शुक्रवार

स्कूलों की कामयाबी


मिशनरी स्कूलों की कामयाबी अपार
जुबाँ पर शहद और दिल में तलवार
दिखा कर प्यार ये करते हैं वार
ले करके आड़ ये परोपकार का
निरंतर रहे हैं अपना जीवन सँवार

उत्कृष्ट ज्ञान का करते हैं दावा
उत्तम शिक्षा का करते ये दिखावा
समाज-सेवा का चढ़ा हुआ है खोल
गौर से देखो तो ढोल में मिलेगा पोल

धार्मिक एकता का पाठ हैं पढ़ाते
अन्य धर्मों पर घात हैं लगाते
खुद के त्योहार धूमधाम से मनाते
अन्य की छुट्टियाँ भी हजम कर जाते

इतने पर भी नही इनको सुकून
घर के लिए काम देने का है जुनून
छुट्टी मत लो काम करो
गर इंसा हो तो न आराम करो

इतने पर भी कहाँ इन्हें संतोष
अपमानित न करें जबतक लगाकर दोष
मीठी जुबाँ के पीछे है तीखी तेज तलवार
इनके लिए सर्वोपरि है इनका अहंकार

अपने "मैं" की संतुष्टि हेतु
कितने"हम" को दुत्कारा इन्होंने
अपनी स्वार्थ साधना हेतु
कितने परोपकार को मारा इन्होंने

अपना ईश अपना गौरव
दूजे का ईश्वर महज स्वार्थ सेतु
होता है इनका हर कर्मकांड 
इनकी महत्वाकांक्षा पूर्ति हेतु

इस पर विडंबना हा ये कैसी...
हम पढ़े-लिखे होकर भी लाचार
जीवन लीला की है ये मार
दिल में जहर जुबाँ पर प्यार

नहीं है जिनकी ऐसी फितरत
वो भी हो करके मजबूर
ओढ़ मुखौटा जिम्मेदारी का
कार्य करें बनकर मजदूर

वफा निभाते मन मार कर
उन स्वार्थी मतलबी लोगों से 
जो न समझे मानवता को
जिनका जीवन चले सिर्फ भोगों से

शिक्षार्थ आइए सेवार्थ जाइए
विचार तो हो गए विलुप्त
सेवार्थ खुले विद्यालयों का
घनार्थ भाव भी नहीं गुप्त

शिक्षा बना महज व्यापार
सेवा भाव नहीं आधार
दिखा लोभ उत्तम शिक्षा का
विद्यालयों का लगा बाजार

फैशन के इस नए दौर में
गारंटी की न हो अभिलाषा
अच्छे अंक तो पा ही लेंगे
उत्कृष्टता की करें न आशा

आगे क्या बतलाएँ मित्रों
इन स्कूलों का हम हाल
शिक्षक जो जाएँ शिक्षा देने
उनका हाल बड़ा बेहाल

साभार : मालती मिश्रा

रविवार

हिंदी तुझ पर क्यों है बिंदी.....

हिंदी तुझ पर क्यों है बिंदी.....
हिंदी !!!!!
तुझ पर कितनी बिंदी......
क्यों नहीं हटा देती इसको ?
बिन बिंदी और बिन नुक्ता के
सीधी-सरल और स्वच्छ
क्यों नहीं बना लेती खुद को..

हिंदी बोली सुन इंसान!!!!
हिंदी के मस्तक पर बिंदी
हिंदी का गर्व और शान
नुक्ता चरणों में गिरकर 
बना गया अपनी पहचान

बिंदी हिंदी का अभिन्न अंग
यह चला सदियों से संग-संग
बिंदी बिन हिंदी बनी दीन
हिंदी बिन बिंदी अस्तित्वहीन

हिंदी से बिंदी को मिली पहचान
बिंदी से हिंदी की बढ़ी शान
बिंदी बिन अर्थ का हुआ अनर्थ
हिंदी में बिंदी सत्य समर्थ

हिंदी से बिंदी कैसे हो दूर
बिंदी से हिंदी का बढ़ा नूर
बिंदी का हिंदी में वही स्थान
जैसे काया में बसे प्राण

साभार
मालती मिश्रा



शनिवार

कामयाबी

           कामयाबी

रोने से तकदीर बदलती नहीं है,
वक्त से पहले रात ढलती नहीं है |
दूसरों की कामयाबी लगती है अासान मगर,
कामयाबी रास्ते में पड़ी मिलती नहीं है |

मिल जाती कामयाबी इत्तफ़ाक से अगर,
सच भी यही है कि वह पचती नहीं है |
कामयाबी पाना है पानी में आग लगाना,
पानी मे आग आसानी से लगती नहीं है |

क्यों लगता है ऐसा जिंदगी में अक्सर,
दुनिया अपने जज़्बात समझती नहीं है |
हर शिकस्त के बाद टूटकर जो संभल गया,
फिर कौन सी बिगड़ी बात बनती नहीं है |

हाथ बाँधकर बैठने से पहले सोच ऐ दिल,
अपने-आप कोई जिंदगी सँवरती नहीं है |
हँसकर आगे बढ़ते जाना क्योंकि,
रोने से तकदीर बदलती नहीं है ||

अज्ञात

मंगलवार

तन्हाई......



कितनी दूर हूँ सबसे
ये सबको कहाँ मालूम
कितने पास हूँ खुद से
ये मुझको कहाँ मालूम
एक आग है मुझमें
ये सबको पता है
मन क्या चाहता है
ये मुझको पता है
संवेदनाओं का समंदर
सिकुड़ना चाहता है
आशाओं का किनारा
विस्तार चाहता है
इस जीवन संग्राम में
लड़ना चाहती हूँ
नजरअंदाज कर दुखों को
बढ़ना चाहती हूँ
गमों को छिपाकर भी
हँसना चाहती हूँ
बेरहम हालातों में भी
जीना चाहती हूँ
सदा सभी का साथ
निभाना चाहती हूँ
इन सभी के लिए
सिर्फ तुम्हारा साथ चाहती हूँ
लेकिन...............
फिरभी इस भीड़ में
खुद को तन्हा पाती हूँ......

साभार
मालती मिश्रा

रविवार

इंतजार


  दोपहर की चिलचिलाती धूप मानों शरीर के भीतर के खून को भी उबाल रही थी, ऐसी तपती दुपहरी में रामधनी काका न जाने कहाँ से लाठी टेकते हुए चले आ रहे थे.....कमर इतनी झुकी हुई कि लाठी के सहारे अर्धवृत्ताकार आकार बन गए थे, काया इतनी शुष्क कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हड्डियों के ढाँचे के ऊपर एक पतली सी खाल चढ़ा दी गई हो लाठी पकड़े हुए चलते हुए शरीर इस प्रकार काँप उठता कि मानों अभी लड़खड़ा कर गिर पड़ेंगे, फिर भी इस दुपहरी में वो न जाने किस जरूरी काम से गाँव से बाहर गए होंगे...... धूप से बचने तथा गप्प-शप का मजा लेने के लिए अपने-अपने कामों को अर्धविराम देकर राधे,कन्हैया, चैतू,हरिया,सुखिया और रोहना बैठे बात-चीत और हँसी-ठिठोली में ही मनोरंजन का मजा ले रहे थे|उनसे थोड़ी दूरी पर गाँव के पाँच-छः बच्चे पकड़म-पकड़ाई का खेल खेल रहे थे, वो कभी किसी पेड़ के पीछे छिपकर अपने को बचाते तो कभी चैतू या हरिया के पीछे दुबक जाते| बालमन अबोध होता है उसे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए बस खाने को भर पेट भोजन और तन ढकने को कपड़ा तथा बड़ों का प्यार-दुलार और अपने हमउम्र दोस्तों के साथ बेरोक-टोक खेलने और ऊधम मचाने को मिल जाए फिर तो सोने पे सुहागा......उन्हें क्या पता जिम्मेदारी क्या होती है, उन्हें क्या लेना-देना देश-दुनिया से.......उनका तो पूरा देश उनका छोटा सा गाँव और गाँव वाले ही देशवासी हैं, इससे आगे न वो सोचते और न ही सोचने की क्षमता रखते.......अचानक भागते-भागते हीरा रामधनी काका से टकराया....हाय रे मार डाला.....काका चिल्लाये......हीरा की तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, न तो वो खुद उठकर भाग सका और न ही रामधनी काका को उठाने की कोशिश की,  अरे बाप-रे...इसने मार ही डाला काका को जरूर हड्डी-पसली टूट गई होगी,  कहते हुए चैतू दौड़ा, साथ में राधे,हरिया, सुखिया और रोहना भी भागे-भागे आए......काका कहीं लगी तो नहीं? तुम ठीक तो हो...कहते हुए चैतू उन्हें उठाने लगा..हरिया और सुखिया की मदद से चैतू काका को उसी खाट पर ले आया जिस पर अभी वो लोग बैठे थे......
काका ठीक तो हो?  सुखिया ने पूछा....क्या ठीक बेटा, जिसे बुढ़ापे की बीमारी लग जाये वो ठीक कैसे हो सकता है.....
काका को पानी पिलाओ पहले, कहते हुए कन्हैया ने लोटे में रखा पानी सुखिया की ओर बढ़ाया......इतनी भरी दुपहरी में कहाँ से आ रहे हो काका? इतना ही कोई जरूरी काम था तो किसी से भी कह देते वो कर देता, अपनी हालत देखी है ? और फिर ये दुपहरी की चिलचिलाती धूप इसमें तो अच्छा-भला इंसान भी सूख जाये........सुखिया लोटा काका के मुँह से लगाते हुए बोला.......
काका ने पानी पीकर एक गहरी सांस छोड़ी जैसे इस सांस के साथ अपनी सारी हताशा सारी निराशा और थकान बाहर निकाल देना चाहते हों......फिर गहरी सी सांस भरते हुए बोले-धूप काहे की बेटा मैं तो सबेरे नौ-साढ़े नौ बजे तक ही चला गया था वहीं एकडंगी तक, सोचा कई दिनों से डाकिया नहीं आया तो जाकर हम ही पूछ आएँ कि बचवा की कोई चिट्ठी-विट्ठी तो नहीं आई....लेकिन बुढ़ापे का शरीर साथ ही नहीं देता, सबेरे के निकले रहे हम अब वापस आ पाए हैं......बोलते हुए काका की सांस फूलने लगी.....अब तक सभी बच्चे धीरे-धीरे काका के आस-पास सिमट आए थे, हीरा के मुख पर घोर पश्चाताप झलक रहा था, मानो काका से कहना चाह रहा हो..मुझे माफ कर दो, परंतु कह नही पा रहा, चुपचाप बाकी बच्चों के साथ खड़ा रहा.....
तो आई कोई चिट्ठी, कन्हैया ने पूछा...नहीं ......कहते हुए काका ऐसे चुप हो गए जैसे उनके शब्दों की जमा-पूँजी समाप्त हो गई, अब चाहकर भी वो कुछ नहीं बोल पा रहे थे, उनकी आँखों मे नन्हे मोती झिलमिला उठे, गला रुंद्ध गया, वो गर्दन झुकाकर चुपचाप बैठ गए......राधे चुपचाप काका की पीठ पर हाथ फेरता रहा..कोई कुछ भी न बोल सका!!!!!
क्या कहता कोई...वहाँ सभी को पता है कि बूढ़े काका की आँखें हर वक्त अपने बेटे की बाट जोहती रहती हैं और बेटा है कि ऐसा गया कि पलट कर नहीं देखता......पहले महीने डेढ़ महीने में कोई चिट्ठी तो भी आ जाती थी पर अब लगता है धीरे-धीरे ये सिलसिला भी बंद होने वाला है......किसी को समझ नहीं आ रहा था कि काका को क्या कहकर तसल्ली देंं, सभी के दिमाग के कपाट बंद हो चुके थे.......काका गाँव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति थे, गाँव के बच्चे, जवान सभी उन्हें काका कहकर ही बुलाते थे, एक प्रकार से वह जगत काका बन चुके थे| काका के परिवार में कोई नहीं था, काकी अब से पाँच-छः साल पहले उन्हें छोड़ दुनिया से विदा ले चुकी थीं, वो भी अपने इकलौते बेटे की बाट जोहते-जोहते इस दुनिया से चली गईं| तब से लेकर अब तक काका काकी के छोड़े उस अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश में जुटे हुए हैं.......उनका बेटा घर वापस आ जाए तो काकी का अधूरा इंतजार पूरा हो जाए......
काका सबेरे से कुछ खाये-पीये हो कि नाही..
अचानक कन्हैया ने सन्नाटे को भंग किया........
कहाँ से खाए होंगे अभी तो बताए हैं कि सबेरे के निकले हैं, चैतू ने कहा....
अरे हीरा जा तो मेरे घर से काका के लिए खाना ले आ, जल्दी जा......सुखिया की बात पूरी होने से पहले ही हीरा बंदूक से निकली गोली की गति से भाग पड़ा जैसे वो अपने अपराध बोध से मुक्ति का ही कोई रास्ता ढूँढ़ रहा था और वो रास्ता उसे मिलते ही वो उस पर अमल के लिए तत्पर हो गया|
काका के बुढ़ापे का सहारा कोई नहीं था न, परिवार के नाम पर कोई और न ही कभी कोई रिश्तेदार ही झाँकने आता....शायद रिश्तेदारों को यही डर होगा कि यदि वो आ गए तो गाँव वाले काका की देखभाल की जिम्मेदारी कहीं उनपर ही न डाल दें, इसलिए कभी न आना ही बेहतर समझा.......खेती के नाम पर काका के पास अब दस में से केवल एक ही बीघा जमीन बची थी, अपनी सारी जमा-पूँजी काका ने अपने बेटे को पढ़ाने में लगा दिए और फिर इंजीनियरी की पढ़ाई अधूरी न रह जाए इसीलिए अपने खेतों को कौड़ियों के भाव बेच दिया.......जब कोई काका को समझाने की कोशिश करता कि अपने बुढ़ापे के लिए तो कुछ खेत संभाल लो, तो काका का एक ही जवाब होता था- हमारे बुढ़ापे का सहारा तो हमारा सपूत हमारा बेटा है, अगर हम अपने बुढ़ापे की लाठी को ही मजबूत न बना पाए तो हमारा बुढ़ापा बेसहार कमजोर हो जाएगा तब हम इन खेतों का क्या करेंगे? यही कहते-कहते काका ने आठ बीघा जमीन बेच दी, फिर काकी के इलाज और उनके मरणोपरांत उनके क्रियाकर्म हेतु एक बीघा खेत गिरवी रख दिया जो आज तक नहीं छुड़ा पाए, छुड़ाते भी कैसे काका के पास आमदनी का कोई जरिया तो है नही, जिसका सहारा था वो तो सालों से नदारद है.....काका में तो इतनी भी सामर्थ्य नहीं बची कि वो बचे हुए खेत में अंकुर रोप पाते तब गाँव की पंचायत ने ये निर्णय लिया कि गाँव का ही कोई एक दूसरा गरीब परिवार काका के खेत में फसल उगाएगा और काका की पूरी देखभाल (खाना, कपड़ा, दवाई आदि) करेगा.....वो काका को कोई परेशानी न होने देगा......पंचायत की बात पर अमल हुआ और तब से दीनू और उसका परिवार काका के खाने-पीने का ख्याल रखते हैं.....परंतु ये तो सिर्फ देखभाल की जिम्मेदारी का अनुबंध मात्र है, काका तो पूरे गाँव के चहीते काका हैं पूरा गाँव उनका ध्यान रखता है.... जिसके भी घर की ओर चले जाएँ हर कोई उन्हें कुछ न कुछ खिला-पिला देता...इससे दीना की पत्नी पर भी अकेले बोझ नहीं पड़ता और वह भी काका का ध्यान परिवार के बुजुर्ग की भाँति रखती......
चैतू उठा और पास ही ट्यूबवेल के कुएँ पर गया, कुएँ के पास बाल्टी और रस्सी हमेशा रखी रहती, कभी-कभी किसी राहगीर के प्यास बुझाने के साथ-साथ रोज दोपहर को इस बगीचे में बैठने वाली बच्चों-बड़ों-बूढ़ों की मंडलियों की प्यास बुझाने के लिए कुएँ से पानी निकालने के लिए.............चैतू ने कुएँ से पानी निकाला और बाल्टी लेकर काका के पास आया लोटे में पानी निकालकर काका के हाथ में देते हुए- काका हाथ-मुँह धो लो खाना आ गया खाना खा लो..बगीचे के दूसरे छोर पर खाना लेकर पहुँच चुके हीरा की ओर गर्दन घुमाकर इशारा करते चैतू ने कहा..........काका ने वहीं खाट पर बैठे-बैठे हाथ-मुँह धोया और हीरा द्वारा लाए गए उस खाने को खाना शुरू किया जिसे देखकर लगता था कि चैतू की पत्नी ने बड़े प्रेम से काका के लिए परोस कर भेजा....दाल-चावल-रोटी के साथ आम का अचार..खाना इतना था कि काका के खाने के बाद भी बचता| खाना खिलाकर चैतू हरिया सुखिया सभी काका को ले गाँव की ओर चल दिए, बच्चे फिर से खेलने में व्यस्त हो गए....धीरे-धीरे सूर्य देव भी अपना सफर तय करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते नजर आए.....ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दिन भर के सफर के बाद सूर्य देव भी थकान महसूस करने लगे हैं इसीलिए तो उनकी तपन की प्रचण्डता कम हो गई है, उनके व्यवहार की नरमी उनके धूप में दिखाई दे रही है......लोग-बाग जो दोपहर की धूप से बचने की खातिर घरों मे दुबके हुए थे वो भी धीरे-धीरे बाहर निकलने लगे हैं.....गाँव से बगीचे की ओर आने वाले कच्चे रास्ते पर अब इक्का-दुक्का लोग नजर आने लगे हैं, गाँव के दूसरे छोर पर भी लोग खेतों में जाते दिखाई देने लगे हैं.......कुल मिलाकर दोपहर के सन्नाटे को चीरकर गाँव की चहल-पहल फिर से लौटने लगी है.....
रामधनी काका को उनके टूटे-फूटे कच्चे घर के बाहर चारपाई पर बैठा कर सुखिया और हरिया भी अपने-अपने घर चले गए...काका चारपाई से लाठी टिकाकर बिना किसी बिछावन के अपने एक हाथ को तकिये की भाँति सिर के नीचे रख कर नंगी खाट पर लेट गए....कौन था जो ये देखता कि काका के बूढ़े शरीर पर खाट की मूंज की रस्सी चुभ रही होगी.....अतीत की चादर धीरे-धीरे काका को अपने आगोश में समेटने लगी...
दीपू (दीपक) काका का इकलौता बेटा आज शहर जा रहा था अपनी इंजीनियरी की पढ़ाई पूरी करने....स्नातक की डिग्री तो काका ने गाँव में रहते ही पास के कस्बे के कॉलेज से पूरी करवाई थी लेकिन उनका मानना था कि अगर जीवन में सफलता हासिल करना है तो कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा इसके लिए उन्हें अपने बेटे को कुछ सालों के लिए अपनी नजरों से दूर भी भेजना पड़े तो कोई बात नहीं....और आज अपने फैसले पर अमल करने का वक्त आ गया था...काकी की आँखों से आँसू अनवरत बह रहे थे वो अपने आँसुओं को छिपाने की खातिर काका और दीपू की तरफ पीठ करके कभी दीपू के कपड़ों को तह करके रखतीं तो कभी उठकर जातीं और दूसरी कोठरी से अचार का मर्तबान ले आतीं और दूसरे डब्बे में अचार डालना शुरू कर देतीं, जब वो दूसरे कमरे से आतीं तो उनका चेहरा देखकर साफ पता चलता कि अभी-अभी साफ किया है.....ऐसा करते-करते काकी ने चार तरह के अचार, दो तरह के लड्डू, मठरी और कचौड़ियाँ बाँध दीं....ऐसा लग रहा था कि काकी का वश चले तो पूरे साल के खाने का सामान आज ही बाँध दें..
माँ बस करो न और कितना सामान रखोगी? दीपू ने प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहा...
उसे माँ की विवश ममता दिखाई दे रही थी, उसका भी हृदय व्यथित हो रहा था किंतु वो माँ के समक्ष जाहिर नहीं कर सकता था नहीं तो माँ के सब्र का बाँध टूट जाता, वैसे भी उसने बड़ी मुश्किल से माँ को मनाया था.....वहाँ कौन होगा तेरी जरूरतों का ध्यान रखनें के लिए, पता नहीं समय पर खाना-पानी मिले न मिले, सुन बचवा मैंने ये अचार रखे हैं, सब तेरी ही पसंद के हैं बाँटना मत इसे तू ही खाना.....माँ ने प्यार से दीपू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा....ठीक है माँ तुम चिंता न करो...वैसे भी मैं बीच-बीच में छुट्टियों में आता रहूँगा...मैं भी कहाँ अपने माँ-बाबा से ज्यादा दिन दूर रह सकता हूँ ? दीपू ने बाबा के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा.......बस बेटा तू मेरा स्वाभिमान है, इंजीनियर बन जा और फिर अपने गाँव से ही विकास का काम शुरू करना, तब मेरा सीना और चौड़ा हो जाएगा, काका ने बड़े गर्व के साथ गर्दन तानते हुए कहा था.....तुम फिकर न करो बाबा मैं तुम्हारा सपना जरूर पूरा करूँगा.. दीपू ने कहा,समय कैसे निकल गया पता ही नही चला ,विदा का समय आ गया काका-काकी के साथ गाँव के और लोग भी आ गए थे दीपू को विदा करने...... गावों की यही तो खासियत होती है सुख हो या दुख सबका साझा होता है, आज काका का बेटा शहर नहीं जा रहा था बल्कि गाँव का बेटा जा रहा था....सभी की स्नेहिल आँखें नम थीं तथा आशीर्वाद की झड़ी लग गई थी, एक-एक कर दीपू ने भी सभी बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लिया छोटों के सिर पर प्यार से हाथ फेरा....
काकी के सब्र का बाँध टूट गया वह फूट-फूट कर रो पड़ी....ए माँ हमें भी रुलाएगी का ? दीपू भर्राई हुई आवाज में बोला, वह अपने ऊपर बड़ी मुश्किल से काबू किए हुए था, बाबा संभालो न माँ कोे..
चलो बेटा गाड़ी का समय हो रहा है किसी ने कहा....
आप सब लोग हमारे माँ-बाबा का ख्याल रखना...दीपू ने हाथ जोड़कर गाँव वालों से कहा.....
बचवा तुम अपने माँ-बाबा की चिंता मत करना, मन लगाकर पढ़ाई करना, इनकी देखभाल करने के लिए पूरा गाँव है........
दीपू ने भरे मन और नम आँखों से सबसे विदा लिया और चल दिया था अपनी मंजिल की तलाश में......सूरज की तेज धूप भी मानों दीपू के जाने से गमगीन हो अपनी तीक्ष्णता खो चुकी थी....एक ओर अपने सफर पर दीपू धीरे-धीरे दूर और दूर चला जा रहा था, दूसरी तरफ सूर्य देव दिन-भर के सफर से थककर विश्राम करने के लिए दूर और दूर क्षितिज में विलीन होने के लिए तेजी से बढ़ रहे हैं......इधर काफी दूर निकल चुका दीपू और उसके साथी (जो उसे गाड़ी में बैठाने के लिए जा रहे थे) इतनी दूर जा चुके थे कि काले-काले मात्र तीन छोटे-छोटे धब्बे नजर आ रहे थे, सूर्य अपनी मंजिल पर पहुँचकर अस्त हो चुका था पीछे छोड़ गया उदासी की लाली..सभी गाँव वाले भारी मन से धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को चले गए|
किसी के जाने से जीवन नहीं रुका करता और जाने वाला भी ऐसा जो जीवन के नए सपनों को साकार करने के लिए गया हो, अपने पुत्र-बिछोह के दर्द को दिल के किसी कोने में सहेज कर आँखों में उसके भविष्य के नए सपने सजाकर रामधनी काका और काकी फिर से सूर्योदय की नई लालिमा के साथ ही अपने रोजमर्रा के कार्यों मे व्यस्त हो गए......अब उनका एक ही लक्ष्य रह गया था- बेटे की शिक्षा को मंजिल तक पहुँचाना..
दीपू हर महीने चिट्ठी भेजता जिसे डाकिया काका-काकी को पढ़कर सुना जाता, चिट्ठी सुनते हुए काकी की आँखों की नमी अपने सब्र का बाँध तोड़ बाहर निकल ही आती, कहना मुश्किल होगा कि वो बेटे का हाल-चाल जानने की खुशी के आँसू होते या बेटे से दूरी के गम के आँसू होते थे, हर बार चिट्ठी सुनकर काकी की यही प्रतिक्रिया होती, काका तो पुरुष हैं आँसू बहाना उनकी मर्दानगी को शोभा नही देता इसीलिए वो अपने दर्द को छिपा कर अपने आँसू भीतर ही भीतर पी लेते किन्तु उनका हृदय अंदर ही अंदर व्यथित होता रहता....
समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा..धीरे-धीरे हफ्ते महीने साल बीतते रहे दीपू बीच-बीच में छुट्टियों मे आकर कुछ दिन रहकर फिर चला जाता......उसकी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी इस खुशखबरी के साथ-साथ उसने एक और भी खुशखबरी दी थी कि उसे वहीं शहर में एक बड़ी कंपनी में नौकरी भी मिल गई है और वह इस नौकरी को छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि सीखने और अनुभव प्राप्त करने के लिए उसे इस नौकरी की बहुत आवश्यकता थी......
काका-काकी के इंतजार की समयावधि बढ़ गई, वो समझ नहीं पा रहे थे कि बेटे की खुशी में खुश हों या अपने दुख से दुखी.......परंतु कहते हैं न ममता हर मुश्किल पर हावी होने की क्षमता रखती है, यहाँ भी वही हुआ इसे मजबूरी कहें या माता-पिता का प्यार बेटे की खुशी को अपनी खुशी मान जीना शुरू कर दिया और शुरू हो गया एक नए इंतजार का सिलसिला...........
दिन..महीने...साल बीतते रहे दीपू के खत आते महीने दो महीने में रूपये भेज दिया करता परंतु न जाने क्यों उसके आने का सिलसिला कम होते-होते थम सा गया जिसके आने का इंतजार था|दो सालों तक इंतजार करते-करते काकी बेटे के गम में चल बसीं और उनके बाद लगभग पाँच सालों से काका रोज अपने बेटे का इंतजार करते रहते हैं पिछले दो महीने से तो उसके खत का इंतजार कर रहे हैं........आज पहली बार काका का दिलो-दिमाग अपने नफा-नुकसान का हिसाब लगा रहा है, क्या खोया क्या पाया ?  क्या चंद कागज के टुकड़ों के लिए अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से दूर भेजा था? क्या हमें खाने के लिए दो जून की रोटी और तन ढकने को कपड़े की कमी थी ? फिर क्यों ? क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जाने दिया ? और हासिल क्या हुआ ? एक ऐसा इंतजार जिसका कोई अंत नहीं......बुढ़ापे की लाठी को मजबूत बनाने की चाह में लाठी ही खो दिया, अब किसके सहारे चलूँ ? कैसे खड़ा हो पाऊँगा मैं.......बचवा अब तो आ जा, आँखें बंद करने से पहले एक बार तुझे देख लूँ......काका बुदबुदाए..ए बचवा एक बार आ जा नहीं तो ऊपर जाके तेरी माँ को क्या जवाब दूँगा रे....कैसे नजरें मिलाऊँगा उस ममता की मारी से जो तेरा इंतजार करते-करते चली गई............बचवा.. ए बचवा...तू सुनता काहे नही रे....कैसे भूल गया अपने माँ-बाबा को......तू इतना पत्थर दिल कैसे हो गया रे ? अरे अब तो आ जा पगले मैं कुछ नही कहूँगा .....आजा बस....बड़बड़ाते हुए कब आँसू काका के गालों को गीला करने लगे उन्हें पता ही नही चला.......काका ओ काका!!!!! दीनू की आवाज ने काका को सचेत कर दिया, उन्होंने हाथों से जल्दी से आँसू पोछे और उठकर बैठने की कोशिश करने लगे दीनू ने सहारा देकर उन्हे बैठाया और बोला-"आज तो आप आए ही नहीं, चलो खाना खा लो" ना बेटा आज भूख नही है, शाम को ही खाया है...काका ने कहा, ठीक है तो घर तो चलो सोने के लिए ही...दीनू ने कहा| नहीं बेटा आज हमें यहीं सोने दे, आज न जाने काहे अपने घर से अलग होने का मन नहीं कर रहा है, ऐसा लग रहा है आज हमार बचवा यहीं आने वाला है, आज और हमें इंतजार करने दे...काका की आवाज में न जाने कैसा दर्द था जो दीनू के भीतर तक सरसराहट सी पैदा हुई|प..पर काका रात को अकेले? कोई बात नहीं बचवा कभी-कभी अकेले रहने में ही बड़ा सुकून मिलता है, आज मेरा भी अकेले रहने का मन कर रहा है....
दीनू चाहते हुए भी कुछ न बोल सका, उसने भीतर से बिछावन लाकर खाट पर बिछा दिया सिरहाने तकिया रखकर काका को लिटाकर चादर खोलकर उनके कमर तक ढक दिया.....अंदर से लोटा लाकर पानी भर लाया और सिरहाने खाट के पास ही लोटा रखकर ढक दिया| काका पानी रख दिया है, वो पास में सुखिया भइया से बोले जाता हूँ तुम्हें कोई जरूरत हो तो उन्हें आवाज लगा लेना....दीनू ने कहा,      ठीक है बेटा, भगवान तुम्हें सुखी रखे...कहते हुए काका की आँखें आसमान में टिमटिमाते तारों के बीच न जाने क्या खोजने लगीं.......

अरुण की लालिमा ने पूरब दिशा में पूरे आसमान को रक्तवर्णिम कर दिया है, पेड़ों पर चिड़ियों की चहचहाहट वातावरण को संगीतमय बना रही है.....सूर्य की किरणों के समक्ष अँधेरे की शक्ति क्षीण होते-होते नष्ट हो रही थी, किंतु अभी अंधकार पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ था | गाँव में लोग निद्रा त्याग नित्य क्रियाकर्म हेतु नदी तट की ओर तो कुछ लोग गाँव के दूसरी ओर तालाब की ओर जा रहे थे.......

अचानक दूर अँधेरे में जहाँ आँखों के देखने की क्षमता खत्म होती है वहाँ पर कोई मानवाकृति गाँव की ओर आती नजर आई.....उसके हाथों में कुछ भारी सा पेटी जैसी आकृति दिखाई दे रही थी...वह मानवाकृति गाँव की ओर ही आ रही थी....
नदी की ओर मुड़ते हुए हरिया, सुखिया और भीखा रुक गए ये देखने के लिए कि इतने सबेरे-सबेरे कौन मेहमान किसके घर आ रहा होगा? वह मानवाकृति धीरे-धीरे करीब आ रही थी उसका पहनावा स्पष्ट होने लगा, पहनावे से कोई शहरी बाबू लग रहा था....क..कहीं ये अपना दीपू तो नहीं ?????
हरिया के मुख से अस्फुट सा स्वर निकला.|...श्श्शायद सुखिया ने अचंभित होते हुए कहा | वह मानवाकृति और पास आ चुकी थी, इतनी पास की सूरज की लालिमा की हल्की रोशनी में चेहरा बमुश्किल देखा जा सके| हरिया, सुखिया और भीखा नदी की ओर जाने की बजाय उस आकृति की ओर मुड़ गए, पास पहुँचे...अभी कुछ ही पल पहले जो एक खुशी की अविश्वसनीय सी किरण उनके चेहरों पर अपनी छाप छोड़ गई थी, वह अचानक गायब हो गई और उसका स्थान निराशा और प्रश्नचिह्न ने ले लिया|
वो लोग निराश होकर मुड़ने वाले ही थे कि ..भाई साहब मुझे दीपक के घर जाना है कृपया रास्ता बता देंगे ?? उस अजनबी ने पूछा,
क्क्या? किसके घर?..भीखा ने आश्चर्य से पूछा|
दीपक के घर.. उस अजनबी ने जवाब दिया
तुम दीपक को कैसे जानते हो साहब, वो तो सालों से शहर से वापस ही नहीं आया....सुखिया ने पूछा
मैं उसका दोस्त हूँ भाई साहब, उसके माँ-बाबा से मिलने आया हूँ| अजनबी ने बताया
चलो..चलो साहब, काका बड़े खुश होंगे आपको मिलकर, आप नहीं जानते कितनी बेसब्री से वो अपने बेटे का इंतजार कर रहे हैं....हरिया ने खुशी के अतिरेक में उस अजनबी के हाथ से बड़ी सी अटैची लगभग झपटने वाले अंदाज में ले लिया और दूसरे हाथ से उसका हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए काका के घर की ओर चल पड़ा........
काका के घर से कुछ दूर से ही हरिया जोर-जोर से पुकारने लगा- काका ओ काका कहाँ हो? देखो आज खुशी ने तुम्हारा दरवाजा खटखटा ही दिया.....
सूरज के प्रकाश से हार मानकर अँधेरा कोठरियों में मुँह छिपा चुका था...अब प्रातः की ठंडी रोशनी में काका को चैन से गहरी निद्रा मे लीन साफ-साफ देखा जा सकता था| किंतु हरिया ठिठका...काका तुम तो कभी इतनी देर तक नहीं सोते फिर आज जब खुशखबरी सुनने की बारी आई तो तुम चादर तानकर सो रहे हो, उठो देखो तुम्हारे दीपू का दोस्त आया है, हरिया ने कहा....परंतु दीपू का नाम सुनकर भी काका ने कोई प्रतिक्रिया नही दी तो सभी का माथा ठनका, अनजानी आशंका से दिल की धड़कनें बढ़ गईं....सुखिया ने काका को हिलाया, पर काका तो सो चुके थे, चिर निद्रा में लीन, कभी न उठने के लिए.....आज उनके चेहरे पर बेटे के इंतजार की चिंता की जगह शांति और सुकून झलक रहा था|जैसे मरणोपरांत वह इस इंतजार की जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हों, जैसे जीते-जी न सही मरणोपरांत ही सही परंतु उनका इंतजार पूर्ण हो गया हो|
सभी एक-दूसरे की ओर इस प्रकार देख रहे थे जैसे आँखों ही आँखों मे पूछ रहे हों कि अब क्या.....
अचानक इस निस्तब्धता को भंग करते हुए चैतू ने अजनबी से कहा- साहब क्या किसी तरह इनके बेटे को बुलाया जा सकता है?  जीते-जी न सही कम से कम मरने के बाद बेटे के हाथों मुखाग्नि पाकर ही इनकी आत्मा को शांति मिल जाएगी|
ऐसा नहीं हो सकता भाई साहब..अजनबी ने जवाब दिया| क्यों.....एकसाथ कई आवाजें आईं
क्योंकि आत्मा से आत्मा का मेल हो चुका है, उस अजनबी ने कहा|
क्क्या मतलब??    एक साथ कई आवाजें
आज से कोई सात-साढ़े सात साल पहले एक ट्रक से दीपक का एक्सीडेंट हो गया था,वह कोमा में चला गया था, अस्पताल में जिंदा लाश की तरह इतने सालों तक पड़ा रहा अभी परसों ही वह हमारी सभी उम्मीदों को तोड़कर हमें छोड़कर चला गया|अजनबी ने रुँधे कण्ठ से कहा....
लेकिन हर महीने उसका खत और पैसे आते थे वो कैसे??? सुखिया ने कहा|
वो मैं भेजता था, दीपक मेरा बहुत अच्छा दोस्त था, वो अपने माँ-बाबा के सपनों के बारे में मुझे बताता रहता था...दुर्घटना के बाद मैने सोचा कि दीपक के ठीक होने तक मैं ही उसके माँ-बाबा के सपनों को जिंदा रखूँ ताकि ठीक होने के उपरांत दीपक उनके सपनों को पूरा कर सके, पर......
बाबू कहते हैं आत्मा से आत्मा जुड़ी होती है....आत्मा ने आत्मा को बुला लिया, जीते जी तो नही पर मृत्युपरांत आत्मा ने आत्मा की राह खोज ली........दीनू ने कहते हुए काका के तृप्त चेहरे पर चादर डाल दिया.........

साभार
मालती मिश्रा