बुधवार

अरु..भाग-८ (१)

 


गतांक से आगे..

सिद्धार्थ और अलंकृता एक ही कॉलेज में थे, सिद्धार्थ उससे एक साल सीनियर था। अलंकृता की कविताएँ कहानियाँ मैगज़ीन और कभी-कभी अखबारों में छपती रहती थीं। जिससे सिद्धार्थ उसकी ओर आकृष्ट हुआ, धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। दोनों ही एक-दूसरे को पसंद करते हैं। कभी सिद्धार्थ

उससे विवाह करना चाहता था लेकिन अब इस विषय में उससे बात नहीं करता। उसे आज भी याद है जब लगभग दस साल पहले उसने अलंकृता के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था तब अलंकृता बेहद गंभीर हो गई थी और उसने कहा था- 

"सिद ये सच है कि मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ जितना कि तुम मुझसे लेकिन प्यार को लेकर हमारा नजरिया भिन्न है। तुम मुझसे प्यार करते हो इसलिए मुझसे शादी करके मुझे पाना चाहते हो, पूरा जीवन मेरे साथ बिताना चाहते हो पर मैं तुमसे प्यार करती हूँ और हमारा प्यार पूरी जिंदगी इतना ही निश्छल, निष्पाप और नि:स्वार्थ बना रहे, इसके लिए मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहती। मुझे पता है कि तुम्हें मेरी बात अजीब लगेगी पर यही सही है, मेरा मानना ही नहीं मेरा अनुभव भी यही कहता है कि शादी के बाद प्यार का स्वरूप बदल जाता है और मैं हमारे प्यार के स्वरूप को जरा-सा भी नहीं बदलना चाहती, शादी के बाद आपस के नोंक-झोंक कब तू-तू-मैं-मैं में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता, हमेशा अपने हमसफ़र की खुशियों का ख्याल रखने का वचन देने वाला कब अपनी खुशियों के लिए अपने ही हमसफ़र को धोखा देने लगता है, इसका अहसास उसे खुद भी नहीं होता। कभी-कभी तो प्यार से बँधे इस रिश्ते में प्यार बचता ही नहीं और ताउम्र मरे हुए रिश्ते के शव को कंधे पर ढोते रहना होता है या अलग होकर समाज की हँसी या उपेक्षा का पात्र बन जाना होता है, इसलिए मैं हमारे प्यार के इस सुंदरता और नि:स्वार्थ भाव को सदैव जीवित रखने के लिए शादी नहीं करूँगी। उम्मीद करती हूँ कि तुम मुझसे फिर शादी के लिए नहीं कहोगे। और हाँ सिद मैं तुमसे शादी नहीं कर रही इसका ये तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि तुम कभी किसी से भी शादी ना करो, बल्कि तुम किसी से भी शादी करने के लिए आजाद हो, मैं प्यार को बाँधकर रखने में विश्वास नहीं रखती।" 

उसी दिन से सिद्धार्थ ने उससे दुबारा शादी के लिए नहीं कहा। अलंकृता को जब भी उसके साथ की, उसकी सहायता की जरूरत होती वह हमेशा उसके साथ खड़ा रहता। दोनों अच्छे दोस्त की तरह एक-दूसरे का साथ निभाते हैं पर इस दोस्ती को रिश्ते में बदलने का ख्वाब नहीं देखते। 

अलंकृता अस्सी-नब्बे की स्पीड से गाड़ी चला रही थी लेकिन उसके भीतर जल्दी पहुँचने का मानो तूफान मचा था। उसका मन कर रहा था कि अभी गाड़ी से निकले और भाग कर अपने गंतव्य को पहुँच जाए पर वह धैर्य का दामन पकड़े गाड़ी ड्राइव करती रही। सोसाइटी के गेट से प्रवेश करते ही उसने जल्दी से गाड़ी पार्क की  और लिफ्ट की ओर भागी। दसवीं मंजिल पर पहुँचकर उसने अपने अपार्टमेंट की चाबी से जो कि लिफ्ट में ही उसने अपने पर्स से निकाल लिया था, दरवाजा खोला और लिविंग रूम के सोफे पर ही अपना बैग फेंककर सीधे अपने बेडरूम में चली गई। अपनी अलमारी से कुछ कपड़े निकालकर एक सूटकेस में रखे और कुछ अन्य जरूरी सामान जैसे मेकअप किट आदि रखा और अलमारी का ड्रॉअर खोला, उसमें एक काले रंग की मोटी सी डायरीनुमा फाइल थी, उसका लेदर का कवर ऐसा था जैसे उसके अंदर मुलायम फॉम भरा हो। उसमें इतने पन्ने थे कि उन्हें पंच करके लगाने के बाद यह दो-ढाई इंच मोटी डायरी बन गई थी। अलंकृता ने उसे उठाया और बड़े गौर से देखने लगी। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू उस डायरी पर गिरे और ढुलककर अस्तित्वहीन हो गए। वह डायरी को बड़े ही धीरे से स्नेहिल हाथों से सहलाने लगी और फिर सीने से लगाकर दोनों हाथों से ऐसे भींच लिया मानो अब उसे कभी अपने से अलग नहीं होने देगी।

तभी उसकी नज़र वॉल क्लॉक पर पड़ी और उसने डायरी को जल्दी से अपने बड़े से पर्स में डाला साथ ही अपनी आज ही विमोचित दो पुस्तकें भी सूटकेस में रखा और सूटकेस लेकर बाहर आई और बाहर खड़ी कैब में बैठकर बोली- "रेलवे स्टेशन चलो।" 

गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लगी हुई थी अलंकृता कोच और बर्थ नंबर देखकर फर्स्ट ए.सी. कोच में चढ़ी और बर्थ नंबर देखकर अपना ट्रॉली बैग बर्थ के नीचे खिसका दिया और अपनी बर्थ पर बैठ गई। 

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एक तेज हॉर्न के साथ गाड़ी सरकने लगी और देखते ही देखते तेज गति से दौड़ने लगी। अलंकृता बहुत बेचैन दिखाई दे रही थी, वह जल्द से जल्द अपने गंतव्य तक पहुँच जाना चाहती थी। 'काश बाई एयर जा पाती लेकिन सुबह आठ बजे की फ्लाइट की टिकट मिल रही थी और मैं..मैं इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी, कई सालों से प्रतीक्षा ही तो कर रही हूँ..अब और नहीं कर सकती।' वह मन ही मन सोचते हुए बर्थ पर लेट गई लेकिन अगले ही पल फिर उठ बैठी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे ये समय काटे। अचानक जैसे कुछ याद आया और उसने सूटकेस खोलकर वो डायरीनुमा फाइल निकाल ली। वह बर्थ पर पैर फैलाकर आराम से बैठ गई और डायरी खोलकर पढ़ने लगी...

पहले ही पन्ने पर लिखा था...

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 

शुक्रवार

अरु...भाग-७

 


गतांक से आगे..

"नहीं..मैं ऐसा नहीं कहती कि पुरुष का जीवन बेहद सरल होता है बल्कि मैं तो ये कहूँगी कि यदि पुरुष न हो तो किसी नारी की कहानी पूरी ही नहीं होगी। रही विचार योग्य होने की तो इसका जवाब तो आप ने यह प्रश्न पूछकर ही दे दिया।"
वह महिला पत्रकार के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित सवालिया भाव देखकर पुन: बोली, 
"जी हाँ देखिए न आप एक महिला होते हुए भी पुरुष के विषय में विचार कर रही हैं न! तो कैसे कह सकती हैं कि पुरुष का योगदान विचार योग्य नहीं होता? इस उपन्यास में महिला के जीवन के हर पहलू पर विचार करने के साथ ही प्रयास यही किया है कि पुरुष पात्र के भी सभी पहलुओं को दिखाएँ लेकिन उन पात्रों के साथ न्याय या अन्याय का निर्णय तो आप और पाठक स्वयं ही कीजिए।" अलंकृता ने मुस्कुराते हुए कहा।

सबको चुप होते देख कॉफी का घूँट भरकर कप मेज पर रखते हुए 'नई दुनिया नया समाज' के वरिष्ठ पत्रकार दुष्यंत मीणा ने अपना सवाल दागा..
"लेखिका महोदया! बहुधा लेखक समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखते हैं और अपने लेखन के द्वारा उन्हें प्रकाश में लाते हैं, फिर आप क्यों हाथ धोकर सिर्फ 'नारी मुक्ति' के पीछे पड़ी हैं? आपको नहीं लगता कि ये विषय अब बहुत पुराना हो चुका है इस पर काफी विचार-विमर्श हो चुका है तो अब आपको अपना विषय बदल देना चाहिए?"

अलंकृता की नजरें कुछ पल तक दुष्यंत मीणा पर गड़ी रहीं फिर उसने बोलना शुरू किया- "महोदय! समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखना और उसे प्रकाश में लाना आप पत्रकारों का काम है और मैं पत्रकार नहीं हूँ।"

हॉल में कहीं-कहीं से हँसने की आवाजें आने लगीं, तभी उसने आगे बोलना शुरू किया।
"हाँ मानती हूँ कि एक लेखिका होने के नाते मुझे भी अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए और समाज और देश की प्रथाओं-कुप्रथाओं, रीतियों-कुरीतियों को अनावृत करते रहना चाहिए, तो मैं वही तो कर रही हूँ। दैनिक और सामयिक घटनाओं को प्रकाश में लाने के लिए आप लोग हैं और जो अच्छाइयाँ-बुराइयाँ समाज की धमनियों में लहू बनकर बह रही हैं, उनके हर पहलू पर विचार-विमर्श करना उन पर सवाल उठाना हमारा काम है, तो मैं वही कर रही हूँ। अब रही नारी-विमर्श के विषय के पुराने होने की बात, तो आप बताइए न! क्या समस्या खत्म हो गई? और अगर नहीं, तो जब तक खत्म न हो जाए तब तक इस पर विचार-विमर्श तो होते ही रहना चाहिए.....
मैं मानती हूँ कि सदियाँ बीत गईं स्त्री को विमर्श का मुद्दा बने हुए, हम अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से स्त्री की परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करते हैं, लोगों का ध्यान उस ओर आकृष्ट करते हैं ताकि उनकी परिस्थितियों में सुधार आए। मैं ये नहीं कहती कि कोई सुधार नहीं हुआ है, पर कितना? क्या आज भी स्त्री हर क्षेत्र में बराबर का अधिकार रखती है? चलिए मान लिया रखती है पर क्या उसे समान परिस्थिति में समान निर्णय के लिए समान सम्मान मिलता है??? एक छोटा सा उदाहरण..... सोच कर देखिए, क्या दूसरा विवाह करने वाले पुरुष और स्त्री को समान सम्मान मिलता है?? क्यों पुरुष अपने से दस-बीस साल छोटी लड़की से विवाह कर सकता है, उसे समाज की पूरी स्वीकृति होती है परंतु एक स्त्री दस-बीस तो छोड़ो कुछ साल छोटे पुरुष से भी विवाह नहीं कर सकती और अगर कर ले तो समाज में वह सम्मान नहीं पाती। क्यों दूसरे विवाह के उपरांत  स्त्री तो पति के बच्चों को पूरी मर्यादा के साथ अपना लेती है परंतु पुरुष के लिए पत्नी के बच्चे सदैव पराए ही रहते हैं??? आप ही बताइए क्या हमारा समाज आज भी इन परिस्थितियों को सामान्य रूप से स्वीकृति दे पाया है???? नहीं न!! तो क्यों न हम इस मुद्दे को जीवित रखें??"

अलंकृता चुप हो गई लेकिन पूरे हॉल में इस प्रकार सन्नाटा छा गया जैसे लोग अभी उसी की बातों में इस तरह उलझे हुए हैं कि अभी तक बाहर नहीं निकल पाए हैं। तभी पीछे किसी ने ताली बजाई और एक ही पल में पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

कुछ ही देर में प्रकाशक द्वारा जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों को मंच पर बुलाकर पुस्तक का लोकार्पण करवाया गया। वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अरुंधती की चर्चा में मशगूल था, कोई कहानी की चर्चा कर रहा था तो कोई भाषा-शैली की, कोई कवर पेज की सुंदरता और सार्थकता की बात कर रहा था तो कोई शिल्प सौंदर्य और विषय-वस्तु की। अलंकृता एक ओर खड़ी मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी। उसके चेहरे पर संजीदगी ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। कुछ दूरी पर खड़ा सिद्धार्थ एकटक देखते हुए उसके चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
फोन काटते ही उसने प्रकाशक महोदय से कुछ कहा और जल्दी-जल्दी हॉल से बाहर की ओर जाने लगी। उसे बाहर जाते देख सिद्धार्थ भी उसके पीछे-पीछे तेजी से बाहर आ गया। "अलंकृता!! कृति रुको!"

सिद्धार्थ की आवाज सुनते ही अलंकृता अपनी जगह पर ठिठक गई और पीछे मुड़कर देखा तो सिद्धार्थ तेजी से उसकी ओर ही आ रहा था।

"क्या हुआ पत्रकार महोदय मेरे पीछे क्यों? कोई और प्रश्न बाकी है क्या?" उसने मुस्कुराते हुए कहा।

"ह..हाँ मैडम..बाकी है, अब ये बताओ कि कार्यक्रम अधूरा छोड़कर इतनी जल्दी-जल्दी में कहाँ जा रही हो? तुम्हारी कृति का लोकार्पण समारोह है और तुम ही नहीं होगी! कुछ अजीब नहीं है।" सिद्धार्थ ने शिकायती लहजे में कहा हालांकि वह भी जानता था कि कुछ अति आवश्यक कार्य ही होगा जिसकी वजह से उसे जाना पड़ रहा है।

"कुछ बहुत अर्जेंट है सिद, जाना जरूरी है। लौटकर तुमसे मिलती हूँ।" कार का दरवाजा खोलते हुए उसने कहा।

"ओके ध्यान रखना अपना और मेरी किसी सहायता की जरूरत हो तो फोन कर देना, टेक केयर।" सिद्धार्थ ने कहा और तब तक वहीं खड़ा रहा जब तक कि अलंकृता की गाड़ी बड़े से गेट से बाहर नहीं चली गई।

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

 


संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

हमारा देश अपनी गौरवमयी संस्कृति के लिए ही विश्व भर में गौरवान्वित रहा है परंतु हम पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में अपनी संस्कृति भुला बैठे और सुसंस्कृत कहलाने की बजाय सभ्य कहलाना अधिक पसंद करने लगे। जिस देश में धन से पहले संस्कारों को सम्मान दिया जाता था, वहीं आजकल अधिकतर लोगों के लिए धन ही सर्वेसर्वा है। धन-संपत्ति से ही आजकल व्यक्ति की पहचान होती है न कि संस्कारों से। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा भी है...
*वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥
*
अर्थात् "कलियुग में जिस व्यक्ति के पास जितना धन होगा, वो उतना ही गुणी माना जाएगा और कानून, न्याय केवल एक शक्ति के आधार पर ही लागू किया जाएगा।"

आजकल यही सब तो देखने को मिल रहा है, जो ज्ञानी हैं, संस्कारी हैं, गुणी हैं किन्तु धनवान नहीं हैं, उनके गुणों का समाज में कोई महत्व नहीं, लोगों की नजरों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है न ही उनके कथनों का कोई मोल परंतु यदि कोई ऐसा व्यक्ति कुछ कहे जो समाज में धनाढ्यों की श्रेणी में आता हो तो उसकी कही छोटी से छोटी बात न सिर्फ सुनी जाती है बल्कि अनर्गल होते हुए भी लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है और यही कारण है कि निम्नता की सीमा पार करके कमाए गए पैसे से भी ये बॉलीवुड के कलाकार प्रतिष्ठित सितारे कहलाते हैं। आज भी हमारी संस्कृति में स्त्रियाँ अपने पिता, भाई और पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के गले भी नहीं लगतीं (ये गले लगने की परंपरा भी बॉलीवुड की ही देन है) न ही ऐसे वस्त्र धारण करती है जो अधिक छोटे हों या स्त्री के संस्कारों पर प्रश्नचिह्न लगाते हों, परंतु हमारे इसी समाज का एक ऐसा हिस्सा भी है जहाँ पुरुष व स्त्रियाँ खुलेआम वो सारे कृत्य करते हैं जिससे न सिर्फ स्त्रियों के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगता है बल्कि समाज में नैतिकता का स्तर भी गिरता है।
आजादी के नाम पर निर्वस्त्रता की मशाल यहीं से जलती है और समाज में बची-खुची आँखों की शर्म को भी जलाकर राख कर देती है और शर्मोहया की चिता की वही राख बॉलीवुड की आँखों का काजल बनती है।
पैसे कमाने के लिए ये मनोरंजन और कला के नाम पर समाज में अश्लीलता और अनैतिकता परोसते हैं और आम जनता मुख्यत: युवा पीढ़ी  इनकी चकाचौंध में फँसकर धीरे-धीरे अंजाने ही वो सब करने लगती है जिससे समाज में नैतिकता का स्तर गिरता जा रहा है।
महात्मा गाँधी ने अपनी जीवनी में लिखा था कि उन्होंने एक बार बाइस्कोप में राजा हरिश्चंद्र की कहानी देखी और उसका उनके मन पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने उसी समय से हमेशा सत्य बोलने की प्रतिज्ञा की। अब प्रश्न उठता है कि यदि चित्र के रूप में देखी गई कोई कहानी एक बार में किसी किशोर हृदय पर इतना असर छोड़ सकती है, तो वर्तमान समय में जब बच्चे, किशोर और युवा चलचित्र के रूप में अश्लीलता को  रोज-रोज देखते हैं तब उनके हृदय पर कितना असर पड़ता होगा!!! यह समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए काफी है।

एक समय था जब हमारे ही देश में पहली हिन्दी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में हिरोइन के लिए कोई महिला नहीं मिली तो पुरुष ने महिला का रोल निभाया था और आज का समय है कि जितने कम वस्त्र उतने अधिक पैसे वाली थ्योरी पर चल रहे बॉलीवुड में थोड़े से पैसे और नाम के लिए अभिनेत्रियाँ कम से कम वस्त्रों में फोटो खिंचवाती हैं। वही बॉलीवुड कलाकार युवा पीढ़ी के आदर्श बन जाते हैं जिनका स्वयं का कोई आदर्श, कोई उसूल नहीं या फिर ये कहें कि उनके आदर्श और उसूल बस पैसा ही है परंतु विडंबना यह है कि जनता और सरकार सभी इनकी सुनते हैं।
ये मनोरंजन के नाम पर नग्नता और व्यभिचार दर्शा कर जहाँ एक ओर समाज के युवा पीढ़ी को बरगलाते हैं वहीं आजकल टीवी, सिनेमा, मोबाइल, लैपटॉप जैसे आधुनिक तकनीक छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में किताबों की जगह ले चुके हैं, फिर इंटरनेट और सोशल मीडिया से कोई कब तक अछूता रह सकता है। चाहकर भी बच्चों को इनसे दूर नहीं रखा जा सकता और इनमें संस्कार और नैतिकता के पाठ नहीं पढ़ाए जाते बल्कि स्त्रियों की आजादी के नाम पर अंग प्रदर्शन, युवाओं की आजादी के नाम पर खुलेआम अश्लीलता फैलाना, ये सब आम बात हो चुकी है। इतना ही नहीं वामपंथी विचारधारा के समर्थक और प्रचारक बॉलीवुड में भरे पड़े हैं और ये समाज में होने वाले सभी प्रकार के देश विरोधी गतिविधियों का समर्थन करके उन्हें मजबूती देते हैं।
मेहनत तो एक आम नागरिक भी करता है और अपनी मेहनत से कमाए गए उन थोड़े से पैसों से ही अपना परिवार पालता है परंतु अधिक पैसों के लालच में अपने संस्कार नहीं छोड़ता अपनी लज्जा को नहीं छोड़ता परंतु उस सम्मानित किंतु साधारण व्यक्ति की बातों का कोई महत्व नहीं वह कुछ भी कहे किसी को सुनाई नहीं देता लेकिन यही अनैतिक और संस्कार हीन सेलिब्रिटी यदि छींक भी दें तो अखबारों की सुर्खियाँ और न्यूज चैनल के ब्रेकिंग न्यूज बन जाते हैं, इसीलिए तो इनका साहस इतना बढ़ जाता है कि ये ग़लत चीजों या घटनाओं का खुलकर समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि सरकार उनकी अनर्गल बातों का आदेशों की भाँति पालन करे। बॉलीवुड से राजनीति में आना तो आजकल चुटकी बजाने जितना आसान हो गया है क्योंकि सब पैसों और प्रसिद्धि का ही खेल है। जिसके पास बॉलीवुड और राजनीतिक कुर्सी दोनों का बल होता है, वो अपने आप को ही राज्य या देश मान बैठे हैं, इसीलिए तो बिना सोचे समझे ही निर्णय सुना देते हैं कि जिसने हमारे विरुद्ध कुछ कहा उसने अमुक राज्य का अपमान किया और उसे अमुक राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं। किसी को लगता है कि महाराष्ट्र के बाहर से आए  बॉलीवुड में काम करने वाले सभी सितारे उनकी दी हुई थाली (बॉलीवुड) में खाते हैं अर्थात् बॉलीवुड रूपी थाली उन्होंने ही दिया था, दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम का कोई महत्व नहीं, इसलिए यदि ये दिन को रात और रात को दिन या ड्रग्स को टॉनिक कहें तो उस बाहरी सितारे को भी ऐसा ही करना चाहिए, नहीं किया तो किसी का घर तोड़ दिया जाएगा या किसी की हत्या कर दी जाएगी।
देश के किसी भी कोने में देश के हित में लिए गए किसी निर्णय का विरोध करना हो या हिन्दुत्व विरोधी प्रदर्शन करना हो या सरकार को अस्थिर करने के लिए किसी असामाजिक कार्य का समर्थन करना हो तो ये जाने-माने सितारे हाथों में तख्तियाँ लेकर फोटो खिंचवा कर अपना विरोध प्रदर्शन करते हैं किंतु जब कहीं सचमुच अन्याय हो रहा हो या कोई अनैतिक कार्य हो रहा हो तब ये तथाकथित प्रतिष्ठित लोग कहीं नजर नहीं आते।
समाज में नैतिकता के गिरते स्तर का जिम्मेदार बॉलीवुड ही है और उदाहरणार्थ सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की जाँच के दौरान नशालोक की सच्चाई सामने आने लगी और बॉलीवुड के नशा गैंग की संख्या द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जा रही है। जहाँ बाप-बेटी के रिश्ते की मर्यादा नहीं होती, जहाँ दिन-रात गांजा ड्रग्स के धुएँ के बादल घिरे रहते हैं, जहाँ इन वाहियात कुकृत्यों का समर्थन न करने वालों के लिए मौत को गले लगाने के अलावा कोई स्थान नहीं...हम उसी बॉलीवुड की फिल्मों को देखने के लिए पैसे खर्च करते हैं और इनकी अनैतिकता को मजबूती प्रदान करते हैं। ये बॉलीवुड हमारी संस्कृति हमारे संस्कारों का कब्रिस्तान है। इसकी शुद्धि जनता के ही हाथ में है नहीं तो कहते हैं न कि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।' यदि जनता एक साथ इन्हें सबक नहीं सिखाती तो अकेले आवाज उठाने वाला कब कहाँ अदृश्य हो जाए कुछ पता नहीं होता, या फिर उसका घेराव करके उसकी आवाज को ही नकारात्मक सिद्ध कर दिया जाता है। 
जनता मुख्यत: आज की युवा पीढ़ी को इन्हें बताना होगा कि उन्हें आदर्शविहीन अनैतिक सामग्री से भरी फिल्में स्वीकार नहीं और न ही ऐसी अश्लीलता परोसने वाले फिल्मी सितारों को अपना आदर्श मान सकते हैं। देश को अनैतिक संस्कारहीन सेलिब्रिटी की नहीं बल्कि ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो हमारे देश की संस्कृति के रक्षक बन सके न कि उसे विकृत करके इसकी छवि को धूमिल करें।

चित्र- साभार गूगल से 

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार

अरु..भाग- ६ (२)

 


गतांक से आगे..

१७ वर्ष बाद.......

दिल्ली का होटल....(कोहिनूर) का भव्य हॉल, मंच पर सामने की दीवार पर बड़ा सा बैनर लगा हुआ है जिसमें एक पुस्तक का बेहद आकर्षक कवर पेज प्रिंट है और साथ ही नीचे लेखिका का नाम। उसके नीचे ही कई जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम के साथ उनकी फोटो जो पुस्तक लोकार्पण के लिए बतौर अतिथि आमंत्रित किए गए हैं। हॉल में मुख्य प्रवेश द्वार पर तथा भीतर भी कई होर्डिंग्स लगे हुए हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुर्सी-मेज रखकर अतिथियों के बैठने की व्यवस्था है। शहर के जाने-माने प्रकाशन 'भारत प्रकाशन' से प्रकाशित पुस्तक के लोकार्पण समारोह में शहर के जाने-माने प्रकाशक, लेखक/लेखिकाएँ, विचारक, समीक्षक और मीडिया के कई चेहरे इस समारोही अंबर के तारे हैं, अब सभी प्रतीक्षा कर रहे थे इस समारोह के चाँद अर्थात लेखिका का....

अलंकृता अपने जीवन के पैंतीस वसंत पार कर चुकी एक ऐसी लेखिका, जो स्त्री विमर्श पर अपने बेबाक लेखन के लिए प्रसिद्ध है... आज उसके उपन्यास.….. 'अरुन्धती..(एक कलंक कथा)'....... का लोकार्पण हो रहा है।
उसका प्रवेश होता है, अनुपम सौंदर्य और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी है। उस पर पड़ने वाली हर नज़र दिशा बदलने को तैयार ही नहीं होती, फिर चाहे वह नजर पुरुष की हो या स्त्री की। इसके बावजूद उसके चेहरे पर दृढ़ता और आत्मविश्वास के भाव उसे औरों से अलग करते हैं, कोई सहजता से बिना कुछ सोचे उससे कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता।
प्रकाशक महोदय उसका परिचय करवाते हुए उससे उपन्यास के विषय-वस्तु पर प्रकाश डालने का आग्रह करते हैं।
वह दशकों से समाज में स्त्रियों की स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए अपने पुस्तक के विषय वस्तु पर प्रकाश डालते हुए कहती है-

"आप सभी जानते हैं कि मेरी कहानी का विषयवस्तु हमेशा की भाँति इस बार भी एक नारी ही है। जी हाँ यह कहानी है अरुंधती की, अरुंधती जो सिर्फ एक नाम नहीं है यह पूरी नारी जाति का प्रतीक है...यह एक ऐसी लड़की की दास्तां है जिसका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। जिसके पालन-पोषण पर माता से अधिक पिता के स्वभाव और संस्कारों की छाप थी, जो उसे आदर्शवाद की ओर ले जाते थे। जिसके जीवन पर किताबों से प्राप्त ज्ञान का अधिक महत्व था। जो बाल-विवाह के बंधन में जकड़ी होने के बावजूद इसको मानने से इंकार कर समाज के नियमों को तोड़ इससे छुटकारा पाने के लिए ऐसा कदम उठा लेती है, जिसे समाज में किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जाता और इसी कारण सभी अपनों के द्वारा ठुकरा दी जाती है।
एक ऐसी लड़की जिसके विचार जाति-पाति के बंधनों से परे थे, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की होने के बाद भी ऊँचे विचार रखती थी, किसी को अपने से ऊँचा और नीचा नहीं मानती थी, सदैव कर्म को प्रधानता देती थी, ऐसी लड़की जो पिछड़ी मानसिकता वाले लोगों के बीच रहते हुए भी ऊँची उड़ान के सपने देखती, जो स्वच्छंद होकर जीना चाहती किंतु समाज और परिवार के समक्ष हार मान लेती क्योंकि अपने कारण परिवार को शर्मिंदा नहीं करना चाहती, ऐसी लड़की जो स्वतंत्र विचारों की और स्वाभिमानी होने के कारण अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ जाती। और इसी स्वच्छंदता के चलते रूढ़िवादिता का विरोध करते हुए अपने लिए राह स्वयं चुनती है परंतु वहाँ भी वह जितना ही समाज के निष्ठुर नियमों  से छूट कर स्वतंत्र होने का प्रयास करती उतना ही रूढ़ियों के बंधन में जकड़ती जाती है। वह अपनी स्वतंत्रता के लिए जितना समाज से या दूसरों से लड़ती उतना ही अपने-आप से बंधनों में जकड़ती जाती। वह समाज के शिकंजे से जितना स्वयं को आजाद करती स्वयं के विचारों के बंधन में उलझती जाती।
एक ऐसी लड़की जो बचपन से स्वतंत्र, निर्भीक, वाक्पटु, आत्मविश्वास से भरी हुई, स्वाभिमानी तो है परंतु कभी लोगों का भरोसा न जीत सकी। बार-बार अपनों से ही धोखा खाने के बाद उसका आत्मविश्वास कुछ इस प्रकार आहत हुआ कि फिर वह किसी पर विश्वास करने के लायक ही नहीं रही। यही है मेरे उपन्यास की विषयवस्तु।"

उपन्यास प्रकाशित होने से पहले ही काफी चर्चा में है, वहाँ आए प्रत्येक व्यक्ति को जिज्ञासा है ये जानने की कि क्या यह उपन्यास किसी की जिंदगी पर आधारित है या काल्पनिक है? इसी जिज्ञासा के वशीभूत 'नया भारत' समाचार-पत्र के सीनियर रिपोर्टर सिद्धार्थ ने पूछा-
"अलंकृता जी आपने अपने उपन्यास में कहीं भी यह जिक्र नहीं किया है कि यह सत्य घटना पर आधारित है या काल्पनिक है जबकि उपन्यास ऐसे विषय पर आधारित है कि ऐसी घटनाओं या परिस्थितियों की कल्पना करना ही बेहद दुष्कर है।"

अलंकृता ने सिद्धार्थ की ओर ऐसे देखा जैसे उसके प्रश्न के पीछे कोई अन्य मंतव्य ढूँढ़ रही हो। उसके चेहरे पर ही अपनी नजरें गड़ाए हुए ही उसने कहा- "मिस्टर सिद्धार्थ! आप और मैं जिस समाज में रहते हैं उस समाज की कहानी हमारी कहानी है, आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो क्या आप कह सकते हैं कि इसमें कुछ ऐसा है जो हमारे समाज में आज तक कभी न हुआ हो? आप भी जानते हैं और सभी ये जानते हैं कि ऐसी घटनाएँ आजकल हमारे समाज में होती रहती हैं, इसलिए मेरी ये कहानी सत्य आधारित है या काल्पनिक ये तो आप लोग ही तय करें। मैं तो बस इतना ही कहूँगी कि हम कहानीकार समाज के हर व्यक्ति के सुख-दुख को ही ओढ़ते और बिछाते हैं, हम समाज में रहते हैं और यह समाज हमारे भीतर रहता है इसलिए समाज की हर कहानी हमारी अपनी कहानी होती है, हम इसी समाज को जीते हैं, इसी समाज में जीते हैं इसलिए हम जो भी लिखते हैं उसको मानसिक तौर पर जीते भी हैं, एक आम व्यक्ति किसी को रोते देखकर दुखी होता है, उसके आँसूओं को देखकर कुछ पल के लिए उसके दर्द को महसूस भी करता है पर मैं... नहीं प्रत्येक कहानीकार उन आँसुओं के पीछे के दर्द को जीते हुए उन आँसुओं में बहता है।"

"मैडम अब तक आपकी जितनी भी कहानियाँ और उपन्यास मैंने पढ़ी हैं वो सभी नारी प्रधान ही हैं, मेरा मतलब है नारी जीवन पर ही आधारित होती हैं तो क्या आपको ऐसा लगता है कि पुरुष का जीवन बेहद सरल और सीधा होता है, वह विचार-विमर्श के योग्य ही नहीं होता?" अलंकृता की बात पूरी होते ही वहाँ बैठी महिला पत्रिका ने सवाल दागा।

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'