शुक्रवार

अरु..भाग- ६ (२)

 


गतांक से आगे..

१७ वर्ष बाद.......

दिल्ली का होटल....(कोहिनूर) का भव्य हॉल, मंच पर सामने की दीवार पर बड़ा सा बैनर लगा हुआ है जिसमें एक पुस्तक का बेहद आकर्षक कवर पेज प्रिंट है और साथ ही नीचे लेखिका का नाम। उसके नीचे ही कई जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम के साथ उनकी फोटो जो पुस्तक लोकार्पण के लिए बतौर अतिथि आमंत्रित किए गए हैं। हॉल में मुख्य प्रवेश द्वार पर तथा भीतर भी कई होर्डिंग्स लगे हुए हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुर्सी-मेज रखकर अतिथियों के बैठने की व्यवस्था है। शहर के जाने-माने प्रकाशन 'भारत प्रकाशन' से प्रकाशित पुस्तक के लोकार्पण समारोह में शहर के जाने-माने प्रकाशक, लेखक/लेखिकाएँ, विचारक, समीक्षक और मीडिया के कई चेहरे इस समारोही अंबर के तारे हैं, अब सभी प्रतीक्षा कर रहे थे इस समारोह के चाँद अर्थात लेखिका का....

अलंकृता अपने जीवन के पैंतीस वसंत पार कर चुकी एक ऐसी लेखिका, जो स्त्री विमर्श पर अपने बेबाक लेखन के लिए प्रसिद्ध है... आज उसके उपन्यास.….. 'अरुन्धती..(एक कलंक कथा)'....... का लोकार्पण हो रहा है।
उसका प्रवेश होता है, अनुपम सौंदर्य और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी है। उस पर पड़ने वाली हर नज़र दिशा बदलने को तैयार ही नहीं होती, फिर चाहे वह नजर पुरुष की हो या स्त्री की। इसके बावजूद उसके चेहरे पर दृढ़ता और आत्मविश्वास के भाव उसे औरों से अलग करते हैं, कोई सहजता से बिना कुछ सोचे उससे कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता।
प्रकाशक महोदय उसका परिचय करवाते हुए उससे उपन्यास के विषय-वस्तु पर प्रकाश डालने का आग्रह करते हैं।
वह दशकों से समाज में स्त्रियों की स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए अपने पुस्तक के विषय वस्तु पर प्रकाश डालते हुए कहती है-

"आप सभी जानते हैं कि मेरी कहानी का विषयवस्तु हमेशा की भाँति इस बार भी एक नारी ही है। जी हाँ यह कहानी है अरुंधती की, अरुंधती जो सिर्फ एक नाम नहीं है यह पूरी नारी जाति का प्रतीक है...यह एक ऐसी लड़की की दास्तां है जिसका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। जिसके पालन-पोषण पर माता से अधिक पिता के स्वभाव और संस्कारों की छाप थी, जो उसे आदर्शवाद की ओर ले जाते थे। जिसके जीवन पर किताबों से प्राप्त ज्ञान का अधिक महत्व था। जो बाल-विवाह के बंधन में जकड़ी होने के बावजूद इसको मानने से इंकार कर समाज के नियमों को तोड़ इससे छुटकारा पाने के लिए ऐसा कदम उठा लेती है, जिसे समाज में किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जाता और इसी कारण सभी अपनों के द्वारा ठुकरा दी जाती है।
एक ऐसी लड़की जिसके विचार जाति-पाति के बंधनों से परे थे, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की होने के बाद भी ऊँचे विचार रखती थी, किसी को अपने से ऊँचा और नीचा नहीं मानती थी, सदैव कर्म को प्रधानता देती थी, ऐसी लड़की जो पिछड़ी मानसिकता वाले लोगों के बीच रहते हुए भी ऊँची उड़ान के सपने देखती, जो स्वच्छंद होकर जीना चाहती किंतु समाज और परिवार के समक्ष हार मान लेती क्योंकि अपने कारण परिवार को शर्मिंदा नहीं करना चाहती, ऐसी लड़की जो स्वतंत्र विचारों की और स्वाभिमानी होने के कारण अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ जाती। और इसी स्वच्छंदता के चलते रूढ़िवादिता का विरोध करते हुए अपने लिए राह स्वयं चुनती है परंतु वहाँ भी वह जितना ही समाज के निष्ठुर नियमों  से छूट कर स्वतंत्र होने का प्रयास करती उतना ही रूढ़ियों के बंधन में जकड़ती जाती है। वह अपनी स्वतंत्रता के लिए जितना समाज से या दूसरों से लड़ती उतना ही अपने-आप से बंधनों में जकड़ती जाती। वह समाज के शिकंजे से जितना स्वयं को आजाद करती स्वयं के विचारों के बंधन में उलझती जाती।
एक ऐसी लड़की जो बचपन से स्वतंत्र, निर्भीक, वाक्पटु, आत्मविश्वास से भरी हुई, स्वाभिमानी तो है परंतु कभी लोगों का भरोसा न जीत सकी। बार-बार अपनों से ही धोखा खाने के बाद उसका आत्मविश्वास कुछ इस प्रकार आहत हुआ कि फिर वह किसी पर विश्वास करने के लायक ही नहीं रही। यही है मेरे उपन्यास की विषयवस्तु।"

उपन्यास प्रकाशित होने से पहले ही काफी चर्चा में है, वहाँ आए प्रत्येक व्यक्ति को जिज्ञासा है ये जानने की कि क्या यह उपन्यास किसी की जिंदगी पर आधारित है या काल्पनिक है? इसी जिज्ञासा के वशीभूत 'नया भारत' समाचार-पत्र के सीनियर रिपोर्टर सिद्धार्थ ने पूछा-
"अलंकृता जी आपने अपने उपन्यास में कहीं भी यह जिक्र नहीं किया है कि यह सत्य घटना पर आधारित है या काल्पनिक है जबकि उपन्यास ऐसे विषय पर आधारित है कि ऐसी घटनाओं या परिस्थितियों की कल्पना करना ही बेहद दुष्कर है।"

अलंकृता ने सिद्धार्थ की ओर ऐसे देखा जैसे उसके प्रश्न के पीछे कोई अन्य मंतव्य ढूँढ़ रही हो। उसके चेहरे पर ही अपनी नजरें गड़ाए हुए ही उसने कहा- "मिस्टर सिद्धार्थ! आप और मैं जिस समाज में रहते हैं उस समाज की कहानी हमारी कहानी है, आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो क्या आप कह सकते हैं कि इसमें कुछ ऐसा है जो हमारे समाज में आज तक कभी न हुआ हो? आप भी जानते हैं और सभी ये जानते हैं कि ऐसी घटनाएँ आजकल हमारे समाज में होती रहती हैं, इसलिए मेरी ये कहानी सत्य आधारित है या काल्पनिक ये तो आप लोग ही तय करें। मैं तो बस इतना ही कहूँगी कि हम कहानीकार समाज के हर व्यक्ति के सुख-दुख को ही ओढ़ते और बिछाते हैं, हम समाज में रहते हैं और यह समाज हमारे भीतर रहता है इसलिए समाज की हर कहानी हमारी अपनी कहानी होती है, हम इसी समाज को जीते हैं, इसी समाज में जीते हैं इसलिए हम जो भी लिखते हैं उसको मानसिक तौर पर जीते भी हैं, एक आम व्यक्ति किसी को रोते देखकर दुखी होता है, उसके आँसूओं को देखकर कुछ पल के लिए उसके दर्द को महसूस भी करता है पर मैं... नहीं प्रत्येक कहानीकार उन आँसुओं के पीछे के दर्द को जीते हुए उन आँसुओं में बहता है।"

"मैडम अब तक आपकी जितनी भी कहानियाँ और उपन्यास मैंने पढ़ी हैं वो सभी नारी प्रधान ही हैं, मेरा मतलब है नारी जीवन पर ही आधारित होती हैं तो क्या आपको ऐसा लगता है कि पुरुष का जीवन बेहद सरल और सीधा होता है, वह विचार-विमर्श के योग्य ही नहीं होता?" अलंकृता की बात पूरी होते ही वहाँ बैठी महिला पत्रिका ने सवाल दागा।

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

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