बुधवार

अरु..भाग-८ (१)

 


गतांक से आगे..

सिद्धार्थ और अलंकृता एक ही कॉलेज में थे, सिद्धार्थ उससे एक साल सीनियर था। अलंकृता की कविताएँ कहानियाँ मैगज़ीन और कभी-कभी अखबारों में छपती रहती थीं। जिससे सिद्धार्थ उसकी ओर आकृष्ट हुआ, धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। दोनों ही एक-दूसरे को पसंद करते हैं। कभी सिद्धार्थ

उससे विवाह करना चाहता था लेकिन अब इस विषय में उससे बात नहीं करता। उसे आज भी याद है जब लगभग दस साल पहले उसने अलंकृता के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था तब अलंकृता बेहद गंभीर हो गई थी और उसने कहा था- 

"सिद ये सच है कि मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ जितना कि तुम मुझसे लेकिन प्यार को लेकर हमारा नजरिया भिन्न है। तुम मुझसे प्यार करते हो इसलिए मुझसे शादी करके मुझे पाना चाहते हो, पूरा जीवन मेरे साथ बिताना चाहते हो पर मैं तुमसे प्यार करती हूँ और हमारा प्यार पूरी जिंदगी इतना ही निश्छल, निष्पाप और नि:स्वार्थ बना रहे, इसके लिए मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहती। मुझे पता है कि तुम्हें मेरी बात अजीब लगेगी पर यही सही है, मेरा मानना ही नहीं मेरा अनुभव भी यही कहता है कि शादी के बाद प्यार का स्वरूप बदल जाता है और मैं हमारे प्यार के स्वरूप को जरा-सा भी नहीं बदलना चाहती, शादी के बाद आपस के नोंक-झोंक कब तू-तू-मैं-मैं में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता, हमेशा अपने हमसफ़र की खुशियों का ख्याल रखने का वचन देने वाला कब अपनी खुशियों के लिए अपने ही हमसफ़र को धोखा देने लगता है, इसका अहसास उसे खुद भी नहीं होता। कभी-कभी तो प्यार से बँधे इस रिश्ते में प्यार बचता ही नहीं और ताउम्र मरे हुए रिश्ते के शव को कंधे पर ढोते रहना होता है या अलग होकर समाज की हँसी या उपेक्षा का पात्र बन जाना होता है, इसलिए मैं हमारे प्यार के इस सुंदरता और नि:स्वार्थ भाव को सदैव जीवित रखने के लिए शादी नहीं करूँगी। उम्मीद करती हूँ कि तुम मुझसे फिर शादी के लिए नहीं कहोगे। और हाँ सिद मैं तुमसे शादी नहीं कर रही इसका ये तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि तुम कभी किसी से भी शादी ना करो, बल्कि तुम किसी से भी शादी करने के लिए आजाद हो, मैं प्यार को बाँधकर रखने में विश्वास नहीं रखती।" 

उसी दिन से सिद्धार्थ ने उससे दुबारा शादी के लिए नहीं कहा। अलंकृता को जब भी उसके साथ की, उसकी सहायता की जरूरत होती वह हमेशा उसके साथ खड़ा रहता। दोनों अच्छे दोस्त की तरह एक-दूसरे का साथ निभाते हैं पर इस दोस्ती को रिश्ते में बदलने का ख्वाब नहीं देखते। 

अलंकृता अस्सी-नब्बे की स्पीड से गाड़ी चला रही थी लेकिन उसके भीतर जल्दी पहुँचने का मानो तूफान मचा था। उसका मन कर रहा था कि अभी गाड़ी से निकले और भाग कर अपने गंतव्य को पहुँच जाए पर वह धैर्य का दामन पकड़े गाड़ी ड्राइव करती रही। सोसाइटी के गेट से प्रवेश करते ही उसने जल्दी से गाड़ी पार्क की  और लिफ्ट की ओर भागी। दसवीं मंजिल पर पहुँचकर उसने अपने अपार्टमेंट की चाबी से जो कि लिफ्ट में ही उसने अपने पर्स से निकाल लिया था, दरवाजा खोला और लिविंग रूम के सोफे पर ही अपना बैग फेंककर सीधे अपने बेडरूम में चली गई। अपनी अलमारी से कुछ कपड़े निकालकर एक सूटकेस में रखे और कुछ अन्य जरूरी सामान जैसे मेकअप किट आदि रखा और अलमारी का ड्रॉअर खोला, उसमें एक काले रंग की मोटी सी डायरीनुमा फाइल थी, उसका लेदर का कवर ऐसा था जैसे उसके अंदर मुलायम फॉम भरा हो। उसमें इतने पन्ने थे कि उन्हें पंच करके लगाने के बाद यह दो-ढाई इंच मोटी डायरी बन गई थी। अलंकृता ने उसे उठाया और बड़े गौर से देखने लगी। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू उस डायरी पर गिरे और ढुलककर अस्तित्वहीन हो गए। वह डायरी को बड़े ही धीरे से स्नेहिल हाथों से सहलाने लगी और फिर सीने से लगाकर दोनों हाथों से ऐसे भींच लिया मानो अब उसे कभी अपने से अलग नहीं होने देगी।

तभी उसकी नज़र वॉल क्लॉक पर पड़ी और उसने डायरी को जल्दी से अपने बड़े से पर्स में डाला साथ ही अपनी आज ही विमोचित दो पुस्तकें भी सूटकेस में रखा और सूटकेस लेकर बाहर आई और बाहर खड़ी कैब में बैठकर बोली- "रेलवे स्टेशन चलो।" 

गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लगी हुई थी अलंकृता कोच और बर्थ नंबर देखकर फर्स्ट ए.सी. कोच में चढ़ी और बर्थ नंबर देखकर अपना ट्रॉली बैग बर्थ के नीचे खिसका दिया और अपनी बर्थ पर बैठ गई। 

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एक तेज हॉर्न के साथ गाड़ी सरकने लगी और देखते ही देखते तेज गति से दौड़ने लगी। अलंकृता बहुत बेचैन दिखाई दे रही थी, वह जल्द से जल्द अपने गंतव्य तक पहुँच जाना चाहती थी। 'काश बाई एयर जा पाती लेकिन सुबह आठ बजे की फ्लाइट की टिकट मिल रही थी और मैं..मैं इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी, कई सालों से प्रतीक्षा ही तो कर रही हूँ..अब और नहीं कर सकती।' वह मन ही मन सोचते हुए बर्थ पर लेट गई लेकिन अगले ही पल फिर उठ बैठी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे ये समय काटे। अचानक जैसे कुछ याद आया और उसने सूटकेस खोलकर वो डायरीनुमा फाइल निकाल ली। वह बर्थ पर पैर फैलाकर आराम से बैठ गई और डायरी खोलकर पढ़ने लगी...

पहले ही पन्ने पर लिखा था...

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी लगी आपकी लिखी कहानी,कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं,शेष भाग भी पढ़ना चाहूँगी ।

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  2. बहुत ह्रदय स्पर्शी कहानी,शेष भाग पढ़ने कब मिलेगा आदरणीया

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    1. धन्यवाद आ०, अगला भाग पब्लिश कर दिया है पढ़कर बताइएगा कैसा लगा।

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