रविवार

आरक्षण विकास में बाधा

 जब परिवार मे कोई एक बच्चा अन्य बच्चों की तुलना में शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर या असक्षम होता है तो यह आवश्यक हो जाता है कि माता-पिता अपनी उस संतान का अन्य संतानों की तुलना में अधिक ख्याल रखें व उसकी विशेष देख-रेख करें ताकि वह बच्चा भी परिवार के अन्य बच्चों की तरह अपना जीवन निर्वाह कर सके | ऐसा करना तो माता-पिता का धर्म है जिसे वो बिना किसी दबाव स्वेच्छा से करते हैं, किंतु अगर परिवार के अन्य बच्चे इसका गलत अर्थ निकाल कर स्वयं के लिए भी उसी प्रकार की विशेष सुरक्षा, विशेष संरक्षण की मांग करने लगे तो उस परिवार का क्या भविष्य होगा ? पिता की कमा-कमाकर कमर टूट जाएगी और घर में सदैव कंगाली का राज होगा क्योंकि तब ईर्ष्यावश सक्षम सदस्य भी नाकारा होकर बैठा होगा और पूरे परिवार का अकेला खेवन हार अकेला पिता ही होगा, क्या ऐसा घर कभी-भी संपन्न हो सकता है? सवाल ही नही उठता....एक कहावत है- बैठे मिले खाने को तो कौन जाए कमाने को,  और जब कमाएँगे ही नही तो विकास कैसा??? इस समय बिल्कुल ऐसी ही स्थिति हमारे देश की है......
चारों ओर आरक्षण की आग धधक रही है....
हमारा समाज आज के परिप्रेक्ष्य में इतना पंगु हो चुका है कि उसे सही-गलत में या तो चुनाव करना नहीं आता या फिर वह स्वार्थ में इतना अंधा हो चुका है कि अपने अतिरिक्त कुछ और सोच ही नही पाता | आरक्षण अपनी अकर्मण्यता को पोषित करने का भी एक साधन है....आज व्यक्ति बिना परिश्रम किए सब कुछ पा लेना चाहता है...उसे कर्म से नही सिर्फ सकारात्मक परिणाम से मतलब है, क्यों नही व्यक्ति कर्मठता को  पोषित करता?? जितनी आग लोगों के भीतर आरक्षण पाने की धधकती है उतनी ही आग यदि परिश्रम की धधके तो हमारा देश अन्य विकसित देशों से किसी भी दृष्टि से पीछे न होगा परंतु ऐसा इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है क्योंकि इस देश के द्वारा पोषित इसी के कपूतों ने ही विकास के मार्ग को अवरुद्ध करने के जाल बिछा रखे हैं और अपने रुतबे अपने ओहदों का दुरुपयोग करते हुए सिर्फ अपने स्वार्थ साधना हेतु आम जनता को भड़काते हैं और स्वयं तमाशबीन बनकर देश को आरक्षण के आग में जलते हुए देखते हैं | ऐसा करके ये प्रत्यक्ष रूप से कुछ हासिल तो नही कर पाते किंतु अपने उस विरोधी की छवि पर एक काला धब्बा जरूर लगा देते हैं जो इनके विपरीत देश को विकास की ओर ले जाने के लिए प्रयासरत होता है....जो दिन-रात परिश्रम करके देश को विकास की ओर अग्रसर करता है......ये आगजनी और दंगे-फसाद के द्वारा देश को फिर से वापस लाकर वहीं खड़ा कर देते हैं जहाँ से उसके विकास की यात्रा का आरंभ हुआ था |

आज क्या सचमुच हमारे देश में आरक्षण की आवश्कता है?? और यदि है तो जिन्हें है उन्हें इसका लाभ कहाँ मिल पाता है..
ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ आज भी गरीबी ने अपना दामन पसारा हुआ है, जहाँ आज भी लोग अशिक्षित और बेरोजगार हैं वो तो आरक्षण के विषय में पूरी तरह से जागरूक भी नहीं हैं, आरक्षण का लाभ उठाना तो दूर की बात है|आज आरक्षण का लाभ भी वही लोग उठा पाते हैं जो शिक्षित और संपन्न हैं, जिसका परिणाम ये होता है कि अमीर और अमीर होता जाता है और गरीब और अधिक गरीब होता जाता है....कुल मिलाकर इस आरक्षण से उस समस्या का समाधान नही हुआ जिसके लिए इसका आरंभ हुआ था|तो फिर आवश्यकता क्या है इसकी???
आरक्षण समाज व देश के हित में होना चाहिए, उनको विनाश के गर्त में ले जाने के लिए नही परंतु आज इस "आरक्षण" नाम का ही दुरुपयोग होने लगा है, जिसका मन समाज का नुकसान करने या पब्लिसिटी पाने का होता है वही आरक्षण का मुद्दा उठा देता है....या फिर राजनीति के क्षेत्र में जो भी पार्टी दूसरी पार्टी या सरकार की छवि खराब करना चाहती है वो कुछ असामाजिक किस्म के तत्वों को मोहरा बनाकर आरक्षण को हथियार बनाकर समाज में असंतुलन पैदा कर देते हैं, फलस्वरूप होता क्या है राज्य व देश का विकास फिर से दशकों पीछे चला जाता है|

अभी हाल ही में हुए गुजरात दंगे को ही ले लें, इस दंगे ने कितने घरों के दीये बुझा दिए, कर्फ्यू लगा, बंद हुआ इस गुजरात बंद के दौरान अनाज,डायमंड और इलेक्ट्रॉनिक का बाजार पूर्ण रूप से बंद रहा एक समाचार के अनुसार रोज लगभग दस हजार करोड़ का नुकसान हुआ, केमिकल इंडस्ट्री में लगभग एक हजार करोड़, टेक्सटाइल में लगभग दो हजार करोड़ का नुकसान रोजाना हुआ इसके अतिरिक्त एएसटीएस में लगभग ४.१८ करोड़ तथा बीआरटीएस को लगभग ३.६६ करोड़ का नुकसान हुआ| अहमदाबाद में ११.४३  करोड़ का नुकसान हुआ २५ से ज्यादा सरकारी कार्यालय, तीन मंजिला मॉल, फायर ब्रिगेड का दफ्तर, ए.टी.एम. इन सबको आग के हवाले कर दिया गया......किसको फायदा हुआ इस दंगा स्वरूपी आंदोलन से ?
क्या इससे ऐसा नही प्रतीत होता कि यह आंदोलन सिर्फ सरकार गिराने या सरकार की छवि खराब करने के लिए किया गया, आंदोलन का ऐसा स्वरूप तो कतई नही होता....जहाँ पर किसी की मदद हेतु सामने खड़ी भीड़ में से एक-दो व्यक्ति भी निकल कर नहीं आते, क्योंकि उन्हे अपना समय किसी की जिंदगी से ज्यादा कीमती लगता है.......वहाँ लाखों की संख्या में भीड़ यूँ ही तो नहीं एकत्र हो सकती है............
निःसंदेह उस भीड़ को एकत्र करने हेतु इतना पैसा खर्च किया गया होगा जो उनके समय की कीमत से कहीं अधिक होगा...........और इतना पैसा खर्च करना आंदोलन कारी मुखिया के अकेले के बस की बात तो नहीं फिर क्यों न यही समझा जाये कि ये आंदेलनकारी किसी बड़ी बाजी का एक मोहरा मात्र है, नहीं तो जो गुजरात २००२ से चैन-ओ-अमन से सांसें ले रहा था, जिसकी गर्विता के गुण पूरे भारत में गाए जाते थे, उसी गुजरात को आंदोलन की आग में जलाना इतना आसान न होता|
समाज का संपन्न वर्ग यदि आरक्षण पाने हेतु स्वयं को ओ.बी.सी. का दर्जा पाने की माँग करने लगे तो बेचारे सचमुच के ओबीसी क्या करेंगे....
आज गुजरात के सम्पन्न पटेल वर्ग को आरक्षण चाहिए, जाट वर्ग जो कि संपन्न वर्ग ही है वो पहले से ही आरक्षण की लाइन में खड़े हैं........ जो आरक्षण पाने के लिए रेलों की पटरियाँ उखाड़ कर तो अपनी ताकत का प्रदर्शन कर सकते हैं परंतु जहाँ परिश्रम करके रोजगार हासिल करने की बात आती है तो उसके लिए आरक्षण चाहिए.......कल को राजपूत वर्ग और फिर ब्राह्मण वर्ग को भी आरक्षण चाहिए होगा........और इसे माँगने का तरीका.......हिंसक आंदोलन.......फिर देश को इस आरक्षण रूपी दानव से क्या प्राप्त हुआ ? सिर्फ अकर्मण्य कर्मचारी और आंदोलन के रूप में दंगे-फसाद........बस यह आरक्षण रूपी जहर समाज को जहरीला बना रहा है, विकास में बाधा है यह आरक्षण........इसके कारण अयोग्यता को आरक्षण मिलता है और योग्यता को बेरोजगारी.........
कॉलेजों में प्रवेश हेतु १०℅ की छूट मिलती है आरक्षित वर्ग को.......उस समय उस बच्चे के दिल पर क्या बीतती होगी जो दिन-रात परिश्रम करके योग्यता हासिल तो कर लेता है परंतु उसका स्थान वह बच्चा ले जाता है जो योग्यता मे उससे १०℅ पीछे होता है परंतु आरक्षण की बैसाखी उसका सहारा बन जाती है.....क्या इस प्रकार हम देश को विकसित देश बना पाएँगे?  योग्यता ही विकास का आधार होती है और आरक्षण देश को अयोग्यता प्रदान कर रहा है.......शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार का आरक्षण हर जगह रुकावट बनता है....तो क्यों नहीं आरक्षण को ही समाप्त कर दिया जाए........
यदि आरक्षण देना आवश्यक ही है तो समाज के उस वर्ग को मिलना चाहिए जो आर्थिक रूप से कमजोर है या फिर देश के उन सपूतों के परिवार को जो देश बचाते-बचाते शहीद हो गए..इसके अलावा मैं नही मानती कि आरक्षण का किसी अन्य रूप मे कोई फायदा है.....देश के विकास का आधार योग्यता होनी चाहिए न कि जातिगत आरक्षण......जातिगत आरक्षण व्यक्ति में आगे बढ़ने की भावना का विकास नहीं करती बल्कि बिना परिश्रम दूसरों को पीछे ढकेलने की भावना को विकसित करती है, यह योग्यता का मार्ग अवरुद्ध करके अयोग्यता को जबरन आगे ढकेलने का कार्य करती है.....परिणाम स्वरूप परिश्रम व बुद्धिमत्ता कुंठित होती है, उसका अपमान होता है और ऐसी स्थिति में एक योग्य प्रतिभागी भी यही सोचने पर विवश हो जाता है कि काश वह भी किसी एस.सी. ,एस.टी. या ओ.बी.सी. के घर पैदा हुआ होता तो आज उसकी योग्यता को आरक्षण से न हारना पड़ता....
आरक्षण सिर्फ व्यक्ति का ही नही देश के विकास को भी अवरुद्ध कर रहा है, जिस देश के कार्यालयों में, मिनिस्ट्री में, या देश को आर्थिक आधार देने वाले विभागों में योग्यता की बजाय अयोग्यता का वर्चस्व होगा वहाँ कैसा विकास ????

ऐसी परिस्थति में सरकार को चाहिए कि जातिगत आरक्षण को पूर्णतः समाप्त कर दिया जाना चाहिए और इसका आधार पूर्ण रूप से आर्थिक पिछड़ापन और सैनिकों की शहादत होना चाहिए........
मैं जानती हूँ वर्तमान परिस्थतियों में सरकार विरोधी गतिविधियाँ जिस प्रकार एकत्र होकर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए प्रयासरत हैं ऐसी परिस्थिति में यह कदम उठाना सरकार के लिए सहज नही है किंतु कहीं न कहीं से शुरुआत आवश्यक है, यदि देश का विकास चाहिए तो देश में योग्यता को बढ़ावा देना होगा न कि आरक्षण को...........

जातिगत आरक्षण आज हमारे समाज और देश के लिए अभिशाप बन चुका है इसका समाप्त होना आवश्यक है......

साभार
मालती मिश्रा

शुक्रवार

बदलता समय

बदलता समय
बस से उतरते ही मैंने एक गहरी सांस ली मुझे इतना सुकून मिल रहा था जैसे कि कितने लम्बे समय के अंतराल के बाद मैने खुली हवा में सांस लिया हो, थोड़ी देर पहले गाड़ियों के जो हॉर्न मुझे अत्यंत कष्टदायी प्रतीत हो रहे थे वही अब मुझे निष्क्रिय लग रहे हैं, मैं पिछले करीब आधे घंटे से ट्रैफिक में फंसी हुई थी...
जब बस थोड़ी सी खिसकती तो हवा लगती तब जरा सी राहत की सांस लेती और  बस फिर रुक जाती, पता नहीं कितने समय में चलेगी? एक तो मौसम उमस भरा फिर गाड़ियों का शोर और धुआँ...पीछे खड़ी गाड़ियों में बैठे ड्राइवर आगे जाने के लिए उतावले हो रहे थे, ये जानते हुए भी कि आगे रास्ता नही है वो हॉर्न पे हॉर्न बजाए जा रहे थे..मन में आ रहा था कि अभी बस से उतरूँ जाकर बोलूँ इन्हें कि अगर इन्हें संभव लगता है तो ये उड़कर चले जाएँ क्योंकि आगे वालों के लिए तो ये संभव नही ....हर चेहरे पर एक ही सवाल था कि ये ट्रैफिक जाम क्यों लगा है ? एक युवक जो अपनी जिज्ञासा को अधिक देर तक रोक न सका बस से उतर गया कारण जानने के लिए....पाँच मिनट में ही वापस आ गया और अपने साथियों को कुछ इस अंदाज में बताया कि आसपास बैठे और लोग भी सुन सकें...आगे दो-तीन लोग एक पुलिस वाले को पीट रहे है...क्या पुलिस वाले को...एक साथ आश्चर्य में डूबी हुई कई आवाजें एक साथ सुनाई दी | क्या जमाना आ गया है भई पहले पुलिस वाले निर्दोषों को भी पकड़ कर पीट देते थे और आज जनता ही उन्हे पकड़कर पीट देती है, पीछे से किसी बुजुर्ग की आवाज आई | अरे अंकल जी हो सकता है किसी महिला को कुछ उल्टा-सीधा बोल दिया होगा, आज कोई गलत व्यवहार बर्दाश्त नहीं करता, आखिर कानून तो सबके लिए एक समान ही है न...किसी जागरूक नवजवान ने कहा जो उस बुजुर्ग व्यक्ति के पास ही बैठा था...अरे नहीं भाई साहब आज तो उस पुलिस वाले को कानून का पालन करने के लिए ही पीटा जा रहा है कुछ मनचले दबंगों द्वारा...एक नवयुवक (जो शक्लोसूरत से पढ़ा-लिखा लग रहा था) बस में चढ़ते हुए कहा...क्या बात कर रहे भाई साहब वो कैसे? किसी ने पीछे से पूछा, मैं अभी तक चुपचाप उन लोगों की बातें सुन रही थी...अरे भाई वो ट्रैफिक पुलिस वाला है, अपनी ड्यूटी कर रहा था, एक ही बाइक पर तीन लड़के वो भी बिना हेलमेट सवार थे..उस ट्रैफिक पुलिस वाले ने अपनी ड्यूटी निभाते हुए उन लोगों को रोक लिया बस उन लोगों ने उस बेचारे को ही पीटना शुरू कर दिया....हे भगवान क्या जमाना आ गया है, एक महिला बोली...
बस चल पड़ी शायद कुछ पुलिस वाले आ गए और वो लड़के भाग गए....भीड़ भी जो तमाशबीन बनकर अब तक तमाशा देख रही थी तेजी से अपने अपने रास्ते चले गए...
खैर जैसे-तैसे मै अपने स्टैंड पर पहुँच गई और थककर चूर होने के बावजूद मैं जल्दी-जल्दी चल रही थी ताकि जल्दी से घर पहुँचूँ और चलते हुए यही सोच रही थी कि घर पहुँचते ही नहाऊँगी फिर उसके बाद ही चाय-वाय पिऊँगी...
मैंने दरवाजा खटखटाया बेटी ने तुरंत ही दरवाजा खोल दिया, मैंने अपना पर्स सोफे पर एक तरफ लगभग फेंकते हुए खुद भी सोफे पर गिर सी पड़ी..टी०वी० का रिमोर्ट कहाँ है बेटा?किसी न्यूज चैनल पर लगा तो कहीं कुछ हुआ है शायद...बेटी ने चैनल बदल कर रिमोर्ट मेरे ही पास रख दिया | मैं चैनल बदल-बदल कर देखने लगी कि शायद किसी चैनल पर वो समाचार दिखा दें जिसकी वजह से मैं इतनी देर तक जाम में फँसी रही, अचानक टी०वी० स्क्रीन पर नीचे समाचार परिवर्तित हुआ और लिखा हुआ आने लगा "यमुना विहार में कुछ लोगों ने मिलकर की पुलिस वाले की पिटाई"...पुलिस वाले की पिटाई!!! सचमुच समय कितना परिवर्तित हो गया है, पहले लोग निरपराध होते हुए भी 'पुलिस' शब्द से भी डरते थे, गाँव में किसी के घर पुलिस आ जाती तो आसपास के लोग अपने घरों में दुबक कर झाँका करते, सामने आने से डरते थे कि कहीं उनसे ही कुछ पूछ लिया तो...कहीं उन्हें ही न थाने पर बुलाकर पूछताछ करने लगें...लोग पुलिस और थाने के नाम से ही दूर भागते थे और आज का समय है कि लोग दोषी होते हुए भी अपने अपराध के कारण डरने की बजाय पुलिस वाले को ही पीट देते हैं....ये कोई दादी-नानी से सुनी कहानी नही है मैंने तो खुद इसका अनुभव किया है कि किस प्रकार लोग शिक्षा के अभाव में अज्ञानतावश, व कानून से अनभिज्ञता के कारण निर्दोष होते हुए भी अपराधियों की भाँति कानून यानि पुलिस से भागते थे........ये घटना उस समय की है जब मैं मैं कोई सात-आठ वर्ष की हूँगी........

रात के अँधेरे ने अपनी चादर तान दी थी,चारों ओर घना अँधेरा कि हाथ को हाथ सुझाई न दे, सन्नाटे की आवाज कानों मे सांय-सांय कर रही थी ऊपर नीले आसमान मे तारे ऐसे टिमटिमा रहे थे जैसे कि विस्तृत नीली चादर पर किसी ने असंख्य हीरे बिखेर दिए हों, दूर से कहीं किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी, न जाने क्यूँ वातावरण इतना डरावना सा हो गया था कि अपने ही दिल के धड़कने कीे आवाज डरावनी लग रही थी शायद इसलिए क्योंकि माँ डरी हुई थीं जो हमारा आधार हो, जो हमें आलंभ देता हो, जिसके आँचल के समक्ष वितान भी छोटा महसूस हो, जिसके आँचल तले हम खुद को इतना सुरक्षित पाते हैं जितना कि भगवान की छत्रछाया में भी नही..वही..वही माँ न जाने क्यूँ आज इतनी डरी हुई थीं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था...आखिर रात तो रोज ही होती है पर रोज के और आज के माहौल में इतना अंतर क्यों ? क्यों आज माँ इतनी सहमी हुई सी हैं? क्यों डर से मेरा दिल मुँह को आ रहा है? आखिर क्या होने वाला है? घर के बाहर खड़ी मैं अँधेरे में दूर मैदान के दूसरे छोर पर देखने की असफल कोशिश कर रही थी पर उधर अँधेरे में नीम के पेड़ की परछाई के अलावा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, आँखें अँधेरे में पापा की परछाई को ढूँढ़ते हुए थकने लगी थीं मैं वापस घर के भीतर आने के लिए सोच ही रही थी कि तभी मैदान के करीब बीच तक पहुँच चुकीं दो तीन परछाइयाँ दिखाई दीं मुझे...मैं डर गई क्योंकि पापा तो हो नही सकते...उन्हें तो अकेले आना चाहिए था, मैदान के किनारे-किनारे छोटे-छोटे घरों की कतार थी, सभी के दरवाजे बंद हो चुके थे...फिर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वो लोग हमारे ही घर की तरफ बढ़े आ रहे हैं...मैं जल्दी से अंदर भागी...माँ-माँ बाहर दो-तीन लोग आ रहे हैं....मैंने माँ को बताया,  क्या..वो भी घबरा गईं, कहाँ तक पहुँचे हैं?... चबूतरे के उस तरफ थोड़ी दूर हैं...माँ और घबरा गईं, मैंने तुझे बाहर इसीलिए खड़ा किया था न कि जब दूर से ही कोई परछाई दिखाई दे या जूतों की ठक-ठक सुनाई दे तो मुझे बताना..पर तेरा तो ध्यान ही पता नहीं कहाँ रहता है, बड़बड़ाती हुई माँ ने मेरे हाथ में दाल-चावल का वो कटोरा जल्दी से पकड़ाया जिसमें से वो मेरे छोटे भाई को खिला रही थीं...जल्दी से सबसे छोटे भाई को जो सो चुका था अपने कंधे पर डाला दूसरे का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए ही कहा चल...मैं हाथ में दाल-चावल का कटोरा पकड़े उनके पीछे-पीछे जल्दी-जल्दी चल दी...वो इतनी हड़बड़ी में थीं कि उन्होंने अपना जूठा हाथ भी नहीं धोया, बाहर आकर घर का दरवाजा भी बंद नहीं किया,  घर के बाँयी ओर ही सटकर चाची(पड़ोसी) के घर के बरामदे में चढ़ गईं बिजली न होने से अँधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, मुझे लगा कि अब वो दरवाजा खटखटाएँगी...पर ये क्या उन्होंने उनके बंद दरवाजे को बाहर से कुंडी लगा दी और मुझे और मेरे भाई को फुसफुसा कर चुप रहने का आदेश दे कर घेर की तरफ मुड़ गईं....अब तक मैं इतना तो समझ ही चुकी थी कि हम उन परछाइयों से छिप रहे हैं, वह घेर भी चाची के जमीन का ही एक हिस्सा था जो बरामदे से सटा हुआ था...बाहर से देखकर तो ऐसा ही लगता था जैसे कि ये कोई पतली सी गली होगी जो दूर तक निकल गई होगी, किंतु वो दरअसल जमीन का खाली पड़ा तिकोना हिस्सा था कोई २५-३०गज का, जिसमें घास और झाड़ियाँ उगी हुई थीं...वहीं उन्हीं घासों में बिना कीड़े-मकोड़ों से डरे एक कोने में माँ हम तीनों बहन-भाइयों को लेकर दुबक गईं...भाई को चावल-दाल खिलाने लगीं ताकि वो रोये न...आज न सिर्फ माँ को बल्कि मुझे भी कीड़े-मकोड़े, साँप आदि से उतना डर नहीं लग रहा था जितना कि इंसानों से...अचानक जूतों की खट-खट सुनाई दी, वो लोग बरामदे तक आ पहुँचे थे, जरूर वो पहले हमें हमारे घर में ढूँढ़ कर फिर यहाँ आए होंगे...अब मुझे समझ आ रहा था कि माँ ने चाची का दरवाजा क्यों नही खटखटाया...क्योंकि जितनी देर में वो दरवाजा खोलने आते उतनी देर में तो ये लोग हम तक पहुँच चुके होते...पर क्या यहाँ हम लोग बच जाएँगे? अगर हमें वहाँ न पाकर उन्होंने इधर झाँक भी लिया तो...? अब मुझे हमारा बचना मुश्किल लग रहा था...माँ पता नहीं क्या सोच रही होंगी, उनकी मनःस्थिति क्या है मै कुछ समझ नही पा रही थी...हम साँस भी इतने धीरे-धीरे ले रहे थे कि कहीं हमारी साँसों की आवाज भी उन तक न पहुँच जाए....दरवाजा खुलवाएँ...तभी उनमें से एक की आवाज आई, हाँ, अरे! लेकिन ये तो बाहर से बंद है...दूसरे की आवाज आई..लगता है भाग गए और पड़ोसियों को पता भी नहीं..हम चुपचाप साँसे रोके उनकी हर बात हर आहट सुनने की कोशिश करते रहे..मन ही मन मैं भगवान से प्रार्थना करती रही कि वो लोग इधर न आएँ..माँ ने तो मन ही मन न जाने कितनी मन्नतें माँग डाली होंगी..मैं तो डरी-सहमी माँ का हाथ पकड़े उनसे चिपक कर सहमी सी खड़ी रही पर वो तो अपना डर भी किसी से बाँट नहीं सकती थीं पापा भी पता नहीं कहाँ रह गए थे...रोज पाँच बजे आ जाते थे और आज इतनी रात तक भी नहीं आए थे, पता नहीं ये सब क्या और क्यों हो रहा था , दिमाग में सवालों का तूफान सा चल रहा था..मन कर रहा था कि माँ से पूछूँ..पर अभी तो बोल भी नहीं सकती थी..ये समय टल जाय, ये लोग जो भी हों यहाँ से चले जाएँ...सवाल तो मैं बाद में भी पूछ लूँगी...इधर देखें ? अचानक आवाज आई और ऐसा लगा कि वो लोग हमारी ही तरफ आने को मुड़े हैं...अब क्या होगा????...डर के मारे मेरे पैर काँपने लगे..आँखों से आँलू छलक आए,मैंने माँ को कसकर पकड़ लिया, अँधेरे में माँ का चेहरा साफ नजर नहीं आ रहा था पर शायद उनकी भी ऐसी ही स्थिति थी...ऐसा लगा किसी का पैर दिखाई दिया, अँधेरा अधिक होने के बावजूद अब तक आँखें अँधेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं शायद इसीलिए मैं देख पाई...तभी दूसरे साथी की आवाज आई अरे अब इधर क्या वो लोग खड़े होकर हमारा इंतजार कर रहे होंगे, अब तक तो क्या पता कहाँ निकल गए होंगे, चलो समय बर्बाद मत करो...और वह पैर जैसे घेर के भीतर आया था वैसे ही तुरंत बिना एक भी पल गँवाए वापस बाहर चला गया. फिर वही जूतों की ठक-ठक..परंतु इस बार दूर होती हुई..अब माँ ने एक गहरी साँस ली मानो कब से साँसें रोके खड़ी थीं, मेरी पकड़ भी ढीली पड़ गई...मेरे दिमाग मे एक नए प्रश्न ने जन्म ले लिया कि इनके जूतों से इतनी तेज ठक-ठक की आवाज क्यों आती है? मेरे पापा के जूतों से तो नहीं आती.....पापा..आं..पापा अभी तक नहीं आए, माँ पापा क्यों नही आए अब तक..मैंने बेचैन होकर पूछा,अब तक हृदय उन आगंतुकों के भय से ग्रस्त था..परंतु अब उधर से आश्वस्त हो गया तो पापा के लिए अंजाना सा डर फिर सताने लगा....आ जाएँगे, माँ ने लम्बी सी साँस छोड़ते हुए जवाब दिया, जैसे कितनी बड़ी चिंता को साँसों के जरिए बाहर निकाल देना चाहती हों....उसी स्थिति में जैसे हम गए थे वैसे ही बाहर आए..पर हाँ माँ चाची के दरवाजे की कुंडी खोलना नहीं भूलीं, हम फिर घर में आ गए घर में घुसते हुए भी माँ थोड़ी सतर्क नजर आ रही थीं, उन्हें ऐसे चौकन्ना देख मुझे भी डर लगने लगा..कितना अजीब है न ये समय जो घर अभी कुछ देर पहले तक हमें पनाह देकर हमारे सारे दुख और डर से हमे बचा रहा था अभी वही घर एक पल में डरावना सा लगने लगा है, तेल के दिए की कमजोर सी रोशनी अभी भी घर में ज्यों की त्यों बिखरी हुई है, फिरभी ऐसा लग रहा है कि कहीं कोई छिपा हुआ बैठा न हो...धीरे-धीरे माँ भीतर के कमरे में गईं और छोटे भाई को गोद से चारपाई पर सुला दिया..बाहर आईं तो आश्वस्त दिखाई पड़ रही थीं. अब विश्वास हो गया कि घर में हमारे अलावा कोई नही है...उन्होंने बड़े भाई जो लगभग चार साढ़े चार साल का था उसे खाना खिलाया..पर मुझे तो पापा का इंतजार था मैं तो उन्हीं के साथ खाऊँगी..बेटा अब खा ले पापा देर से आएँगे आज ओवर टाइम कर रहे हैं, खबर तो भिजवा दिया था शाम को ही..माँ ने कह, तो पहले क्यों नहीं बताया, मैंने तुनक कर कहा..पहले थोड़ा परेशान थी न इसीलिए, चलो अब खाना खाओ और सो जाओ, माँ वो लोग कौन थे? ..मैंने उत्सुकता से पूछा,
पुलिस..माँ ने बताया
क्या ! ल..लेकिन..पुलिस हमारे घर क्यों आई थी ? कहीं वो लोग पापा को पकड़ कर तो नहीं ले गए? मैंने डरते हुए पूछा
नहीं नहीं ऐसा नहीं है , बेटा वो लोग पापा के ऑफिस के किसी दूसरे आदमी को ढूँढ़ रहे थे, और उस आदमी के जितने भी दोस्त और रिश्तेदार होंगे उन सभी के घर उसे ढूँढ़ेगे...माँ ने बताया
तो हम लोग क्यों छिप रहे थे? मैने मासूमियत से पूछा..
अगर हम उन्हें मिल जाते तो वो हमसे पूछते और हम नही बता पाते ते वो हमें परेशान करते. इसीलिए पापा ने कहलाया था कि हम छिप जाएँ..माँ ने मुझे समझाने की कोशिश की..अब तक भाई नीचे फर्श पर बैठा-बैठा माँ की गोद में सिर रख कर सो गया था...माँ ने उसे भी ले जाकर चारपाई पर सुला दिया और मेरे पास आकर बैठते हुए बोलीं, चलो तुम भी खाकर  सो जाओ, माँ ने कहा और मुझे खाना खिलाने लगीं | माँ छोटे-छोटे निवाले बना-बना कर मुझे खाना खिलाती रहीं और न चाहते हुए भी बार-बार उनकी नजर दरवाजे की तरफ उठ जाती, वो अभी भी बेचैन दिखाई दे रही थीं वैसे वो बहुत कोशिश कर रही थी मुझसे अपनी बेचैनी छिपाने की..मैं बहुत छोटी थी फिरभी इतनी समझदार तो थी ही कि अपनी माँ के चेहरे पर बदलती भाव-भंगिमाओं को समझ सकती थी | आज सोचती हूँ तो समझ पाती हूँ कि उस समय मेरी माँ की मनःस्थिति क्या रही होगी? जिस प्रकार हर बच्चा अपनी माँ की गोद में आकर दुनिया भर की खुशियाँ प्राप्त कर लेता है और स्वयं को सबसे बड़ा धनाड्य समझता है, जिस प्रकार एक बच्चा पिता की उँगली थाम कर स्वयं को सभी मुश्किलों सभी डर से सुरक्षित महसूस करता है उसी प्रकार एक पत्नी भी परिवार के अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में अपने पति की उपस्थिति में ही स्वयं को सुरक्षित और दृढ़ महसूस करती है | माँ ने मुझे खाना खिला कर बिस्तर पर लिटा दिया और हमारे ही पास बैठ गईं धीरे-धीरे मेरा सिर सहलाते हुए कुछ सोचने लगीं, मुझे निद्रा ने कब घेर लिया मुझे पता ही नहीं चला....
चहल-पहल की आवाज सुनकर मेरी नींद खुली, छोटा भाई रो रहा था शायद दूध के लिए क्योंकि माँ दूध उबाल रही थीं, और बड़ा भाई पापा की गोद...अरे! पा..पा.. पापा मैं खुशी से उछल पड़ी, जैसे मन की मुराद पूरी हो गई हो, मेरे पापा मेरे सामने जो थे | कब आए आप, इतनी देर क्यों कर दी? पता है हम लोग कितना डर गए थे? आपको क्या, हमें भी तो अपने साथ लेकर जा सकते थे..मैं बिना रुके लगातार बोलती जा रही थी और माँ मुस्कुराती हुई चुपचाप मुझे देख रही थीं...अरे बाबा चुप होगी तब तो मैं बोलूँगा..मालूम है, माँ ने बता दिया था, मैंने मासूमियत से जवाब दिया..लेकिन पापा वो लोग दुबारा तो नहीं आएँगे? मैने पापा के बगल में बैठते हुए उनकी बाँह ऐसे मजबूती से पकड़ ली जैसे मैं कहना चाहती हूँ कि अब मैं आपको जाने नहीं दूँगी | अरे पगली डरती क्यों है आज सब ठीक हो जाएगा, पुलिस वाले ही तो थे, जिनके लिए आए थे वो आज जाकर कचहरी से जमानत ले लेंगे फिर हमारा कोई लेना-देना ही नहीं....फिर क्यों आएँगे | पर पापा उनसे कहना कि जरूर-जरूर से जमानत ले लें उनकी वजह से हम कितने परेशान हुए हैं उन्हें कहाँ पता? मैंने ऐसे जिद किया जैसे खिलौना माँग रही हूँ, क्यों न हो हर बेटी का पिता उसके लिए भगवान के जितना महत्त्व रखता है बेटी की नजर में दुनिया में ऐसा कोई कार्य नही जो उसके पिता न कर सकें..मेरे पापा भी मेरे लिए हीरो ही थे और मुझे पूर्ण विश्वास था कि वो सबकुछ कर सकने में सक्षम थे फिर जमानत क्या चीज थी, ये तो मुझ नादान की समझ में पापा के लिए दुकान से लालीपॉप खरीद कर लाने जितना आसान था |
मम्मी..मम्मी...अचानक बेटी की आवाज आई...ह..हाँ बेटा! क..कुछ कहा क्या ? मैं विचारों मे इतनी खो गई थी कि मुझे होश ही नही रहा कि मुझे नहाना भी है | विचारों में तल्लीनता के कारण मैं गर्मी और पसीने से होने वाली चिपचिपाहट भी भूल गई थी.....सचमुच कितना परिवर्तन आ गया है आज के और पहले के लोगों के आचार-विचार और व्यवहार में, एक वो समय था और एक आज का समय है....आज गलत को गलत कहना भी कितना मुश्किल है, खैर...

आप चाय पियोगी? बेटी ने पूछा
हाँ तू चाय बना तब तक मैं फ्रेश हो जाती हूँ.....कहकर मैं बाथरूम की तरफ बढ़ गई......

शनिवार

राजनीति का काला पन्ना

राजनीति का काला पन्ना
आतंकी की रक्षा का समर्थन
आज यही बतलाता है,
आज पशु नही मानव भी
सिर्फ इपना स्वार्थ दिखलाता है....
देश सेवा के नाम पर
समाज पर पकड़ बनाता है,
कानून के नाम पर
जनता में भ्रम फैलाता है....
जनता का मुखिया बनकर
जनता में लूट मचाता है,
अपनी तिजोरियाँ भरने को
गरीबों की रोटियाँ गिनता है....
जनता को अशिक्षित रखना
इनकी चाल दिखाता है,
जान सको तो जान लो इनकी
हर चाल एक नई दिशा दिखाता है....
जिसने दहलाया देश को
जिसने नर संहार किया,
उस अपराधी को सहानुभूति दे
तुमने इंसानियत को धिक्कार दिया....
किसी ने खोया अपना पिता
किसी ने खोया अपनी मात,
किसी से बिछड़े उनकी संतान
तो कोई हो गया अनाथ....
सबके जीवन को तहस-नहस कर
जो जीत की खुशी मनाता है,
आज उसी के मृत्यु दंड पर
समाज का एक वर्ग प्रश्न उठाता है....
यह घटना करती समाज के
उन रहनुमाओं को बेनकाब,
इनमें ही छिपे हुए हैं टाइगर
दाऊद, याकूब और कसाब....
हिंदुस्तान की नरमी बनी है
आज इसी के लिए अभिशाप,
हिंदी, हिंदू,हिंदुस्तान की
भक्ति लगती इनको पाप....
जिस देश का नमक ये खाते हैं
करते उससे ही नमक हरामी,
देश के दुश्मन आतंकियों की
चंद सिक्कों के लिए करते हैं गुलामी....
देश संवारने आए थे ये
बन कर जनता के पथ-प्रदर्शक,
देश का भविष्य बेचकर
बन जाते हैं मूक दर्शक....
नापाक इरादे लेकर पलते
आतंक का हुकुम बजाते है,
भारत की पीठ में छुरा घोंप
भारतवासी कहलाते हैं....
आतंकवादी की सुरक्षा खातिर
हर पैंतरा अपनाते हैं,
कानून के नाम पर ही
कानून का मखौल उड़ाते हैं....
जनहित के कानून का प्रयोग ये
आतंक के हित में करते हैं,
खेल-खेल कर दांव पेंच
दहशत गर्दी को बचाते हैं....
चंद सिक्कों की खनक में
बेच दिया अपना ईमान,
आज न कोई भाई-बंधु
न दिखता अपना देश महान....
अपनी अमिट भूख मिटाने को
तलवे चाटें दहशत गर्दी के,
हत्या करके अपने जमीर का
बन गए गुलाम उनकी मर्जी के....
धर्म-जाति की आग लगाकर
वोट का बैंक बढ़ाते हैं,
भड़काऊ भाषण दे-देकर
जनता को भड़काते हैं....
सीधी-सादी भोली जनता
इनकी बातों में फँसती है,
ऐसे में दहशत गर्दी
अपना शिकंजा कसती है....
पर भूल गए ये अटल सत्य
हर झूठ की होती शाम है,
जहाँ जन्मे कंस और रावण
वहीं पर कृष्ण और राम हैं....
जिस देश में हमने जन्म लिया
उस देश के हम आभारी हैं,
जागो हिंद के वासी दिखला दो
भारत माँ हमको कितनी प्यारी है.........