आज के इस आधुनिक दौर में जहाँ स्त्री और पुरुष को बराबर अधिकार दिया जाता वहीं कभी पुरुषों के द्वारा तो कभी स्वयं स्त्रियों के द्वारा ही स्त्रियों के लिए सीमा निर्धारित की जाती है कि वो कैसे कपड़े पहनेंगी, कब-कब घर से बाहर जाएँगी और कितना बोलेंगी!
इतना ही नहीं उनकी स्वच्छंदता को समाज के विनाश का कारण भी बताया जाता है....सही भी है, जब स्त्री अपने पर आती है तो सचमुच विनाश ही होता है। द्रौपदी ने जब अपने केश न बाँधने की प्रतिज्ञा ली तो पूरे कौरव वंश का विनाश हुआ, परंतु वह स्त्री की स्वच्छंदता के कारण नहीं बल्कि पुरुष की स्वच्छंदता के कारण हुआ। न ही दुःशासन अपनी मर्यादा का त्याग करके स्त्री का अपमान करता न कुरुवंश का विनाश होता। रावण के कुल का विनाश क्या सीता की स्वच्छंदता के कारण हुआ? वहाँ भी पुरुष की स्वच्छंदता के कारण ही संपूर्ण कुल का नाश हुआ।
लोग सीता द्वारा लक्ष्मण रेखा को लाँघने का उदाहरण देते हैं पर यह नहीं सोचते कि आखिर उन्होंने धर्म पालन हेतु (याचक भूखा न जाए) ही लक्ष्मण रेखा लाँघी। परंतु लोगों को तो सिर्फ यह देखना होता है कि किसी स्त्री के किस एक कार्य का नकारात्मक परिणाम हुआ! बस उन्हें दोषारोपण का बहाना मिल गया।
लोगों को रावण का छल गलत नहीं लगा परंतु सीता का लक्ष्मण रेखा लांघना गलत लगा।
क्यों कभी यह पुरुष प्रधान समाज पुरुषों की सीमा निर्धारित नहीं करता? क्यों मर्यादा पालन का सारा ठीकरा सिर्फ स्त्रियों के माथे पर फोड़ा जाता है?
एक स्त्री गलती कर दे तो पूरे स्त्री वर्ग पर उँगली उठाया जाता है जबकि 50-60 प्रतिशत पुरुष ऐसे होते हैं जो किसी न किसी रूप में अनैतिक कार्य करते हैं परंतु उस समय तो पूरे पुरुष समाज पर उँगली नहीं उठती....
कोई पुरुष किसी स्त्री पर बुरी नजर डालता है तो कहा जाता है कि आज कल की स्त्रियाँ बहुत छोटे-छोटे कपड़े पहनती हैं इसलिए, वहीं दूसरी तरफ यदि किसी स्त्री का किसी अन्य पुरुष से संबंध हो, जो समाज की नजर में मान्य न हो तो भी कहा जाता है कि स्त्री चरित्र-हीन है। यानि कि पुरुष तो कहीं दोषी है ही नहीं।
जबकि आजकल छोटी-छोटी बच्चियों के साथ दुराचार होता है, पूरा शरीर ढँक कर चलने वाली लड़कियों के साथ भी दुराचार किया जाता है...वहाँ यह छोटे कपड़े और अंग-प्रदर्शन वाली दलील खोखली प्रमाणित होती है और पुरुषों की स्वच्छंदता, चरित्र-हीनता और अनैतिक आचरण ही प्रमाणित होते हैं।
हम मानते हैं कि सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते परंतु स्त्रियों की तुलना में दुराचारी पुरुषों की संख्या बहुत अधिक है।
क्यों यह समाज हर व्यक्ति के चरित्र और अधिकारों का आंकलन समान रूप से नहीं कर सकता। जिस प्रकार हर माता-पिता रोज सुबह-शाम अपनी बेटियों को उनकी सीमाओं, उनकी मर्यादाओं का पाठ पढ़ाते हैं, उसी के साथ-साथ बेटों को भी उनकी सीमाओं और मर्यादाओं का पाठ पढ़ाएँ तो निश्चय ही समाज में परिवर्तन आ सकता है। परंतु इसके लिए पहले हमें ही दोहरी मानसिकता को त्याग कर स्त्री-पुरुष को समान नजरिए से देखना होगा। यदि स्त्री की सीमाएँ बताई जाती हैं तो पुरुषों की भी सीमाएँ साथ-साथ बतानी आवश्यक है। स्त्री और पुरुष समाज रूपी रथ के दो पहिए हैं अतः मर्यादा का भार भी दोनों पर समान ही होना चाहिए।
मालती मिश्रा
चित्र साभार....गूगल