मंगलवार

आगे बढ़ता चल

जीवन एक संग्राम है,
लड़ना तेरा काम है
बिना थके बिना रुके 
बढ़ता चल चलता चल
दुष्कर हैं राहें तो क्या, 
पथ में बिछे हों कंटक तो क्या
अदम्य साहस और धैर्य से
राहों को सरल बनाता चल
कंटक को पुष्प समझ उनको
चुनता चल आगे बढ़ता चल, 
चलता चल....चलता चल.......

मालती मिश्रा

शनिवार

रिश्तों के बिगड़ते चेहरे

अक्सर समाचार-पत्रों में, टी०वी० समाचार में ये पढ़ने और देखने को मिलते हैं कि बेटे ने बूढ़े माँ-बाप को घर से निकाल दिया, या माँ-बाप को प्रताड़ित करते हैं या वृद्धाश्रम में छोड़ दिया आदि-आदि।
सचमुच बहुत ही दुःख की बात है जो माता-पिता अपना खून-पसीना एक कर न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए अपनी औलादों की परवरिश करते हैं उनकी औलादें जब फर्ज पूरा करने का समय आता है तो अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिए इतना अशोभनीय कृत्य करते हैं। ऐसी खबरें तो आएदिन सुनने को मिलती हैं। परंतु कभी ऐसी खबर सुनने को नहीं मिलती कि रीति-रिवाजों और रूढ़ियों में अंधे होकर माता-पिता ने अपनी ऐसी औलादों को घर से निकाल दिया या उसे जिंदगी भर अपमानित करते रहे जो अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को बार-बार अपमानित होने के बाद भी पूरी करने की कोशिश करता रहा, किंतु माँ-बाप या स्वार्थी भाई-बहनों के व्यवहार में खून के रिश्ते ने कभी जोर नहीं मारा। विचार या पसंद भिन्न होने के उपरांत तो जन्म देने वाली माता के प्रेम में भी स्वार्थ आ जाता है।
अक्सर माता-पिता को कहते सुना जाता है कि "हम जो कुछ भी कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए ही तो कर रहे हैं, हमारी सबसे बड़ी पूँजी हमारे बच्चे हैं या बच्चों से बढ़कर हमारे लिए दुनिया में कुछ नहीं या बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है" आदि। परंतु जब मैं समाज की ओर देखती हूँ तो मुझे माता-पिता की ये बातें बिल्कुल खोखली लगती हैं। आजकल अधिकतर माता-पिता का ये अगाढ़ प्रेम तब तक ही दिखाई देता है जब तक बच्चा छोटा और मासूम होता है, जब तक बच्चे की मासूम तोतली बातें उन्हें लुभाती हैं बस तब तक ही उनका प्रेम भी निस्वार्थ निष्पक्ष (सभी बच्चों के लिए समान) और निश्छल होता है। क्योंकि तब तक वो बच्चे को अपने तरीके से अपनी पसंद और अपनी सहूलियतों से पालते हैं।
जब तक बच्चा छोटा होता है तब तक जो माता-पिता उसके लिए निःस्वार्थ भाव से जान तक देने को तैयार होते हैं वही माता-पिता बच्चों के बड़ा होने पर भूल जाते हैं कि यह वही बच्चा है जिसकी खुशी में उन्हें अपनी खुशी दिखाई देती थी, यदि बड़ा होकर वो बच्चा अपनी खुशी के कोई ऐसा फैसला ले लेता है जिसमें माता-पिता की पसंद शामिल नहीं होती तो वही माता-पिता अपने उसी जान से प्यारे बच्चे को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं जैसे कभी उससे उनका कोई रिश्ता रहा ही न हो। तब वो अपनी बड़ी-बड़ी निस्वार्थ बातों को भूल जाते हैं। वो यह नहीं सोचते कि यदि उन्होंने बच्चे की खुशी ही सर्वोपरि रखी है तो अब उन्हें अपने ही बच्चे की खुशियों से तकलीफ क्यों होने लगी? 
फिर सही क्या है???
क्या बच्चे को उन्होंने अपनी खुशी के लिए पाला? यदि हाँ तो छुटपन से ही बच्चे के दिमाग में ये क्यों डालते हैं कि वो अपनी औलाद की खुशी और उसके सुखी जीवन के लिए कुछ भी करेंगे.. ऐसे माता-पिता यह समझ नहीं पाते कि उनकी इस कृत्य से उनकी ही दूसरी संतानें अपने ही भाई या बहन के खिलाफ अपने माता-पिता के कान भरकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगते हैं क्योंकि कहा गया हैै  'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया' आजकल धन-दौलत जायदाद के लिए भाई भाई का गला काटने को तैयार है, फिर यदि ये मौका माता-पिता ही दे देंगे फिर तो ऐसे मौकापरस्त भाई-बहनों की 'चाँदी ही चाँदी' है। 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा' न उन्हें प्रॉपर्टी के लिए भाई से लड़ना पड़ेगा न किसी की नजर में आएँगे बस माँ-बाप को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे होते हैं आजकल के खून के रिश्ते। 
दूसरी तरफ कुछ ऐसे माँ-बाप भी होते हैं जो अौलाद के प्रेम में उसके अनैतिक कार्यों में भी उसका साथ देते हैं जो संपूर्णतः गलत है क्योंकि सही-गलत का ज्ञान कराना भी माता-पिता का ही काम है। 
मैं यह नहीं कहती कि सभी माता-पिता ऐसे ही होते हैं परंतु मेरी बातों से इंकार भी नही किया जा सकता कि बहुत से माता-पिता ऐसे ही होते है।
और दुःख की बात ये है कि वही माता-पिता अपनी एक संतान की सभी गलतियों को नजर अंदाज कर दूसरी संतान की छोटी-छोटी गलतियों को भी महत्वपूर्ण बना देते हैं।
किंतु ऐसा होना लाजिमी है यदि सबकुछ सही होगा तो ये कलयुग न होगा, ऐसे ही होते हैं-
"कलयुग के खून के रिश्ते"

मालती मिश्रा

बुधवार

न्याय की देवी


ये कानून की अंधता नहीं तो और क्या है कि आतंकियों को मारने वाला 9 साल जेल में रहता है और आतंकियों के समर्थक ओवैसी,कन्हैया,उमर खालिद और उनको संरक्षण देने वाले केजरी, राहुल गाँधी आदि पूरी सुरक्षा और सुविधाओं के साथ स्वतंत्र घूमते हैं।

न्यायालय में न्याय की देवी 
रहती आँखों पर पट्टी बाँधे 
आज समय आ गया है कि 
हम उस पट्टी को हटा दें 
वो देखे देश में आज
क्या-क्या दुर्घटनाएँ घट रहीं 
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर 
जनता कैसे बँट रही 
न्याय के मंदिर में कैसे 
सत्य की बोली लगती है 
दोषी पाकर सुरक्षा घूमें 
निर्दोषता खड़ी बिलखती है 
सत्य-असत्य पृथक करने की 
जिसने भी सौगंध उठाई 
नोटों की हरी गड्डी के समक्ष 
काले कोट की कालिमा गहराई 
मालती मिश्रा

सोमवार

कर्तव्यविहीन

कर्तव्यविहीन
आज का व्यक्ति क्या चाहे 
बिना परिश्रम सुुख बेशुमार
कर्तव्यों को दिया बिसार 
पाना चाहे सम्पूर्ण अधिकार
कभी आरक्षण और कभी 
मुफ्त बाँटने वाली सरकार
देश चाहें सशक्त और विशाल
कर चुराकर चाहें  
घर में हो टकसाल
पथभ्रमित हो चुके मानव की
इन ख्वाहिशों को बना आधार
सुरक्षा के नाम पर असुरक्षा
बाँट रही सरकार
मेहनत से सब भाग रहे 
मुफ्त की आस में ताक रहे
अवैध जमीन,अवैध सुविधा 
पाने को सब हैं बेकरार
कर्तव्यविहीन क्या चाहे 
कर्म बिना सुख बेशुमार

शनिवार

भारत की जय न बोलेगा

खा कर भारत माँ का अन्न, पीकर के इसका ही नीर
प्राण वायु के लिए चाहिए, इसी देश का सुरभित समीर।
विधना ने तुझको भेजा जहाँ, वो भी तो है हिंद की जमीं 
मातृभूमि का अपमान करके, तेरी सांसें क्यों न थमीं।
जिस माँ ने तुझको जन्म दिया, तूने उसको दुत्कार दिया
गर मातृभूमि की जयजयकार, करने से तूने इंकार किया।
गर कहता है कि तू, भारत की जय न बोलेगा 
फिर सोच ले तू कि देशप्रेमियों का, खून क्यों न खौलेगा।
खाता है जिस थाली में, छेद उसी में करता है 
जिस पाक से न कोई नाता रिश्ता, तू उसी पर मरता है।
जिस भारत में जन्म लिया,जिसकी माटी ने किया दुलार
जिसने अपनी ममता का, आँचल तुझ पर दिया पसार।
उसी माँ को माता कहने में, तेरी जिह्वा घिसती है 
इंसान की शक्ल में भेड़िया है तू, इंसानियत की क्या हस्ती है।
खाकर नमक हिंद का, नमक हरामी करता है 
बेच दिया धर्म-ईमान, आतंक की गुलामी करता है।
देश के ऐसे गद्दारों का, अधिकार नहीं है आजादी 
सबक सिखाते रहना है, जब तक न बोले "जय भारत माता की।"
जय हिंद.....
मालती मिश्रा