मंगलवार

लेखनी स्तब्ध है...


लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है

गहन समंदर भावों का
जिसका न कोई छोर है,
डूबते-उतराते हैं शब्द
ठहराव पर न जोर है।
समझ समापन चिंतन का
पकड़ी तूलिका हाथ ज्यों,
त्यों शब्द मुझे भरमाने लगे
लगता न ये आरंभ है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है

भावों का आवागमन 
दिग्भ्रमित करने लगा
शब्दों के मायाजाल में
सहज मन उलझने लगा।
बढ़ गईं खामोशियाँ
जो अंतर को उकसाने लगीं,
निःशब्द शोर मेरे हृदय के
ये नहीं प्रारब्ध है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है।

चाहतों के पंख पे
उड़ता चला मेरा भी मन,
आसमाँ से तोड़ शब्द 
भर लूँगी मैं खाली दामन।
शब्द बिखरने लगे
रसनाई सूखने लगी,
देखकर ये गत मेरी
मेरा दिल शोक संतप्त है।
लेखनी स्तब्ध है
मिलता न कोई शब्द है। 

जीवन के अनोखे अनुभव
कुछ मधुर तो कसैले कई 
भाव इक-इक हृदय घट में
पल-पल मैंने समेटे कई
वो भाव अकुलाने लगे
बेचैनी दर्शाने लगे
बयाँ करूँ कैसे उन्हें मैं
जो हृदय में अब तक ज़ब्त हैं
लेखनी स्तब्ध है
मिलता व कोई शब्द है........
मालती मिश्रा

चित्र साभार....गूगल से













3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! क्या बात है ! बहुत ही खूबसूरत रचना की प्रस्तुति ।

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  2. वाह ! क्या बात है ! बहुत ही खूबसूरत रचना की प्रस्तुति ।

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    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार राजेश कुमार जी।

      हटाएं

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