गुरुवार

पुरस्कार

पुरस्कार......

कहीं दूर से कुत्ते के भौंकने की आवाजें आ रही थीं, नंदिनी ने सिर को तकिए से थोड़ा ऊँचा उठाकर खिड़की से बाहर की ओर देखा तो साफ नीले आसमान में दूर-दूर छिटके हुए इक्का-दुक्का से तारे नजर आ रहे थे। चाँद तो कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था, दूर बहुमंजिला इमारतों की परछाइयाँ ऊपर हाथ उठाकर आसमान को छूने के प्रयास में तल्लीन नजर आ रही थीं, उनके आसपास पेड़ों की काली-काली परछाइयाँ मानों नींद के नशे में उनींदी सी होकर झूम रही थीं। वह फिर से लेट गई और बेड के सामने लगी दीवार-घड़ी में समय देखना चाहा पर कमरे में अंधेरा होने के कारण देख न सकी। उसकी आँखों में जलन हो रही थी, उसे रात पहाड़-सी लंबी लग रही थी, लाख कोशिशों के बाद भी नींद ही नहीं आ रही थी। उसने साइड-टेबल पर रखा मोबाइल उठाया और उसमें समय देखा, तीन बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे। वह फिर करवट बदलकर आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगी। उसकी आँखों के सामने फिर प्रखर का क्रोध से तमतमाया हुआ चेहरा घूमने लगा उसने चौंककर आँखें खोल दीं, धीरे से पीछे की ओर देखा तो प्रखर गहरी नींद में सो रहा था। वह फिर आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी....फिर उसकी आँखों के समक्ष प्रखर की क्रोध से जलती आँखें प्रकट हो गईं, वह अचकचा कर उठ बैठी, पुनः मुड़कर पीछे देखा तो प्रखर घोड़े बेचकर सो रहा था। 
'मेरी नींद उड़ाकर खुद कैसे चैन की नींद सो रहा है।' सोचते हुए उसका चेहरा घृणा और क्रोध से विकृत होने लगा...उसके कानों में प्रखर की कही बात पुनः पिघले हुए गर्म शीशे की मानिंद उतरने लगी.....
"अच्छा हुआ तुझे धक्के मार कर स्कूल से निकाल दिया, तू यही डिज़र्व करती थी।" 
और नंदिनी के मुख से पुनः सिसकी निकल गई, उसने अपना मुँह अपने दोनों हथेलियों से दबा लिया कि कहीं प्रखर जाग न जाए! उसकी आँखें फिर बरसनें लगीं ऐसा लगा कि जलती हुई आँखों में आकर आँसू भी उबल गए और गरम-गरम आँसू उसकी हथेलियों और गालों को भिगोने लगे। वह उठी और बाथरूम में चली गई, अंदर से बाथरूम का गेट बंद करके सिसक-सिसक कर रोने लगी पर जब आवाज निकलने को होती तो मुँह पर हाथ रख लेती।  धीरे-धीरे उसकी सिसकियाँ थमने को होतीं तो फिर प्रखर की कही कोई बात याद आ जाती और पुनः सिसकी तेज हो जाती। पंद्रह-बीस मिनट तक वह बाथरूम में बैठकर रोती रही और जब रो-रोकर मन हल्का हुआ तब उसने मुँह धोया और आकर फिर लेट गई और सोने की कोशिश करने लगी।
क्या सचमुच मैं वही डिज़र्व करती थी जो मेरे साथ हुआ? नंदिनी के मनोमस्तिष्क में यही सवाल हथौड़े की तरह वार कर रहा था, 'मैंने क्या गलती की थी या अपनी जिम्मेदारी को निभाने में क्या कमी रख छोड़ी थी? अब क्या जीवन भर मुझे अपने ही घर में अपने ही पति से यही ताना सुनना पड़ेगा?'
उसकी आँखों से फिर आँसू बह निकले उसने आँसू पोछकर जैसे खुद से वादा किया - "नहीं, अब नहीं रोऊँगी।" 
आखिर मेरी गलती क्या थी? मैंने प्रखर को किसी गलत इंसान की संगति से दूर रहने को कहा तो मैं इतनी बुरी हो गई! इतनी नफ़रत करते हैं ये मुझसे कि किसी बाहरी व्यक्ति के लिए मेरे आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ा दीं। ऐसा ताना तो कोई शत्रु भी नहीं देता। सोचते हुए नंदिनी की आँखें बरसती रहीं और तकिया सारी नमी सोखता रहा। आखिर मैं ऐसा क्यों डिज़र्व करती थी? मैंने क्या गलत किया था? सोचते हुए वह अतीत की गहराइयों में खोती चली गई......

लगभग तीन साल पहले... नंदिनी जल्दी-जल्दी साड़ी बाँध रही थी, आज नए स्कूल में उसका पहला दिन था उसे समय का भी अनुमान नहीं था कि कितनी देर में पहुँचेगी, इसलिए जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी ताकि पृथ्वी सर का फोन आते ही निकल पड़े, आज उनके साथ जाएगी तो रास्ता भी देख लेगी और वेतन की बात भी कर लेगी क्योंकि उन्होंने आश्वासन दिया था कि जितना ऑफर हुआ है उससे ज्यादा ही दिलवाएँगे। अभी वह साड़ी पूरी तरह बाँध भी नहीं पाई थी कि उसका मोबाइल बज उठा....'इतनी जल्दी?' उसने सोचा और घड़ी की ओर नजर डालते हुए फोन उठाया तो देखा कि अभिनव सर का फोन था....
"गुड मॉर्निंग सर" उसने कहा।
"गुड मॉर्निंग मैम, आप आज ही स्कूल आ जाइए।"
"क्या! पर मैंने तो कहीं और ज्वाइन कर लिया है।"
"ओह! कब से जा रही हैं?"
"सर आज ही से जा रही हूँ, आज पहला दिन है।"
"फिर तो मैम पहले यहाँ आ जाइए उसके बाद कुछ सोचिएगा।"
"पर मैं आऊँगी कैसे?"
"वैन आती है वहाँ से आपको आपके स्टैंड पर मिल जाएगी मैंने ड्राइवर को बता दिया है।"
"जी ठीक है।" कहकर नंदिनी ने फोन रख दिया।

वह सोच में पड़ गई कि क्या करे...पृथ्वी सर से क्या कहे और अभिनव सर को भी मना नहीं करना चाहती क्योंकि उसने ही उनसे कहा था कि आपके स्कूल में कोई वैकेंसी हो तो बताइएगा, स्कूल की रैपुटेशन भी अच्छी है तो निश्चय ही वेतन भी यहाँ से ज्यादा ही होगा। जब मेहनत करनी ही है तो जहाँ अधिक अवसर हों क्यों न पहले वहाँ ही देख लें! पर पृथ्वी सर को क्या कहूँ?
इन्हीं ख्यालों में खोई नंदिनी ने पृथ्वी सर को फोन लगा दिया।
"हैलो...हैलो"...
दूसरी ओर से आवाज आ रही थी और नंदिनी फोन कान से लगाए समझ नहीं पा रही थी कि क्या बहाना बनाए.....फिर उसने वो सारी बातें बता दीं जो अभी अभिनव सर से हुई थीं और बोली- 
"सर आप बताइए मेरे लिए क्या उचित होगा? मैं आपको भी मना नहीं करना चाहती और दूसरी ओर भी शायद अच्छी अपॉर्च्युनिटी हो सकती है।"
"मैम मैं समझ सकता हूँ, आप पहले वहाँ जाइए अगर वहाँ आपको ठीक न लगे तो यहाँ तो आपकी नियुक्ति तय है ही।" पृथ्वी सर ने कहा।
"धन्यवाद सर, आपने मेरी समस्या दूर कर दी, आपसे शाम को बात करती हूँ।" कहकर नंदिनी ने फोन रख दिया और अभिनव सर के स्कूल जाने की तैयारी करने लगी।
दोपहर के करीब तीन बजे तक नंदिनी वापस घर आ गई, वह संतुष्ट थी कि उसका इंटरव्यू अच्छा हुआ और वेतन भी संतोषजनक था बस अब उसे पृथ्वी सर को बताना है, उम्मीद थी कि वह समझेंगे। यही सोचकर उसने उन्हें फोन किया और जैसी उसे उम्मीद थी उन्होंने भी उसको वहीं जाने की सलाह दी। 

नंदिनी अगले ही दिन से स्कूल जाने लगी, अभिनव सर पिछले स्कूल में नंदिनी के सह-अध्यापक रह चुके थे और इस स्कूल में उन्हें करीब दो साल हो चुके थे, उनका प्रभाव भी यहाँ अच्छा था साथ ही कई और अध्यापक थे जो पहले नंदिनी के साथ अध्यापन कर चुके थे, इसलिए नंदिनी को इस स्कूल के वातावरण में बिल्कुल भी अजनबीपन नहीं लगा; सोने पर सुहागा तो तब हुआ जब वह जिस भी कक्षा में जाती हर कक्षा में उसे कुछ बच्चे ऐसे मिलते जो उसके पढ़ाए हुए होते। तो उसे सामंजस्य बिठाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा, सभी का व्यवहार उसके प्रति सम्मान पूर्ण और सहयोग का रहा।
"गुड मॉर्निंग मैम।" नंदिनी के कक्षा में प्रवेश करते ही छात्र-छात्राओं ने खड़े होकर बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। 
"गुड मॉर्निंग बच्चों, सिट डाउन प्लीज़।"
"मैंम आप हमें हिन्दी पढ़ाएँगीं?" एक छात्र ने पूछा तभी दूसरे ने उसे कोहनी मारते हुए कहा- "अरे नहीं, मैम तो संस्कृत की टीचर हैं, वो संस्कृत पढ़ाएँगीं।"
"अच्छा! आपको कैसे पता कि मैं संस्कृत पढ़ाती हूँ?" उसने मुस्कुराते हुए दूसरे बच्चे से पूछा।
"मैम आप हमें पिछले स्कूल में संस्कृत पढ़ाती थीं न!"
"तो क्या हुआ मैम वहाँ हमारे सेक्शन में हिन्दी भी पढ़ाती थीं।" तपाक से पहला बच्चा बोला।
"ओह! तो आप उस स्कूल में थे पहले, तभी मैं सोच रही थी कि आप लोग पहचाने हुए से क्यों लग रहे हो? खैर! मैं आप लोगों को हिन्दी पढ़ाऊँगी।" 
"चुप कर मैम बहुत स्ट्रिक्ट हैं।" अचानक नंदिनी के कान में किसी अन्य बच्चे की आवाज पड़ी, जो अपने साथ वाले बच्चे को चुप रहने का संकेत करते हुए चुप रहने को कह रहा था।
"क्यों भई आपको कैसे पता कि मैं बहुत स्ट्रिक्ट हूँ?" उसने मुस्कुराते हुए उस बच्चे से पूछा।
"मैम जो बच्चे डिसिप्लिन में नहीं रहते आप उन्हें पंखे से टांगकर मारती हो?" दूसरे बच्चे ने पूछा।
"क्या! पंखे से टांगकर! ऐसा किसने कहा?" नंदिनी को बहुत आश्चर्य हुआ।
"मैम इस रवि ने बताया।" 
"रवि आपने कब मुझे ऐसा करते देखा?"
"मैम मैं तो इन लोगों को बस डरा रहा था, और ये सच मान गए।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
आप लोग इतना भी मत डरिएगा बच्चों, मैं डिसिप्लिन पसंद करती हूँ ये सच है, जब मैं पढ़ा रही हूँ तो मुझे आप सबकी 100% प्रजेन्स चाहिए पर उसके लिए मुझे किसी को मारने की जरूरत नहीं पड़ेगी, आप लोग खुद डिसिप्लिन में रहेंगे, सो डोंट वरी, और हाँ पंखे से तो बिल्कुल नहीं लटकाऊँगी।" उसने हँसते हुए कहा साथ ही सभी बच्चे हँस पड़े।

पहले दिन लगभग सभी कक्षाओं में बच्चों ने उसका इसी प्रकार स्वागत किया। इसीलिए किसी भी नई जगह जाकर खुद को स्थापित करने और अपनी योग्यता से परिचित करवाने में जो समय और ऊर्जा लगती है उस जद्दोजहद से वह बच गई। अब उसे पढ़ाना था और अपनी योग्यताओं को सिद्ध कर दिखाना था क्योंकि उसे आभास था कि प्राचार्य महोदय और डायरेक्टर महोदय को शायद उससे किसी भी अन्य नई अध्यापिका की तुलना में अधिक उम्मीदें थीं परंतु इसके लिए उसे कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं लगानी पड़ी बल्कि पिछले स्कूल में वह जितनी मेहनत करती थी उसकी तुलना में यहाँ कम ही करनी पड़ी, इसलिए उसे काफी आराम महसूस होता था पर नंदिनी को आराम करने की आदत कहाँ...
अभी दो-तीन दिन ही हुए थे कि प्राचार्य महोदय ने नंदिनी को बुलवाया...
"मे आई कम इन सर?" नंदिनी ने प्रिन्सिपल ऑफिस के गेट पर पहुँचकर प्रवेश की अनुमति माँगी और भीतर आई....
"मैडम क्या आप एक फेवर करेंगीं?" प्रिंसिपल ने कहा।
"फेवर! ये आप क्या कह रहे हैं सर? आप जो भी कार्य या रिस्पॉन्सिबिलिटी देंगे वो तो मुझे करना ही होगा, फिर फेवर कैसा? नंदिनी चकित होती हुई बोली।
"आई नो कि आप हिन्दी-टीचर हैं पर अभी जिन मैडम की जगह आपकी नियुक्ति हुई है वो ई.वी.एस. की टीचर थीं। तो क्या आप फ़िफ्थ क्लास की ई.वी.एस. पढ़ा सकती हैं? आपको उसी क्लास की क्लास टीचर भी बना देंगे।"
"पर सर, मैं कैसे पढ़ा पाऊँगी? मेरी इंग्लिश इतनी अच्छी नहीं है।"
"उसकी चिंता आप न करें यदि मैं आपको ये रिस्पॉन्सबिलिटी दे रहा हूँ तो योग्यता देखकर ही दे रहा हूँ, मुझे विश्वास है कि आपको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
नंदिनी को खुशी हुई कि यहाँ पर भी प्रधानाचार्य ने उस पर विश्वास दर्शाया, फिर वह मना कैसे कर सकती थी।
अब वह कक्षा पाँच की कक्षाध्यापिका थी, वह पहले घर पर खुद ई.वी.एस. के चैप्टर का अध्ययन करती फिर कक्षा के बच्चों को पढ़ाती, दूसरे सेक्शन में पढ़ाने वाले अध्यापक भी उसकी सहायता करने को तत्पर रहते। लगभग एक माह बाद उसे तीसरी कक्षा का ई.वी.एस.
भी यह कहकर दे दिया गया कि जब तक नई अध्यापिका नहीं आतीं आप ये क्लास ले लीजिए, वैसे भी जब आप पाँचवीं कक्षा को पढ़ा लेती हैं तो ये तो तीसरी कक्षा है। नंदिनी मना करना चाहते हुए भी मना नहीं कर सकी और उसने हिन्दी के साथ-साथ ई.वी.एस. भी पढ़ाना शुरू कर दिया।
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फ्री पीरियड था तो नंदिनी कंप्यूटर लैब में बैठकर बच्चों की कॉपियाँ चेक कर रही थी तभी...
"गुड मॉर्निंग नंदिनी मैम" कंप्यूटर लैब में प्रवेश करते हुए कंप्यूटर टीचर देवेश चौधरी बोले।
"देवेश सर! गुड मॉर्निंग सर, हाऊ आर यू?" देवेश पिछले स्कूल में नंदिनी के सह-अध्यापक रह चुके थे इसलिए उन्हें यहाँ देखकर वह खुश हो उठी।
"कैसा लग रहा है यहाँ आपको, मन लग गया या नहीं?" 
"सर मेरे लिए यहाँ नया कुछ है ही कहाँ, कई टीचर्स और हर क्लास में कई-कई बच्चे सभी तो मेरे लिए वही पुराने टीचर और स्टूडेंट्स हैं और रही रूल्स एंड रेग्युलेशन्स की बात तो आप लोग तो हैं ही मुझे गाइड करने के लिए, फिर मन कैसे नहीं लगेगा।"
"अरे मैम आपको गाइडेंस की जरूरत पड़ेगी ही नहीं, आप खुद इतनी कैपेबल हैं कि आपको किसी की हेल्प की जरूरत पड़ेगी ही नहीं।"
"ऐसा नहीं है सर हर किसी को नई जगह हेल्प की जरूरत होती है।"
दोनों बातें कर ही रहे थे तभी अभिनव सर ने प्रवेश किया।
"कोई प्रॉब्लम तो नहीं मैम?" उन्होंने एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा।
"सर वैसे तो कोई प्रॉब्लम नहीं है पर आपसे एक रिक्वेस्ट है...."
"कहिए!"
"सर अगर मुझसे कोई गलती हो तो प्लीज मुझे निःसंकोच बता दीजिएगा।"
"अरे मैम टेंशन फ्री होकर अपना काम कीजिए और अपने तरीके से कीजिए, विश्वास मानिए आपके काम को कोई गलत कह ही नहीं सकता।"
"आप इतना विश्वास करते हैं इसीलिए तो डर लगता है कि कोई गलती न हो जाए, फिर आप ही कहे जाएँगे कि कैसी टीचर लाए हैं।"
"जब मुझे कोई टेंशन नहीं, तो आप क्यों परेशान होती हैं? बिंदास होकर अपने तरीके से कीजिए।" अभिनव सर ने हँसते हुए कहा। घंटी बज गई, नंदिनी कॉपियाँ समेटने लगी तथा अभिनव सर और देवेश सर अपने-अपने क्लास में चले गए।

नंदिनी जिन-जिन कक्षाओं में पढ़ाती उन कक्षाओं के बच्चे बहुत ही जल्द उससे घुल-मिल गए इसके लिए न उसे सजा देने की आवश्यकता पड़ी और न ही ऑफिस में शिकायत की बावज़ूद इसके कक्षा में पूर्ण अनुशासन रहता। उसने सभी कक्षाओं के बच्चों को सबसे पहले यही सिखाया कि कोई बच्चा उससे झूठ नहीं बोलेगा, अनुशासन में रहेगा और यदि कोई गलती हो गई है तो उसे स्वीकार कर लेगा। निश्चय ही इन बातों को अमल में लाने में बच्चों को समय लगा पर अपने मकसद में नंदिनी काफी हद तक सफल हुई थी। उसके विषय में बच्चों ने रुचि लेना शुरू कर दिया था। लगभग एक-डेढ़ महीने के बाद किसी नई अध्यापिका के आने के उपरांत नंदिनी को तीसरी कक्षा के ई.वी.एस. विषय की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया और हिन्दी की एक और कक्षा दे दी गई। 
प्राचार्य महोदय भी उसके कार्य की प्रशंसा करने लगे, एक दिन ऑफिस में मीटिंग के दौरान उन्होंने नंदिनी के पाठ-योजना तथा अध्यापक दैनन्दिनी की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप लोग नंदिनी मैडम का रजिस्टर लेकर देखिए और वैसा ही लिखने का प्रयास कीजिए। मीटिंग के उपरांत कुछ अध्यापकों ने माँगकर रजिस्टर देखा भी और कुछ ने परिहास करते हुए यह भी कहा कि "आपने सबका काम बढ़ा दिया, खुद तो रेस्ट करतीं नहीं हमें भी फँसा दिया।" नंदिनी उनके मजाक का बुरा भी नहीं मानती थी।

पाठ्यक्रम के अनुसार विषय से संबन्धित क्रियाकलापों में भी नंदिनी सिद्धहस्त थी, वह सिर्फ विद्यालय में ही नहीं घर पर भी कभी नेट से कभी अन्य पुस्तकों से और कभी स्वचिंतन से ही नए-नए तरीके से बच्चों को अनुशासित करने और अध्ययन के प्रति उनकी रुचि बढ़ाने के लिए तरह-तरह की युक्तियाँ खोजती और उनको अमल में लाती। 
और यही कारण था कि उसकी खुद की अभिरुचि के अनुसार क्रियाकलाप करवाने के लिए उसने बच्चों को बहुत ही आसानी से सिखा लिया। बच्चों के लिए भी कार्य रोचक तथा परीक्षा में अंकों में बढ़ोत्तरी करने वाले थे, इसलिए उन्होंने अपनी अध्यापिका के निर्देशानुसार कार्य किया और प्रधानाचार्य सहित अन्य सभी अध्यापकों को अचंभित कर दिया। अपने इस क्रियाकलाप के अन्तर्गत आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने हस्तनिर्मित पुस्तकें बनाईं और वह पुस्तकें इतनी वास्तविक प्रतीक हो रही थीं मानो पब्लिकेशन द्वारा छपकर आई बच्चों की रंगीन पाठ्य-पुस्तक हों। प्रार्थना सभा में पूरे स्कूल के समक्ष उनके कार्य की सराहना की गई, तथा विद्यालय के डायरेक्टर द्वारा कुछ बच्चों को क्रियाकलाप की उत्कृष्टता के कारण पुरस्कार स्वरूप नकद राशि देकर उनका उत्साह बढ़ाया गया। कुछ विद्यार्थी जिनके कार्य भी उत्कृष्ट थे किन्तु देर से जमा करने के कारण छूट गए थे, उन्हें निराशा से बचाने के लिए नंदिनी ने व्यक्तिगत तौर पर कक्षा में उनको पुरस्कृत किया।  
विद्यार्थियों के प्रति उसका परिश्रम, कार्य के प्रति समर्पण और आत्मानुशासन ने उसे विद्यार्थियों और स्कूल मैनेजमेंट का प्रिय बना दिया। 
अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ-साथ सत्य बोलने, कक्षा में आत्मानुशासन में रहने, घर पर अपने छोटे-छोटे कार्य स्वयं करके मम्मी की मदद करने, समय से पढ़ने व खेलने का महत्व आदि बातों को समझाने के लिए रोज पहले पीरियड में 5-10 मिनट का समय निकालती। 

एक दिन मध्यावकाश के समय नंदिनी स्टाफ रूम से अपनी कक्षा में जाने के लिए निकली ही थी कि तभी कॉरिडोर में अभिनव सर मिल गए। "नंदिनी मैम रुकिए आपसे एक बात कहनी है।" उन्होंने कहा।
"जी कहिए सर, कोई गलती हो गई क्या?" उसने मुस्कराते हुए कहा।
"अरे नहीं, कोई गलती नहीं हुई। दरअसल आपको एक ड्यूटी देनी है।" अभिनव सर बोले।
"कैसी ड्यूटी सर?" उसने पूछा।
"स्पोर्ट-मीट में आपको एंकरिंग करनी है।" अनुभव सर ने उसे फाइल में रखे कुछ कागज जिनमें ड्यूटी निर्धारित करके लिखे गए थे, उसमें उसका नाम दिखाते हुए कहा। 
"सर मैं मना तो नहीं कर सकती पर मैंने कभी एंकरिंग की नहीं है तो अगर नहीं कर पाई तो मेरे साथ-साथ आपको भी शर्मिंदा होना पड़ेगा।" उसने हिचकते हुए कहा।
"डोंट वरी, मुझे पता है आप कर लेंगी। तिवारी सर से बात कर लीजिएगा वो आपको गाइड कर देंगे, आप बहुत अच्छा करेंगीं मुझे पता है।" अभिनव सर पूरे विश्वास से बोले।
"कमाल है न सर! प्रिंसिपल सर को पता होता है कि मैं क्या कर पाऊँगी, आपको भी पता है कि मैं क्या-क्या कर सकती हूँ, बस मुझे ही नहीं पता। खैर! जब आपने कह दिया तो कर ही लूँगी" वह हँसती हुई बोली और अपनी कक्षा की ओर चल दी।

स्पोर्ट-मीट शुरू हुआ, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, कुहरे के कारण सूर्य देव का अता-पता नहीं था लेकिन बच्चे और अध्यापक सभी उत्साहित थे और उनके उत्साह ने ठंड को भी मात दे दिया था। खेल के मैदान में विभिन्न खेलों के अनुसार मैदान में तैयारी की गई थी और बच्चों के बैठने के लिए चारों सदन के अलग-अलग टेंट लगे थे, उनके सामने सदन के झंडे और बैनर लगे हुए थे। प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के उपरांत सभी बच्चों को पहले कक्षा में भेजा गया फिर वहाँ से सभी अपने-अपने कक्षाध्यापक/कक्षाध्यापिका के साथ खेल के मैदान में गए और अपने-अपने सदन के टेंट में बैठ गए। नंदिनी स्टेज पर पहुँच गई और माइक संभाल लिया। उसे हिन्दी में और अंग्रेजी के अध्यापक को अंग्रेजी में ऐंकरिंग करनी थी। दोनों का तालमेल बहुत अच्छा रहा तथा प्रधानाचार्य और डायरेक्टर सभी ने उसकी प्रशंसा भी की। वह मन ही मन भगवान को धन्यवाद कर रही थी कि उसने जिम्मेदारी को अच्छी तरह निभा लिया और अभिनव सर को निराश नहीं किया। इसके साथ ही उसे समाचार-पत्र के लिए प्रतिपादन लिखने की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। नंदिनी पिछले विद्यालय में भी प्रतिपादन लिखती थी, इसलिए इस कार्य में वह दक्ष थी और उसने यह जिम्मेदारी हमेशा के लिए ले ली।
इसी प्रकार सीखते-सिखाते यह सत्र समाप्त हो गया। इन आठ-नौ महीनों में न नंदिनी से किसी को शिकायत हुई और न ही नंदिनी को किसी से। 
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सत्र का पहला दिन था,नंदिनी के मन में कौतूहल था कि किसको किस कक्षा की कक्षाध्यापिका या कक्षाध्यापक बनाया जाएगा!
"रिधिमा मैम आपको क्या लगता है इस बार आपको कौन सी क्लास मिलेगी?" नंदिनी से नहीं रहा गया तो उसने उत्सुकतावश एक अध्यापिका से पूछ ही लिया जो उस स्कूल में कई सालों से पढ़ा रही थीं।
"क्लासेज तो मैम सबको वही मिलेंगीं जो पहले थीं।" 
"लेकिन ऐसा आवश्यक तो नहीं है न, बदल भी तो सकती हैं।"
"नहीं मैम यहाँ तो सबको उन्हीं की क्लासेज देते हैं, बहुत कम ही ऐसा होता है कि कोई अन्य क्लास मिले।"
"पर इसका कारण क्या है?"
"प्रिंसिपल सर का मानना है कि क्लास-टीचर अपने बच्चों को और बच्चे क्लास-टीचर को बहुत अच्छी तरह जानते और समझते हैं, अगर क्लास टीचर चेंज कर दें तो दूसरे टीचर को फिर वही समय लगाना होगा एक-दूसरे से तालमेल बैठाने में, इसलिए पुराने क्लास-टीचर ही ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध हो सकते हैं और इसीलिए अभी आपके पास पाँचवीं ब कक्षा थी तो अब छठीं ब होगी।"
"ओह! पर हर जगह तो कक्षाध्यापक/कक्षाध्यापिका बदल जाते हैं, खैर हमें तो जो देंगे हम पढ़ा ही लेंगे।" नंदिनी ने ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा।
"नंदिनी मैडम आपको प्रिंसिपल सर बुला रहे हैं।" संदीप (चपरासी) ने कहा।
"ओके कमिंग" कहती हुई नंदिनी ऑफिस की ओर चल दी।
"मे आई कम इन सर!" नंदिनी ने पूछा।
"यस यस कम इन मैडम"
"सर आपने बुलाया?" 
"या प्लीज सिट डाउन।"
"थैंक्यू सर आई ऐम ओके" नंदिनी ने कहा पर उसके मस्तिष्क में एक ही सवाल बार-बार ठोकरें मार रहा था कि उसे क्यों बुलाया, उसके दिमाग ने बीते सत्र के सारे कार्यों का अवलोकन पल भर में ही कर लिया कि कोई गलती तो नहीं हुई थी पर उसे ऐसी कोई गलती भी याद नहीं आई। जब तक प्रधानाचार्य जी ने अपनी फाइल बंद नहीं कर दी उन कुछ सेकेंडों में कई सवाल उसके मस्तिष्क में आते-जाते रहे, पर कोशिश 
के बाद भी वह कोई अनुमान नहीं लगा सकी।
"नंदिनी मैडम हम आपको टेन्थ क्लास की हिन्दी दें तो आप पढ़ा लेंगीं?" प्रधानाचार्य जी ने कुर्सी पर सीधे होते हुए कहा।
"सर मैंने कभी पढ़ाया नहीं है, आप मुझे इस वर्ष नाइन्थ क्लास की हिन्दी दे दीजिए टेन्थ नेक्स्ट सेशन में दे दीजिएगा।" नंदिनी का भय समाप्त हो चुका था।
"आपने पढ़ाया नहीं है कोई बात नहीं, कभी तो शुरू करेंगी तो अभी क्यों नहीं?"
सर मुझे नवीं-दसवीं का सिलेबस भी नहीं पता, इस क्लास की पुस्तकें तक नहीं देखी हैं, इसलिए कह रही हूँ अभी नाइंथ ही दे दीजिए।" नंदिनी ने अपना तर्क रखा।
"नहीं मैडम आप टेन्थ भी पढ़ा लेंगी आई ट्रस्ट यू, और इसीलिए मैं आपको ये दोनों ही क्लासेज दे चुका हूँ, डोंट वरी आई नो आप को कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
नंदिनी को जवाब नहीं सूझा कि क्या कहे वह एक पल को बिल्कुल चुप हो गई फिर बोली- "ओके सर अगर आप इतने कॉन्फिडेंट हैं तो मैं पूरी कोशिश करूँगी, पर क्या इस बार भी मुझे ई.वी.एस. पढ़ाना होगा?"
"नो नो, अब आपको सिक्स्थ टू टेन्थ हिन्दी ही पढ़ाना होगा और आप उसी क्लास की क्लास टीचर हैं जिसकी पहले थीं बट सब्जेक्ट हिन्दी है।
"ओके, थैंक्यू सर। कैन आई गो?"
"यस यू कैन।" प्रिंसिपल ने कहा।

नंदिनी के लिए नौवीं-दसवीं कक्षा में पढ़ाना पहला अनुभव था, अगर पहले से पता होता तो इन कक्षाओं की पुस्तकों का कुछ अध्ययन कर लेती पर अब अचानक ही पता चला। कुछ भी हो उसे यह जिम्मेदारी भी पूरी मेहनत से निभानी है, इसलिए वह घर पर रात के  बारह-एक बजे तक जागकर इन दोनों कक्षाओं की पुस्तकों का अध्ययन करती और दूसरे दिन कक्षा में पढ़ाती। उसके लिए दसवीं कक्षा में व्याकरण पढ़ाना तो आसान था किन्तु साहित्य को पढ़ाने में शुरू-शुरू में थोड़ी समस्या आई क्योंकि वह पाठ्यक्रम से पूर्णत: अनभिज्ञ जो थी। साथ ही उन बच्चों के लिए नई अध्यापिका थी तो बच्चों ने भी सोचा कि यदि उसकी शिकायत प्रधानाचार्य से करेंगे तो वह उनकी कक्षा में पुराने वाले शिक्षक को ही भेज देंगे। अत: उन्होंने अपनी योजनानुसार ऑफिस में जाकर उसकी शिकायत की कि 'मैडम हमें ठीक से नहीं पढ़ातीं, उनका पढ़ाया समझ नहीं आता।'
अक्सर ऐसा कुछ करते हुए बच्चे भूल जाते हैं कि जिस अध्यापक की वह शिकायत कर रहे हैं यदि वह बिल्कुल नया/नई नहीं है तो उसकी योग्यता को विद्यालय का मैनेजमेंट उनसे अधिक जानता होगा। अत: परिणाम स्वरूप प्रधानाचार्य महोदय ने नंदिनी को बुलाया और बोले- "मैडम मैं जानना चाहता हूँ कि क्या टेंथ क्लास में कोई बात हुई थी? यदि आपको कोई परेशानी हो बताइए।"
"नो सर, कोई ऐसी बात तो नहीं हुई जो मुझे परेशान करे, पर यदि आप पूछ रहे हैं तो शायद कुछ ऐसा हुआ होगा जिसे मैं नहीं जानती। सो प्लीज़ सर, मैं जानना चाहती हूँ कि क्या हुआ?"

"मैं जानता हूँ कि ये सही नहीं है, इसलिए आप माइंड मत कीजिएगा। मैं सिर्फ आपको बता रहा हूँ ताकि आप ध्यान रखें कि क्लास में कौन से बच्चे पढ़ते हैं और कौन सिर्फ कमियाँ निकालना चाहते हैं, क्योंकि टेंथ के कुछ स्टूडेंट्स आपकी कंप्लेंट कर रहे थे कि आपको पढ़ाना नहीं आता, इसलिए उन्हें आपका पढ़ाया हुआ समझ नहीं आता।"

"सर! हो सकता है कि बच्चे सही कह रहे हों, उन्हें समझ नहीं आता होगा। मैंने तो पहले ही कहा था कि मुझे दसवीं कक्षा को पढ़ाने का अनुभव नहीं है, हालांकि मैं बच्चों से बीच-बीच में प्रश्न भी पूछती रहती हूँ तभी आगे पढ़ाती हूँ, फिर भी बच्चों की बातें भी विचारणीय हैं।" 
नंदिनी ने कहा। उसे कोई फर्क नहीं पड़ा ऐसा कहना ग़लत होगा लेकिन उसने जाहिर नहीं होने दिया कि उसे दुख हुआ या बुरा लगा।

"मैडम मैंने विचार करने के बाद ही आपको बुलाया, उन बच्चों को मैं आपसे ज्यादा जानता हूँ इसीलिए कह रहा हूँ कि आप ही पढ़ाएँगी बस थोड़ा ध्यान रखिएगा, नाव यू कैन गो।" 
"ओ के सर, थैंक्यू।" कह कर नंदिनी वहाँ से निकलकर स्टाफ रूम में जाकर चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह प्रधानाचार्य के सहयोग के लिए खुश हो या बच्चों की शिकायत के लिए दुखी हो। उसका मन दुखी था उसने तो अपनी ओर से पूरी मेहनत की, बार-बार बच्चों से पूछती है कि कुछ समझ न आ रहा हो तो बताएँ, फिर भी बच्चों ने शिकायत की। वह इन्हीं ख्यालों में खोई हुई थी तभी अभिनव सर स्टाफ रूम में आए और उसे गुमसुम देखकर उन्होंने कारण पूछा। दसवीं कक्षा के जिस सेक्शन को नंदिनी पढ़ाती थी उसके कक्षाध्यापक अभिनव शर्मा ही थे, अत: उसने उन्हें पूरी बात बता दी। वह क्लास रूम स्टाफ रूम से सटा हुआ ही था अत:  अनुभव सर उसी समय कक्षा में गए और पूरी कक्षा को डाँटते हुए कहा कि "मैं आप लोगों के लिए दूर-दूर से अच्छे से अच्छे टीचर ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाता हूँ और आप लोग चाहते हैं कि वो आपको न पढ़ाएँ। आपने जिन मैडम की शिकायत की है उन्हें आप कितना जानते हैं? मैं पिछले पाँच सालों से जानता हूँ, इसलिए रिक्वेस्ट करके उन्हें यहाँ बुलाया है और प्रिंसिपल सर से कहकर आप लोगों की क्लास दिलवाई। हालांकि मैं जानता हूँ कि ये हरकत किन बच्चों की है पर नाम नहीं लूँगा लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि नंदिनी मैडम ही आपको हिन्दी पढ़ाएँगीं, जिसे नहीं पढ़ना वो अपना सेक्शन चेंज करवा सकता है।" सभी बच्चे डरे हुए थे और सभी ने उनसे क्षमा माँगी तथा भविष्य में ऐसी गलती न दोहराने का वादा भी किया।
परिणाम स्वरूप कुछ ही दिनों में वह इन कक्षाओं के लिए भी पूर्णतः अभ्यस्त हो गई और तरह-तरह के प्रयोगात्मक विधियों को अपनाते हुए विषय को रोचक बनाते हुए पढ़ाने लगी। जो बच्चे पहले उसे नापसंद करते थे वह उन्हीं बच्चों की आदर्श बन गई।

अब स्थिति यह थी कि प्रातःकालीन प्रार्थना सभा हो, या किसी पर्व पर आयोजित कोई कार्यक्रम, विषयाधारित कोई क्रियाकलाप हो या सदनाधारित प्रतियोगिता, कोई दैनिक कार्यक्रम हो या वार्षिक त्रिदिवसीय खेल प्रतियोगिता नंदिनी हर कार्य में बढ़-चढ़.कर भाग लेती और अपनी ड्यूटी को पूर्ण समर्पण से निभाती।
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विद्यालय के बड़े से गेट के भीतर कदम रखते ही ठिठक कर दामिनी ने पहले गर्दन घुमाकर एक नजर विद्यालय प्रांगण में डाला, दाईं ओर बने वालीबॉल कोर्ट और उसके पीछे दूर तक बड़ा सा खेल का मैदान... उसके बाईं ओर लॉन और उसमें हरियाली के चादर पर बच्चों के झूले, ठीक सामने कुछ दूरी पर काँच के बड़े से गेट के पीछे हॉलनुमा रिसेप्शन था, वह प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उसने साथ में आए अपने पति से वहीं गेट के बाहर प्रतीक्षा करने के लिए कहा और स्वयं भीतर की ओर बढ़ गई।

जिन विद्यार्थियों का आई-कार्ड नहीं बना था उनके नाम की लिस्ट वाइस प्रिंसिपल के ऑफिस में देने के लिए नंदिनी ने ज्यों ही रिसेप्शन की ओर कदम बढ़ाया सामने बेंच पर बैठी दामिनी को देखकर चौंक गई, उसके पैर जहाँ थे वहीं चिपक गए उधर दामिनी भी नंदिनी को देखते ही एकाएक चिहुंक उठी और झटके से खड़ी हो गई।
"नंदिनी मैडम आप भी यहाँ हो! ओ माई गॉड ये तो बहुत अच्छा हुआ।"
कहते हुए दामिनी नंदिनी की ओर लपकी और उसके गले लग गई। नंदिनी भी उससे मिलकर खुश हुई, वह भी पिछले स्कूल में साथ में अध्यापन कर चुकी थी और नंदिनी के छोड़ने के करीब ढाई साल पहले ही छोड़ चुकी थी।
"कैसी हो? इंटरव्यू देने आई हो? नंदिनी ने पूछा।
"हाँ मैडम, अभिनव सर ने बुलाया।" उसने अपने उसी चिरपरिचित अंदाज में कहा। उसकी हर बात से बचपना और निश्छलता झलकती।
"हो गया इंटरव्यू?"
"रिटेन टेस्ट और इंटरव्यू दोनों हो गए, सच्ची बताऊँ तो मेरे सारे उत्तर गलत थे, मुझे नहीं लगता कि मेरा सेलेक्शन होगा।"
"अभिनव सर ने बुलाया है तो हो भी सकता है, उम्मीद मत छोड़ो।" नंदिनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"मैडम आप भी बात करो ना प्रिंसिपल सर से, प्लीज़।"
"कोशिश करती हूँ, तुम बैठो।" कहकर नंदिनी वाइस प्रिंसिपल के ऑफिस में गई पर वो वहाँ नहीं थे। अतः वह प्रिंसिपल ऑफिस में चली गई।
"सर क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?" नंदिनी ने पूछा।
"कम इन मैडम।"
"सर ये उन बच्चों की लिस्ट है जिनके आइ-कार्ड अभी नहीं आए।"
"ओके, व्हाइ डिडन्ट गिव इट टू मि० वी० पी०?" कहते हुए प्रधानाचार्य ने लिस्ट ले लिया।
"सर ही इज़ नॉट इन ऑफिस, मे बी ही इज़ टेकिंग क्लास।"
ओके...ओके
"सर वन मोर थिंग आइ वॉन्ट टू से....."
"ओके यू कैन।"
"सर दामिनी मैडम.."
"आप जानती हैं उन्हें, अरे हाँ वो भी तो उसी स्कूल में पढ़ा चुकी हैं जहाँ पहले आप पढ़ाती थीं।" प्रधानाचार्य नंदिनी की बात बीच में ही काटकर बोल पड़े।
"जी सर"
"हाउ इज़ शी, कैसी टीचर हैं?"
"सर शी इज अ गुड टीचर।"
"ओके पर रिटेन टैस्ट तो कुछ खास नहीं रहा फिर भी देखते हैं, पहले देखते हैं डायरेक्ट सर क्या कहते हैं।"
"ओके सर।" कहकर नंदिनी बाहर आ गई। 
"क्या हुआ?" उसे देखते ही दामिनी ने पूछा।
"सर कह रहे हैं कि डायरेक्टर सर बताएँगे।" मैं अभी थोड़ी देर में फिर आती हूँ कुछ काम है, शुक्र मनाओ ये मेरा फ्री पीरियड है नहीं तो मैं तुमसे इतनी बात नहीं कर पाती। तब तक तुम अभिनव सर से बात कर लो वो अकाउंट विंडो पर खड़े हैं।" नंदिनी ने दाईं ओर अकाउंट ऑफिस की विंडो की ओर संकेत करते हुए कहा और स्वयं स्टाफ-रूम की ओर बढ़ गई।

थोड़ी देर में वह फिर वापस आई तो दामिनी जाने को उद्यत हो रही थी....
"क्या हुआ?" उसने जिज्ञासावश पूछा।
"कुछ नहीं, कह रहे हैं कि अभी डायरेक्टर सर हैं नहीं तो कल आना।"
ओह! पर....नंदिनी कुछ कहती कि तभी उसने देखा कि अकाउंट विंडो पर खड़े अभिनव सर उसको इशारे से बुला रहे हैं, वह वहाँ गई तो उन्होंने पूछा कि क्या हुआ? तो नंदिनी ने वही सब बता दिया जो उसे दामिनी ने बताया था।
"मैडम किसी ने उन्हें गलत इन्फॉर्मेशन दी है आप जाकर एक बार प्रिंसिपल सर से बात कीजिए।" अभिनव सर ने कहा। वो स्वयं नहीं जा सकते थे क्योंकि वह किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त थे।
नंदिनी ने जाकर प्रिंसिपल से बात की तो पता चला कि उन्होंने कुछ नहीं कहा और उन्होंने दामिनी को ऑफिस में भेजने को कहा।
किन्तु जब तक वह रिसेप्शन पर पहुँची दामिनी जा चुकी थी। रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि अभी-अभी गई हैं, तो नंदिनी तेजी से बाहर गई और वॉचमैन को बोला कि दौड़कर बुला लाए।
वह उसी समय निकली ही थी इसलिए वॉचमैन के दौड़ते हुए तेज-तेज बुलाने से आवाज सुनकर वह वापस आ गई और इतनी सारी मशक्क़त के बाद उसकी नियुक्ति साइंस अध्यापिका के रूप में हो गई।

नंदिनी और दामिनी कैब से एक साथ स्कूल आती और जाती थीं, दामिनी के मुँहफट होने की वजह से नंदिनी उसे बार-बार समझाती कि किसके सामने कितना बोलना चाहिए। कभी-कभी तो मीटिंग के दौरान डायरेक्टर और प्रधानाचार्य के सामने भी कुछ भी बोल देती उस समय सभी आश्चर्य से उसकी ओर देखते तो वह बिल्कुल भोलेपन से कहती "क्या हुआ, मैंने कुछ गलत बोला क्या?" और साथ में खड़ी दूसरी अध्यापिका उसे कभी हाथ दबाकर कभी उँगली दबाकर इशारे से चुप रहने को कहती। 
अपने व्यवहार-कुशल प्रवृत्ति के कारण दामिनी जल्द ही सबसे घुल-मिल गई। पर उसकी बिना सोचे कुछ भी बोल देने की आदत नहीं गई। धीरे-धीरे नंदिनी ने महसूस किया कि वह उससे कुछ खिंची-खिंची सी रहने लगी है उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्यों? फिर एक दिन उसने पूछ ही लिया- "दामिनी! मैं तुम्हें कई बार टोक दिया करती हूँ, कुछ बोलने से रोकती हूँ तो तुम्हें बुरा लगता है?"
"अरे नहीं नंदिनी मैडम आप तो मेरी बड़ी बहन की तरह हो, आप मुझे चाँटा भी मारोगी तब भी मैं बुरा नहीं मानूँगी, मुझे पता है आप मेरी भलाई के लिए ही टोकती हो, और मैं आपकी ही वजह से तो यहाँ हूँ।" उसने अपने उसी चिर परिचित अंदाज में कहा जिसे सुनने वाला रीझे बिना न रह सके। कितना भोलापन और निश्छलता थी आवाज में किन्तु आज उसकी आँखों की वो निश्छलता फीकी पड़ गई थी, मानों ज़ुबान कुछ और आँखें कुछ और कह रही थीं। 
नंदिनी ने आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा, उसे लगा हो सकता है यह उसकी गलतफ़हमी हो। दोनों अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गईं। 

कैब में नंदिनी और दामिनी के अलावा चार अध्यापिकाएँ और आती-जाती थीं जिनमें दो अविवाहित लड़कियाँ थीं। दामिनी बहती नदी की चंचल धारा के समान थी, जैसे बहती हुई धारा कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती वैसे ही दामिनी एक बार जो कुछ भी बोल देती उस पर कभी नहीं सोचती कि सही बोला या ग़लत और न ही बोलने से पहले कभी सोचती। किंतु नंदिनी उसके बिल्कुल विपरीत और शायद उसकी यही बात दामिनी को पसंद नहीं आती थी। पर उसने कभी खुलकर कुछ कहा नहीं। कैब में आते हुए दामिनी अक्सर कुमुद से अधिक बातें किया करती थी, उनके हँसी-मजाक चलते रहते जिनमें नंदिनी व दूसरी अध्यापिकाएँ कम ही बोलती थीं। 
"कुमुद तेरे मकान मालिक का लड़का कैसा है, हैंडसम है या नहीं?" एक दिन विद्यालय से लौटते हुए दामिनी बोली।
"हाँ मैडम देखने में स्मार्ट लगते हैं दोनों भैया।" कुमुद बोली।
"अरे बेवकूफ उसे भैया बोलना छोड़, उनमें से एक से सेटिंग कर ले। पैसे वाली पार्टी है किस्मत बन जाएगी।" दामिनी हँसते हुए बोली।
"अरे मैडम आप भी न मुझसे ऐसी बातें न किया करो मेरे से नहीं होता ये सब।" कुमुद झूठ मूठ का गुस्सा दिखाते हुए बोली।
"दामिनी कुछ तो सोच के बोला करो, वो भाई बोलती है उसे।" नंदिनी बोली।
"अरे मैडम आप भी न हमेशा सोचते रहते हो, इतना मत सोचा करो नहीं तो पागल हो जाओगी और काहे का भैया! आजकल न बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया।" दामिनी की बात नंदिनी को अच्छी नहीं लगी पर वह सिर्फ यह बोलकर चुप हो गई कि "ठीक है तुम सिखा दो उसे जो सिखाना है और पैसों से आगे कोई रिश्ता मत देखना। मुझसे गलती हो गई जो तुम्हें समझाने चली थी।" 

हँसी मजाक वाला माहौल एकाएक गंभीर हो चला था, नंदिनी को बुरा लगा था इसलिए वह चुप हो गई, दामिनी कुछ और कहने जा रही थी तभी उसे कुमुद ने चुप रहने का संकेत करते हुए रोक दिया था, अत: कैब में सन्नाटा सा पसर गया था। काफी देर के बाद दूसरी अध्यापिका ने विषय बदलते हुए बात शुरू की तो सभी फिर बातें करने में मशगूल हो गए और धीरे-धीरे अपने-अपने स्टैंड पर उतर गए। नंदिता और दामिनी एक ही जगह उतरे पर उतरने के बाद दोनों चुपचाप अपने-अपने रास्ते की ओर मुड़ गईं।
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फ्री पीरियड था इसलिए नंदिनी कंप्यूटर-लैब में  दो बच्चों को प्रातःकालीन प्रार्थना सभा के लिए कुछ निर्देश दे रही थी तभी दामिनी ने भी लैब में प्रवेश किया और एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए बोली- ये बताओ मैडम सभी आपकी इतनी तारीफ़ क्यों करते हैं?"
"अब आप लोग क्लास में जाइए और जो-जो मैंने बताए हैं वो कल तक तैयार कर लीजिएगा।" कहकर नंदिनी ने बच्चों को भेज दिया और दामिनी की ओर घूमते हुए मुस्कुराकर बोली- "कौन लोग मेरी तारीफ करते हैं मैडम?"
"प्रिंसिपल सर भी कई बार मेरे सामने आपकी तारीफ कर चुके हैं, डायरेक्टर सर भी जितना आपकी बात पर विश्वास करते हैं उतना और किसी की नहीं और आपकी तारीफ भी करते हैं।"
"मेरे सामने तो नहीं करते, तुम्हारे सामने करते हैं तो तुम पूछो कि क्यों करते हैं। वैसे ऐसा क्या कह दिया सर ने?" अपनी तारीफ सुनना हर किसी को अच्छा लगता है इसलिए नंदिनी भी जानना चाहती थी कि क्या तारीफ़ हुई उसकी! लेकिन उसने अपनी उत्सुकता को छिपाते हुए शांत लहजे में पूछा ।
"आपको पता है अभी डायरेक्टर सर ने मुझे बुलाया और कहने लगे कि मैं नाइंथ-टेन्थ क्लास को साइंस पढ़ा लूँ।"
तो?
"मैंने नहीं पढ़ाया है कभी, तो मैंने बोल दिया कि मैं नहीं पढ़ा पाऊँगी।"
"फिर?"
"फिर क्या सर लगे सबके सामने मुझे समझाने कि मना नहीं करना चाहिए और आपकी तारीफों के पुल बाँधने लगे, कहने लगे ये प्रिंसिपल सर बैठे हैं; पूछो इनसे नंदिनी मैम को इन्होंने ई.वी.एस. पढ़ाने को दिया था, वो तो उनका सब्जेक्ट भी नहीं है पर उन्होंने एक बार भी मना नहीं किया और पूरा सेशन बिना किसी शिकायत के ई.वी.एस. पढ़ाती रही हैं। आपको तो आपका ही सब्जेक्ट दे रहे हैं।"
तो मैंने कहा-"लेकिन सर मैंने नाइंथ-टेन्थ पहले कभी नहीं पढ़ाया।" तो कहने लगे- "नंदिनी मैडम ने भी नाइंथ-टेन्थ पहले कभी नहीं पढ़ाया था पर अब पढ़ा रही हैं न! उन्होंने तो एकबार भी मना नहीं किया।"
"ये तो सर वही कह रहे थे जो मैंने किया, इसमें तारीफ क्या है।" नंदिनी ने कहा।
"तारीफ ही है और कैसे की जाती है तारीफ!" दामिनी ने तुनक कर कहा।
"कोई बात नहीं तुम भी पढ़ाना शुरू कर दो कोई प्रॉब्लम नह़ी होगी साथ ही तारीफ भी मिलेगी।" नंदिनी ने कहा।
"मैडम मैं जरा से पैसे के लिए डबल-ट्रिपल काम नहीं करने वाली, नाइंथ-टेन्थ के लेबल की सैलरी की बात थोड़ी न हुई थी, अब उसी सैलरी में मैं सीनियर क्लास भी पढ़ाऊँ! तारीफ़ बटोरने के लिए ऐसी चमचागिरी मुझसे नहीं होगी।" 
नंदिनी को ऐसा लगा मानो दामिनी ने उसे तमाचा मार दिया हो, वह बोली- "तुम्हारा मतलब है मैं तारीफ बटोरने के लिए चमचागिरी करती हूँ!" 
"नहीं मैं आपको नहीं कह रही, पर मुझसे नहीं होगा।" दामिनी ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए कहा।

नंदिनी को अपने और दामिनी के बीच कोई अनदेखी सी दीवार महसूस हुई, उसे लगा कि उसकी प्रशंसा सुनकर दामिनी को खुश होना चाहिए था पर यहाँ तो उल्टा ही प्रभाव दिखाई दे रहा था। उसने तो नंदिनी पर ही सवालिया चिह्न लगा दिया था।
समय अपनी गति से बढ़ता रहा दोनों का साथ आना-जाना अनवरत जारी रहा किन्तु दामिनी का झुकाव नंदिनी से हटकर दूसरी अध्यापिकाओं मुख्यत: कुमुद की ओर अधिक बढ़ने लगा, साथ ही वह ऐसे-ऐसे मजाक करने लगी जो उसे भी पता था कि नंदिनी को पसंद नहीं आएँगे, पर नंदिनी चुप रहती।
मानवीय प्रवृत्ति है कि जो व्यवहार या बातें हृदय पर आघात लगाती हैं अति व्यस्तता के बावज़ूद मानव मस्तिष्क न चाहते हुए भी उन बातों को सोचने का समय निकाल ही लेता है और मन को आहत करता रहता है, ऐसा ही कुछ नंदिनी के भी साथ था इसके बाद भी वह जब तक स्कूल में होती तब तक उसे किसी अन्य बात का ध्यान ही नहीं रहता वह अपनी कक्षाओं के विद्यार्थियों को सिर्फ अपने पीरियड्स में ही नहीं पढ़ाती बल्कि हर समय उनके लिए कुछ न कुछ सोचती और उनकी तैयारियों में ही व्यस्त रहती। 
कक्षाध्यापिका के तौर पर अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को आत्म-अनुशासित बनाने के लिए उसने इंग्लिश-स्पीकिंग, यूनीफार्म, अनुशासन, भाषा की शुद्धता, विषयगत दक्षता तथा अध्यापक और सहपाठियों के प्रति व्यवहार आदि को सुधारने के लिए उसने चार्ट बनवाया और दैनिक ग्रेडिंग करने लगी जिसमें उसने सत्य बोलने को सबसे श्रेयस्कर बताया। बच्चे तो कच्ची माटी होते हैं, उन्हें जैसा आकार दो उसी में ढल जाते हैं, फिर प्यार पाकर तो वो अध्यापिका की हर बात को मानते हैं, कम से कम नंदिनी की कक्षा के बच्चे तो ऐसे ही हो गए थे। उसे किसी बच्चे की गलती को बताने के लिए अपनी बात उस पर थोपनी नहीं पड़ती। बच्चे खुद खड़े होकर बताते कि आज उनके जूते पॉलिश नहीं हैं, या आज गृहकार्य पूर्ण नहीं किया। किसी अन्य बच्चे से लड़ाई होती तो नंदिनी के सामने अपनी गलती मानने में एक पल भी नहीं लगाते। 
अब उसे बच्चों को जैसा बनाना था वो बना चुकी थी, उसे तो अब बस पढ़ाना था और समय-समय पर कुछ न कुछ नया प्रयोग करते रहना था, जिसमें बच्चों का पूरा सहयोग था। अनुशासन तो क्या किसी भी प्रकार की शिकायत अब कोई अध्यापक नहीं करते उल्टा नंदिनी ही पूछती कि किसी को किसी बच्चे से कोई समस्या हो तो कहें। पर जब बच्चों ने अध्यापक को सम्मान देना उनकी हर बात मानना शुरू कर दिया तो सकारात्मक दिशा गमन तो सभी को दृष्टिगोचर हो रहा था, तो शिकायत कैसे होती! साथ ही बच्चों के माता-पिता की शिकायतें भी दूर हो चुकी थीं, सभी अपने बच्चों के व्यवहार से खुश थे।
ऐसा नहीं कि बच्चे गलती नहीं करते पर बताए जाने पर उसे स्वीकर कर सुधारने का प्रयास करते। यही तो चाहती थी वो। लेकिन जहाँ कक्षा के सभी बच्चे और सभी अध्यापक संतुष्ट थे, वहीं एक नया विद्यार्थी हीन भावना से ग्रस्त होने लगा था। एक दिन मध्यावकाश के समय जब नंदिनी कक्षा में आई तो विपुल नाम का विद्यार्थी अपनी डेस्क पर सिर टिकाए रो रहा था। नंदिनी ने उससे रोने का कारण पूछा पर उसने कुछ नहीं बताया तब कक्षा की मॉनिटर और दूसरे बच्चों ने बताया "मैम दामिनी मैम ने विपुल को बहुत डाँटा और थप्पड़ भी मारा।" 
"जरूर इसने कोई गलती की होगी जिसकी वजह से मैम को इसे मारना पड़ा।" नंदिनी बोली।
"मैम, ये बहुत स्लो लर्नर है न इसलिए मैम के सब्जेक्ट का काम जल्दी पूरा नहीं कर पाता, मैम ने इसे कल भी डाँटा था फिर भी इसका काम पूरा नहीं हुआ है तो मैम ने आज इसे दो थप्पड़ भी लगाया और डाँटकर रिटेन वर्क कंप्लीट करने को कहा।" मॉनिटर ने कहा।
"विपुल! आप बताइए बेटा आपको क्या परेशानी आ रही है, क्यों आप साइंस का काम पूरा नहीं कर रहे हैं? रोइए मत मुझे बताइए तभी तो कोई सोल्यूशन निकालूँगी।" नंदिनी ने प्यार से विपुल का सर सहलाते हुए कहा।
उसने सिर उठाया तो उसका चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ था, आँखें लाल हो रही थीं।
"म..मैम म..मुझे कलुआ..कलूटा ब..बोलती हैं, म..मैं तेज न..न..नहीं लिख पाता, म्मेरा काम पहले से इनकंप्लीट है इसलिए पहले..पहले का काम भी प..पूरा करता हूँ, आज..आज मैम ने मेरी क..कॉपी फाड़ दी।" सिसकते हुए विपुल ने कहा और फिर से सिसक-सिसक कर रो पड़ा। नंदिनी को उस पर बहुत दया आई। वह जानती थी कि वह बच्चा पढ़ने में अन्य बच्चों की तुलना में कमजोर है, वह अभी अन्य विद्यार्थियों के साथ घुल-मिल नहीं पाया है और उसे अभी यहाँ की अध्यापकों का पढ़ाया समझ में भी नहीं आता, इसलिए वह भी अभी उस पर दबाव नहीं डालती। उसने किसी अन्य विद्यार्थी के साथ उसे मुँह धोकर आने के लिए भेज दिया। उसके जाने के बाद उसने कक्षा में पूछा कि जो वह कह रहा था क्या वो सब सही है? तो सभी बच्चों ने कहा "यस मैम, दामिनी मैम को उसका लिखा समझ नहीं आया तो उन्होंने कहा ये क्या कीड़े-मकोड़े से बना रखे हैं और कॉपी के वो सारे पेज फाड़ दिए और दुबारा लिखने के लिए कहा और मैम ने उसे बैंड वर्ड्स भी बोले जो उसने बताया।" एक अन्य विद्यार्थी ने कहा। तब तक विपुल वापस आ गया तब नंदिनी ने उसे समझाकर खाना खिलाया और उसका काम पूरा करवाने के लिए कक्षा के दो बच्चों को सहायता करने के लिए कहा। कक्षा से जाते-जाते उसने कहा- "बेटा आप अपनी तरफ से पूरी कोशिश करो, धीरे-धीरे आप सीख जाओगे और मैडम से मैं बात करूँगी कि वो आपके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगी जैसा उन्होंने किया।" 
"जी मैम मैं बहुत मेहनत करूँगा।" उसने मासूमियत से कहा। 
नंदिनी ने दामिनी से बात की और उसे समझाने की कोशिश की कि नया बच्चा है वो उसे प्यार से समझाए, अगर सख्ती से पेश आएगी तो वह कुछ नहीं कर पाएगा।
"नंदिनी मैम आपकी क्लास के बच्चे तो बड़े चुगलखोर हैं, वो सब्जेक्ट टीचर की कंप्लेंट क्लास टीचर से कर रहे हैं और आप उनको समझाने की बजाय उल्टा मुझे ही समझा रही हो, आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी मैडम।" दामिनी तुनककर बोली।
"बच्चे अपनी प्रॉब्लम क्लास-टीचर से कहेंगे या पेरेंट्स से, तो ये तो अच्छा ही है न कि उन्होंने मुझसे कहा। नहीं तो पेरेंट्स से कहेंगे तो सारी बातें ऑफिस तक जाएँगीं।" नंदिनी बोली।
"ऑफिस तक जाती हैं तो जाएँ, डरता कौन है। मैडम मेरा यही तरीका है पढ़ाने का, मैं आपकी तरह नहीं कर सकती, प्लीज इतनी उम्मीद मत रखिए मुझसे।" दामिनी ने दो टूक जवाब दिया और वहाँ से चली गई। नंदिनी को बहुत बुरा लगा। उसे अब लगने लगा कि शायद दामिनी इस बात का भी गुस्सा उस बच्चे पर निकालेगी पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, इसलिए उसने अभिनव शर्मा सर से बात की तो उन्होंने सलाह दिया कि "डायरेक्टर सर से बता दीजिए नहीं तो बाद में सर आपको ही कहेंगे कि आप क्लास टीचर हैं फिर आपको कैसे कुछ भी पता नहीं।" 
नंदिनी ने डायरेक्टर से बात की परंतु उसे आश्चर्य हुआ कि हर बात पर बच्चों का पक्ष लेने वाले डायरेक्टर चौधरी ने कुछ भी नहीं कहा और उसे ही उस बच्चे को समझाने के लिए कह कर भेज दिया।
कक्षा में बच्चे अक्सर दामिनी की शिकायत करते कि उसने विपुल को ऐसा बोला वैसा बोला, इतना ही नहीं एक दिन स्कूल बस के एक ड्राइवर ने नंदिनी से दामिनी की शिकायत करते हुए कहा कि विपुल और उसके भाई का एडमिशन इस स्कूल में उसने करवाया था पर दामिनी मैडम के व्यवहार से उसके माता-पिता बहुत दुखी हैं और वो अपने बच्चों को यहाँ से निकालकर किसी और स्कूल में एडमिशन करवा रहे हैं। नंदिनी को बहुत शर्मिंदगी हुई कि उसकी कक्षा के एक बच्चे के साथ बहुत ग़लत व्यवहार हुआ और शायद इसका कारण वह खुद है पर वह पहली बार अपने-आप को बहुत असहाय महसूस कर रही थी। उसने अभिनव सर से कुछ करने के लिए कहा भी पर वह खुद समझ चुकी थी कि हवा का रुख बदल चुका है।
वह यह भी जानती थी कि बच्चों को सिखाना तो आसान होता है, क्योंकि वो जानते हैं कि वो सीखने आए हैं और निश्छल मन से इस सत्य को स्वीकारते हैं, लेकिन उन बड़ों को नहीं सिखाया जा सकता जो अपने मन में ईर्ष्या और अहंकार पाल लेते हैं, उन्हें तो सिर्फ वक्त ही सिखा सकता है।  
नंदिनी का मन व्यथित होता, वो अपने आप से ही लड़ रही थी कि उसे दामिनी की उपेक्षा को अनदेखा करना है परंतु मानवीय भावनाओं को काबू कर पाना इतना ही सहज होता तो वह कभी दुखी ही नहीं होता। वह मन ही मन सोचती कि आखिर उससे क्या गलती हुई जिसके कारण दामिनी का उसके प्रति रवैया ही बदल गया, पर उसके पास कोई जवाब नहीं था। 
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शीतकालीन अवकाश चल रहा था परंतु अध्यापकों की छुट्टी नहीं थी.... कुछ अध्यापक स्टाफ-रूम में तो कुछ किसी अन्य कक्षाओं में अपनी-अपनी सुविधानुसार कार्य कर रहे थे। नंदिनी को सेलरी-सर्टिफिकेट बनवाना था, जिसके लिए वह एक दिन पहले ही बात कर चुकी थी, प्रधानाचार्य महोदय के कहने से सुबह ही लिखित में प्रार्थना-पत्र भी दे चुकी थी। दोपहर के 12 बजने वाले थे पर अब तक कोई जवाब नहीं मिला था इसलिए पूछने के लिए नंदिनी ऑफिस में गई....
"सर वो मैंने सेलरी-सर्टिफिकेट के लिए एप्लीकेशन दिया था....."
"ओ यस यस मैडम, मैंने अकाउंट ऑफिस में बोला तो था पर अभी तक उन्होंने भिजवाया नहीं, ऐसा कीजिए आप थोड़ी देर के बाद आइए मैं तब तक मँगवाता हूँ।" प्रधानाचार्य उसकी बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़े।
वह वापस कंप्यूटर लैब में आकर अपने काम में व्यस्त हो गई। दामिनी जो पहले कहीं और बैठी थी अब आकर वहीं बैठ गई, पर दोनों चुपचाप अपने-अपने रजिस्टर में व्यस्त थीं। थोड़ी देर के बाद नंदिनी पुनः प्रिंसिपल-ऑफिस में गई... इस बार प्रिंसिपल ने उसे सर्टिफिकेट तो दिया पर उसमें कुछ गलती थी तो उसे अकाउंटेंट को वापस देकर पुनः बनवाने का निर्देश दिया। विद्यालय की छुट्टी होने का समय हो रहा था इसलिए वह चाहती थी कि आज ही काम हो जाए इसलिए स्वयं अकाउंट ऑफिस में ठीक करने के लिए देकर आई फिर कुछ देर बाद खुद ही वहाँ से सर्टिफिकेट लेकर प्रिंसिपल से हस्ताक्षर करवाने के लिए ऑफिस मे जाने को उठी ही थी कि दामिनी कमेंट्री करने वाले अंदाज में बोल पड़ी..
"ये अब फिर मैडम जाएँगी प्रिंसिपल सर के पास।"
"हाँ, जा रही हूँ तो?" नंदिनी को उसका यह अंदाज बड़ा ही बेढंगा लगा।
"नहीं..नहीं आप जाओ मैं कहाँ कुछ कह रही हूँ।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"तुम्हारा कहना बड़ा अजीब लगा, मुझे अगर काम है तो मैं तो जाऊँगी ही फिर तुम ऐसे क्यों बोल रही हो?" नंदिनी ने कहा
"हाँ काम तो आपको ही पड़ते हैं, वैसे भी आजकल कुछ ज्यादा ही काम पड़ रहे हैं, मैं देख रही हूँ तीन चार चक्कर लगा चुकी हो आप। कोई नहीं जाओ..जाओ।" 
उसकी बातों में छिपे व्यंग्य को नंदिनी भाँप गई और बोली- "दामिनी अपनी सीमा में रहकर बात करो, तुम्हारी बातों का मैं क्या मतलब समझूँ?"
दामिनी समझ गई कि नंदिनी क्रोधित हो गई है, वह बोली.."अरे मैडम आप तो मजाक का भी बुरा मान गईं।
"मुझे ऐसे घटिया मजाक बिल्कुल पसंद नहीं, क्या मुझे कभी किसी से ऐसे मजाक करते देखा है तुमने?"
"पर मैं तो करती हूँ न! आपतो जानती हो।"
"नहीं, मैं नहीं जानती, और करती भी हो तो मुझसे मत करना।" कहते हुए नंदिनी जाने लगी तभी दामिनी बोल पड़ी...
"पर मैं तो बिना मजाक किए रह ही नहीं सकती, जिससे बोलूँगी उससे मजाक भी करूँगी।"
जाते-जाते नंदिनी के पाँव अपनी जगह रुक गए, अपनी जगह खड़ी होकर उसने गहरी सी सांस ली और शांत होकर बोली- 
"मजाक की भी लिमिट होती है दामिनी, अगर ऐसे मजाक करने हैं तो प्लीज, चाहे मुझसे न बोलो चलेगा, पर मैं इस प्रकार के घटिया मजाक सहन नहीं करूँगी, आज तुम कर रही रही हो कल और भी टीचर्स करेंगे और मैं ऐसा मौका किसी को नहीं देना चाहती।" कहकर वह बिना जवाब की प्रतीक्षा किए गेट से निकल गई।
वह नहीं जानती थी कि उसकी यह बात उसके लिए एक मद्धिम गति से असर करने वाला जहर सिद्ध होगा। उसका और दामिनी का आपस में बात करना बिल्कुल बंद हो चुका था, उसने स्वयं तो किसी से कुछ नहीं कहा पर स्कूल में सभी को उनके आपसी दूरी का पता चल चुका था। अध्यापिकाएँ भी ग्रुप बनाने लगीं कोई नंदिनी से दामिनी की बुराई करती तो कोई दामिनी के साथ मिलकर नंदिनी पर कटाक्ष करती। नंदिनी दुखी होती पर जहाँ तक होता अनसुना करने की कोशिश करती। एक-दो बार बात डायरेक्टर तक भी पहुँची, उन्होंने नंदिनी से कहा- "आप उनसे बात कीजिए" 
"सर वो मेरी क्लास में साइंस पढ़ाती हैं तो बच्चों से संबंधित जो बातें आवश्यक होती हैं, मैं करती हूँ, इसके अलावा अधिक पर्सनल होना शायद हम दोनों के लिए उचित न होगा।" उसने जवाब दिया।
डायरेक्टर ने उसे भेज दिया। धीरे-धीरे कुमुद जो कि दामिनी के साथ मिलकर नंदिनी पर कटाक्ष करती थी, वो भी दामिनी से कटी-कटी रहने लगी और फिर वह दामिनी की बुराइयाँ बताने लगी। सभी इस बात को महसूस कर रहे थे कि डायरेक्टर सर दामिनी की गलतियों को अनदेखा कर देते हैं, इसलिए कोई भी उसके प्रतिकूल बात नहीं करता हालांकि अध्यापक वर्ग का एक बड़ा समूह उसको पसंद नहीं करता था। क्योंकि दामिनी और कुमुद की आपस में ठन चुकी थी अत: कुछ महीने पश्चात् डायरेक्टर चौधरी के द्वारा कुमुद को बिना कारण बताए आनन-फानन में सेवा मुक्त कर दिया गया। अब नंदिनी को ऐसा महसूस होने लगा कि शायद उसे भी कभी भी मना किया जा सकता है, तो क्या विद्यालय में बने रहने के लिए अब दामिनी की गलत बातें सहन करते हुए उससे मिल-जुलकर रहना होगा? पर मेरे लिए तो ऐसा संभव नहीं। नंदिनी ने सोचा।
पर उसे ऐसा महसूस होने लगा था कि अब उसके द्वारा करवाए गए किसी भी क्रियाकलाप को डायरेक्ट द्वारा अनदेखा किया जाने लगा। इसी समय न जाने क्या हुआ कि विद्यालय के  प्रधानाचार्य ने अकस्मात् विद्यालय छोड़ दिया। उड़ती-उड़ती खबर मिली कि उन्हें निकाल दिया गया। दो-तीन महीने के उपरांत नए प्रधानाचार्य की नियुक्ति हुई। 
नए प्रधानाचार्य की नियुक्ति अर्थात् कई नियमों में परिवर्तन और कई नए नियमों का लागू होना।
वार्षिक त्रिदिवसीय खेल प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, नए प्रधानाचार्य के साथ सामंजस्य बिठाने में जहाँ कुछ अध्यापिकाओं को काफी मशक्कत के बाद भी डाँट पड़ रही थी वहीं अखबार के लिए प्रतिवेदन लिखने के लिए नंदिनी की प्रधानाचार्य के द्वारा प्रशंसा की गई। नंदिनी जो कि सभी को डाँट पड़ते देख डर रही थी कि इसमें भी कमी न निकाल दें; प्रशंसा सुन मन आत्मविश्वास से भर गया। अंग्रेजी में कहते हैं न कि 'फर्स्ट इम्प्रेशन इज़ द लास्ट इम्प्रेशन', यही नंदिनी के साथ हुआ। प्रधानाचार्य की नजरों में उसकी छवि प्रभावशाली बनी। जहाँ एक ओर नंदिनी अपने अध्यापन, विद्यार्थियों के व्यवहार और रिज़ल्ट, उनके माता-पिता की प्रतिक्रिया, प्रधानाचार्य और अन्य सह अध्यापक-अध्यापिकाओं के सहयोग और व्यवहार से सकारात्मक ऊर्जा से प्रफुल्लित होती वहीं दूसरी ओर यदा-कदा दामिनी की उसके विरुद्ध चली गई चालें, उसके कटाक्ष और  स्कूल मैनेजमेंट का उसके प्रति उदासीन रवैया उसे भीतर से आहत करता फिरभी वह निष्ठापूर्वक अपना काम करती रही।
सत्र समाप्त हो गया और नए सत्र में प्रधानाचार्य ने कक्षाध्यापक और कक्षाध्यापिकाओं की कक्षाएँ बदल दी। नंदिनी को भी छठीं कक्षा दी गई। उसने सोचा अब फिर तीन साल पीछे जाकर इन बच्चों के साथ मेहनत करनी होगी और उसने उसी प्रकार उन बच्चों को समझाना शुरू किया, जैसे पिछली कक्षा के बच्चों को समझाती थी। 
"बच्चों आप लोग एक बात ध्यान रखिएगा कि अगर आप लोगों को कोई भी प्रॉब्लम हो तो आप लोग मुझे यानी क्लास-टीचर को जरूर बताएँगे, तभी तो मैं आपकी प्रॉब्लम्स शार्ट-आउट कर पाऊँगी..." तभी उसकी बात बीच में ही रोककर एक बच्चा खड़ा होकर बोला-
"मैम डायरेक्टर सर ने कहा है कि मुझे अलग एक सीट पर अकेले बैठाया करें।" 
"क्यों?" नंदिनी ने पूछा।
"मैम, किसी बच्चे के साथ में बैठता हूँ तो मेरा हाथ दुखता है।"
"क्या हुआ तुम्हारे हाथ में?" नंदिनी ने पूछा तो उस बच्चे ने अपना बायाँ हाथ जो अब तक पीछे छिपा रखा था आगे कर दिया।
देखते ही नंदिनी एकदम से सिहर उठी, उसका हाथ कलाई से कटा हुआ था, हथेली और उँगलियाँ थीं ही नहीं, हालांकि कई वर्ष पहले की बात थी तो अब कोई ज़ख्म नहीं था फिरभी नंदिनी ने पहली बार देखा था इसलिए उसको बेहद दुख हुआ। बच्चों ने बताया कि घास काटने की मशीन में हाथ कट गया था। उस समय कितना दर्द हुआ होगा यह सोचकर ही नंदिनी की आँखें भर आईं परंतु अगले पल वह स्वयं को नियंत्रित करके बोली- "बेटा आप डेस्क के बाँयी ओर बैठो तो आपका हाथ बाहर की ओर रहेगा, फिर यह किसी से छुएगा नहीं तो आपको दर्द भी नहीं होगा।
"पर मैम डायरेक्टर सर ने मुझे अलग बैठने के लिए कहा था।" 
"बेटा डायरेक्टर सर के पास आप गए थे?" 
नंदिनी ने पूछा।
"जी नहीं पापा ने कहा था।"
"ओके, पर बेटा बात सिर्फ अलग बैठने की है या हाथ न दुखने की है? मेरा मतलब आप तो यही चाहते हो न कि हाथ न दुखे बस!"
"जी।"
तो मैं जैसे कह रही हूँ, आज वैसे ही बैठ जाओ और उसके बाद भी आपको अगर कोई परेशानी हो तो बताना मैं आपको अलग सीट पर बैठा दूँगी।"
उस बच्चे ने वैसा ही किया पर उसके चेहरे से नागवारी साफ झलक रही थी। अब आप सभी लोग मेरी बात ध्यान से सुनिए...."आप लोगों को कोई भी प्रॉब्लम हो तो सबसे पहले क्लास-टीचर को बताएँगे, क्लास-टीचर आपकी प्रॉब्लम सॉल्व न करें तो प्रिंसिपल सर को बताएँगे अगर वहाँ भी आपकी प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती तब आप डायरेक्टर सर के पास जाएँगे, ओके?" 
"पर मैम हमारे पापा तो कहते हैं कि कोई भी परेशानी हो तो डायरेक्टर सर के पास चले जाना।" एक दूसरा बच्चा बोला।
"बेटा आपके पापा डायरेक्टर सर को पर्सनली जानते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं, पर आप सोचिए ये पूरा स्कूल डायरेक्टर सर का है, सारे बच्चे उनके पास जाएँगे तो वो किस-किसकी प्रॉब्लम सॉल्व करेंगे, आखिर वो प्रिंसिपल सर से कहेंगे और प्रिंसिपल सर क्लास-टीचर को फिर क्लास-टीचर ही आपकी हेल्प करेगी न, तो इससे अच्छा है कि आप पहले ही क्लास-टीचर को ही बताएँ। वैसे भी छोटी-छोटी सी बातों के लिए डायरेक्टर सर के पास जाना अच्छे बच्चों का काम नहीं, तो आगे से ध्यान रखिएगा।"
"ओके मैम।" सभी बच्चे बोले। 
उसे महसूस हो रहा था कि इस क्लास को पहले वाली क्लास की तरह बनाने में शायद पहले से अधिक समय लगने वाला है, फिर भी करना तो है ही, यही सोचकर उसने बच्चों के लिए फिर योजनाएँ बनाना शुरू कर दिया।
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प्रातःकालीन सभा की तैयारी हो रही थी, विद्यालय के पिछले भाग में खेल के मैदान में बच्चों को कक्षानुसार पंक्तियों में खड़ा किया जा रहा था। नंदिनी अपनी कक्षा के बच्चों की  पंक्ति सीधी करवा रही थी, तभी चपरासी ने आकर कहा कि उसे डायरेक्टर सर बुला रहे हैं।
वह तुरंत ऑफिस की ओर चल पड़ी। 
उसने ऑफिस के शीशे के गेट को भीतर की ओर हल्का सा धक्का देकर आधा ही खोला  और बोली- "मे आई कम इन सर?"
अपनी बड़ी सी मेज के दूसरी ओर बैठे डायरेक्टर चौधरी ने गंभीर मुद्रा में हल्के से सिर हिलाकर उसे अनुमति दे दी।
नंदिनी ने भीतर प्रवेश किया, मेज के इस ओर गेट की ओर पीठ किए कोई व्यक्ति बैठा था और उसके साथ ही खड़ा था वही बच्चा जो एक हाथ कटे होने के कारण अलग बैठने के लिए कह रहा था। नंदिनी को समझते देर न लगी कि वह बच्चा अपने पिता को इसलिए लेकर आया है ताकि वह उसे कक्षा में एक अलग सीट पर बैठाए।
"सर आपने बुलाया!" नंदिनी ने बड़े ही विनम्र स्वर में कहा।
"क्लास में क्या हुआ था कल?" डायरेक्टर चौधरी ने बड़े ही रूखेपन से पूछा।
"जी इस बच्चे ने मुझसे अलग सीट पर बैठाने के लिए कहा था ताकि इसका हाथ न दुखे, तो मैंने इसे सीट की लेफ्ट साइड में बैठाया ताकि हाथ बाहर की तरफ होगा तो नहीं दुखेगा, साथ ही यह भी कहा कि यदि फिर भी कोई परेशानी हो तो मुझे बताए मैं अलग बैठा दूँगी।" उसने जवाब दिया।
"तुमने यह नहीं कहा कि जो कहना हो मुझसे कहो डायरेक्टर कौन होता है वो क्या करेगा..।"
डायरेक्टर चौधरी जो अब तक न जाने कैसे शांत बैठे थे बच्चे और उसके पिता के समक्ष ही यकायक दहाड़ पड़े।"
नंदिनी काँप उठी उसका मस्तिष्क शून्य हो गया, उसने तो स्वप्न में भी कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि इस प्रकार कभी किसी अभिभावक के समक्ष उसका अपमान होगा। 
"पर सर मैंने ऐसा नहीं कहा मैं तो बस समझाना...."
"तुम अपने आप को बहुत तेज समझती हो, कुछ भी कहोगी और फिर बात बना दोगी! जाओ यहाँ से..." उन्होंने नंदिनी की बात पूरी सुने बिना ही उसे डाँटकर वापस भेज दिया।
नंदिनी प्रार्थना सभा में वापस चली गई पर उससे यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि किसी बच्चे और अभिभावक के सामने उससे इस प्रकार बात की गई, अपमान के दर्द से बार-बार उसकी आँखें भर आतीं और वह औरों की नजर बचाकर आँखों की नमी पोंछ लेती, किन्तु उससे सहन नहीं हो पा रहा था....कैसे वह क्लास में उस बच्चे का सामना करेगी.... क्या अब वह पहले की तरह पढ़ा पाएगी..... क्या बच्चे अब उसका सम्मान करेंगे? इन्हीं सवालों से उलझती अपने-आप से लड़ती वह प्रिंसिपल ऑफिस में पहुँच गई।
"सर मैं क्लास में नहीं जा सकूँगी प्लीज मेरा ये पीरियड फ्री कर दीजिए या किसी और क्लास में भेज दीजिए।" उसने प्रिंसिपल से निवेदन किया।
"पर क्यों मैडम, आप क्यों नहीं जाना चाहतीं,  पहले बताइए तो सही!"  उन्होंने पूछा।
वह नहीं बताना चाहती थी, उसका आहत हो चुका स्वाभिमान उसे रोक रहा था तथा दूसरी ओर डायरेक्टर को ऐसा न लगे कि वह शिकायत कर रही है, परंतु उसे यदि उस बच्चे का सामना करने से बचना है तो सच्चाई बताने के सिवा कोई अन्य उपाय न था। अतः उसने सारी बातें जो उसने कक्षा में बच्चों के समक्ष समझाते हुए कहा था और जो डायरेक्टर चौधरी ने कही थीं, ज्यों की त्यों प्रधानाचार्य को बता दिया।
"ये तो बहुत गलत हुआ, इसमें आपकी गलती नहीं है, पर आप भी जानती हैं मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।" उन्होंने कहा।
"सर मैं भी नहीं चाहती कि आप कुछ कहें, मैं बस वो क्लास छोड़ना चाहती हूँ, मैं शर्म के कारण उस क्लास में नहीं पढ़ा पाऊँगी, प्लीज़ सर।"
"ओके आप बस एक काम कीजिए, आप जाकर अटेंडेन्स ले लीजिए और उस बच्चे को मेरे पास भेज दीजिएगा, मैं उस बच्चे का पक्ष भी सुनना चाहता हूँ।"
"ओके सर" कहकर नंदिनी रजिस्टर लेकर कक्षा में चली गई।
उसने बच्चों की हाजिरी ली और कक्षा से बाहर जाते हुए उस बच्चे से कहा- "आपको प्रिंसिपल सर ने बुलाया है, तो एक बार मिल लीजिएगा।"
दूसरा पीरियड चल रहा था नंदिनी कक्षा में पढ़ा रही थी तभी चपरासी ने आकर फिर कहा- "आपको डायरेक्टर सर बुला रहे हैं।"
उसने ऑफिस में जैसे ही प्रवेश किया डायरेक्टर अपनी कुर्सी से खड़े होकर जहर बुझे स्वर में बोले - "तुम प्रिंसिपल से शिकायत करने गई थीं?"
"नो सर मैं अपना पीरियड चेंज करवाने गई थी।" वह उनका यह बदला हुआ व्यवहार देख सहम गई थी उसने अत्यंत कातर स्वर में जवाब दिया।
"तू समझती क्या है अपने आपको? चलो जाओ तुम, अब यहाँ तुम्हारी कोई जरूरत नहीं, निकलो यहाँ से।" कहते हुए वह नंदिनी के पास तक आ गए।
वह मृग शावकी की तरह भयभीत सी बिना कुछ बोले तुरंत ऑफिस से बाहर निकल स्टाफ रूम की ओर जाने लगी...
"उधर कहाँ जा रही हो, बाहर जाओ।" अपने ऑफिस के बाहर तक उसके पीछे-पीछे आए डायरेक्टर ने ऊँची आवाज में कहा।
"अपना पर्स लेने जा रही हूँ।" नंदिनी की आवाज भर्रा गई।
"कुछ नहीं, बाहर जाओ वहीं सब मिल जाएगा।" वह उसी तरह दहाड़कर बोले। अब नंदिनी में साहस नहीं था कि वह कुछ कहती या वहाँ रुक पाती; उसे ऐसा लगा कि यदि वह वहाँ एक पल भी रुकी तो कहीं वह उसे धक्का ही न मार दें या हाथ पकड़कर न निकाल दें, इसलिए वह तुरंत बाहर की ओर चल दी और रिसेप्शन पर जैसे ही पहुँची पीछे से अकाउंटेंट को इंगित करके डायरेक्टर ने कहा मैडम इनका आज तक का हिसाब करके इन्हें दे दो और ये रिसेप्शन एरिया से अंदर पैर नहीं रखनी चाहिए, इनका जो भी सामान अंदर है सब यहीं लाकर दे दो।"
नंदिनी ही नहीं किसी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि किसी अध्यापिका को उसके शिक्षा दान का ऐसा पुरस्कार मिल सकता है। उसका मस्तिष्क शून्य हो चुका था, वह स्वयं को बहुत ही लाचार महसूस कर रही थी। जिस स्वाभिमान का वह दम भरती थी, उसकी तो ऐसी धज्जियाँ उड़ चुकीं कि दुबारा शायद वह कभी स्वाभिमानी होने की बात नहीं करेगी। उसे यहाँ तीन साल होने वाले थे कभी किसी बच्चे की या किसी अभिभावक की शिकायत नहीं आई फिर इस बार उसने ऐसा क्या कह दिया! बच्चों को ओहदे के सम्मान की शिक्षा देना गलत हो गया या उसका समय गलत था। उसने जैसे-तैसे स्वयं पर नियंत्रण किया और प्रखर को फोन करके पूरी बात न बताते हुए इतना ही कहा- "मैं जॉब छोड़ रही हूँ।"
"क्या हुआ?" प्रखर ने पूछा।
"अभी नहीं बता पाऊँगी, घर आकर बताती हूँ।" कहते हुए उसका गला भर आया।
"ठीक है, छोड़ दो और वापस आ जाओ।" प्रखर ने कहा। उसने फोन रख दिया तभी अकाउंटेंट मिसेज रीमा ने नंदिनी को बुलाकर सारी बातें पूछीं तो नंदिनी ने बता दीं।
"नंदिनी मैडम मैं जो कह रही हूँ वो ध्यान से सुनिएगा, जो लोग अनमैरिड होते हैं न, उन पर जिम्मेदारी का प्रेशर कम होता है, तो वो छोटी-छोटी बातों पर नौकरी को लात मारके जा सकते हैं, पर मेरे-आपके जैसे लोग कोई भी नौकरी छोड़ने से पहले दस बार सोचेंगे। हमारी उम्र एक जगह सैटल होने की है, नई नौकरियाँ ढूँढ़ने की नहीं, तो हम लोगों को ऐसी कई बातों को अनदेखा करना पड़ता है।" मिसेज रीमा ने कहा।
"पर मैडम आप तो देख ही रही हैं कि मैंने नहीं छोड़ा, मुझे अपमानित करके निकाला गया है।" नंदिनी ने गालों पर ढुलक आए आँसुओं को पोंछते हुए कहा।
"सर बहुत गुस्से में हैं, शायद किसी और बात का गुस्सा आप पर निकल गया हो, गुस्सा ठंडा होते ही समझ जाएँगे, इसलिए आप थोड़ी देर रुको मैं बात करती हूँ, पर सैलरी ले लोगी तो फिर कुछ नहीं हो पाएगा।"
"नहीं रीमा मैडम, आप मेरी सैलरी बना दीजिए, इतने अपमान के बाद भी मैं यहाँ रुक जाऊँ तो कोई भी कभी भी मुझे ठोकर मारने लगेगा।"
"सोच लीजिए मैम, मैं आपकी भलाई की ही बात कह रही हूँ।" मिसेज रीमा ने कहा।
"मैं समझ सकती हूँ मैम पर रुक नहीं सकती।" नंदिनी ने अपना फैसला सुनाया।
"नंदिनी मैम प्रिंसिपल सर आपको बुला रहे हैं।" रिशेप्सनिस्ट ने कहा।
नंदिनी प्रिंसिपल ऑफिस में गई।
"मैडम मैं जानता हूँ कि आपके साथ बहुत गलत हुआ, पर आप मेरी विवशता भी समझ सकती हैं, फिर भी मैं यही कहूँगा कि एक अच्छे टीचर को जाने देना स्कूल और बच्चे दोनों के लिए ठीक नहीं, मैं आपसे अभी रुकने के लिए नहीं कहूँगा, आप घर जाइए, मैं शाम को आपसे फोन पर बात करूँगा।" प्रधानाचार्य ने कहा।

"जी सर बात जरूर कीजिएगा पर वापस आने के लिए मत कहिएगा प्लीज़।" कह कर नंदिनी बाहर आ गई। वाइस प्रिंसिपल, स्पोर्ट टीचर सभी ने नंदिनी को समझाने का प्रयास किया कि उसे रुक जाना चाहिए, दूसरे को समझाना जितना आसान होता है, उतना स्वयं पर लागू कर पाना नहीं। इस सत्य को जानते हुए भी लोग दूसरों को उन्हीं बातों पर अमल के लिए समझाते हैं, जिन पर वो स्वयं अमल नहीं कर सकते। वही सब उस समय नंदिनी के साथ हो रहा था, पर उसे एक और बात भीतर ही भीतर आहत कर रही थी कि सभी ने उसे सांत्वना देने और समझाने का प्रयास किया पर वही एक बार भी नहीं आए जिनके कहने से उसने इस स्कूल को अपना कर्मक्षेत्र बनाया था। ऐसा संभव नहीं था कि उन्हें पता न हो, नंदिनी ने मैसेज देकर बुलवाया भी था फिर भी न जाने क्यों अभिनव शर्मा ने एक बार भी आकर सत्य जानने की आवश्यकता नहीं समझी।

बस में बैठी हुई नंदिनी का रह-रहकर गला भर आता, आँसू उसके गालों पर ढुलक आते तो कोई देख न ले यही सोचकर वह जल्दी से पोंछ लेती। तीन सालों से काम करते हुए जिस स्कूल को वह अपना घर समझने लगी थी, वहाँ से उसे उसके समर्पण का उसकी मेहनत का ऐसा पुरस्कार मिलेगा उसने कभी सोचा भी नहीं था। कभी उसे उन बच्चों की याद आती जो उसको अपना आदर्श मानते थे और उनको नंदिनी अपने बच्चों की तरह प्यार करती थी। उनके जन्मदिन पर उपहार स्वरूप उनको चॉकलेट देना क्रिसमस पर उनको उपहार देना ये एक कक्षाध्यापिका के नाते पूरे स्कूल में सिर्फ वही करती थी। आज वह उन्हीं बच्चों से बिना बताए अचानक हमेशा के लिए अलग हो गई। यही सब सोचकर वह रो पड़ती। आस-पास बैठे यात्रियों से अपने आँसू छिपाने के लिए उसने अपना सिर आगे वाली सीट के बैकरेस्ट पर टिका लिया। घर आकर उसने सारी बातें प्रखर को बताईं तो उसने उसे सांत्वना दिया और कहा- "कोई बात नहीं, उन्होंने एक बहुत ही अच्छी टीचर खोई है परेशान उन्हें होना चाहिए, तुम्हें नहीं।" नंदिनी को उस समय बहुत सहारा मिला जब प्रखर ने ऐसा बोला।
अचानक अलार्म की आवाज सुनकर नंदिनी चौंक गई और भूत से वर्तमान की धरातल पर आ गई, उसने मोबाइल उठाकर अलार्म बंद किया। सुबह के चार बज गए यह जानकर भी वह सोने की कोशिश में फिर से आँखें बंद करके लेट गई।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शुक्रवार

माँ बिन मायका

माँ बिन मायका
वही बरामदा है और बरामदे में बिछा हुआ तख्त भी वही है, जो आज से कई साल पहले भी हुआ करता था और उस पर बैठी देविका आज भी अपने मायके से ससुराल जाने को तैयार बैठी थी पर आज यहाँ के दृश्य के साथ-साथ रिश्ते, रिश्तेदार, भावनाएँ और सोच सब बदल चुके थे। दो साल पहले जब वह यहाँ से विदा हो रही थी तब माँ को बीमार हालत में छोड़कर जा रही थी, जाते-जाते बार-बार अपनी भाभियों से भाई से गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि माँ की तबियत की खबर उसे देते रहें। सबने उसे सांत्वना भी दिया था। बाबू जी से भी यही कह कर गई थी वह, पर तबियत की खबर देना तो दूर, माँ इस दुनिया को ही छोड़ गईं और किसी ने उसे बताने की जरूरत नहीं समझी।
वह जब भी मायके आती तो माँ उसे इसी बरामदे में या बाहर चौक में बैठी मिलतीं, चूँकि उसके आने का समय सुबह का ही होता था और अक्सर वह सर्दियों में ही आती थी तो माँ कभी अलाव के पास बाबूजी के साथ बैठी हाथ सेंकती मिलतीं, तो कभी चाय पीती या कुछ और काम करती हुई। वह जैसे ही बड़े से गेट पर आकर खड़ी होती तो माँ-बाबूजी उसे स्तब्ध होकर ऐसे टकटकी लगाए देखते रहते जैसे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही न हो रहा हो। उन्हें लगता कि अगर वो पलकें झपकाएँगे तो वह गायब हो जाएगी। जब उन्हें उसके आने का पूरी तरह विश्वास हो जाता तो माँ अपने घुटनों के दर्द को भूलकर वहाँ से उठकर तेजी से चलकर आने की कोशिश करतीं , उन्हें ज्यादा न चलना पड़े इसलिए वह भी जल्दी-जल्दी चलकर माँ के पास पहुँच जाती और उनके गले लग जाती। माँ की बाँहों में सिमटकर वह फिर छोटी सी बच्ची बन जाती। मन करता कि अब वह कभी उनसे अलग न हो। फिर माँ उसका बैग उठाने के लिए बढ़तीं पर 'मैं खुद रख दूँगी न तुम परेशान मत हो', कहकर वह बैग उठाकर लाकर बरामदे में इसी तख्त पर रख देती थी। माँ अलाव के पास उसके लिए बिड़वा (सूखे पुआल से बना बैठने का आसन) रख देतीं और किसी को भेजकर बहू को चाय-नाश्ता लाने को कहलवा देती थीं। वह जब तक यहाँ रहती माँ की दुनिया उसके और बच्चों के आसपास घूमती। वह कभी उसे अकेली नहीं छोड़तीं, उसके बच्चों ने कुछ खाया या नहीं? उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, उनको कुछ नया खाने का मन तो नहीं, बस हमेशा हर तरह से इसी कोशिश में रहतीं कि शहर से आई उनकी बेटी और बच्चों को कोई परेशानी न हो। यहाँ घर में सभी हैंडपंप के ताजे पानी से नहाते थे पर देविका और बच्चों को पानी गर्म करके नहाने की आदत थी, इसलिए माँ ईंटों को जोड़कर चूल्हा बनाती थीं और उसपर इनके नहाने के लिए खुद पानी गर्म करती थीं।
जब वह वापस जाने की बात माँ को बताती थी कि फलाँ दिन को उसे जाना है तो वह उसे उदास होकर पहले चुपचाप देखतीं फिर कहतीं "क्या इतनी जल्दी जाना जरूरी है, कुछ दिन और नहीं रुक सकतीं?"
"रिज़र्वेशन है माँ, बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान होगा।" कहकर वह नजरें झुका लेती, उस समय उनकी आँखों की बेबस नमी उससे सहन नहीं होती थी। उनकी आँखों में न जाने कैसी गहरी उदासी और शायद उसके लिए कुछ न कर पाने की छटपटाहट होती थी, जो कि देविका को भीतर तक हिला देती थी। एक बार माँ ने कहा भी था कि नाना के खेतों के बिकने के बाद उसे भी एक लाख रूपए देंगी और बाबूजी भी यहाँ प्रॉपर्टी में भाइयों के बराबर हिस्सा तो नहीं दे पाएँगे पर कुछ रूपए जरूर देंगे उसका अधिकार नहीं मारेंगे।" तब उसने माँ से यही कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, रिश्तों में प्यार बना रहे, बस यही उसके लिए जरूरी है। पर माँ ने कहा, "जो जिसका है वो तो देना ही है, हम ज्यादा तो नहीं कर सकते पर थोड़ा-बहुत जितना कर सकते हैं वो तो करेंगे ही।" पर उसने महसूस किया था कि माँ अपने बेटों के सामने उसके अधिकार की बातें नहीं कर पाती थीं, कारण वह भी जानती है कि गाँवों में आज भी बेटियों को मायके की जमीन-जायदाद में हिस्सा नहीं दिया जाता, इसीलिए माँ कहने में झिझकती थीं और यही कारण था कि उसने भी कभी नहीं सोचा कि वह भाइयों से हिस्सा ले परंतु माँ तो बस ममता लुटाने पर आए तो सागर की गहराई कम पड़ जाए, लेकिन ममता के अधीन उनकी बेबस आँखें देखकर कभी-कभी तो उसे माँ पर भी गुस्सा आता, मन करता कि कह दे कि "जब इतना चाहती हो मुझे तो बेटों के बराबर अधिकार देने में और उनके समक्ष बोलने में डरती क्यों हो?" लेकिन अच्छा ही है कभी नहीं बोली।
जिस दिन उसे वापस जाना होता तब बरामदे में रखे इसी तख्त पर बैठकर कपड़े बैग में रखती और माँ गुड़, मुरमुरे, अचार, घी और न जाने क्या-क्या लाकर उसके लिए रखने लगतीं तब उसे बार-बार मना करना पड़ता था कि कैसे इतना सबकुछ ले जाएगी। उनका वश चलता तो वह गेहूँ, चावल, दाल भी बाँध देतीं। उसी तख्त पर बैठी बहुओं से सामान मँगवा-मँगवा कर रखती जातीं, कभी-कभी हाथ जहँ के तहँ रुक जाते और उसे एकटक देखने लगतीं जैसे उसकी छवि को आँखों में बसा लेना चाहती हों। फिर बाबूजी के दिए पैसे तो उसे देतीं ही और अपने पास जोड़कर रखे चार-पाँच हजार रुपए उसे और देतीं। उस समय उन्हें देखकर ऐसा लगता जैसे वह अपनी बेटी को न जाने क्या-क्या और कितना दे देना चाहती हैं पर फिर भी उन्हें कम लग रहा है। उसके बच्चों को गाँव के कपड़े पसंद नहीं आएँगे इसलिए उनके कपड़ों के पैसे अलग और आशीर्वाद के पैसे अलग से देती थीं। गाँव में रहते हुए भी वह अपनी बेटी-दामाद और उनके बच्चों के लिए खुलकर खर्च करती थीं।
उसे लगता है कि शायद यही कारण होगा कि भाईयों ने माँ की बीमारी की खबर उसे नहीं दी कि कहीं माँ ने उसे वह सब देने की बात कर दी, जो वो देना चाहती हैं, तो ऐसी स्थिति में वह मना नहीं कर पाएँगे, इसलिए उसको न बताने में ही भलाई समझा। उसे किसी अन्य से उनकी बीमारी की खबर मिली और वह भागती चली आई थी। भाई से तो जब भी फोन पर बात होती तो वह 'माँ ठीक हैं' कहता और उनके आस-पास न होने का बहाना बनाकर बाद में बात करवाने का वादा करके फोन रख देता और फिर दुबारा फोन ही नहीं करता था। माँ इस दुनिया को छोड़ गईं पर उसके भाइयों ने
उसे बताने की आवश्यकता नहीं समझी।
उनकी तेरहवीं से दो-तीन दिन पहले उसे पट्टीदार के ही किसी अन्य सदस्य ने फोन करके बताया अन्यथा वह इस बात से अंजान ही रहती कि अब उसके सिर से ममता का साया हट चुका है। वह बहुत तड़पी थी, जितना माँ के जाने से रोई थी उतना ही अपनी उपेक्षा के दर्द से बिलखी थी। जमीन-जायदाद धन-दौलत तो उसे कभी चाहिए ही नहीं थे पर उससे तो उसके बेटी होने का अधिकार भी छीन लिया गया था और वह कुछ न कर सकी।
उसने फ़ैसला कर लिया था कि अब वह कभी नहीं जाएगी वहाँ। आखिर अब उसका है भी क्या वहाँ? माँ थीं वो चली गईं। फिर क्रोध थोड़ा शांत हुआ तो उसने खुद को समझाया कि बाबूजी हैं, उसे जाना चाहिए उनके पास। आखिर वो भी तो अकेले हो गए होंगे, पता नहीं उनकी कैसी हालत होगी और उनसे पूछना भी तो है कि भाईयों ने नहीं बताया तो वो भी तो बता सकते थे।
वह बाबूजी मिलने अकेली आई और तब उन्हें अकेले इसी तख्त पर लेटे पाया। उसे देखते ही बाबूजी रो पड़े और उन्हें फूट-फूटकर रोते देख देविका खुद को भी रोक नहीं पाई, वह भी रो पड़ी थी। बाद में उन्होंने उसे बताया कि उसके भाइयों ने उनसे झूठ बोला था कि उन्होंने उसे माँ के गोलोक गमन की सूचना दे दी थी। उनको तो यही लगता था कि देविका सबकुछ जानने के बाद भी नहीं आई। उसने सभी को दोषी ठहराते हुए पहली बार कठोर शब्दों में फटकारा था, पहली बार घर की बड़ी बेटी होने के अधिकार से डाँटा था और तब किसी ने फोन खराब होने और किसी ने फोन नं० न मिलने के अविश्वसनीय बहाने बनाए थे।
देविका को माँ के बगैर घर काटने को दौड़ता महसूस हो रहा था। हालांकि अब तो उसका एक भाई भी पुराने वाले घर से यहीं इस नए घर में रहने लगा था ताकि रात को बाबूजी को अकेले न रहना पड़े, तब भी देविका के लिए एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। जैसे पहले माँ उसका ख्याल रखा करती थीं इस बार बाबू जी ने रखा और उन्होंने भी वही दोहराया जो माँ कहा करती थीं कि उसे उसका अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह माँ की अंतिम इच्छा जरूर पूरी करेंगे और उन्होंने मौसी के बेटे से इसकी बात भी कर ली है। देविका को महसूस हुआ कि उसके बाबूजी के स्वभाव में पहले से कितना अधिक परिवर्तन आ गया है। माँ के रहते वह कभी नहीं पूछते थे कि उसने खाना खाया या नहीं, उसे किसी चीज की आवश्यकता तो नहीं! या शायद जरूरत ही नहीं पड़ी, उन्हें पता होता था कि माँ खुद से पहले उसका ध्यान रखती थीं और अब माँ के अभाव में वह माँ के हिस्से की जिम्मेदारी भी स्वत: निभाने लगे। शायद उन्हें अपने बहू-बेटों की लापरवाही का भी बोध था, इसीलिए वह ज्यादा सजग हो गए थे।
वापस जाने का समय आया तो फिर वही बरामदा और वही तख्त, पर वहाँ जल्दी-जल्दी उसके लिए ज्यादा से ज्यादा चीजें देने को लालायित माँ नहीं थीं। बाबूजी उससे दो कदम की दूरी पर कुर्सी पर बैठे थे, वह अपने कपड़े बैग में रख रही थी पास ही दोनों भाभियाँ खड़ी थीं, पर आज उसे भेंट में देने के लिए उनके पास चंद रुपयों के अलावा कुछ न था। जब भाभियों ने उसे पैसे देना चाहा तो उसने मना किया पर बाबूजी की ओर देखकर उसे लगा कि उन्हें दुख होगा अगर वह खाली हाथ चली गई तो, इसलिए जब भाभी ने दुबारा आग्रह किया तो उसने चुपचाप रुपए पकड़ लिए। फिर बाबूजी ने भी अपनी जेब से रुपए निकाल कर उसे दिए तो उसे माँ की वही आदत याद आ गई जब वह उनके दिए गए पैसों में अपने पास से भी मिलातीं फिर देती थीं। उसने भरी आँखों से बाबूजी के धुँधलाते चेहरे की ओर देखते हुए चुपचाप रुपए ले लिए और भाई के साथ गाड़ी की ओर बढ़ गई। बाबूजी भी बाहर तक उसे छोड़ने आए और अपना और बच्चों का ख्याल रखने की हिदायत के साथ उसे आते रहने को कहा और भाई ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
ज्यों-ज्यों गाड़ी पगडंडी की ओर आगे बढ़ती जाती बाबूजी की आकृति और धुँधली होती जाती, माँ के अभाव में उसे आज घर का वह बड़ा सा गेट कितना सूना निर्जीव प्रतीत हो रहा था। 'माँ बिन मायका' उसके मुँह से अनायास ही निकला और पलकों के बाँध को तोड़कर आँसुओं की बूँदें गालों पर ढुलक आईं।

अपने घर पहुँच कर उसने अपने सकुशल पहुँचने की खबर बाबूजी को फोन करके दे दिया था। उसके बाद वह इंतजार करती रही कि शायद कभी भाई का फोन आए या भाभी फोन करके उसकी कुशलक्षेम पूछेंगी, पर ऐसा अवसर कभी नहीं आया। उसने भी सोच लिया कि अब वह भी फोन नहीं करेगी पर दूसरे ही पल बाबूजी का मुर्झाया चेहरा ध्यान आ गया और उसने सोचा कि आखिर इसमें उनकी क्या गलती हो सकती है, उन्हें तो शायद नंबर भी नहीं पता होगा और ऐसा ख्याल आते ही उसने अपने बाबूजी के मोबाइल पर ही फोन किया और फिर काफी देर तक उनसे बात की। उसका फोन आने से बाबूजी भी बहुत खुश हुए, जैसे पहले माँ होती थीं। अब तो वह फोन पर वो उससे घर-परिवार और फसल की बातें भी करने लगे थे जबकि पहले वह उसके बारे में माँ से ही पूछा करते थे, उससे तो बस हालचाल पूछ कर फोन रख देते थे।
अब देविका का नियम बन गया था कि हफ्ते-दस दिन में एक बार बाबू जी को फोन जरूर कर लेती थी और उनसे बात करके उसे तसल्ली मिल जाती थी। बीच में कई बार तो ऐसा भी हुआ जब उनका नंबर नहीं लगा तो उसने अपने भाई के मोबाइल पर भी फोन करके बाबूजी से बात की परंतु कभी भी उसके भाइयों या भाभियों ने उसे अपनी तरफ से फोन करने की औपचारिकता भी नहीं की। समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और एक समय ऐसा भी आया जब उसने अपने बाबूजी को फोन किया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया, उसने सोचा शायद फोन दूर रखा होगा इसलिए पता नहीं चला होगा, वह बाद में कर लेगी। परंतु कुछ घंटों बाद फोन करने पर फिर उन्होंने नहीं उठाया। उसे उनकी कही बात ध्यान आई कि पहले भी कई बार उनको फोन की घंटी धीमी होने के कारण सुनाई नहीं पड़ी थी तब उसने ही चाचा के लड़के को फोन किया था कि बाबूजी के मोबाइल में वैल्यूम बढ़ाने को कहा था। उसके बाद तो कभी ऐसा नहीं हुआ था कि फोन न उठाया हो। शायद इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। उसने अपने भाई को फोन किया कि वह उनसे उसकी बात करवा दे तो भाई ने कहा कि वह कहीं दूर किसी और गाँव में आया हुआ है, घर पहुँचकर बात करवा देगा। फिर वह इंतजार करती रही पर उसके भाई का फोन नहीं आया। इसी प्रकार कभी वह खुद फोन करने की कोशिश करती और कभी भाई से बात करवाने को कहती और वह नए-नए बहाने बनाकर टाल देता। लगभग एक महीना हो गया पर देविका अपने बाबूजी से बात नहीं कर पाई। अब उसको बेचैनी होने लगी कि कहीं  उनकी तबियत तो खराब नहीं हो गई? इन लोगों ने तो माँ के देहांत की खबर भी नहीं दी थी, तो अब कहीं.... नहीं नहीं...मेरे बाबूजी को कुछ नहीं हो सकता। वह बिल्कुल स्वस्थ होंगे। वह अपने मन को बहला लेती, उसने सोचा इस बार इतने दिनों से बात नहीं हुई तो हो सकता है कि वह खुद फोन कर लें। पहले भी एक बार कई दिनों तक बात नहीं हो पाई थी फिर जब भाई के मोबाइल पर फोन करके बात की थी तो उन्होंने ने बताया था कि शायद उनके मोबाइल का बैलेंस खत्म हो गया है, वह बाजार नहीं जा सके इसलिए रीचार्ज़ नहीं करवा पाए अब तक, तो देविका ने तुरंत ऑनलाइन उनका मोबाइल रीचार्ज करवा दिया था और उनको उन्हीं के मोबाइल पर फोन करके बताया कि अब उन्हें रीचार्ज के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं।  बाबूजी बड़े खुश हुए थे, हो सकता है कि इस बार भी कुछ ऐसा ही हो....पर फिर भी बहुत समय हो गया। इसी उधेड़-बुन में दो-चार दिन और निकल गए और अब देविका ने गाँव जाने का फैसला कर लिया।
उसने ट्रेन के रिजर्वेशन करवाने के लिए अपने पति से कहा कि 'जितनी जल्दी का टिकट मिल सके वो बुक करवा दें।' पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। ,
दोपहर के तीन या चार बज रहे थे कि देविका का मोबाइल बज उठा, उसे लगा बाबूजी का फोन होगा उसने तुरंत उठा लिया पर अंजाना नंबर देखकर फोन काटने ही जा रही थी कि शायद 'कोई काम का फोन हो', यही सोचकर उसने फोन उठाया और उसके हैलो बोलते ही दूसरी ओर से उसके चचेरे भाई की आवाज आई और उसने बताया कि बाबूजी उसे छोड़कर हमेशा के लिए जा चुके हैं। वह निश्चेष्ट होकर बैठी रह गई, उसे समझ नहीं आया कि क्या करे या क्या कहे...उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, अभी माँ को गए एक साल भी नहीं हुआ और अब बाबूजी भी उसे छोड़कर चले गए...पर कैसे? क्या वो बीमार थे? इसीलिए फोन नहीं उठा रहे और किसी ने उसे खबर नहीं की जैसे माँ के समय नहीं किया था। उसके दिमाग में आँधी सी चल रही थी, जीभ मानों तालू से चिपक गई वह बहुत कुछ बोलना चाहती थी पर होंठ हिलकर शांत हो गए। दूसरी ओर से आवाज आ रही थी कि "दीदी तुम आ रही हो न? तुम्हारा इंतज़ार करें?" "ह..हाँ" बस इतना ही बोल सकी वह और फोन बिना काटे रख दिया और उसी समय बस से ही गाँव के लिए निकल पड़ी।
रात भर का सफर उसे सदियों सा लग रहा था, बस अपने निर्धारित समय से दो-ढाई घंटे देर से पहुँची। इस बीच उसके भाई और चचेरे भाई के कई बार फोन आ चुके थे। अधिक देर होती देख भाई ने उसे बस स्टेशन से लाने के लिए मोटर साइकिल से चचेरे भाई को भेज दिया ताकि जल्दी आ सके। मोटर साइकिल से उतर कर वह दौड़ती-भागती घर में घुसी,

 बाबूजी की अंतिम विदाई की तैयारी हो चुकी थी, सबकी आँखें उसके इंतजार में मुख्य द्वार पर टिकी थीं पर उनमें न माँ की आँखें थीं और न ही बाबूजी की उस भीड़ में भी आज वह अकेली थी। बाबूजी के चेहरे से कपड़ा हटाकर उसे अंतिम दर्शन करने के लिए कहा गया। मंझली भाभी ने कुछ पैसे लाकर उसके हाथ में दिए कि वह अर्थी पर चढ़ा दे, तभी उसकी बड़ी भाभी उसके गले लगकर रोने लगी और उधर सभी लोग बाबूजी की अर्थी उठाकर मुख्य द्वार से बाहर निकल गए। वह तो बाबूजी को अभी ठीक से देख भी नहीं पाई थी, उन्हें जी भर कर देखना चाहती थी, भाभी को कंधे से पकड़कर अपने-आप से अलग किया और रोती हुई बाहर की ओर भागी। गाँव व परिवार की अन्य महिलाएँ भी थीं जो अर्थी के पीछे-पीछे चल रही थीं, गाँव के नुक्कड़ पर जाकर उसने उनके अंतिम दर्शन करके भाभी द्वारा दिए गए पैसे चढ़ाए और एक हारी हुई जुआरी की भाँति अपना सबकुछ गँवाकर खाली दामन लिए बेबस अपने सिर से बाप का साया हटते देखती रही।
थके हुए भारी कदमों से वह भी भाभियों, चाचियों और बुआ के साथ घर में लौट आई। रोते हुए उसने अपनी चाची से कहा कि इन लोगों में से किसी ने उसे एक फोन तक नहीं किया, नहीं तो वह बाबू जी से उनके जीते-जी मिल लेती। यह बताते हुए वह इस बात से अंजान थी कि उसकी बड़ी भाभी को उसका खुद से अलग करना बहुत बुरा लग गया था। वो  सभी को बता रही थीं कि किस प्रकार उन्होंने बाइस दिनों तक अस्पताल में बाबूजी की सेवा की और उनके पति ने कितना खर्च किया। देविका का मन कर रहा था कि वह अभी यहाँ से वापस चली जाए, अब उसका यहाँ कुछ भी नहीं है पर वह ऐसा नहीं कर सकती थी, इसलिए उसे रुकना पड़ा।
वही घर था वही बरामदा, वही आँगन और घर में रिश्तेदारों की भीड़, पर देविका बेहद अकेली थी, उसके लिए यह घर तो अब उस मंदिर के समान था जिसमें उसके भगवान की मूर्तियाँ ही न हों। इस खाली चारदीवारी में सिवाय घुटन के कुछ भी नहीं था। उसकी भाभियों को उससे बोलने की पता नहीं फुरसत नहीं थी या बड़ी भाभी को खुश करने का प्रयास था। बुआ और मौसी ही थीं जो उसके पास बैठतीं उससे बातें करतीं। अब तो गाँव की औरतें भी उसकी ओर देखतीं तो उनकी नजरों में उसके लिए सहानुभूति होती, जैसे कह रही हों- "बेचारी का मायका खत्म हो गया।" उसके लिए अब एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। बड़ी भाभी और भाई उससे दूर-दूर ही रहते, न जाने क्यों?
तेरहवीं संपन्न होते ही दूसरे ही दिन वह अपने घर जाने के लिए तैयार हो गई, रुकने के लिए चाची, बुआ, मौसी और मौसी की बहू ने कहा पर जिन्हें कहना चाहिए था उन्हें शायद डर था कि उनके कह देने से हो सकता है एक-दो दिन और रुक जाए, इसलिए उन्होंने नहीं कहा।
वह एक बार फिर वहीं बरामदे में बिछे उसी तख्त पर बैठी थी, बुआ, मौसी की बहू और छोटी मौसी उसके पास ही बैठी थीं। बुआ पूछ रही थीं "तैयारी कर ली?"
हाँ। उसने कहा।
"खाना खाया?" उन्होंने पूछा।
"हाँ सुबह खाया था।" उसने कहा।
"सुबह नहीं हम दोपहर की बात कर रहे हैं।" उन्होंने कहा।
"मुझे भूख नहीं है।" उसने कहा, जबकि सच यह था कि उसे भूख लग रही थी पर खाने के लिए किसी पूछा नहीं था और वह खुद खाना लेकर एक बार के लिए दोषी नहीं बनना चाहती थी।
"अरे भूख कैसे नहीं, शाम हो रही है। मैं लाती हूँ खाना।" कहते हुए मौसी की बहू उठ कर उस कमरे में गई जहाँ खाना व मिठाइयाँ रखी हुई थीं।
"मिठाई दिया तुम्हें खाने को और ले जाने के लिए रखा?" बुआ ने पूछा।
"नहीं मैं कुछ नहीं ले जाऊँगी।"
"अरे कल तक बाल्टी भर-भर कर मिठाइयाँ थी, बड़ी वाली के मायके वाले गए तो पता नहीं कि उसने सारी वहाँ भेज दी या फिर कहीं छिपा दिया पर कमरे में अब कोई मिठाई नहीं है।" मौसी की बहू ने बाहर आते हुए कहा।
"भाई बड़ी चालाक हैं ये बहुएँ। कोई खा न लें इसलिए छिपा दिया और अपने मायके वालों को ही देंगीं। इकलौती ननद के लिए भी अब कुछ नहीं है इनके पास।" बुआ गुस्से को भीतर ही भीतर पीती हुई बोलीं।
"आप नाहक परेशान हो रही हो, मैं तो वैसे भी कुछ नहीं लेकर जाने वाली हूँ। कहते हुए उसे माँ की याद आ गई कि कैसे माँ उसके लिए न जाने क्या-क्या बाँधने को तैयार रहती थीं जब-जब वह ससुराल जाती थी। तभी उसकी मंझली भाभी आई और उससे पूछा- "दीदी मुरमुरे और गुड़ रख दें ले जाओगी?" 
"नहीं, मैं कुछ नहीं ले जाऊँगी।" उसने कहा।
"गुड़ क्यों मिठाई नहीं बची है क्या?" बुआ बोलीं।
"हाँ थोड़ी है, आप कहो तो रख दूँ दीदी।" भाभी उसकी ओर देखते हुए बोली।
"नहीं, मैं कुछ भी लेकर नहीं जाऊँगी, किसी को मेरे लिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।" उसने कठोरता से इतनी तेज आवाज में कहा ताकि उसकी आवाज बरामदे के दूसरे छोर पर बैठे उसके बड़े भाई-भाभी को सुनाई पड़ सके।
उसने अपनी बेटी से पर्स मँगवाया और उसमें से पैसे निकाल कर अपनी भाभी को दिया यह कहते हुए कि बाबूजी की अंतिम यात्रा में मेरे द्वारा जो पैसे चढ़ाए गए वो मेरे ही होने चाहिए, इसलिए ये पैसे तुम्हें रखने ही पड़ेंगे। इस प्रकार उसने यह जता दिया कि अब वे लोग उसे बोझ न समझें, वह उनका एक भी पैसा अपने लिए नहीं लेगी।
शाम को वह जाने लगी तो मंझली भाभी ने सभी के समक्ष औपचारिकता पूरी करते हुए कहा कि "आती रहना दीदी, माँ-बाबूजी नहीं हैं तो क्या हम तो हैं।" पर उसने कुछ नहीं कहा, पर उसके दिल से जरूर आवाज आई कि तुम एक बार फोन करोगी तो मैं भागी चली आऊँगी। उसे पता था कि अब कोई उसे फोन नहीं करेगा, उसके पास फोन आने तो तभी बंद हो गए थे जब माँ बीमार पड़ीं।
आज उसकी आँखें फिर भर आईं, चाहकर भी वह अपने आँसू रोके न सकी पर वहाँ कोई न था जिसके कंधे पर वह सिर रखकर रो पाती, उसने तुरंत हाथ में पकड़े रुमाल से अपना चेहरा साफ किया और बाहर आ गई।  घर की चौखट से बाहर पैर रखते ही उसे लगा कि अब उसका मायका खत्म हो गया। उसका बचपन, उसकी जवानी सब पीछे उस चारदीवारी में छूट गया, बस अगर कुछ रह गया है तो वो हैं यादें। अंतिम बार वह जी भर कर अपने जीवन के उस हिस्से को देख लेना चाहती थी जो कल से उसके लिए अंजान हो जाने वाले हैं।
देविका भाई की गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी चल पड़ी। वह तब तक अपने उस घर को अपनी आँखों से दूर होते हुए देखती रही जब तक कि गाड़ी गाँव के आखिरी छोर के नुक्कड़ तक पहुँचकर मुड़ नहीं गई। उसका मन बार-बार कर रहा था कि वह गाड़ी से उतर कर भाग कर वापस जाए और अपने घर की दीवार से लिपट जाए। मन उस घर की माटी को चूमने को मचल रहा था, जिसमें उसके माँ-बाबूजी की खुशबू बसी है, पर यह इच्छा अब सिर्फ उसकी कल्पनाओं में ही पूरी हो सकती है।
भाई उसे बस-स्टेशन पर छोड़कर वापस जाने लगा तभी हर बार की भाँति इस बार भी वह बोलने वाली थी कि 'माँ-बाबूजी का ख्याल रखना।' पर मुँह से 'माँ' निकलते ही उसे याद आ गया कि अब घर पर उसके लिए फिक्रमंद होने वाली माँ नहीं हैं और न ही बाबूजी। याद आते ही वह चुप हो गई। भाई भी शायद समझ गया, इसलिए बिना कुछ बोले चला गया।

देविका बस से वापस अपनी ससुराल आ गई। और दूसरे ही दिन वह एक फाइल लेकर अपने वकील से मिलने पहुँच गई। काफी देर तक उससे बात करने के उपरांत घर वापस आ गई। लगभग एक हफ्ते के बाद फोन करके उसने अपने वकील को घर बुलाया। वकील को घर आया देखकर राकेश को आश्चर्य हुआ। वह पूछ बैठा, "देविका वकील को क्यों बुलाया है?"
"राकेश बताती हूँ, पर वादा करो मेरे काम में बाधा नहीं डालोगे।" वह बोली।
"तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारे काम में बाधा डालूँगा?" राकेश बोला।
"राकेश! भगवान ने हमें एक बेटा और एक बेटी देकर हमारा परिवार पूरा कर दिया है, दोनों हमारे लिए बराबर हैं, है न?" वह बोली।
"हाँ, पर मैं समझा नहीं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो?"
"वो इसलिए क्योंकि हम नहीं जानते कि हमारे बाद भी हमारी बेटी का मायका सुरक्षित रहेगा ही, इसकी कोई गारंटी तो नहीं है न? इसलिए मैंने इस घर का आधा हिस्सा हमारी बेटी के नाम करके उसका मायका सुरक्षित कर दिया, अब प्रॉपर्टी के कारण ही सही, पर रिश्ते और दोनों जीवित रहेंगे।
राकेश नि:शब्द हो देविका का चेहरा देखता रहा इस समय उसके चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि उसके मन में क्या चल रहा है, वह भावशून्य सी फाइल के पन्ने पलट-पलट कर देख रही थी।

चित्र...साभार..गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️