लाना चाहिए, यदि समय के साथ नहीं चले तो पीछे रह जाएँगे, पर क्या यह बात सिर्फ हमारे रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए ही होनी चाहिए? क्या सिर्फ पुरानी मान्यताएँ ही हमारे विकास में बाधक हैं?
मैं समझती हूँ कि जिस प्रकार घिसी-पिटी रूढ़ियाँ समाज के विकास में रुकावट हैं उसी प्रकार हमारी न्याय व्यवस्था, हमारा घिसा-पिटा संविधान देश के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। इसके साथ ही किसी एक ही विचारधारा के अनुयायी को कानून का रक्षक बना कर देश और देश की संस्कृति की बरबादी का तमाशा देखते रहना कहाँ तक न्याय संगत है।
क्या यह विचारणीय नहीं कि किसी देश का संविधान किसी एक धर्म के लिए कुछ तो दूसरे धर्म के लिए कुछ और हो? फिर यह न्याय संगत कैसे हो सकता है? क्या यह न्याय है कि कानून पुरुष के लिए कुछ और स्त्री के लिए कुछ और हो?
क्या ऐसा देश आगे बढ़ सकता है जिसके नागरिक देश को, देश के सम्मान स्वरूप राष्ट्र ध्वज को अपमानित करते हैं और फिर समाज के हीरो बन जाते हैं? क्या ऐसा कानून मान्य होना चाहिए जो देश के रक्षक सेना के हाथ बाँधता हो और उन्हीं रक्षकों पर पत्थर बरसाने वालों को शरण और सुरक्षा देता हो?
जब न्यायालय में न्यायाधीश ही किसी व्यक्ति विशेष, धर्म विशेष के अनुयायी हों तो उनसे न्याय की अपेक्षा रखना मूर्खता ही है और जब संविधान किसी समुदाय विशेष को अनैतिक रूप से संरक्षण प्रदान करने लगे तो देश का भविष्य अंधकारमय होता है। ऐसा संविधान तालाब के सड़े हुए कीचड़युक्त पानी की तरह ही होता है और समय की माँग और देश के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसे संविधान में समय-समय पर परिवर्तन करते रहना आवश्यक है।
#मालतीमिश्रा