शनिवार

मैं ही सांझ और भोर हूँ..

अबला नहीं बेचारी नहीं
मैं नहीं शक्ति से हीन हूँ,
शक्ति के जितने पैमाने हैं 
मैं ही उनका स्रोत हूँ।
मैं खुद के बंधन में बंधी हुई
दायरे खींचे अपने चहुँओर हूँ,
आज उन्हीं दायरों में उलझी
मैं अनसुलझी सी डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

पुत्री भगिनी भार्या जननी
सबको सीमा में बाँध दिया,
दिग्भ्रमित किया खुद ही खुद को
ये मान कि मैं कमजोर हूँ।
तोड़ दिए गर दायरे तो
शक्ति का सूर्य उदय होगा,
मिटा निराशा का अँधियारा
विजयी आशा की डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

मैं ही रण हूँ मैं ही शांति
मैं ही संधि की डोर हूँ,
मैं वरदान हूँ मैं ही वरदानी
कोमलांगी मैं ही कठोर हूँ।
बंधन मैं ही आज़ादी भी मैं
मैं ही रिश्तों की डोर हूँ,
जुड़ी मैं तो जुड़े हैं सब
बिखरी तो तूफानों का शोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।
मालती मिश्रा

9 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार सुशील कुमार जी

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  2. नमस्ते,
    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
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    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

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  3. दिग्भ्रमित किया खुद ही खुद को
    ये मान कि मैं कमजोर हूँ।
    मैही अबला मैं ही सबला...
    बहुत ही सुन्दर ...प्रेरक रचना....
    वाह !!!

    जवाब देंहटाएं
  4. नारी की अंतर निहित शक्ति और सामर्थ्य पर सुंदर भावपूर्ण रचना मीता बहुत सुंदर।

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